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णमोत्थुणं भगवओ महावीरस्स।
श्रीभूपेन्द्रसूरि-जैनसाहित्य-पुष्पात: १ जगत्पूज्य-गुरुदेव-जैनाचार्य-श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-श्रीमद्विजयधनचंद्रसूरीश्वरेभ्यो नमः ।
श्रीमाकेशरविमलगणिना विरचितभाषाकवितानुसारेण श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय स्त्र० पू० पा० साहित्यविशारद-विद्याभूषण-जैन श्वेताम्बराचार्यश्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर-विरचिता संस्कृतगद्यमयी
सूक्तमुक्तावली।
संशोधका मुनिश्रीगुलाबविजयोपाध्यादिमुनयः
प्रकाशयित्री-श्रीभूपेन्द्रसरिजैनसाहित्यसमितिः मु. पो. आहोर ( मारवाड़) भीवीरनिर्वाण-सं. २४६६
प्रथमावृत्ति ५०१
विक्रम-सं. १९९७ श्रीराजेन्दरि-स.१५
मूल्य-सदुपयोग
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सादराञ्जलीगुरुस्तुतिः-- श्रीराजेन्द्रगुरुर्जनोपकृतिके लीनो ह्यभूनौमि यं ।
राजेन्द्रेण कुलातिमहिना यागन्ति यसै अमे ॥ राजेन्द्रात्तु जनाः स्वधर्मनिरता यस्यैव निर्देशगा ।
राजेन्द्र गुरुसद्गुणास्तमभवन् तस्माद्भजन्तेऽखिलाः ॥ १॥ सत्कीर्तिरुणार्जितातिविमला ज्ञानक्रियाभ्यां बुधाः ।।
सञ्जित्याखिलवादिनश्च समिती विस्तारितः सज्जयः ॥ सच्छास्त्रैः स्वकृतैर्विदामुपकृतं राजेन्द्रकोशादिकैश्चके चैवमनेककार्यमवनौ राजेन्द्रसूरीश्वरः ॥ २ ॥
मुदक:-शेठ देवचर यामजी, आनंद प्रेम-भाषनगर
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जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर गुरुगुणाष्टकम्---
( इन्द्रवज्जा )
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३ ॥
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५ ॥
यस्य स्वरूपं प्रवरं प्रसिद्धं, यो भव्ववृन्देन सदैव मान्यः । भट्टारकश्रीविजयादियुक् तं राजेन्द्रसूरि सुगुरुं हि बन्दे आधन्तपर्यन्त सुयोगबुद्धया, निर्दोषचारित्र विभूषितात्मा । शीतादिदुःखान्यजयश्च तस्मिन् राजेन्द्रवरि जयिनं हि मन्ये राजेन्द्रकोषाभिधकोश मुख्यो ऽप्येवञ्च शास्त्राण्यपराण्यकारि । ज्ञानं तथा ध्यानममुष्य सत्यं, राजेन्द्रसूरि विबुधं हि सेवे यस्योपदेश हृदयंगमोऽभूद्, भव्यात्मनि द्योतकरप्रदीपः । षड्दर्शनानां स्फुटयोधकर्ता, राजेन्द्रसूरि तरणि हि भेजे ॥ ४ ॥ सत्यप्रविष्ठा महतीह लोके, ज्ञानक्रियाद्यैः सुगुणैस्तु यस्य । आबालवृद्धा हि विदन्ति सर्वे, राजेन्द्रसूरि कृतिनं हि नौमि अर्हत्प्रतिष्ठाञ्जनकानि हर्पे - जोद्यापनानि व्रतशालिनाश्च । लेभे सुकीर्ति ह्यतिकारयित्वा राजेन्द्रमूर्ति गुणिनं समीडे सर्वत्र वादे जयमेव लेमे, भूयश्व वर्षेषु धर्मकार्यम् । इत्थं विहारेऽपि सुकीर्तिमाप, राजेन्द्रसूरि प्रवरं हि जाने जातीयमुद्धारकमत्र चक्रे, धीरोल कार्दो सुविदन्ति सर्वे । एवं प्रजानामुपकारकोऽभूद्, राजेन्द्रसूरि सुतारं हि बुध्ये ले यो जन्म दीक्षां च भरत उदये साऽऽज्ञया हेमपार्श्वे चाऽऽहोरेऽस्यां सुपूज्यो व्रतसमितिद्युतो जावरापत्तनेऽभूत् । श्रीमद्राजेन्द्रवरिस्त्विति विजययुतः ख्यातितामाप सर्वान, स स्वर्गी राजदुर्गे दिशतु शमिति मे वक्ति साधुर्गुलाबः
॥ ८ ॥
॥ ९ ॥
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२ ॥
॥
॥
६ ॥
॥ ७ ॥
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टीम मन्तिमस्रग्धरापद्यस्य - पूर्णसुन्दरतरे भरतपुरे निवासिन ओसवंशीय - पारिस्वगोत्रीय श्रेष्ठीवयं श्रीपभदासस्य केसरीनाम्या स धर्मचारिण्याः कुक्षितः सुसमये रत्नराजीयं जन्म वैक्रमीयेऽल्दे गुणवसुगजेन्दुवत्सरे १८८३ समजायत । तदनु लघुवयस्येव सकुटुम्बमातृपित्रोरनुज्ञामादाय यतिवर्यैश्रीममोदविजयबृहद् गुरुभ्रातृहेमविजयेन वेदाभ्राकभूवत्सरे वैशाखशुक्लपञ्चम्यां भृगुवासरे महता समारोहेणोदयपुरे प्रदीक्ष्य श्रीरत्न विजयनाम्नाऽपप्रथत । पुनस्तत्रैय कालान्तरेण तद्धस्तेनैव गुरुदीक्षाष्यभूत् । तस्यामेव यतिदीक्षायां स्वगुरु श्रीप्रभोदसूरिणा श्री संघसमस्या चतुर्विंशत्यधिककोनविंशतिवत्सरे माध्यशुभ्रपञ्चम्यां सोत्सवेन श्री पूज्योपाधिना श्रीरत्नविषयोऽलंकृतः सन् श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिनाम्ना
ख्यातिमाए ! ततो मरुधर - मेवाड़ - मालवादिदेशेषु श्रीपूज्यपदवीं प्रकाशयन् क्रमेण जावरापुर्यामाजगाम । तत्र प्राचीन श्री पूज्येन गच्छसुधारात्मकनर्वानियमानि स्वाकारयित्वा श्रधिकृत भक्त्युत्सवेन पञ्चविशत्यधिककोनविंशतिवर्षे आषाढशुषलदशम्यां शनिवासरे पूज्यं समयपरिग्रहं त्यक्त्वा पञ्चसमितित्रिगुप्तियुक्तमहाव्रतधारी प्रसिद्धकियोद्धारकः सुगुरुर्जज्ञे । तदनन्तरं देशदेशान्तरीयभूमण्डले विहृत्य पष्टितुर्मासीं विधाय जिनशासनं समुन्नीय भव्यजीवांश्र समुध्धृत्य त्रिषष्ट्यधिकैकोनविंशतिसंवत्सरे पौषसित सप्तम्यां मालवदेशस्थराजगद्दन गरे स्वर्गसुखं संजगृहे । स श्रीगुरुवर्य्योऽखिलान् जोवान्मे च श्रेयो दिशतु इति श्रीगुलावविजयो मुनिः सफलश्रीसंघसमक्षे निगदति ।
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अथ जैनाचार्य श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वर-गुरुगुणाष्टकम्
................-(उपेन्द्रवजावृत्ते).newmar.. अनेकधर्माकुलविश्वसिन्धोः, सुरत्नवच्छासनमाईतं सत् । प्रपद्य योऽभूक्किल विश्वबन्यो, नमामि सं श्रीपनचन्द्रसरिम् ॥ १ ॥ सदा मदाविष्टधियो द्विषोऽपि, सदागर्मवेर्मितविग्रह यम् । विलोक्य विम्युर्विधुतात्मगा, नमामि हे श्री. सुखश्रवां कर्मवितानहन्त्री, यदीयवाचं मुनिपीय भव्याः । अमर्त्यलोकं कति संप्रयाता, नमामि से श्री.
धर्ममार्गे पतता जनानां, शिवाय योऽदात्सुजिनोपदेशम् । कपायदोषोजितमार्यवेश, नमामि तं श्री० ॥४ यदीयसौजन्यगुणान्प्रभाते, मुदा सुमायन्ति बुधा हि नित्यम् । नितान्तशान्तं द्विजराजकान्त, नमामि दे श्री० ॥५॥ परोपकारार्थमलभविष्णुः, करालकर्मारिकते च जिष्णुः । बभूव यो वै नितरी सहिष्णु-नमामि तं श्री० ॥६॥ दयामयः सत्कृतसभ्यवर्गः, समस्तमज्यार्षितपादपयः । ररक्ष यो जन्तुगणान्विपत्ते-नमामि तं श्रीधनचन्द्रमरिम् ॥ ७ ॥ यदीयनामस्मरणात्पुनीते, सकिल्बिषोऽपि द्रुतमत्र लोके । पत्र सौख्यं च लघु प्रयाति, नमामि तं श्री० ॥८॥ दिवामुखे योऽष्टकमेकवारं, पठेन्नरः श्रीधनचन्द्रघरेः । लमेत नूनं स निजात्मबोधं, ब्रवीति हंसो हि हितः समेषाम् ॥९॥
मुनि इंसविजय
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श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर-गुरुगुणाष्टकम् ।
runm.mor(इन्द्रवजाछन्दसि)-re.......... दुष्प्राप्यमत्रार्यकूले नरत्वं, संप्राप्य पार्हदृषमिद्धतत्वम् । चन्द्रावदात भुवि सुप्रभातं, भूपेन्द्रसरि सुभजन्तु भव्याः ! ॥१॥ विद्योविता येन धिया धरित्री, पात्रीकृता भूरिजनाः शिवस्य । सपिन्द्रमनन्तको पन्द्रसरि० ॥२॥ क्षान्त्या क्षिति योऽजयदब्धयश्च, गांभीर्यतो येन कृता अनुच्चैः। शान्त्या च सन्तस्तमनल्पबोध, स्पेन्द्रसरि० ॥३॥ यत्कीर्तिमालानिभपाठशाला,-स्तीखीनगर्यादिषु जैनयालाः । संश्रित्य यलोकममिष्टुवन्ति, भूपेन्द्रसरि० ॥ ४ ॥ वाचां बिलासैः सुधियां धियोऽपि, चित्रीकृताः संसदि येन भूरि । सं लोकमान्य नितरां पदान्य, भूपेन्द्रसरि० ॥५॥ जाज्वल्यमाने महसां सुपुले, विद्योतते भव्यजनो यदीये। दंदह्यते वेषिपतलिका तं, भूपेन्द्रसरि० । यं कल्पवाभमुपेत्य भव्याः,श्रेयःफल प्रापुरमन्दमावैः । गेयं सतां परिशिरोमणि तं, भूपेन्द्रसरि ॥७॥ यत्स्थापिताश्चत्यपताकिकास्त, वातेरिता अगुलिसवयेव । आकारयन्तीव जिनं दिशून्, भूपेन्द्रपरि० . प्रभाते पटेदष्टकं यः सुभक्त्या, गुरोः श्रीलभूपेन्द्रसरेच नित्यम् । इहामुत्र कल्याणसौख्यं प्रयाति, विशाल कुलं स्वर्गलोकच नूनम्
मुनि कल्याणविजय
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प्राथमिक-वक्तव्य
प्रियपाठकगण ! जैनसाहित्य द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरितानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चार विभागों में विभक्त । है । प्रस्तुत ग्रन्थ इन विभागों में से धर्मकथानुयोग का ही एक शुभ ग्रंथ है। इस ग्रंथ का निर्माम विक्रमसं. १७१४ में पं. श्री ।
केशरत्रिमलजी मणिवरने किया है जो कि-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों विभागों में विभक्त है ग्रंथप्रणेताने इस ग्रंथ में :
हरएक विषय पर भाषा छन्द देकर उसका विवेचन अच्छे ढंग से किया है और प्रत्येक विषय की पुष्टि करने के लिए शास्त्रीय । का प्रमाणों से युक्त कथाएं देकर ग्रंथ की उपादेयता को और भी बढ़ा दी है । प्रायः यह ग्रंथ मालिनी छन्द में ही विशेष निबद्ध है । || और अनेक विषय की उपदेशरूप सूक्तोक्ति होने के कारण ग्रंथ का नाम भी 'यथा नाम तया गुणः' इस कहावत के अनुसार | प्रक्तमुक्तावली ऐसा यथार्थ नाम रखा गया है । यह ग्रंथ भीनसिंह माणक के द्वारा मुद्रित होचुका है। इस ग्रंथ की भाषा १८वीं
शताब्दी में प्रचलित गूर्जर व अन्यदेशीय भाषाओं से मिश्रित है। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिये इस ग्रन्थका मनन काना अत्यावश्यक है। कर्ताने हेय उपादेय विषयों का दिग्दर्शन अच्छी शैली से किया है। ऐसे अमूल्य और योग्य प्रेय के विषय से. संस्कृत के
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विद्वान वंचित न रहें, साथ ही साथ व्याख्यान देनेवाले साधु-साविओं के लिये भी इस ग्रंथ को अत्युपयोगी समझ कर पू० पा० सा०वि० विद्याभूषण आचार्यदेव श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा०ने सं. १९८१ में इस ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद सरल मधुर एवं ललित भाषा में किया था। परन्तु आपकी विद्यमानता में यह ग्रंथ कतिपय कारणवश प्रकाशित न होसका आप के स्वर्गवास बाद सर्वानुमति से यह प्रताव पास किया गया कि-स्वर्गवासी सूरीश्वरजी के उपदेशद्वारा साहित्य प्रकाशनार्थ जो द्रव्य श्रीसंघ में एकत्रित है उस द्रव्य का सदुपयोग आप के बनाये हुए ग्रंथप्रकाशन व ज्ञानरक्षानिमित्त भंडार में किया जावे । ऐसा निश्चय कर आप की चिरस्मृति में सं. १२१ चैत्र बदि २ को आगे। मारवाड़ में नर्तमानाचार्य व्या. वा. पू. पा. श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज आदि मुनिमंटलने मिलकर आप के रचित ग्रंथप्रकाशन निमित्त 'श्रीभूपेन्द्रमरि जैनसाहित्यप्रकाशकसमिति' कायम की और समिति की आर्थिक व्यवस्था के लिये यहां के सद्गृहस्थों की एक संचालक समिति भी स्थापित की गई। समिति के ग्रंथसंशोधन तथा प्रकाशित करने का कार्य पू. पा. उपाध्यायजी श्रीमान्
गुलाबविजयजी महाराज, मुनिप्रवर तपस्वी श्रीहर्षविजयजी, शान्तमूर्ति मुनिराज श्रीहंसविजयजी, तथा विद्याप्रेमी मुनिश्रीकल्या| णविजयजी को दिया गया। उक्त मुनिवरोंने इस ग्रंथ का संशोधन कर मूल ग्रंथ के विषय व संबन्ध आदि में यथोचित सुधारा कर ग्रन्थ को उपादेय बनाने में यथान्नक्ति अच्छा प्रयत्न किया है।
थान्तर्गत धर्मवर्ग में-देव, गुरु, धर्म का स्वरूप बतला कर, ज्ञान, मनुष्य जन्मादि ३२ विषय एवं ४८ कथाएँ । अर्थवर्ग में लक्ष्मी आदि २१ विषय २२ कथा, कामवर्ग में कामादि ७ विषय १३ कथा, और मोक्षवर्ग में मोक्षादि १० विषय एवं १६
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कथाओं का समावेश है। विशेष जिज्ञासुओं को ग्रंथ का विषयानुक्रम अवलोकन करने से स्पष्ट मालूम हो सकेगा । अन्त में || ग्रंथकाने चारों वर्ग का उपसंहार मलीभांति से कर दिखाया है। ग्रंथ के अन्त में मूलकर्ता की प्रशस्ति के साथ २ संस्कृत अनुवादक की भी प्रशस्ति दी गई है । माशा है कि गुणानुरागी धर्ममार्गानुगामी विवजन इस ग्रंथ के रचयिता के अमूल्य परिश्रम का यथार्थ सत्कार कर ग्रंथ की उपादेयता को और भी बढ़ावेमे । समिति की ओर से २२ x ३० का साइज के १२ पेजी में २९ फार्म का यह ग्रंथ प्रथम पुष्प सरीके निकल रहा है जो विद्वजनों की रुचि में अवश्य आदरणीय होगा | यदि प्रेसदोष या प्रमादयन जो त्रुटिये रह गई हों उन्हें विद्वज्जन सुधार कर पढ़ें । किमधिकं विशेषु ।। यतः-गच्छशः संकलनं पछापि, भवन प्रसादतः सन्ति दुर्जनास्तत्र, समावधति सज्जनाः ॥१॥
निवेदिकाश्रीभूपेन्द्रमूरिजनसाहित्यसंचालकसमिति-वाया एरणपुरा मु. पो० आहोर (मारवाड़) नोट-जिन महानुभावों को इस ग्रंथ की आवश्यकता हो उन्हें चाहिये कि डाक खर्च के लिये १) रु. भेज कर पुस्तक प्रकाशक समिति से मंगालें।
P11
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पत्र
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्धम् स्वर्गीयम
शुद्धम् लोकभाषा चातकगण: प्रदेशिराजवत्
शुद्धाशुद्धानिपत्र पृष्ठ पंक्ति शुद्धम्
६ | स्वर्गीयभवनम्
लोकै शशिप्रभराजस्य
प्रशुद्धम् लोकभाषा चातकगणो प्रदेशिराजवत पित्राः
२४ २६
२ ।
२ ५
शशिप्रभराज्ञः
पित्रोः नगर
ग्राम
गाम
नगर
.
नृन
सेवकेन पाण्डवाभिधेन सेवकः पाण्डवाभिधः १० । पार्श्वमागतः
पाचभागत: ताववक्ता
तावक्ता ववृधाते
ववृधाते पार्श्वनाथमभो
पार्श्वनाथप्रभोः । सुखईया
२१ २
42
प्यधर्म व्यरमः 55दरणीयः ऽवशिशेष
चेदव २ | मपृच्छत्
घ्यधैम व्यरमथाः ऽदरणीयः ऽवशिशेप चेदत्रक मपृच्छत
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सुखा
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शुद्धम
कनक
यथेकैकस्या
कन्दर्पद
मिनाधीश
कूरात्म भणित
अशुद्धम्
बनक
घटिता
निवर्तभित 'संशोध्या
यकस्या
कन्दपेंद्रप
जिनाथ शि
क्रूरात्मा भप्पित
सर्वो लक्ष्म्या विशिष्यते, सर्वोलिक्ष्मीर्वि
श्रुतं
श्रेष्ठिनः
कमितं
श्रुत श्रष्ठिनः
बचित
बटिला
निर्वर्तयितु
संशोध्या
F559 = 9999 VS = =
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पृष्ट
१०१
२
१
१
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२
१
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१
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द्यूतव्यसन!
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सुत्पाद
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वर्ग:
पुत्राः
जारमुत्थाध्य
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टुमणं
द्यतव्यसना
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माच्छय
निष्कसितवान्
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वर्ग:
पुत्रा
जास्मुत्थाप्य
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अशुखम् वदापि
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प.
प्रष्ट पति
कदापि शृगालो दा:स्थकपाटे बंधमाश्चकार
श्रृगालो
पृष्ठ पंक्ति शुभम " ५। करोषि
दर्धच्छिन्नो १ २ | दक्षिणदिक्षु
अशुखम् करोपि दधच्छिन्नो दक्षिणाविक्षु
१४४
१३.
विरमत
खेटक
खेटक,
मात,
द्वास्थकपाटे बभामाश्च विरमध्वम् मापृष्ठ धनं प्रसोप्याव: मो देव ।
जे करे
मापृच्छय धनं मसोप्यावहे मो देव। प्रणामो एतास्या
सुदर्शन
भ्रातृ म करे सुशन
श सर्व
प्रमाणो
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१९३
२ १५
संवर
संबर
पताश्यज बमत
वमन
ईशी
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जात
जात,
-
--
-
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पृष्टांक
१९
विषयानुक्रमः। नंबर विषय
पृष्ठक नंबर विषय-- प्रथमधर्मवगें
उपशमायुपरि चिलातीपुत्रस्य ६ दृष्टान्तः मंगलाचरणम्
ज्ञानोपरि रोहिणोयचौरस्य ७ कथानकम् १ देवतत्त्वविषये
, मासतुषयोरुभयोर्धात्रोः ८ कथानकम् देवतत्त्वोपरि नमिविनम्यो;
१ कथानकम्
२ मनुष्यजन्मविषये२ गुरुतत्त्रविषये
प्रमादवशदुर्गतिपतनोपरि शशिप्रभराजस्य ९ कथानकम गुरुतत्वोपरि केशिकुमारगणधर-पदेशिराजयोः २ प्रबन्धः ४ १ मनुष्यबदौलम्ये चुल्लिकायाः १० दृष्टान्तः ३ धर्मतत्वविषये--
पाशकस्य ११ दृष्टान्तः धर्मतत्वोपरि विक्रमानुपस्य ३ कथानकम् ९
धान्यस्य १२ दृष्टान्तः , शालिवाइननृपस्म १ कथानकम्
धूतस्य १३ दृष्टान्तः १ज्ञानतत्त्वविषये
रत्नस्य १४ दृष्टान्तः . . साधारणगामाबोधोपरि यवराम: ६ कथानकम् १५
स्वप्नस्य
२
॥
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वर . विषय- . .
पूर्शक मंबर विषय७. चक्रस्म १६ हान्नः । शुमीलविषये-द्रौपयाः ८, कूर्मस्य ९ युगस्य च १७-१८ दृष्टान्तः ३८ | ८ सत्कुलविषये- . १. , . परमाणोः । १९ दृष्टान्तः ।। ३८ ९ सदविवेकविषये-: ३ सजनविषये-.
१० विनयगुणविषयेसजनतोपरि द्रौपद्याः
२० प्रबन्धः । ३९ विनयगुणोपरि विक्रमराजस्य २५ कथा ,, अञ्जनायाः २१ प्रबन्धः
विनयेन विद्याग्रहणोपरि श्रेणिकनृपस्य २६ कथा सज्जनगुणविषये
११ विद्याविषये४ न्यायधर्मविषये
विद्यया भोननृपं तोषयतोर्वाणमयूरयोः २७ प्रबंध: अन्यायित्वाद्रावणं त्यजतो विभीषणस्य २२ कथा
१२ परोपकारविषये६ प्रतिज्ञाविषये
| १३ उद्यमविषये६ क्षमागुणविषये
४५ उद्यमोपरि सुबुद्धिनाम्नः प्रधानस्य २८ प्रबन्धः , गजसुकुमालमुनेः २३ कथानकम् ४६
.. ज्ञानग भिषप्रधानस्य २९ , ७ त्रिकरणचित्तशुद्धिविषये
४८ १४ दानविषये
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________________
६५
नंबर , विषय
दानगुणोपरि कर्णराजस्य १५ शीलविषये- . शीलपालने सुदर्शन श्रेष्ठिनः ३१ कथानकम् र गांगेयस्य
३२ घा १६ तपोविषयेतपःप्रभावोपरि लब्धिमतो गौतमस्वामिनः ३३ कथा
नन्दिषेणमुनेः ३४ प्रबन्धः
विष्णुकुमारस्य ३५ कथा १७ भावनाविषये- . भावनाफलोपरि भरतचकर्तिनः ३६ कथा
का एलाचीकुमारस्य ३७ प्रबन्धः म सुनायकस्य जीर्णश्रेष्ठिनः ३८ कथा
वल्कजचीरिणः १९ प्रबन्धः
पृष्टाक नंबर विषय
"बलभद्र-मृग-रथकाराणां ४० कथा ५७ १८ क्रोधयिषये५८ क्रोधोपरि परशुराम-सुभूमचक्रवर्तिनोः ४१ प्रबन्धः
१२ भानविषय
मानेन विनाशोपरि दुर्योधनस्य ४२ कथा
मायोपरि-सदुपदेशः । २१ लोभविषये
लोभेन क्लिश्यतः सुभूमचक्रवर्तिनः' ४३ कथा
लोभत्यागारमासकेवलज्ञानस्य कपिलद्विजस्य ४४ कथा ६३ | २२ दयाविषये- ...
कपोतदयापालनोपरि मेघरथराजस्य ४५ प्रबन्धः ६४ | २३ सत्यविषये--... - ६५. मिथ्यासाक्ष्यवानाभर प्राप्तस्य वसुराजस्य ४६ प्रबन्धः
rurr9999 ४०.. or
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________________
प
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विषय
नंबर
२४ चौर्यविषये
२९ कुशीलविषये२६ परिग्रहविषये
७४
परिग्रहममत्वेन दुर्गतिंगतस्य सुभूमचक्रवर्तिनः ४७ कथा ७४
७५
७५
७६
७६
७६
७६
७७
२७ सन्तोष गुणविषये - २८ विषयतृष्णाविषये - २९ इन्द्रियविषये
३० प्रमादविषये -
३१ साधुधर्मविषये
३२ श्रावकधर्मविषये
" दृढधर्मं कामदेवभावकस्य ४८ कथा द्वितीयाऽर्थक
१ स्वपरहितचिन्तनविषये
पृष्ठक
७३
७४
७९
नंबर
विषय --
पृष्ठक
'परहितचिन्तकमहावीरस्वामि- कूरात्म चंडकौशिकयोः १ कथा ७९
२ सम्पद्र - लक्ष्मीविषये
८१ <}
संपदाऽस्वस्योत्तम कुमारस्य २ दृष्टान्तः द्रव्यहीनतया वेश्यानिष्कासितस्य कयवचाश्रेष्ठिनः ३ कथा ८८ घनप्रभावेण रंकश्श्रेष्ठिजित - शिलादित्यनृपस्य ४ कथानकम् ९० ३ कृपणताविषये -
९०
कार्पण्ये मधुमक्षिकायाः
४ अर्थी याचनाविषये -
५ निर्धनता विषये --
६ राजसेवा विषये—
७ खलता - दुर्जनताविषये -
सरलकपटिमित्रोपरि- कपिमकरयोः १ कथा
८ अविश्वासविषये -
५ दृष्टान्तः
१०
९१
९१
९२
९२
९३ ९४
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________________
पृष्ठांक
११२
नंबर विषय
पृर्धाक __ अविश्वासे घूककाकयोः ६ कथानकम् २ मैत्री-मित्रताविषये
साधुजनमित्रतोपरि सहस्रमासाघो: ७ प्रबन्ध
मित्रतोपरि कृष्णबलभद्रयोः ८ कथानकम् ९६ १० कुव्यसनविषये१० द्यूतविषये
तरमणल्यागात्सुखीभवतः पुण्यसारस्य ९ कथा मांसभक्षणाविषये___मांसमहापतासिद्धिं कुर्वतोऽभयकुमारस्य १० कथा । * १२ कालिकशूलिकस्य तत्पुत्र-सुलसस्य च ११ कषा १०४
चौविषये-मण्डीकचौरस्य १२ प्रबन्धः १०५ १३ मद्यपानविषये-नितशत्रुक्षितिपस्य १३ कथा १०६
मद्यव्यसनादेव द्वारिकापुरी कृष्णसुरक्षितापि
नंबर विषय
भस्मसादभूत्तस्याः ११ कथा १०८ ११ वेश्याव्यसनविषये
सिंहगुहाबालिसाधूपकोशावेश्ययोः ११ कथानकम् १५ आस्टकव्यसनविषयेया कामयारो लापरले यतिनृपस्य १६ कथानकम् ११२ १६ परस्त्रीगमनविषये१७ कीर्तिविषये भीमाशाहस्य १७ कथानकम् ११३ १८ मंत्रिविषये
प्रधानपदे धीमतोऽभयकुनारमन्त्रिणः १८ कथा ११३ १९ कलाविषये
कलावद्रोणाचार्याऽर्जुनभिल्लानां १९ कथानकम् १६ मुर्खताविषयेमूर्खतोपरि वणिकपुत्रस्य २० कथा
११७
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नंबर विषय
मूर्खतोपरि कपि सुगृहिपक्षिणोः २१ कथा "
२१ लज्जाविषये -
ज्या प्रतियो देवभावदेव यत्रो २२ कथा लक्ष्म्युपसंहारः
-
पृष्टों
तृतीय कामवर्गे
१२०
कामभोगे तथा तयागोपरि नंदिषेणमुनेः १ कथा १ कामविषये
१२१
वनेचरीं विलोक्य विषयसुखप्रार्थयितुः हरस्य २ कथा १२१ कन्दर्पोम्मादविषये
१२२ दमयन्तीविलोकन | चलचितस्य नलराजर्षेः ३ कथा १२२ रानीमती कामयमानस्य समुज्झितोत्सर्गध्यानस्य
२ - पुरुष गुणदोषोद्धावनविषये
रथनेमिमुने: ४ कथा
११८
११८
११८
११९
17
१२३
नं.
विषयपुरुष गुणविषये
परगुणग्रहणोपरि श्रीकृष्णस्य पुरुषदोषविषये१ - स्त्रीगुणदोषविषयेः
पृष्ठांक
१२३
५ कथा १२३
१२५
यशोधरनृपधातुकी नयना यस्याः
जापल्य शयानाया नूपुर पण्डितायाः ८ कथा सुलक्षणस्त्रीणां गुणनामादीनि शीलप्रभावान्महाग्निकुण्डोऽपि मलवदतिशीतलमभूत्तदुपरि
सीतायाः
१२४
सुदर्शन श्रेष्ठिनममयाराज्ञी कलङ्कयामास तयोः ६ कथा १२५
७ प्रबन्धः १२६
१२६
११९
९ कथा ११९
४ संयोगवियोगविषये-
९ मातृकर्तव्यविषये
१५१
निर्मोहकृताऽनशनस्य माक्षमधिगतस्याऽरहनक्मुनेः १० या १२१
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अंबर विषयपृक .. पर विषय
पृष्टांक । पितृवात्सल्यविषये---
१३९ / . क्षमया कर्ममुक्तस्य मेतार्यमुनेः ४ कथा १० सारचक्रवर्तिनः षष्टिसहसतत्पुत्राणाञ्च ११ कथा १३२ ३ संयमनिषो..
शय्यमवसूरितत्पुत्रमनकयोः १२ कथा १३६. सिंहादिपशूनपि प्रतिबोधयतो बलदेवमुनेः ५ कथा १४३ | ७ पुम्रवर्णनविषये--: .
१३३४द्वादशमावानासु.१ भावनाविषयेसुपुत्रोपरि गांगेयकुमारस्य
१३.कधा १२५ संसारमनित्यं स्वप्नवत्तत्र भिक्षोः ६कथा चतुर्थमोक्षवर्ग
भनिस्यमावनया स्यक्तदेहाभिमानस्य{ मोक्षविषये१३६ १. भरतचक्रवर्तिनः
७ कथा १४४ २ कर्मविषये.
१३६ | ५ अशरण १ भावनाविषये& ३ क्षमागुणविषये-,..
अशरणभावनोपरि अनाथिमुनेः
कथा १४६ क्षमया मुक्तिमभिगतामा पत्रातशिष्याणा-..
संसार ३ भावनाविषयेमझममा दुःखपारंपर्यमासस्य स्कन्धकमरेश्च १कथा १३७. संसारभावनोपरि मान......प्रबन्धः क्षारख्या मोसमधिगतस्य सहप्रहारिणः २ कथा १३९ एकस्व मानाविषये ....... क्षमागुणेन मोक्षामितस्य करगडुमुनेः ३ कथा १४ एकत्वमावनोपरि नमिराजस्य १० प्रबन्धः १४८
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नंबर विषयपृष्टांक नंबर विषय
पृष्ांक अन्यत्व ५ भावनाविषये
१५१ | ११ धर्मभावना १२ बोधिदुर्लभभावनाविषये- . १५६ अशुचि ६ भावनाविषये
धर्मभाषनया सुखमधिगतस्य सम्प्रतिराजस्य १५कघा १५५ एतच्छरीरमशुचि मत्वा तन्ममत्वं विहाय
६ रागविषयेप्रवजितस्य सनत्कुमारनकिण। ११ कथा १५२ । द्वेषविषये
१५७ आश्रव ७ भावनाविषये
७ संतोषविषये
१५७ आश्रवदोपानरकमितस्य कुण्डरीकनृपस्य १२ प्रबन्धः १५३ | ८ सदसद्विवेकविषयेसंबर ( भावनाविषये
१०. ! ९ निर्वेट -नैरामविषयेसंवरं भनमानस्य वचस्वामिनः १३ प्रबन्धः १५४ निर्वदाद गृहीतसंयमस्य भर्तृहरेः १६ प्रबन्ध संवरद्वारमाद्रियमाणस्य पुण्डरीकनृपस्य १४ प्रबन्धः १५४ | १० आत्मबोधविषयेनिर्जरा ९ भावनाविषये
उपसंहार:लोकस्वरूप १० भावनाविषये
मूलगन्धव्याख्याको प्रशस्तिः
१५७
६१
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श्रीभूपेन्द्रसरि-जैनसाहित्य-पुष्पाई ? साहित्य-विशारद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरश्विर-विरचिता
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सूक्त-मुक्तावली।
सत्राऽऽदौ मङ्गलाचरणम् ।
मालिनी-छन्दसि ई सकलसुकृतवल्लीबन्दीमूतमाला, निजमनसि निधाय श्रीजिनेन्द्रस्य मूर्तिम् ।।
ललितवनलीलालोकभाषानिषबैरिव कतिपयपद्यैः सूक्तमालां तनोमि ॥१॥ ।
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सग्धराछन्दसिकैवल्यज्ञानयोगादनुभवनगतान् रूप्यरूप्यादिभावान् , पझ्यन्तं पाणियाताऽऽमलकमिव चरस्थूलसूक्ष्मप्रभेदान् । चातुष्षष्टीन्द्रजुष्टं प्रणासुरमराऽशेषविघ्नोपशाम, नाम नाम दयाधि भवजलधितरि प्रैशलेयं जिनेन्द्रम् ॥१॥
गीतिछन्वसिज्ञानावरणकर्माष्ट-निर्मूलकरीं सकलार्थदवाणीम् । श्रुतसागरपारगतां, सकलागमबोधदायिनीं वन्दे ॥ २॥ (युग्मम् )
मालिनीछन्दसिनिखिलनिगमनिष्ठं शब्दशाने पटिष्ठम् , स्वपरसमयविशं श्रीजराजेन्द्रसूरिम् । सकलसुगमबुद्ध्यै सम्प्रणम्य प्रकुर्वे, ललितसरलगयैः सूक्त-मुक्तावली ताम् ॥ ३ ॥
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विषयक्रमसंग्रहः-शार्दूलविक्रीडितछन्दसितत्वज्ञान १ मनुष्य २ सजनगुणा ३ न्याय ४ प्रतिज्ञा ५ क्षमाः.६, चित्तायं ७ च कुलं ८ विवेक ९ विनयी १० विद्यो ११ पकारो१२ धमाः १३ । दान १४ क्रोध १५ दया १६ दितोष १७ विषयाः १८ त्याज्यप्रमादस्तथा १९, साधुश्रावधर्मवर्गविषये ज्ञेयाः प्रसंगादमी २०-२१ ॥ २ ॥
अत्रैतस्याधिकारवाचकस्य पद्यस्य सुगमत्वान्नो टीका कृतेत्यवसेयं विद्वद्वर्यैः । धर्मार्थकाममोक्षवर्गचतुष्टयेन समलङ्कतेयं सक्त-मुक्तावली भव्यानाम्, मानुष्यत्वसफलीकृते महीयसी साहाय्यभूता वरीवर्तते । यदुक्तम्
उपजातिछन्दसित्रिवर्गसंसाधममन्तरेण, पशोरिवायुर्विफलं नरस्य ।
तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ॥ इति धर्मस्य प्राधान्यात, प्रधर्म धर्ममुपक्रम्य देवगुरुधर्मतत्यादिक्रमेण तदुच्यते ।
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अथ प्रथमो धर्मवर्गः प्रारभ्यते ।
१-तत्र देव-तत्त्व-विषये
मालिनी छन्दसि --
सकल करम वारी मोक्षमार्गाधिकारी, त्रिभुवन उपकारी केवलज्ञानधारी । भविजन नित सेवो देव ए भक्तिभावे, दद्दिज जिन भजतां सर्व संपत्ति आवे ॥ ३ ॥
मो भव्याः ! सकलकर्म-वारको मुक्ति-मार्गमधिगतः, त्रिभुवनोपकारकः केवलज्ञानधारको, जिनेन्द्रो भक्तिभरितमानसैनित्यं सेव्यताम् । यतोऽईद्भक्तैरत्रैव सर्वसंपत्तिरवाप्यते ॥ ३ ॥
जिनवर पद सेवा सर्वसंपत्ति दाई, निशदिन सुखदाई कल्पवल्ली सहाई ।
नमि विनमिलहीजे सर्वविद्या बढ़ाई, ऋषभ जिनह सेवा साधतां तेह पाई ॥ ४ ॥
जिनचरणकमलसेवा सर्वो समृद्धि ददाति, अहर्निशं कल्पलतेव सर्व सौख्यश्च प्रयच्छति, यथा नमिर्विनमिश्रादिना यभचत्या सकलविद्यानिष्णातावभूताम् ॥ ४ ॥
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देव-तत्त्वोपरि नमिविनम्योः १-कथानकम्तथाहि-प्रथमतीर्थङ्करस्य भगवतः श्रीमदादीश्वरप्रभोर्नमिविनामिनामानों द्वौ पालकपुत्रावभूताम् । यदा स प्रभुः प्रद्रजितुमचीकमत तदा सर्वेभ्यो भरतादिभ्य आत्मनः शतपुत्रेभ्यः प्रत्येकं पृथक् पृथक् राज्यं दत्वा प्रवबाज । तत्र समये तो पालक। पत्रो प्रभोः पार्श्ववर्तिनो नाऽभूताम, केनापि कारणेन देशान्तरङ्गतवन्तो । ततः कियकालानन्तरं समागतो तो भ्रातरों तदावास | प्रभमपश्यन्तौ लोकमेवं पप्रमहनुः । किं भोः ! जगत्प्रभुं तातचरणं गृहे कथं न पश्यावः । किं कुत्रापि गतवानस्ति, इति तत्पृच्छा-8 al माकर्ण्य लोकैरमाणि-भोः ! प्रभुस्तु भरतादिभ्यः सकलेभ्यो राज्यं दत्त्वा दीक्षामग्रहीत । ततः पुनरेतौ पप्रच्छतु:-आइयो राज्य, है कि कृतम् ? लोकैरूचे-स भगवान् इदानीं निष्परिग्रहतां दधानो जगत्पुनानो जीवान् परिबोधयन महीमण्डले विहरति । किञ्च | ll शतेभ्य आत्मपुत्रेभ्यो यदा राज्यं विततार, तदा युवाभ्यामपि राज्यं दत्तवान् भगवानित्यपि नैव विदामों क्यम् । साम्प्रतं तु भगवान् न कस्मै किमपि दातुं दापयितुं वा प्रभवति । न करेमीत्यादिशास्त्रप्रतिषेधात् । अतो युवामिदानीं ज्वायांसं बान्धवं भरतम्प्रति गत्वा सर्व बेताम् । तमेव याचेथाम् । तं विनाऽन्यः कर्तुं न शक्नोति । इत्यादिलोकोक्तिं निशम्य ताम्यामेवमुक्तम् ! भो लोकाः ! आवां तु पितरमेव याचेवहि, तदन्यं कदापि नेति सत्यं जानीत । यहि स प्रभू राज्यं दास्यति, तदैव ग्रहील्याव आवाम् । इस्यवधार्य तो द्वावपि भ्रातरौ यत्र भगवान विचरनासीत् तत्र ययतः । तत्र गत्वा प्रभुं भक्त्या वन्दित्वा सविनयं तम्प्रति तो राज्यं ययाचाते । भगवानपि वयोर्याचनं श्रुत्वा मौनं समाश्रितवान्, तद्विषये मनागपि नोक्तवान् कुत्राप्यन्यत्र स प्रमुर्विजहार ।
तावपि भ्रातरौ श्रीभगवता सहैव पेलतुः । अथ तापुमौ नमिविनमिनामानौ बान्धवौं येन येन पथा भगवान चिजहार,
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तत्र वत्र मार्गे कण्टकानि करादीनि च यानि यानि क्लिष्टान्यासन् तत्सर्वाणि दूरे विक्षिपतुः । तथा यत्र यत्र रजापुलमातीत | तत्र तत्राऽसुना तो सिपिचतुः । किञ्च श्रीमद्भगवचरणयुगलं धूलिधूसर मा भवत्विति विचिन्तयन्तौ तौ तन्मार्ग सुरभिमुमपुजैराकीर्णञ्चकाते | भगवतामुभयतस्तौ चामत्युगलं बीजयामासतुः । श्रीमदादीश्वरस्य भगवतो मार्गे गच्छतः पथि पुरतः कण्टकादिना मूशोधन विदघाले । तथाऽवसरमासाद्य भक्तिविनयाऽवनती तो प्रभु राज्याय प्रार्थयामासतुः । इत्थं श्रीमत्रभोः सङ्गक्ति । विदधतोस्तयोः कियान कालो यातः । अथैकदा सम्प्राप्ते च कस्मिन्नपि प्रस्तावे श्रीमत्प्रभुवन्दनायै धरणेन्द्रस्तत्रागतवान । स हि प्रभुसेवातस्परौ तौ बन्धू विलोक्य पप्रच्छ, युवां प्रभोरीही भक्तिं किमर्थं कुरुथः । तच्छ्रत्वा तायवोचताम्-मो थरहेन्द्र ! आवां राज्याय भगवन्तमादिनाथं सेवायहे । तच्छृत्वा धरणेन्द्रोचक-भो भक्तप्रवरौ ! साम्प्रतमसौ नीरागतामायते । एनम्पर्श राज्यं किमर्थ याचेथे ? तौ तदैवमाचधाते स्म-मो देवेन्द्र ! नूनमयमेव भगवान आवाभ्याम्प्राज्यं राज्यं दाताऽस्ति । ततस्सयोरीशष्टतरविश्वासेन भगवनस्पसाधारण्येन च सन्तुष्टो देवम्ताभ्यामष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्या दत्तवान् । तथा तावुभौ भ्रातरौ वैताढ्यपर्वतीयाधिपती चक्रिवान् । तत्र चैताट्यदक्षिणस्यां दिशि एकोनपञ्चाशनगराणि, तदुत्तरश्रेण्यामेफोनषष्टि| ग्रामा जनैराकीर्णा आसन् । धरणेन्द्रप्रदविधामी राज्येन च तो भ्रातरौ विद्याधरौ बभूवतुः । तदंशपरम्पराऽपि विद्याधरतामेव
लेभे । तयोरेवं प्रभुभक्तिः प्रत्यक्षं फलति स्म । इति सर्वैरेव भगवत आदीश्वरजिनेश्वरस्य सेवायां यवितव्यम् । ४ यतो हि प्रचसेवा भक्तभ्यः फिकिं न प्रयच्छति ? अपि तु सांसारिकमातुलधनपुत्रादिसौख्यं पारलौकिक स्वराज्यसुख
मध्यनन्तकालिकमक्षयं प्रसूते ।
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२ - गुरुतत्वविषये -
स्वपर समय जाने धर्मषाणां बखानं, परमगुरु कश्यार्थी तस्य निःशंक माने । भविककज विकाशे भानु ज्युं तेज भासे, इहज गुरु भजो जे शुद्धमार्ग प्रकाशे ॥ ५ ॥
भो भव्याः ! ये निजाऽन्यसिद्धान्ततत्वज्ञस्य धर्मोपदेशस्य यस्य सद्गुरोरुपदेशाज्जनाः तवं निःशङ्कं मन्यन्ते । भविकत्कजविकासने भानुसमतेजसा भासमानः, शुभ्रमार्गप्रवर्तकः प्रकाशकच स गुरुः भवद्भिः पूज्यताम् ॥ ५ ॥
सुगुरु वचन संगे निस्तरे जीव रंगे, निरमल जल थाए जेम गंगा प्रसंगे ।
सुणिय सुगुरु केशी वाणी रायप्रदेशी, लहि सुरभव वासी जे इसे मोक्षवासी ॥ ६ ॥ किश्व - यथा कलुषितमपि जलं गंगोदकसंसर्गात्पमित्रं भवति । तथैव सद्गुरूपदेशात् प्राणिनः शुद्धाशयाः सन्तो भवाधि तरन्ति यथा केशहमारगण घरचा श्रुत्श, प्रदेशिराजः प्रतिषोधमवाप्य देषत्वं लेभे । प्रान्ते मोक्षश्च प्राप्स्यति, अत्र विवरीष्टान्तो कथ्यते ।। ६ ।।
अथ गुरुतरषोपरि- केशिकुमारगणधर - प्रदेशिराजयोः २-प्रबन्धः
पथा वह हि भरतक्षेत्रे केका रूपदेशे श्वेताम्बिकाऽभिधा नगरी विद्यते । तत्र च प्रदेशी नामा राजा राज्यं शास्ति । असौ राजा नास्तिक मतषादी अत्यन्ताऽधार्मिको महापापीयान् भक्ष्याभक्ष्यविचारहीनः सदैव हिंसाजन्याप्रदिग्धकरयुगलो
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| वर्तते स्म । किमधिकेन सततं स राजा नरकगतिसाधनायामेव कर्मठ आसीत् । नास्तिकस्य तस्य राज्ञो मनसि रात्रिन्दिवमीडशो
वितर्को जायमान आसीत् । तमेव विवृणोति-शरीरातिरिक्तो जीवः शुभाशुभफलभोक्ता कोऽपि नास्ति, किन्तु-क्षित्यप्तेजोX मरुदाकाशात्मभिरेव पञ्चभितः सम्बद्धो निष्पन्नः शरीरोऽयमात्माऽस्ति । एषु पञ्चभूतेषु विनषु सर्वे पुद्गलाः स्वत एव नश्यन्तीति
| निजसिद्धान्तं दृढीकत स राजा-एकदा एकञ्चौर जीवन्त तोलयित्वा पुनस्तमेव मारयित्वा तच्छरीर तोलयन राजा पूर्वमानतः Ke स किञ्चिदपि वृद्धि हास का नाऽपश्यत । पुनरेकदा कमपि स्तेन धृत्वा हत्वा च तदङ्ग खण्डशः कृत्वा प्रतिखण्डेषु जीव बहुधा X विलोकयामास । परं कुत्राऽपि तत्कायखण्डे जीवो नैव दृष्टस्तेन | पुनरन्यदा स एक तस्करं गृहीत्वा नीरन्ध्र लोहपिञ्जरे निक्षिप्य,
तदुपरि शीशकावरणमाधाय, तथाऽऽणोद्यथा कथमपि कुतश्चिदपि पवनस्य गमागमो न भवेत् ! अथ कियदिनानन्तरमुद्घाटिते पिञ्जरे चौरं मृतमदाश । जीवस्तु कन भाग नियंत इति विज्ञातुमभितः शोधितेऽपि कुत्राऽपि रन्ध्रादिक मनागपि नालोकत । ll शवे च तस्मिन् सहस्रशः कृमयः समुत्पन्ना दृष्टाः । अथैतत्प्रपञ्चेन तेन राज्ञा मनस्येवं निश्चितम् । इह खलु देहात्पृथगात्मा नैवाऽस्ति। । केवलं पञ्चभूतानां विशिष्टसंयोगो यावद्भवति, तावदेप देहश्चेतनो भवति, संयोगनाशे च नश्यति । किञ्च ततःप्रभृति स राजा लोका
नेवमुपदिनेश भो ! भो लोकाः शरीरमेवात्मास्ति एतदन्यः कोऽपि नैवाऽस्ति । तथा पापपुण्ये न स्तः इहैव यथेष्टं स्वेच्छया | विषयसेवनाऽशन-पानविविधविलासादिकरणेनैव मनुष्यत्वं सफलं कुरुत । इत्थमनार्यमधर्मामुपदिशतस्तस्य राज्ञः कियान कालो यातः । अथैकदा प्रदेशिना राना चित्रसारथिनामा निजप्रधानः कस्यापि कार्यस्य हेतोः कौशाम्ब्यां नगर्यो प्रेषितः । तत्र च श्रीपार्थनाथप्रमोः शिष्यो महापुरुषश्चतुनिधारी केशिकुमारनामा गणधर श्रद्धावस्यो भयिकजीवेभ्यो धर्मदेशनां ददानः श्राद्धमण्डल
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KH मण्डितः सदसि व्यराजत । प्रधानोऽपि तत्र गत्वा ते गणधरं महाराज विधिवत्प्रणम्य सस्समधमुपविश्य धर्मप्रभावमभृणोत् । स च
तत्वणमेव धर्मदेशनां श्रुत्वैव किश्चिन्क्षीणकर्मा सन प्रतिबुद्धोऽना । मेशनान्ने ए मुम्भार भकिनगात्म-कन्धरः स प्रधाना प्राञ्जलिरेवं गुरुम्पार्थयामास । हे स्वामिन् ! कृपा विधाय श्वेताम्बिकानगरी ध्रज | श्रीमतां तत्र गमनेन धर्मो नितरां वर्धिष्यते । किश्च चातकगणो स्वातिविन्दुमिव मयूरश्रेणी मेघपटलमिव भवन्तं वीक्षमाणो लोको भृशं मोदिष्यते च । इत्थं सविनयं साग्रह प्रधानप्रार्थनामाकर्ण्य गुरुर्जगाद-भो महाभाग ! लोकास्तु तत्र श्रद्धालवः सन्ति, परं वाचकीनो राजा महादुष्टो नास्तिकोऽस्ति । इति तत्र गमनेन लोकानां श्रेयः कथं भविष्यति । तदा पुनस्तेनोक्तम् हे सद्गुरो । भवदागमनेनावश्यङ्कल्याणं भविष्यति । पुनरुक्तं । गुरुणा सत्यवसरे भवदुक्तं करिष्यामि । इत्थं गुरुणा सार्क प्रश्नोत्तरं विधाय चित्रसारथिर्गुरु वन्दित्वा ततो निरगात | तदनुसामान्तरमागत्य स्वामिकार्य सम्पाद्य स प्रधानो निजनगरमागत्य प्रदेशिराजानं नमस्कृत्य निजालये समागतः । गृहागतः प्रधानः स्नानादिभोजनान्तं विधाय वनपालं निजसमनि समाहृय रहसि तमेवमादिदेश । भो वनपाल ! तव वाटिकायां यदा कश्चिन्महात्मा मुनिरागच्छेसदा तदागमनं राजानं मा ब्रूहि, प्रथमं ममैव सत्वरं वाच्यम्, इति प्रधानादेश शिर
सावधार्य बनपालो निजधाम समाययौ । अथैकदा ग्रामानुग्राम विहरन स केशिकुमारो गणधरो मुनिगणैः सह श्वेताम्बिकापुर्या All मनोरमाभिधाने महोघाने समाययौ । तदानीमेव वनपाल आगत्य राजानमकथयित्वैव मन्त्रिण गुर्वागमनं विज्ञापयामास | परन्तु
महतामागमनमधिग्राम लोकैरविदितं कथं भवेत् । बहुतरमविकनर-नारीयथस्य गुरुवन्दनाय गमागमोऽध्यजायत । अप चित्रसारथिरपि राजान्तिक गत्वा तस्मै गुर्वागमनवृत्तमकथयन्नुषानविहाररागिण नृपं सायन्तनोपवनविहारापैष प्रार्थयामास ।
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agar प्रमोदमकालमेव सुसज्जीभूय तदुद्यानं विहाराय मन्त्रिणा सह चचाल । एवं स मन्त्री नृपं वनक्रीडाव्याजेन तत्राऽनयत । यत्र स चतुर्ज्ञानी महामुनिः सकलकलाकुशलो नर-नारीकदम्बमण्डिते सदसि सुकृतिजन सुलभैरितरजनपुरापैरातशाश्वतधर्मैर्मधुरस्वरैः श्रोतृश्रोत्राहादक रैमे विकानतिगूढमपि तवं मोषयन्नाऽऽसीत् । मथेर्श मुनिमालोक्य वपसन राजा मन्त्रिणमेवं वदितुं लग्नः । तद्यथा - अरे चित्रसारथे ! असौ मुण्डी फिम्प्रलपति ? असौ श्रोतृजनघसनावले किमपि किम् ? कोऽयं पाखण्डी रक्ष्यसे । नृपोक्तमेतदाकर्ण्य प्रधानोऽवदत् । महाराज ! अहमप्येनं न जानामि यद्येन मातुमिच्छसि तदन्तिके गन्तव्यम् । ततो ज्ञास्यसि कोऽस्ति कीदृशव्यादि सर्वम् । अथैतन्मन्त्रववा सम्यमिति मत्वा मन्त्रिणा सह गुरोः पार्श्वेऽभिमानेन वन्दनादिकमकुर्वाणो नृपस्तत्रोपाविशत् । तदानीं गुरुरपि राशः प्रभावसरप्रदानाय जीवविषय एव प्राधान्येन व्याख्यातुं प्रारेमे । अथ राजाऽपि वस्तुमवसरमासाथ गुरुप्रत्येवमपृच्छत हे स्वामिन ! त्वमेताः सरला मम प्रजा इयतीमसती वाणी सुधा मलप्य कथं वञ्चयसि १ तत्राऽपि जीवसतां निरूपयसि । जीवो हि गगनकुसुमायमान एव प्रतिभाति । सतपदार्थस्यावश्यमुपलब्धिरपि भवति । यदि शरीरे कोऽप्यन्यो जीवात्मा भवेत् तर्हि तदुपलब्धिरपि भवेदेव । तथा न भवस्यतो जीवनिरूपणं सर्वथाऽलीकमेव वेथि । मया तु बहुधा विलोकितेऽपि समाहूतोऽपि जीवः पुत्राऽपि नैवावर्णि । अथ गुरुरवादीत - भो राजन् ! त्वं प्रत्यक्षमेव प्रमाणं मनुषे । अनुमानादिकं नैव मन्यसे चेदतः पृष्ठामि यथा प्रत्यक्षा restaurasia निधितस्त्वया, तथैव तव पृष्ठभागस्य चाक्षुषं प्रमाणमपि न जायते । इति तदभावोऽपि मन्तव्यः । यदि स्वपृष्ठभागस्य स्वचक्षुषा ग्रहणं न सम्भवति, तथाऽपि निजपृष्ठभागसत्तां स्वीकरोषि तर्हि किमपराद्धं जीवसत्तया । येन तुल्येऽपि
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| कारणे जीवो नास्तीत्यवभारितं त्वया । अतो हे नृपेन्द्र ! नास्तिकता त्यज । जीवोऽस्तीति जानीहि, मनागपि तत्र न संशयि-18
सध्यम् । इत्थं गुरुवचसा स क्षोणीपतिः किश्चित्प्रतिषुद्धः । पुनरपि समुत्पमसंशयो नृपो गुरुमेष पमछ- गुरो। जीवसता तु स्वचसा मयाऽपि स्वीकृता, परं स दृश्यते कथं न ? महं तु तद्विलोकनार्थ कियतमौरान निहत्य तदङ्गानि सहस्रशश्छिपवा क्लिोपितवान । कुमापि कदानिलपि अतिपो नैव , तत्र विकारणम् ? गुरुः कथयति-हे राजन् ! एकमनाः पृणु, यथा तमं सन्देहं । रियाम । यथा वन्ये शुष्के काष्ठसमाते समपि पहिश्चक्षषा न गृबते, यथा या तिकेषु तैलं सदपि लोकेने दृश्यते, यथा वा पयस्स | पृतं कुसुमेषु गन्धा तथा शरीरे सन्तमपि जीव लोका न पश्यन्ति । किश्च संसारिणः प्राणिनश्चर्मचक्षुषा जीवं न पश्यन्ति सर्वज्ञा| स्तु पश्यन्त्येय । इयमत्र विचारणा-ये च पदार्था रूपिणः सन्ति, तेऽपि कारणविशेषसंयोगात प्रकटीभयन्ति । जीवस्त्वरूपी पदार्थ तकथमनेन धर्मचक्षुषा लोकाः पश्येयुः ।। राजन ! रूपचन्तोऽपि पदार्था घृतावयः स्वकारणे पूक्ष्मतया सन्तोऽपि विशिष्टकारणान्सरसहकारणैवाऽभिव्यज्यन्ते । जीवस्तु निसर्गत एव रूपादिहीनोऽस्ति, तस्य साक्षात्कारस्तु केवलिनामेव जायते ।। नाज्येषामिति जीवसलाबोऽवश्यमवगन्तव्यः सर्वैः । ततो जीयसबारे सम्ञातढमतिको नृपोवादीत ।हे अपारविषगुरो !] मयैकदा चौरमेकं लोहपेटिकायाञ्जीवन्तं निक्षिप्य सा पेटिका मुष्ट्रिता, तस्याः सर्वतः शीशकावरणेन वेष्टनध्य कारितम् ।। सूभ्यग्रमात्रोऽपि तत्प्रदेशोऽनायो नाऽकारि । तथापि तस्य तस्करस्य जीवो निरगच्छदेव । तत्राणुमात्रमपि मिं नाऽभव ।। बर्हि केन मार्गेण जीवो निरगादिति महान मे संझयो जागति । किश्च सत्र शवे पातशः कुमयोऽपि कथमाजग्मुः। मार्गस्त नेवाऽऽसीत् । इस्पापुछत्वा पिरसे नुपे गुरुजगाव-हे वितिपाल ! भूयताम, पदा कथित पुमानयिकन्दरं सर्वद्वार पिथाप मण्ये
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SRAERNA
च समेादिकं वादयते तदा तच्छन्दमुपरिस्थिता जनाः भृण्वन्ति न बा ? तथा एब मृदङ्गनादः, एष दुन्दुभिध्वनिः इत्यादि स्पष्ट तया ज्ञायते न पा ? राजोवाच हे स्वामिन् ! सत्यमेततशब्दस्तु श्रूयते, ज्ञायते च तद्भेदोऽपि । तहि स्वयमेव विचारय । यदवरुद्ध गृहे जातस्य शब्दस्य बहिनिर्गमस्तथा बहिजातस्य नादस्थ प्राक्तगृहान्तः प्रवेशश्च छिद्रादिमार्गसद्भावं विना यथा भवति । तद्वदरूपिणो जीवस्याऽपि गमागमौ भवत इति किमाश्चर्यम् ? किञ्च रूपवतो वाघस्य नादनिर्गमे यदि गृहकुड्यादौ छिद्रो न जायत इति प्रत्यक्षतया दृश्यते, तर्हि जीवस्य निसगतोपिणो गमनागमनयोभित्यादयो मनागपि कथं स्फुटेयुः । एतज्जीवद्रव्यं तु सर्वत्र सदैव सूक्ष्मरूपेण व्यापकतया तिष्ठत्येव । इत्याघनेकदृष्टान्तदर्शनेन राज्ञः प्रतिबोधो जातः । तत्रासरे राजा पुनरेवं मुनिमप्राक्षीत-हे गुरो ! जीवोऽस्तीति मयाजीक्रियते, परं पाप-पुष्ययोः सद्भाचे मनो मे सन्दिग्धमस्ति । तदुक्तमाकर्ण्य गुरुरभाणीत है पृथ्वीपते ! यदि जीवस्य धर्माऽधर्मों न भवेतां, तर्हि संसारे एकः सुखं द्वितीयो दुःखराशि भुङ्क्ते । एको हस्तिना गच्छति,
अपरः पादचारी कश्चिद्राज्यङ्करोति, कश्चन रखतामुपैति । कियन्तो विद्वांसो दृश्यन्ते । पुनरन्ये मुर्खा इत्यादि जमतो वैचित्र्यङ्कथं स्यादतो 2 धर्माऽधर्माववश्यं स्वीकर्तव्यौ । अमुं दृष्टान्तमाकर्ण्य राज्ञाऽपि पापपुण्ये स्त इति स्वीकृतम् । पुनराख्यद्राजा-हे साधो । मम ज्यायसी
पितामही जैनधर्मे भृशं रागवती गुरुसेवनसत्परा सदैव सत्पात्रप्रदानकारिणी समासीत्। तस्याश्च मय्यप्यनुरागो महानासीत् । नित्यं सा मदीयश्रेयसि लीनाऽवर्तत । सा चेदानी भवन्मते मृत्वा कुत्रचिन्महाहे देवलोके देवीधेनोत्पमा सती मामात्मवृत्तं कथयितुमिह कथं न समायाति, इत्यपि महान्मे संशयोऽस्ति । तदा गुरुरेवमाचशे-भो राजन् । अत्र विषये ममैक दृष्टान्त सावधानतया शृणु-एतल्लोकादूर्ध्वश्चतुष्पश्चातयोजनपर्यन्त मनुष्यस्य गन्ध उद्गच्छति, तभीतिवशाचा अन लोके
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ANTARAg
| नाच्छन्ति । पुनरेतत्फुटायोतिका गाथाप्येवं-चचारि पंच जोयण-सयाइ गंधो अ मणुअलोगस्स । उल्लु बबइ पेण, न हु देवा सेण आईति ॥ १॥ किश्च देवा देव्यो वा दासीकता न सन्ति लोकः । येन समागस्य सत्यमखिलं पूर्व लोकान् कथयेयुः। अपरमपि दृष्टान्तं प्रमाणतया त्वां दर्शयामि तमपि श्रद्धालुर्भूत्वा शृणु हे राजन् ! त्वामेव सुस्नातमनुलिप्तसुरभिचन्दन, रमणीयचद्धकौशेयवसनाभरणैर्मण्डितगात्रं देवपूजाय गच्छन्तम्पथि कश्चिचाण्डालादिजनो महताप्याग्रहेण यद्येवं ब्रूयात् । हे सामिन् । अहं ! तव दासोऽस्मि सदैव भवदुच्छिष्टमश्नामि, सांप्रतमप्युच्छिष्टमेव शिरसा वहन व्रजामि। परं मयाञ्च महाश्चर्य विलोकितम् । तदिहागत्य मत्तो भवद्भिरवश्यं श्रोतव्यम् । इति तदाहूतस्त्वं तदन्तिकं गमिष्यति नवेति राजोवाच हे स्वामिन् ! तदानीं नाई तल्पाच गच्छानि, तदुक्तं श्रोतुं तत्र क्षणमपि न विष्ठानि । इति राज्ञो वचः समाकर्ण्य गुरव ऊचुः । हे राजन् ! यथा विशिष्टं देवार्चनादिकृत्यं विहाय भवान् नीचजनान्तिकमालपितुं न जिगमिषति । तथैव देवतापि मनुष्यैः सहाऽऽलपितुमिहलोके नाऽध्याति । परन्तु कियन्तो देवा वचनपारवश्यादिकारणेन कदाचिदेवात्र समागच्छन्ति । तत्कारणमेव दर्शयति-गायापंचसु जिणकल्लाणेसु चेव, महरिसितवाणुभादाओ । जम्मतरनेहेण य, आगच्छति सुरा इह पं ॥१॥
व्याख्या-जिनेश्वराणां पञ्चकल्याणके तथैव महर्षीणां तपःप्रमावाईवा अत्र समायान्ति । पुनर्भवान्तरप्रवरस्नेहप्राचुर्पण भीशालिभद्रपिषत द्वेषेणाऽपि च संगमदेववद्देवा मर्त्यलोके समागच्छन्ति । नान्यथेति श्रुत्वा नृप एवमाचष्ट प्रमो !! गतो मे संशयसकलोऽन्यत्र विषये । परमन्यमेकं पृच्छामि, वमपि. युक्त्या निराकरोतु। भवान । वाहिद गुरो। हे.
