________________ (24) सेठियाजैनप्रन्यमाला लाभ नहीं होता, जितना होना चाहिए / इसलिए आज का पाठ कभी मत भूलना। सुनो, सामायिक समभाव को कहते हैं / अर्थात् प्रासंध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके संसार सम्बन्धी समस्त संकल्प विकल्पों और कार्यों का त्याग करके, कम से कम एक मुहूर्त पर्यन्त शत्रु मित्र पर समभाव रखना सामायिक व्रत है / सामायिक दो तरह की होती है। (1) भावसामायिक और (2) द्रव्यसामायिक / बाहर की सब वस्तुओं का त्याग करके आत्म-स्वरूप के चिन्तन में मग्न होने को भावसामायिक कहते हैं। दूसरी द्रन्य सामायिक अर्थात् शास्त्रोक्त समस्त विधिका पालन करना / सामायिक के लिये ऐसा एकान्त स्थन चुनना चाहिए, जहां कोलाहल न हो, मन में क्षोभ पैदा करने के हेतु न हों और जो किसी प्रकार से अशुचि न हो / सामापिक में शरीर को अलकारों से अलत करने और बहुमूस्य वस्त्रों को आवश्यकता नहीं, किन्तु दो सादे स्वच्छ और सफ़ेद वस्रों को आवश्यकता है-एक प्रोढने के लिए दूसरा पहनने के लिए। इनके सिवायथासंभव एक आसन, मुखवत्रिका रजोहरणी माला और सामायिक में उपयोगी धार्मिक पुस्त. क भी होवे तो अत्यन्त श्रेयस्कर है। __ सामायिक में मन बचन काय की शुद्धि रखना आवश्यक है। वचन और काय की प्रवृत्ति मन की प्रवृत्ति पर अवलम्बित है / जैसे कलंदर बन्दर से मन चाहा नाच नचाता है, तैसे ही मन, वचन और तन से अपने अनुकूल काम कराता है। जिसने मन को वश में किया, उसने वचन और काय को भी वश में कर लिया समझा। मन को स्थिरकिये बिना विषम भावों का परित्यागकरसमभावों