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सनर्देशिन् ! मम पिता तु पापीमा लादैन भीगागा हिवाका बासीट : स च मृत्वा नूनं नारकीगतिमासादिखवान, भवादृशेति तर्कयामि । सोऽप्यत्राऽऽगत्य किमप्यात्मवतमद्यापि मां नाऽवोचत । तत्र किया। | रणम् ? एवं नृपेण पृष्टे सति गुरुरुवाच हे धराधीश ! इहलोके ये पापीयांसो जायन्ते, तेषामवश्यमेव नरके तीव्रतरा महाकष्टदा | वेदनाः सदैव भवन्ति । तत्र च समागतांस्तान जीवान् परमाधर्मिणस्तदधिकारिणो देवा भृशं दुःसई कष्ट सञ्जनयंति, सदा RI महत्तरक्लेशराशिमनुमवन्तस्ते जीवा अहर्निश परतन्त्रा एवं तिष्ठन्ति । कदापि कुत्रापि गमनलपनादि कर्तुं नैव प्रभवन्ति ।
किश्च हे राजन् ! परमाधर्मिणस्तदधिकारिणो देवास्तत्र गतान प्राणिनो या या वेदना अनुभाक्यन्ति तास्ता अधुना कथयामि, | सावधानीभूय भवता ताः सर्वाः श्रूयंताम् । इह सप्तसु नरकावासभूतपृथिवीषु शीतादिका दशधा क्षेत्रवेदनाः सन्ति । समसु AI नरकेषु मिथः शस्त्रादिप्रहारं विना सञ्जातवेदनाः समानाः सन्ति तत्राधनरके पञ्चके प्राणिनां परस्परं प्रहारादिवेदना जायन्ते ।
तथा प्रथमनरकत्रये चरमे च जीवानां पस्माधार्मिकैस्तैर्देवैर्विहिता दुःसहा महावेदना भवन्ति । ताथैता:-यथा-शीतवेदना (१) उष्णवेदना (२) क्षुधावेदना ( ३ ) तपा (४) खर्जू (५) परवन्यता (६) ताप (७) दाह (८) भय (९) शोकवेदना । (१०) एतदन्ये दुःसहतराः क्लेशा अपि भुज्यन्ते नरके प्राणिभिः सदैव । किन हे राजन् ! दृष्टान्तमप्येकमत्र विषये त्वां | दर्शयामि । तथाहि-यदा कश्चिचपलो धूर्तस्तव प्रेयसी सुरिकान्ताभिधानां रहसि सेवेत । पुनस्तद्विलोक्य गृहीत्वा च तं । कुतमहापराधं धृतं त्वं हनिष्यसि वा त्यक्ष्यसीति हि । ततो राजा न्यगदत् । हे प्रभो ! तादृशम्पुमासन्तु सहस्रखण्डशः कृत्वा | चतुर्दिक्षु बलिमेव दास्यामि । कदाचिदपि नैव मोक्ष्यामि । पुनमुनिना भणितम् । हे राजन् ! स वध्यः पुमान् यदि तत्राऽवसरे
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बहुश्शस्त्वामनुनयेत वा निजकुटुम्बसमिलनाय गन्तुमीहेत-अर्थात हे स्वामिन् ! निजकुटुम्ब मिलित्वा पुनरधुनवावा. मिष्यामि साम्प्रतं मां मुञ्चेति प्रार्थयेत, तर्हि तं किङ्करिष्यसीति गुरुणा पृष्टे न्यगदद्राजा-हे स्वामिन् ! महापराधिन कदापि न हास्यामि । ततो गुरुः कथयति भो राजन् ! यथा सापराधं नरं निजकुटुम्बादिदर्शनाद्यर्थ त्वं न मोक्तुमर्हसि । । तथैन नन्दस्थजीतानगि ततोऽन्यत्र गमनाय जातिकारिणो देवा नैव मुश्चन्ति । अतो नरकवासिनो जीवा भृशं दुःखसागरे । निमग्रा अपि पारतन्त्र्यवशादिहलोके पुत्रादिपरिवार किमप्यात्मदुःखं सूचयितुं नागच्छन्ति । इत्थं स केशिकुमारो गणधरो । नास्तिकमतिकमपि प्रदेशिराजानं प्रतियोधयामास । ततस्तत्याज च नास्तिकतामति पालो गतशङ्कः। समुदपद्यत महती श्रद्धा राज्ञः शाश्वते जैनधर्मे । अङ्गीकृतघांश्च राजा श्रावकस्य द्वादशवतानि । अथ राजा राजद्रव्यस्य चतुर्भार्ग कृत्वा प्रथमम्भागकोशालये स्थापितवान् । द्वितीय भागमन्तःपुररक्षणयोपणादिसम्पादनार्थ, तृतीयं मागं घमार्थ, चतुर्थं भामं सैन्यार्थ विहितवान् । इत्थं शुद्धधर्ममासाद्य धर्मे च मतिदाय विधाय चित्रसारथिना प्रधानेन सह गुरुं त्रिकरणशुद्ध्या वन्दित्वा निजावासम्प्राप्तवान् । ततःप्रभृति स नृपो विषयमुख्यं दधानः सदा पोषधे, प्रतिक्रमणे, द्विकालिक सामायिकादिवतप्रत्याख्याने च समासक्तोऽभवत् । मुनिरपि ततोज्यत्र विजहार | तदनु-स राजा विषयवासनापरित्यक्तः संसारे लौकिकं कृत्यं कुर्वाणः समवतत । राज्यं कुर्वतोऽपि तस्य भूपतेर्मनः सदा धर्मकृत्य एवाऽनुरागि बभूव । विषये तु विरक्तमेवाऽऽसीत् । किमधिकेन, तस्य | राज्ञो याति प्रेयसी श्रेयसी कान्ता सरिकान्ताभिधानाऽऽसीत् तामषि राजा नितरां विसस्मार। अथ राजानं विषयषिमख । शान्तमनस सपोरागिणं विचिन्तयन्ती सूरिकान्ता अधिष्णुकामवासना निजविषयसुखपूरणाय, कमपि तरुणम्पुमांसमन्य स्वानु
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बली.
रागिण सेवितुभच्छत् । ततःप्रभृति सा मरिकान्ता निजभर्तरि महाद्रोह विदघती मनस्येवं दध्यौ। एष नितरां विषयवैमुख्यमुपगतः । मम तु सदैव घृतेन पहिरिव मदनो भृश वर्धिष्णुरेव दृश्यते । सति सस्मिन् भर्तरि पुरुपान्तरेणाऽपि मम स्वैरविहारो | व श्यादित्यादिनिताला गानदासीह मा, सावदेकदा महीभुजस्तस्य सञ्जातषष्ठोपवासस्य पारणकमागात् अर्थात-दिनद्वयमुपोषितस्य महीजानेः पारणादिवसो हि समागतः । तत्र दिने पारणायां विपमिश्रमाहार राजानं भोजयामास, स राजा तस्यास महादुष्टायास्तादृशं दुश्चेष्टितं जाननपि स्वस्य तथा भवितव्यं मत्वा किञ्चिदप्यनूचानस्तद्दत्तमाहारं सुखेन भुक्त्वा सर्वाङ्ग गरलव्याप्त्या व्याकुलतामधिगच्छन्नचेष्टो जातः । तत्राज्ञसरे कुशलं प्रष्टुं सर्वे सामन्तामात्यादयो राजकीयास्तत्राजग्मुः । तस्मिन्नवसरे सूरिकान्तया दुष्टधिया चिन्तितमेवम् | अहो यद्यसौ नरनाथः कमपि मम चेष्टितङ्कथयेत्तर्हि महदपयशो मे स्यादिति विचिन्तयन्ती सा दुर्धी राझी स्त्रीचरित्रं नाटयन्ती राजान्तिकमागत्य केशपाशमुन्मुच्याऽभितो विलोकयन्ती नृपोपरि पतन्ती
राज्ञो नलिकामुञ्चैः परिपीड्य राजा ममारेति तत्क्षणमाक्रोष्टुमारेमे । तदाक्रन्दनमाकये सर्वेऽपि लोकास्तत्रागता नृपं मृतम्पश्यन्तो | नितरां शुशुचुः पुनस्ते तदीयोत्तरक्रिया कर्तुम्प्रावर्तिपुः । राजा मृत्वा समाधिमरणमाहात्म्येन प्रथमे देवलोके पूर्याभविमाने सूर्या
मनामा देवोऽभूत् । तत्र च चतुःपल्योपममायुर्भुक्त्वा ततश्युत्वा महाविदेहे क्षेत्रे मानुष्यमासाद्य सद्गुरुपयोगे चारित्र्यम्परिपाल्प - कर्मसन्तति क्षपयित्वा मोथं प्राप्स्यति । अक्षय मुखं भोक्ष्यति । अतो हे भव्याः ! परमसुखार्थिनः भवन्तोऽपि यदि मोक्षसाम्राज्य
मिच्छेयुस्तहि प्रदेशिराजक्त सद्गुरुसमायोग विधाय धर्मे मतिदादयं कुर्वन्तु ।
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३-अथ धर्म-तत्वषिषथेजलनिधि जलवेला चंद्रथी जेम वाधे, सकल विभव लीला धर्मथी तेम साधे ।
मनुअ जनमकेरो सार ते धर्म जाणी, भजि भजि भवि भावे धर्म ते सौख्य-खाणी ॥ ७॥ यथा— चन्द्रमसा जलनिधिरेधते, तथा धमैराराधितैः संसारे लौकिक्यः सम्पदो नितरामभितो वर्द्धन्ते । अतः हे भव्या । | इहलोके मनुष्ययोनिमासाद्य सर्वसारं धर्मतत्त्वं सकलसुखनिधानं सादरमाराधयत ॥ ७॥
इह धरम पसाये विक्रमे सत्य साध्यो, इह धरम पसाये शालिनो साक वाध्यो ।
जस नर गज वाजी मृत्तिकाना जिकेई, रण समय थया ते जीव सांचा तिकेई ।। ८ ॥ किश्च हे लोकाः ! पश्यत दुष्करमपि समीहित धर्मप्रभावतो जायते । तथाहि-विक्रमेण वीरेण धर्मप्रसादादेव सार्वभौमत्वं प्रासम् । वीरसंवत्सरमपहत्य निजनाम्ना संवत्सरमस्थापयत | अपि च धर्माराधनेनैव शालिवाहनो पराधीशो निजनाम्ना शकाब्दखगति व्यवहारितवान् । महत्तरमकण्टक राज्यमसमत । अन्येऽपि बहुशो वीराः सम्यग् धर्ममाराधयन्तो महागज| तुरजमादि दिव्यानि वाहनानि प्रापुः । तथा रणे विजयिनो बभूवुः ॥ ८॥
अथ धर्मतत्वोपरि विक्रमार्कस्य ३ कथानकं दश्यतेइह हि-मालवदेशे उज्जयिनी पुरी वर्तते, तत्र गन्धर्वसेननामा राजा राज्यहरोति । तस्य भूपते रूपलावण्यादिगुणै रम्भोपमा
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३॥
मुक्तावलीनाम्ना प्रेयसी पट्टराज्ञी विधते । तयोश्च भर्तृहरि - विक्रमाभिधानों पुत्रौ बभूवतुः । तावुभौ भ्रातरौ पित्राः प्रमोदकरौ द्वाससकिलाfort सकलविद्याविशारदौ बलाढ्यों तेजस्विनौ प्रतापवन्तो नयादिसकलगुणसम्पन्नौ यौवनमापतुः । तदा वाक्यमुपागतो राजा ज्यायां भर्तृहरिनामानं पुत्रं प्रधानादिसकलजनानुमत्या राजानं कृतवान्। ततः केनचित्कारणेन विजबन्धुनुपकृतापमानोऽसहमानः कनीयान् विक्रमकुमारः कोपाद्देशान्तरं नीतवान् । अथैकदा राजा भर्तृहरिनगर कौतुकं विलोकमानो राजमार्गेण गच्छन्नासीत् । सत्रावसरे निर्धन एको ब्राह्मणो निजभार्यया भणितः । हे स्वामिन ! धनैर्विना कुटुम्बपोषणं न सम्भवति, धनमर्जय । ततो भार्यया प्रेरितो ब्राह्मणः प्रचुरतरैश्वर्यं लब्धुकामस्तत्रैव सद्यः फलप्रदां 'हरसिद्धि' देवीमाराधयितुमारेभे । परिपूर्णे चानुष्ठाने सा देवी प्रत्यश्रीभूय तमेवमवादीत् । हे ब्राह्मण ! तपसाऽनेन तवोपरि तुष्टास्मि । वरं ब्रूहि निजाsभीष्टश्च प्रार्थय। तदनु द्विजोऽपि तां प्रणम्य यथाभति संस्तुत्यो । हे मातः ! यदि तुष्टासि वरश्च दित्ससि, तर्हि महयमजरामरफलन्देहि । ततः सा देवी तस्मै तत्फलं दवा निजस्थानङ्गता । ततस्तत्फलमादाय द्विज एक्मचिन्तयत् । एतत्फलं नूनममुष्मै मर्तृहरिराजाय ददानि स तुष्टो मे यथेष्टं धनं दास्यति, ततोsहं सपरिवारः परमं सुखमनुभविष्यामि । इति विचार्य तत्फलं स राज्ञे दत्तवान् । सदीयमाहात्म्यश्च सविस्तरं प्रोक्तवान् । तन्माहात्म्यं निशम्य विलक्षणमलभ्यञ्च तत्फलं गृहीत्वा नृपस्तमेवमपृच्छत् । हे विप्र । एतत्फलं त्वया कथं कुत्र च लब्धम्' नृपोत्तमाकर्ण्य यथा प्राप्तं तदादितः सर्वमपि वृत्तं स राजानं उक्तवान् । अथ सन्तुष्टो नृपस्तस्मै बहुविधं यथेष्टमा जन्म निर्वाहक्षमं धनं प्रादात् । ततो विसृष्टे च विप्रे तत्फलं निजप्रेयस्यै सदा सुस्थिरयौवन स्थितिकामनया राजा ददौ । कथितञ्च - अयि प्रियतमे ! एतत्फलं शुङ्क्ष्व । तथा सति तव सदैव तारुण्यं स्थास्पति, जरा तु कदापि नागमिष्यति । सापि तदाजरामरका रि फलम्पाण्डव
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हनाम्ने निजजारपुरुषाय प्रेम्णा दत्तवती । सोऽपि मणिकासमासक्तः शृङ्गारमञ्जरीवेश्यायै ददाति स्म । तयापि चिन्तितम्, PI एतत्फले राजा यदि मोक्ष्यति तहि वरै स्यादिति ध्यात्वा तदादाय स्वर्णस्थालके च निधाय निजपरिवारयुता राजसभमागत्य
तस्मै भूजानये समर्पयामास । अथ तत्कलमालोक्य राज्ञो हर्षस्थाने महान विस्मयो जातः । अहो मयैतत स्वराये दत्तम् ।। तर्हि कथमनया लब्धम, एवमनेकधा निजमनसि संशयमधिगच्छन् राजा तामेवम्पप्रच्छ । अयि गणिके ! त्वयैतत्फलं कुतो लब्ध, सत्यं ब्रूहि, तत्रावसरे सा गणिका तद्विषये किमप्यलीकमेव वक्तुं लग्ना, परं राज्ञा तन्न स्वीकृतम्। पुनः पुनः क्षितिभुजा | पृष्टाऽपि यदा सा वेश्या सत्यवृत्तान्तं नाचोचत तदा प्रकुपितो राजा तामेवमवदत्, अरे रण्डे ! सत्यं वद कृतः प्राप्तमेतदिति, नो चेद नैव शालिकागां नामारोपरि मामि, सामादिदेश च मंत्रिणमेवम् भोः प्रधान ? एनामलीकवादिनीं बध्वा सन्ताडय । ततस्तां बध्वा ताडितुं लग्नः कोऽपि प्रतिहारी, ततोऽवादीत सा, हे स्वामिन ! मा ताडय र सत्य कथयामि यथा प्राप्तमिति सदैव सेवकः पाण्डवामियो मे दत्तमेतत् । मया तु विशिष्टम्फलमेतदिति ज्ञात्वा भवते समर्पितम् । अथ पाण्डवमाहूय राजा तत्स्व- | रूपम्पप्रच्छ । सोऽपि बहुधा ताडितोऽपि विभीषितोऽपि सत्यं नाख्यत् । परं विचक्षणो भर्तृहरिरन्यथैव तत्स्वरूपमवधार्य तत्फ । लश्च वनाच्छन्नमादाय राश्याः पार्थभागतः । तामेवमपृच्छत् । भो राज्ञि ! महत्तमजरामरकारि फलं त्वया भक्षित किम् ! तयोक्तं स्वामिन् ! तस्मिन्नेव दिने मया भक्षितम् । तस्मिन्मनसरे महरिवं निजमनसि निश्चिकाय, यत्खल्वियं रानी पापीयसी | जारानुरागिणी वर्तते । अतोऽस्मिन्ससारे संसारे धीराणां का प्रीतिः । अहो कामपारतन्त्र्यमुपागतो लोको ध्रुवमकार्यमपि विधत्ते। इत्यं स नरपतिविषय विमुखो भूत्वाऽमुं संसारमसारं जानन दीक्षामेव निःश्रेयसे स्वीचकार । इतश्च नानादेशानटन् बहुशः
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कौतुकानि विलोकमानः स विक्रमस्तत्रोज्यचिन्यां शिप्रातीरे समागत्य तस्थौ । तदा तत्रैकलक्षः पोठीनः सहावतीर्ण आसीत् । विक्रमोsपि तन्मध्ये निशि चौर्याय प्रविवेश । तत्स्वामी च तस्मिन् समये केनापि मित्रेण सह सारिकापाश्कक्रीडनं विदधदासीत् । क्षिप्रायाः पुरोऽपि तत्र समये महानासीत्, तत्रावसरे काचिदेका मृगाली जगाद तच्छ्रुत्वा मित्रमपृच्छत् । हे श्रेष्ठ इयं शृगाली कि वक्ति ? पोटस्वामी न्यगदत् । हे मित्र ! शृणु सम्प्रति क्षिप्राप्रवाहमध्ये स्त्रीशत्रो याति तदने महाणि विविधानि भूषणानि सन्ति । तथा धनमपि प्रचुरं तदङ्गे संबद्धमस्ति । यददानीं कश्चन महाशूरो वीरो जलाच्छवमानीय भूषणानि सर्वाणि धनानि च गृहीत्वा तत्कलेवरं भोक्तुं मे समर्पयेत् तर्हि वरम् इति वदति क्रोष्ट्री । अथ तत्पोठमध्ये गुप्तः सर्वमाकर्णयन विक्रमस्तत्क्षणमेव क्षिप्रान्तः पपात । पुनस्तच्छ्वमानीय तीरे च धृत्वा तदङ्गतः सकलधनादिकं गृहीत्वा मुक्तः कलेवरस्तस्यै शृगालिका क्षणा विक्रमार्केण । अथ पुनस्तत्रैवाक्षदेवनस्थाने प्रच्छन्नतया गत्वा तस्थौ । ट्यपि मित्रेण साकमक्षक्रीडन कुर्वभासीत् । सेव क्रोष्ट्री पुनरूचे भूयोऽपि तद्राचफलं श्रेष्ठिनं सोऽपृच्छत् । अथ श्रेष्ठिनोक्तम् । हे सखे ! इयमधुना यद् ब्रूते तदाकर्ण्यताम् । येन साहसिकशिरोमणिना पुंसा ममाऽर्पितं भक्षणम्, स उज्जयिन्या राजा भविष्यति । विक्रमः सर्वमाकर्णितवान् । अत्रान्तरे पुनरुक्तं तथा क्रोष्ट्रया तेन मित्रेण तथैव तत्फलमपि श्रेष्ठी पृष्टः । वत्रावसरे प्रच्छनं स्थितं विक्रमं स सार्थस्वामी ददर्श । सत्क्षणं स विस्मितो यावदितस्ततो वीक्षमाण आसीत् । ताबतदग्रे गत्वा व्यक्तीभूय स विक्रमः सर्वमादित: शिवा भाषितफलमाकर्ण्य तं श्रेष्ठिनमेव सुवाच । हे महाभाग ! इतः प्रभृति त्वं मम मन्त्री जातोऽसि । ततस्तेन मन्त्रिणा साकं विक्रमो बहुविधशुभशकुनैः प्रेरितो हृष्टमना नगरम्प्राविशत । तदेव कोऽपि राजपुरुषः कस्यचिदेकस्य कुम्भकारस्य गृहे समागत्य तब गृहादेवाद्य
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केनापि पुरुषेण तत्र भक्ष्याय गन्तव्यमिति वारपत्रमर्पयित्वा तदीयात्मजं गृहीत्वा चचाल | ततस्तदीयो पितरौ भृशमाक्रोशवक्रतुः । विक्रमस्तदालोक्य तावुवाच अरे ! कथमेयं रुदियः १ तापक्तां आवयोरतिकृद्धयोः पुत्रमसो राजकीयजनो गृहीत्वा | याति । अत आवामेवमाक्रन्दावः । पनरुत विक्रमेण मा रोदिन । अहमेव त्वत्पत्रस्थाने गमिष्यामि । परन्तु युवांबदस, किमर्थ कुत्र युवयोः पुत्रं स नयतीति । युवां चिन्तां त्यजतं । यदि दुष्करमपि भविष्यति तथापि युष्मदात्मजं मोचयिष्याभि, तत्स्थाने गमिष्यामि चेति श्रुत्वा ताक्दताम् । हे परोपकारिशिरोमणे ! अत्र नगरे राजा भर्तृहरिः सञ्जातवैराग्यवशात् प्रवजितः । ततःप्रभृति कोऽप्यन्त्र राजा नास्ति । किञ्चास्वामिकेऽस्मिनगरे कोप्यग्निवेतालाभिधो वीरो महादुष्टो नागरिकाञ्जनानसोः क्लेशः समुद्वेजयितुं । लग्नः । सतच सर्वे राजकीया जना उद्विग्नाः सन्तः प्रत्यहमेकं नरं तस्मै भक्षणार्थ दातुं निश्चिक्युः । ततःप्रभृति प्रतिदिनमेकस्माद् । गृहादेको नरो याति तस्य महाराक्षसस्य भक्ष्याय । अधाययोरेव पुत्र तदर्थमसो राजपुरुषो नीत्वा याति । अथैतद्वातौ श्रुत्वा तं राजकीय पुरुषमेवमुवाच । भोः पुरुष ! एनं मुञ्च, एतत्स्थानेऽहमेव गच्छामि । ततस्तं कुम्भकारपुत्र मोचयित्वा स्वयं तेन | पुरुषेण सह समन्त्रिको विक्रमो राजसदनमागत्य राजसिंहासनोपरि समुपविष्टो भृशमदीप्यत । तत्रावसरे सकला अमात्यप्रधानादयस्तमुपलक्ष्य प्रमुदितमनसः प्रणेमः । अथ विक्रमेण चिन्तितम् । मया कुम्भकारपुत्रो मोचितः । परं निशि तद्देवता प्रीत्यर्थ कोऽप्युपायस्तु नावधारितः । अथैवं निजमनसि चिन्तयता राज्ञा सर्वे कान्दविकाः समाहृता ।। ततस्तानेवमादिशत् । भोः कान्दविकाः ! यूयं नानाजातीयमोदकराशि कुरुत । नानाविधान यथेष्टानपूषान् घृतपूरका- | दीनि च । ततस्तत्तद्राशीकृतानि भोज्यानि मोदकादीनि, नानाविधव्यञ्जनानि, भक्तानि, सुस्वादकराणि तत्र स्थाने स्थापयामास ।
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स्थाने स्थाने दीपावलीच कारितवान । तत्र स्थाने तदर्थ मुखवासकराणि ताम्बूलादीनि लबजैलाकस्तूरिकाकर्पूरादिविमिश्रितानि, ।। पुञ्जीकृतानि, तत्स्थाने स्थापितवान् । तथा नानाविधमुरभिघाणतर्पणविधायकद्रव्यराशिमिः परिपूरितम् । तथा नानाजातीयमहामोदकरधूपराशीश्च तत्र कारितवान् । इत्थमनेकविधखादिमस्वादिमलेखपेयपदार्थैः निभृतं विधाय निर्गत च लोके निर्जने तद्राजमन्दिरे रात्रौ खड्गपाणिः स विक्रमो राजा समागत्य तस्मिन् राजपल्यके पुरुषाकृतिकङ्काष्ट स्थापितवान् । पुनस्तं क्सनेन समावृणोच्च । स्वयञ्च समुद्यतासिः क्वचिद्रहः स्थितो जातः । ततोऽर्धरात्रे मुग्वेन फूत्कार विदधत करेण च डमरु वादयन पद्भ्यां घर्घरारा सञ्जनयन रक्तायतलाचनः पृथ्वी चरणापान कम्पयन पक्षान शातयन सोऽनिवेतालस्तत्रागात् । पुनस्तत्क्षणमेव तत्र पल्यकोपरि सुप्तं नराकारमसिना द्विधा कृतवान् । अथ भनकाष्ठमालोक्य नरमपश्यमभितो वीक्षमाणो यायदासीत् तावत्तत्र तस्याऽभिमुखीभूतो विक्रमस्तं वीरम्प्राणमत् । ततो वेतालस्तमेवमपृच्छत् भो ! एतत्सर्व किमर्थमत्र सश्चितं दृश्यते, राझोक्तम् । भगवन् ! त्वदर्थमेवास्ति । एतानि सर्वाणि गृहाण, सुखेन भुझ्व, नरमक्षणं जहि । अथ तत्सर्व भुक्त्वा सन्तुष्टो वेतालो भूपालमेवमुवाच । हे वीरविक्रम ! मया किलतद्राज्यं तुभ्यम्प्रदत्तम् । परं नित्यमित्थमेतावान् बलिः त्वया प्रदेयः । इत्युदीर्य स वेतालोऽलक्ष्यो जातः । ततो निःशको राजा तस्यामेव शय्यायां सुष्वाप । ततो जाते च प्रभाते विनिद्रो राजा स्नानादिकं विधाय विविधानि बहूनि दानानि चक्रे | पोरे च सर्वाः प्रजाः प्रमोदमापुः । तस्मै महीभुजे च सर्वे लोका आशिषो ददुः। इत्थं प्रजापालयतः प्रत्यहं तस्मै तथाविधवलिमर्पयतो राज्ञ एकदा मनस्येवं वितको जातः । एतस्मै प्रतिरात्रं बलिमित्थं समर्पयामि, यदा न दास्यामि, तदा पुनरसी महोपसर्ग विधास्यति । अतः कोऽप्युपायो विधातव्यो येन तस्मै बलिदातव्यो ?
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न भवेत् । एवं शोचता विक्रमेणैकदा स सालो भणितः । मो देव ! ममायुः कियदस्ति ? तेनोक्तं त्वदायुः शतवर्षमस्ति।पुनः पृष्टं | राज्ञा हे वीर ! एसदङ्कशून्यतया सुन्दरं न प्रतिभाति । अत: शतमध्यात किश्चिदधिकं न्यून वा विधेहि । तदाकर्ण्य वेतालो यक्ति-हे राजन् ! यत्ते षष्ठी दिने विधिना शतमायुः कृतं तन्यूनाधिक कर्तुं विधिरपि न शक्नोति का वार्ता तदितरेपाम् । ततो वेतालो निजधाम गतः । अथान्यस्यां रात्रौ राज्ञा चिन्तितमेयम् । इह हि सत्यायुषि कमपि कोऽपि न इन्तुं । शक्तिमानस्ति, तर्हि तालो मे किङ्करिष्यति । इति विश्वस्तेन तदर्थ पलिनोंपढौकितस्तत्र विक्रमेण । अथ मध्यरात्रे ममामतो वेतालस्तत्र बलिमपश्यन राजे भृशं चुकोप । ततः कोपादति भीषण तमेव राजावदत् । है बेताल ! अलमिदानी कोपेन । ६ यदि शक्तिं बिभर्पि, तर्हि समागच्छतु भवान, मया सह युध्यसाम् । ततो विक्रमस्य साहस विलोक्य नोक्तम्। हे राजन् ! त्वं नून-१६ मेव सर्वेषां साहसिकानां मुमटानाश्च शिरोमणिरसि । अतोऽहं त्वयि सन्तुष्टोस्मि | वर बहि, इति तदीयं वच आकर्ण्य विक्रमोऽपि तमेवभगदत । हे देव ! यदि तुष्यसि चरञ्च दित्ससि, तर्हि सर्वास्ववस्थासु वं मामव्या इति प्रार्थनका । तथा स्मृतोऽस्मृतो वाइ- | वसरे मदन्तिकमागच्छ, इति द्वितीया प्रार्थना । इतोऽन्यस्किमपि न प्रार्थयामि । वेतालोऽपि तत्सर्वमगीकृत्य निजधाम गतः।। विक्रमोऽपि तसःप्रभृति निर्भीकः प्रजा इव प्रजा पालयन सुखमनुवमूच । स विक्रमः तत्रोयिन्यामेव काप्येका सिद्धविधा तैलिककन्या त्रिभुवनजयिनी रूपलावण्यवती तारुण्यलीलावती देवदमन्याल्या समासीत्, सच्छकाशात पञ्चदण्डात्मक छत्रं साधयामास । विद्यया | चतां विजित्य स्वप्रेयसीचकार । तथा सौधर्मेन्द्रोऽपि तदीयगणगणं समाकर्ण्य विक्रमार्कभपतेर्वशवदः समासीत । विक्रमोपरि महती प्रोतिरासीविन्द्रस्यापि । किन विक्रमी विक्रमा प्रीतिदले देवेन्द्रेण महासिंहासने समुपविष्टः पञ्चदण्डात्मकच्छवेग शोममानो नितरामदीप्यता
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अथैकदा तत्र नगरे श्रीमहाकालेश्वरमन्दिरे राक्षः प्रविबोधार्थ कुमुदचन्द्राभिधो जैनाचार्य आगात । स च महा | डली || कालाऽभिमुखं पदं कृत्वा तत्रैव सुप्तः । अथ कियता कालेन समागतोऽकरत साधु तथा सुक्षमालोक्य वभाषे ? अरे ! कस्त्वम् |
एवं किं स्वपिषि ? श्रीमहादेवावहेलाकरणेन कथं न विभेपि ? इत्यमर्चकेन बहुधा निवारिवोऽपि स यदानन्यवर्तत, वदा स देवल
स्तरक्षणाचा शझे निदयामास । तदाकर्ण्य राजापि बुद्धः सुमटानेवमादिशत । मोः सुमटा ! यूयं तत्र यात सं पाख3 ण्डिनं निहत्य सत्वरं बहिनिष्काशयत । तेऽपि तस्कालमेय सत्र गत्वा ते साधु पादयोर्धत्वा निष्क्रष्टुं लग्नाः तत्रावसरे तदीयौ चरणों
भृशं वधाते । ततस्ते तो हित्वा तद्धस्तो गृहीत्वा तमुत्थापयितुमैच्छन् । सद्विलोक्य स साधुः करावपि नितरामवर्धयम् । ततस्ते सं ताडितुं लगा। संताडिते च सत्र मुनौ तत्रान्तःपुरे स्थिता राजदारा एव साडिता जाताः, सतस्ते तश्चमत्कारिणं प्रात्वा सर्वमादितो वृत्तं भूपं कथयामासुः । अथ राजा स्वयमेव तत्रागत्य तमवोचत । भो मुनीश्वर! त्वमित्थं देवदेव महादेव कथमवहेलयसि ? | तेनोक्तम् मया नैवाऽवज्ञायते । राजा वक्ति। एष तु मम देवः मुनिक्ति-नहि २ एतन्मध्येऽस्मदीयो देवो वर्तते । पुनराचष्टे नृपः। यद्येतन्मध्ये भवदीयो देवोऽस्ति तहि नो दर्शय । तच्छ्रुत्वा तेनोक्तम् हे भूपेन्द्र ! पश्य, अनावसरे स 'कल्याणमन्दिरस्तुति श्लोकेन निजदेव सम्बोध्य पदाऽऽहयत सदैव तल्लिग भित्वा वदाचार्यकरजलसेकप्रभावतोऽवन्तीपार्श्वनाथो भगवानाविरासीत् । सदेवश्चमत्कारमालोकयन, स राजा तं सिद्धमाचार्य ननाम। पुना राजा शुद्धदेवे गुरौं च सञ्जातश्रद्धः सम्पक्त्वसहितं श्रावकीयं द्वादशवतमाङ्गीपके । ततोऽसौराजा जैनधर्मप्रभाषेण सजातनिजामिक्षपौरुषेण सुवर्णपुरुषसाहाय्येन च सकलबैरिव्रजमवधीत । ततोऽस्य राज्यं निःसफ्नमासीत् । पुनरसौ विक्रमी विक्रमा निजनाम्ना जगति संवत्सरं प्रावर्तयत्, किश्च तस्य विक्रमपेन्द्रस्य शासनमखण्डे जगतः खण्डप्रये
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| मान्यमासीत् । मोक्षातस्य भगवतो महावीरस्य सप्तत्यधिकचतुम्शते वर्षेऽजीते विक्रमायः सम्बत्सरः प्रार्तत। इस्थमकण्टकं राज्य कुर्वन्, मईक्ति विदधत स्वायु: शत सम्पूर्णीकृत्य विक्रमी नि म सपा देशकावाद । इतोऽधिक चरित्र | विक्रमचरित्रादितो चोध्यं जिज्ञासावद्भिः।
अथ धर्मतस्योपरि शालिवाइननृपस्य ४-कथानकम्PM तथाहि-इहैव दक्षिणमहाराष्ट्रदेचे प्रतिष्ठानाभिधानं नगरं वर्तते । तत्र व शालिवाहनाख्यो राजा विलसति । स चैकदा
निजनगरसीम्नि वहन्त्याः क्षिप्रानद्यास्तटे विहरन नदीशोभाश्च पश्यन नितरां जहर्ष । परं तत्रावसरे जलतरङ्गसंयोगादेको महाकायो मीनो नदीतीरमागत्य प्रकटं जहास । तदालोक्य स राजा मनसि क्षोभ कृतवान् । तत्रेदं कारणम्-पल्लोकेऽस्मिन् मत्स्यो नैव हसति । परमसौ जहास । तेन कोऽप्युत्तोऽवश्यं भात्रीति निश्चित्य विमना इव राजा निजावासमापनः । ततः सर्वान् देवज्ञान नैमित्तिकांश्च समाकार्य तत्कारणं राजा तानपृच्छतु । परं मनःसन्तोषकरमुत्तरं कोऽपि नानक । ततो विषण्णो राजा ज्ञानसागरनामानं जैनमुनिमपृच्छत् । भो मुने ! मामवलोक्य स मीनः कथं जहास? । इत्य राज्ञा पृष्टो र मुनिरवधिज्ञानयोगेन जन्मान्तरीयं सत्सर्वमालोक्य राजानमेवमवोचत् । हे राजेन्द्र ! सावधानमनसा तत्कारणमाकार्यताम् । इहैव नगरे पूर्वजन्मनि भवान् निरपत्यः काष्ठभारविक्रेता महारङ्क आसीत् । काष्ठमार वनादानीय विक्रीय च नगरे निजात्मानमपुषत् । एकदा नदीतीरे बिलोपरि सक्तून परसा (वारिणा ) पिण्डीर्वता कोऽपि मासोपवासी धमाश्रमणः पारमा गोचर्य समागच्छस्त्वयाऽलोकितः । तत्रावसरे श्रद्धया वमाहूय मुदा तत्सस्तपिण्ड तस्मै दचवान् वेन सुपात्रदानप्रमावत इह
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जन्मनि राज्यमीदृर्श त्वया लब्धम् । स एव त्वमिह जन्मनि राज्यसौख्यमनुभवसि । स मुनिर्मृत्वा देवोऽजनिष्ट | पूर्वजकावली. न्मनि महारङ्कमिह जन्मनि राज्यसुखशालिनं च त्वामवगत्य प्रेम्णा मीनशरीरं प्रविश्य स एव देवो जहास । अत एतद्विषये त्वया किमपि न शोचनीयम् । इत्याकर्ण्य सञ्जतपूर्वभवजातिस्मृतिः स शालिवाहनो नृपः साधूक्तं सर्वे तथैव मेने । ततस्तस्य राज्ञो जैनमहती श्रद्धा समुत्पन्ना । ततः मृति शनपर्यारामो विशेष तन्नम् । धर्मकृत्ये सदैव तत्परोऽभवत् । अस्मिन् भारते तनाम्ना प्रवर्तितो वत्सरोऽद्यापि पञ्चाङ्गे ज्योतिर्विद्भिर्विलिख्यत एव । किञ्च विक्रमार्कनृपतिना सह यथास्य सङ्ग्रामोऽभूत्तथाऽधस्तनप्रदर्शित लेखतो बोध्यः ।
१३ ॥
一
तथाहि — प्रतिष्ठानपुरे नगरे कस्यचित् कुम्भकारस्य गृहे त्र्यो यात्रार्थिनः समागताः । तत्र द्वौ भ्रातरौ तदीयाऽचिरकालिकी विधवा भगिन्यासीत् । सा च निजश्रियाऽप्सरसोऽप्यधिका पश्यतां यूनां धैर्यलोपन विधायिनी महारूपलावण्यशालिनी किमधिकेन ब्रह्माण्डोदर मध्यवर्तिकामिनीनामखिलानां सा हि प्रशस्यतमाऽऽसीत् । सा चैकदा संध्यासमये गोदावर्या जलाहरणाय नागहूदं गता । तत्रावसरे सैकाकिनी स्वप्सरायमाणा वैधव्यदोषेण मनोहर - कौशेयाऽऽभरणादिहीनापि नैसर्गिकाऽनुपमतनुश्रियैव नितरां शोभमाना तथा शशिकलेव सर्वतः प्रकाशयन्ती परिधानवसनं किञ्चिदुचैः कृत्वा वारिप्रविष्टा घटं वारिमध्ये यदैव पातयामास तत्रावसरे तस्याः शिरसो वसनं चायुना किशिचालितम् । तत्र समये सदीयकुटिला अतिश्यामलाः स्निग्धा लम्बाधमानाः कचवरा अंसयोः पतिता नितरामशोभन्त । तथा तडिद्गौरवर्णामास्तस्या अत्युमतौ चारू पीवरौ सुकठिनों पयोधरों कनकलतायामुदिते सुफले इ शोभेते । तदा जलमध्ये तद्रुयुगं कदलीस्तम्भयुगमित्र शुशुभे । अथ तामवलोक्य किमियं काचन नागकन्या मां वरितुमिहाया-
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स्यादि नानामनोरथान कुर्वन कश्चित्रागराजो दिव्यमूर्तिधरो जलमध्यादाविर्मय स्मरवरातिपीडितो त्रियुतमिव तस्याः मुखारकि सन्दमवलोक्य नयननिमीखनं कुर्वन् कथमपि साहसमाधाय नेत्रयुगश्चोन्मील्य सादरं तां पश्यन् किश्चित्तस्थौ । तत्रावसरे सायन्तनं
कुसुमसौरभो मन्दपवनो सौ । वेदादि अचमढ़नाकोमात । सहरवा सुंदरीं तरक्षणमेव शीलभ्रष्टां स हठादकरोत् । हा! हा! दाधिक कामम् ! यदर्दितो ज्ञानवानपि मुह्यति । नैसर्गिक विवेकं त्यजति । अनिच्छन्तीमपि बलादुपभुज्य तामेवमवक् । हे सुभ्र ! रोपं .
मा कार्षीः । शोकच त्यज, तब महापराक्रमी यशस्वी राज्यभोक्ता बलीयान् पुत्रो भविष्यति । किञ्च यदा यदा ते काप्यापदागच्छेचदा तदा त्वयाऽहं स्मरणीयः । ततोऽहं तवाऽऽपदं संहरिष्यामि । इत्यादि मिष्टैक्यैिस्तो परिभाष्य स नागदेवः स्वस्थानमी| यिवान् । साऽपि विधवा शोकाकुला जलमादाय स्वस्थाने समागता । तत्स्वरूपं विदित्वा तद्भातराचुभावपि तां तत्रैव परित्यज्य
निजदेशमागतौ । सा च तत्रैव कुम्भकारगृहे केनापि प्रकारेण दैवं विनिन्दती सगर्भा सती कालं निनाय । अथ परिपूर्ण दशमे Poil मासे सा पुत्र प्रासोष्ट । अथ नागदेवतेजसः प्रमावेण स बालो महातेजस्वी मनीषी महाप्रतापी समपद्यत । परं कुम्भकारगृहोल्प
सतया लोके तत्पुत्रत्वेनैव प्रख्यातिमागात् । ततस्तजातीयकर्मणि क्रमेण स नैपुण्यमधिगत्य नानाजातीयमृण्मयनरकुमारतुरगोष्ट्रस्थादिक रममाणः स निर्मितवान् । तस्य नाम सातवाहन इति लोके पप्रथे।
वत्र समये तत्रोज्जयिन्या महाविक्रमी विक्रमार्को राजाऽसीत् । स चैकदाऽऽत्मीयं वार्धक्यमवलोक्य मनस्येवं दम्यौ । मम पक्षा| दिदमखण्ड राज्यमपहर्तुं कोऽप्युत्पत्स्यते क्षिताविति । इत्युत्पअविचारो राजा संसदि निपुणतमान दैवज्ञानाडूव सानेक्मपृच्छत् । भो। मो िदैवज्ञाः ! ममैतद्वाज्यमपहर्ता साम्प्रतमस्ति कोऽपि क्षितितलेऽस्मिमिति विचार्य कथयत । ततः सर्वेऽपि विचारयितुं लगाः ।
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४ ॥
तन्मध्यादेको यवीयान् महाविद्वान् सम्यगालोच्य राजानमेवमवोचत । हे राजन् ! प्रतिष्ठानपुरे कुम्भकारगृहे साहसः पुत्रो जावोऽस्ति । स उज्जयिनी राज्यं करिष्यति । एतदाकर्ण्य राहो महती चिन्ता समुत्यन्ना । तत एकदा विक्रमो नराधीशोऽसंख्यचतुरङ्गसैन्यं लात्वा दाक्षिणात्यप्रतिष्ठानपुरमागत्य तस्य कुम्भकारस्य गृहमवरोधयामास । सकुटुम् कुंमकारं निहन्तुं वेन नानोपायाः कारिताः । तत्रावसरे निजपुत्रसम्प्राप्तमहानिमीत्या सा विधवा तत्क्षणमेत्र के नागराजं सस्मार। सोऽपि तत्कालमेव तदग्रे प्रकटीभूय निजनवे तस्मै सुधापूर्णमेकं कुम्भं रिपुमैन्य-सङ्गावकरीममोघां शक्तिश्च दखाऽदृश्यतां गतः । अथ शातवाहनोऽपि नागदचसुधासेक - प्रभावतः पुराकृत- मृण्मय - मनुष्यादीनि सञ्जीवयामास । ततथ तानि सर्वाणि नानाशस्त्रास्त्रसहितानि मंत्रमहिम्ना विधाय तैरेव चतुरङ्गसैन्यैः सह विक्रमी सैन्यानि भक्तुं लग्नः । तस्मिन् युध्यमाने महान्त्यपि विक्रम सैन्यानि महात्रासमापुः । सोऽसंख्यं बलं क्षणादेव नाशयामास । तयः पलायमानः ससैन्यो विक्रमभूपतिस्ताषिकोत्तरतटमा गल्य तस्थौ तत्रैवश्चिन्तितं विक्रमार्केण । अहो कीदृशमेतस्य शौर्यम् । येन मदीयमशेष सैन्यं भग्नीकृतम् । दैवोक्तमपि सत्यमेव प्रतिभाति । साम्प्रतमेतस्मि भवनीतले कोऽध्येतस्य जेता नैवास्ति, साम्प्रतमनेन सह युध्यमानोऽहं नूनं पूर्वोपार्जितामपि जयश्रियं त्यक्ष्याम्येव । अत इदानीमनेन सह सन्धिरेव श्रेयस्कर इति विचार्य तेन सह सन्धिं कृतवान् । तत्र चैवं स्थापितमुभाभ्याम् । तापिकाया नद्या उत्तरवटी विक्रमार्कराज्यसीमास्तु । तस्या दक्षिणतटी तु शालिवाहनस्य राज्यसीमेति । ततो विक्रम उज्जयिनीमागतवान् । शालिवाहनोऽपि तत्र प्रतिष्ठानपुरे समागत्य निजराजधानी स्थापितवान् । ततश्च लोकेषु शालिवाहननाम्ना प्रसिद्धोऽभवत् ।
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अथ राज्यं कुर्वाणः स शालिवाहनो राजा चन्द्रलेखां नाम्नीं कस्यचन राक्षः पुत्रीमतिरूपलावण्यवतीं पद्मिनीं सकलकलावती युवतीं परिणीतवान् । इतश्च कश्चिदेको मायासुरनामा दैत्य आसीत्, जगति सर्वातिशयं विशिष्टं सुखं ममैवास्त्विवि या स दैत्यो वाममार्गीय - विधिना कामपि तामसी देवीमाराध्य प्रसादयामास । सापि तदाराधनेन तस्योपरि तुतोष । ततश्व मोहनाऽऽकर्षणादिषट्कर्माणि सिद्धानि चक्रे । ततश्चैकदा स दैत्यो मन्त्रबलेन पद्मिनीश्चन्द्रलेखामपहृत्य स्वायत्तां व्यधात् । इत ताम्प्रेयसीमपश्य शालिवाहनो महादुःखी बभूव । तां श्रोधयितुं सर्वासु दिक्षु भृत्यान् समादिशत् । अथ कोपि शुद्रकनामा कोष्ठपालः कथचित्स्वरूपं विज्ञाय तत्र गत्वा राज्ञीश्चन्द्रलेखां लात्वा राज्ञे समर्पयामास । अथ पादलिप्ताचार्यस्य शिष्यो नागार्जुननामाऽसीत् । स च कस्याश्विन्महानद्यास्तीरे निजावासं विहितवान् । तत्र च श्रीपार्श्वनाथप्रभोः ! महाचमत्कारशालिनीं प्रतिमां स्थापितवान् । प्रतिमाग्रे च कोटिबेधिरसमुत्पादयितुं शालिवाहनस्य राज्ञः पत्नीञ्चन्द्रलेखां हृत्वा तत्रानीय कियत्यामपि रात्रौ तथा yathod पारदं खलिकायां मईयामास । एवमनेकधा स नागार्जुनस्तथा पारदमर्दनं कारयामास । कथितञ्च तस्याः । यधेवत्स्वरूपं कस्यापि पत्यादेरग्रे कदापि वक्ष्यति तर्हि त्वां मारमिष्यामि । तद्भयेन कदापि नाऽवोचत सा । परमेकदा तत्क्लेशमसहमाना सा पद्मिनी कथाप्रसङ्गादेतत्स्वरूपं राज्ञः कथयामास । अथैकस्यां रात्रौ शयने निजप्रेयसीमनालोक्य राजा किमिति शङ्कमानः पुत्राभ्यां सह तत्रागतवान् । तां तत्र तथाकुर्वती मालोक्य बहुशस्तमनुनीय तस्याः स्याने निजपुत्रो संस्थाप्य भार्यया सह स्वस्थानमाययौ । अथ नागार्जुनोऽपि सम्पादित कोटिवेषिनो रसमयकूपिकाद्वयं ताम्यामलक्षिते कुत्रापि गुह्यस्थाने स्थापयामास । परं तत्सर्व कुमाराभ्यां गुमरीत्या दृष्टम् । गते च नागार्जुने वाम्यां कुमाराय तत्स्थानतो निशि कृषिकाद्वयं गृहीला स्वस्थानम्प्रति
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फ
कावली
२५॥
चलितम् | मार्गे च तदधिष्ठात्र्या देव्या तौ कुमारौ तदयोग्यतया निहत्य रसभृतं कूपिकाद्वयमाददे । यत्र स्वम्भनपुरे नागार्जुनः कान्तिपुरनगरात पार्श्वनाथप्रमोः प्रतिमामुत्पाट्य समानीय च स्थापितवान् । तत्र च दया पश्चिन्या पारदोषमुपमर्थ रससिद्धि कृतवान् । तदिदानीं खंभातनाम्ना प्रसिद्धमस्ति । इह हि नगरे नवाङ्गवतिकर्ता श्री अभयदेवसूरिणा प्रतिष्ठापिता श्रीपार्श्वनाथप्रभोः प्रतिमा जागर्ति ।
पादलिताचार्य - नागार्जुन - प्रभृतयो बहुशो विद्वांसः शालिवाहनशासन - कालीना आसन् । एतेषां महोत्तमसत्पुरुषाणामुदारचरितान्यवयं ज्ञातव्यानि सन्ति, परमनवसश्तया ग्रन्थगौरवमिया चात्र भया न दर्शितानि । जिज्ञासुभिस्तानि प्रबन्धचिन्तामणिप्रमुख ग्रन्यतो वेदनीयानि । एताभ्यः कथाभ्यः सारतया यत्फलितं तदाह - ऐहिकामुष्मिक श्रेषोऽर्थिभिर्जनैः सदैव धर्मे विधेयम् । सोहि सिधुदामाहात्म्यादिह जन्मनि शालिवाहनविक्रमावे राज्यं, महती निश्चला सुकीर्तिः, पूर्णायुष्यादि महाफलमजनि । एवमितरस्यापि धर्मनिष्ठस्य तत्सर्वम्भवति मविष्यति चेति ॥
१ - ज्ञानतत्त्व विषये—
तन घन ठकुराई सर्व ए जीवने छे, पण इक दुहिलं हे ! ज्ञान संसारमां छे । भवजलनिधि तारे सर्व जे दुःख वारे, निज परहित हेते ज्ञान से कां न धारे १ ॥ ९ ॥
हे भव्याः । इह संसारे लोकैस्तनु - धन -स्वामित्वादयः सुखेन लभ्यन्ते । जीवानामेतानि सुलभानि सन्ति । परमेकं
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SROSCREASE
ज्ञानमतिदुष्करमस्ति । सुकृतिनामेव तन्मिलति । यज्यान जीवान अपारभवसागरादुद्धरति । प्राणिनां त्रिविषान्यपि दुःखानि । नाशयति । तथाऽहिनाद्वारयति । हितेष जनान योजयति । किन-यद्योगादीरा इमां त्रिलोकी पदार्थविभूति कराऽऽमलकमिव । पश्यन्ति । इति सर्वतः श्रेष्ठं ज्ञानमवश्यमेव लौकिकपारलौकिकशिवलिप्सावद्भिरेष्टव्यम् । समाराघनीय तदेव । तदर्थ सर्वैरपि । यतितव्यम् ॥९॥
यवऋषि प्रण गाथा बोधी भो निवार्यो, इक पदथि चिलातीपुत्र संसार वार्यो ।
श्रुतथि अभय हाये रोहिणो चोर नावे, श्रुत भणत सुज्ञानी मासतूसादि थावे ॥ १० ॥ अन्यच्च-ज्ञानमाहात्म्यमेव दर्शयति यथा-इहैव लोके कश्चन यवनामा ऋषिरासीत् । स च विद्याहीनोऽभूत् । पर साधारणगाथात्रयस्यैव बोधेन समागतां महतीमापदमनीनशत् । किन चिलातीपुत्रोऽप्येकमेव पदं सम्यगवबुध्य दुस्तरमपि संसारसागरमेनमतरत् । ज्ञानबलादेव रोहिणीयामिधो महातस्करोऽपि कृतेऽपि नानोपाये श्रीअभयकुमारपायो नाऽभूत् । तथा असहान-मणनादेव मासतुषादयो महाज्ञानवन्तोऽभवन ॥ १०॥
साधारण गाथावोघोपरि यवराजर्षेः ५-कथानकम्यथा वसन्तपुरनामनगरे यवनामा राजा बभूव । तस्य गर्धमीलाऽमिधानः पुत्र आसीत् ! मनुलिकास्था मझुला पुत्री तया दीर्घपृष्ठनामा मन्त्री तस्यासीत् । अर्थकदा समागवं वार्धक्यमालोक्य भवोद्विग्नः पुत्राय राज्यं दखा
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चारित्रमग्रहीत् । ततः साधून पठतो विलोक्य सोऽपि पठितुं लग्नः । परं तस्याक्षरमात्रमपि नाऽयातम् । तेन तस्य मनसि महान् खेदोऽभवत् । तं खिनमालोक्य गुरुरूचे भो राजर्षे । कि शोचमि ! त्वया भवान्तरे झार्न नाऽर्जितमतोऽस्मिन भये तब ज्ञान नाध्याप्ति ! न्वया तदर्थ नैव शोचनीयम् । स्व केवलं चारित्रमुपाय संयमादिव्रतादौ साव
धानो भव । ततो गुरुणा प्रतिबोधितो यवराजर्षिस्तथैव कर्तु लग्नः। अथैकदा तस्य यवमुनेनिजकुटुम्बपुत्रादिमिलनेच्छा साता। ॐ ततो गुरुमेवमुवाच हे गुरो ! मम निजसंसारिसंपन्धिनो मिलनार्थमिच्छा जायते, यदि ते तत्र गमनायाज्ञा भवेचहि तत्रा
हं गच्छेयम् । तच्छ्रुत्वा गुरुणा भणितः सः । हे मुने ! तत्र गमिष्यसि चेत्तर्हि तत्र तानुपदेष्यसि किम् ? यवमुनिरव हे गुरो ! । अहमुपदेष्टुं किमपि नैव जानामि नैव तदर्थ तत्र गन्तुमिच्छा । अहन्तु केवलं तेषां मिलनायैव जिगमिषामि । तदाकये गुरुस्त ६ सत्र गन्तुमादिदेश । ततो गुर्वादिष्टो यवऋषिस्ततो निर्गतः । मार्गे च तस्य मनस्येवं विचारणा जाता । यदाई तत्र यास्यामि
तदा पुत्रादयः समेष्यन्ति मम वन्दनार्थ कथविष्यन्ति च, हे गुरो ! किमपि धर्मामुपदिश । तर्हि तान् प्रति किमहमुपदेक्ष्यामि । इत्थं विचिन्तयन् स मुनिः फलपुष्पादिमिः परिपूर्णमेकं यवक्षेत्रमपश्यत् । तत्क्षेत्रस्वामी च परितः परिभ्रमन् दण्डपाणिः स्वक्षेत्र गोपपन्नासीत् । एको गर्दभश्च तत्क्षेत्रस्थयवान् भक्षित तत्समीपे तस्थौ । तस्मिभवसरे रासभमालोक्य तेन क्षेत्रस्वामिना काचिदेका गाथा पठिता
आधावसी पधावसी, ममं चावि णिक्खसी । लक्खितो ते मया भावो, जवं पस्थेसि गदहा! ।। १ ।। व्याख्या-रे गदर्भ ! त्वमितस्ततः परिधावसि परिवः प्रेक्षते, क्षेत्रमध्ये प्रवेष्टुमिच्छसि, यवधान्य धरित प्रार्थयसीति
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[च द्वितीपपक्षे तु यवनामानं राजानं मारयितुं भो गर्दभनृपते ? जानामि ववाशयमहम् । इति गाथानेकधा तेन । पठिता । एषा च गाथा तेन यक्मुनिना श्रुता यत्नतः समभ्यस्तीकुता । ततो गच्छता सेन तामेव गायो पठता कियद्भिदिनवसन्तपुरस्य नगरस्य समीप कास्मचिचत्वरं समागतं । तत्र चाज्नेके चालका मोईदण्डारूपक्रीडनं कुर्वन्तो ध्याः। यवराजर्षिरपि तत्रैव कियत्कालं तस्थौ । अत्रान्तरे चैको बालको मोईक्रीडनमुत्क्षिप्तवान् दण्डेन । ततस्तत् क्रीउनकमतिरे छत्रापि गर्ने न्यपतत् । ततो बहुधा शोधितेऽपि तत्क्रीडकं यदा नाऽभिलत्तदा कश्चन बालक इमां गायामपठत्
इओ गया तओ गया, मग्गिज्वती ण दीसइ । अहमेयं विजाणामि, अगले छुदा अडोलिया ॥२॥ ___ अस्या अर्थः-एतन्मोइक्रीडनकमस्मासु पश्यत्सु गतमिति दृष्टम्, परं क गतं कूपे वा गर्ने वा तत्तु त्वया मयापि च नैव दृष्टम् । अतोऽज्यद् गृहीत्वा सर्वैः पुरेय क्रीडितव्यम् । इत्यार्थिकामेनाङ्गाथामाकर्ण्य सम्पगभ्यस्तगन् पयमुनिः । इत्थं गायाइये वेन
| शिक्षितम् ।
इसो वसन्तपुरे नगरे यवाख्ये राजनि दीक्षिते सति तत्पुत्रो गर्दभीलो राजाऽवत् । तत्पुत्री चाऽनुलिका तारुण्यपूर्णा जाता । तां महारूपवती युवतीमालोक्य दीर्घपृष्ठनामा मन्त्री तस्यामनुरागवान् बभव । ततो मन्त्री युक्त्या वामपहत्य निजसमनि समानीय गन्तस्थाने स्थापितवान गर्दभीलो राजा निजभगिनीमपहताम्परितो बहशः शोषयामास. पर कुत्रापि केनापि । तस्याः शुद्धिनाधिगता । ततस्तस्य रानो मानसे महती चिन्ता समुदपचत । इतश्च स यवराजर्षिः पुरप्रवेशं विधाय कस्वचित
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वली
कुम्भकारस्य गृहे समागत्य तस्थौ । स च कुम्भकारो नवीनानि मृण्मयानि भाण्डानि निर्मायकत्र गृहकोणे सनितान्यकरीव तन्मध्ये कस्यचिन्मूषकस्य सञ्चारमालोक्य भूषकप्रतिबोधाय स प्रजापतिः एनानाथामपाठीत । यथा
सुकुमालग ! भद्दलग !, रति हिंडणलिग | भयं ते णस्थि ममूला, दीशपुटाउ ते भयं ॥३॥ ___ आया अर्थ:-हे म्हार. ! माटी, कुकारोलि, तथा सरलोऽसि, त्वं रात्रौ सञ्चरणशीलोऽसि, तब मचो भीतिः कापि नास्ति, किन्तु दीर्घपृष्ठात्साहीतिरस्तीति गाथार्थः। एनामपि गायां श्रुत्वा तत्क्षणं यक्साधुः शिशिधे । अथाऽभ्यासदायि गाथात्रयमेतद्वारंवारमभ्यसन स मुनिस्तत्र निजासने समासीत् । इतश्च पौराः सकलास्तदागमनेन प्रमुमुदिरे । पर दीर्घपृष्ठारख्यमंत्रिणो मनसि महती चिन्ता जाता । तदा तेनैवश्चिन्तितं असौ मुनि नवानस्ति । यद्येनं राजा निजभगिन्या वृत्तांत प्रक्ष्यति, सद्यसो सर्वमेव वृत्तं राजानं कथयिष्यति, ततश्च मदीया सर्व प्रकटीभविष्यति । अतः प्रथममेव राज्ञः समीपे तथा प्रपश्चो विधातव्यः, यथाऽनेन मुनिना सह राजा न मिलेत, नैनमत्र स्थापयेत्, किन्तु तत्कालमेव मुनि नगरानिष्काशयेत् । इत्थं मनसि विचार्य तत्कालमेव राजान्तिकङ्गतः । तत्र गत्वा राजानं नमस्कृत्य यथोचितस्थाने समुपाविशत् । अथ प्रसङ्ग लात्वा स राजानमेव । व्यजिज्ञफ्तू- हे पृथ्वीनाथ ! यस्ते पिता प्रजितः स समागतोऽस्ति । राजा वक्ति, तर्हि वरं जातम् । अहमपि तत्पार्श्वअमिष्यामि, तस्य विधिना नमस्कार करिष्यामि । मानसिक वृत्तमपि प्रक्ष्यामि । इति राशो वचनं निशम्य पुनरपि प्रधान-- श्चिन्तासागरे पतितो मनस्येवं दयौ, नूनमसौ तदन्तिक यास्यति प्रक्ष्यति च, ततो मे प्रकटिश्यति कपटमतो मया कर्तव्यः
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कोऽप्युपाय इति विचिन्त्यामात्पेनोक्तः । हे स्वामिन् ! स साधुः संयमपतितोऽस्ति से वंदित्वा पृष्ट्वा वा किं स्यात् । त्वं सर्व पर तदीयं न जानासि अहं तु जानाम्यतस्त्वामेवं कथयामि । एष तु षण्मासाचारित्रभटोऽस्ति । असौ महालोभी खां कपटजालेन । पश्चिवा राज्यमिदं पुनर्ग्रहीतुमत्रागतोऽस्ति । तसो राजोवाच यदि तस्य राज्यलिप्सा वर्तते, तर्हि मुखेनैव तद् गृहात, मनगपि मे तेन दुःखं न स्यात् 1 पुराऽप्येतद्राज्यं तदीयमेवाऽऽसीत् । इत्येवंविधा वाचमाकर्ण्य कुष्टेन मन्त्रिणा राहो | मनसि साधुविषये तथा महती घृणाऽकारि, यथा स राजा निजपितरं तं साधुं हन्तुमियेष । तत्राक्सरे दुष्टधीः स मन्त्री नितरां तुतोष । ततः स राजा निशि कृष्णकम्बलमुपरि निधाय खड्गं गृहीत्वा तं साधुं निहन्तुं निर्ययो । मार्गे गच्छन् | राजा मनस्येवमवधारितवान् । यद्यसौ ज्ञानी मम मानसीं शङ्कामपनेष्यति तर्हि तं न हनिष्यामि, इति निश्चित्य तत्समीपे | अवाऽप्यलक्षितस्तस्थौ । इतश्च स्वासने समुपविष्टो यवराजर्षिः प्रथम क्षेत्रस्वामिनोक्साङ्गाधामपाठीत् । तामाकये राजैयमबुध्यत । अहो ! साधुर्महाज्ञानवानस्ति, येनाऽमुना ममाऽप्रामनं ज्ञातम् । परमेषमेच यथेष मद्भगिन्या विषयेऽप्यपृष्टः सर्वक्ष्यविष्यति तो तस्य परिपूर्णज्ञानिखे निःसंदेहो ममात्मा भविष्यतीत्येवं विचारयन याबदासीत, सावन्मुनिर्वालकोक्तां मोईरमणविषयिक द्वितीयाङ्गाधामपठीत् । तां श्रुत्वा सर्वथा त्रिकालज्ञानवानयमिति निश्चितवान् राजा । यतो हि-तया माथया राजैवमबुध्यत यथा-मम भगिन्येतस्मिन्नेव नगरे कुत्रापि गुप्तस्थले तिष्ठतीति परमेष मुनिस्तत्स्थानादिकमपि यदि प्रकटयेत्तर्हि कृतकृत्यतां प्राप्नुयामिति चिन्वयन याबदासीद्राजा तावन्मुनिः कुम्भकारपठिता तृतीयाङ्गाथाम्पपाठ तामाकर्ण्य राज्ञा निश्चितम् । अहो ! दुष्टो दीर्घपृष्ठप्रधान एव मत्स्वसारमपजई । स एव निजावासे गुप्तस्थितां तामकरोत् महाननथों जातः। तदानीमेव प्रकटीभूय गुरोरन्तिकसुपेत्य
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भक्त्या निजपितरं तं यवराजमुनि वन्दे । तत्रावसरे गुरुणा पृष्टः । कोऽसि १ राजा वक्ति स्वामिन् ! तचैव कुपुत्रोऽस्मि, पुन-18 | रूचे गुरुः किमुच्यते कुपुत्र इति । सतो राक्षा प्रबजिते पितरि यथाजातं तदादितः सर्वमप्यावेदितम् । श्रुत्वापि तद् गुरुणा मोनमेवाश्रितम् । राजावक । हे स्वामिन् ! त्वं धन्योऽसि । त्वं सर्वज्ञतामधिगतोऽसि । यस्त्वमधुना मम मानसीचिन्तामशेषामपाकरोः । तव पुण्यादेव सर्वसिद्धिः सेत्स्यतीत्यादिमिष्टस्निग्धवचसा मंस्तुत्य नमस्कृत्य च स राजा निजावासमाययौ । अथ जावे प्रभाते सैन्यैः सह तत्र गत्वा तस्य दुष्टप्रधानस्य गृहायरोशनदन्त बिशमहाभिनगिन्तीगनावाद । तस्य गृहे यान्युपकरणा- | न्यासन् तानि सर्वाणि सगृहाणि तदीयग्रामादिकानि च निजायत्नान्यकरोत् । तस्य महानर्थकर्तुश्च शूलिकां दातुमाजप्तम् । तच्छृत्वा । दयालुर्यवमुनिर्जीवन्तं तं मोचयामास । अथ यवराजर्षिस्ततो विहत्य कियद्भिर्दिनैः स्वकीयगुर्वन्तिकमाययौ। तत्रागत्य यवराजाधि- । धिवद् गुरुं चवन्दे । गुरुवंक्ति राजर्षे ! संसारिणो मिलित्वा सुखेन समागतोऽसि । साधुर्वक्ति स्वामिन् ! तवानुकम्पनतः सर्व सिद्धम् ॥ पुनर्गुरुणा पृष्टः राजर्षे ! तेभ्य उपदेशः कीदृशो दत्तः । ततो राजर्षिक्ति हे गुरो ! मया मार्गमध्ये गाथात्रयमुपलब्धं तदेवोपदिएम् । परमर्थस्तासां क इत्यहं न येदि । यथाश्रुतं सथोपदिष्टम् । तेषान्तु ताभिर्गाथामिर्महान लामो जातः । तत्रावसरे गुरुणोक्तम् । । हे राजर्षे ! यदि तादृशेनाऽर्थस्तेषां सिद्धस्तहि यो हि तत्त्वमुपदिशति, तेन लोकोपकृतिः कथं न स्यात् । अपि तु स्यादेव, यदुक्तम्-माथायाम" सिक्सियच्वं मणूसेणं, अवि जारिसतारिसं । पेच्छ मुरसिलोगेरि, जीवियं परिरक्खियं ॥१॥" अयमस्या आशया-पामरोक्तमपि यावं वार शिक्षणीयम् । शिक्षित हि किमपि पृथा न जायते । यस्माचावधिषित
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गाथाप्रसादेनैव यवराजर्षिर्जीवितोऽभूत् । हे राजर्षे । ज्ञानमाहात्म्यं कीडशमिति पश्य, यतस्त्वं ग्राम्योक्तवचनवलादेव जीवनबाऽजातोऽसि, परानप्युपचकर्थ । विशिष्टविधास्तु सस्य परस्य चाधिकभुपकरोति । तत्र किमाश्चर्य इत्येवं गुरुणा भगितो। यवराजर्षिगुरूक्तं सर्वमनुमोदयश्चिरञ्चारित्रम्परिषाल्य स्वायुःक्षये मृत्वा वैमानिको देवोऽभूत् । एतेन दृष्टान्तेन भविकजनरेतज्ज्ञानमवश्यमेव ग्रायम् । यहि अज्ञोक्तेन पद्येन लोकोपकर नमूत्, तर्हि येनाधिकं ज्ञानमर्जितमस्ति, स स्वकीयम्परकीयञ्च किलैहिकमामभिश्च श्रेयो विधातुमर्हति । इति हेतोः सर्वेरेव भव्यज्ञानार्जने यतितव्यम्, ज्ञानस्यैकेनापि चरणेन लाभोऽभूत् ।
तत्रोपशमाद्युपरि चिलातीपुत्रस्य ६-दृष्टान्तःयथा-भवान्तरे चिलातीपुत्रो ब्राह्मणो विद्वानभिमानी जात्यहवारवांश्चासीत् । तेनैकदा राजसभायामीशी प्रतिज्ञाकारि, यो | मां शाखादे जेष्यति तस्याहं शिष्यो भविष्यामीति । अथान्यदा कश्चिन्महाविद्वान जैनमुनिस्तत्रागतः । स राजसभाङ्गत्वा तेन | सह शास्त्रार्थ कृत्वा पर्यन्ते च तम्पराजिसवान् । ततः स प्रतिज्ञानुसारात्तस्य मुनेः शिष्योऽभवत् । परन्तु ब्रामणतया स दीक्षितोऽपि मलादिपरीषई सोतुं नो शक्नुपात् । अपितु सत्र घृगामकरोत् । लोकसमक्षमेवमवोचच्च-अहो ! कीदृशो धर्मः ? यत्र स्नानादि. शुद्धिरपि न विधीयते । इत्थचारित्रम्परिपाल्य स्वायुः सम्पूर्णीकृत्य च मृत्वा स देवो जातः । सतयुत्वा पूर्वजन्मनि मलादिपरीषहघृणाकरणोदिताशुमकर्मावशेषतया राजगृहनगरे धनावहश्रेष्ठिनो गृहे चिलातीनाम्नी काचन तस्य दासी, तस्पाः कुक्षौ । पुत्रत्वेनावतवार । तस्य नाम लोकविलादीपुत्र इति धृतम् । या चैतस्य ब्रामणजन्मानि. भायां सीत, सा च स्त्रमार वशी
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कर्तुमनेकमुपायमकरोत् । तं मृतभाकण्यं पराग्योदयवशात्सापि दीक्षिता सती चरित्र परिपालयन्ती मृत्वा देवी जाता । तब्युत्वा । तत्रैव नगरे तस्यैव धनावहीष्ठिनी भार्याकुक्षौ पुत्री जाता। सा महासुन्दरी पासीत् । साश्च बालिका चिलातीपुत्रः क्रीडयाभास । क्रमशः सा कन्या यौवनमाप । पूर्वभवसंपन्धवंशात्तस्यां चिलातीपुत्रस्य महाननुरागो जातः । तस्या अपि तस्मिस्तथैव रागो बभूव । ततो रहसि तया सह चिलातीपुत्रः प्रत्यहं विषयसुख भोक्तुं लगः । अथ तयोस्तमनाचारं विदित्वा श्रेष्ठिना चिलातीपुत्रो गेहानिष्काशितः । ससः स चिलातीपुत्रश्चौरसमाजे समागत्य तैः सह मैत्री विधाय चौर्यकरणे निपुणो जातः । क्रिगल्कालानन्तरं । साहसिक महाधीर ज्ञाना सर्वे ते चौराः स्वनायकं चक्रुः । अथैकदा स चौरनायकचोरानेवमुत्राच-अस्या, रात्री राजगृहनगरे धनाढ्यस्य धनातहष्टिनो गृहे चौर्याय गन्तव्यम् । तत्र धनादिकं भवद्भिरेव ग्राह्यम्, या च तस्य सुषमा:भिधाना कन्यास्ति तामानीय मह्यमेव भवद्भिर्दातव्या । इति निश्चित्य तश्चौरैः सह चिलातीपुत्रो राजगृहे तस्यालये समागत्य | सात्रं विधायान्तःप्रविश्य चौरा यथेष्टानि महाहाणि रत्नादिधनानि ग्रन्थि बना चहि निर्जग्मुः सुपमामुत्पाख्य चिलातीपुत्रोऽपि पहिनिरगात् । ततस्तत्कालमेव लोका जागृताचौरचौर इति बुम्बारवञ्चक्रुः । ततस्तेषां पृष्ठ लोकानां कोलाहलमाकर्ण्य कोष्ठगलो | यावत्तत्रागतस्तावचौरा नेशुः । इतस्ततो विलोक्य ततः कोष्ठपालेन निजेश्चतुर्भिः पुत्रैः सह श्रेष्ठी चौरानुपदं तस्यामेव दिशि तुरङ्गारूढोऽधावत् । पृष्ठे समागच्छतस्तान् विलोक्य ते चौरा मार्ग एव तानि धनानि त्यक्त्वा कुत्रापि नेशुः । चिलातीपुत्रस्तु मार्ग हिस्त्रोत्पथेन चचाल । तद्धनानि मार्गे पतितानि सर्वाण्यादाय कोष्ठयालस्ततः परावर्तत । श्रेष्ठी सत्युत्राश्च तसोध्ने स्तेनानुपदं | विलोकयन्तश्चलः। अथ पश्चादागच्छसस्तानालोक्य स तस्कराधीश एवमचिन्मयत । अहो । एषा सुषमा मम प्राणादपि प्रेयसी
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MSRRIERRECTREKHAREL
वर्तते, एवे च मां ग्रहीतुं त्वस्या समागच्छन्ति बिरामि ? एनामपि कथं त्यजामि ? यदि न त्यजामि, तर्हि मम जीवितमपि । यास्यति, एवं ध्यायम् स समीपागतांस्तानालोक्य कोशात खरगमाकृष्य तस्याः शिरश्चिच्छेद । तस्याः कान्धं तत्रैवाऽत्याक्षीत् । केवलं सवद्रतधारं तस्या मस्तकं करे कुलाध्ये बघाल । सेऽपि तत्रागत्य तां पुत्री तथावस्थामालोक्य भृशं शोचन्तस्ततः परावर्तमाना गृहमाययुः । अथाऽग्रे गच्छन् स चिलातीपुत्रः कस्यचन वृक्षस्याऽधः कायोत्सर्गे स्थितं साधुमेकमपश्यत् । तस्मिन् काले स: एकस्मिन्करे परद्रतधार मौलिमपरस्मिन शोणिसानं कुपाणं दधान आमीत् । परमागामिशुमभावोदयात्स चौरनायको दुष्टकर्मापि तम्मुनिमेवमप्राक्षीत-भो सुने ! मां धर्म वद । तदा स मुनिरेवमचिन्तयत्-अहो! कोऽप्येष शुभपरिणामको जीवोऽस्ति । यत आत्मकल्याणार्थ धर्म प्रच्छति । इति विचिन्त्य समनिस्तस्मै उपशमविवेकसंदरा धर्माः सन्ति । इत्यपदेश दखा गगनमार्गेणाचलत् । तत्रावसरे तस्य तथाविधश्चमत्कारं वीक्ष्य मनसि दध्यौं–अहो ! कोऽप्यसौ चमत्कारी महाविद्वान दृश्यते । यदयमाकाशमार्गेण गच्छति, इतरे तु पृथिव्यामेव चलन्ति । परमनेन ये " उपशमविवेकसंबरा धर्मा दर्शिता इति तदर्थो मया विचारणीय इति विचारयन् स चौरनायक उपशम इत्यस्य क्रोधो जेतव्यः—यथा क्रोधोपशान्तिर्भपेत्तथा विधेय इति ज्ञातवान् । ततश्च 1 स तदानीमेष मनसि पश्चातापमकरोत् । अहो ! क्रोधवशादेवाहमीदृशमनाचारं श्रीघातात्मकमकार्षम् । यदि मे क्रोधो नाभविष्यत्तहि नरकातिदायिनीय स्त्रीहत्या कदापि मम नैवाभविष्यत् । अतोऽयप्रभृति क्रोयो नैय कर्तव्य इति निश्चितवान् । तथा विधकोऽपि मम नास्ति, विवेकहीनो जनः पशुरुच्यते । मयापि पशुवदेव तस्कृतम् । इत्येवं विचारयता तेन चरिणाद्वारोपरोधः, संवरंशब्द| स्वार्थ इत्यबोधि—अतो मया पावत् संपरो न विहितस्तावन्मे सर्व विफलमैमास्ति । अथैर्ष विचार्य स चिलातीपुत्रः फैरधृतसु
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घमामस्तकं तथा शोणिता कपाणं भ्रमौ तत्याज । यावन्मे कृतकर्मधयो न स्यात्तावन्मया कायोत्सर्ग एव स्थातव्यमिति नि. चित्य यत्र स्थले स मुनिः कायोत्सर्ग कृतवान, तत्रैव गत्वा कायोत्सर्गे निश्चलमनास्तस्थौ । तत्रावसरे सच्छरीरं सुषमाफन्या. शिरच्छेदोद्भुतशोणिते लिप्तमासीत् । तेन लोहितधन वज्रतुण्डाः कीटिकाश्चटिताः, तास्तदङ्गानि क्रमशचालनीसभिभानि कृतवन्त्यः । अप्रार्थे चैपा गाथाधीरो चिलाइपुत्तो, मुइंगलिआहि चालिणि व्व कओ। जो तहवि खजमाणो, पडिवन्नो उसमं अह॥ १ ॥
व्याख्या—धीरसत्वसंपन्नभिनातीपत्रः ( सुगलियादि ) कीरिकाभिर्भक्ष्यमाणथालनीव कृतस्तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम्, शुभपरिणामापरित्यागादिति हृदयम् । अर्थात कायोत्सर्गे स्थितस्य चिलातीपुत्रस्य देहः कीटिकाभिश्चालनीवत्सहन शच्छिद्रः कृतस्तथापि तदङ्ग विह्वलतां नाऽयत् । मनोऽपि नैव क्षुब्ध गिरिरिव निचलतामेव दधौ । ध्यानं न जहाँ । तथा कुर्वन्नेव सद्गतियानलक्षणेन शुभध्यानेन मृत्वा देवगति लेभे। ___ एतेन दृष्टान्तेन जनरेतदेव सारतया ग्राह्यम् ! यत्किल-स्वल्पेनापि तत्त्वज्ञानेन शुद्धश्रद्धावाँश्चिलातीपुत्रो महाक्रूरकर्मापि देवत्वमधिगतवानिति । किश्च तत्वज्ञानं शुद्धभावेन समाराधयतां मोक्षोऽपि करगतप्रायो भवति । अतो हे लोकाः ! यदि यूयं भवाम्बुधि वितीय सहि परिपूर्ण ज्ञानं लभध्वं । येन तस्वज्ञानमासाद्य दुस्तरममुं संसारसागरमक्लेशेन तरिप्पथ ।
अथ ज्ञानोपरि रोहिणीयचौरस्य ७-कथानकम्---
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तथाहि-हैव भरतक्षेत्रे राजगृहनगरे श्रेणिको नाम राजा राज्य शास्ति । तदीयो महामतिमान् निजपुत्रोऽभयकुमार एव प्रधानोऽस्ति । तस्मिन्नेव नगरे कस्यचित् स्वेनस्य रोहिणीरनामा पुत्रो बभूव । जननान्तरमेव कश्चिन्निमित्तज्ञस्तमालोक्य तस्य मातर- ५ मेवमुक्तवान्-असो ते शिशुश्चारित्रं पालयिष्यति, संसार त्यक्ष्यति तत्र कोऽपि सन्देहो नास्ति । ततःमभृत्येवं मात्रा शिक्षितः
हे पुत्र ! साधुमविधे कदापि त्वया न गन्तव्यम्, न तत्सनिधो स्थातव्यम् । न तेषां पचनादिकं श्रोतव्यम् । यतस्ते बालकान का प्रलोप हठाद् गृहन्ति । सोऽपि शिशुर्मातः शिक्षामनधारितवान् । ततःप्रभृति तथैव कर्नु लग्नः । किञ्च चौरकुले स एव पुत्र:
प्रशस्या भवति यो हि स्तेनकर्मणि निपुणो लोकानां धनानि चोरयन कुटुम्बं पुष्णाति । अतो नैमित्तिकोक-विपरीतलक्षगलक्षित | पुत्रं चाल्यावस्थायामेव मातापितरौ तथा शिशिक्षाते । अथकदा श्रीमहावीरस्वामी चतुर्दश सहस्रमुनिभिस्तथा S पत्रिंशत्सहस्रसाध्वीभिः सह तत्र राजगृहनगरे समवससार । तस्य समवसरण चतुर्निकायदेवैः पृथिवीतः सार्धकोशर योन्नत
विहितम् । तन्मध्ये देवतानाकोटिर्मोपदेशश्रवणेप्नया समागत्य तस्थौ । तथा भव्याशयमनुजादिभिरपि सा परिषद् Xil विभूषिताऽऽसीत् । तत्र द्वादशविवपरिषत्सु शोभिते समवसरणे श्रीमहावीरप्रभुर्धर्मोपदेशं कुन्निवसाप्राप्त देवाधिकारमित्यं
वर्णयन्नासीत् । यथाअणिमिसनयणामणका-साहणा पुप्फदामामिलाणा|चउरंगुलेण भूमि,न छिवंति सुरा जिणाविति ॥१॥
एवमस्या अर्थ:-हे भव्याः देवानामेवानि लगानि जानीत । तेषां नयनयोनिमेषोन्मेलौ न मातः । तया तेषां मनोवाञ्छित
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क-2 कार्य सदैव सिध्यति । तेताः कुसुमस्रजो म्लाना में भवन्ति । देवा हि पृथिवीस्पृशो न भवन्ति । किन्तु घरासश्चतुरङ्गुलोपर्यंत ते पली
तिष्ठन्ति । सर्वसुखर्द्धयादिना मनुष्येभ्योऽधिका घर्तन्ते । इत्थं देवान् वर्णयन प्रभुरासीत् । तपानसरे कस्यापि सपनचौर्य कृत्वा त्वरया समागच्छन् स रोहिणेयः समवसरणमध्यतः पलायमानः साधूनालोक्य मातुः शिक्षण संस्मृत्य कर्णौ पिधायाऽतित्वरया धावितुं लग्नः। परं भवितव्ययोगात्तस्य चरणः कण्टकेन विद्धस्तेन बहुदुःखीभूत्वाऽग्रे चलितुं बदा नाशक्नोत्तदा सत्रैवोपविश्य यावत्कप्टकं निष्काशयनासीत्, तावता देवताधिकारविपयिणीमिमां गाथामीं प्रभोर्देशनां श्रुतवान् । बुद्धितैक्ष्ण्यादेकवारश्रवणेनैव तेन सा गाथा मुखपाठीकृता । यतो हि पुरुषेषु श्रेष्टानां द्वात्रिंशल्लक्षणानि भवन्ति । चौरास्तु-ट्विंशल्लक्षणलक्षिता जायन्ते । अतः स साङ्गाथामविलम्बेनेवाऽभ्यस्तवान् । तां विस्मत कृतप्रयत्नोऽपि न विसस्मार । अथ कष्टकं निष्काश्य निजालयं द्रुतमागत्य । मात्रा मिलितश्चौर्यानीतं धनमपि तस्यै समर्पितवान् । इत्थं मातुरूपदेशात्क्रमेण स चौर्यकर्मणि महानैपुण्यं,
गतवान् । दिने च महाहवस्त्राऽऽभरणादिना मण्डितात्मा महाजनैः सङ्गति व्यधत्त । महेभ्यानामापणेष्वपि गत्या तैः सह | परिचयं कुर्वाणो रोहिसेति नाम्ना लोकेषु प्रसिद्धोऽभूत् । ततो महताडम्बरेण महाजनवे विधाय राजसभायामपि प्रवेष्टुं | लग्नः । समस्ता अपि महान्तो जनास्तस्य परिचिता आसन् । निजया चातुर्यकलयाऽखिलानपि महतो जनान स निजमित्राण्यकरोत् । रात्रौ च स क्रमशस्तनगरवासिनां सर्वेषां सारभृतानि धनादीनि चोरयित्वा सकलानपि निर्धनानकरोतु । परं कोऽपि तं नैव जग्राह । ततश्च सर्वे महाजना मिलित्वा गजान्तिकङ्गत्वा विज्ञपयामासुः । स्वामिन् ! सर्वे वयं चौरेण निर्धनी- . कृताः । अधुनापि यदि चौरनिग्रहो न स्पाचहि वयं केऽपि नाऽत्र स्थास्यामः । वयश्च महाकटे पतिताः स्मः । सत्वरं तन्निग्रहो
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पाय पुरुष्व । नो घेदस्माकं धनभवनादिकं सर्वमपि गृहाण । अस्मभ्यमन्यत्र गन्तुमाशों देहि । इत्यादि तदुक्तमाकर्ण्य चौरनिंग्रहार्थ स रामा साम्बूल-बीटिका-प्रदानपुरस्सरं नगरे पटई वादयामास, यः कोपि चौरं ग्रहीष्यति तस्मै यथेष्ट पारितोषिकम्प्रदा
। परं कोऽपि तंभिग्रहाय ताम्बलवीटिकां न जग्राह । तदा थीअभयकुमार एव अभिग्रहाथ तां बीटिकामग्रहीत । सकलजनसमक्षमुक्तचाहं हि सप्ताहाभ्यन्तरे तश्चौरमवश्यमेव निग्रहीष्यामि । तत्प्रतिज्ञामाकर्ण्य सर्वे सदार्ता लोकाः स्वस्वसमनि गत्वा कार्यमारेभिरे । इतश्च महामतिशाली, चतुर्बुद्धिपाली, चतुदर्शविद्यानिष्णातः, द्विसप्ततिकलाकलितः, महासाहसिकः, धीरशिरोमणिधर्मध्वजः श्रीमानभयकुमारोऽपि त्रिपथचतुष्पयादिसकलस्थानेषु तन्निग्रहार्थ पनाम । पर कुत्राषि चौरशुद्धि नाऽधिगतवान् । एतत्स्वरूपं विदित्वा स चौर एकां पत्रिकामभयकुमाराय ददौ, यथा-है प्रधान ! अभयकुमार ! त्वमिदानीं मां ग्रहीतुं भृशं यतसे, परं मम निग्रहणे कस्यापि शक्ति व दृश्यते । त्वं चतुर्धा सुमति पत्से, मम तु पञ्चधा ' बुद्धिरस्ति । कदापि केनाऽप्यगृहीतो यदि सप्तमे दिवसे त्वामहं न मिलेय तर्हि-चौरो न स्याम् । इति सेवकार्पिता मुद्रितां तत्पत्रिकामुद्घाट्य पठित्वा स कुमारो महदाअर्थमध्यगच्छत् । निजचेतसि दध्यो च-अहो ! मतिमानसौ चौरः। येन ममाशयं ज्ञातम् । पत्रञ्च दत्तम् । अतश्चौरशिरोमणिः कोऽपि प्रशस्यतमः प्रतीयते । अथाऽभयकुमारोऽपि पड्मिदिनैश्चौरनिग्रहाय कृतप्रयत्लस्य: विफलतां वीक्ष्य सप्तमे दिने तेन चिन्तितम् । नूनमध स चौरः संमेष्यति । यतस्तेन पुरैवावधिदत्तोऽस्ति । ततः स कुमारःसर्वाण्युपकरणानि समादाय पोषधञ्जग्राह । ततः पौषधशालामागत्य दर्मासने समासीनः स्वाध्यायथ्यानादिकं कर्तु लग्नः ।। सत्रन्यसेवकम्प्रत्युकज। मो. सेवक ! यदि कोऽपि मां मिलितुमत्रागच्छेत स न रोद्धव्यः। इतः सोऽपि रोहिणीशख्यतस्करः सम
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दिनं प्रतीक्षमाणः सप्तमे दिवसे दिव्यवासनाऽऽमरणादिना विहिताऽपूर्वशोभस्तद्योम्यं प्राभृतमादाय कुमारमिलनाथ चचाल । तत्स्थाने समागत्य स्वकीयनियतस्थाने प्रधानमपश्यन् भृशं खेदमावहन् दध्यौं । यद्यहं प्रधानं न मिलिष्यामि, तर्हि प्रतिज्ञा मे विफलीभविष्यति । अतोऽद्य येन केनोपायेन स द्रष्टव्य, इति ध्याला तत्सेवकमपृच्छत ! भोः ! कुत्राऽस्ति प्रधानः ? तेनोक्तम् सोऽय पौदा पौपाये धर्मध्या विष्ठति । अथ स चौरस्तत्राऽऽगत्य कुमारं नमस्कृत्य तद्योग्यं प्राभृतीकृत्य तदभिमुखमुपाविशत् । तमागतमालोकयन् कुमारो मनसि चिन्तयति । नूनमयमेव चौरः अनेनैव पत्रवितवारि दिवसे सप्तने स्वप्रतिज्ञापालनार्थमत्र Issuतोऽस्ति । परमेप प्रायेण बहुधा राजान्तिदन्तिकेति । पूर्वपरिचितस्य लगनन्तरा चौरकयनमपि नैव संघटते । परं तत्रावसरे तस्य तन्त्रागमनादयमेव चौर इति स्वमनाने निश्चितवानपि ' वेषाडम्बरतया चिरपरिचिततया च तदानीमेप चोर इति व्यक्तीस नाशक्नोत् । ततखरोऽपि किञ्चित्कालं तत्र स्थित्वा तं नमस्कृत्य गन्तुमैच्छत् । तत्रात्रसरे कुमारेण स भणित:- हे सज्जन ! प्रभाते पारणासमये त्वया मम गेहे समानन्तव्यमवश्यमेव । सोऽपि सद्दर्प बहुमान पुरस्सरं कुमारकृतनिमन्त्रणमुररीचके । अथ जाते च प्रभाते कुमारः पौपचं समाप्य स्त्रावासं समागतः । तत्रैवं दध्यौ - अद्यावश्यमेशत्र निमन्त्रितरः समेष्यति । तन्मुखादेव चौरोऽहमिति ख्यापनार्थमेकस्मिन् पात्रे चन्द्रहासमय मिश्रित दधि स्थापितमपरस्मिन् पात्रे च निजार्थं शुद्धं दधि स्थापितम् । अथागतस्तत्र चौरः । ततस्त्रों रोहिणीकुमारी मोक्तुमुपविशतः । नृत्यो हि तस्मै चौरा मद्यमिश्रित दधि ददौ कुमाराय च शुद्धं ददौ । ताभ्याम्मुक्तमु, क्षगादेव स चौरो मययोगाद्विकलो जातः । ततस्तं प्रमत्तं विज्ञाय तमुत्थाप्प निजशयनस्थाने देवराजमन्दिरोपने निजदिव्यपल्यक्कोपरि स्त्रापितः स चौरः । तत्र च पूर्वमेव दिव्या
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म्बरा दिव्याऽऽभरणा देवाङ्गनोपमाश्चतस्रो युवत्यश्चामरादिकानि देवसूचकानि करे दधानाः स्थापिता आसन् । कि- ॥ यत्कालानन्तरं स पुमान् यदा स्वास्थ्यं लेभे, तदा दिव्ये भवने रत्नादिजटितं दिव्यवितानशोभमानदिव्यश्योपरि स्थितमात्मानं विलोकयन तथा ताः कन्याश्र पयन किमहं देवोऽमृगीति सिनगन ताभिरेकस्वरेण “जय २ नंदा जय २ भद्दा " इत्युचरन्तीभिर्भणितः-स्वामिन् ! कामीशी तपस्यामकृथाः । येन त्वमधुना दैवीं समृद्धि प्राप्तवानसि । अभयकुमारोऽपि तत्रावसरे कन्याकृतप्रश्नस्योत्तरं श्रोतुकामच्छन्नस्तस्थौ । यतः कुमार इतीच्छया तथाऽकरोत । यदेवंकृते किलाऽऽश्चर्यलीला | वीक्ष्य नैसर्गिकीमात्मवृत्तिं वक्ष्यति नूनम् । इति हेतोः कुमारः कर्ण ददद् गुप्तः कुत्रापि समीपदेशे स्थितोऽभूत् । इतश्च स रोहिणीयः स्वस्थीभूतो दिव्यं तद्भवनै अप्सरस इकाग्रे स्थितास्ताः कन्याथ तथा तासां भाषणं दिव्यां शय्याश्च विलोक्य सत्यमेवाहं देवो जातोऽस्मीति यावद्वक्तुं लनः, तावद् भगवता महावीरेणोक्तां यानाथां पुरा शुश्राव, तस्याः स्मृतिर्जाता । | ततश्च स मनसि दध्यौ-अहो ! किं में स्वामः भ्रमो वा ? यत्यभुणोक्त-देवाः पृथिवीं न स्पृशन्ति, किन्तु पृथिवीतश्चतुरालो तिष्ठन्ति । एतास्तु तथा न दृश्यन्ते. सर्वा भूमि स्पृशन्ति, देवता निमेषशून्या भवन्ति । एतास्तु सनिभेपोन्मेपा दृश्यन्ते । किश्चैतासां कण्ठस्थाः कुसुमस्रजो म्लाना भवन्ति । देवानां तु तथा न भवन्ति, तथा देवानामरिवलं मनोवाञ्छितं सिद्धयति । एतासां तु यानि यानि लक्षणानि भगवान्न बोचत तेषां सर्वेषां का बात? किन्तु देवताया एकमपि लक्षणं नैव दृश्यते, नूनमेतत्सर्व मां वञ्चयित्वा मदीयं सत्यस्वरूपं बोर्द्ध कुमार एवं कृतवान् । नैता देव्याः, नैवेदं स्वर्गीयभवनम् । सर्वमिदं मम वचनार्थमेव कुमारेण प्रपश्चितमस्ति भवतु, यदि कुमारो द्वात्रिंशल्लक्षणलक्षितोऽस्ति, तहमपि ततोऽधिकलक्षणचतुष्टयवानस्मि ।
सदन
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अत एनमेवानेन प्रपचेन बञ्चयानि तर्हि वरमित्यवधार्य ताः प्रत्यवोचत - हे देव्यः 1 मया बहूनि सत्यात्रदानानि कृतानि, शीलम्यालितम् अनेकत्रा श्रीस सार्थीकृत्य यात्रा कृता, सहस्रशः स्वामिवात्सल्यं व्यधात्, तथा पौषवप्रतिक्रमणसामायिकमंगवत्पूजनादिकं बहुधा कृतम्, तत्पुण्य पुञ्ज प्रभावादेवाहमत्र देवो यातोऽस्मि । इत्थं तद्वाचमाकर्ण्य कुमारेणाऽचिन्ति - अहो ! मम मदमप्यनेनाsयोधि । एषापि युक्तिर्न सिद्धा । एनं मतिमद्गरिष्ठं महाचौरं कया रीत्या गृहामि १ । प्रान्ते कापि युक्तिर्यदा कुमारस्य तत्रिग्रढे न मिलिता, तदा तदीयचरणयोर्दण्डवत्पपात स कुमारः । तत्रावसरे पादानतं कुमारं स वक्ति-स्वामिन् ! कस्माद् विभेषि, येन मे चरणे पतितोऽसि । प्रधानो वक्ति । हे मतिमन्र । ममेदानीं राज्ञो भीतिर्विद्यते । इत्याकर्ण्य तेनोक्तम्- हे स्वामिन ! तवापि यदीदृशी भीतिरस्ति, सहि मम कीदृशी सा भवेत् ? तदा कुमारेणोक्तम् । भोः ! त्वं मा भैषीः । तत्र भीतिवारणमहमसंशयङ्करिष्यामि । ततस्तं परिबोध्य राजान्तिकं कुमारोऽनयत् । राजोवाच- एनमिदानीमत्र किमर्थमानीतवानसि । अत्रावसरे प्रधानस्तमेवं जगाद - हे महाराजाधिराज ! यं निग्रहीतुं भवद्दत्तां ताम्बूलचीटिकामहमग्रहीषम्, तमेवेदानीतवानस्मि एष त्वां नमस्कर्तुमागतोऽस्ति । एतत्कृतां प्रणतितर्ति गृहाण । एतस्मै धन्यवादपुरस्सरं मान्यविशेषं देहि । यतः परैरगम्यामेनां महतीं नगरी महर्द्धिशालिनी शासतः सिंहस्येव तब मुखाद्भक्षणमसौ गृह्णाति । तथापि न केनापि दृष्टो न वा गृहीतस्तथा कुम्भेतस्य साहसः
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स्ति, किसी चैतस्य बुद्धिरस्तीत्यहं वक्तुं न शक्नोमि । एतत्कर्मने पुण्यभाजामीदृशः कोऽप्यन्यो धीरो नैव दृश्यते । यदसौं निजपराममहत्व दर्शयन् स्वयमेव भवदये समागतोऽस्ति । इत्यादिकुमारकृततत्प्रशंसामाकर्णयता नृपेणापि तस्मै सम्मान प्रदत्तम् । तत्रावसरे रोहिणीय उत्थाय कृताञ्जलिर्भूत्वा राजानं प्रणम्योवाच- हे स्वामिन्! अहं तु महाक्षुद्रोऽस्मि, मयि गुणानां लेशोपि न विद्यते । अहं तु तंत्र
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दासोऽस्मि । यदाज्ञापयिष्यसि तदहं शिरसा ग्रहीष्यामि । तदर्थमेवाऽऽतोऽस्मिं । इति श्रुत्वा राज्ञोक्तम्- कि भोः । अहं तु कथन महान् साधुकास्त्ययमिति त्वामयेदिषम् । स्वं तु महापराक्रमी दृश्यसे । इत्युदीर्य स्मयमानो भूपतिः प्रधानम्प्रत्येवमवोचत | भोः ! कुमार ! अइमंत्र विषये किं वदामि, युवामेव यथा लोकाः सुखिनो भवेयुस्तथा कुरुतम् । इति नृपादेशं श्रुत्वा तायुभौ ततो बहिरागत्य केचिदेकान्ते समुपाविशताम् । तत्रात्मवृत्तं सर्वमादितः स कुमारं जगाद । पुनः कुमारेण स पृष्टः, कि मोः ! देवतानां लक्षणं तत्र कथं ज्ञातमभृत् । अथव कुमारेण पृष्ठे भगवतो महावीरस्य समवसरणमध्ये प्रमुखारविन्दतो यथा प्राप्तं तत्सर्वं तथैव तेनाध्वादि - हे स्वामिन् ! तद्गाथाऽर्थो मम हृदि सम्यग् लग्नस्ततः प्रभृत्यैव मे त्वम्मिलने महदौत्सुक्यमासीत् । अत एव पत्रमपि तुम्यं मया दत्तम् । प्रभूपवेशप्रभावादेव त्वया सह मेलनं जातम् । मनसि शुभभावोऽप्युत्पन्नः । किमधिकं ब्रवीमि यथा मत्सहस्रो दुराचारी तु कदापि ताशेन महता जनेन सह सङ्गति लब्धुं नार्हति । मम तु भाग्ययोगात् सर्वमपि जातम् । किञ्च हे स्वामिन् ! यथैव मे पुराकृतसुकृतयोगाद्भगवन्मुखारबिन्दतस्तादृशोपदेशो यातः, तथैव तव संयोगोपि । ईदृश सुन्दरमवसरमधिगम्य पुनरीकर्म कर्तुं नैव वाञ्छामि | हे स्वामिन् ! त्वयाऽपि मम निग्रहाय महानुपायः प्रपञ्चितः परं भगवदुपदेशलब्धा गाथैव सेदानीं त्वद्रचितजालतो माममोचत् । अत्रान्तरे कुमारेण पुनः पृष्टः । किं भोः ! सा गाथा त्वया भावतः शिक्षिता उताभावतः १ । सोऽवत्र है प्रभो ! म ग्रहणेनापि भावो नासीत् । अहं तु समवसरणमध्यतः पलायमानो मतिव्ययागासां प्रभुवदनसुधाकर-निःस्यन्दितां सुधामयज्ञायामछिपि श्रोत्राभ्यामविषम् । तन्माहात्म्यादिव मम सर्वे मनोरथाः सफलीभूताः । ततस्तमेवं कुमारो जगादहे भ्रातः पश्य की धर्ममाहात्म्यमिति । यते कुमावतोऽधीतमपि ज्ञानं महदुपकारि जातम् । तर्हि भावतः शिक्षित ज्ञान कपा
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लोकान्नोपकुर्वीत । ततः सोऽवक्-दे पुरुषरत्न ! अगापि कः सन्देहः । किञ्च-"महतां सङ्गतिकरणाजनानां कुमतिर्विलयं ॥ याति तोयस्थ लवणमिन ! अद्विशोदेटि तथैव मदानीमतिहरकर्मव्यसनिनोऽपि त्वत्सङ्गत्या सद्युद्धिरुदपद्यत । अतो है। स्वामिन् ! अद्याभूति तथा न कर्तुमिच्छामि । तथा पौराणां यानि यानि वस्तूनि मयाऽपहृतानि तेभ्यः सर्वेभ्यस्तानि समस्तानि मत्तस्त्वं प्रदापय । येन पौराः सुखिनो भवेयुः । ततोऽभयकुमारः सर्व राज्ञे व्यजिज्ञपत । ततो राजा नगरे पटहवादनमकरोत् ।। । यथा-मो लोकाः ! भवतां यानि यानि चोरितान्यभूवन तानि तान्यत्रात्य परिचीय च गृह्णन्तु इति । अथ पटहवादनेन तत्स्वरूपं । विज्ञाय हृष्टाः पौराः सर्वेऽपि तत्रागत्य स्वस्वधनानि समुपलक्ष्य जगृहुः । नगरे चौरोपद्रवोऽपि शान्ती यातः । स चौरोऽप्यभयकुमारसङ्गत्या शुद्धश्रावकोऽभवत् । ततो द्वादशवतधारकः स धर्मध्यानादिकं यावज्जीवं कुर्वनन्ते चाऽऽयुषि परिपूर्णे शुभध्यानेन मृत्वा देवगति प्राप।
अस्याः कथायाः सारतका लौकैरयमवश्यमेव सारो ग्राह्यः, यथा नीचजातीयः परमस्तेनः प्रभूपदिष्टामेकामेव गाथां कुभाषतः सञ्जयाह । तथापि तस्य महोपकारो जातः । यचोरयन्नपि कदापि केनापि स न गृहीतः । सत्सङ्गतिः प्राप्ता, अलभ्यजैनधर्ममाप्तवान् । प्रान्ते चैहिकं पारलौकिकञ्च सुखमाप। ये ऽत: शुद्धभावेन भगवद्वाी शृपयन्ति, तथा ज्ञानमर्जयन्ति, वेऽवश्यमेवात्र लोके महत्तरां सुखसम्पत्तिमधिगच्छन्ति, परत्र च स्वर्गापवर्गोभृतां दिव्यां सम्पदमाप्नुवन्ति । अतोञश्यमेव ज्ञानोपार्जने लोकैः प्रयतितव्यम् ।
अथ ज्ञानोपरि मासतुषयोरुभयोात्रोः ८-कथानकम्
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मासतुपनामानावुभौ मातरावभूताम् । तावुमो विषयविमुखौ समापतवार्धक्यौ कस्यचन मुनेः पार्थे दीक्षामाहीधाम् ।। PI प्राक्तनकर्मदोषवशाच्याम्यतोरपि तयोरेकाधरमपि यदा शिक्षित नाऽभूत्, बदा त्योवेवसि महान् खेदोजनि । अहो ! मान
सम्पादनाय यतमानयोरप्यावयोरेकपदमपि नैव समायाति । तधिकज्ञानस्य का वार्ता ? ज्ञानेन विना किलाऽवयोरन्येऽपि गुणा | नैव भवितुमर्हन्ति । तद्विहीना मुनयो लोकैरपि नाद्रियन्ते । इत्थं खिद्यमानमानसौ समुपविष्टौ तावालोक्य गुरुरूषे-मोमुनी ! युवा- | शशिधापुरी क येथे । मार्य स्वपिस्ताकारणं तो तमचतुः। तच्छुत्वा पुनस्तौ गुरुरवादीत | मो मुनी! युवाम्यो सत्यमुक्तम् । पर मुनिमिरखिलैरपि पठितुम्प्रयत्नो यथामति विधातव्यः । यदि कस्यचिजन्मान्तरीय-बानान्तराय-कर्मदोषाद शानं नायाति तदा तेन मनसि खेदो न कर्तव्यः । यदुक्तं नीतिशाले-" यत्ने कुते यदि न सिद्धयति कोन दोषः। अत्र | सुक्योः को दोषः । यदि कठिनम्पदं शिक्षित न शक्यते तहिं सरलमत्यल्पाक्षरकमपि रहुर्थकमेव पदं युवामहं पाठयिष्यामि, यावदेव सुखेन युवयोरायाति तावदेव यथामति यत्नतः प्रत्यहं पठनीयम् । अधिकं ज्ञानमात्रयोनाज्यातीति मा शोचिष्टम् । इत्थं फ्ठतोयुवयोरल्पज्ञानेनैव कल्याण भविष्यति । ततो गुरुस्तयोमा रुण्य-रूप, मा तुष्य-तुष, इत्येतत् पदद्वयमेव पाठितम् । परन्तु- | पलवचरप्राक्तनमानान्तरायकर्मोदयादेतस्यापि सम्पगुधारणं तयोर्नाऽभूत् । तथापि गुरुचसि कृतविश्वासौ तावुभौ सवेव मुहु|| मुहुर्गच्छन्दौ, स्वपन्तो, तिष्ठन्तावम्यसितुं लग्नौ । क्षणमपि वदभ्यासतो न विरेमाते, तन्मुखाच्छृण्वन्तः शिवोऽपि वत्पदद्वयं मुख
पाठश्चक्रिरे । किन्तु तयोः सम्पगभ्यस्तं तमाऽमृत् । ततः सर्वदेव तदेवोपरन्तौ वीक्ष्य सर्वेऽपि तमाम्नैव तावुभौ समाङ्कयित लग्नाः । पदा तो गोचर्यादि लातु नगर गच्छन्तौ तदा वावालोक्य कियन्तो चालकास्तदीयमो-रोहरण केचन वर्ष केचिश्व कम्मसमन्ये
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च दण्डं वला गृहन्त आसन् । तथापि बालकतोपद्रवं सोदुमशक्यमपि सानन्दं सहमानौ तौ मनागपि तदुपरि रोष न चक्राते । इत्थमल्पतरखानसमावेशाद्वपक्रोधौ जित्वा शान्तिसुधारससागरमग्नमानसौ तौ शुक्लध्यानं विदधतौ क्रमशः क्षपकोण्यामागतो - सञ्जातकैवल्यज्ञानौ मोक्ष प्रापतुः । भो भो भव्याः ! पश्यत ज्ञानवलम् । यन्मासतुषयोर्महामन्दमत्योरप्यल्पतरपदद्वयज्ञानमात्रा| देव महोपकारोऽभूत् । यदि युष्माकमधिकं ज्ञानं स्वादि सारेसिपीको गन्तः सो अपि सुखसम्पदो भोक्ष्यन्ते, परत्र चाऽतिदुर्लभमपि शाश्वतं शिवसुखं यः करतलाधिगतमिव सुकरमेव भवितेति मत्वा सर्वैरपि लौकिकपारलौकिकसुखार्थिभिझानसम्मादनायावश्यमेव प्रयतितव्यम् ।।
२-अथ मनुष्यजन्मविषयेभवजलधि भमंतां कोई वेला विशेस्त्रे, मनुअ जनम लाधो दुल्लहो रत्न लेखे।
सफल कर सुधर्मा जन्म ते धर्मयोगे, परभव सुख जेथी मोक्षलक्ष्मी प्रभोगे ॥ ११ ॥ हे भव्या ! इहाऽपारसंसारसागरे निमजतां भवतामदृष्ट्योगात्कदाचित्कमिदममूल्यरत्नप्राय मानुष जन्माधिगतमस्ति । अतिदुर्लभमिदमधिगत्य पुण्यवन्तो जनाः सुकृतार्जनेनैव तत्सफलयन्ति । यतो हि सचितो धर्म एव जीवानिह जन्मनि सुखिनः करोति, परत्र मोक्षसुखश्चाऽनुभावयति । अतो धर्मे सवैरेव प्रमाद विहाय वर्तितव्यम् ॥ ११ ॥
मनुज जनम पामी आलसे जे गमे छे, शशिनुपति परे ते शोचनाथी भमे छ । दुलह दश कथा ज्यूं मानुस्खो जन्म ए छे, जिनधरम विशेषे जोड़तां सार्थ ते छे ।। १२ ॥
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किन ये जीवा ईदृशमधिगतं मनुष्पवं प्रमादवमाद्विफलयन्ति, धर्म हित्वा पापानि कुर्वन्ति । ते शशिप्रमराजवत्पश्चाचा । कुर्वन्तः संसारापारकाननमध्य एव बहुशो भ्राम्यन्ति, कदापि तस्य संसारस्प परम्पारमधिगन्तु नाईन्ति । कितन्मनुष्यत्वं दश
दृष्टान्तषणात्प्राणिनामतिदुर्लभमस्ति । तथापि ये प्राणिनो वीतरागाईतप्ररूपित शुद्धजैनधर्म यथावत् पालयन्ति । तेषामेव । विशुद्धो धर्मो मवकान्तारोलचने सार्थवाहतुल्यो भवति ॥ १२ ॥
महादशदुर्गतिपतनोपरि शशिप्रमराक्षः ९-कथातथाहि-इहैव भरतक्षेत्रे श्रावस्तिका नाम महती नगर्यस्ति । तत्र सुरप्रभनामा राजास्ति । तदीयो भ्राता कनीयान् शशिप्रभो युवराजपदं भजते । तत्रैकदा धर्मघोषसरिः कतिपयमुनिगणैः सहोधाने समायातः । तदा झटिति । वनपालः साधुसमागमनवर्धापनं राज्ञे ददौ । तदा हृष्टो राजा तस्मै यथेष्ट तुष्टिदानं दत्तवान् । ततो बघुबन्धुना सह महता है राजकीयेनाऽऽडम्बरेण राजा गुरुवन्दनार्थ तस्मिन्नुद्याने या गुरवस्तस्थुस्तकाजातः । गुरुन् विधिवचमस्कृत्य यथोचितस्थाने में सर्वे लोका उपाविशन् । गुरखो हि भवभयहरी धर्मदेशनां ददुः । गुरुमुखाद्धर्भमाकर्म राज्ञः प्रतिबोधो जातः । अथ देशमान्ते । गृहाजावो राजा संसारममुमसारं मन्यमानः सञ्जातविषयवैराग्यस्तदेव शशिप्रमाभिधं कनिष्टबन्धु जगाद-हे प्रातः 1 इदं राज्यं
गृहाण । यदिदं जनान् महाघोरनरके पातयति । ममेदानीमपारसंसारसागरतरी दीक्षैत्र रोचते । अलं मे राज्यादिना । इत्याकार्य | शशिप्रमस्तमेवमगदत-हे राजन् ! कोऽयमकाण्डे प्रचण्डवित्तमो जातोऽस्ति । यदेवमकाले मधे । नेदानीं तवेदं यौवने वससि
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वक्तुमपि युज्यते । यदि संसारादुद्विग्नोऽसि तर्हि समागते चरमे वयसि त्वया दीक्षा ग्राह्मा, नेदानीमित्येव मे श्रेयस्करं प्रतिभाति । परं स्वमनसि सुविचार्य यत्करणीयं तत्करोतु । ततो वक्ति राजा है भ्रातः ! नाst भ्रान्तोऽस्मि, तत्रैब मतिर्विभ्रान्ता दृश्यते, यवं मां राज्ये स्थापयितुमिच्छसि । अरे ! किमिति नीति न स्मरसि " गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेदिति " । अतस्त्वं राज्यं गृहाण । इत्युदीर्यं तस्मै राज्य दस्दा स्वयमेत्र गुर्वन्तिकं गत्वा प्रव्रज्याञ्जग्राह । अथ सुरप्रभो राजर्षिः सम्यक् संयमं समाराधन महता तपसा जपादिना च कम्र्माणि निर्जरयनन्तेऽनशनं विषाय मृत्वा पञ्चमे ब्रह्मदेवलोके देवोऽभूत् । इतश्च शशिप्रभो राजा धर्म्मविमुखो भूत्वा सप्तव्यसनाssसेवी मृत्वा तृतीयनरके समुदपद्यत । तत्र तस्य महान्ति दुःखानि सोढव्यानि बभ्रुवुः । सत्रावसरेऽवधिज्ञानेन महाक्केशमनुभवन्तं निजबान्धवमालोक्य स्नेहवशात् स सुरप्रभो देवस्तदन्तिकमाजगाम । तत्र तथावस्थं तं वीक्ष्य मोहवशात्तं तत उद्धर्तुकामेन प्रयतितेऽपि तस्य प्रत्युत क्लेशाधिक्यमेत्र जज्ञे । तदा देवस्तमेवमुवाच हे आतः ! मया बहुधा वारिवोऽपि त्वं पापान्न न्यवर्तयाः । अत एवंविधं मद्दाक्लेशमात्राअनुभवसि । इदानीं किं क्रियते । ततो नारकेयेणोक्तम्मो देव 1 मम दुःखादी विषादं मागाः | लोकैर्यथा क्रियते तथाऽवश्यमेव परत्र मुज्यते, मयाऽपि यथाऽर्जितं कर्म भवान्तरे तथा सुज्यते, भोगं बिना कस्यापि जीवस्य शुभाशुभकर्माणि न क्षयन्ति, अथ स देवः स्वस्थानमाययौ । शशिप्रभश्च तत्रैव भृशमसान दुःखान्यनुभवन् कुर्वथ पश्चात्तापमासीत् । अनया कथया लोकैः सारतमा ग्राह्यमवश्यमेतत्, तथाहि थथा सुरप्रभो राजाऽसारमेनं संसारं हेयमिति ज्ञातवान् ततो दुर्लभमेतन्मनुष्पत्वं धर्माराधनेन सफलीकुर्वन् देवगतिमाप्तवान् । अधर्मसेवनाच शशिप्रभो राजा नारकीं महतीं वेदनां चिरमन्वभूत्, अतः सर्वैरपि सुरप्रभवद्धर्ममार्जयद्भिर्मनुष्यत्वमतिदुरापमिदं सफलं कर्तव्यम् । तथा शशिप्रमस्म
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नारकी वेदनामाकर्ण्य सावधानि सर्वाणि कर्माणि हेपानि ।
अथ मनुष्यजन्मनि दशभिदृष्टान्तैरतिदोर्लम्य दर्शवनाह गाथाचुल्लगपासगधने, जूए रयणे य सुमिणचक अ । चम्मयुगे परमाणू, पस दिलुना मणुअलंभे ॥१॥
चुल्लिका १ पाशक २ धान्य ३ द्यूत ४ रत्न ५ स्वम ६ चक्र ७ चर्म-कूर्म ८ युग ९ परमाणु-दृष्टान्ता १० दश्च वर्तन्ते। | || एते च विस्तरतया ग्रन्थान्तरेण ज्ञातव्याः । इह तु ग्रन्थगौरवभिया संक्षिप्तास्ते दर्श्यन्ते ।
१-तत्रादौ मनुष्यत्वदौर्लभ्ये चुल्लिकायाः १०-दृष्टान्त:यथा कापिल्यपुरे ब्रह्माख्यो राजा वर्वते । तस्य महारूपलावण्यवती रम्मासमाना चुलनीनाम्नी राध्यस्ति । तस्था गर्ने चतुर्दशस्व- | मसूचितो ब्रह्मदत्तनामा चक्रवर्ती पुत्र उदपद्यत । तस्य च बाल्यावस्थायामेव तत्पिता ब्रह्मराजा ममार । ततःप्रभृति तद्राज्यं ब्रह्मराज्ञः सुहृदश्चत्वारो नृपा अनुक्रमेण रक्षितुं लग्नाः । प्रथमं सर्वेषामाज्ञया दीर्षपृष्ठनामा कश्चिन्नृपस्तद्राज्यरक्षायै सर्वैः स्थापितः । तदनु सोऽन्तःपुरे गमागमं विदधत्, तारुम्पमञ्जरीमतिसुन्दरीमप्सरसमिव तां चुलनी राझीमलोका । ततस्तस्यां स महानुरागी जासः। साऽपि तस्मिन् रागवती बभूव । द्वयोश्च परस्परावलोकनसरसभाषणादिना मदनो नितरामवर्धत सयोमिथस्तथा रागोजर्षत, यथा तावुभो पणमपि विश्लेषं सोढुं नाशानुताम् । ततोऽचिरादेव तयोः कुत्सिवाऽचरण सर्वैरपि छातम् । यतः-चौर्य मासचतुष्टयेन पारदारिक पहभिर्मासैलूघट भवत्येव गुप्तमपि पापाऽऽचरणं जले वैलमिव बहिरायात्येव । तदितरेऽपि रामः सखायस्वत्स्वरूप
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ज्ञात्वा भृशमकुप्यन् निनिन्दुश्च । परं दीर्घपृष्ठस्य तत्र सञ्जातगाढाऽऽधिपत्यतया ततस्तमपसारयितुं निरोद्धं का न प्ररभूवुः । * दीर्घपृष्ठनृपोऽपि तां राजी निःशङ्कमनाः स्वकीयामिव सेवमानस्तद्राज्यस्याऽऽधिपत्यमपि स्वस्मिन् दर्शयन् राज्यकार्यमकरोत् । अर्थतरस्वरूपमतिप्राचीनो धनुनामा मन्त्री ज्ञात्वा वरधनुनामाभिध स्वपुत्रमब्रवीत् । हे पुत्र ! ब्रह्मदनकुमारस्याऽतिप्रेयान् सखा त्वमसि । अत एकान्ते दीर्घपृष्ठनृपस्तन्मातरि यदनाचारं करोति तत्सर्व यथावत्तं सूचय । ततो यथादिष्टं पित्रा तथैव तत्स्वरूपं सर्व ब्रमदत्तकुमारं व्य
जिनपद स वरधनुनामा मन्त्रिपुत्रः । तच्छ्रुत्वा कुमारस्य कोपानलो नितरां प्रजज्वाल । अर्थकदा कञ्चन वायसं हस्या सङ्गतमालोक्य राजहै। समां तो समानीय सकलजनसमक्ष कुमारोऽवादीत् । भो भो लोकाः पश्यत पश्यत पदयमघमः काक उत्तमामिमा ईसी निषेवते,इत्येने
दुराचारिणं हन्मीति निगदन दीर्घपृष्ठसमक्षमसौ कुमारस्तङ्काजधान । सूचितश्चानेन यः कोऽप्यस्मद्राज्ये दुराचारमीदृशङ्करिष्यति
तमित्यमेव हनिष्यामीति । एवं कुमारचरित्रं वीक्ष्य भयकावरो दीर्घपृष्ठो नृपो गत्वा चुलनीमवादीदेतत्सर्वम् । तेन कर्मणाऽतिरुष्टा F दुष्टा सा रानी मनस्यत्रं दध्यो, अमुना दुष्टपुत्रेण किम् ? यो हो मम सुखे विघ्नायते । तत्रावसरे दीणोक्तम्-अयि! प्रिये ! असो
कुमार आवयोश्ररित सर्व विदितवानस्ति । अतोऽसा कुत्रचिदिने त्वां मां वा द्वयं वा मारयिष्यति । अतोऽहं त्वया रहतत्कर्मकरणे रिममि । अथैतदाकर्ण्य साचादीत-हे स्वामिन ! त्वमेतेनाऽधीरतां मामाः। स हि चालत्वादेवमकरोत् । ततो भीतिः कापि कदाचिदपि तब न सम्भाव्यते । त्वमुदासीनो माभूः । सत्यक्सरेइमस्योपायङ्करिष्यामि । इत्थं तथा प्रोत्साहितः स दुष्टः पुरेव तया सह रन्तुं पुनर्लमः । पुनरेकदा ब्रामदत्तकुमारो वने कस्पांचित्कोकिलायो मैथुनं विदधदेक काकमालोक्य, पुरेव तथावश्यं तं राजसमामानीय पूर्ववज्जधान । पुनर्वितीयवारमेतत्कुमारचरित्रं दृष्ट्वा दी| नितराममैषीत् । एतत्सव सविस्तरं रापै गदित्वा कथितु लमः
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| यथा-अयि प्राणेश्वरि ! अद्यप्रभृति त्वत्सङ्गतिं त्यजामि, नो चेदवश्पमसौ ते पुत्रो मा मारयिष्यति । तदा सोवाच-हे प्राणनाथ ! मई त्वां कदाचिदपि त्यक्त्तुं नेच्छामि । सो विना क्षणमप्यहं जीवितं धतुं न शक्नोमि | मां विसृज्य कथगन्तुमिच्छसि १ । | तदा दीर्धेण दुष्टेन पुनरुक्तम्-तर्हि सत्वरं निजपुत्रं मारय, येनाऽऽवयोः सुखचिरस्थायि भवेत् । इत्याकर्ण्य सञ्जातहर्षया विषय | सुखलोमेन निजपुत्रमारणमङ्गीकृतं तया चुलन्या, ततः पुनरसो दीर्घपृष्ठराजा पुरेव स्वैरं तया सह क्रीडितुं लग्नः । इतश्च झटिति
पुत्रं निहन्तुमिच्छन्ती सा दुष्टा कस्यचित्कणयरदत्तस्य राज्ञः कुमार्या सह निजपुत्रस्य ब्रह्मदत्तकुमारस्य विवाहाऽवधारणं निश्चिक्ये । | तत एक लाक्षागृह निर्माप्य निजपुत्रमवोचत । हे पुत्र ! अस्मत्कुले चैषा रीतिरस्ति यः पाणिग्रहणं कुरुते, स बध्वा सह प्रथमदिने लाक्षागृह एव स्वपिति । सरलाशयः कुमारः सनातनी कुलपद्धति मत्त्वा सयोक्तं सहर्षमुरीचक्रे । एतत्स्वरूपं धनुनामाऽतिवृद्धो मन्त्री विदित्वा मनसि दध्यो । अहो ! मया कदाप्येपारीतिरेतल्कुले न श्रुता नैव दृष्टास्ति । नूनमनया दुराशया राश्या कुमारमारणायैप प्रपञ्चो विहितः । इत्यवधार्य तेन युद्धमन्त्रिणा कणयरराजानमेवं सूचितम् । यथा-मो राजन् ! विवाहानन्तरं ब्रह्मदत्त कुमारेण सह निजपुत्री मा गैषीः । काचन दासी तद्वेषभूषिता तेन सह प्रेषणीया । अन्यथा तवापि पश्चात्तापो महान भविष्यति । तत्कारणं पश्चाद् बोधयिष्यामि | कणयरराजा मन्त्रिवचनानुसारेण तथाकतु मनस्यवधारितवान् । पुनरसौ मन्त्री निजपुत्रं वरधनुमेवमशिक्षयत्-भोः पुत्र ! कुमारविघाताय दुष्टयाराड्या लाक्षागृह निम्मापितम् । सत्र मातुराजया कुमारः राजकन्या परिणीय शयिष्यते तया सह । यता कुमारस्तत्र गृहे पक्ष्यति । अत: कुमाररक्षाकृते त्वामई यथा शिक्षयामि त्वया तथैव सावधानमनसा विधातव्यम् । त्वया सर्वदा दिवानिय कुमारसमीप एव स्थातव्यम् । कदाप्यन्यत्र न गन्तव्यम् । तां परिणीयात्राऽऽगत्य कुमारो यदा लाक्षागृहे चयितुं |
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| गच्छेत्तदा त्वयाऽपि तेन सहैव तत्र गन्तव्यम् । यो कुमारः कथयेत् भोः । लमधुना गृहं याहि इत्यादि । तदा कयनीयम्, हे जी स्वामिन् ! अहं ते दासोऽस्मि । सदैव तव समीप एव स्थातव्यम् । इति पितुः शिक्षाङ्गीकृता वरधनुनापि । ततः प्रधानो दीर्घgHC राजान्तिकमागत्य तमुवाच । मोः स्वामिन् ! अहमतिबद्धो जातोऽस्मि । अतस्तकाऽऽदेशं लाना तीर्थयात्रां विधातुमिच्छामि । इति
तत्प्रार्थनामाकर्ण्य दीपेणैवमचिन्ति । नूनमसौ बहिः कुत्रापि मत्वा कामप्युपाधिकरिष्यत्यतोऽस्य बहिर्गन्तुमाज्ञामिदानीं नैव दद्यामिति विचार्य दीर्धेण स भणित:-मो मन्त्रिन ! इदानी राजकार्य महदस्ति । अतस्तीर्थयात्रामिदानी मा कुरु । अत्रैच स्थित्वा दानादिधर्म कुरु । ततः स प्रधानस्तत्रैव गङ्गातटे दानशाला निर्माप्य तस्थौ। पुननिशालातो लाक्षामयगृहाऽवधिगुप्ता सुरक्षा तेन खानिता। सोचदच निजपुत्रम्-भोः पुत्र ! यदा ब्रह्मदत्तकुमारो वध्वा सह लाक्षागृहे गच्छेत्तदा तेन सह त्वयापि तत्र गन्तव्यम् । तेन हठानिवारितोऽपि त्वया ततो नैव निवर्तितव्यम् । पुनस्तत्र यदा कोऽभ्युत्थातो भवेचदा व्याकुलीभूतमारम्मत्येवं वाच्यम्भोः स्वामिन् ! अत्र स्थले द्रुतं पादाघातं कुरु, यथा प्राणरक्षणोपायः शीघ्र प्रकटः स्यात् । तथा कृत्वा सुरङ्गमार्गेण युवा दानशालान्तिकमागत्य तत्र स्थापितापश्चावारुह्य देशान्तरं गच्छेतम् । तत्रानसरे यदि कुमारो वधूमानेतुमिच्छेत, तदा स निरोधनीयः। तां त्यक्त्वैव युवाभ्यामागन्तव्यम् ।
इसश्च पाणिपीडनानन्तरं प्रधानोक्तरीत्या राजकुमारीक्सनाभरणविभूषितया दास्या वध्वा सह निजाऽऽवासमागतो ब्रह्मदत्तः | कुमारः स्वमातुरादेशात्तत्र लाक्षागृहे वधूयुतः शयितु गतवान् । तदा प्रधानपुरोऽपि सहैवाऽतः | तमालोक्य कुमारस्तं सा- | अहमुवाच-अस्मिनवसरे खमत्र किं तिष्ठसि । निजसदनं माहीति सोचक्-भोः कुमार ! सवा दासोऽस्मि । त्वां विहाय
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क्षणमपि मनो मे कुत्राप्यन्यत्र नैव लगवि । अहमत्रैव तव चरणोपान्ते स्वप्स्यामि । इत्थं कुमारमम्यर्थ्य सोऽपि तत्रैवाऽधः स्थितः । I ततः कुमारीरूपमधिगता दासी वधूरपि तद्गृदे समागता सुष्वाप । ब्रह्मदत्तो वरधनुश्च परस्परमालपन्ती जागृतावेवास्ताम् । इतश्च मध्यरात्रे जाते निद्रिते च समस्तलोके सैका दुष्टा दुराचाररता राज्ञी तत्राऽझात्य तत्र लाक्षागृहे वह्निममुञ्चत् । तदनु किञ्चित्प्रदीash स्वस्थानमागत्य महता स्वरेण पूच्चक्रे । तथाहि भो भो रक्षकाः ! जागृत जागृत, घावत २ यत्र लाक्षामन्दिरे मम पुत्रो वासह सुप्तस्तज्ज्वलति | हा दैव ! किं कृतम् केन पापीयसा कृतमेवम्, हा हा ! ! मम पुत्रो दावे, किङ्करोमि ? भरे ! लोकाः ! सत्वरं कुमारं सद्गृहानिष्काशयत, नो वेदहमपि न जीविष्यामि, हा हा !!! कितम् १, यावदेवमाक्रोशमकरोद, तावत्तत्राऽग्निः कल्पान्तकाल इव वर्धमानः परितः प्रससार । गृहमध्ये च यदा ज्वलन्तं मन्दिरं कुमारेण दृष्टम् । तदा भयातुरः कुमारो वदति - अहो ! इदमकस्मात् किं जातम् १, वरधनुर्वक्ति भोः कुमार ! यज्जातं तत्पश्चात्कथयिष्यामि । पुनवक्तिं कुमारः तहींदानी किङ्कर्तव्यम्, सत्यरं वद, नो चेत्रयोऽपि मरिष्यामः । वरधनुर्वक्ति मा भैषीः अस्त्युपायः । अत्र स्थले दक्षिण चरणाघातं महता बलेन देहि । यदत्र कृतसुरङ्गाया मुखमस्ति ततो मार्ग लब्ध्वा निर्गमिष्यावः । कुमारस्तथा कृत्वा सुरङ्गद्वारमुद्धाव्य तेन मार्गेण मित्रेण सह चचाल । तस्मिन्नवसरे कुमारेण कथितम् - भो मित्र ! मम वधूमप्यानय नो चेन्मरिष्यति सा । वरधनुनोक्तम् स्वामिन् । समय नास्ति । जीविष्यसि चेदन्या षव्यो वच्वो मिलिष्यन्ति । एतस्मिन्नवसरे स्वरक्षणमेव विधातव्यम् । ततस्तावुभ सत्वरं सुरङ्गमार्गेण दानशालान्तिके समायातौ । तत्र च तयोरर्थे पूर्वमेव वरधनु पित्राऽश्वद्वयम स्थापयत् । सौ तात्रारुप तत्कालमेव देशान्तरं प्रययतुः । क्रमेण गच्छतोस्तयोः शतयोजनेऽतिक्रान्ते द्वावप्यश्वौ मम्रतुः । ततस्तौ पद्भ्यामेवाग्रे चेलतुः । एवं दीर्घपृष्ठनुपम
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raat यत्कालानन्तरं भवितव्ययोगान्मिथो वियुक्तौ बभूवतुः । तत्कथा चात्रमहत्वादनवसरत्वाख न दर्श्यते, किन्तु संक्षेपेण किश्विद्दर्शयामि । इत्थं ब्रह्मदत्तकुमारः शतवर्षाणि पर्याटत् । क्शाच सोढुमशक्या अनेके महान्त आपुः । अनेके दाराथ बभ्रुवुस्तैः सह सुखं स्वैरं भुञ्जानः स कालं व्यतीयाय । सर्वमेतद् ब्रह्मदत्तचरित्रे विस्तरं विलसति । तत एवैतदधिकजिज्ञासावद्भिर्बोध्यम् । अथ वियुक्ते च वरधनुनानि मित्रे कुमार एकाकी पर्यटनष्टचत्वारिंशत् कोशान्तमरण्यम्प्राप्तवान् । तच्च श्वापदादिदुष्टजीवैराकीर्णमतिभयास्पदमासीत् । तस्मिन् निर्जने वने चैकाकी गन्तुमशक्नुवन् किङ्कर्तव्यतामूढः स कुमारः कमपि सार्थवाहं प्रतीक्षमाण एकं ब्राह्मणमपश्यत् । तेन सह कुमारस्तत्र महाकानने चना । मध्याह्ने च कुलजिये समुपविणः स्वयं सक्तूनखादत् । कुमारस्य तु किश्चिदपि न दत्तम् । सोऽपि तस्मात्तन्न ययाचे । इत्थं तृतीये दिवसे समुल्लधितमहावनं कुमारमेवमृचे द्विजः । भो बालक ! तच दिनत्रयमशनादिकं विना यातम्। अत इदानीमनेन मार्गेण सुखेन समीपवर्ति नगरं याहि। तत्र गत्वा सुखी भविष्यसि । इति निगद्य ब्राह्मणश्वचाल | तत्राऽवसरे ब्रह्मद तेन स भणिदः। भो ब्राह्मण! त्वया ममोपकारो महान् कृतः । यस्य स्मृतिराजन्म मम स्थास्पति अतोऽइमिदानीं तत्प्रतिक्रियाङ्गतुं नाहमि । यदा त्वं ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्तिनं शृणुयास्तदा त्वमवश्यमस्मत्पार्श्वमागन्तासि । अहं क्षत्रिय पुत्रोऽस्मि, तदा ते मनोऽभीष्टमहं पूरयिष्यामि । इति कुमारोक्तं श्रुत्वा ब्राह्मणो मनसि चिन्तयति । एतादृशा रजना बहुधा मे मिलितास्सन्ति । अतः कथमस चक्रवर्ती भविष्यति । भवतु, तथाऽपि योग्याशीदेगा, इति विचिन्त्य स वक्ति - हे महाभाग्यशालिन् । स्वं भाग्यवानसि तब मनोरथः सर्वः परिपूर्णतामुपैतु । इत्याशिषा कुमारमभिनन्द्य ब्राह्मणवचाल । ब्रह्मदत्तोऽपि द्विजादिष्टपथेन नगराऽभिमुखच चाल, इत्थं ग्रामानुग्रामकाननादिषु पर्यटन कुमारः शतवर्षाणि निनाय । मध्ये च स राज्ञां विद्याधराणाञ्च द्विनवतिसहस्राधिकलक्षङ्कन्या
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अप्युददो | षट्खण्डायाः पृथिव्याचक्रवतीं राजा जातः । तस्य षण्णवविकोटिग्रामा अभूवन् । महानगराणां द्विसप्ततिसहस्रमासीत् । पढ्नमष्टचत्वारिंशत्सहस्रं बभूव । लघुग्रामादयस्त्वसंख्याता आसन् । द्रोणादयो नवनिधयोऽपि तदायचा बभ्रुवुः । रत्नानां चतुर्दशाऽऽसन् । किञ्च पण्णवतिकोटिपदातयः । गजेन्द्राचतुरशीतिलक्षाः, तावन्तोऽश्वाथ, एतावन्तो स्था भूवन् । एवञ्चतुरङ्गसेनया शोभमानः पञ्चविंशतिसहस्रदेवैः संसेव्यमानो द्विनवतिसहस्राधिकलक्षदाराभिः सह सुखं भुञ्जानो ब्रह्मदत्तचक्रवती महत्या समृद्ध्या तां कांपिल्यपुरीमाजगाम । तत्कालमेव महादुष्टं तं दीर्घनृपं यमराजसदनाऽतिथि व्यधात् । साऽपि चुलनी राज्ञी त्रस्ता सती नष्ट्वा दीक्षामग्रहीत् । शुद्धसंयमं परिपालयन्ती कृतकर्माणि क्षपयन्ती तस्मिन्मेव भये मृत्वा मोक्षमाप । इत्थं ब्रह्मदचसार्वभौमः प्रजाः पालयन सुखेन पट्खण्डां महीं शशास वरधनुः प्रधानपदे तिष्ठनन्यायेन सर्व राज्यकार्यङ्करोतिस्म ।
अर्थकदा येन ब्राह्मणेन सार्धमष्टचत्वारिंशत्क्रोशपर्यन्तामटवी मुलसितवान् ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्तिनमाकर्ण्य काम्पिल्यपुरे त्वयाऽवश्यमागन्तव्यमिति वचनञ्च यस्मै पुरा दत्तवान् स ब्राह्मणो ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्ती जात इत्याकर्ण्य तद्दत्तवचनश्व संस्मृत्य तत्राऽऽगतः । वतस्तं मिलित्वा पूर्ववृत्तं निगदितवान् । चक्रवर्तिनाऽपि स समुपलक्षितः । कथितश्च हे भट्टराज ! मम सर्वमपि स्मृतिपथमारोहति । अहं तवोपरि तुष्टोऽस्मि । अत इदानीमीप्सितं दानमहं तुभ्यं किं ददामीति ब्रूहि । तत्राऽवसरे तेनो
हे राजराजेश्वर ! अहं भार्यामापृच्छय पुनरिहागत्य यथेष्टं याचिष्ये । राज्ञोक्तं तथास्तु याहि ततः स गृहमागत्य पत्नीमतिहृष्ट जगाद । अप्रिये ! स ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती काम्पिल्यपुरे मिलितः, मषि प्रसन्नो भूत्वा वक्ति - हे भट्ट ! तत्र यदीप्सितं
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भवेत्तन्मार्गय तचे दास्यामीति । अतोऽहं त्वांप्रष्टुमिहागतोऽस्मि, ततः कि मार्गणीयमिति विचार्य सत्वर बहि यस्मिल्लब्धे याव- । वीषमई सुखी स्याम् । इति श्रुत्वा मनसि चिन्तयति समुत्पअबुद्धिशालिनी सा
प्रवर्धमानः पुरुषस्त्रयाणामुपघातकः । पूर्वोपार्जितमित्राणां, दाराणामथ वेश्मनां ॥१॥
यद्यसौ चक्रवर्तिन एकदैव प्रचुरं धन प्रामादिकं राज्यं वा लप्सते, तदाऽसौ फनमदादन्या काचन | 2 रूपलावण्यवती युवतीं परिणीय मां हास्यति । ततोऽई दुःखमागिनी भविष्यामीत्यादि विचार्य, त्यै भणितो द्विजः । हे नाथ ! मम राज्य न रोचते, यतस्तस्मिन बहुशो विपद भापतन्ति । धनादिमार्गणे दिवानिशं चौरादिचिन्ता भविष्यति । मम तु तदेव रोचते येन निर्विघ्नतयाऽध्वयोः पुत्रपौत्रायनेकालपर्यन्तं सुख स्यात् । एताध्यहिमस्ति, यवं प्रसा चक्रवर्तिनं याचिष्यसे वदाकर्ण्यताम्-हे नाथ ! त्वं याहि चक्रवर्तिनमेवं वद, हे चक्रवर्विन् ! तर राज्ये ! सर्वे लोकाः प्रतिदिनमनुक्रमेण यथारुचि भोजनं सऊद्दीनारदक्षिणाप्रदानपुरस्सरं मे दवाऽऽदेशाइदतु, एतावतैव मे सन्तुष्टिरस्ति । इतोऽन्यत्किमपि | सुखदं न पेयि । तदा चक्रवर्तिनोक्तम्-हे प्राण 1 मयि प्रसन्नेऽभीष्टं ददमाने राज्यादिकं त्यक्त्वा तुच्छमिदहि याचसे ?। राज्यं ते दित्सामि, तकिमिति न गृहासि । द्विजो वक्ति-हे पृथ्वीनाथ ! राज्यम्प्रचुरन्धनादिक वा यदि मे दास्यसि, तदा । मे दुःखान्पनेकानि तथा ब्रामण्यकर्मावरोधश्च सम्मविष्यति, अस इदं मत्यार्थिवमेव देहि । चक्रिणा विचारितम्जो जत्तिअस्स अस्थस्स, भायणं तस्स तत्तिरं शोर । बुढे वि दोणमेहे, न इंगरे पाणियं गइ ॥२॥
ततस्तेन प्रादत्तचक्रवर्तिना तस्मै प्रामणाय "अस्मद्राज्ये सर्वे लोका अस्मै बामणाय प्रतिदिनमेवदिष्यानुसारेण
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मोजमग दीनार राशिमा मनः प्रयच्छन्तु " इति राजमुद्रादिनादि प्रमाणपत्र दत्तम् । वत्प्रमाणपत्र लात्दा ४॥ स ब्रामणः स्वसभाऽऽगतः। ततःप्रभृति स प्रत्यहं तथैव भुञ्जान एकैकदीनारदक्षिणाअगृहे । इत्यर्वतस्तस्य विजप पक्र
वर्तिगृहे पुनभोक्तुं समयो यथा नाध्यासीत् । यतस्तस्य चक्रवर्तिनो द्विनवतिसहस्रोत्तरलक्षपत्नीनामावासादयस्तावन्तः पृथक् पृथगेवाऽऽसन् । पुनस्तस्य महानगराणां द्विसप्ततिसहस्राण्यासन् । एकैकस्मिन् सहस्राणि लक्षाणि च गृहाण्यासन् । एवं ग्राम-कर्वटमण्डपद्रोणादयस्तस्याऽऽसन्, एतेषां मध्ये तस्मै चक्रवतिगृहे पुनर्मोजनाऽवसरो यथा दुर्लभो दृश्यते, तथैवाऽमीषां प्राणिनां महता यत्नेन सुकृतशतयोगेनैकदा लवमिदं मानुषजन्म प्रमादादिवशाद गतं सत् पुनलम्पं कदाऽपि न भवितुमर्हति । अतः प्रमादादिक विहाय सर्वैरप्येतदतिदुर्लभ लब्धं मनुष्यत्र धर्माराधनेन साफल्यमवश्यमेव नेयमिति ।
२-अथ मनुष्यस्वदौलभ्ये पाशकस्य-११ दृष्टान्त:___ तथाहि-अस्मिभेव भरतक्षेत्र गोलकदेशे चणकाख्यपुरे चणकाभिधः कश्चिदेको ब्राह्मणो निवसति स्म । तस्य चणेश्वरी नाम्नी भार्याऽऽसीत् । ती दम्पती जैनधर्मानुरागिणावभूताम् । चणेश्वर्याः कुक्षौ सदन्तः पुत्र उदपद्यत । जातं तथाभूतमालोक्या
निष्टशझ्या सा शिशोर्दन्तमत्रोटयत् । एकदा तद्गाहे कश्चन साधुराययौ । सा ते साधुं निजसदन्तपुत्रजन्मफलमपृच्छत् । तनिशम्य || साधुना तत्फलमित्याख्यातम्-असौ जातको राज्यं भोश्यति । तच्छ्रवाऽतिहृष्टा माता पृच्छति हे मुने ! मयाऽनिष्टशयारप गर्भानुगो दन्तस्त्रोटितः । ततो मुनिरवादीद-हे. सुभगे ! दन्तवर्षणादसौ स्वयं राज्यभोक्ता न स्यात, किन्त्वन्यजन राज्यासने संस्थाप्य राज्यभोगी भविष्यति । तत्फलाडकर्णनेन तो नितरां जहपतुः । ततस्ताम्यां तस्य शिशोचाणक्येवि नाम
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चलावे । अथ स शिशुः क्रमेण सकल्याखकलाविज्ञाननिपुणोऽभूत | महाजैनधर्मानुरागी यातः । सतोऽसौ सुरूफ्लावण्यादिगुणविशिष्टया कन्यया सह पितम्या परिणापितः । गौराव चागावर मार्श विकास विवाहोत्सवे समाहूता ययौ । तत्राऽन्याप्यस्या भगिनी समागताऽऽसीत् । तस्याश्च धनादिसमृद्धत्या मातापित्रादिकः सोऽपि परिवारो बहादरं ददौ । चाणक्यपनी तादृशी अनाती श्रीमती नाऽऽसीदतोऽस्या: सत्कृतिस्तथा नाकारि पित्रादिभिः। अथ विवाहोत्सवानन्तरं सा निजालयमागत्य प्रसङ्ग
शापित्रादिविहितापमानं भर्तारमाख्यत् । तदाकर्ण्य किञ्चिद्विदूनमनाचाणक्यश्चित्तयति___घन्यते यदषम्योऽपि, बदपूज्योऽपि पूज्यते । गम्यते यदगम्योऽपि, स प्रभावो धनस्य तु ॥ १॥
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीमः, स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वा सच दर्यामीपः, सर्व गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥२॥
ततः प्रचुरलक्ष्मीसमर्जनाय विदेशयात्रामकरोत् । स मार्ग प्रजभेव प्रतिज्ञाप्तवान् । यदि प्रचुरधनप्रदानेन निजप्रेयसीभनः सन्तुष्टि न कुर्या तर्हि मम जीवितमपि मुधैव । अत्रान्तरे कचिद् बामणो मार्गे मिलितः । समेवमपृच्छदसो भो ब्रामण ! कुतः समागतोऽसि ? तेनोक्तम् । पाटलिपुत्रे नगरे नन्दमामा राजा प्रतिवर्ष मे दक्षिणां ददते | सां लातुं सत्राई गतवान् । परन्तु स इदानीमन्तःपुरान् महिनायाति । अतः परावर्तमानो निजगृहं बजामि । सन्मुखादित्याकर्ण्य पाणक्यः पाटलिपुत्रपुरमागतः । ततो राजसदसि समागत्य शून्यं मृपासनमालोक्य तदुपरि समुपाविशत् । तनोपविष्टं तमालोक्य कयाचिद्राजदास्या भणितः हे दिन ! राजसिंहासनं त्यक्त्वाऽन्यस्मिनासो समुपविशेति कविते तेत्रोक्तम् । हे दासि ! अम्मदासमं दर्शय । दास्या पार्थस्यमेकमारूनं दर्शितम् ।
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तदुपरि स कमण्डलुं स्थापितवाम् । पुनस्तथा तृतीयमानं दर्शितं तत्राऽपि तेन पवित्री स्थापिता, ततस्तया चतुर्थमासनं दर्शितं तत्र दंडस्वेन स्थापितः । इत्थं तया यद्यदासनं दर्शितं तदखिलमायतीकृतवान । इत्यालोच्य सञ्जातरोषया दास्या बलादुत्थाप्य निष्काशितः स बहिः । सादिया
कोशेन भृत्यैश्च मिबरमूल, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशास्त्रम् | उत्पाटय नन्दं परिवर्तयामि महावुमं वायुरिवोग्रवेगः ।। ॥
हे दासि ! मां तदैव ज्ञास्यसि । यदा से नन्दराजस्येदं राज्यं ग्रहीष्यामीति । दास्योक्तम्- गच्छ २ सत्वरमितोऽयसर । स्वाशो रङ्कः प्रत्यहमत्र द्वित्रिरायात्येव । अथ चाणक्योऽपि दास्या तिरस्कृतः साधुभाषितं राज्यमन्त्री भविष्यत्यसाविति स्मृत्वा कस्यचिद्राज्य कारिलक्षणाङ्कितस्य पुंसः शोधनायाऽग्रे चचाल । नन्दनृपाश्रितमयूरपालस्य राज्ञो नगरे सभागत्य तापसवेवं विधाय भिक्षितुं लभः । इतश्व मयूरपालराक्ष्याः पूर्णचन्द्र पिपासालक्षणो दोहदः समुदपद्यत, परन्तु तस्य पूर्तिः केनाऽपि कथमपि नाकारि । अतः सा तद्दः खेनान्वहं कुशतारा जाता । तां तथावस्थामालोक्य राजाऽपृच्छत् । अधि प्रिये 1 तब किं भवति । येनेड का तव वपुषि दृश्यते । ततः सा निजदोहदं वा मगवत् । कचितच हे स्वामिन् । यथेप दोहदो मे पूर्णो न भविष्यति, तर्हि मरिष्यामि । अत्र सन्देह मा कार्षीः । इति त्वा राम्रो मनसि महवी चिन्तोत्पन्ना तत्रावसरे तापसी चाणक्यो भिक्षार्थ राजद्वारभागस्य वस्थौ । वीक्ष्य राजा से प्रागमत् । तेनाऽपि पृष्ठ हे राजन! तथ केशी चिन्ता जाता, येन चिच्छायवदनः प्रतिभासि १ । क्या राजा तत्कारणं रामा दोह
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दमाख्यात । तच्छ्रुत्वा तापसेनोक्तम् - राजन् ! यद्यसौ न पूर्वेत तर्हि जीवद्वयस्य हानिर्भविता । राजा वक्ति त स्पादेव, परन्तु यथा होइहस्य पूर्णतां विभ्य र भवादृगुपायः कोऽप्यस्ति चेद्रद् । तदाकर्य तापसो बक्ति -मो राजन् ! उपायो वर्तते, परं तथा करणे मे कि दास्पति ? राजा भूते । हें तापस ! यच्वं प्रार्थयिष्यसि तद्दास्यामि । पुनस्तापसेनोक्तम् हे राजन ! एनं गर्भस्थं बालकं यदि मे दद्यास्तर्हि तं दोहदं पूरयित्वा जीवद्वयं रक्षामि । राजाऽप्येतदङ्गीकृतवान् । एतच सत्रत्य - कियत्प्रधानजनसमक्षे तापसो राझा स्वीकारितवान् ततः सकाशात्प्रमाणपत्रमपि लेखयित्वा स्वयं गृहीतवान् । अथैव तापसो राइया दोहदपूरणाय वृण्मयमेकं न निर्मापितवान् तदुपरि चन्द्रांशुपाति गुतं छिद्रं विधाय गृहान्तर्मध्यभागे च राजतस्थालकं क्षीरभृतं fatara | पौर्णमास्या रात्री पोडश कलापूर्णचन्द्रमसः प्रतिविम्बो यदा कृतच्छिद्रद्वारा तत्र स्थालके पपात । तदा तत्र सुप्तां राज्ञीमुत्थाप्य राजा जगाद । हे प्रिये ! तत्र भाग्ययोगात् पूर्णचंद्र इहागतोऽस्ति तमधुना यथेष्टं पिब । राश्यपि दोहदानुसारेण तथा स्थितं सुधांशुं बीक्ष्य पातु लग्ना सा च यथा यथा क्षीरम्पपों, तथा तथा गृहोपरि कृतविवरमावृणोत् । ततः स्थालस्थे क्षीरे निःut fearer पिधानेन प्रतिविम्बितन्द्रोऽप्यदृश्यो जातः । निःशङ्कं मया चन्द्रः पीत इति सा राशी प्रमुदिताऽभूत् । इत्यं बुद्धिचातुर्येण मयूरपालराजपत्म्या ईदृशो दोहदस्वेनाऽपूरि । ततो दशमे मासे शुभमुहूर्तेऽनेकोच शुभग्रहे राज्ययोगलग्ने सा पुत्रमोष्ट । तस्मिञ्जा राज्ञा महामहये । ततो द्वादशेऽहनि पिता तस्य दोहदानुसारेण चन्द्रगुप्त इति नाम धृतवान् ।
इतश्च चाणक्यस्तापसवेषी नानादेश पर्यटन स्वर्णादिसिद्धिकरीं विद्यामधिगतवान् । अथाऽन्यदा तस्मिन् मयूरपालराजनगरे पुनरागतवान् सः । तत्र चाडनेकान्, बालकानेकीकृत्य बालक्रीडां कुर्वन स्वयं राजा भूत्वा कञ्चन प्रधानं कृत्वा कस्मैचिद् ग्रामं
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ददते, कस्मैचन नगरं ददाति । कयोश्चिद्वादिप्रवादिनोययं करोति । कश्चन कोष्ठपालपदे नियुक्ते । इत्थं रममाणञ्चन्द्रगुतं वीक्ष्य चमत्कृतश्चाणक्यतापसः कञ्चिदपृच्छत् । भो ! अयं कस्य पुत्रोऽस्ति । एषः शिशुस्तस्य तापसस्यास्ति, येन राज्याश्चन्द्रपानदोहदः
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पूर | तो हर्ष स्विमरे तत्रागच्छद् गोवृन्दमालोक्य चाणक्यचन्द्रगुप्तमगदत् । महाराज ! स्वमधुनाऽनेकेभ्यो ग्रामनगरादिदत्तवानसि । अइमपि तव शुभेच्छुर्ब्राह्मणोऽस्मि, मामपि किमपि देहि । तच्छ्रुत्वा तस्मै चन्द्रगुप्तस्तदोवृन्दं ददौ । जगाद च वीरभोग्या वसुन्धरेति । ततस्तं सोऽवक हे वीरशिशो ! त्वमेहि मया सह ते राज्यं ददामि । इत्युक्त्वा तं सार्थ नीत्वा स ततोऽग्रे चचाल ।
अथ स चाणक्यचन्द्रगुप्तं बालराजं विधाय स्वर्गसिद्धपार्जितधनेन सैन्यानि च कृत्वा तस्मिन् पाटलिपुत्रे पुरे नन्दराजेन सद यमुपागतः । सोऽपि ससैन्यस्तदभिमुखमावयों । जाते च मिथो युद्धे नन्दराजस्तत्सैन्यं लीलया क्षणेनैव जिगाय । ततो नष्टे सैन्यै चन्द्रगुप्तबालकेन सह सोऽपि पराजितः कथमपि कान्दिशीकमनाः पलायितः । कियद्दर पृष्टानुगाद्धननाय नन्दराजतो मार्गे कुत्राऽपि गुप्तस्थले चन्द्रगुर्त संस्थाप्य स्त्रयं तापसवेवं विधाय चाणक्यो जीवितं रक्षितवान् । पुनस्तद्वेषेण तत्र नमरे भिक्षामिषेण मघि पराजिते नगरे के किवदन्तीति ज्ञातुमिच्छुः समागत्य पर्यटितुं लमः । अथैवं कुर्वनेकस्या वृद्धाया गृहाये तस्थौ । तत्रावसरे तद्गृहे द्वित्राः शिशवः खादितुमुपविष्टाः । सा च वृद्धा तेभ्यस्तत्कालकृतमत्युष्णं भोजनं दचत्रती । ते च तन्मध्ये ग्रहीतुं कन्दस्तदा सन्तप्तकरास्ते भृशचक्रन्दुः । तत्राऽवसरे तानूचे सा । रे शिशवः । यूयमपि चाणक्यवन्मूर्खा एव माघ । तदाकर्ण्य स तामपृच्छत् हे मातः ! चाणक्यः किमकरोत् । येन तं मूर्ख मणसि । सा कथयति है वापस ! स पुरानागतो राजसिंहासन
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मात्रामत् दास्था विवो मसितष । पुमरागतो राक्षा द्धयमामः पराजितो भूत्वा फ्लापनमकरोत् । इत्वविमृश्यकारित्यास्म मूखों जातः । एतेऽपि विशवस्वपापहः । बघेते आन्ततः शीतं शीतं समादाय मुजीरन तर्हि करा नैव दया भवेयुः । तवाणक्योऽपि तदात्यासाबुद्धः पर्वतनामानं राजानं ससैन्यं सार्थीकृत्य चन्द्रगुप्तेन सह प्रचुरसैन्यसमन्वितः प्रान्तियामानकाशित्वा स्वायत्तीकृतवान् । पश्चास्पाटलिपुत्रे समागस्य नन्दराजेन सहायुध्यत । तुमुलं रणं कृत्वा तम्पराजितमकरोत् । पश्चाद्दरया नन्दजीपन्तमेव राज्याभिष्काश्य चन्द्रगुप्तपर्वतराजाभ्यां सह चाणक्यो नगरम्पाविशत् । तत्राऽक्सरे निर्मच्छतो नन्दस्य रथे तत्पुत्रीमतिरूपवर्ती तरुणीमालोक्य स चन्द्रगुप्तः स्मरातुरो नितरां मुमोह । ततः साऽपि कन्या तद्रथादवतीर्य चन्द्रगुप्तरथे समागताऽभूत् । ततो पद्धता महेन पुरै पलिश्य सत्यनिहासनारूतन्दुगुप्तः सुखेन राज्यमकरोत् । ततोऽन्तःपुरे काचन षिकन्यासीत ताश पर्वतराजः परिणीतवान् । तस्याः करस्पर्शमात्रेण पर्वतस्य सर्वाङ्ग विष व्याप्तम् । ततः स व्याकुलो जातः । नियमाणं तमालोक्य चाणक्यश्चन्द्रगुप्तोऽक्दत् । हे पितः ! मित्रं म्रियेत चिकित्सां कुरु। तेनोक्तम् वत्स! मौनमाश्रय, अस्य चिकित्सा नाऽस्ति । यत:
तुल्यार्थ तुल्यसामर्थ्य, मर्मज्ञं व्यवसायिनम् । अर्धराज्यहरं मित्रं, यो न हन्यात्स हन्यते ॥१॥
ततः पर्वते मृते सति निष्कण्टकं राज्यं तस्य जातम् । ततोऽन्यदा धीमान स चाणक्यो देवतामाराध्य स्थानुकूलपातुकान पाशकानग्रहीत | सत: पौरान धनवतो जनान् सभायामाहूय रत्नभृतं स्थालं पणीकृत्य स गदितवान् मो मो लोकाः ! भूणुस । अस्यां धूतक्रीडायो यो जेष्यति स इदं रस्लभृतं स्थालं ग्रहीष्यति पराजित्तस्तु एकं रत्नं दास्यति, इति तभिगदिउमाकर्ण्य दृष्ट्वा भनाल्या तनिपुणा लोकास्वेन सह पेषितुं लग्नाः। सोऽपि रत्नमृतस्थाले लोकसमक्ष मध्ये निधाय तैः सहाञ्चीव्यत् ।
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'देवाsugered शशकाः सदैव स्वानुकूला एष पतितुं लग्नाः । इत्थं क्रीडता तेन चाणक्येन किमभिरेव दिनैः सर्वषां गृहस्थानि रस्मानि जग्राह । कोऽपि तस्मिन्देवने तञ्जेतुं न शशाक । सर्वेऽपि हारितरत्नाः शोचितुं लग्नाः । हे भव्याः 1 पश्यत यथा गतानि तानि रत्नानि तेषां पुमरधिगतानि न भवितुमर्हन्ति । कदाचिसे हारिता जना देवसाहाय्यतया सञ्जित्वा गतानि निजरत्नानि तच्छकाशात्पुनर्लप्त्यन्ते । परन्त्वेतन्मनुष्यत्वं महता कष्टेनाऽधिगतं यथास्यति वर्हि तत्पुनर्नैव मिलिष्यति । अतो यवित वै।
३- मनुष्यस्वदौलभ्ये धान्यस्य १२ - दृष्टान्तमाह
तथा हि-यथा कचिद्राजा मरतक्षेत्रीयचतुर्विंशजातीयानि धान्यानि परस्परमिश्रितानि कृत्वा ततस्तेषामेकराशि विहितवान् । ततस्तेन राज्ञा काचिदतिवृद्धा कम्पिताखिलगात्रा गतशक्तिका दृष्टिहीना एकपदमपि गन्तुमशक्ता सदैव लालायितवक्त्रा जर्जरीश्री मणिता भो ! एतस्माद्राशेः सर्वजातीयधान्यानि पृथक २ कुरु । एवं प्रोक्ता साऽतिवृद्धा स्त्री तथाकर्तुं नैव शक्नोति । तथा ये प्रमादवशाद्धर्मविमुखा मनुष्यत्वमेतद् गमयन्ति तेषां पुनरेतत्प्राप्तिरसि दुष्करेति शास्त्रा सर्वैरेव धर्म आराधनीयः । ४- अथ मनुष्यत्वदौर्लभ्ये भूतस्य १३-दृष्टान्तं दर्शयति
तथाहि - जितशत्रो राज्ञो बहवः पुत्रा आसन् । दे सर्वे सुखमनुभवन्तः पितुरादेशकारिणो बभ्रुवुः । तस्य राजसमा सदनमतिरमणीयं महचरमासीत् । तत्र स्तम्भानामष्टोत्तरशतं नानाचिनैचित्रितमासीत् । प्रतिस्तम्भे चाष्टोत्तरशतसंख्यावन्तो हंसा पराजन्त । अबैकदा राहो ज्यायान् पुत्रो दध्यौ यथा ममाऽपि वार्धक्यमागतम् । अतिशुद्धोऽप्यसौ मे पिताद्यापि जीवति, राज्यं
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मुनक्ति । जीवत्यस्मिअहं राज्यसुखमनुभवितुं नामिीति केनाऽपि व्याजेनैनममारयिष्यं ताई राज्यमकरिष्यमिति स्थिरीकृत्य स पितरं घातयितुम्प्रयतमानोऽभूत् । एतत्स्वरूपकथमपि ज्ञाला रामानं सन्त्री विमान ! सपथा हे जन् ! अतः कमप्युपार्य छुरु, येन राजकुमारस्य तबापि च जीवितं तिष्ठत् । ततो राज्ञा सदसि तमाय स कथितः । हे पुत्र ! अहं पद्धो जातोऽस्मि । यथावद्राज्यकार्यमपि कर्तुं न शक्नोमि । अतः परं तथाकर्तुमिच्छाऽपि मम नास्ति । अतस्त्वामिदानीमेव राज्येऽभिषेक्तुमिच्छामि। परमस्मस्कुले सनातनी किलषा पद्धतिर्वर्तते तां शृणु । एतद्राजभवनेश्टोत्तरशतस्तम्भेष्वेककस्मिन् स्तम्भे येऽष्टोत्तरशतईसा विद्यन्ते तानकैकशोऽटोत्तरशतवारं द्यूतक्रीडया यो जयति, स राज्यसिंहासनमारोहति । नो चेत्तस्य विनानि जायन्ते । उक्तसंख्याया अपूतों मध्ये पाशकानां विपरीतपात तु पूर्वजितान्यखिलान्यपि यास्यन्ति । उक्ता तावती संख्या पुनरादितः पूरणीया भविष्यति, इत्वमेतत्कृत्यं सत्वरं विधाय राज्यमिदं गृहाण । परमेवं कृत्वा राज्यप्राप्तिरतिदुष्करा वर्तते । कदाचित्कोऽपि देवसाहाय्ययोगेन तांस्तावद्वार विजित्य राज्यमाप्नुयादपि धर्मेष्वनुपार्जितेषु यो हि महता यत्नेन प्राप्तमिदं मनुष्यत्वं गमयति तस्य जन्म शतैरपि कोटियत्नैरपि पुनर्लब्धुं सम्मैव भवतीति मत्वा भव्यजीवधर्मापार्जनमवश्यमेव कसेव्यम् । प्रमादो हि तत्र मनागपि न विधाजच्यः ।
५-अथ मनुष्यस्वदौलभ्ये रत्नस्य १४-दृष्टान्तमाहयथा-तत्र बसन्तपुरनगरे धनाढ्यो धनाभिधो व्यवहारी निवसति स्म । तस्य पञ्च पुत्रा आसन् । रत्नपरीक्षणशास्त्रे च तस्य । घनश्रेष्टिनो महान परिश्रम आसीत् । अतस्तत्परीक्षाकरणेऽसावद्वितीयोऽभूत् । धनाऽऽधिक्यादसौ महाहाणि रत्नान्यनेकानि क्रीवा गृहे रक्षितवान् । अत एनं सर्वे लोका रत्नसार इति कथयन्ति स्म । यानि यानि दिव्यानि रत्नानि यस्य कस्यचित्पाः सोऽपश्य
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तानि सर्राण्यकीणात् तदर्थमस्योपरि स्त्रीपुत्रा भृशं कुप्यन्ति स्म । तथापि सुरत्नक्रयणात्स नैव विरराम । तानि रत्नानि लोह
मय्यां पेटिकायां निक्षिप्य साऽपि पेटिका कोशालये सुरक्षिवाकारि । तत्रैव स सदा सुष्वाप | कस्यापि तस्य विश्वासो R नाऽऽसीत् । तत्रालये पुत्रादीनामपि गमनाऽऽगमने न भवतः । कदापि तदालयं स नाऽमुञ्चत् । अथैकदात्यावश्यककार्यत्र| शादन्यत्र गतवन्तं तं ज्ञात्वा तत्पुत्रास्तानि सर्वाणि सुरत्नानि विचिक्रियुः । तानि लात्वा तेऽपि वैदेशिका नानादिशासु गत
वन्तः । गृहागतः स तत्रालये कपाटोद्घाटनमालोक्य खिद्यन् भार्यामपृच्छत् । भो भायें ! रत्नानि कथं न दृश्यन्ते । तयोक्तम्* पुत्रस्तानि वैदेशिकाना हस्ते विक्रीतानि । तदाकये स भृशं पश्चात्तापमकरोत् वेन किं स्यात् । नानादिक्षु गतानि तानि रत्ना
न्यस्थ पुनरधिगताणि दुष्कराणि सन्ति । कदाचिंदैवयोगेन देवसाहाय्यादिना तानि रत्नान्यपि तेन पुनरधिगन्तुं शक्यन्ते, परं ॥ है। धर्म विना यस्याऽतिदुर्लब्धमिदं मनुष्यत्वं गच्छति तेन पश्चात्तापं शतशः कुर्वता यतमानेनाऽपि तत्पुनर्लन्धु नैत्र शक्यते । अतो घर्मे समुद्यतितव्यं भव्यैः सदैव ।
६-अथ मनुष्यत्वदौलभ्ये स्वमस्य १५-दृष्टान्तो दर्श्यतेतयाहि-पाटलिपुरात्कलाकुशलो मूलदेवो राजपुत्रो धूतव्यसनास्पित्रा पराभूतो निर्गतो गुटिकाकतवामनरूपोऽस्यामवन्तिपुर्यों निवसति स्म । स च द्विसप्ततिकलाविज्ञानवानस्ति | तथा सकलजनचित्ताहलादनकरोऽस्ति । तत्रैव नगरे देवदसाऽभिधाना गणिका रूपलावण्यतारुण्याऽऽदिगुणयोगादद्वितीया वर्तते । तस्यां स कुमारो रागीभूय दिवाऽनिशं तदन्तिक एव तिष्ठति । क्षणमपि सुधारसभृस्कृम्पिका स्वादिष्टामित्र तां कुशीलामपि न जहाति । यतः
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या चित्रविकोटिनिवृष्टा मयमांसनिरतातिनिकृष्टा ।
कोमला वचसि चेतसि दुष्टा, तां भजन्ति गणिकां न विशिष्टाः ॥ १ ॥
अयैकदा तस्या गृहे कचिदचलाऽभिधो व्यवहारी समस्य कुमार साझीनमपश्यत । तत्राऽवसरे द्वयोरपि व्यवहारिकुमारयोर्मिथो वादप्रतिवादो जज्ञे तदनु स मूलदेवो चूतव्यसनीवभूव । सेन सन्मावाकया स निष्काशितः । ततो भिक्षुवेषं विधाय स देशान्तरमचलत् । ग्रामानुगामं पर्यटन स दिनश्रयानन्तरं कस्यचिचटाकोपकण्ठमेकं संन्यासिनो ममपश्यत । तत्रैव गत्वा रात्रौ शिष्ये । तत्राऽर्थनिद्रितः स रात्रिशेषे षोडशकलापूर्ण चन्द्रपीतवान् पश्चाजागृतः स तादृशस्वप्नेन मनसा जहर्ष । तत्रैव तत्पार्थे सुप्तः कश्चन सन्मठपतिशिष्योऽपि तदा ताशमेव स्वप्नमपश्यत् । प्रभाते च शिष्यस्तत्स्वमफलं गुरुमपृच्छत् । गुरुणोक्तम् - ईदृशस्वनदर्शनादद्य ते गोधूमस्थूलरोटिका घृताक्ता सगुडा मिलिष्यति । तदाकर्ण्य मूलदेवो दध्यौ, मम तु विशिष्टमेव तत्फलं किमपि भविष्यति । तत उत्थाय स शिष्यो भिक्षायै नगरान्तः प्राविशत् । तत्र च कस्याश्चित स्त्रिया मृतवत्सायाः सन्ततिfarnd feat मन्त्रिकोऽवदत् । हे मृतवत्से ! त्वमेतदर्थं गोधूमचूर्णकृतां करपट्टिका निर्माय ताथ घृताभ्यक्तां विधाय afari भिक्ष देहि, ततस्ते सन्ततिजींविष्यति, तदिने सा मृतवत्सादोपापनोदनकृते तथा कृतवती पुनः कस्यचिद्भिक्षरागमनं प्रतीक्षमाणाऽऽसीत् । दैवयोगात्स शिष्यस्तद्गृहं गतवान्र । सदा सा तस्मै तां घृतपूर्णी गोधूमस्थूलकरपट्टिकां सगुहां ददौ । तद्दिने यथा कथितं गुरुणा तथैव तेनापि लब्धमतो हृष्टो गुरोर्माहात्म्यं लोके जल्पन गुर्वान्तिकमागात् । इतच सोऽपि मूलदेवस्वम्मटाभिर्गत्य कस्यचन मालाकारस्य वाटिकामागत्य तञ्च प्रसाद्य सत्प्रद सफलपुष्पादिकमादाय नैमित्तिकालयमासाद्य
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तेथ फलपुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य निजस्वप्नफलमप्राचीत् । नैमितिको वक्ति, हे भाग्यशालिन् ! अथवनादिवसात्सप्तमेन रा राज्यं मिलिष्यति, तत्राशयं विद्धि । एतत्स्वमस्यैतदेव फलं भावीति तथ्यं वच्मि | तदाकर्ण्य स अहर्ष । ततो दिननवादस्प तस्य बुभुक्षा जाता । तेन स ग्राममध्ये भिक्षार्थं प्रविष्टः । केन चिच्छ्रद्धावता तस्मै योग्यम्प्रचुरम्भोज्यं दशम् । तदादाय स्टाकोपरि स्नानादिकं विधाय यात्रोत्तमैच्छत् तावत्तत्र तद्भाग्ययोगान्मासक्षपणः कश्चिन्मुनिः पारणायै समायातः । ततो महत] हर्षेण स तस्मै तत्प्राकं भोज्यं ददौ । गवे व तस्मिन् स्वं सत्पात्रदानेन धन्यममन्यत । पश्चात्स्वयमपि तदक | सत्रावसरे वनवेक्या प्रत्यक्षीभूय तमवोचत । हे भव्य ! त्वयाऽय साधये दानं दत्तम्, अनुमोदितश्च अतस्तुष्टाऽहं ते वरं दातुमिहागताऽस्मि । अत ईप्सितमपि याचस्व । यते ददामि तेनोक्तम् हे देवते ! यदि तुष्टा किमपि मे दातुमीहसे तर्हि राज्यादिकं देहि । तदेवंधनाणं खु नराणं, कुम्मासा हुंति साहुपारणए । गणिअं च देवदसं रज्जं च सहस्सं च इत्यीणं ॥ १ ॥ तयोक्तम्- हे भद्र ! मया तसे दक्षम् । इत्युक्त्वा साऽदृष्टाऽभूत ।
- इस सप्तमे दिवसे संजाते तत्रत्यराज्ञोऽपुत्रस्य मरणं प्रधानैर्विहितानि पश्चदिव्यानि गज-तुरम-छत्रचामर-कललक्षणानि सञ्जातगीतनृत्यादि महोत्सवपुरःसराणि सकलं पुरं आन्त्या यत्र मूलदेवः सुप्त आसीचत्रागस्य गजराजस्तत्कण्ठे मालां स्वात् । अश्वेन द्वेषितम्, छत्रं तदुपरि धारितम्, पामरो वीजितः, कलशस्तमभिषितवान् । ततः सर्वे लोका नवपद कुर्वन्यस्तं गजारूढं कस्वा राजमन्दिरमानीय राज्यसिंहासने स्थापयामासुः ।
hare मूलदेवो राजा सं शिष्यमाकार्य पप्रच्छ । किं भोः ! समेध स्वप्नं दृष्ट्वा भवा राज्यं लब्धम् । त्वया पुनः कथं रोटिका
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मात्रप्राप्तम् १ | शिष्येणोक्तम् - राजन् ! स्वमैक्ये फलभेदः कथमभूद्रावयोरित्यहं नो येषि । स वक्ति साधो ! स्वमैक्ये सत्यपि गुरुभेदात्फलभिन्नताऽभूत् । यतो हि लोको गुर्वनुसारि ज्ञानमधिगच्छति, फलश्च भच्यनुसारि लभते । इति मूलदेवराज्ञो वाक्यमाकर्ण्य तत्स्वप्नं पुनर्लब्धुकामेन स संन्यासि शिष्योऽनेकवारं तत्रैव सुष्वाप । पुनर्यदि मे तादृशः स्वप्नो भविष्यति तदा तत्फलं तमेव निमित्त पृष्ट्वाहमपि राज्यं लप्स्य इति धिया, परन्तु तत्स्वमस्तस्य बहुधा यतमानस्याऽपि पुनर्नैवाऽभूत् । सर्वथा दुष्प्रापोऽपि तादृशः स्वप्नो देवताद्यनुकम्पनबशालोके प्राप्तुं शक्यते किन्तु यदिदं माता गुणावतंत्रा मुधा गच्छति तत्पुनः सहस्रशो यत्ने कृतेऽपि पुनर्लब्धं न भवितुमईतीति विचिन्त्य भव्यैजनमें प्रसादं विहाय सदैव यतितव्यमिति ।
७- मनुष्यत्वदौर्लभ्ये चक्रस्य १६ दृष्टान्तं दर्शयति
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तथाहि इन्द्रपुरे नगरे इन्द्रदत्ताभिधानो राजा वर्तते तस्य द्वात्रिंशतिपुत्रा वशंवदा गुणविनयादिवन्तः सन्ति । अथैकदा बहिर्गच्छन् राजा प्रधानपुत्रमतिरूपवर्ती तरुणीमालोक्य तस्यामासक्तोऽभवत् । पश्चान्निजमन्त्रिणमा कार्य तत्पुत्री श्रमाचे । ततो मन्त्री रात्रे पुत्रीमदात् । राजा च ताम्परिणीय दुर्दैवयोगात्तत्कालमेव तामत्यजत् । तेन सा दैवं निन्दन्ती स्वशीलं रक्षन्ती free raati | पुनरेकदा तेनैव पथा निर्गच्छद्राजा ताम्परित्यक्तां ऋतुस्नातामट्टालिकायां गवाक्षसभिधावुपविष्टां निजपत्नीमपश्यत् । तत्राऽवसरे राज्ञा पृष्टः कश्विदेवमवदत् । हे महाराज ! इयं मन्त्रिपुष्यस्ति । यां परिणीय भवान् तत्याज । तच्छ्रुत्वा सर्व स्मृत्वा तद्रातस्या अन्तिके स्थित्वा तां कामं सुखयामास । तदैव भाग्ययोगेन कश्चित्पुष्पवाञ्जीवस्तस्या गर्भेऽवततार । जाते च प्रभावे राजा तामापृच्छ्य निजालयमागात् । साऽपि सर्व नैशिकं नृपागमनादिवृत्तं मातरमवदत् । तन्माता च तत्स्वरूपं
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मन्त्रिणमवोचत । सदाकर्ण्य हृष्टः स मासतिथिवारादिकं सर्व लिखित्का तत्पत्र सुरक्षितवान् | अथ दशमे मासे सा शुमे लग्ने गुर्वादिग्रहगणे तुझ्ताङ्गते पुत्रम्पासोष्ट । तस्य नाम सुरेन्द्रदत्त इति पप्रथे। स शिशुश्चन्द्रांशुरिव समेधाश्चक्रे । यदा सोऽष्टवर्षीयाजातस्तदा कलाचार्यान्तिके पठितुं लग्नः । असौ च गुरोः पाचँ विनयेन तदुक्तं सर्वमपि पपाठ । तस्यैव कलाचार्यस्य निकटे सदन्येऽपि द्वाविंशतिराजपुत्रा राज्ञा प्रेषिता आगच्छन्ति, परं ते समुद्धता मन्दधियो निर्मीका: किमपि न पटुः । यदा कलाचार्यस्तान निर्मसति शिक्षते किमपि वा तदा तेऽपि तं राजपुत्रस्वाक्षेत्रकोणं दर्शयन्ति । गुरुशिक्षा का अपि न मन्यन्ते । सदेवाविनयेनैव वर्तन्ते । तदा गुरुरपि तानवोग्यान मला तेषु मन्दादरो बभव । सुरेन्द्रदत्तस्तु घुद्धितैष्ण्याद् भवितव्ययोगाच सम्पूर्णकलासु सकलासु विद्यासु चाऽद्वितीयो विचक्षणो जातः । राधावेघनकलायान्तु स महानिपुणः कृतस्तेन गुरुणा । ततः प्रधानस्तस्मै कलाचार्याय सत्कारसम्मानादरपूर्वकं प्रचुरधनादिकं ददौ । ____ इतश्च मथुरानगर्यो जितशत्रो राजश्चतुष्पष्टिकलाप्रवीणा मर्तृसेना क्वचिन्निवृत्तीत्यपराभिधाना कन्या वर्तते । ताश्चैकदा मावा षोडशशृगारसजिवां विधाय कौशेयातिसूक्ष्मशाटिकां परिधाप्य सदसि पितुः पार्श्वमप्रेषीत् । तामागतां वरयोग्यां पुत्री ज्ञात्वा राजा तामपृच्छत् । हे क्त्से ! त्वं मदिच्छया स्वेच्छया वा वरिष्यसीति बहि ।। इति राज्ञः प्रश्नमाकर्ण्य जगाद-हे सात !यो राधाषेध साधयिष्यति तमेव वरिष्यामि । इति पुत्रीवाक्यं निशम्प राजा प्रधानादिपरिवारैः सह तामात्मपुत्रीं शुभदिवसे तदर्थमिन्द्रपुरनगरे प्रेषयामास । तामागतामाकर्येन्द्रदत्तो राजा तस्यै निवासाय सप्तभूमिक रमणीयं भवनं दत्तवान् । अन्यदपि यथोचित स्वागतं व्यधात् । अथ राजकुमार्या सहाळावेन मन्त्रिणा वत्रत्यराजानं प्रत्युक्तम् । हे राजन् ! बहवः शुभाः कुमारा गुणवन्तः
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श्रूयन्ते। अतः कन्यैषा स्वयम्
मसराता प्रेषिता॥ स्यादयः पणो विद्यये । यथा यो हि राधावेधकरिष्यति, रामहं वरिष्यामीति । अतः सत्वरमेतत्सम्पाद्य निजपुत्रेणाऽस्याः पाणिपीडनं कारय । तत इन्द्रदचो राजा निजपुरे सर्वत्र तन्मोत्सवं व्यधत्त | अत्युतमं स्वयम्वर मण्डपं नाना चित्राचलत्कृतं रचयामास । मध्ये च सघावेधाय महानेकः स्तम्भः स्थापितः । तस्य मूर्ध्नि चत्वारि चक्राणि सबलानि तावन्ति चैष तान्यवलानि स्थापितानि । तेशं मध्यगा राधा नाम्नी पुसलिका कता । तस्या areas कामकरोत् । स्तम्भोपरि वान्यष्टचक्राणि तथाऽतिष्ठिपत् । यथा तेषां मध्यगो भूत्वैव बाणो राधाचक्रं विध्येत् । अघ तदभिमुखं सन्तप्तभृतं लोकटाहममुञ्चत् । इतच दिव्याम्बरा महारत्नाभरणा लवकृता सा राजकुमारी: पञ्चवर्णसुरभिकुसुम. मालां निजपाणिपल्लवे दधाना वयस्याभिः सह तत्र स्वयम्वरमण्डपे समागत्य तस्थौं । सर्वे च राजपुत्राः पौरजनैः सह धृतोज्ज्वलवसनाऽऽभरणास्तत्रागताः स्वस्त्रयोग्यमासनमलचक्रुः । इन्द्रदत्तराजाऽपि प्रधानादिनिजमण्डल्या सह तत्राजगाम । तत एकैकशः कुमारा धनुर्बाणधरा राधाचक्रं बेढुं लगा, परन्तु कियन्तस्ते चक्रद्वयं विव्यधुः, किंवन्त एकमेव अन्ये चक्रत्रयम्, efeat her चक्राणि, कवन षट्चक्राणि च विव्याध । इत्थं तेषामेकोऽपि कुमार एकदेवैकेनैव बाणेन तचक्राष्टकमाविध्य मध्यस्थां राजांनुं यदा न शशाक । सर्वे च कृतप्रयत्नास्ते द्वाविंशतिराजपुत्रा विच्छायवदना - हताशा भभूवन् । तदा राज्ञो महती चिन्ता जाता । यथा भहो । ममैतेषां पुत्राणां शौर्यादिगुणगणमाकर्ण्य स्वयम्वरेयं राजकुमारी मम सभामागताऽस्ति । तस्याच पयाः केनापि मरणापूरि सेयभितो मदिः परावति, तर्हि जगति समाज्यकीर्तिर्मसी भविष्यति । इत्यं शोचन्तंबिच्छायवदनं राजानं मन्त्री बगाद । हे प्रभो!. मा शोचीः पुनस्तत्रैकः सुपुत्रो वर्तये + सोऽवश्यमेतत्साधयिष्यति । राम्रोक्तम्
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कोऽस्ति । तत्राऽयसरे प्रधानेन तत्पत्रम्प्रदर्शितधितश्च पूर्वजातं विवाहादितत्पुत्रजन्मपर्यन्तमखिल वृत्तम् । पनदर्शनेन | तत्सर्व मनसि स्मृत्वा सेनोक्तम-समानपतुः समत्र । तदा नृपादेशेन · सत्रागतः सुरेन्द्रदत्तो यधाविधिः मितरम्प्रणम्य तत्सायने | प्रार्तत । कलाकुशलः स तदानीं धनुपि बाणं संयोज्योरिकतइस्तस्तैलभृतकलाहमध्ये वीक्षमाणो भ्राम्यचक्रप्रतिबिम्बमभिलक्ष्य ।। तदैवैकेनैव बाणेन सर्वाणि चक्राणि विध्यन राधाचक्रस्य बागामि विव्याध । तदा सर्ये लोका मुदमावहन्तस्तं तुष्टुयुः । मा च राजपुत्री तस्याऽधिकण्ठं वरमाला न्यघत्त । सर्वे लोका मुदा तदा जयजयारा वितेनुः । ततः पाणिग्रहणे कृते तया सह भोग
मुखानः सुरेन्द्रदत्तः पितृदत्तं राज्यमाप । ते च द्वाविंशतिराजकुमाराः शैशवे विन्यादिगुणविहीना विद्यां न पेटुः कलाश्च न । है, शिशिक्षिरेऽतो राज्यमलभमानाः पश्चात्तापमेव चक्रुः । कदाचित्तादृशैरपि तैर्देवलेन तदपि साध्येत, परन्तु यः प्रमादादिवशगो %ा मृत्वातिदुरापमिदं मानुष्यङ्गमयति तस्य पुनस्तल्लाभो दुर्लभ एवेति ज्ञात्वा सर्वैरपि ज्ञान लब्ध्वा धर्मे प्रयतितव्यमिति ।
८-अथ मनुष्यत्वदौर्लभ्ये कमस्य १७-दृष्टान्तं दर्शयतितथाहि-कस्मिंश्चिवक्षयोजनप्रमाणे इदे महानेकः कूर्म आसीत् । स चैकदा देवयोगात्समीरणेन जम्बालजालाऽवरोधे दूरीकृतेऽदृष्टपूर्वञ्चन्द्रमण्डलमालोक्य. कुतूहलाकान्तमानको निजपरिवारान्, तद्दर्शनाय समाहातुमन्त्रागच्छत् । कियत्समयानन्तरं Gःसहागतःस कूर्मस्तत्र पुनम्बालजालावरुद्ध सति बहुधा यसमानोऽपि सवाष्पश्यत् । तथैव धर्मः बिना मनुध्यत्वमिदं यस्य। साति तस्य पुनस्तदधिगतं नैव भवतिः। अत एतत्सर्वेधमोपाजेनेने सार्थक्य नेयम् । .
९-अथ. मानुरूपदोलभ्ये बुगसमः॥१८-दृष्टान्तमाह
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तथाहि - तस्मिस्तिर्यग्लोके लबणादय उत्तरोत्तरद्विगुणिता असंख्याता द्वीपसमुद्राः सन्ति । तेष्वन्तिमः स्वयम्भूरमणारूपाऽतस्य तस्य पूर्वद्विप्रान्ते युगं स्थापयित्वा तच्छिद्रे यदि कश्चित्स्वयम्भूरमणस्य पश्चिमदिग्भागस्थितः कीलकं क्षिप्नुयात् । तदा तत्कीलकं यथा तत्प्राग्दिगवस्थितयुगच्छिद्रे प्रवेष्टुं न शक्नोति तथैव धर्म विना थागतमेतन्मनुष्यत्वं पुनः प्राप्तुं कोऽपि न शक्नोति । अतः सर्वैर्धर्म आराधनीयः क्षणमात्रमपि तत्र प्रमादो नैवानेतव्यः । १० - अथ - मनुष्यजन्मदौर्लभ्ये परमाणोः १९-दष्टान्तमाह
तथाहि-यदि कश्चित्पराक्रमी देवो महाशैलस्तम्भमञ्जनवत्पिष्ठा तच्चूर्णं कुत्रचित्पात्रे संमील्य पुनस्तन्मेरुशिखरमारुझ निक्षिपेत्, तदनु दशदिक्षु विकीर्णानां तेषाम्परमाणूनां पुनरेकत्रीकरणं यथा न सम्भवति, तथा धर्म विना वृधा यातमेतन्मनुष्यत्वं पुनः प्राप्तुं सर्वथासम्भवीति मत्वा धर्म आराधनीयः ।
३- अथ सज्जन विषये-
सदय मन सदाई दुःखियां जे सहाई, परहित मति दाई जाम वाणी मिठाई ।
गुण करि गहराई मेरु ज्यूं धीरताई, सुजन जन सदाई तेह आनन्द दाई ॥ १३ ॥
इह खलु येषां मनसि सदैव दुःखिनः प्राणिनो दर्शनादयोत्पद्यते । ये च जगज्जीवे बन्धुतां वदन्ति । परहितरतचेतसो विलसन्ति । येषां वचनं मिष्टतरं तथ्यं लोकद्वयपथ्यमस्ति । निवसन्ति च येषु सर्वे सद्गुणाः । एतादृशा धीराः सज्जनाः सदैव सकलअगत्सुखयन्ति ॥ १३ ॥
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जह कुरजन लोके दूहव्या दोष देई, मन मलिन न थाए सज्जना तेह तेई । पद-जनक पुत्री अंजना कष्टभोगे. कनक जिम कसोटी ते तिसी शीलयोगे ।।१४।।
पुनस्तानेव वर्णयति-जगति दुर्जनैरतिदृषिता अपि भनागपि न खिद्यन्ते । न वा तेभ्यः किमपि ते द्रुह्यन्ति । केवलं द्रौप- || दीसीताञ्जनादिवत् सर्वमपि खलकृतं कष्ट सहमानाः सत्पुरुवा निकषोपलघृष्टा मणय इवातितरां भान्ति ॥ १४ ॥
अथ सजनतोपरि द्रौपद्याः २०-प्रबन्धःतथाहि-तत्र हस्तिनापुरे पाण्डो राम्रो युधिष्ठिर-भीमार्जुननकुलसहदेवाः पञ्च पुत्रा आसन् । पञ्चानामपि द्रौपद्येका । भार्याऽऽसीत् । तेषु युधिष्ठिरो राज्यमागभूत् । पाण्डयान माता धृतराष्ट्र आसीत् । तस्य दुर्योधनप्रमुखाः शतपुत्रा आसन् । तेषु दुर्योधनो महाकपटकारी क्रूरकर्माऽभूत् । अमी च कौरवनाम्ना प्रधन्ते । ते पञ्च भ्रातरः पाण्डवा इत्युच्यन्ते । अथैकदा दुर्योधनो दुधिया सरलमतिकं युधिष्ठिर द्यूतक्रीडां कर्तुं विज्ञप्तवान् । निर्मलात्मा धर्मोऽपि तद्वचः स्वीचक्रे, ततः सभायां तो युधिष्ठिरदुर्योधनौ रन्तुं प्रववृताते । खलीयान् दुर्योधनः प्रथममेव कपटेन स्वानुकूलेऽक्षे पतिने सज्जित्वा तदीयम्प्राज्यं राज्यमनहीष्ट । राज्ये हारिते पुनर्दीव्यतस्तस्य सनाऽऽभरणादीनि पणीकृतानि कपटलीलयाऽऽत्मानुकूलमक्षान निपात्य सोऽप्याहीत् । इत्थम्भवितव्ययोगात्पाण्डमूद्रौपदीमतिप्रेयसीमपि हारितवान् । ततः पश्चापि यन्—स्तान राज्यं त्यक्त्वा बने निवसितुमादिष्टवान दुर्योधनः । अथ वेऽपि तदैव चनाय प्रतस्थिरे तत्रावसरे द्रौपद्यपि तैः सह पचाल । तस्मिन् समये दुईयोंघनो दुःशासनमुवाच । भो भ्रातः । इयमपि द्रौपदी पाण्डवाजिता ममैषाभदत एना यान्तीमवरोधय । सदादिष्टः स वत्पार्थमागत्प तामेव
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दिवसात
मवादीत् | अयि द्रौपदि ! त्वमस्माभिर्जिताऽसि पाण्डवानुगामिनी कथं बुभूषसि १ । निवर्तस्व अस्माकम्प्रेयसीन्भूय सुखं सुदव, इत्युदीर्य कचग्राहं तो दुर्योधनान्तिकमानीतवान् । तत्र स्थितां तां दुर्योधन ऊचे । हे सुन्दरि ! तत्र किन्तिष्ठसि ? मम वामाङ्काधिरोहिणी भव । वाति अत्राऽवसरे दुःशासन उत्थाय तस्याश्वीरमाचकर्ष, परं महासतीशीलमाहात्म्यात्तत्क्षणं तदङ्गानि शासनदेवता वस्त्रेण समावृणोत् । आकृष्टेऽपि दुःशासनेन तद्वखे लोकैरनावृतं तदनं नालोकि । इत्थं सहस्रशो दुःशासनस्तद्वसनमाकृष्टवान् । देवता व नवनवैर्बसनैः समावृणोत् । किमधिकं त्रुये, यावन्ति वसनानि तेनाकृष्टानि तावन्ति शासनदेव्या तस्यै प्रदत्तानि । इत्याश्चर्यकरी चमत्कृतिं पश्यन्तः सर्वे सभ्यास्तां प्रशंसन्तो राजानमनुनीय मोचयामासुः । ततस्तन्मुक्ता समागत्य पाण्डवैः सह सङ्गताऽभवत् । सती द्रौपदी शीलप्रभावादेव पाण्डवानामती महती सती लोके विस्तृता । अहो ! स्वाङ्गास्त्राऽकर्षणादिदुःसहमाना सा द्रौपदी मनागपि सज्जनतां न जहौं । मनसि मालिन्यमानीय तस्मै दुर्योधनाय नो चुकोप । एनां कथामाकर्णयद्भिरन्यैरप्येवमेव कर्तव्यम् ।
पुनरपि सज्जनतोपरि अञ्जनायाः २१- प्रबन्धः
इह हि भरतक्षेत्रे सागरसमीपे दन्तिपर्वतोपरि महेन्द्राऽभिधाननगर मस्ति । तत्र माहेन्द्रनामा विद्याघरो राजाऽस्ति । तस्य सुन्दरीनाम्नी पत्न्यस्ति । तस्याः कुक्षेः शतपुत्राणामुपरि पुत्रयेाञ्जनासुन्दरी समुत्पेदे । तामुद्वायामालोक्य तत्पित्रानेकेषां विद्याधर राजकुमाराणां चित्राणि समानीय तस्यै दर्शितानि । तत्र हिरणाभविद्याधरराजस्य सुमतिकुक्ष्युभूत विद्युत्प्रभकुमारस्तथा वैतान्यपर्वतीयाऽऽदित्यनगरीय विद्याधरराजप्रह्लादस्य केतुमतीकुविजातः पवनजम कुमारस्तस्या अनुरूप आसीत् । एतौ
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| विद्यापन्तौ गुणवरौ रूपलावण्यधनसम्पयौ स्तः । तदा राजा मन्त्रिणमपृच्छतु-भो मन्निन् । अनमोर्मध्ये कतरस्मै कन्या देगा। मन्त्री वक्ति है राजन् ! विद्युत्प्रभस्त्वष्टादशवर्षाणि जीवितो भूत्या मोक्षं यास्यति । इति नैमित्तिकोक्तः श्रूयते । अतो दीर्घायुषे । पवनञ्जयकुमाराय कन्या देधि । इत्याकर्ण्य साञ्जना चिन्तयति । पयः स्वल्पमपि पथ्यं भवति, तक्रंच प्रचुरमपि क्षीरतुल्यं यथा | न भवति, सथा स्वल्पजीविनाऽपि चरमशरीरिणा विद्युत्प्रमेण संयोगः श्रेयानस्ति । परमीदर्श भाग्यं मम नास्ति : येन सत्समा
गमो जायेत । पवनञ्जयो दीर्घायुर्धत्वाऽपि यदि कुसङ्गतिकारी भवेत्तईि महादुःखिनी स्यामित्यादि विचिन्तयन्ती किञ्चिद्विच्छायवदनाऽऽसीत् माऽञ्जना। __इतश्च माहेन्द्रो राजा पवनञ्जयकुमारेण सह तस्या विनाई निश्चितवान् । प्रसादराजोऽपि कन्याया रूपगुणादिकमाकर्य । स्वपुत्रस्य योग्याञ्जनासुन्दरीति मनस्यवधारितवान् । पुनः स्वपुत्राय तामञ्जनासुन्दरी ययाचे । तत उभाभ्यां प्रधानादि जनम्प्रेष्य दिनावधारणश्चके । तत्राऽन्तरे पवनञ्जयः प्रहसितनामानं निजमित्रमेवमाख्यत् । भो मित्र ! मम लग्नमञ्जनासुन्दयां सह निर्धारि-16 सवान पिता | सा कीदृशी वर्तते ? त्वया सा दृष्टास्ति । सोऽवक भो मित्र ! सा स्वप्सरसोऽप्यधिका वर्तते रूपलावपयादिगुणैः ।। तस्याः सौन्दर्यसम्पत्तिगुणांच कवयोऽपि यथावद्वर्णयितुं नैव क्षमन्ते । इत्थं तत्प्रशंसां वयस्यमुखादाकलय्य सोऽवादीत् । भो क्यस्य ! लमदिवसो दूरे वर्तते । तारदेव. तां वीक्षितुमुत्सुकं मम मनो भृशं वर्तते । केनायुपायेन,तत्साधय । ततस्तेन सह पवनञ्जयो । निश्यसनासुन्दरीनिवासमन्दिरमेय गवाक्षजालेन का बीक्षमाणो तस्थनुस्तावलचितो.।। तत्रानसरे, काचिद्वमन्ततिलका, नाम्नी दासी तामेवमुवाच । अयि स्वामिनि ! तव पवनञ्जयः पतिः स्पादिति धन्यासि, पुनर्मिश्रकेशी सखी ज्ञानावे । अरे.! चरमशरीर
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चली
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मपि विद्युत्प्रभ कुमारं बिहायाऽन्यं वरं किं वर्णयसि १ । त्वक्किमपि न जानासि । नूनमनेन मुग्धा प्रतिभासि । स स्वल्पायुरपि मम स्वामिन्या योग्योsस्ति । तं मुक्त्वाऽन्यं वर्णयन्तीं त्वामहं मूखमेव बेचि 1 यदुक्तम् - सुधा स्वल्पाऽपि पीता सुखकारी भवति । हालाहलं तु यथेष्टमपि क्लेशप्रदमेवेति किं न वेत्सि १ यदेवं ग्रूपे । तयोरेवं वार्तामा पवनञ्जयो दध्यौ । नूनमियं विद्युत्प्रभे रक्ताऽस्ति । अन्यथा तं स्तुवती सा निवारिता स्यादिति ज्वलत्कोपानलः स कोशात्खङ्गमाकृष्य येच्छति मनसा विद्युत्प्रभं वरं तस्या अनेनाsसिना शिरनिधि । इत्यभिदधद्यावत्ताम्प्रत्यधावत, तावता प्रहसितेन हतं धृत्वा वारितः । कथितञ्च - हे मित्र ! विचार्य किञ्चिकीर्षसि १ सत्यपराधेऽस्त्री कदा नैव हन्यत । अस्याः सम्यायो यावन्न ज्ञातोऽस्ति तावदस्यै दण्डन्दातुं नाईसि । इत्यादि मिष्टवाक्यैस्तमुपशान्तक्रोधं विधाय तावुभौ निजस्थानमाजग्मतुः । ततस्तामुद्वोढुं पत्रनञ्जयो नैच्छत् । प्रहसितो बहुधोपायेन तम्प्रतिबोध्य सुस्थिरमकरोत् । पुनः समागते विवाहदिवसे महता महेन पवनञ्जयकुमारस्याऽञ्जना सुन्दर्या सह विवाहो जातः । माहेन्द्रराजो बहुमानं ददौ तस्मै जामात्रे । ततः कियद्दिनानन्तरं प्रह्लादराजो वरवधूभ्यां सह सपरिवारः स्वपुरमागात् । तत्र च तस्मै सप्तममिक रमणीयावासं ददौ ।
पत्रनञ्जयस्तु गृहागतायास्तस्या मुखत्रीक्षणमपि कदापि नाकरोत् । भर्त्रा परित्यक्ता साऽपि शोकाकुला मनसि दध्यौ । मया भवान्तरे यथाऽऽचरितं तथा भवे सुज्यते । कृतकर्माणि मोगादेव क्षयन्तीत्यादिविचारसारेण मनसि धैर्यं विदधती निजशील रक्षन्ती कालमगमत् । अथैकदा रावणः पाताललङ्कास्वामिनं वरुणं विजेतुं निजदूतमुखात् प्रह्लादनृपमेवमाख्यत् । तद्यथा--- मया वरुणेन सह योद्धव्पमस्ति, अतः ससैन्येन त्वयाऽवश्यमत्राऽगन्तव्यम् । इति रावणादेशमाकर्ण्य रावणादेशकारी प्रह्लादः
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ॐ ससैन्यस्तत्र गमनाय समुद्युक्तवान् । तत्रावसरे पवनञ्जयेनोक्तम्-हे पितः! एतदर्थ त्वया किं गम्पते । अहमेव तत्र गत्वा रावण
वैरिण वरुणं विजित्य सत्वरमत्रागमिष्यामि । ततः पित्राऽऽदिष्टः स सांज्जतसैन्यो भातरं नमस्कृत्याञ्जना तु क्रूरष्टकोणेन किश्चिद्वीक्षमाणः प्रतस्थे । तदा तयोक्तम्-हे नाथ ! मया क्रिमपराद्धं येन त्वं मयि रुष्टोऽसि ?! सर्वे त्वयाऽऽलाषिताः । मया सह कर्थ न ब्रूषे ? अहं निरपराधाऽस्मि । मयि प्रसीद, तव पथि कुशलं वर्तताम् ! तथा कार्यसिद्धिं विधाय सत्वरमिहागच्छेरित्वं कल्याणं चचो त्रुवाणां तामगणयन्मेव सोऽचलत् । ततोऽञ्जनापि देवदोषं ददाना पतिविरहादतिदुःखिनी निजावासमागवा । इतश्च प्रस्थितः ।। परनञ्जयोऽपि सन्ध्यासमये मानससरोवरोपरि सपरिवारस्तस्थौ । तत्रावसरे काश्चिद्वियोगिनीमतिदुःन्विनी पुरःस्थितं तन्तुजालमश्नन्ती शीतमपि दहनं मन्यमानां चन्द्रिकामपि तापकरीं पश्यन्ती करुणमत्युचे रुदतीं विदूरे प्राणनाथं वीक्षमाणां चक्रवार्की सोऽपश्यत् । तां ताशीमालोक्य स मनसि व्यचिन्तयत् । अहो ! इयञ्चकोरी सकले दिने पतिसङ्गता तत्सुखमनुभवति, केवलं रात्रावेव पतिवियुक्ता यद्येवं दुःखम्भजते, तर्हि आजन्मपरित्यक्ता मत्पत्नी कीदृशी दु:खिनी स्यात् ।। अद्य गमनसमये तया भणितो
ऽपि नाह किमप्यूचे । सा कथमात्मानं धतुं शक्ष्यति ? । विरहपीडिता सा महादुःखमनुभवन्ती नूनं मरिष्यति । इत्यं पश्चाचपमान र तम्प्रहसितोऽवक् । हे मित्र ! त्वं पक्षितोऽपि निकृष्टोऽसि त्वत्परिणयस्प वर्षाणांद्वाविंशतिर्जाता । कदाप्येकदा सा त्वयालापितापि
न । त्वद्विरहेण नूनं म्रियमाणा वर्तते । तस्याः कोऽप्यपराधो नास्ति । हे मित्र ! इदानीमपि तत्र गत्वा तामाश्वासय । सतो निजाभिप्रेतं मित्रवाक्यमाकर्ण्य सर्वैरप्पलक्षितः स प्रहसितेन वदनेन साकं तस्या आवासमागतवान् । तत्र विरहातुरां तामाश्वास्य अनुदानं दत्वा पश्चाचलितं तमवादीत्सा । त्वमेतद् गुप्तं सर्व विधाय गच्छसि । माता ते मामपवदिष्यति । अवो मे निजनामा
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मुद्रां देहि । मातरं मिलित्वा पुनर्याहि तच्छ्रुत्वा मुद्रिकां इच्चा तेनोक्तम् । अपि प्रिये ! एनां गृहाण । अहमचिरादा-गमिष्यामि का ते भीतिः १ । इत्यालप्य स शिविरं प्राप्तः । सापि ऋतुस्नानात्तद्दिन एवं दिव्यं गर्भ दधार । ततोऽन्वहं म वृद्धिमालोक्य श्वशुरादिपरिवारो बच्यो । अहो ! इयः कुलङ्कलङ्कितमकरीद | अस्या भर्ता तु द्वात्रिंशतिवर्षमध्ये एकदापि न मिलितः । कथमियमन्तर्वत्नी दृश्यते १ नूनमसती जाता । तत एतत्स्वरूपमञ्जनामपृच्छत् । सा तद्दिने यथा भर्ता शिबिरादागत्य स्वनामाडियां मुद्रां दवा पश्चाद्योमचलत्तथा सर्वमाख्यत् परं तद्वचः केऽपि न मेनिरे । सर्वे च लोकास्तां निर्भ गृहाणिष्काशयामासुः । ततो निष्काशिता सा पितृसन समागता । तेऽपि तत्स्वरूपं विदन्तस्तां कुलकलङ्गिनीं मन्यमाना निर्भ
गृहनिष्काशयामासुः । ततः सर्वतो निष्काशितानासुन्दरी वनमागत्य कुत्रापि तस्थौ । तत्रैव कुत्रापि गहरे पुत्रमसोष्ट | कदा तेनैव मार्गेण विमानारूढस्तन्मातुलो ब्रजन् गिरिगहरे शिशुरोदनमाकलय्य विमानादवतीर्य तत्र गत्वा तामपश्यत् । तस्या आदितः सर्वमुदन्तं निशम्य सपुत्रां तां निजविमाने समावेश्य ततोऽग्रे चचाल ! मार्गे च मातुरके स्थितः शिशुः किञ्चिल्लामुच्छलन्नधः शिलोपरि पपात । पतन्तं तं वीक्ष्य व्याकुलस्तन्मातुलो यावद्विमानादवतीर्य समादातुमधस्तत्रागतः तावत्तत्र बजाहृतचूर्णितां शिलां पश्यन् बालकमचताङ्गमेव हसन्तमग्रहीत् । ततस्तमादाय निजविमानेऽञ्जनायै ददौ । ततस्ताभ्यां सह स हनुपुराभिधं निजनगरमागतः । व्रतस्तदीयनाम मात्रा हनुमानिति चक्रे । विमानात्पतन् स शिलां सच्चूर्णितवान्, अतो द्वितीयं नाम श्रीशैल इति धृतवती । एतत्कथा रामचरित्रादौ सविस्तरमस्ति । इतोऽधिका तत एवाध्वगन्तव्या । इह तु यावत्युरोग.
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४ यती तावत्येव संक्षेपेण सत्कथा दर्शिताऽस्ति ।
____ अथाऽञ्जनासुन्दरी तत्र हनुपुरे मातुलगृहे निवसन्ती पुत्रस्य हनुमतः पोषणादिकं विदधती मातुल्यादिकृतसत्कारेण सुखेन । दिनान्यत्यवाहयत् । पतिप्रस्वा दत्तकलतः कदा मे मुक्तिः स्यादिति मनसि विचिन्तयन्ती पत्युरागमनमिच्छन्ती तस्थुषी । अथ पवनञ्जयकुमारस्तत्र गत्ता वरुणेन सह दशकन्धरस्य सन्धि विधाय निजादित्यपुरमागतवान् । तत्र निजप्रेयसीमञ्जनामदृष्ट्वा लोक- 18 मप्राशीत । ताङ्गर्भवतीमालोक्याऽसीति ते मात्रा गृहानिर्वासिता सेति लोकमुखाद्विज्ञाय गिरिवननगरादिषु तामन्वेषयन् यदा सा ! न मिलिता सदा, प्रियाविरहमसहमानः स चिताप्रवेशमवधारितवान् । एतत्स्वरूपमञ्जनासुन्दरी स्वगवेषणकृते तत्प्रेपितविद्याधरमुखाद्विज्ञाय निजमातलं प्रतिसूर्यनामानं सार्थ कृत्या विमानमारुह्य तत्क्षणं तत्राऽऽययौ यत्र पवनञ्जयश्चिताप्रवेष्टुमुदयुक्त । तन्त्र प्रहादप्रसिमर्थप्रमुखैः सर्वैः सह मिलिता भर्तार कुशलं वीक्ष्य मा भृशममोदत । सर्वे च तस्यां निःशकमनसो बभूवुः । अञ्जनायाश्च लोके शीलमाहात्म्यं प्रख्यासमभृत् । पतिप्रस्वादकोऽपि कृताऽपराधं तदानीं तां क्षमयामासुः । दुर्जना गुणवते दोषाननेकान ददति । परमेतेन गुणिनां सन्तो गुणा न दीयन्ते किन्तूपचीयन एच । निर्मलशीलप्रभावेण मिथ्याकलकतो मुक्ता दहनसन्तापिता कनकलविकेचा साऽञ्जना भृशं दिदीपे।
अथ सजनगुणविषयेगुण गहि गुण जेसां ते यह मान पाले तर. सुरलि गुणे ज्यू फूलाशिवदाले । गुण करि बहु माजे, लोक ज्यूचनमाने, अति कृशा जिसःमाने पूर्णने यंत्रमाने ॥१५॥ .
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यथा मनुष्याः सुगन्धियोगात्कुसुमानि शिरसि धारयन्ति, तथैव गुणग्राहिणो जनाः शिरोधार्या लोके बहुमान लभन्ते । | किश्च-गुणग्राहिणो जनाः कशतमा अपि द्वितीयाचन्द्रवत्सर्वैर्नमस्क्रियन्ते । तद्विहीनस्तु परिपूर्णोऽपि पार्वणचन्द्रवत कैचिदपि कलद्वित्वाम नम्यते । अतो गुणग्राहिणा भवितव्यम् ॥ १५ ॥
मलयगिरि को लेजंदु सिंगादि सोई, मलयज सर हंगे चंदना तेह होई।। इम लहिय बड़ाशुं कीजिये संग रंगे, गजशिर चढ़ि बेटी ज्यूं अजा सिंह संगे ॥ १६ ॥
यथा मलयतरुसंयोगादन्येऽपि निम्बादयो वृक्षाः सौरभ्यपूर्णा जायन्ते । यथा का छागोऽपि मृगेन्द्रसंसर्गतः करीन्द्रमौलिमा| रोहति । तथा सतां सङ्गत्या नीचोऽपि महसमुपयाति । उक्तञ्च
कीटोऽपि सुमनोयोगा-दारोहति सतां शिरः । तथा सत्सन्निधानेन, मखों याति प्रवीणताम् ॥१॥ काचः काञ्चनसम्पर्का-द्वत्ते मारकती द्युतिम् । तथा सत्सन्नि॥२॥ कल्पद्रुमः कल्पितमेव सूते, सा कामधुकामितमेव दोधि । चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते, सतां हि संगः सकलं प्रसते ॥ ३ ॥ अपि च-न स्थातव्यंल न गन्तब्य, क्षणमप्यधैमस्सह । पयोऽपि शौण्डिनीइस्ते, मदिरां मन्यते जनः ॥४॥ अतो नीचसङ्गतिरतस्त्याज्या । गुणग्राहिभिरुत्तमैः सह सङ्गतिः सदैव कार्या ॥ १६ ॥
४-अथ न्यायगुणविषये
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CORREST
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जग सुजस सुवासे न्यायलच्छी उपासे, व्यसन दुरित नासे न्यायथी लोक वासे । हम हृदय विमासी न्याय अंगीफरोजे, अनय अपहरीजे विश्वने वश्य कीजे ॥ १७ ॥
इह लोके न्यायक्ता निर्मलं यशो वितन्यते : लिए लक्ष्मी गायगे । सुर्वस्वनी मनुष्णाः विनिन्द्यते । सुखमम्पदा च स्पज्यते । भो भो लोकाः । एतन्मनसि विचार्य यूयं न्यायमार्गमनुसरत, व्यसनानि दुःसङ्गतिमन्यायस्यश्च परिहात । तथाकरणेन विश्ववशम्बदा भक्त ॥ १७ ॥
पशु पण तस सेवे न्यायथी जे न चूके, अनप पथ चले जे भाइ ते तास मूके । कपि कुल मिलि सेव्या रामने शीश नामी, अनय करि तज्यो ज्यूं भाइये लंकस्वामी ॥ १८ ॥
ये खलु न्यायपथे वर्तन्ते तेषां साहाय्यं तिर्यश्चोऽपि कुर्वते । तद्विपरीतास्तु निजपरिवारैरपि मुच्यन्ते । यथा न्यायनिष्ठं श्रीरामBI चंद्र कपिकुलान्यप्यसेवन्त । भन्यायप्रवृत्तं रावणं सोदरोऽपि विभीषणस्तत्याज ॥१८॥
अन्यायित्वाद्रावणं स्पजतो विभीषणस्य २२-कथा प्रारभ्यतेअयोध्यानगर्यो दशरथो राजा राज्यङ्करोति स्म । तस्य कौशयाकैकेयीसुमित्रादयः पथराइस आसते । तासां राममरतलक्ष्मणशत्रुघ्ननामानः पुत्रा पभूवुः । निजस्वयम्बरे दशरथस्य हरिवाहनादिप्रतिपसिभूपैः सह रणे जायमाने दशरथस्य सारथ्यमकरोकै केयी । तत्र निजनैपुण्य दर्शयन्ती राजानं दशरथं तथा तोषयामास । यथा स मालाडरीन विजित्य ताममोचन-अधुना त्वयि प्रसमोऽस्मि, त्वं प्रार्थय मदीप्सितं ते भवेत् । तयोक्तम्-प्रार्थयिष्ये साम्प्रतं तिष्ठतु भवान् । कैकेयी यदा रामचन्द्राय राज्य दात
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मैच्छद्राजा तदा प्रारूप्रार्थितं वरं स्मरन्ती सा तबावसरे राजानं विज्ञापती पुरोक्तं परमधुना देहि । राजोवाच प्रकाश्यतां सः । तदा साध्वक् हे राजन् ! एतद्राज्यं भरताय दीयताम, रामचंद्राय च वनवासो दीयताम् । इत्याकर्ण्य राजा भृशमखिघत, ततो | रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह पितुर्नियोगाद्वनं ययो । अथैकदा तत्र बने रावणमगिन्याः शूर्पणखायाः शम्यूकनामा पुत्रः सूर्यहासहा खइमसिद्धिकरी विद्या शासनासीत् । पभिसरणसिद्धौ शस्ततः पर्यटन लक्ष्मणः समागत्य तं सिद्धिविशिष्टं खगमM पश्यत् । तेनैव खफ़न कश्चन वंशजालमकृन्तत्तक्ष्ण्यपरीक्षाकृने । ततस्तत्र स्थितस्य विद्या साधयतस्तस्य चिरच्छिन्नं वीक्ष्य लक्ष्मणो | भृशमतप्यत तावत्तन्माता शूर्पणखा तत्यारणाकृते भोजनसामग्री लात्वा तत्राऽऽगतवती । तथावस्थं पुत्रमालोक्य शोकसन्तप्ता तद्धि
घातारं विपक्षं शोधयन्ती तत्राऽऽगता लक्ष्मणमालोक्य तत्काल मदनशरजालविद्धा सा कामुकीमय ते प्रति वक्तुमुपक्रान्ता । तदानयं | विज्ञाय तेनाऽपि तदर्थ सा रामान्तिके प्रेषिता । रामोऽपि तां वीक्ष्याज्योचत । हे सुन्दरि । मम तु स्त्री वर्तत एव तस्य नास्ति तमेव भजस्व, एवमनेकधा ताभ्यां वञ्चिता क्रुद्धा सा निजस्थानमेत्य निजपति खरदूषण पुत्रवधस्वरूपमाचख्यो । ततो रुष्टः खरदूषणस्तत्कालं ताभ्यां योदुमाययौ । इतन्त्र सं तदर्थमागतं वीक्ष्य सत्यक्सरे मया सिंहनादविहिते त्वयाऽऽगन्तव्यमिति राममभिवाय सीतारक्षाकृते राम तत्रैव मुक्त्वा लक्ष्मण एकाक्येव तेन सह युद्धाय चचाल ।
ततो लक्ष्मणखरदूषणयोर्युद्धं प्रववृते । शूर्पणखा च रावणान्तिकमेत्य तं सीतासौन्दर्य सविस्तरमाचष्ट, वन्मुखा. RBI सीताप्रशंसामाकर्ण्य तद्रूपमोहमुपेतः स तत्कालमेव सां हतुं तत्रागात् । परं सत्र रामतेजसा ज्वलचदाश्रमं प्रवेष्टुं
स नायनोत् । तदा सोवलोकनी विधा ससार । सा समागत्य तमूचे-हे दशानन ! किमर्थम्हं त्वया स्मृता ।
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वेनोक्तम् रामोऽन्यत्र मथागच्छेत्तथा कुरु । तयोक्तम् — यत्र लक्ष्मणो युध्यसे तत्र गत्वा तद्वत्सिंहनादं विधेहि, ततः स सीतां विहाय तत्र गमिष्यति । ततो रावणस्तत्र गत्वा तथाऽकरोत, इतs लक्ष्मणसिंहनादमाकर्ण्य सीता व्याकुलीभूय तद्राकृते रामं तदन्तिकं प्राहिणोत् । तस्मिन्नवसरेऽसहायां सीतामवलोक्य रावणस्तामपाहरत् । तत्र गत्वा केनाऽप्यन्येन मायाविना सिंहनादोऽकारीति मन्यमानो मनसि सीतां शङ्कमानो रामः सत्वरं पर्णकुटीमागात् । तत्र च सीतामपश्यन् भृशमखिद्यत । वाता लक्ष्मणोऽपि शत्रुजित्वा समायातः । ततस्तौ सर्वत्र सीतां मृग्यमाणौ पथि जटायुं छिनपक्षं मुमूर्षुमपश्यताम् । सीता हत्वा विमाने तमाशेष्य लङ्कामानीय देवरमणोद्याने तां स्थापितवान् रावणो बहुधा सीतायाः प्रार्थनामकरोत् । अयि सुभगे । अहं ते दासोऽस्मि । तस्मिन् क्षुद्रे मानुषे रामे प्रीति स्पज माश्च भज, एतां मेsखिलां समृद्धि व । एवं बहुलोभितापि सीता तत्र पष्मासंस्थिता शीलं नामुश्चत् । केवलं राममेव ध्यायन्ती कालं निनाय । इतश्च सीतां गवेषयन्तौ रामलक्ष्मणौ किष्किन्धामुपागतौ । तत्र च तौ सुग्रीवादिप्रमुखाः कपयो भक्त्या प्रणेमुः । सर्वे च तावसेवन्त । हनुमांच लङ्कामागत्य सीतां निरामयां तत्राssवय तथा सहालप्य तयोक्तं संदेशमादाय रामलक्ष्मणौ जगाद । ततोऽसंख्यवानरचमूसहितौ रामलक्ष्मणौ लङ्कामाययतुः । तदा रावणो भृशचुकोप । तत्रावसरे विभीषणो दशाननमेवमव । हे राजन् । रामाय सीतां देहि परदारापहारो महादुर्गवी पावयति । अधर्माद्राज्यमपि विनश्यति । त्वं नीतिमान् भूत्वाऽप्यन्यायं कथमाश्रयसे १ । अनेन कर्मणा समुज्ज्वलमिदं कुलं मा कलय । इदानीमपि किमपि न गतं सीतां तस्मै प्रत्यर्पय । यधेनं न करिष्यति, तर्हि सीताकृते नूनमेतत्कुलं विनदक्ष्यतीति शानिमाषितं सत्यं भविष्यति । अतोऽहं प्रार्थये - कुलोच्छेदन करीं सीतामेनां मुख । पुरा यदुक्तं स्वया मया हुत्वाऽत्राऽऽनीवा
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क
वली
४ ॥
सीतास्ति सा मां भक्ष्यति । रामलक्ष्मणावतिदुर्बलों यद्यत्राऽऽगमिष्पतस्तदा तौ निहनिष्यामि । परं तौ न्यायवन्तौ महाबलवन्तानसंख्य सैन्ययुतो युद्धायाञागत । त्वमन्यायं कुरुषे पण्मासान् यावत्रं सीतायाः प्रार्थनामकरोः, सा तु महासती त्वयि दृकोणमपि नाद | कतिधा तथा तिरस्कृतोऽपि त्वं ततो न व्यरमथाः । सा कदापि तव वशगा न भविष्यति । इति श्रुत्वा रावणपुत्र इन्द्रजित्तमेवमवादीत् । हे पितृव्य ! त्वं जन्मतः कातरोऽसि । पतस्त्वमिन्द्रादीनां सर्वेषां जेतारं सर्वसम्पभिधानं मत्पितरमेव कि
? | ससैन्यस्यागतस्य विपक्षस्यातिपक्षं नीत्वा मम पितुः कीर्ति किं कलङ्कयितुमिच्छसि ? । तदा विमीषणोऽयक - अहं हिमाश्रित्य न वत्रीमि । केवलं न्यायदृष्ट्या हितं वच्मि । नूनमत्र कुले कुलाङ्गारायसे त्वमेव | हे नान्धव ! त्वमनेन निजकर्मणा पुत्रोपदेशेन चाऽचिरादेव विनाशमुपैष्यसि । अतोऽहमेवं खिये । अथैतद । कण्यतिक्रोधातुरो रावणः खड्गमुद्यम्य factor न्तुमधावत् । तदा कुम्भकर्णादयो मध्येभूत्वा तन्ततोऽरक्षन् । रावणोऽवक् रे दुष्ट ! स्वमधुनैव मम नगरादपसर वं नूनमग्निवत्सशी प्रतिभासि । ततो बान्धवमप्यन्यायरतं रावणं त्यक्त्वा चैकादशाक्षौहिणीं राक्षसीं सेनां लावा विभीषणो रामममिल । ततो रामरावणयो रणः प्रावर्तत । प्रान्ते न्यायनिष्ठो रामो विजयमाप | अन्यायरदो राजणो मृत्युमासादितवान् । विस्तरन्तु जैनरामायणादि ग्रन्थेभ्यो बोद्धव्यम् ।
अथ न्यायधर्मविषये -
हयगयन सङ्घाई युद्ध कीर्ती सदाई, धरम नय घरे जे ते सुखे वैरि जीपे,
रिपुविजय वधाई न्याय ते धर्म दाई । धरम नय विणा तेहने चैरि जी ॥ १९ ॥
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संसारे रणे प्रवर्तमाने ये न्यायवन्तो धर्मात्मानो भवन्ति तानेव विजयश्रिय उररीकुर्वते । गजतुरङ्गमला दिसामग्री समन्विता afe धर्मन्यायविहीना नरा विपक्षैरभिभूयन्ते । असो धर्मन्यायवन्तो मधेस १९
धरम नय पसाये पांडवा पंच तेई, रण करि जय पाम्या राजलीला लहेई ।
धरम नय विह्नणा कौरवा गर्व माता, रणसमय विगूता पांडवा तेह जीवा ॥ २० ॥ धर्मन्यायप्रभावादेव पाण्डवा विजयमापुः । राज्यसुखञ्चान्यभूवन । वौं विना प्रौपराक्रमगजाश्वरथजलसम्पद्भिरने कराजराजीमिलवन्तो विद्या अपि परमन्यायपथगामिनः कौरवा रणे पराजिता विनाशनविजग्मुः ।। २० ।। अथ ५ - प्रतिज्ञाविषये —
शुभ अशुभ जिकांई आदर्यु जे निवाडे, रवि पण तस जोवा व्योम जाणी वगाहे ।
करि गहन निवाहे तास निस्संत आपे, मलिन तनु पखाले सिंधुमां सूर आपे ॥ २१ ॥ इह संसारे इष्टमनिटं वा यत्प्रतिज्ञातं तत्प्राणाऽतिपातेऽपि रक्षणीयं सौः । एवंभूतं स्वकृतप्रतिज्ञापालनपरं नरं महात्मानं सूर्योऽपि व्योम्नि स्थितो दिक्षुते । कठिनतरप्रतिज्ञां पालयतां नृणां देवा अपि साहाय्यं तन्वन्ति । तथा रणे जले दहने कानने येषामापतन्तीमापदं नियमतो देवा निवारयन्ति । सर्वत्रैव ते सुखमाप्नुवन्ति । लेशतोऽपि ते क्लेशमाजो नैव जायन्ते ॥ २१ ॥
पुरुष रयण मोटा जे गणीजे धराये, जिण जिम परिवज्यूं से न छांडे पराये । गिरिश विष ज धर्मो ते न अद्यापि नाख्यो, दुरगति नर लेई विक्रमादित्य राज्यों ।। २२ ।
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'मनुजाः साध्यमसाय वा प्रतिज्ञातं यावज्जीवमवन्ति ते जगति रत्नतया गण्पन्ते । यथा सागरमथनोद्भूतं गरलमनिष्टमपि महादेवः कण्ठेति वचैव सद्यति । गया वा विद्यार्कः पर्वतनामानं दुर्दर्श दरिद्रमपि नरं सुखिनं विधाय निजान्तिकमतिष्ठियत् । एते सत्पुरुषा इव कृतप्रतिज्ञापालनपरा रत्नान्येव गीयन्ते । तेऽमी सर्वेषां सदैव प्रशस्या जायन्ते ॥ २२ ॥
1
अथ ३ क्षमागुणविषये -
—
उपशम हितकारी सर्वदा लोकमाहीं, उपशम घर प्राणी ए समो सौख्य नाहीं । तप जप सुर सेवा सर्व जे आदरे छे, उपशम विण जे ते वारि मंया करे छे ॥ २३ ॥ इह जगत्यां क्षमावतामिष्टानि सदा जायन्ते । श्रमाघरा नराः कदापि कुत्रापि न क्लिश्यन्ते । अतः हे भव्याः ! यूयं क्षमाशालिनो भवत । यां विना कृतान्यपि जपतपोदानादिकानि विफलायन्ते । ये च क्षमां कुर्वते तेषामेव चारित्रमपि शोभते । किमधिकं म १ आजन्माऽचरितमपि चारित्र मेकदाप्युत्पन्नक्रोधेन श्रीयते । उपशममन्तरा गृहिणामन्यत्किमपि विहितं व्रतादिकं नैव फलति यांविना कां गतिमेते जीवाः प्राप्स्यन्तीति ज्ञानिन एव वक्तुं शक्नुवन्ति । अतो लोकैः क्षमागुणः सदैवादरणीयः ॥ २३ ॥ यतः — क्षमास्त्रड्गः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति ? | असृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॥ १ ॥ उपशम रसलीला जास चिसे विराजी, किम नर भव केरी ऋडिमां ते राजी। गजमुनिवर जेहा धन्य ते ज्ञान गेडा, तप करि कृश देहा शांति पीयूष मेहा ॥ २४ ॥ येषां मनसि क्षमागुण उदयमुपयाति ते धन्या नराः सांसारिके सुखे न कदाप्यनुरज्यन्ते । यथा गजसुकुमालो महामुनि
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निगुणागारस्तपःपरिशुष्कगारो वर्षर्तुजलधारामिलोंक व शान्तिमवाप ॥ २४ ॥
क्षमागुणविषये गजसुकुमालमुनेः २३-कथानकम् - ___ वसुदेवस्य देवक्याः कुक्षेरुत्पमान षट्पत्रान कसो जवान । इति तो दम्पती विविदतुः, परं देवता तांश्चरमशरीरान पूर्वार्जितपुण्ययोगात सुलसाया गृहे निनाय । ते च तया पालिता वृद्धिमापुः । तया च निजपुत्रधिया 5 यौवने वयसि ते परिणायिताः | तामिः सुन्दरांगनाभिः सह विषयसुखमनुभवन्तस्ते सुखेन दिनानि निन्युः । अथैकदा भगवान् नेमिनाथस्तत्रोद्याने समवससार । देवैः समवसरणमकारि । तत्र द्वादशविधपर्षदने प्रभुर्देशनां प्रारब्धवान् । तामाकर्ण्य ते देवक्याः षट्पुत्राः प्रबुद्धाः संसारमसारं मन्वानाः स्यादिविषयसुखं त्यक्त्वा मुलसामाएछथ सर्वे युगपदेव प्रभोः पार्श्वे चारित्रं जगृहः । भगवसा सह ग्रामानुग्राम विहरन्तस्ते एकदा द्वारिकानगरीमगुः । तेभ्यः षट्पुत्रेभ्यः पश्चाद्देवक्याः श्रीकृष्णः पुत्रोऽभूत् । अयश्च कसभीत्या गोकुले नन्दगृहे जातमात्र आनीतः प्रवृद्धिमाप । ततोऽपि जरासन्धत्रासमाप्तः समुद्रविजयादिदशदाशाईयुतः कृतपलायनः श्रीकृष्णो देवनिर्मितद्वारिकापुरीमागत्य राज्यमकरोत् । प्रभुमागतमाकलय्बाऽतिप्रमुदितः श्रीकृष्णश्चतुरा ||
सेनायुतः सकलपौरजनपरिश्रतः प्रभुवंदनायै तत्रागात । विधिना प्रभोर्वन्दनां विधाय गते श्रीकृष्णे प्रभोरादेशेन तेषां पदसाधूनां ६ सम्बधित्रिकसंघाटकादद्वौद्वावेकदा नगरंगोचथै समागार्ता । तो देवकीसमनि समागत्य सिंहकेसरिमोदकान लात्वा स्वस्थानमाघ
यतुः । पुनरन्यौ द्वौ साधु देवकीनिलयमागतो तो विलोक्य देवकी मनसि दध्यौ । इमी पुनरागतौ स्तः । अतोऽधिकम्भोज्यमपेक्ष्यते । इत्यवधार्य सा वाग्या प्रघुरांस्तान मोदकान् प्रत्यलाभयत । तयोर्गतयोः पुनस्तृतीयसंघाटकीयो द्रौ मुनी समागवौ
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बीक्ष्य तया चिन्तितम्-अहो ! साधवी प्रधिकाऊहारापेक्षणे कदाचिद् द्वितीयवारमागच्छन्ति । तृतीयमारं तु कदापि नागर च्छन्ति । एतौ कथं मुहुर्मुहुराजग्मतुः ? पुरीयं महती वर्तते । श्रावका अपि बहवो विपन्ते । इत्थं वितर्कयन्ती सा यावचयोरभिमुखं तस्थौ । तावता ताभ्यामवादि । अयि महामाग्थे ! त्वं कि शोचसि ? तयोक्तम् हे मुनी! युषां संसारमसारं मस्वा प्रभोः पाः दीक्षिताकत्रैव गृहे नतीयवार कथमागतो ? ! तेनैव मम मनसि विचारणा जातास्ति । तौ जगदतुरस्माकं संघाटकवयं वर्तते । अतो वयं पृथक् पृथक् समागताः स्मः । त्वया मनागपि न सन्दिग्धव्यम् । इति श्रुत्वा पुत्रवत्स्नेहस्तस्यास्सदुपरि प्रादुरासीत् । स्तनयोः क्षीरमागतम् । ततः सहर्ष सा तावपि मुनी ताने मोदकानु प्रत्यलाभयत् । अथ मतयोस्तयोः साध्योः सा दैव मनोगतसंशयं निराकर्तुमर्थात कथं सेषु पदसु साधुषु पुत्रप्रेमोद्रेकोऽभूदिति प्रभोः पार्श्वनागत्य वन्दनादि विधाय प्रभुमपृच्छत् । भगवानवोचत्तब पदपुत्रान कंसात् त्रस्तान देवता मुलसाया गृहे नीतवती । त एवाऽमी षड्मुनयः सन्ति । तच्छ्रुत्वा गृहामता सार्तध्यानार्ताऽभवत् । यथा मम पदपुत्रा जाताः, ते च मुलसागृहे पालिता अभूवन् । सप्तमोऽयं कृष्णो नन्दगृहे वृद्धिअतः। मयैकोऽपि न लालितः, न वा पालितः । इत्थं शोचन्तीं तां श्रीकृष्णः पप्रच्छ । अपि मातः ! स्वमद्य चिन्तातुरा कथ प्रतिभासि ? तव किक्षातम् ? यदेवं शोकाकुला रोदिपि तदा देवक्या निश्वस्त्रोक्तम्-ई वत्स ! मम कुक्षेः सप्त मुता उत्पेदिरे । परमेकस्यापि लालनपालनादिकं मया नाकारि । तेनेशी चिन्ता मे जातास्ति । तदाकार्य स मातरमाश्वासयामास । पश्चात्स्वयम्ष्टमं सपोऽकरोत् । तत्र हरिनगमेषी समाराधितः । तदाराधमेन तुष्टः सोऽपि तत्कालमागत्य निजाराधनकारणं तमपृच्छत् । कृष्णोऽपि निजमातुः पुत्रचिन्तामवोचत । देवोजक-पुत्रो भविष्यति, परं प्रथम वयसि संसार त्यक्ष्यति । तत एतत्स्वरूप
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स मातरमरोचत । यथा हे मातः ? तब मनोरथः सेत्स्यति । - मा शोचीः, तयोक्तम्- - एवमस्तु । ततस्तस्याः कुक्षौ कश्चित्पुण्यशाली चरमशरीरी जीवोऽवततार । सा वत्प्रभावतः स्वप्ने गजमपश्यत् । ततः पूर्णे मासे सा पुत्रमसोष्ट । स्वप्नानुसारेण तस्य गजसुकुमाल इति नाम चक्रे । एवं च महान्तं तदीयजन्मोत्सवं विदधे । क्रमेणाष्टवार्षिकः सागरीय सोमिल ब्राह्मणस्य पुत्र्या सह परिणावितः । तदैव तत्र नेमिनाथ भगवान् समवसृतः । वद्वन्दनायै श्रीकृष्णदेवकीप्रभृतयः सर्वे तत्राऽऽयुः । तत्र देवविरचितसमवसरणे प्रभुः संसारासारत्वविषयिणीं देवनामदात् । तदाकर्ण्य गजसुकुमालस्य वैराग्यसुदपद्यत । ततो मात्रातेरनुमत्या सतत प्रयोः समीपे जाद, तस्यामेव निशायां प्रभुं पृष्ट्वा श्मशानभूमिमागत्य कायोसर्गध्यानमकरोत् । तावतत्र तस्य श्वशुरः सोमिलोऽपि समागतः । स तं वीक्ष्योवाच - अरे पाषिष्ठ । त्वं मम पुत्रीजन्म सुधाकरोः । तत्फलमधुना तेऽहं ददामि । इत्युदीर्घ तत्कालमेव तटस्थताकतः पङ्कमानीय हस्य मुनेमली पाली मबध्नात् । ततस्तदुपरि सृष्मय भाण्डखण्डानि न्यस्य ज्वलत्खदिराङ्गारं प्रचुरं निक्षिप्तवान् स्वयमपि स दुर्भीस्तत्पार्श्वमेव तस्थौ । शमाम्भोनिधिर्गजसुकुमालमुनिः शिरसि ज्वलदग्निना 'वटवटिति' नाडीषु त्रुय्यन्तीवपि तत्क्लेशं ग्रहमानस्तस्मै श्वशुराय सोमिला पद्विजाय मनागपि न द्वेष्टि । प्रत्युत तस्कृतमहापकारमुपकारममन्यत । यथाऽसौ ममेतद्भवं निस्तारयन् परमसखोऽजायत । अग इव निश्चलमनाः सर्वमपि दुःखजालं सहमानो जीषेषु दयोद्रेकमातन्वानः क्षपकश्रेणीमधिगच्छन शुद्धमध्यवसाययन् शुक्लध्यानं विदधत्पर्यन्ते केबलीभूत्वा मोक्षमाप्तवान् ।
इतभ श्रीकृष्णः स्वमसि तत्र निशि किलैश्मचिन्तयत् । अहो ! मम बन्धुः संयमग्रहणेन महीयानम् । परमनेन लघुना
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5 वयसा कथमेव संघमं पानगिर ! भन्मु, हो मनोन्टिक ला सदुनितमुपायं विधावास्मीति । ततो जाते प्रमाते प्रमो
वन्दनार्थमागतः कृष्णः सर्वान् साधूनालोक्य गजसुकमालमपश्यन् भगवन्तमप्राक्षीत-हे भगवन् ! मम बन्धुर्गजमुनमाला कुत्रास्ते । भगवानाख्यात, हे कृष्णा ! सोऽक्षय्यसुखमोक्ताऽभूत् । वं द्रष्टुं कथं शक्ष्यसि ? तदीयदर्शनमधुना दुर्लभमभूत् । सिद्धि
पदमुपेतं तमित एव नमस्कुरु । सदाकये कृष्ण ऊचे हे भगवन् ! ईदशी तात्कालिकी सिद्धि स कथमाप ? । तस्य तथा साहाIIय्यकारी को मिलितः । येनाऽस्य तत्कालं सिद्धिरुदियाय । ततः पर्यन्ते केवलीभवन शाश्वतसुखकारी समभूत् । ततो विश्वविश्वजन्तूपकार
विधाननिमग्नात्मा प्रमुरवक् । यथा त्वङ्गतेडनि गजारूढः पथि व्रजन् पथि स्थितानीष्टकानि त्वत्सैन्यप्रतिबन्धभिया समुत्थापयतो यवीयसः कस्यचन द्विजस्य गजादुत्तीर्य साहाय्यमकरोः । अर्थात्वयैकस्मिन्निष्टके करेण गृहीते तदनु त्वत्सैन्यैः षोडशसहसै- 4 स्तानाष्टकानि तदिष्टदेशे नीत्वा तत्साहाय्यञ्चके । तथैव त्वदन्योरपि साहाय्यमभूत् । परन्तु तत्र कार्येऽस्ति भेदः । पुनयंगदस्कृष्णः- हे भगवन् । तस्य नाम ब्रूहि, य एवमकरोत् | भगवतोक्तम् हे वासुदेव ! त्वदर्शनेन यस्य हृदयं म्फुदेव सेव एतत्कर्मकर्ता ज्ञातव्यः । अथ प्रभुं नमस्कृत्य गृहम्माचलद्वासुदेवः । मार्गे च सोमिलो महामुनिघातकी पातकी च मिलितः, ततः श्मशानतो निर्गच्छन् कृष्णमालोक्य मनसि दक्ष्यो। अहो। एष वासुदेवोयाति, अस्मदीयमेतत्कर्म जानकासौ मां हनिष्यति । अत एतन्मार्ग हित्वा | मार्गान्तरेण बजेयमिति विचिन्त्य तथागमत् । परं तन्मार्गेणापि गच्छतस्तस्य वासुदेवविलोकनाचत्कालमेव तद्धृदयं विदीर्णमजा. यत । सोऽपि सघो मृत्वा मुनिघातपातकाभरकमियाय ।
एतस्याः कथाया एतदेव सारतया सर्वैरादेयम्, यदसौ सोमिलो मजसुकुमालमहामुनेः शिरसि खदिरागारमधिपत् । तेन स
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महती वेदना सेहे । सर्वा अपि शरीरनाड्यस्तटवटिति त्रुटिता अभूवन् । तथापि लेशतोऽपि तस्मै देषमकुर्वन् क्षमामधिगच्छमस
शामपि वेदनामसहत । तस्कृतापकारमुपकारं मत्वा कर्मजाल क्षपयन् मोक्ष ययौ । अतो हे लोकाः ! सुधामयी मस्वा तामेव लाधमा त्रिकरणशुद्धथा यूयं मनसि घरत । येनेहाऽमुत्र च सुखमनुभूय प्रान्ते मोक्षमाप्स्यथ ।।
अथ ७-त्रिकरणचित्तशुद्धिविषयेजग जन सुखदाई चित्त एवं मदाई मुख अति सचदाई सांच नाना मुद्दाई। वपु परहित हेते तीन ए शुद्ध जेने, तप जप प्रत सेवा तीर्य ते सर्व तेने ॥ २५ ॥
येषां मनसि सदैव जगजीवकल्याणचिकीर्षा जागर्ति । वाणी चाऽमृतमयी मिटतरा शुभङ्करी सत्या विलसति शरीरश्च सफलजीवोपकारि वर्तते । इत्थं त्रिकरणशुद्धस्यैव प्राणिनस्तपोजपत्रतसेवनतीर्थाटनानि सफलीभवन्ति || २५॥
मन वच तनु तीनों गंग ज्यूं शुरू जेने, निज घर निवसंता निर्जरा धर्म तेने।
जिम निकरण शुद्धे द्रौपदी अंच वाव्यो, घर सफल फलंतो शीलधर्मे सुहाव्यो || २६ ॥ ___किञ्च-यस्य मनोयचनकाययोगा गङ्गाम्बुवनिर्मलाः सन्ति, तस्य सागारस्यापि कर्माणि विलीयन्ते | सकलापि मनोवाञ्छा |
पूर्यते । परत्र चाक्षय्यं सुखमाप्नोति । यथा त्रिकरणविशुद्धा द्रौपदी तत्कालमकालेप्यानं फलाध्यमकरोत् । ततस्तस्याः पीलIN/ माहात्म्यं पश्थे, पाण्डवानां गृहीता प्रतिज्ञा च पूर्णाऽभूत् ॥ २६ ॥
अथ सुशालविषये द्रौपचाः २५-कथा दश्यते
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क
कावली
३८ ॥
कदा पञ्चापि पाण्डवाः सभायां सुखासीना आसन् । ते च नगरेऽशशीतिसहस्रतापसानामागमनं शुश्रुवुः । ततस्ते सर्वे तैर्निमन्त्रिताः । परं ते तापसा ग्रीष्मतापसन्या आम्रफलैरेव पारणञ्चिकीर्षन्ति स्म । तेषां तामिच्छामाकर्ण्य पाण्डवा महती - चिन्तामधिगताः । अहो ! साम्प्रतमकाले रसालफलानि कुतो लभ्यन्ते १ । येनास्माकञ्चिन्तितं सिद्धयेत्, तत्रावसरे नारदर्षि - स्तत्रागात । स तांचिन्तातुरान् वीक्ष्यावदत् । भोः पाण्डवाः ! अद्य यः का चिन्ता समापतिताऽस्ति १ । वे जगदुः दे महर्षे ! अद्यास्माभिरष्टाशीतिसहस्रतापसा निमन्त्रिताः । ते चाम्ररसेनैव व्रतपारणञ्चिकीर्षन्ति । इदानीमसमये तानि लब्धुं न शक्यन्ते । इति चिन्ता नो जाताऽस्ति । यदि तांस्तद्रसैर्न भोजयेम तर्हि नः प्रतिज्ञा भग्ना स्थान समसि, तदुपायं वद । तदा नारदो जगाद - तमुपायं वच्मि यूयं शृणुत । ते समृचिरे सत्वरं ब्रूहि, हे पाण्डवाः ! यदीदानीं शुष्कमाम्रबीजं रोपयेत्, तदङ्कुरीभूय झटिति वर्खेत, फलपुष्पादिकं जायेत तेपाम्परिपक्व फलैरेतेषां पारणं सम्भवेदन्यथा कोऽप्यन्यो नास्त्युपायः । एनमप्यसम्भवं मत्वा ते श्चिन्तां न तत्यजुः । पुनस्ते नारदञ्जगदु: - हे ऋष ! यदुक्तं भवता तदपि नो दुष्करमेव प्रतिभाति । तेनोपायान्तरंणैतत्त्वमेव सत्वरं सम्पादय । नो चेदस्माकं प्रतिज्ञाहानिर्भविष्यति । तदोक्तं नारदेन । हे कौन्तेयाः १ मा शोचत । अहमिदानीं त्वत्प्रेयसीं द्रौपदी सर्वमेतदिशमि । यदि सा सत्यं वक्ष्यति तदा तदर्थमहं यतिष्ये । इते तन्निगद्य तत उत्थाय स तं द्रौपदीभवनमगमत् । तत्र गत्वा वत्स तस्यै निषेध यत्प्रष्टव्यमासीत्तदपृच्छत् । नारदोक्तं सर्वमाकर्ण्य द्रौपद्यवऋ । हे महर्षे ! अहं किल त्वद सत्यं वच्मि । अहं सत्यशीलाऽस्मि, अर्तुः प्रतिज्ञां पूरयितुं शक्नोमि । अत्र मनागपि सन्देहं मागाः । ततस्त्रां सोऽवक्— अयि पाञ्चालि ! यद्येवमस्ति । तर्हि सत्वरमेकं शुष्कमा प्रबीजं रोपय, निजशीलप्रभावेण तत्सपल्लवीकृत्य फलाक्यं शिषेहि । ततः सापि तत्काल
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तथा विधाय न्यगद । हे नारद ! जगद्विजयशाजिवीर शिरोमणीन्पान्डवानेतान् पञ्च विहाय मनो मेऽपरङ्कदापि स्वप्नेऽपि नेच्छवि, एतेषु पञ्चस्वपि यद्दिने यस्य वारकं भवति तत्र दिने तमेव त्रिकरणयोगेन तोपयामि, तदन्यं नैव कामये, यद्येतद् वितथं न भवेत्, पुनर्मम सत्यशीलं भवेतर्हि आरोपितमं तच्छुष्कान्रत्रीजम करतां यातु, द्रुतमेघताम् तूर्ण फलपुष्पादिसम्पन्नमस्तु । यथा मे भर्तृणां प्रतिज्ञापूरणं स्यात् । इत्यालप्य यावत्सा विरराम तावत्तदारोपितं शुष्कमाम्रबीजं सपल्लवतां दधत् कुसुमितम्फलाढ्यमजायत । ततस्वानि फलानि सथः पक्वान्यभ्रवन् । ततस्तैः फलैस्तद्रसैव तानष्टाशीतिसहस्रतापसान् घथेच्छम्परिभोज्य पाण्डवा मुमुदिरे । शीलवती खी कि किङ्कर्तुं न शक्नोति ? ततोऽविशीलमाहात्म्यं द्रौपद्याः पप्रथे । त्रिकरणशुद्धस्य तस्याः शीलस्य प्रत्यक्षमलौकिकं फलमालोक्य से सर्वे तां तुष्टुवुः ।
अथ ८-सरकुलविषये
सहज गुण वसे ज्यूं शंखमां श्वेतताई, अमृत मधुरताई चंद्रमां शीतलाई । कुषल सुरसाई इक्षुमां ज्यूं मिठाई, सुकूल मनुज फेरी शुद्धभावे भलाई || २७ ॥
यथा शङ्खेषु नैसर्गिकं नैर्मल्यम्, अमृतेषु माधुर्य सुस्वादुत्वं च चन्द्रमसि शीतलता, कमलेषु मार्दवम्, इक्षुखण्डे मिष्टत्वं तथा सत्कुलजाता निसर्गादेव साद्गुण्यशालिनोतिनो जायन्ते ॥ २७ ॥
जिण घर वर दिया जो हुवे तो न ऋद्धि, जिण घर दुय लाभ तो न सौजन्यवृद्धि ।
सुकुल जनम योगे ते त्रणे जो लहीजे, 'अभयकुमर' ज्यूं तो जन्मसाफल्य कीजे ॥ २८ ॥
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वली-
९॥
किच-- येषां सदने लक्ष्मीस्तिष्ठति तद्गृहे सरस्वती न विद्यते येषां गृहे महती चिया विराजते, तत्र लक्ष्मीर्न निवसति । यत्रैये द्वे वर्तेते, तत्र कुटुम्बो न वर्तते । यत्रैते श्रयो विद्यालक्ष्मीकुटुम्बा वर्तन्ते तस्य जन्माऽभयकुमारवत्स फलम्भवति ॥ २८ ॥ अथ ९ - सद्विवेकविषये -
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• हृदय घर विवेके प्राणि जो दीप वाले, सकल भव तणो ते मोह अंधार नाशे । परम धरम वस्तू तत्त्व प्रत्यक्ष भासे, करम भरम कीटा स्वांगतेता विनाशे ॥ २९ ॥
येषाम्प्राणिनां हृदयसदने विवेकात्मको दीपो विभाति तेषामखिलभवभ्रमणकारीणि मोहरूपतमांसि नश्यन्ति । ततस्ते परमस्य धर्मवस्तुनस्तच पश्यन्ति । पुनस्तत्र दीपे निपतन्तः कीटाः - कर्मशलभास्तत्कालं श्रीयन्ते । अयमाशयः - यस्य हृदये विवेको - दीपक इव प्रज्वलति तस्मिमविषेको विलयं याति । ततः स यथास्वरूपं वस्तुतवं जानाति ।। २९ ।।
विकल नर कहीजे जे विवेके विहीना, सकल गुण भर्या जे ते विवेके विना ।
जिम सुमति पुरोधा भूमि गेहे वसंते, उगति जुगति कीधी जे विवेके उगते ॥ ३० ॥
इह हि विवेकहीना नरा विकला अधमा निगद्यन्ते । विवेकवन्तो जनाः सकलगुणलसन्त उत्तमेषु कार्येषु रज्यन्ते । विषेकादेव वस्तुनः सदसद्रूपता ज्ञायते । अतस्तद्वन्त उत्तमास्तद्विहीना विकला उच्यन्ते । यथा सुमतिनामा कश्चित्प्रधानो निजराजानं गृहेऽक्षिपत् । परन्तु स राजा ततोऽपि सङ्कटाद्विवेकगुणयोगात्सदसत्वं विचार्य निर्मुक्तो जातः । एतत्कथा ग्रन्धान्तरे वर्तते । - इह तु प्रसङ्गत इयत्येवादर्शि ॥ ३० ॥
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अथ १०- विनयगुणविषये-
निशि विण शशि सोहे ज्यूँ न सोले कलाई, विनय विन न सोहे त्यूं न विद्या बड़ाई । विनय वहि सदाई जेह विद्या सहाई, विनय विन न कोई लोकमां उचताई ॥ ३१ ॥
यथा - षोडशभिः कलाभिः परिपूर्णताङ्गतोऽपि शशी रजनीं बिना न शोभते, तथा विनयं विना सकला समधिगता विद्यापि नेत्र शोभां धत्ते । अयमाशयः लोके हि विद्यावान् महानपि सत्येव विनचे प्राशस्त्यमुपैति । अतः सकलगुणापेक्षमा विनयः श्रेयानस्ति । किच-तं विना महान्तोऽपि जना लोक औसत्यं प्राशस्त्यं महीयसीं सतीं कीर्तिच नाप्नुवन्ति । अतः सर्वैर्विनय आथयितव्य एव ॥ ३१ ॥
विनय गुण वहीजे जेहथी श्री वरीजे, सुरनरपति लीला जेह हेलां लहीजे ।
जगति पर - शरीरे पेसवा जे सुविधा, विनय गुणथि लार्धा विक्रमे तेह विद्या ॥ ३२ ॥
तथा - इह लोके - विनयगुणालक्ष्मीर्वश्या जायते, तत्प्रभावादेव लोका राज्यसुखादिकमनायासेन किलानुभवन्ति । यथा विक्रमाको राजा विनयेन परकायाप्रवेशिनीं विद्यामाप्तवान् ॥ ३२ ॥
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fareगुणोपरि विक्रमराजस्य २५-कथा दयते-
. यथा- शाकेतनगरे विक्रमाभिधो राजा राज्यं शास्ति । स चैकदा निजकर्मपरीक्षाकृते राज्यकार्य मन्त्रिणे समर्प्य देशान्तरं । प्रतस्थे । तत्राऽन्यदा कियद्भिर्दिनैः स एकम्पर्वतमपश्यत् । तत्र गत्वा तपस्यन्तमेकं योगिनमद्राशीद ततस्तं मक्त्यां नमस्कृत्प
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विनयी स तदभिमुखमुपाविशत् । समदृष्टपूर्व विनीतं मत्वा योगी तमवकू । त्रोऽसि १ आगम्यते कुतः १ राजाऽवदत्-हे स्वामिन्! अ क्षत्रिय शाकेादायातोऽस्मि । पुनर्योगिना १०:- त्वङ्कुत्र यास्यसि १ राजा न्यगदत्. हे नाथ ! ममाऽन्यत्र जिगमिषा नाऽस्ति । अहं त्वामेव सेवितुमत्रागतोऽस्मि । गुरुसेवनादमूल्या गुणा उत्पद्यन्ते इत्युदीर्य तत्समीपेऽतिष्ठत । अथ विनयेन स विक्रमस्तं योगिनं भक्त्या सेवमानः कति वर्षाणि व्यतीयाय । तदन्तिके कश्चिदेको वित्र आसीत् । स बहिर्मकृत्या तमसेवत | विनयी नाssसीत्, मकृत्या तं योगिनं नातूतुपत्, केवलं विद्यालिप्सया बाह्याऽऽडम्बरेण भक्तिमकरोत् । अथैकदा तुष्टो योगी विक्रममवादीत् – हे वत्स ! मां सेवमानस्व तव बहूनि वर्षाणि यातानि । त्वं विनयदक्षतादिगुणगरिष्ठोऽसि । अतस्त्वां योग्यं मत्वा से विद्यां दिसामि, अधुना परका प्रवेशिनीं विद्यां लावा गृहं याहि । इत्युक्त्वा तस्मै राज्ञे तां विद्यामदात् । तदा विक्रमस्तमेव विनयेन प्रार्थयाञ्चक्रे - हे स्वामिन् ! त्वया मे विद्या दत्ता । मतोऽपि पूर्वतस्त्वामसौ विप्रः सेवते तस्मै कृतो न दित्ससि १ योग्यवक्-असावयोग्योऽस्ति, योग्यायैव विद्या दीवते । विक्रमः पुनर्जगाद हे नाथ ! मदस्पर्थनयाऽस्मा अपि विद्यां प्रदेहि । योगी न्यगद --- हे क्स वमुपकारधित्राऽस्मै विद्यां दापयसि, परसों विद्यां गृहीत्वा त्वामपकरिष्यति । विक्रमोऽगू हे गुरो ! यदि कर्मोदयो भविष्यति, तर्हि मे तत्स्यादेव तत्रैतस्य को दोषः १ महात्मनैतदविचिन्त्यैव यस्य कस्याप्युपकारः कर्तव्य एव । राज्ञ एतद्युक्तिमत्कथनमाकलयता तेन योगिना तस्मै विप्रायाऽपि सा विद्या दत्ता । तदनु तावुभौ योगिनम्प्रणम्य निजदेशम्प्रति तुः । क्रियद्भिर्दिनैस्तो शाकेतपुरमागतों वहिः कुत्रापि तस्थतुः | सत्रावसरे राशः पङ्ग्रहस्तिनि मृते सर्वे पौराः शोकाकुला आसन् । तांस्तथालोक्य विक्रमो विप्रमवादीत् हे मित्र ! मम हस्तिनि मृत्युमधिगच्छति सति मनगरवासिनो व्याकुला दृश्यन्ते ।
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अतोऽहं गजशरीरे प्रविश्य तज्जीवयित्वा सर्वान मोदयिष्ये । त्वं मम कलेवरं सयत्नेन रथ । इत्याभाष्य राजा गजशरीरं प्रावि-15
शत् । तदा स गजो जिजीव, तेन सकला अपि पौरा अमन्दममोदन्त । तत्रावसरे स विप्रो व्यचिन्तयत्-अहो ! एष कोऽपि R राजा प्रतीयते । अतोऽहमप्येतच्छरीरम्पविश्य राजा भूत्वा राज्यसुखमनुभवेयमिति विचिन्त्य तत्क्षणं स राज्ञः कलेवरम्प्रविश्य हा लोकानां दृग्गोचरो जातः । ततो मन्त्रिप्रमुखाः सर्वे पौरा महामहेन तं राजसदनं निन्युः । विद्यां लात्वा राजा समागादिति
सर्वे जहपुः । महामहं वितेनुः सिंहासने च तमारोपयामासुः । अथान्तःपुरेऽपरिचितमिव साशङ्कमायान्तं तमालोक्य श्रीकान्ताभिधाना राझी मनसि दध्यौ । यथा-एतच्छरीरमात्र राज्ञोऽस्ति, परमसौ विक्रमो नास्ति, कोऽप्यन्यो विद्यारलेन तच्छरीरं प्रविश्य समागतो भाति, यदेवमायाति । ततस्तदैव सा प्रधानमाकार्य सर्वमपि तवेष्टितमाचचक्षे ! ततस्ताम्यां मन्त्रयित्वाऽन्तःपुरे तदा| गमो न्यरोधि । एतत्स्वरूपं ज्ञात्वा मजतनुप्रविष्टो राजा वनमगात । तत्र तत्पुद्गलं विहाय कीरतनुं प्रविश्य तद्रूपेण श्रीकान्ता : 1 राज्ञीसमीपमाययौ । साऽपि तङ्कीरमतिप्रेग्णा स्वसमीपे स्थापितवती । तस्मिन् कीरे राश्या महान् रागोऽभूत् । एकक्षणमपि हो तद्वियोग नैच्छत् । तत्पश्चादेकदास कीरविनइं त्यक्त्वा सरटोऽभवत् । तदा कीरंमृतमालोक्य राझी भृशं शोकमकरोत् । किंबहुना ? * द्वियोगमसहमाना सापि मर्तुकामाज्जायत । तत्रावसरे नृपीभूतो विप्रस्थामाख्यत् । अयि रात्रि ! त्वं मा नियस्व । एनं कीर- |
महं जीवयामि । साप्यक्क्-अस्मिञ्जीविते सत्येव मम जीवितं स्थास्यति । नो घेदवश्यङ्गमिष्यत्येव । तत्र सन्देई मा कृथाः । अथैकान्ते स्वशरीरं विहाय कीरपुद्गले समाविशद्विप्रजीवः । कीरे सघः पुनरूज्जीविसे सा राशी तुवोष। अथाऽवसरं वीक्ष्य सरट
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पुलाद्विनिर्भस्थ राजा निजकार्य प्राविशत् । ततः सभामागत्य पूर्ववद्राज्यं पालयितुं लग्नः । अथ सत्यं विक्रम ज्ञात्वा श्रीकान्ता भृशमतुष्यत् । सर्वे लोकाः प्रमोदं दधिरे । तदनु तस्य मायाविनो विप्रस्य विग्रहं राजाऽदीदहत् । स दुष्टो विन आजन्म तिर्यग्रूपेण सस्थौ । एतस्मिन् प्रअन्धेऽयं सारोऽस्ति । यतिक्रमो विनयगुणयोगात्स्वयं विद्यामधिगभ्य, भावविनयादिमिर्गुरुशुश्रूषामकुर्वतेऽपि तस्मै विप्राय विद्यां दापितवान् । अतः सर्वैः सकलेटकार्यसाधनः सर्वतः श्रेयानसौ विनयो यत्नेन धर्तव्यः।
किचोपदेशमालायामेवमलेखि-यथा श्रेणिको नृपश्चाण्डालम्प्रत्यपि विनयं कुर्वन विद्यां शिशिशे । अयमाशय:----यथा म चाण्डालमपि विद्यावन्त सिंहासनमुपवेश्य स्वयं कृताञ्जलिस्तदभिमुर्ख स्थित्वा विनयेन तस्माद्विधामग्रहीत, तथाऽन्यैरपि विधेयम् ।
अथ-विनयेन विद्याग्रहणोपरि श्रेणिकनृपस्य २६-कथायथा-राजगृहे नगरे श्रेणिको नाम राजाऽस्ति । सेन मन्त्रिपदे मतिमानभयकुमारः स्त्रपुत्रो नियुक्तः । तत्र चेकचाण्डालो। निवसति स्म । तस्य भार्या गर्भवती जाता । तस्या एकदा रसालफलभक्षणाय दोहदो जज्ञे । तदा सा प्रतिदिनमतिकशा | जाता । तां तथाऽऽलोक्य चाण्डालस्तत्कारणं तामपृच्छन् । साऽपि तत्कारणं समुत्पन्न तादृशं दोहदमाख्यत् । तदाकर्ण्य स मनसि चिन्तयति । अहो! अतिदष्करोऽसौ दोहदः । अकाले तत्फलं कथं लप्स्ये? अर्य दोहदो यदिन पूर्यत तर्हि ननमेषा में पत्नी दिनानुदिनं कशीभूय जीवित हास्यति । अतो येन केनापि यलेन तदानीयाऽस्या दोहदः पूरणीयः, इत्थं चिन्ता कुर्वता तेन स्मृतम् । यच्छ्रेणिकराजस्य चेल्लागाराश्या एकस्तम्भीयनिवाससौधो वर्तते । तत्र देवनिर्मितारामो वर्तते । तस्मिन्नतकलमिदानीमपि लभ्यते । साम्प्रतमन्यत्र कुत्रापि तव प्राप्तुं शक्यते । अतस्तत्र गत्वा तत्फलमानेतव्यमिति निश्चित्य स तत्रागमत् ।
-COMMAR
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सत्रागत्य तयक्षं फलाढ्यमप्यत्युग्मतं विलोक्यैकया विधया तच्छाखां नीचैः कृत्वा फलानि गृहीत्वाऽपरया विद्यया तो शाखा | पूर्वपदकरोत् । एवं स चाण्डालो विद्याप्रमाणाऽशक्यमपि दोहदं प्रेयस्या अपूरयत् । परमतिस्वादिष्टं तत्फलं प्रत्यहं साऽवाचत । ततः पत्नीमोहेन स प्रतिरात्रं तत्र गत्वा तथैव तत्फलानि लातुं लग्नः । एवं सर्वाणि फलानि गृहीत्वा तेन स वृक्षः फलशून्यबके।
अथाऽन्यदा श्रेणिकनरेश एकस्तम्भीयसौधशिखरमारुह्य तदारामशोमां पश्यन् तदानशाखां फलशून्यामलोकत | तां तथा || | लोक्य स व्यचिन्तयत् । अहो ! इयमाप्रशाखा गगनचुम्बिनी विद्यते, कोप्येनामारोढुं न शक्नोति । रक्षका अपि सदैव परितो | रक्षन्ति । तथापि फलानि गतानि दृश्यन्ते । इत्याचयं गतः स्वबुद्धथा यदैतविणेतुं न शशाक, तदा राजा तमभयकुमारमा- 18 कार्य जगाद । हे कुमार ! त्वं मतिमानसि, अत एतदानचौर केनापि प्रकारेण गृहीत्वा समानय । इति नृपादेशमाकर्ण्य स मन्त्री चतुष्पथमागत्य पौरानेकत्रीकृत्यैवमाख्यत् | भो लोका: ! मद्वधनमार्णयत--पतिवरा काचिदेका धनश्रीनाम्नी कन्या स्त्रानुरूपपतिलिप्सया कस्यचिदेकस्य मालाकारस्पाऽऽरामे यक्षमन्दिरे प्रत्यहमागत्य तदुपयनीयरम्यैः कुसुमैः प्रश्छमप्रचितैस्तमभ्यर्च्य पुनर्निजस्थानमागात् । प्रभाते स मालाकारस्तत्रागत्य केनापि त्रोटितानि कुसुमानि ज्ञात्वा तचौरं जिघृक्षुरभूत् । अथाs- - न्यदा कुसुमानि विचिन्वती तां सोऽग्रहीत् । तत्पृष्टा च सा तमेवमुवाच अहं हि स्वानुरूपसत्पतिकामे तयक्षपूजार्थ पुष्पाणि 1 चिनोमि । मां मुञ्च, अतःपरं न ग्रहीप्यामि | अथ सद्रपेण मोहितः स तामेवमवादीत् । हे कन्ये ! परिणयानन्तरं यदि प्रथमं । मदन्तिकमागच्छेस्तदा त्वां मुञ्चानि । तत्रावसरे निरुपाया सापि तत्प्रार्थनमङ्गीकृत्य तन्मुक्ता निजालयमाप । फियत्कालानन्तरं ।
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परिणीता सा पतिगृहमागता निशि पतिपार्श्वमुपेता, निजप्राणनाथमेवं व्यजिज्ञपत - हे प्राणेश्वर ! अहं योग्यपतिकामनया यक्षमfig safचन्मालाकारस्य पुष्पाणि च्छभं गृहती तेनैकदा गृहीता, निरुपाया सति लग्ने स्वया प्रथमं मत्पार्श्वमागन्तव्यमिति तद्वचनमङ्गीकृतवत्यस्मि । अतस्तत्र गंतुमधुना मामनुजानीहि । ततो भर्त्राऽऽज्ञप्ता सा षोडशशृङ्गारसज्जिता तत्र गन्तुमेकाकिनी प्रतस्थे । मार्गे च कदौरा अरिन्, ते वद: परखानि लुमिपुः । तदा सा तानेवमव दे चौरा ! मामिदानीं मुञ्चत, अहङ्कस्यचिन्मालाकारस्य समीयं कृतां प्रतिज्ञां पूरयितुं भर्त्राऽऽदिष्टा व्रजामि, तत्र गत्वा प्रतिज्ञां पूरयित्वा पश्चादागमिष्यामि | तदा युष्माभिरेतानि भदानरणानि ग्राह्माणि । इत्थं तत्कथामाकर्ण्य ते ताममुञ्चन् । तदग्रे कश्चिचिरबुभुक्षितएको राक्षसस्तामालोक्य मुखं व्यादाय भक्षितुमधावत् । तदा सा तमपि निजवृत्तं सर्व निवेद्याऽनुनीय तमेरमप्रार्थयत् । को राक्षस ! इदानीं कृतां प्रतिज्ञां पूरयितुं व्रजन्तीं मां मुथ्य, तत्र गला प्रतिज्ञां परिपूर्याऽनेनैव मार्गेणाऽचिरादहमेष्यामि । तदाहं भक्षणीयेति तद्वचः श्रुत्वा तेनापि मुक्ता सा तन्मालाकारस्याऽन्तिकमागात् । सोऽपि तदागमनं प्रतीक्षमाण आसीत् । तामागतां सोऽपृच्छत्हे सुन्दरि ! त्वमिदानीं पतिमापृच्छ्य समागतासि उत ततञ्चैव १, तदा साऽऽख्यत - मयैतत्सर्व पत्ये निवेदितम् । तदनु तेनाऽऽदिष्टा वदन्तिकमागच्छामि । ततञ्छना न, यतो यो हि स्ववचनं विफलीकरोति, तस्य जीवितमपि सर्वैर्निन्द्यते । जीविसादपि निजप्रतिज्ञापालने भव्यैः प्रयत्यते इति प्रतिज्ञाम्पूरयितुमहमत्राऽगवास्मि त्वमपि यथोचितं विधाय मामनुगृहाण । इति तस्य वचनमाकलय्य मनसि चमत्कृतः स व्यचिन्तयत् । अहो ! धन्या किलेयम्प्रतीयते । या हिन्दसत्रचनरक्षार्थमतिदुष्करमपि चिकीर्षति । तथैतस्या भर्ताऽपि धन्यतरः । यो हि नवोढामीश त्रिभुवनाऽतिशय सौन्दर्यरत्नाकरायितामविप्रेयसीमी ह
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प्रतिज्ञापूरणाय समादिशत् । उभावपि सत्यशीलो धन्यौ नमस्याह । अव एतस्याः शीलं रक्षणीयमेषेति विचार्य सोऽपि तस्यै भगिनीधिया वसनाभरणादिकमदात । कथितञ्च त्वं धन्याऽसि, भगिनि ! त्वं निजालयं व्रज । अथ तन्मुक्ताऽखण्डितशीला धनश्रीस्त द्राक्षसमागत्याऽमिलत् । सोऽपि सत्यवचनां तामवेदीत् पुनर्मालाकृता यदाचरितं तदपि तन्मुखादा कर्ण्य तां प्रशस्य वस्त्राssभरणैः सत्कृत्य गृहगमनाय समादिशत् । अथ राक्षसेन सत्कृत्य मुक्ताभक्षितांगी सा चौरान्तिकमागता । तेऽपि तां सत्यवचनां सुशीलां मत्वा हृष्टाः सन्तो वस्त्राऽऽमरणादिभिः सत्कृत्य मुमुचुः । इत्थमग्खण्डितशीला निर्विघ्नेन भर्तुरन्तिकमागात् । तस्मै च यथाजातं वृत्तं सर्वं निवेदयामास । तदाकर्ण्य भर्त्राऽपि सा सम्मानिता । तत्राऽभयकुमार इत्युदीर्य सर्वानपृच्छत् । भो भो लोकाः ! यूयं विचार्य कथयत, अत्र दुष्करं कर्म केनाकारि १ तत्राऽवसरे कियन्तो विषयैषिणोऽधीरा नरास्तस्याः पर्ति प्रशशंसुः । कियन्तः कामुकाः समागतां नवोढामतिसुन्दरीं तां त्यजन्तं तमारामिकं तामतिदुष्करं कृत्यमनुष्ठातुमादिशन्तं तद्भर्तारञ्चास्तुवन् । कियन्तस्तं मांसलोलुपं राक्षसम् । ततो येनाऽऽग्रफलानि चौरितानि, स एक एव तारानवर्णयत् । ततोऽभयकुमारो दूतेन तं नरं स्वान्तिकमानाय्य गतेषु लोकेषु बद्ध्वा कारागारनिवासमादिशत् । तदानीं कुट्टितस्तजितः स कुमारा निजमुखेन तदाम्रचौर्यमङ्गीकृतवान् । तदा पुनस्तं कुमारोऽपृच्छत् -- किमरे ! ततरोः सा शाखा तुक्र्त्ये गगनञ्चुम्बति, स्वया तत्फलानि कथञ्जगृहिरे १ किव विष्ठत्सु तेषु रक्षकेषु तमारामं प्राविशः कथम् १ | सत्यङ्कथय, तदा भषेन भृश कम्पमानः सोऽव हे स्वामिन् ! मम द्वे विद्ये बसेंते । एका चोअतमपि करस्पृश्यं करोति, अपरा तं तथावस्थं करोति, ताभ्यां मया तत्फलानि गृहीतानि । ततो मन्त्री तथ्यौरं नृपान्तिकमनयत् । नृपोऽपि तं महापराधिनं मत्वा तदुचितां शिक्षामा
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दिशत् । तदा कुमारो नृपमवादीत-मो महाराज ! एतस्मै शिक्षा माऽऽदिक्षः । एतत्पार्श्वे द्वे विद्ये स्तः । यत्साहाय्येन फलानि चोरितानि, ते गृहीत्वैनं मुश्च । ततो नृपस्तमवक्-तहि मे ते विधे देहि । सोऽपि मृत्युभीतिमुपेतस्तदा मन्त्रोचारणं व्यपाद । किन्त्वविनयादिदोषेण नृपस्तदुचारितं तन्मन्त्राधरं हृदि धर्तु नाशक्नोत् । तदा मन्त्री जगाद-अविनयेन विधा न गृह्यते । भवान् विनयेन सिंहासनानीचैरवतीर्य कृताञ्जलिस्तिष्ठभेनं सत्कृत्य गुरुमुद्ध्या सिंहासनमुषवेशयत, सदा विद्या समेष्यति । अथ राजा तथैव विधाय विनयेन वे विधे जग्राह 1 तस्मिन्नवसरेऽभयकुमारेणोक्तम्-हे राजन् ! असौ तस्करो नीषकुलजासोऽपि विद्याशा| लिवास्पूजनीयोऽस्ति सम्प्रति गुरुत्वादपि विजेता ! नीतिकानपि समय__ एकाक्षरप्रदातारं, यो गुरुं नैव मन्यते । श्वानयोनि शतङ्गत्वा, चाण्डालेष्वपि जायते ॥१॥ ___ अधुनासो ते गुरुरजायत, इत्येनञ्जीवितप्रदानेनाऽभयं कुरु । ततो राजा से मुक्त्वा लक्षदीनारं तस्मै दतवान् । अनया कथया विनयस्य प्राधान्यमवगन्तव्यम् । स नृपोऽपि यदा विनयमकरोतु, तदा तन्मुखोबारिता विषा चटिताऽभूत् । किश्व-विनयमहिता स्वल्याऽपि विद्या लोके बहु विस्तृणाति । अतः सद्विनयमूलधर्मरुचिनिमन्नैः सद्भव्यैः सर्वैरपि सदैव विनये यतितव्यम् ।
अथ ११-विद्याविषयेअगम मति प्रयुंजे विद्यया को न गंजे, रिपुदल बल भंजे विद्यया विश्व रंजे । धनथि अवय विद्या सीख एणे तमासे, गुरु मुख भणि विद्या दीपिका जेम भामे ॥ ३३ ॥ विद्यावन्तो नराः कदापि धूतादिलोकेनैव वन्यन्ते, तथा सद्विचारयोगाने रिपुदलानि महान्त्यपि लीलया क्षणादेव जयन्ति, |
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तथा विद्यया सकलमपीदं विश्वमनुरज्यते । इत्थं हि नृनमितरधनाद्यपेक्षया पुंसां विद्याऽक्षय्य कोशकल्या प्रतीयते । यतो धनादिकं व्ययिते हीयतेऽसतु भृशं व्यक्तिाऽपि समंधते । तथा विद्या हि श्रियो निदानमस्ति सा विद्या सफलतत्त्वविलोकने विदुषां हृदय महादीपायते । अतो हे लोकाः । यूयमवश्यं विद्वद्वसद्गुरुभिधों विद्यां शिक्षध्वम् ॥ ३३ ॥ सुर नर सुप्रशंसे विद्यया वैरि नासे, जग सुजस सुवासे जेह विद्या उपासे । जिण करि नृप रंज्यो भोज बाणे मयूरे, जिस करि कुमरिंदो रांजन्यो हेमसूरे ॥ ३४ ॥
किश्च - विद्वांसः सुरैर्नरादिभिश्च प्रशस्यन्ते । महात्ममिस्ते सत्क्रियन्ते । नृपसदसि ते मानमधिकमाप्नुवन्ति । ते विद्याबलेन जितारयो जायन्ते । ये विद्यामुपासते तेषां जगति स्फीत यशो विततं भवति । ते च विद्याधनमतुलं प्राप्यानुपमं सुखमधिगच्छन्ति । यथा पुरा किल बाणमयूरौ विद्यया भोजनृपं भृशमत्तुषताम् । यथा सत्प्रतिभा बुद्धिसन्निधिः श्रीमद्धेमचन्द्राचार्यो विद्यया कुमारपालं नरपाले भृशं सन्तोष्य प्रतिबुद्धमकरोत् । तथाकृतेऽन्येऽपि विद्यामादरेण शिक्षन्ताम् ॥ ३४ ॥ अथ विधया भोजनृपं तोषयतोर्वाणमयूरथी: २७- प्रबन्धः -
अस्मिन्नुज्जयिनीनगरे भोजराजसभायां पाणमयूराभियौ मिथः सुरजामातरौ विद्वांसावभूताम् । तौ विद्यामदोन्मसौ eta नृपद समागती विवदमानी चैकस्य प्रशस्तिमपरोऽसहमान आसीत् । यदाह
न सहति इकमिकं न विणा चिर्द्धति इकमिद्रेण । रासहवसहतुरंगा, जुआरी पंडिआ डिंभा ॥ १ ॥ अस्या अयमर्थः –रासमा वृषमास्तुरङ्गा द्यूतकारिण: कोविदाः शिश्रवश्चैते यथैकत्र न तिष्ठन्ति यदि तिष्ठन्ति तर्हि मिथो
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युध्यन्ते, तथैव तौ श्वशुरजामातरौ विवादं सदैव नृपाग्रेऽकुरुताम् । एकस्योगतिमपरः कदापि मनागपि नाऽसहत । अथैकदा तो नृपेणैव भणितो, यथा भोः पण्डितौ ? युवाहाम्भीरवेशं यातम् । तत्र द्वयोर्मध्ये यं सरस्वती संमंस्यते तमधिकमपरं हीनमहं झास्यामि । इति नृपादेश लास्वा तावुभौ काश्मीरम्प्रति चेलतुः । मार्गे च ताबोकारनाथस्य शिवस्य मठे धान्यभारमुहतः पञ्चदशतान वृषभान ( पोठीतिलोकभाषाप्रसिद्धान ) अपश्यताम् । तानालोक्य तौ तद्वाहकानपच्छताम् । किम्भोः! यूपमेतेषु पूपमेषु भृत्वा कुत्र किमर्थ नयथ ? सैरभाणि । एतानि श्रीओशरक्षेत्रे वृचिधान्यानि नीयन्ते । तनिशम्य तत्काल तो साश्चर्यों जातो। पश्चादने व्रजन्तौ सौ रात्रौ कुत्रापि सुषुपतुः । सदा तो गगनस्था शारदा एतो समस्यामपृच्छत् । यथा 'शतचन्द्रं नभस्तलम् । तदाकर्ण्य वाणकविस्तामेवमपूर्वत । यथा
दामोदरकराघात,-विकलीकृतचेतसा । दृष्टश्चाणूरमलेन, शतचन्द्रं नभस्तलम् ॥ १ ॥
इत्याकर्ण्य मयुगकपिहुंकारं कुर्वन तत्समस्यामन्यथाऽपूरयत । तदा पुनराकाशवराज्यभुत । यथा-येन प्रथम समस्यापूरि, सोऽto धिकः । अपरस्तु हुङ्कारनादं वितत्य तत्पूर्ति व्यधादिति सोऽल्पीयान् कविः, इति सरस्वतीविहितजयपराजयौ तौ प्रभाते समुत्था! योजयिनीप्रभुं भोजराज शारदादत्तविजयं निवेद्य वाणकविः प्राधान्यमनयत, सतःप्रभृति नृपसदसि बॉणस्य महीयसी प्रतिष्ठा जाता।
-अस्मिन् कथानके बाणमयूरी श्वशुरनामातरावभूतामिति विचारणीयम् । 'प्रवन्धचिन्तामणिग्रन्थे' भोन-भीमप्रबन्धे स्पष्टतरमित्थमुल्लिखितम-गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शीर्यत इव, प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव | प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुध
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अथ १२ - परोपकार- विषये
मन घन तरुणाई आयु ए चंचला है, परहित करि लेजे ताहरों ए समे छे ।
* अब जनम जरा जां लागशे कंठ माई !, कहि न तिण समे तो कोण याशे सहाई ।। ३५ ।।
“भो, श्रावृलोकाः ! इह संसारे शरीर - धन-यौवनायुरादीनि समस्तानि क्षणभङ्गुराणि सन्ति । अतः सर्वमसारं मत्वा सारभूतम्परोपकरणमाशु भवद्भिर्विधीयताम् । समागते वार्धक्ये जरामिमृता नष्टबला इन्द्रियेषु सकलेषु शैथिल्यमुपपन्नेषु यूयं किं करिष्यथ १ स्वयमेव मनसि विचारयत । तत्रावसरे युष्माकं त्राता को भविष्यतीति ? केवलमनुष्ठितो धर्म एव त्रास्यते । अतः प्रमादं विधाय सर्वप्राणीप्सित सुखार्थादिप्राप्तिनिदान परोपकारं विधवाम् । येनोभयत्र मुखमाप्स्यथ ॥ ३५ ॥
नहि तक फल खावे ना नदी नीर पीचे, जस धन परमार्थे सो भले जीव जीवे । नल करण नरिंदा विक्रमा राम जेवा, परहित करवा जे उद्यमी दक्ष तेवा ॥ ३६ ॥
महो ! ( इति भूयो भूवस्तेन त्रिपदीमुदीर्यमाणामाकर्ण्य ) कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम् ॥ १ ॥ इति श्रानृमुखातु पदमाकर्ण्य क्रुधा सा सत्रपा च कुष्ठी भवेति तं भ्रातरं शशापेत्यादि ।
• भोज और कालिदास ' नाम्नि पुस्तकेऽपि कविप्रसिद्धयोर्याणमवूरयोर्वृतान्ते बाणकवेमेगिनोपतिर्मयूरकविरित्येव लिखितम् । लोके - ऽपि चैवमेव तौ प्रख्यातितामापतुरिति ।
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किश्चैतत्पश्यत । यथा-तरवः फलन्ति, परं तानि फलानि स्वयं नाऽश्नन्ति । यथा नद्यः स्वयं नीरं न पिबन्ति, किन्तु परानेवोपकुर्वते । स्वयश्च ते वरव आतपादिमहाक्लेशं सहमानाः परेषामुपकृतौ सदैवोद्यतास्तिष्ठन्ति । येषां धनानि परोपकरणे यान्ति, प्रथा कायेन बन्नमा र बोकालपत्रिकीििन्त, ते सत्पुरुषा इह चिरं जीवन्तु, यथा-नलराजः कूपस्थं सर्पमभितो ज्वलत्यपि दहने पहिरानीतवान् । यथा कर्णराजो षड्ननाथान विकलाशान् बहतरधनव्ययेनोपकृतवान् । विक्रमाको निजां लक्ष्मी परोपकवादिधर्मार्थमव्ययीत् । रामराजो यथा कायेन वचसा मनसा सम्पदा च जगजीवानुपाकरोत् । तथान्यैरपि लोकद्वयसुखलिप्सापतिः परेषामुपकृतिः कार्या ॥ ३६॥
__ अथ १३-उद्यम-विषयेरयण-निहि तरीने उद्यमे लच्छि आणे, गुरु-भगति करीने उद्यमे शास्त्र जाणे । दुख समय सहाई उद्यमे छे भलाई, अति अलस तजीने उद्यमे लाग भाई ! ॥ ३७॥
इह खलु ये केचन समुद्योगिनः सागरं तरन्ति, ते रत्नानि समाप्नुवन्ति । ये पुनर्भक्त्या विनयं कुर्वन्तो गुरूनुपाससे, तान सेवन्ते, तदाबावर्तिनो भवन्ति । ते किलाधारस्यापि शास्त्रस्य परम्पारमधिगच्छन्ति । आपदातानपि जनानध नयमभितो रक्षति । अतो हे भव्यभ्रातः ! आलस्यं त्यज, उद्यम मज ॥ ३७॥
नृप शिर निपतंती बीज जात्कारकारी, उद्यम करि सुबुद्धी मंत्रिय ते निवारी । तिम निज सुतकेरी आवती दुर्दशाने, उद्यम करि निवारी ज्ञानगर्भ प्रधाने ॥ १८॥
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इह तबास्ति यगुम्नेगल सागरी--याः नामदन राज्ञः शिरति पतिष्यन्तीमतिदीप्तां सौदामिनीमपि निजोद्यमयोगेन सुबुद्धिहै नामा प्रधानो न्यवारयत । तथा मतिमान मन्त्री निजपुत्रादेष्यन्ती निजामपि दुर्दशामुद्यमेन निराकरोत् ॥ ३८ ।।
अथोद्यमोपरि सुबुद्धिनाम्नः प्रधानस्य २८-प्रवन्धः___ अथैकदा विजयराजसदसि कश्चिनैमित्तिक आगात । राजा तमेवमपृच्छद् भो नैमित्तिक ! यदि भविष्यजानासि तर्हि साम्प्रतं कस्य किं भवितेति बद । सोऽप्यूचे हे राजन् ! मया सर्व ज्ञायते, शक्यते च गदितुम् । यत्पृष्टं तदाकर्यताम्, अग्रतः सप्तमे दिवसे पोतनपुराधीशस्य शिरसि विद्युत्पतिष्यति, इति निशम्य सर्वे राजादयः सम्या भृशमखियन्त । राज्ञाऽचिन्ति-भवितव्यं केन वार्यते । यदाह-" अवश्य भाविनो भाषा, भवन्ति महतामपि " इति तत्रावसरे सर्वे मतिशालिनो मन्त्रिगणा एतन्निराकर
रोपायमचिन्तयन् । तन्मध्यादेकोऽवादीत् यद्येवं-तर्हि कमप्यन्यं नृपं तद्दिने तत्स्थाने संस्थाप्य रक्ष्यताम् । तनिशम्य नृपोऽवक्नैतधुज्यते, निजस्य जीवातवेऽपरः कथं हन्यते ? एतत्तु महापापं वेभि । अपर एत्रमवदत्-राजन् ! भवान् तत्र दिने कुत्रचित्योतमुपविश्य स्वयमगाधे जले तिष्ठतु । यज्जले विद्युशैव पतति, अनेनोपायेन नूनमेवैतद्वचोऽलीकतामुषैष्यति । इतरोऽवदव-राजन् ! नैतद्विचारसहं प्रतिभाति, यतो विद्युत्तत्र मा पततु, पोत एव यदि जले निमजेत्तदा राजस्तदितरेषामपि प्राणसंशयः स्यादिति तदनु सुबुद्धिनामा मन्त्री न्यगदत-हे स्वामिन् ! ममोक्तमपि निश्चम्यताम् । अद्यतः सप्तदिनपर्यन्तं श्रीजिनेन्द्रो भगवान् मनोऽभीष्टसिद्धि| कारी भक्त्या सेवनीयस्तस्मिन् भक्ति कुर्वतः कदाप्यापत्तिनोंदेति । दानपुण्यादिधर्मकृत्यं यथेष्टं वितन्यताम् । सिंहासने च काष्ठमययक्षमूर्तिः स्थाप्यताम् । एतच्च नृपादिभ्यः सर्वेभ्योञोचत । ततो नृपः सप्त दिनानि तत्सर्वमकरोत् । सप्तमेहनि निमित्त
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धोक्तं सत्याफ्यन्तीव चपला स्थापितयक्षशिरसि पयात । तेनेत्यं तद्भवाद्राजा मोचितः। सर्वे लोका मुमुदिरे । जयजयारावं च वितेनुः। तदनु राडा प्रचुरधनदानेन स नैमित्तिकः सत्कृत्य विसृष्टः । एनां कयां निशम्य भवन्त उद्यमवलं पश्यन्तु । यदुधमेन भविष्यदपि मरणभयं राज्ञोऽनश्यत । इति प्रत्यक्षं तत्फलं पश्यन्तो भवन्तोऽप्युधमं कुर्वताम् ।
_ पुनस्तत्रैव ज्ञानगर्भाभिधप्रधानस्य २९-अपरः प्रवन्धःएकदा सदसि समागतं निमित्झं नृपोऽपृच्छत् । भो विद्वन् ! काश्चिद्भविष्यन्तीमपूर्वा वातों कथय । सोऽपि ज्ञानतो विचार्य का नृपमवदत्-ई राजन् ! अद्यतः पश्चदशदिनाभ्यन्तरे प्रधानस्य प्रामान्तिक: क्लेश आगमिष्यति । इत्याप्प समातः स्वगृह
तमानीय प्रधानोऽपृच्छत् । हे निमित्वज्ञ ! मम कस्मादुत्पत्स्यते क्लेश इति बद । तेनोक्तम्-यस्ते ज्येष्ठः सुतस्तस्मात् । अथ मन्त्रिणा सत्कृते तस्मिन् गते, मन्त्रिणा पुरुषप्रमाणका काष्ठपेटिका कारिता । तत्र खाद्य पेयं निक्षिप्य ज्येष्ठ पुत्रमाहूय सर्वमेतज्जगो । सोऽपि विनीतः पितुराज्ञया तस्यानविशत् । ततस्तां सार्गलां विधाय सेवकेन नृपान्तिकमनीनयत् । उक्तश्न हे महाराज ! मम विपदागामिन्यस्ति । इति सम्पच्या किम् ? अत एनां सम्पदं भवत्पार्श्वे स्थापयितुमनयम् । इत्युदीर्य तत्कुनिका तस्मै दवा जगाद । ई स्वामिन् ! एषा पञ्चदशदिनानन्तरमुद्घाटनीया । तदनु स मन्त्री राजानं नमस्कृत्य चैत्यमेत्य जिनेन्द्रं स्तोतुमलगन् । एक्माचस्तस्तस्य तानि दिनानि व्यसीयुः । राजाऽपि सा मञ्जूपाऽन्तःपुरे न्यासिता । अथैकदाऽन्तःपुरस्थिततत्पेटिकामध्यादेव शब्दः प्रादुरासीत् । यधा-राज्या वणी प्रधानपुत्रकरगता जाता तदाकर्ण्य कोपाद्रक्ताक्षो नृपो दूतेन प्रधानमजूहवत् । तदादेशात्तदानीमेन स दूतस्तद्गृहमागत्य मन्दिरस्थं तं ज्ञात्वा तत्रागत्य सं नृपान्तिकमनयत । तमापतं वीक्ष्य नृपो विमुखीभूय तस्थौ ।
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| तत्राऽवसरे मन्त्री जगाद-ई स्वामिन् । तत्पेटिकामानाथ्य विलोक्यता तत्र किमस्तीति । नृपोऽपि तथा कृत्वा तामुपाय करधृतराबीदेनिक प्रधामपुत्रमपरकरे खई इन्धयत् । दर्शातानिएपप समय राज्ञः क्रोधः प्रशशाम । एतदद्भुतं कृत्तं सर्वत्र पुरे प्रससार । कथमेतदभूदिति ? निर्णयं कर्तुं कोऽपि नाध्यक्नोत् । अथाऽज्यदा तत्रागढमेकं ज्ञानिनमेतत्स्वरूपमपृच्छद्राजा ।
शानी चक्ति हे राजन् ! एतस्य प्रधानस्य भवान्तरं या पल्ल्यासीन, सा मृत्वा व्यन्तरीभूता प्रधानमेन क्लेशयितुमेतत्सर्वमकसरोत् । परमेष निजोधमबलासमपि दूरमकार्षीच सुखी जातः । अतः सुंखेप्सुभिः सर्वेरपि मनुजैः प्रधानतयोद्यमे प्रयतितव्यम् ।
अथ १४-दान-विषयेथिर नहि धन राख्यो तम नाख्यो न जाए, इणिपर धन जोता एव गत्या जणाए । इद सुगुरु सुपात्रे जेह दे भक्तिभावे, निधि जिम घन आगे साथ तेहीज आवे ॥ ३९ ॥
धनस्य नैवाऽस्ति | कवेऽपि सहस्रप्रयत्ने नैसर्गिकमस्थिरमेतस्थिरता कदापि नोपैति । इह लोके लक्ष्म्या गतित्रयं वर्तते । 'दानं भोगो नाशवेति । तत्र दानभोगौ पुण्यवतामेव भवतः । ये न ददने, न च भुञ्जते, तेषां लक्ष्म्यास्तृतीश नाशगतिर्जायते | अतः सुकृतिनो जनाः सत्पात्रेषु धर्ममार्गेषु च निजां सम्पचि व्ययीकुर्वते । तानि दानपुण्यादीन्येव भवान्तरे निधीपय वस्याऽनुगच्छन्ति । इह लोके ये ये वदान्या अस्पन तान्दर्शयति ॥ ३९ ॥ ...नल बलि रिचंदा मोज जे जे गवाए, पह समय सदातेदानकेरे पसाए।
इम हदय विमामी सदा दान दीजे, घन सफल करीजे जन्मनो लोभ लीजे ॥ १० ॥
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इह जगति पुरा किल-नल-बलि-हरिश्चन्द्र-भोजप्रमुखा वदान्यतया सर्वेषां प्रातःस्मरणीया बघुः । इति दानमाहात्म्य हृदये निधाय यथाशक्ति सुपात्रादिक्षेत्रेषु सलक्ष्मी वितीर्य सर्वेरेव मनुष्यत्यं साधकं नेयम् ॥ ४० ॥
अथ दानगुणोपरि कर्णराजस्य ३०-कथानकम्इह को राजा दातृणामग्रेसर आसीत् । सोऽन्यदा चित्राङ्गदविद्याधरस्य केलिवनोपमर्दनात्तेन कारागारे न्यस्तः । तत्रैकदा । 18 कश्चन देवयाचकस्तत्परीक्षार्थमागत्य तमस्तावीत् । तदाकर्ण्य सोऽवक्-भो याचक ! ममेदानी किमपि नास्ति, इत्युक्तेऽपि पुनर्निराशा 21 मा यात्वसौ, इति मनसि ध्यात्वा तदानीं शिलाशकलेन निजदन्तजटितस्वर्णशलाकां निष्काश्य तस्मै ददौ । यथा रत्वेऽपि स दानगुणं नामुञ्चत् तथान्यैरपि नैव त्याज्यः । अतः यथाशक्ति दानं विधातव्यमेव ।
अथ १५-शील-विषये-- अशुभ करम गाले शील शोभा दिखाले, गुण गण अजुआले आपदा सर्च टाले । जस नर यह जीवी रूप लावण्य देई, परभव शिव होई शील पाले जिकेई ॥४१॥
अहो ! शीलं यदेतल्लोफस्याऽशुभानि कर्माणि नाशयति, शोभां वर्धयति, सङ्कटमपाकरोति, गुणान निर्मलीकरोति । किमधिक वच्मि, शीलपाली नरो यशस्वी देजस्त्री दीर्घजीवी रूपलावण्यादिसद्गुणभाग्भवति । परस्त्र च मोक्षमुपैति ॥ ४१ ।।
इण जग जिनदास श्रेष्ठी शीले सुहायो, तिम निरमल शीले जेम गंगेय गायो । कलि करण नरिंदा ए समा छे जिकोई, परभव शिव पामे शील पाले तिकोई ॥ ४२ ॥
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इइ पुरा लोके शीलेन जिनदासाऽभिधः श्रेष्ठी शुशुभे । तथा भीष्मः सच्छीलगुणेन रराज । पेह कलिकालेऽपि कर्णः शीलशाल्यभूत् । एतेषामित गे श्रीलमपालशन ये शामिपन्ति पुनर्षे गलयन्ति, ते सर्वे परत्र मोक्षमाप्नुवन, प्राप्स्यन्ति, प्राप्नु. वन्ति च । इहापि तेषां सोनीगोत्रीयसनामश्रेष्ठिवन्महती कीर्तिः प्रसरति । लोकास्तद्वचः प्रमिन्यन्ति, अतः शीलमाहात्म्य विशिष्टं मत्वा सास्तपाल्यं यत्त:-चतुनिकायदेवदेवेन्द्रचक्रवादयोऽपि तच्छीलशालिनो नमस्कुर्वन्ति ।। ४२ ।।
अथ शीलपालने सुदर्शनष्ठिनः ३१-कथानकम्कश्चित्सुदर्शनाख्यः श्रेष्टी चम्पापुर्यों जज्ञे. तदुपरि अभया राशी मुमोह । सा चैकदारहसि कपटेन तमाहूय हावभावेन समालपन्ती । तम्छीलखण्डनाय भृशमयतत । तथाऽपि निश्चलं तमालोक्य सा तमेवमवक् । हे श्रेष्ठिन् ! मया सह रमस्व, त्वदनुरागिणी मां भुधि । नो चेद्राज्ञा ते पराभव कारविष्यामि। तदाकर्ण्य तेनोक्त अयि राज्ञि ! तवोक्तं सर्व चिकीर्षामि, परं मम तनौ मनामपि पौरुषं न विद्यते, तद्विना किम्भवेत् ? इत्युदीर्य शील रक्षितम् । अथान्यदा तत्र नगरे कोऽपि महोत्सवोऽभूत् । तत्र सर्वे लोकाः ।। सज्जितगात्रास्तत्रोद्याने जग्मुः । अभयाराश्यपि गवाक्षस्था पुरकौतुकं विलोकमाना सन्मार्गेण गच्छतः समानक्यसः सुन्दरान यूनः | पद पुरुषानपश्यत् । तानलक्षितान मत्वा सखीमपृच्छत्-अपि सखि ! एते के यान्ति ? सोचे-मनोरमाकुक्ष्युत्पना अमी सुदर्शनश्रेष्ठिनः | पुत्रा यान्ति । तदा राज्यवक तस्य पौरुषमेव नास्ति, तर्हि तस्य पुत्राः कथमभूवन् ? असम्भवमेतत्करतलकचमिव प्रतिभाति ।
१-हायो मुखविकारः स्याद, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रनो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥ १ ॥
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सखी चक्ति मया सम्यगालक्ष्यैवामी सुदर्शनसुता इत्युक्तं, अत्र सन्देहं मा कृथाः । तदाकर्ण्य राशी मनसि विचिन्तयति, नूनं स यित्वा गतः । अतस्तं केनाप्युपायेन माश्रयाणि तर्हि वरमिति ध्यात्वा सीमन्तमुन्मुच्याऽऽभरणानि सर्वाणि विमुच्य जीर्णमकोपरि चिन्तातुरीभृता सा स्थिताऽभूत् । ततः क्षणानन्तरं तत्र राजाऽऽगात् राजा तां तथाssलोक्यापृच्छत- अयि प्रियत! अद्य ते किञ्जातम् १ यदेवं सुप्ताऽसि तदा राज्ञो महाग्रहेण साध्यकू — स्वामिन ! अतः परमियं नगरी बसितुं न युज्यसे । राजाऽच --- तत्कारणं ब्रूहि ? केनाऽपि तव किमप्यपराद्धम् । अज्ञाते सति कथं तदुपायें करोमि ? अतः सत्वरं निजदुःखस्य कारणं
| येन तदुपायं विधाय सत्वरं त्वां सुखिनीं विदधीय | हत्याकर्ण्य साध्वक हे महाराज ! यदा त्वं रथवाटिकामगास्तदा सुदर्शनः श्रेष्ठी मदन्तिकमागत्य हटान्मच्छीलं भक्तुं बहु प्रयत्नमकरोत् । तदवाच्यमेव विद्धि । देवेनैव सदा मे शीलं रक्षितम् । तत्स्मृवायुनाऽपि मे मनः शरीरच कम्पते । अतोऽय स्थातुं नेच्छामि । तच्छ्रुत्वा तदैव तभिग्रहाय दूतः प्रेषितः । तदाऽऽनीते तस्मिन् राज्ञाfaraits भृत्यान् सुदर्शनस्य शूलारोपणमादिशत् । लोका हाहावं चक्रुः । तेऽपि तं सत्स्थानं निन्युः । तत्र च यदा वे सुदर्श नमखण्डित शीलवतं शूलिकायामारोपयितुं लग्नास्तदा शासनदेवता सत्क्षणं तां भक्त्वा सिंहासनमकारि, तच्च देवविमानमिवाधराश्रित शोभत सुदर्शनोपरि पुष्पवृष्टिर्जाता । येनाऽसौ निर्दोषः शीलवान सुदर्शन उपद्रुतस्तस्याहं शिक्षां करिष्यामि इत्याकाशवायमभूत् । तां श्रुत्वा सर्वे नृपादयः पौराचिन्तामापुः । ततो नृपादयः सर्वे सविनयं तत्पदयोः पतन्तस्तद्गुणं गायन्तस्तं महता महेन नृत्यवाचादिकं वितन्वन्तो गजारूढं विधाय पुरमानिन्युः । ईशस्य शीलस्य माहात्म्यं केऽपि वक्तुं न शक्नुवन्ति । वस्यालला
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दतः सर्वे श्रेयोऽर्थिमिः सदेव शुद्धं शीतलनीयम् ।
अथ शीलविषये गानोयस्य ३२-कथा दर्यते__ यथा शान्तमुनृपस्य गङ्गाराजीकृक्ष्युत्पश्नो गाङ्गेयो युवराजः पितुरिच्छा पूरयितु कञ्चन धीवर कन्यामयाचन । तदा स मत्स्यजीवी तमेवमवदत्-भो युवराज ! मम दौहित्रो राज्यं न लप्स्यते, नद्राज्यं तवैद मिलिष्यति, अतः कथमहं तव पित्रे सुतां दा ? तदा तेन प्रतिज्ञाय स भणितः ! भो ! मम पित्रे सुतां देहि-पस्ते दोहिनो भविता, स एव राज्यभाक भविष्यति । आजन्म ब्रह्मचर्यवतं मयाऽङ्गीक्रियते । इत्थं पितुः कामं परिपूर्णमकृत । स्वयमाजन्माऽतिदुष्करं ब्रह्मचर्य परिपाल्यातुलं बलमाप । पाण्डवकोरवयोद्धे पाणविद्धोऽपि विरागात संयम लात्वा देवगतिमीयिवान् । एवमन्यैरपि शीलं सम्पक पालनीयम् । यत्प्रभावेण सर्वे कामा: सफलीभवन्ति । परत्र च मोशमुखं सुलभ जायते ।
____ अथ १६-तपोविषये-- तरणि किरण यी न्यू सर्व अंधार जाए, तप करि तप थी त्यूं दु:ख ते दूर थाए । वलि मलिन थयु जे कर्म चंडाल तीरे, तिम तनुज पखाले ते तप स्वर्णनीरे ॥ ४ ॥
यथा सूर्योशषः सकलमन्धकार प्रणाश्य जगददः समस्तमुद्योतयन्ति । तथा तपस्तेजांसि समस्तानि दुःखान्युन्मूल्य तदनुष्ठाशपुंसः प्रभासयन्ति । किञ्च- बलवत्कर्मचाण्डालकतापवित्रम कार्य निर्मलीक तपास्येव प्रभवन्ति स्वर्णनीरवत् ॥ ४३ ।।
सप पिणनषि थाए नशिकमरो, तप विण' न टेले ते जन्म संसार फेरो ।
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ॐ
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तप सधी मातम मंदिरणे, तप पल वपु कीधुं विष्णु वैकीय जेणे ॥४४॥
तपो विना कर्माणि निर्जरतां न यान्ति । तथा तदाराधयतां जन्मजरामरणानि विलीयन्ते । ततस्ते सुखेन मोक्षमधिग च्छन्ति । तपसः प्रमावादेव गौतम-नन्दिषेणप्रमुखा लन्धिमापुः । किञ्च-तन्माहाल्यतो विष्णुकुमारो वैक्रिय लक्षयोजनप्रमाणं विग्रहमकाति, पुनरन्यायवर्तिनं मरीचिप्रक्षन मारयामास ॥४४॥ .
तपःप्रभावोपरि लब्धिमतो गौतमस्वामिनः ३३-कथानकम् - ___ श्रीमहावीरस्वामी भगवानेकदा देशनाकाले फिलैवं जगाद । तथाहि-ये खलु स्वलन्ध्याश्यापदतीर्थयात्रा कुर्वन्ति, तेऽवश्यं ।। द सिदधन्ति । तदाफर्य गौतमस्वामी भगवदाज्ञां लात्वा तधाकर्तुमचलत् । अनुक्रमेणाऽष्टापदतीर्थसमीपमागतः । तत्र पूर्वतः । भासंस्थितास्यधिकपश्चदशशततपस्विनस्तमालोक्य परस्परमूचुः—अहो ! वयं तपःकुशा एनमास्य यात्राहर्तुं न शक्नुमस्तहि करी
न्द्रवत्स्थूलोऽसौ तदुपरि चटित्वा तां विधातु कथं शक्ष्यति ? अथ गौतमोऽपि सूर्यकरावलम्बनतस्तमारुरोह । तत्राध्यसरे तं वीक्ष्य ते तापसा एवं निश्चिक्युः । नूनमसौ लब्धिमानस्ति । नो चेत्कथमेतत्सम्भाव्यते । भवतु, यदाऽसौ पुनरत्र परावर्त्यति तदा वयमपि सर्वे तारुं कृत्वा लम्धिमाप्स्यामः । इतस्तदुपरि समागतो गौतमश्चतुरष्टदशद्विकानीत्यनुक्रमेण भरतप्रतिष्ठापितस्वर्णमयचतुविशतिजिनेन्द्रनिम्बानि दर्श दर्श भावस्तव चैत्यक्न्दनं विधाय जगश्चिन्तामणेः सकलां स्तुति कृत्वा चैत्याद् बहिरागत्योपाविशत् ।। तावत्तत्र तिर्यगजम्भकदेवीभूतो वनस्वामिजीव आगात् । तम्प्रति बोध्य, स सदुत्तीय नीचैराययौ । तत्रावसरे ते सर्वे तापसास्तवरयोनिपेतुस्तच्छिष्याश्च जाताः। ततस्तैः सह मार्गे गच्छन् स गौतमस्वामी कमपि ग्राममासाद्य तानपृच्छत् । भोः तपस्विनः : यूर्य
الباطل
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कि भोक्ष्यध्ये १ तैरुक्तम् — स्वामिन् ! पश्चामृतमशितुमय नो वाञ्छा जागर्ति । तद्वचः श्रुत्वा स्वयमेव गोचर्यै पुरं प्राविशत् । कश्चि सवगृही भक्त्या तस्य पायसं प्रत्यलामयत् । तल्लात्वा समागते गौतमे ते दध्युः । अहो ! इयता पायसेनाऽस्माकं तिलकमपि न सम्पत्स्यते, तर्हि तृप्तिः कथं भविष्यति १ । यावदेवं विचिन्तयन्ति तावङ्गौतमेनोक्तम्- भो महानुभावा 1 युष्माभिः समागम्यतां तदनु भोजनार्थमेकस्यां पङ्क्तौ सैकपञ्चशततापसानुपावेशयत् तावतस्तानपरपङ्क्तौ तृतीयस्यामपि तावतस्तांस्तापसानुपावेशयत् । इति परिपाट्या समुपविष्टस्तापसानशेषान् तत्र पायसे 'अक्षीणमानसी' लब्धिरिति मन्त्रमुद्दा निजाङ्गुष्ठमारोपयन् परिवेष्य यथेच्छ्मभोजयत् । तदा स तानपृच्छत् – कि मोः ! कस्यचित् किञ्चिदपेक्षते १ तैरुक्तम् वर्यं सर्वे तृप्ता अभूम । ततस्तत्पात्रादङ्गुष्ठे समुद्धृते पुरानीतप्रमाणं पायसं तत्पात्रेष्वशिशेष तावता पायसेन स निजतृप्तिमकरोत् ।
J
तत्राऽवसरे तेषामश्नतां सद्भावनां भावयतामेकपङ्क्त्युपविष्टानामेकाधिक पश्चचततापसानां तत्कालमुज्ज्वलं केवलज्ञानमुत्पेवे । ततोऽग्रे चलन् स तैः पृष्टः - हे स्वामिन्! कुत्र गच्छसि १ सेनोक्तम्- निजगुरुसमीपम् । पुनस्तैरुक्तम् भवतो गुरवः कीशाः सन्ति तदा गौतम गुरून् वर्णयन् जगाद - भोः तपस्विनः । मम गुरोः स्वरूपमाकर्णयत । नूनमिह काले साक्षात्कल्पद्रुमोऽस्ति । स खलु - अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपया बालक्ष्म्या शोशुभ्यमानोऽस्ति । सदा त्रिदशगणैः सेव्यमानो वर्तते । त्रिभुवननायक छत्रचामरसिहासनादिभिर्विराजते । इत्थं गुरुतरगुरुवर्णनमाकर्णयतां तेषामेकोत्तर पञ्चशततापसानां केवलज्ञानमुदपद्यत । ततोsप्रे गत्वा समवसरणमालोक्य ते पत्रच्छुः - हे स्वामिन् ! किमेतद्विलोक्यते ? गौतमोऽवदत् । एतन्मम गुरोः समवसरणं विद्यते, तच्छ्रुत्वाऽवशिष्ठैको चरपश्चशततापसानामपि केवलज्ञानमुत्पन्नमभूत् । इर्त्य ते त्र्युत्तरपश्चदशशततापसाः सर्वे केवलिनो बभूवुः ।
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टली
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तदा गौतमस्तानशिक्षयत । भो महाशयाः । तत्र गत्वा यथाऽहं गुरुं वन्देयं तथा भवद्भिरपि वन्दनीयस्तैरपि तदुक्तमङ्गीकृतम् । से मिजोत्पलं केवलं तस्य नाऽऽचचक्षिरे । अथ प्रभोः समवसरणमागत्य गौतमः प्रभुं यथाविधि ववन्दे पृष्ठे च तानपश्यन् केरलपक्क्त्युपविष्टानशेषानद्राक्षीत् । तदानीं तानवोचत गौतमः । भो महाशयाः ! पूर्वं शिक्षिता अपि भवन्तः प्रमुवन्दनामकृत्वा तत्र कथमुपाविशन् ? अत्राsसरे भगवतोक्तम्- हे गौतम! केवलिनाले वामाचानां मा याचदा गौतमपृच्छत । हे प्रभो ! मम केवलमुवेष्यति न वा ? प्रचणोक्तम् । तवाऽपि चरमे वयसि तदुत्पत्स्यते । तच्छ्रुत्वा गौतमो जहर्ष । एतस्याः कथायाः सारत्वेनैतद् ग्राह्यमस्ति । यथा - गौतमस्तपोभिर्महत लब्धिमाप, तलेन दुष्करामपि तीर्थयात्रामकरोत् यु सरसार्धसहस्रतापसानभोजयत्, तथाऽन्यैरपि तपः कृत्वा लब्धि प्राप्य कर्मोन्मूलनं कार्यम् ।
पुनस्तप:प्रभावविषये नन्दिषेणमुनेः ३४-प्रबन्धः --
यथा- राजगृहनगरे श्रेणिकराजस्य नन्दिषेणनामा तनयोऽभूत् । स यौवने पित्रा पञ्चशतकन्याभिः पर्यणायि । तत्राऽन्यदा महोधाने वीररागत्य समबसरत । तं चंदितुं सपरिवारः श्रेणिकराजस्तत्राऽगात् भगवन्तं वन्दित्वा देशनां सर्वेऽन् तदा श्रुत्वा प्रतिबुद्धो नन्दिषेणः स्त्रालयमेत्य मातापितरौ संगमामुज्ञामयाचत । तदा ताभ्यां गृहवासाय बहुभिर्दृष्टान्तैः प्रतिबोधितोऽपि स तत्क्षणमञ्जसा वीरप्रभोरन्तिकमागत्य चारित्रप्रदानार्थमभ्यर्थयत । तत्राऽवसरे चाकाशवाण्यप्यभूत-अस्येदान भोग्यकर्मोदयोsवशिष्यत इति । भगववाऽपि तथैव भणितम् । सर्वमगणयन् मनसि च योऽधुना मया त्यज्यते सोडग्रे मां कथं
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पाधिष्पत इति चिन्तयनसंयमाय समुत्सुकीभ्य सद्यः प्रभोः पार्षे प्रव्रज्या ललीततः परं स शुष्कल्याहारादिनातिदुष्करं तप कुर्वमपि । मदनेन विव्यथे । ततोऽतिदुःखीमय सम्पापातं विदधदेवतया निवारितः । ततः परं स महान्ति तपांसि कुर्वन शरीरमस्थिमात्रा| वशेषमकार्षीत । अथैकस्मिन प्रस्ताचे स राजगृहनगरे गोचर्य व्रजन प्रमाद् गणिकालयं गत्वा धर्मलाममदात् । तमालोक्य गणिका
जगो-एहि, परं त्वादशेन शक्तिविहीनेन विरागिणा कि मे मनोरथः सेत्स्यति ? मम धर्मलामेनाइलम् । केवलमर्थलाम एवात्र सदा- | Mपेक्ष्यते । तस्या ईदृशं हास्थवचनमाकर्ण्य मनस्पहङ्कारमानीय पुरः पवितं दर्भवणमेकं लात्वा सोवक-मम वपसः प्रभावादत्रा |
घुना दीनारराशि यतामित्युक्ते तत्कालमेव तत्र तच्छरीरामाणोन्नता सार्धद्वादशकोटिदीनाराशिरजायत । अहन्नु रमसादवोचम्-मुनिस्तु सत्यमेव मदुत्ताकशेख । इति महासं सालोक्य रू. पालाऽभूत । अथ ततः परावर्तमान मुनिमालोक्य झटिति सत्पुरो गत्वा तद्वस्त्रं धृत्वा तमेवमवदत्-हे नाथ ! ममाञ्चलाया उपरि रुष्टो भूत्वा कथं यासि ! यदि यासि सहि निज-२ मेतावद्धनं गृहीत्वा ब्रज | नो चेदत्रव स्थित्वा मया सह सुखं भुञ्जभेतदुपभोगं कुरु । इत्युदीर्य यावत्सा विरराम तावदेवमशरीरिणी वाक् प्रादुरासीत्-हे मुने ! मागाः, अनया सहैव ते द्वादशवर्षाणि भोग्यकर्मोदयोऽस्ति सोन्यथा न भविष्यति । इत्याकाशवाणी श्रुत्वा स नन्दिषेणो धर्मध्वजं मुखवस्त्रं पात्रादीन्युपकरणानि चोचैः स्थापयित्वा तत्रैव गणिकालयेऽतिष्ठन् । परमात्मनि टू दर्शनं विशुद्धमासीत् । ज्ञानादय आभ्यन्तरगुणा अपि निर्मला आसन् । यस्येदशी शुद्धात्मदशा वर्तते, स बाह्यनिमित्तकारणतया स्वगुणाऽनुभवमन्तराऽऽत्मानं निर्मलं कतुं न शक्नोति । तथापि सुभावनां भावयता तेन प्रतिज्ञातम् । यदाऽपि प्रतिदिन दशजीवा मया प्रतिबोधनीया इति । ततस्तत्रस्थः स प्रत्यहं दश दश जीवान् प्रतियोध्य वीस्त्रभोस्तथैव स्थविरसमीपे प्राहिणोत् । इयं
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कुर्वन् द्वादशवर्षेषु गणिकालयस्थः सेवमानश्र तो द्विचत्वारिंशत्सहस्रजीवान प्रवियोप्य प्रभोरतथा स्थावराणां समीपे प्रेषितवान् । तेऽपि ! तत्पत्तिबुद्धास्तयोरन्तिके दीक्षा लुः । इत्थं द्वादशनस्तस्य कर्मसु क्षीणेष्वेकदा स नवजीवान् प्रत्यबोधयत् । तदा दशमो नाडिन्धमा सभामात । तेनोक्तम्-म्भीः ! र्च स्थान प्रतिबोधयसि, पर स्वयं गर्हिता मणिकां सेवमानः कथं न प्रतिवोधमाप्नोपि ! तत्राऽवसरे पाके सम्पन्ने भोजनार्थ तदागर्म प्रतीक्षमाणा कालातिक्रमे पाकेऽपि च शैत्वं गते सा तदन्तिकमेत्य मधुरया माझ्या । भोक्तं तमाजुहाव । तेनोक्तम्-त्वं याहि, अहमागच्छामि । साऽपि गत्वा पुनः पाचिता भोजनसामग्री सम्पमे च पाके तदन्तिकं द्वित्रिचारं दासीमप्रैषीत, तथापि तमनागतं वीक्ष्य स्वयमागत्य सा जगाद-हे स्वामिन ! उत्तिष्ठ, वेलाऽतिक्रमो जातो मामषि च नितरां क्षुधा पाधते । तेनोत्तरितं दशममप्रतियोध्य कथमुत्तिष्ठेयं ?, तच्छ्रुत्वा तया किश्चिदाक्रोशमयप्रश्रयेण स भणितः । एष कामुको यदि न येत्ति तहि स्वयापि गन्तव्यम् । इत्युक्त्वा पुनयंगदत्-हे नाथ ! इदानीं दशमो न दृश्यते, स्वमेव दशम जानीहि । इत्यत्तिष्ट भुक्ष्च, तदुक्त माकपर्य तरक्षणमेव सर्पः कञ्चुकमिव क्षीणकर्मा स गणिकालयं त्यक्त्वा धर्मध्वजमुखवस्त्राथुपकरणानि च लात्वा प्रभोरन्तिकमामात् । अथ पुनश्चारित्रं लास्वाऽऽरमार्थमसाधयत् । इदमत्र सारतयाजधार्यम्-~~यथा स तपोमाहात्म्यातृणमात्रग्रहणेन दीनारराशिमकरोत् । तत्तपोमाहात्म्यं ज्ञात्वाऽन्यैरपि तथा सादरं तपो विधेयम् । पुनरय मुनिभोग्यकोदयाद्यथा | चारित्राच्च्युतोऽपि शुभकर्मप्रादुर्भावाचल्यादपि वेश्यावचनात्प्रतिबोधमाप, तथैवान्वैधर्मभ्रष्टैरपि भवमीरुभिः प्राणिभिनिजात्मधर्मे । प्रमादं विहाय प्रयतिव्यम् ।
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विष्णुकुमारस्य ३५-कथा
तथाहि - उज्जयिन्यां पुर्या धर्माभिधानो राजास्ति । तस्य नर्मुचिनामा मिध्यादृष्टिः प्रधानोऽस्ति । तत्राऽन्यदा पञ्चशतमुनियुतः सुव्रताचार्यः समागात् । तद्वन्दनार्थ सपौरः सकुटुम्बः क्षितीश आययौ । नमुचिरपि क्षितिजा सह तत्रागत्य निजौद्धत्येन गुरुणा सह विवदितुं लग्नः । तदैकेन क्षुद्धकेन शिष्येण सुखेन स विजिग्ये । शासनदेवता तदा से स्तब्धीच मातेच सर्वे परास्तं भृशं निनिन्दुः । तेन लज्जितः स इस्तिनागपुरमगात् तत्र च पद्मोत्तराख्यनृपस्य राज्ञीद्वयमस्ति । एका जाला5भिधाना सम्यक्ती द्वितीया लक्ष्मीदेवी मिथ्यात्वनी चास्ति । क्षत्र ज्वालाया विष्णुकुमार महापद्मकुमारौ पुत्रावभृताम् । अर्थकदा ज्वालादेवी जिनेश्वरस्थं लक्ष्मीदेवी च ब्रह्मणो स्थमचीकरताम् । द्वौ रथौ नगरे भ्रमितौ परस्परमेकत्र मिलितौ । तदा दलद्वये विवादो जातः । तत्रावसरे मिथः कलहमालोक्य येन मार्गेण तत्राऽऽगतो तेनैव मार्गेण राज्ञा तौ रथों परावर्तितौ । तेन महापद्मकुमारो रुष्टो भूत्वा देशान्तरमगच्छत् । नानादेश कौतुकं पश्यन् महत समृद्धिमधिगच्छन् चक्रवर्तिराज्यमाष । अथान्यदा सार्वभौम या शोभमानः स्वनगरीमागतः । नमुचिरपि हरिसनागपुरम नेषः देशान् परिश्रम्य समायातः । स महापद्मकुमारममि - लत् सोऽपि तं प्रधानपदे न्ययुक्क्त । पद्मोससे राजा विष्णुकुमारेण सह सुवताचार्यसमीपे चारित्रं ललौ । इतच महापद्मचक्रवर्ती मातुर्मनोरथं रथभ्रमणात्मकं तदा पुपूरे । विष्णुकुमारी मुनि तपस्य कृत्वा तत्प्रभावेण मेरुशिखरमासाग्र कायोत्सर्गे तस्थौ । इत्थं तपस्यतस्तस्य वर्षसहस्रं व्यत्यैव । इतश्च सुव्रताचार्यों निजपरिवारैः सह तत्र चतुर्मासीं विधातुमागात् । तदाकर्ण्य दुष्टेन नमुचिनाऽचिन्ति । यदनेन पुराऽहं निर्जित्य स्थानाश्याजितोऽस्मि । अतोऽसौ मम वध्य एवेति विचिन्त्य
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चक्रवर्तिपार्श्वमेत्य स पुरा नमासीकृतं वरमयाघत । सोऽप्यवक्-मार्गय दास्यामि, तदा दिनत्रयं में राज्यं देहीति याचितचान् । तथास्त्रिति निगद्य नृपोतःपुरमविशत्, नमुञ्चिश्चक्रवर्त्यभूत् । तदा सर्वे प्रधानपौरा अधिकृतपुरुषाः सन्तो महान्तस्तदन्ये धर्माचार्यादयस्तन्मिलनाय समाजग्मुः, परं स सुव्रताचार्यों नागात् तदा तेन नमुश्चिचक्रवर्तिना लोकमुखेन । तस्य कथापितम् । यथा-त्वं मम मिलनाय नाऽऽगाः, अतस्त्वं दिनत्रयाऽभ्यन्तरे मद्राज्यमूर्मि त्यज नो चेद्वातयिष्यामि । एवं तदादेश श्रुत्वा मुनिनाऽपि संघमुखेन तस्यैवं कथापितम् । जैनसाधवः कस्यापि मिलनाय न गच्छन्ति, न च चातुर्मास्ये बहिरन्यत्र प्रयान्ति, इति लोकबहुधाऽभ्यर्थितोऽपि नमुश्चिनिजादेशं न परावर्तयत किन्तु यात यात्वित्येवादिष्टम् । तदाचायों मेगेवि. ष्णुकुमारमेवघृचमावेद्य समाकारयत् । सोऽपि तत्राऽऽगत्य गुरुमवन्दत तत आचार्यः सर्वमादितो नमुश्चिनृपादेशमाचख्यो । ततो विष्णुकुमारो महापद्मान्तिकं गत्वा जगाद । भोः ! साधोरुपसर्ग कथं करोषि १ तेनोक्तम्-किङ्करोमि, बचनेन बद्धोऽसि, तदनु नमुश्चिपार्श्वमेत्य तं बहुधा स प्रत्यवोधयत, पर मनागपि स नाऽयुध्यत । पुरा दत्ताऽऽदेशं मुधा नाऽकरोत् । यदि स मम | राज्यतो न निर्गमिष्यति तर्हि तमवश्यमहं पातयिष्ये । तदुक्तमीदर्श श्रुत्वा विष्णुकुमारोऽवदतु-कुत्राऽपि किश्चिदपि मे भूमि दित्ससि न वा ? तदा तेनोक्तम्-भवत्कथनेन पदनयां भूमि ददामि । तत्राऽवसरे विष्णुकुमारो लक्षयोजनाऽऽयतं शरीरं विकत्पैकें पदं पूर्वस्यां दिशि द्वितीयं पदं प्रतीच्यां न्यस्य तमबोचत-हे नमुच्चे ! तृतीय चरण धर्तु भूमि ददस्य नो चेत्र स्वपिहि। तदा भूमिमप्राप्य सप्तस्य तस्य पृष्ठ एव स तृतीय चरणं न्यधात् । तेन नमश्चिर्वसुन्धरां विवेश, इत्य स तपःप्रभावासर्वमुपसर्ग न्यवारयत तादृशं रूपं च विचक्रे | सप:प्रमावादनेके सत्पुरुषाः संसारं तेरुस्तरिष्यन्ति च । इति तपोमाहात्म्यमतुलं
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मत्त्वा स्वात्महितेच्छुभिः सर्वैरपि तदर्जने प्रयतितव्यम् । प्रमादः स्वल्पोऽपि नैव करणीयः ।
अथ १७ - भावना - विषये
मन दिन मिलवो ज्यूं चाववो दंत हीणे, गुरु विण भणवो ज्यूं जीमवो ज्यूं अलूणे !
जस विण बहु जीवी जीव ते ज्यूं न सोहे, तिम धरम न सोहे भावना जो न होहे ॥ ४५ ॥
मनो विना मित्रदेर्मिलन मित्र, दन्तं विना चर्चणमित्र, गुरुं विना ज्ञानार्जनमित्र- पठनमिव, लवणं बिना भोजनमिक, भाव विनानुष्ठितो धर्मों बोध्यः । यथा यशोविहीनो नरो न शोभते, तथा धर्मोऽपि भावं विना न शोभसे, जैव फलति च । अतो भावनापुरस्सरमेव धर्मोऽनुष्ठेयस्यानुजेव फलमाप्नोति यः ॥ ४५ ॥
भरत नृप इलाची जीरणश्रेष्ठि भावे, वलि वलकलचीरी केवलज्ञान पावे ।
हलधर हरिणी ज्युं पंचमें स्वर्ग जाए, इह ज गुण पसाये तास निस्तार थाए ॥ ४६ ॥
किश्च भावनां भावयमेव भरतचक्रवर्ती, इलाचीकुमारथ केवलज्ञानमाप | तथा जीर्ण श्रेष्ठी स्वर्गीयं सुखमैत । किमधिकं यो वल्कलचीरी सोऽपि भावना बलात्केवलज्ञानमियाय । तथा चलभद्रमुनिमृगौं पञ्चमे ब्रह्मदेवलोके देवत्वेनोपपन । भावनातः कियन्तो मुक्ताश्चान्ये मोक्षमाप्स्यन्ति । अतः सर्वैरेव भावना भावनीया ॥ ४६ ॥
अथ भावना लोपरि भरत चक्रवर्तिनः ३६- कथानकम् - इह भरतचक्रवर्ती षट्खण्डां पृथिवीं संसाध्य सञ्जातदिग्विजयश्रीभासुरः स्वगृहमांगात् । तत्र च राज्यसुखमनुभवमासीत् ।
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सोज्यदाऽदर्शभवने समुपागतः सुखासीनः शरीरशोभा वीक्षितुमलगत् । सर्वाङ्ग शोममानमालोक्य केवलमनामिकामेव मुद्रिकावली-I विहीनतयाऽभव्यामपश्यत् । तदा तेनाचिन्ति सर्वाङ्ग में समषणं शोभते । इयमेकैवाङ्गुली तद्विहीना न शोभते । अहो । यदे
काप्यनामिकाऽऽभरणवियुक्तेति सर्वाझं साभरणमपि शोभा न घचे । यद्यखिलेवाभरणं न स्यात्तदा शरीरस्य शोभा कीदृशी स्थात इति विचिन्त्य सर्वाभ्य आभरणान्यपाकरोत । तदा तच्छरीरं विच्छायमपश्यत । तदेव सोऽनित्यमा भावयन धषकश्रेणीमधिगच्छन् घात्य कर्म थपयित्वा केवलज्ञान प्रपेदे । तत्कालं साधुवेयं तस्मै शासनदेवता ददौ । तदा दशसहस्रनृपैः सह स ततो विजई । चिरं पृथिवीं पवित्रयन जनान् प्रतिबोधयन्त्रष्टापदतीर्थमागत्य घात्यानि कर्माणि निहत्य भरतचक्रवर्ती मोक्षमियाय एतदनित्यभावनायाः फलमवगन्तव्यं सर्वैर्भव्यैः ।
एसस्मिन्ने विषय एलाचीकुमारस्य ३७ प्रबन्धः____ यथा---एलापुरवर्धनाभिधे नगरे कस्यचिदिभ्यस्प व्यवहारिण एलाचीपुत्र आसीत् । स शंशानन्तरं द्विसप्ततिकलासु । निपुणो जज्ञे मातापित्रोश्च ग्रेयानभूत् । तत्रैकदा कश्चन नटमण्डल आगात । तत्पुत्रीमतिरूपवतीमालोक्य म निसरां मुमोह । ततः स नटमवक-मो नट ! निजपुत्रीं मे देहि । नटेनोक्तम्-भोः कुमार ! लोके सर्वैः स्वजातिमध्ये पुत्री दीयते । त्वं विजातीयोऽसि
अतस्ते सुतामेनां न दित्सामि । पुनस्तेन प्रचुरधनलोभे दर्शिते नटोऽवदत्-भोः कुमार ! यदि मम पुत्री परिणेतुमिच्छसि, HI हि मद्वेषेण मत्सविधे स्थित्वा नाटकी विद्या शिक्षस्त्र । कमपि राजानं च विद्यया प्रसाध धनमर्जय तदा ते पुीं दास्यामि । तर-1
चोङ्गीकृत्य स पितरौ जगाद-हे पितरौ ! अहं किल नटवेपेण तत्सार्थे स्थातुमिच्छामि युवामनुज्ञां दत्तम् । यतो मे तत्पुत्री
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परिणयो भवेत् । ताभ्यामुक्तम्- हे पुत्र ! त्वाभावां तत्पुत्र्या अप्यधिकसुन्दरीं कन्यां परिणाययिष्यावः तत्सार्थ मागाः । परं सर्वानवमत्य स नटेन साकं तद्वेषेण निरगात् । तदनु स तत्सार्थे तिष्ठन् सदीयनृत्यादिविद्यासु नैपुण्यमधिगत्य नाटकं कर्तुं लग्नः । प्रतिदिनमेवं कुर्वन् धनमर्जयित्वा तस्मै नटाय समर्पयत् । अर्थकदा नव्या सह नातटस्गरमगात् । तत्र राजानममिलत्, सोऽपि तस्य नाट्यं कर्तुमादेशश्चक्रे । अथ नृपादिसकलपौरजनसुमण्डितप्रदेशमध्ये एलाचीकुमारो वंशमेकं समारोप्य चरित्वा तदुपरि नाटकं कर्तुं लग्नः । अधश्च नटी मृद वादयामास । तदा नटीरूपं विलोक्य तत्क्षणं मदनशराऽऽहतो नृपो मनसि यद्यसौ नटो नीचैः पतित्वा म्रियेत, तदैनां नीं सुखेन प्राप्नुयामिति दुर्ध्यायन कृष्णलेश्यागृहे न्यपतत् । इतः स नटो वंशेोपरि निराधारादिनानाविधं नाटकं विधाय दर्शकानां मनांसि समरञ्जयत् । सर्व दर्शका रञ्जन्तस्तं नटं प्रशंसयामासुः । ईदृशं नाटकं केऽप्यन्ये कुत्रापि न चक्रुरिति सर्वे द्रष्टारो जगदुः । अथ वंशादवतीर्य नटो राजानं प्राणमत् । नृपश्चैवमवादीत् - हे नट ! अत्र कि तिष्ठसि १ पुनर्वशोपरि चटखा नाट्यं दर्शय । विलम्बं मा कुरु, तदा धिक्तं धिक् तमित्यर्थको ढीगां ढीगामिति मृदङ्गनाद उदपद्यत । अन्ये द्रष्टारस्तस्मै पारितोषिकं ददुः । तद्गुणान् गायन नृपादेशात् पुनर्वंशाग्रे चटियो नटः । सर्वे लोका आश्चर्यमापुः कदाऽसौ वंशाग्रादधः पतित्वा मरिष्यति । इति प्रतीक्षमाणो राजा दुर्ध्यान एव निमग्न आसीत् । द्वितीयबारमपि ना कृत्वाऽघ उत्ती नृप समागतः । तदाऽपि नृपेणोक्तं-भो नट ! सुधा बहुधायः किमवतरसि १ पुनरपि वंशाय एवं नाटकविधानेन सर्वान् रञ्जय । अलमधुना विलम्बेन, मुहुर्मुहुरेवं नृपादेशं शृण्वन्तः सर्वे दर्शकाः स नटव मनस्येवं दष्युः - अहो ! मुहुर्मुहुरस्यैवमादेशकारिणो
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| राझो मनसि कुमुद्धिदृश्यते । नो चेदेवं पुनः पुनः कथमादिशति ।। अथ तदानया नटस्तृतीयवारमपि वंशाग्रमारुह्य नानाविध नाव्यं कतुं लग्नः । अधश्च सा नटी विचिन्तति स्म—अहो ! एतत्परिणामो दर्शनीयः किं भवतीति ? यथासौ राजा माधुवुद्धिर्भण्यने तथा तु नैव दृश्यते । असौ में नाथो मदर्थमियदःखमसहत । अतः परमात्मा तदीप्सितं पूरयतु सत्वरमिति सा यावद्विचारयति । तावशाग्रे तिष्ठता तेन नटेन कम्यचिच्छोष्टिनो गृहे पोडशभंगारसजितातिरूपवती युवती तत्पत्नी सिंहकेसरमोदकैमसं स्थालमादाय कञ्चन युवान श्रमर्ण श्रेष्ठतरं साधु प्रतिलाभयन्ती विलोकिता | सा प्रसिलब्धुं मुनिमधिकमाग्नहं करोति परं । साधुन गृह्णाति स्म । तदद्भुतं दृश्यं विलोक्याऽनित्यभावनां भावयन संघात्यकर्म क्षयं नीत्वा तत्कालं केवलज्ञानमाप्तवान् !
शासनदेवता सदुल्सवं व्यधात् । तदा नृपादयः सर्वे सहसोत्थाय तं ववन्दिरे । तदैव सा नट्यपि चारित्रवती बभूव । तत एलाचीकाली : का बहुजीवान्प्रतिबोध्य मोक्षमयासीचान्ते । अतः शुभभाये समुत्पन्ने भावनातोऽप्यधिको लाभो जायत इति योध्यम् । परं तादृशः |
शुभभावोदयः कठिनोऽस्ति । मुख्यभावनां विना समारसागरतः केचिदपि न तरन्ति, एतत्कथा ग्रन्थान्तरे सविस्तगऽस्ति, परमत्र तु संक्षिप्सव दर्शिता ।
पुनरपि भावनामावने सुश्रावकस्य जीर्णोष्ठिनः ३८-कथाइदैव श्वेताम्बिकानगर्यो छावस्थः श्रीमहावीरस्वामी चातुर्मासिकं तपस्तपन्नासीत् । प्रत्यहं प्रभात एव प्रभुवंदनार्थमागतः कश्चितीर्णनामा श्रेष्ठी प्रभु वन्दित्वा समेवमम्पर्थयत । यथा-'भगवन् ! अद्य मद्गहमागत्य भक्तपानादलामो दातव्य इति ।
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हा परं प्रभोः प्रत्युत्तरमनासाथ प्रभोरुपोषणमस्तीति जानन् गृहमागात् । सम्पूर्णेऽथ तत्र व्रते प्रगे समागतः स प्रभु वन्दनानन्तरमI भ्यर्थयत् । प्रभो ! अब पारणाकृते मद्वेश्म पवित्रीकृत्य लाभो देय इति । यथाज्ञसरमिति प्रत्युत्तरमादाय हष्टः स गृहमेत्य लघु| कपाटसमीपे भगवदागर्म प्रतीक्षमाणस्तस्थौ । अयमागच्छति प्रभूरिति भावयन चिरं तत्रैव तस्थौ। निर्ममः प्रसस्तु कस्यचिदभिनवपूर्णश्रेष्ठिनो गृहमागात् । धर्मानुरागमनधिगच्छन् यथा तथा मिक्षं मत्वाऽश्वाऽशनकृते पाचितं मापं स तस्मै वीरस्वामिने दत्तवान, तावसत्र गगने देवदुन्दुभिर्दध्वान । तच्छ्रुत्वाप्रभुणा क्वचिद्गहे पारणाकारीति तेनाऽवेदि । तदैव भावनावृद्धिस्तस्य च्छिमाऽभूत् । परं पूर्वमेव स भगवदागमं प्रतीक्षमाणो भावनां भावयन द्वादशाऽच्युतदेवलोकपर्यन्तां क्षपश्रेणीमारूढवान् । यदि किश्चि| स्कालमने सा भावना तस्य तिष्ठत्तहि मोक्षमप्याप्नुयात् । परन्तु देवदुन्दुभिध्यानमाकर्ण्य सा भावना तदैव त्रुटिता । अतोऽये || तस्य भावनावद्धिर्नाऽभूत् । इति हेतोविनामाहात्म्यात्म जीर्णश्रेष्टी मृत्वा द्वादशे देवलोके समुत्पेदे । इत्थं भावनायाः सर्वतः प्राधान्यं महाचं चाऽवगन्तव्यं सर्वैभव्यजनैः।
अथ पुनरपि भावनाविषये वलूकलचारिणः ३९-प्रबन्धः___ यथा-पोतनपुरनगरे प्रसन्नचन्द्रस्य राज्ञो भ्राताश्वारूढः क्रीडार्थमुद्यानं व्रजन्नुन्मार्गेण गच्छताऽश्वेन बहु दूरं नीतः सायमपि गेई नाऽऽगात् । सदा राजा लोकैस्तस्य शुद्धि सर्वतः कारयामास, परं क्याऽपि तच्छुद्धिर्न मिलिता। इतश्च स राजकुमारः कस्यचितापसस्पाऽऽश्रमे सम्प्राप्तः । सस्य च कुमारपित्रा सह गाढसंयन्धः पुराऽऽसीत् । तेन स तापसस्तं महता स्नेहेन स्वाश्रमेऽतिष्ठि.
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ततः स्वशिष्यं कृतवान् तस्य च वल्कलचीरांति नाम चक्रे । अथैकदा तथाश्रमे समुपविष्टः स यत्पात्राणि कौतूहलात्पश्य तत्र धर्मक्रियोपकरणं ददर्श । तदनु तदचनपात्र प्रमार्जनादिकं वीक्षमाणः स ऊहापोहाभ्यां जातिस्मृतिमलब्ध । तेन स भवान्तरीयं स्वस्वरूपमपश्यत् । तत्र यसेन चारित्रं पालितं तदपि ज्ञातम् । अत इदानीमपि शुभां भावनां भावयन् स क्षपकश्रेणीमधिरुह्य केवलीभूय मोक्षं प्राप । अतो धर्मभावनाभावनं श्रेयस्करमवसेयं सत्प्राणिभिः ।
पुनरपि भावनोपरि बलभद्र - मृग - रथकाराणां ४०-कथा
तथा हि- द्वारिकापुर्वी कृष्णवासुदेव-बलदेव राज्यं चक्राते । तत्राऽन्यदा तत्पुत्राः शाम्ब - प्रद्युम्नादयो वनं गत्वा बाल्यचापल्याद् द्वैपायनमृषिं लोटयष्ट्यादिना ताडयामासुः । तदाऽतिपीडितः स ऋषिस्तेभ्यः शापमेवं दत्तवान् । भो भो दुष्टाः ! यात यात, मत्पीडां कुर्वतां युष्माकमिमां द्वारिकां नगरीमग्निर्भूला भस्मसात्करिष्यामीति । अथ स ऋषिस्ता निदानकरणेन मृत्वाऽग्निकुमारोऽभूत् । ततः सोऽग्निकुमारो देवस्ती सुदेवलदेव मुक्त्वा पदपश्चाशत्को टिन गरान्तर्वासिलोकैस्तथा पुराद्वहिर्वासिद्विसप्ततिकोटियादवैः सहितां द्वारिकापुरी सकलां भस्मसादकरोत् । तदनु तो कृष्णबलभद्रो वनमुपेतौ । तत्र कृष्णस्तुपा जातस्तदा बलभद्रो जलमानेतुमगमत् । कृष्ण एकस्य तरोस्तले चरणोपरि चरणं निधाय सुष्वाप । तावद्यो हि पुरा स्वेन कृष्णस्य मरणं नैमित्तिकोत्तमाकलय्य तन्मुधा कर्तु वने वसति स्म स जराकुमारः कृष्णबन्धुस्तस्तत्पदे पद्ममालोक्य नृगश्रान्त्या वार्ण शिवा तदीयचरणमविध्यत् । अथ समीपागतस्तमुपलक्ष्य नितरामखिद्यत । तदा खेदेन किं स्यात् १ यद्भाव्यमासीत्तज्बातमेषेति मिष्टवाक्यैः कृष्णस्तमवक् — हे बन्धो ! त्वं मा शोचीः गृहं याहि । नो चेद्वलभद्रः समागत्य त्वां हनिष्यति । किञ्चिदपि
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सवात्र दोषो नाऽस्ति यतो दैनं कोऽपि मुधा कर्तुं न शक्नोति । अथ तस्मिन् गते कृष्णो ममार । तावचलमानीय बलदेवः समा-16 गात । कृष्ण सुसं मत्वाऽनेकोषायेनोस्थापितवान् | यदा किञ्चिदपि स नोसतार न चोसस्थौ। तथाऽपि स्नेहभानुष्टं ज्ञात्वा तमुत्पाव्य पपमासानितस्ततः स पर्याटत् । ततो देवैरनेकशवादिदृष्टान्तेन प्रतियोधितः कृष्णशवमग्निना संस्कृतवान् । वैराग्याचारित्रंच ललौ, स 10 वनमागत्य तपस्तप्तुं लग्नः । सोऽन्यदा पारणायै पुरमगात् । पथि कूपान्तिके काचिनलहारिणी तदूपविलोकनान्मोहमुपगता
पस्वशीभ्य घटभ्रान्त्या पुप्रगले रज्जु यावद्वध्नाति तावदन्यैर्निवारिता । तदालोक्य बलभद्रमुनिर्दध्यौ-अहो ! मद्रूपेण मोहमु• पति स्त्रीजनः। अनर्थः संभवति मयास्त: पुरमध्ये नाऽऽगन्तव्यम् । वन एक प्रासुकाऽऽहारं लब्ध्वा व्रतयारणं विधातव्यमित्यभिगृह्य र
वनमागात । तत्र तस्योपदेश श्रुत्वाने के पशवोऽपि धर्ममापुः। सत्रैको मृगः मुश्रावस्तच्छिष्य इव सदैव तस्य शुद्धाहारलब्धये । विचिन्तयति स्म । तत्राऽन्यदा कोऽपि रथकारः सपरिवारः सत्काष्ठं छेत्तुमागात् । स रसवती पक्वा यदा भोक्तुमैच्छत् तदा स 2
मृगेण सहाऽऽगच्छन्तं पलभद्रमुनि ददर्श । तस्गिमवसरे स्वं धन्यं मन्वानः स भावेन सह प्रासुकाहारं तं प्रत्यलाभयत् । यद्यहमपि । | मानुषो भवेयं तर्हि एवमेव मुनये शुद्धमाहारं दद्यामिति मृगस्तदानीं शुभभावनामकरोत् । अद्य मे दिनं धन्यं यन्मुनिदर्शनप्रति
लामादिकमिह बनेऽप्यभूत् । इत्थं रथकारोऽपि मुनिदानदानात्सद्भावमकरोत् । मुनिरपि निजध्याननिमग्न आसीत् । अस्मिन्नवसरे । सद्भाव भजतां तेषां त्रयाणामुपरि स एवार्धच्छिन्नप्रायो महातरुतिनुन्नः पपात । सत्पतनेन त्रयोऽपि मृत्वा पञ्चमं ब्रमदेवलोकं | प्रापुः । अमीषामीशदेवलोकप्राप्तिभावनात एव समुदपद्यतेत्यवगन्तव्यम् । बलदेवमुनिकथानकमतिविस्तरं ग्रन्थान्तरादवगन्तध्यमिह तु भावनाप्रसङ्गात्संक्षिप्तमेवाऽदर्शि ।
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। अथ १८-क्रोध-विषयेतृण दहन दबंतो वस्तु ज्यूं सर्व वाले, गुण रयण भरी स्यूं क्रोध काया प्रजाले । प्रशम जलद धारा वहिने क्रोध वारे, मनुअ भव समारे सद्गुरू सीख धारे ॥४७॥ क्रोधो न विधेय इति दृष्टान्तेन द्रढयन्नाह-इहाऽतिगर्हितः क्रोधोऽग्निस्तृणमिव गुणरत्नराशि सम्पूर्णमन्यदः शरीरं क्षणमात्रेण
गरेप कोयाऽग्निः प्रशमजलघुष्टि विना न साम्यति । यदापाणी शमतां भजते तदैव क्रोधः शाम्पति-नश्यति नान्यथेति भावः । किश्च-यदा भव्यो जीवः सद्गुरुशिक्षा हृदि धारयति तदैव मनुष्यत्वं सफलीकर्तुमर्हति । अतः सद्गुरुशिक्षा हदि धृत्वा सर्वैरुपशमवद्भिर्भाव्यम् । क्रोधस्तु सर्वथा हेय एवेत्यवगन्तव्यम् ॥ ४७॥
धरणि 'परशुरामे' क्रोध निःक्षत्रि कीधी, धरणि 'सुभुमचक्रे' क्रोध निब्रह्म कीधी। नरक गति सहायी क्रोध ए दुःखदाई, वरज वरज भाई ! प्रीति कीजे वधाई ॥४८॥
अन्यच-इह पुरा कश्चन परशुरामः क्रोधादेव सकलां महीं निःक्षत्रियां व्यधात् । तथा सुभूम चक्रवर्तीमां पृीं ब्रमहीनाम# करोत् । अत्रापि क्रोष एवैतावद्धिसानिदानम् । हे भव्या ! अतो भवन्तो नरकदातारं सार्वलौकिकक्लेशकारिणं क्रोधमेने सहर्ष 2 त्यजत । कि बहुना १ यः क्रोधो मित्रमप्यमित्रं क्षणादेव विधत्ते तमवश्यं त्यजन्तु पुनरखिलैः सार्ध प्रीति भजत ।।१८।।
____ अथ क्रोधोपरि परशुराम-सुभूमचक्रवर्तिनोः ४१-प्रबन्धःयथा-प्रथमे देवलोके द्वौ देवो प्रत्यई मिथो धर्मविषये विवदमानावास्ताम् । तत्रैको मिथ्यात्वी चैको जैनी । तावन्यदा
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स्वस्वचर्मस्य महिमानं वर्णयन्तौ तत्परीक्षाकृते मर्त्यलोकमैताम् । तत्राऽवसरे मिथिलानगरीनस्पतिः स्वभवन एवं मस्तकलुञ्चनं विधाय संयमं लात्वा विहरन् ताभ्यां दूरादालोकितः । तमागच्छन्तं वीक्ष्य जैनदेवेन मिथ्यात्वी मणितः - भोः ! पश्य मया धर्मः परीक्ष्यते, इत्युदीर्य तन्मार्ग एकतो लघुमेकान् परतस्तीक्ष्णमुखाच्छुलान् विकृत्य तस्थतुः । तावत्तत्र समेतः स साधुरेकत्र सूक्ष्मजीचानपरत्र शूलान् विलोक्य व्यचिन्तयत् । अहो ! किमत्र विधेयम् १ आत्मविराधनात इहैव किञ्चिदःखं भविष्यति । परं जीवविराधने सति नरके महती यागादिरं भाषा वा शूलाश्रितेन मार्गेणैव निरगात् । तदा चरगाभ्यामसृक्षु निर्गलत्स्वपि मनागपि खेदं नाऽऽनीतवान् । तदा जैनदेवस्तच्चरणयोर्निपत्य तमस्तावीत् कथितञ्च मो मिध्याविन 1 जैनधर्मस्य कीटशी महिमाऽस्तीति दृष्टं ? अथाऽग्रे गत्वा तो देवावेकस्यामटव्यां समागत्य तपस्विनं जमदग्निमपश्यताम् । तदा कृष्टक्षेत्रे न गन्तव्यं, पतितं फलादिकं मक्ष्यम् । इति मतमालम्बमानः स्वान्ये सर्वे मलिना न साधीयांस इति जानानो देवो जैनदेवं कथितवान् । भो ! अत्र स्थीयता चैत्र तपस्वी परीक्ष्यताम् । इत्युदीर्य चटकमिथुनीभूय जमदग्निमुनेरखिलम्बिते सबने घवलतरे श्मश्रुणि नीडं विरच्य तस्थौ । तत्र चटकश्च टकीमवक — हे प्रिये ! त्वमत्र विष्ट, अहं कस्मैचित्कार्याय बहिर्गच्छामि । तदा साऽत्र - हे नाथ ! त्वमन्यत्र मा याहि । तेनोक्तं कथम् १ सयोक्तं तत्कारणं कथयामि निशम्यताम् ।
काचिदन्या प्रिया रागिणी भूत्वा किलावरोधयेत् । तदा तव विरहादहं दुःखिनी स्यामतो वच्मि त्वं मागा इति । तदा तस्या विश्रम्भते चटकोऽनेकशपथान करो - यथा हे प्रिये ! यद्यहमन्यस्या वशीभूय त्वां त्यजानि वा नागच्छानि तर्हि मे महापातकानि लगेयुरिति परं तथैकमपि नाऽमन्यत । तदनु तेनाऽतिप्रार्थिता साध्वक हे प्राणेश! अन्यशपथैरल मेकस्यैवास्य
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मुनेः शपथं कृत्वा जिगमिषसि नहि बज । तदोक्त सेन हे प्रियतमे ! कार्य कृत्वा वदन्तिक नागमिष्यामि ततत्तापसस्प यानि | डी- पापानि सन्ति तानि सर्वाणि मे लगेयुः। हे प्रिये । एतानि किल्बिपाणि पट्टीत योग्यानि न मन्ति, तथापि त्वदर्थमई गृहामि । ॥ इत्थं तयोर्वचनमाकर्ण्य प्रवृद्धकोपानलः स तापस उभाभ्यां पाणिभ्यां घट चटकीच गृहीत्वा पप्रच्छ । कि रे ! जगति महापा
पिष्ठ मां कथं युवामन्ताम् ? सद् बृतम् । चटकनोक्त पापकारणं पश्चावदिष्यामि प्रथम स्त्रमेय कथय कियन्त धर्म त्वमकथा | इति । मया ते सर्व गुणा लक्षिताः परं त्वमधुनापि साधुगुणं नैव पेत्सि, सन्विविधो धर्मस्त्वयि कथे संभाव्येत ? तदा तापसो |
न्यगदत--रे घटक ! त्वं किं कथयसि ? पक्षी भूत्वा त्वं यदि धर्म पेरिस तर्हि स्वदपेक्षयाधिकमेवं जानामि । तत्र कि सन्दि-1 शहते ? पुनश्चटकोऽवदत्-मो मुने ! यदि जानासि तर्हि कथं न निगदसि ? । तापसोऽचक् अहं जानामि वा न जानामि तेन ते । 1 किम् ? यन्मा महापापिष्ठमुक्तवानसि सद्दर्शय । इति तापसंग्रह विलोक्य चटकस्तदैव कथयितुं प्रावीत । तथाहि-हे तापस ! Ha] निशम्यतामह यत्कथयामि । त्वदीयदेवीभागवतादिपुराणे व्यासेनोक्तम्--
अपुत्रस्य गतिनास्ति, स्वगों नैव कदाचन । 'तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, स्वर्ग यान्ति सुरवं नराः ॥ १॥ .
इति हेतो. पुत्रमनुत्वा यदकारि यस्क्रियते यश्च करिष्यत्य ग्रे तत्सर्य निष्फल मेष जानीहि तदा पक्षिवचनमीदशमाकZE त्यतथ्याना स मनसि व्यचिन्ताम् । सत्यमेवैतदसौ पक्ष्यपि मचोऽधिक वेति । इति "निश्रित्य तत्कालमुत्थाय समीपवर्तिनगरे नृपान्तिकमा समागतं विलोक्य नमस्कारादि विधाय मृपस्तमपृच्छत् । भो महात्मन: किमर्षमागतोऽसि १ तद्वद, रेनोक्तम्- | हे राजन् । सप्तकन्यास्ते सन्ति, महामेका दीयता । ने दास्यसि चेत्सकुली "वो पक्ष्यामीति श्रृंखला समयो नृपस्तमाख्यत् । हे
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तपस्विदः यत्र कन्यास्ताः क्रीडन्ति तत्र चाहि वा त्वां कामयेत वां गृहाण । इति नृपेणाऽभिहिते स तत्राऽऽगतवान् । तं भीषण free सर्वाः कन्याः पलायिताः । एका कनीयसी तत्रैव तस्थौ । तस्यै बैंक पीजपूरफलं स प्रायच्छत् । सापि तं गृहीतवती तदेव तामुत्पाव्य नृपान्तिकमनयत् । राज्ञाऽपि विवाहविधिना सा रेणुका कन्या तस्मैः दधा, करमोश्वन काले घनधान्य दासदासीगोमहिषीरथतुरङ्गादिकं यथेष्टमदायि, तत्सर्व लात्वा सभार्थी मुनिः स्वाश्रममानात् । तत्र स्थिता सा रेणुका यदा योवन' are तदा भर्त्तारमेषमाचचक्षे । हे स्वामिन् । अभिमन्त्रितं चरद्वयं ( हल्यानं ) मे देहि । एकमहमशिष्यामि, अपरं निजभगिन्यै दास्यामि । तापसोऽवक्ते स्वता वाऽस्ति १ साध्य - शिकार नवरदेव ज्यदविश्रद्धयमभिमन्त्रय तस्वै ददौ । साप्येकं स्वयमयुक्त, द्वितीयं स्वत्रे प्रेषयामास । तत उमे अपि स्वसारों गर्भो धृत्वा समये पुत्रौ सुषुवासे । अथ कियत्यपि समयेऽतीते सा रेणुका भर्तारमापृच्छय स्वसुर्मिलनाय हस्तिमागपुरमगात् । तत्र तामालोक्य तद्रूपमोहितो राजा तां रेणुकां स्वैरममुक्त | तेन दुराचारेणान्तर्षनीमपि तामवेत्य जमदग्निस्ततः स्थाश्रममानीतवान् । इतव तापसी विद्यानिपुणस्तत्कुक्षिजः परशुरामः कोपेन शीला मातरं हतवान् । तदनुः हस्तिनागपुरमागत्य भ्रष्टशीलमनन्तवीर्य राजे मध्यम संस्तत्पुत्रः कृत्यवीर्यस्तस्थितर जमदग्नि निधने निनाय | aa एवमानकोप: परशुराम एकविंशतिवारमिमां वसुधां निःक्षत्रिय व्यवत | याः काचिदन्तस्वत्वयो टास्ता अपि जघान । मारिते कृत्यवीर्ये तत्पस्नी सगर्भा तयेन नश्यन्ती 'पनमागस्य कस्यचितापसस्याने भूमिगृहे छनमासीत् तत्रैव तस्याः पुत्र उदपद्यत । भूमिगृहे जावतया सुसूम' इति तन्नाम धृतवती । ततस्तं स तापसः सर्वासु कलासु सुशिक्षितमकरोत् । अथैकदा सज्जातयोचनः स मातरमपृच्छत । हे मातः! पृथ्वीयत्येव वर्तते । तयोक्तं हे पुत्र पृथ्वी
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महत्यस्ति, परमहमत्र भीत्या तिष्ठामि । पुत्रोऽवदत् कुतस्ते भीतिः । तयोक्तम्-वत्स ! श्रूयताम् परशुरामस्ते पिपितामहौ निहत्य - हस्तिनागपुरे राज्यं करोति । किमधिकं वच्मि–स दुर्मद इमां धरामेकविंशतिधा गर्भगतैरपि क्षत्रियसन्तान शन्यामकरोत् । सत | एव में महती मीतिरस्ति, तदाकर्णनेन समुत्पनकोधः स तत्कालमेव भूमिगृहाद् वहिर्भय परितः पश्यन् क्रमतः कियद्भिर्दिनहस्तिनागपुरमगात् । तत्र चक्रप्रहारेण निजपित्रादिधातिनं परशुराम निहत्य पैकं चक्रवर्तित्वमग्रहीत् । ततः सोऽप्येकविंशतिधा | पृथिव्यामब्राह्मण्यं विदधे । भो भन्याः ! पश्यत, एतौ परस्परं सम्बन्धिनावपि क्रोधावेशादीदृशं गर्हित कर्म चक्राते । येन तयोर्महानरके चसतिर्जाता । अतः क्रोधः सर्वथा त्याज्यः । क्रोधेन वशीकृतस्य कोटिजन्मार्जितानि संयमफलानि विलीयन्ते, नरके च निवासो जायते । अतः शान्ति विधित्सुना जनेन कस्मैचिदपि नैव कोपनीयम् ।
अथ १९-मान-विषयेविनय वन तणी जे मूल शाखा चिमोड़े, सुगुण कनक केरी श्रृंखला बंध तोड़े।
उनमद करि दोड़े मान ते मत्त हाथी, निज यश करि लेजे अन्यथा दूर आर्थी ।। ४९ ॥ इह जगति मानलक्षणः प्रमत्तइस्ती विनयतरोमूलं शाखां च त्रोटयन सभूलोच्छेदं कुरुते । तथा सद्गुणरूपां स्वर्णशृजला जिचा स्वैरमितस्ततो धावति । अतः सकलसद्गुणविध्वंसकारी मानः सर्वथा सईय एव । लेशतोऽप्येष यस्मिस्तिष्ठति तस्माद्दर एवं विमुखीभ्य बिनयादिसर्वे गुणा पर्तन्ते । अत्रार्थ बाहुबल स्प दृष्टान्तोजगन्तव्यः । तेन स्वात्मना त्यक्तेहारे सटित्येव तस्य केवलज्ञानमप्यभूदिति प्रसिद्धतयात्र नाग्लेखि ॥ ४९ ।।
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विषम विष समो ए मान ते सर्व जाणो, मनुज विकल होवे एण डंके जड़ाणो ।
इह न परिबरयो जो मान दुर्योधने दो, निज चल विकाता मानडे वहंतो ॥ ५० ॥ किचाऽसावतिभयंकरो हालाहल इव जनान व्यामोहयति । तथा मानाहिना दष्टा जना अचेतना इन जायन्ते । अतोमानमुक्ता लोका धन्या गीयन्ते । दुर्योधनो बलीयान् गुणवानप्यहङ्कारशादेव सपरिवारो विनाशमगात ।। ५० ।।
__ अथ मानेन विनाशोपरि दुर्योधनस्य ४२-कथातथाहि-पुरा पश्च पाण्डवा दुर्योधनाद्यैः सह कुरुदेशस्याऽधिपा आसन् । परमेकदा मायाविना दुर्योधनेन द्यूतक्रीडने कपटेन पाण्डवाजित्वा तान वनवासिनो विधाय राज्यमाददे । अथ पाण्डवा अपि वनवासप्रतिज्ञामापूर्य द्वारिकामगुः । तत्र ते कृष्णेन सत्कृत्ताः सुखेन तस्थुः । तदनु श्रीकृष्णो दूतेन सुयोधनमेत्रमचीकथत-भो दुर्योधन ! पाण्डवा बनवासाचसानेञाऽजताः सन्ति तद्राज्य समर्पय, नो चेधुद्धाय सज्जीभव । इति दूतोक्तमाकये स दुर्योधनो दूतमत्रदत्-मो दूत ! मदुक्तमशेष कृष्णस्य वाच्यं ययावत्ते पाण्डवाः सिंहान्मृगा इव मत्तो राज्य जिघृक्षन्ति किम् ? तेषामेषाऽऽशा शशशृङ्गायमाणा प्रतिभाति तांस्त्वहं दणाय मन्ये । तदर्थ समराढम्बरोऽपि में पाकर एवास्ति । तथापि ते यदि मचो राज्यमभिलषन्ति तहि समरसज्जितमेव मामवगच्छ । इत्युक्त्वा विसृष्टो इतो द्वारिकामागत्य यथावत् कृष्णमवोचत । तच्छ्रुत्वा तदैव श्रीकृष्णं सारथीकस्य पाण्डवाः प्रचेलुः । तानागवान् वीक्ष्य कौरवा अपि ससैन्यास्तदभिमुखं ययुः । ततो युद्धे प्रवर्तमानेऽखर्वगर्वधरं सुयोधनं ससैन्यं निहत्य ते पाण्डुनन्दना राज्य
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जगृहुः । अयमेतत्सारांशः सुयोधनो मानी भवन संकुलो यथाऽनश्यत् तथैव गर्वकारिणामन्येषामपि सर्वमाशो भवति । अतोऽहङ्कारा सर्वथा सर्वैरेव त्यान्यः
अथ २० - मायोपरि सदुपदेश:----
निठुरपणु निवारी डीघड़े डेज धारी, परिहर छल माया जे असंतोषकारी ।
मयुर मधुर बोले तो हि विश्वास नाऽऽणे, अहिगिलण प्रमाणे मायिने लोक जाणे ॥ ५१ ॥ इह जगति ये मायाविनो भवन्ति, ते मुखे मधुरा हृदये तु निर्दया: क्रूरतामेव त्रियन्ते । भव्यानपि निजकपटजाले पात यन्ति । सन्तोषलेशोऽपि तन्मनसि नैव तिष्ठति । मायाविनां मधुरवचनेऽपि विश्वासो न भवति कस्याऽपि । यथा मयूरो मिष्टमालपस सपुच्छं मिलग्येत | तो माना देगा. विदितप्रायमेवैतत् यन्मल्लिनाथस्वामी यावज्जीवं सावधं किश्चिदपि नाचरितवान, केवलं मायया तपोवृद्धिमकृत, तावतैव तस्य स्त्रीवेदं कर्म बद्धमभूत । अतो भवभीरुभिरुत्तमजनैस्त्याज्यैव माया ॥ ५१ ॥
मकर म कर माया दंभ दोष छाया, 'नरय सिरिय केरा जन्म दे जेह माया |
बलिनृप छलवाने विष्णु माया वहंता, लघुयपणु लं जे वामना रूप लेता ॥ ५२ ॥
कि माया दोषरूपा विषवृक्षवल्ली विद्यते । जनांश्च नारकतिर्यग्गतिं नयति । अतो हे लोका ! यूयं तां मायां मा कुरुत । बलिनृपवना वाममीभूय वासुदेवोऽपि श्रीकृष्णो लोके लघुतामापत् । ये कपटिनस्तत्सङ्गतिरपि स्वस्थताम् । यतस्ते मायाविनोऽतिि यतमानिजमातापित्रादिस्वजनानषि कर्मबन्धनमवगष्पः कुबुद्धच्या षञ्चयन्ति । मध्यानपि स्वीयकपटजालेनाsभोगति प्रापयन्ति ||५२॥
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अथ २१-लोभ-विषये- ...... सुणि वयण सयाणे चित्तमां लोभ माऽऽणे, सकल व्यसन केरो मार्ग ए लोम जाणे । इक विण पण एने संग रंगे म लागे, भव भव दुल दे ए लोभने दूर स्पागे ॥ ५ ॥ भो भो लोका ! यूयं धूर्तादेमिष्टयचनश्रवणेन मनसि मनागपि लोभ मा कुरुत यदसौ व्यसनाद्यसत्कृत्याना मूलमस्ति सर्वापदां च निदानमस्ति । लेशतोऽपि लोभसङ्गमे ते सति जन्मजन्मान्तरावं दुःखमाप्नुवन्ति नराः । यतो लोमेन चलचित्तास्ते | परत्र रौरवीयां वेदनामिहापि चातिदुःखानि सहन्ते । अतः सर्वप्रकारेण लोभस्त्यक्तव्यः ॥ ५३ ॥
अथ लोभेन क्लिश्यतः सुभूमचक्रवर्तिनः ४३-कथापुरा किल सुम्मचक्रवर्ती मारतस्य पट्खण्डानि साधयिस्वा लोभनस्तोऽभवत । सर्वतोऽधिकोऽहं भवेयमिति बुद्धथा धातकीखण्डस्याऽपि तावन्ति खण्डानि साधयितुमैच्छत । तदनु लवणसमुद्रे देवसहस्रयाही धर्मरत्नममुञ्चत तत्र च सकलबलयुतः स आरूखवान्। ततः सहस्त्रदेवास्तश्चर्मरत्न नीवा सागरान्तश्चलः । फियहरं गत्वा तेष्वेको देव एवं दध्यौ-अहो! मारसस्त्र पटसण्डसा
धने कियन्तो वर्षा याताः। पुनरिदानीं यत्रैकमपि खण्डं कदापि कनाऽपि न साधित, तत्र पदण्डसिपाधविषयेष प्रयाति । किपद्भिः । हा वर्षे साध्य स्थादित्यनुमातुमपि न शक्यते । अत एकदा गृहं समेत्य प्रेयसी मिलित्या पुनरिहाऽगमिष्यामि। तावदेकस्मिन् मयि गते
चर्मरत्नवाइने कापि हानिन स्यादिति विचिन्त्यैको देवस्तन्मुक्त्वा गतः । इस्थमनुक्रमेण सर्वेऽपि तथा विचिन्त्यदेव वनस्पनुः ।
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ततः पापोदयात्ससैन्यं चक्रवर्तिचर्मरत्नं तदैव तल्लपणाब्धौ ममज्ज | सर्वे कालं चक्रुः, अहो ! देश अपि यमसेवन्त, तस्यापि | चक्रवर्तिनो लोभाऽऽधिक्यानाशोऽभूत्तर्हि परेषां का वार्ता ? इति हेतोर्महाक्लेशकारी लोभोऽसौ सर्वथैव हेयः ।
कनक-गिरि कराया लोभी नंदराये, निज अरथ न आया ते हर्या देवतायें।
सकल निधि लहीजे स्वायते विश्व कीजे, मन तिणधिन रीझे लोभ तृष्णा न छीजे ।। ५४ ॥ __ अन्यच्च शृणुत-पुरा प्रसिद्धिभाग् नन्दनामा राजा स्वर्णगिरिमकरा परं तस्योपभोगस्तेन नाऽकारि, किन्तु देवरपद्धतः । स तु सृष्णोदधिनिमग्न एव कालेनाध्यासि । सर्वान् निधीन सर्वाश्च वसुधामासाधाऽपि लुब्धस्य मनः कदापि न विमति । किन्तु घृताहुत्या वतिरिवाऽधिकं वर्धत एव ।। ५४ ॥
अथ लोभत्यागात्याप्तकेचलज्ञानस्य कपिलद्विजस्य ४४-कथा-- __ यथैकस्मिन्नगरे कश्चिद्राजा प्रभाते माषद्वयं सदैव स्वर्ण दातुं सङ्कल्पितवान् । तत्स्वरूपं तत्रस्थः कपिलनामा कोऽपि विद्यार्थी विप्रः श्रुत्वा लोभग्रस्तत्वात् कियती राविरवशिष्यत इत्यजानन्मध्यरात्र एव समुत्थाय स्नातानुलिप्सो मृत्वा तल्लातुकामो नृपसौघम्प्रत्यचलत् । मार्गेऽथ रक्षकैश्चौरधिया गृहीतः प्रभाते तं नृपान्तिकमनयत् । अथ परीक्षया नाऽसौ चौर इति निश्चित्य राजा तमपृच्छत् । भोः कस्त्वम् । तेनोक्तं राजन् ! दास्या लक्ष्म्या प्रेरितस्त्वदन्तिकमागच्छन्नहं रक्षकेण तस्करधिया गृहीतोऽ भूवम् । वदाकर्ण्य राज्ञाऽचिन्ति, अहो ! ममैतमगर ईदृशो दरिद्रो वसति । तदनु फरुणया राजाचक्-भो ब्राह्मण ! त्वमीप्सितं
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मार्गय, यचं याचिच्यसे तदवश्यमई ते दास्यामि तत्र शङ्कांमा कृथाः । ममाशोकवाटिकायां गृह वा याहि मनसि समालोच्यावाऽऽ. गच्छ । सतो नृपोक्तमाकर्ण्य तत्र गत्वा स चिन्तति स्म तथाहि-नृपो मे यथेप्सितं दित्सति मया किया कि याच्य ? शतं द्विषत पश्चशत सहस्रमयुतं लक्षं कोटिपर्यन्तमघावचन्मनः परमथाऽपि तृष्णां न जहौ । ततोऽप्यधिक दधार किमधिकं तद्राज्यजिघृक्षाप्युदपद्यत । प्रान्ते कुत्रापि मनःस्थैर्यमनधिगत्य मनस्येवं दध्यौ-सर्वा अपि सम्पदा क्षणिकाः सन्ति । मामेते विनश्वराः पदार्या | हास्यन्ति, किमहमप्येताच त्यक्ष्यामि ? इत्थं शुभकर्मोदये भवप्रपञ्चेषगते संयमरसलीनो व्यचिन्तत्तदा कपिलः । तथाहि
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पबह । दो मासकणयकर्ज, कोडीए विन निट्टियं ॥१॥
प्राणिनां यथा यथा लामो भवति, तथा तथा लाभाल्लोभो वर्धते । सत्रै दृष्टान्ततया दर्शयमाह-दो मासेति पुरा मापद्यमात्रस्वर्णकृते ममाऽऽसीद्या तृष्णा सा कोट्यापि न निष्ठितार्था-तृप्ता नाऽभूत किन्तु ततोऽप्यग्रेऽग्रेऽधिकतया च ववृधे । अतः सैव सर्वाऽधिकक्लेशकरी, केवलमेकः सन्तोष एव जगति सर्वाऽतिशयसुखदायीति मत्वा स कपिलद्विजस्तत्क्षगमेव पञ्चमुष्टिलुञ्चनं विधाय नृपान्तिकमागात् । तदनु यदा नृशय धर्मला दया समस्थित । तदा तं नृपोऽपृच्छत्-भोः ! किमकारि ? तेनोक्तम्-यदादिष्ट भवता तदेव श्रेयस्कर विदित्वा चारित्रमग्राहि । अशोत्याय नृपेण नमस्कृतस्ततो विजडू मार्गे च पंचशतचौरान प्रत्यबोधयत् । तदनु निर्मलमप्रतिपाति केवलज्ञानमाप्य स कपिलमुनिर्मोक्षमयासीत् । तस्येव यो लोभं त्यक्ष्यति स सुखी भविष्यति, यो न | स्पक्ष्यति स महादुःखी भविष्यति नरकादिके च । अतोऽधिकलोभो हेय एव सद्भिः ।।
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अथ २२-दया-विषये... सुकृत कलपवेली लच्छि- विद्या सहेली, विरति रमणि-केली शांतिराजा महेली।
सकल गुण येगी जे एका जीवली, पिल छ बरी ते ताधिए मुक्ति मेरी ॥ ५५ ॥ ६ यथा-इह संसारे नूनमियं या सुकृतकल्पवल्ली विद्यते । लक्ष्मीदेव्या अति स्निग्धा सखी, झानस्य सहधरी, विरसिमक्षा | या रानी तस्याः केलिशान्तराजस्य सदन, सर्वेषां सदगुणानांच निदानमीदीं जीवदयां मनसि धृत्वा ये जीवानवन्ति ते निधयेन
मुक्ति लभन्ते । अतो हे मव्यजीवाः ! एषा जीवदया बहुगुणा विद्यते । एनामवलम्ब्य बहवो जीवाः संसारसागरमतरन तरिष्यन्ति हा तरन्ति च । " सव्ये पाणा सव्ये भूआ, सम्वे सत्ता सब्वे जीवा न हतचा " इति सकलतीर्थकृतामावेशः । सर्वस्व | भव्यजीवैः सादरेणातिमान्यः ॥ ५५ ॥
निज शरण परेवो शेनथी जेण राख्यो, षटदशमजिने ते ए दया धर्म दाख्यो ।
तिह हृदय धरीने जो दया धर्म कीजे, भवजलधि तरीजे दुःख दूरे करीजे ॥५६॥ - अन्यच-पथा षोडशस्तीर्थक्षरः शान्तिनाथो भगवान् निजशरणमागत पारास्तमवन् दयाधर्ममदर्शयत् । इत्थमन्योऽपि कोऽपि दयार्दयासुधर्तिभ्यते, स भवप्रपश्चान्मोक्ष्यते । इति सर्वतः प्रधाना दया विधेयैव ॥ ५६ ॥
कपोतदयापालनोपरि मेघरयराजस्य ४५-प्रबन्धः• ! पुरा श्रीशान्तिनाथजीवो दशमे भवे मेघरथाभिधो राजाऽभूत् । स चैकदा सदसि सुखासीनः समागवं वेपमानमेक पारी
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पन्यता पोपा सिचानमा पक्षिममामत इष्टवान् । तत्समये स श्येनपक्षी नृगिरा नृपमेवमादा है राजन। त्वमेक मुष्करोषि, एक हसि पर स्वयि धर्ममर्मले नैतत्समटते । अहं तु त्रिमिर्दिनः क्षुधापरिपीडितोऽस्मि भी क्षुधातुरपश्यतोSपि तव दया किमिति नोदेति ? । मम भक्ष्य सवान्तिके समागतमस्ति तन्मे समर्पय येनात्मानं वर्पयाणि क्षुधा मामधिकं वाघते, तद्वेदना मातापरं न सधते । महमाधिपते दास्यामि तब समये नृपोजदता हे सिंचानक ! त्वमितोऽयन्मार्गव, तत्ते समर्प्य तब क्षुधां
शमयामि । सोऽवक्-अन्य प्रयोजनं किम् ? मम तु तदेवेष्यते । मम मांसाऽननं विना कदापि मनागफि तिर्न संभाव्यते ।। हैं। अतस्त्वच्छरणे समागतं मां भक्ष्यमेव समर्पय । तदाकर्ण्य राज्ञाऽचिन्ति-असौ सत्यं वक्ति सर्वेषां नैसर्गिक आहार एव प्रेयान
भवति । अतोऽमुष्मै मांसाऽशिने मालमेव देयम् । पर यदि कपोतं दास्ये लाई कीतिहानिरधर्मश्च हिंसालक्षणो भविष्यति । इति स नैव देयः किन्तु तत्परिमितमांसमेव स्वाझं छित्त्वा देयमस्माभिरिति विचिन्त्य तत्कालं तुलायामेकत्र वं कपोतममुञ्चत् । चैकत्र स्वजां छित्त्वा २ पललममुञ्चत । परं देवमायया कपोतादधिके पलले मक्तेऽपि तत्साम्यं नाध्यगच्छत । सतो राजा प्रधानादिभिर्भणित:-हे स्वामिन् ! एकस्य कपोतस्य कृते निजममूल्यं शरीरं किं विनाशयसि ? नैतत्संघटते । यदुक्तम्| जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत । परं तथापि गिरिवि धर्मनिश्चलो राजा ' देई पातयामि कार्य साधयामि' इति निश्चित्य
सकलजननिषेधमगणयनल्पैसियदि तत्साम्य न जायते तर्हि सकलैरपि शरीरमांसैः स रक्षणीय इत्यवधार्य सकलं वपुः । | सङ्कल्प्य स्वयमेव तुलामारोहत् । तत्राऽवसरे दरसाहसधैर्य विलोक्य स निजदेवरूपेण प्रकटीभूय प्रणम्य राजानं प्रशस्य स्वस्था-1 नमगात । राज्ञोऽपि तनुः पूर्वतोऽप्यधिकोज्ज्वलाभवस । इत्यमेष दयासु सवैरेव दाढय विधेयम् ।
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अथ २३-सत्य-विषयेगरल अमृत प्राणी! सांची अग्नि पाणी, स्रज सन आहि ठाणी सांच विश्वास खाणी ।।
सुमसन सुर कीजे सांचयी ते तरीजे, तिण अलिक तजीजे सांच वाणी पदजेि ॥ ५७ ॥ भो लोका ! इह जमति सत्यप्रभावतो गरलममृतायते अग्निश्च जलवच्छीतलीभवति । सोऽपि स्रगिवाचरति, लोके यशः । कीर्तिश्च प्रसरति । किञ्च सर्वेषां विश्वासपात्रं सत्यमेवाऽस्ति । देवा अपि सत्येन प्रसीदन्ति | सत्यादेव दुस्तरो जगत्सागरस्तीर्यते, अतः सर्वमेषावचस्त्यक्त्वा सत्यमेवाश्रयितव्यम ॥५७॥
जग अपजस वाधे कूड़ वाणी वदंता, 'वसुनपति' कुगत्ये साख कड़ी भरता।
असत वचन वारी सांचने चित्त धारी, वद वचन विचारी जे सदा सौख्यकारी ॥ ५८॥ मिथ्याभाषणेन लोकेऽपकीर्तिः प्रसरति । अलीकसाक्ष्यदानादाजन्मसत्यभापी न्यावी च व सुराजोऽपि दुर्गतिमाप । अतः | सरैव लोकद्धये श्रेय इच्छद्भिर्मेषावादं त्यक्त्वा सत्यं मितं समुचितमेव वक्तव्यम् ।। ५८ ॥
मिथ्यासाक्ष्यदानान्नरकं प्राप्तस्य वसुराजस्य ४६-प्रवन्धःतथाहि-क्षीरकदम्बकनाम्नोऽध्यापकात तत्पुत्रः--पर्वतो, वसुराजो, नारदश्चैते त्रयः सहैव पेटुः । कालगते वस्मिन् पर्वतस्तत्पुस्तत्स्थानेऽध्यापकोऽभूत् । अथैकदा नारदः कुतश्चित्तद्गृहमागतवान् । तत्राऽवसरे पर्वतः “ अबोतव्यमित्यस्मिन् पाठेजशब्दा
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मजं छार्ग शियमच्यापयत् । तदाकर्णयबारदस्तमवन-मोः पर्वत ! स्वमनर्थ क्यारोषि ! गुरखा पाठनका खा मा बसु18 राजश्च त्रैवार्षिक वीहिमेव 'अज'पदवाच्यमाघचक्षिरे । पर्वतोजदत त्वमेवाप्लीके जल्पसि, अहं तु मयोकं गुमिस्त
वालपामि । इत्थं तयोर्महान विवादो जातः । प्रान्ते द्वाभ्यामेतद्विवादनिर्गता सहाध्यायी वसुराजोवधारितः । दितीयेनि । तौ नारदपर्वतौ विवदमानौ स्तः, इति विदित्वा तन्माता रहसि पर्वतमकोचत-दे पुत्र ! नारद एव सत्यं वक्ति । अहमपि त्वापत्मखात्तथैव जानामि राजा च सत्यवक्ताऽस्ति, स कदापि मिथ्या नैर वदिष्यति ततस्तेऽकीर्तिः प्रसरिष्यति। पुत्रोऽवदत-हे मात!! वं नृपान्तिकं याहि, मदुक्तं यथा सत्यं भवेत्तथा यतस्व । अथ पर्वतजननी नृपान्तिकमगमत् तथागतां गुरुपत्नीमासनादिना ] सत्कृतां प्रणम्य राजा तामपृच्छत-हे मातः । किमर्थमागतासि ! तदद साक्-पुत्रभिक्षार्थमागताऽस्मि । हे मावः। तव | पुत्रस्य बालमात्रमपि का कुटिलीकुर्यात् । तद्वेषी नैव जीविष्यति । इत्थं नृपोक्तमाकर्ण्य नारदपर्वतयोविवादं विज्ञाप्य विशेषतः । प्रार्थितवती-हे राजन् ! यथा मत्पुत्र एव विजयेत नारदोक्तमलीक भवेत् तथा सदसि वया वाच्यम् । सदा राजाच-18 न्तत्-अहो ! गुरुपत्नी मे मान्याऽस्ति । सर्व भाषते याहमेतदुनयालीकं वदिष्यामि, तर्हि मम महापकीतिः सत्यं बदति नानृतं कदापीति यशोऽपि न स्थास्पति । मया कदापि स्फाटिकमुज्जलमेवसिंहासनमुपविश्य मृषा नाजादि । तत्कपमे-+ तस्कृते वक्तव्यम् ? अहो ! सम्प्रति व्याघदुस्तटीवत्सङ्कटो मे समुपस्थितः । इत्यालोच्य स राजा तामत्रादीत-अवि माता ! भई कस्थाऽपि कृते मृषा न वदामि, न पदिष्यामि । अन्यद्यदादिशसि तदहं करिष्यामि, इति नृपोक्तं धुत्ता सोक्ताती-राजन् ! यदि मत्पुत्रपच न विधास्यसे तर्हि स मरिष्यति अहमपि मृत्वा स्वहत्यां ते दास्यामि, । ततः परवशो नृपोजदत-हे मानव
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यहि पर्वतस्य साहाय्यं स्वचसा करिष्यामि | तदनु हृटा सा गृहमाययौ सर्वमपि पर्वतभवादीत् । अथ द्वितीय दिने पर्बतनारदौ नृपसदसि समेत राजाऽविदितवृत्त इवाऽऽगमनप्रयोजनं तावपृच्छत् । तदा पर्वतोऽवदत्- हे राजेन्द्र ! स्वभावयोः सहाध्यामी विद्वानसि । यस आव विवदमानौ भवत्सविधे समागताः । ' अ ' शब्दस्त काम यो सोच्यते नारदश्च त्रैवार्षिको बीहितदर्थ इत्यालपति, कः साधीयानर्थ इति भवता वाच्यः १ राजा किश्चिद्विचार्य जगाद । अहन्तु पुरा गुरुणोक्तं तदर्थं त्रैवार्षिकं व्रीहिमजश्वापि स्मरामीति मिश्रवचनं जगाद । तदा नारदोऽवदत् त्वमपि जगति सत्यवती भूत्वा मृषा भाषसे, आश्चर्यare | अथ तत्कालमेव शासनदेवता मृषावादिनं तं वसुराजं सिंहासनादधः पातयामास तेन तदैव स मृत्वा नरकमगमत् । अहो ! एवमेकवारमप्यलीकभाषणाद्यदि वसुराजस्य नारकी गतिरजायत, तर्हि भूयो भूयोऽसत्यं भाषमाणस्य यादृशी गतिः स्यात्सा तु के लियेचैव । अतो धर्ममर्मविद्भिः समरैरनृतं कदापि नैव भाषितव्यम् । सत्यमेव सर्वदाखिलसुखेप्सितैः सर्वैर्वक्तव्यम् । अथ २४ - पौर्घ - विषये
पर घन अपद्वारे स्वार्थपे चोर हारे, कुल अजस वधारे बंध घातादि धारे ।
पर धन तिण देते सर्प ज्यूं दूर वारी, जग जन हितकारी होय संतोषधारी ॥ ५९ ॥ तथाहि ये केचन कुलमर्यादां हित्वा स्वार्थसाधनाय परधनानि चोरयति । तेषां लोके महती निन्दा जायते, राजकारागारनिवासादिकमाप्नुवन्ति । इलमपि कलङ्कितं कुर्वते कुत्रचिचौरा मार्गन्ते च । अतः सर्पादिन चौदविदूरे स्वात । सदैन स्वमाग्यानुकूलोपलम्भया यत्किश्चिदपि सम्पदेव सन्तोषिया माव्यम् ॥ ५९ ॥
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निशदिन नर पामे जेही दुःस्व कोड़ी, तज तज धन चोरी कष्टमी जेह ओरी ।
पर विभव हरंतो रोहिणो चोर रंगे, इह अभयकुमारे ते ग्रयो बुद्धि संगे ॥ ६ ॥ कि-चौरा विवानिशमनेकधा दुःखराशिमधिगच्छन्ति । अतःपरद्रव्यापहारमनेककष्टदाने कारागारं मत्वा त्रियोगेन स्वस्तिमेव भव्यजनाः । सूर्य सर्वे चौर्य त्यजत । नो दिह परलोके चैतत्फलयाककाले केऽपि त्रावारो नैव भवेयुः । पश्यत, स्मरत, - रोहिणीयनामान चोरमभयकुमारो बुद्धिचातुर्येण यथाहीदिति तयाऽन्येऽपि नृपादिभिर्निगृहीता महादुःखानि प्राप्नुपः ॥ ६॥
अब २५-कुशील-विषयेअयश पड़ह वागे लोकमां लीह भागे, दुरजन यह जागे जे कुले लाज लागे।
सुजन पण विरागे मा रमे पण रागे, परतिय रस रागे दोषनी कोडि जागे॥ ६१ ॥ इह संसारे नृणां परस्त्रीसङ्गतः सर्वत्र निन्दा जायते अपातः श्याममुखा भवन्ति शत्रवश्वोत्पद्यन्ते । कुलमवदातमपि मलिनीभवति सत्पुरुषैश्च तेऽनाद्रियन्ते। किंबहुना परस्त्रीरागतो दोषकोटिरुत्पद्यते अतः परदाराः परोपिछटवदग्राझं मत्या सदैव त्याज्या:॥६१।।
पर तिय रस रागे नाश लंकेश पायो, पर तिय रस स्यागे शील गंगेय गायो।।
द्रुपद जनक पुषी विश्व विश्वे विदीती, सुर नर मिलि सेवी शीलने जे घरंती ।। ६२ ।। यह महाबलीयान मतिमानपि रावणः परस्त्रीरसरागतः सीतामरहतवान् । ततो रामचन्द्रः सारे राषण सङ्कलमनी
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| नशत् । परदारात्यागतो भीष्मो-गांगेयो महत्चर यश आजन्मशीलपालनादतुलं बलं चाऽभावान । तथा द्रौपदीजानकीप्रमुखा। सत्ता शीलप्रभावान्मही प्रख्यातिमापुः । या अधुनाऽपि प्रभाते सर्वेः स्मर्यन्ते शीलवतो देवा अपि सेवन्ते वह नराणान्तु का बावा । एतन्माहात्म्य सहस्रमुखैरपि वक्तं न पार्यते । इति परदाराः सर्वैस्त्याज्या एच ॥ ६२॥
अय २६-परिग्रह-विषये-- शशि उदय वधे ज्यूं सिंधु वेला भलेरी, धन करि मनसाए तेम घाघे घणेरी ।
दुरिस नगर सेरी तूं करे ए परेरी, मम कर अधिकेरी प्रीति ए अर्थ केरी ॥ ६३ ॥ चन्द्रोदयादम्बुधिरित्र परिग्रहेच्छा नितरामेधते । एतन्ममता लोकान् दुर्गति प्रापयति । अतः परिग्रहेऽधिका प्रीतिस्त्याज्या॥६३॥
मनुअ जनम हारे दुःखनी कोडि धारे, परिग्रह ममता ए स्वर्गना सौख्य वार ।
अधिक घरणि लेवा धातकीखंडकेरी, सुभुम कुगति पामी पकिराये घणेरी ॥ १४ ॥ कि च-परिग्रहे बहुलप्रीतिकारी दुधिया मनुजो मनुष्यत्वं गमयति, कोटिदुःखपरम्परा सइते । अथ च परिग्रहे ममत्व छर्चन का सुम्मचक्रवर्ती देवलोकसुखापि गमयन कुगति याति । अतः परिग्रहे ममता त्याज्या सर्वैर्मव्यजनैः ।। ६४ ॥
परिग्रहममत्वेन दुर्गतिङ्गतस्य सुभूमचक्रवर्तिनः ४७-कथानकम्यथा-मां षट्खण्डों वसुधां यदा सुम्मचक्राववंसाधयत वदा सावतायन घातक्या मपि परैरसाधितानि यानि स्ट्र
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खण्डानि तानि साधितुमियेष । ततश्च परिग्रहे ममत्वोदयाद्धातकीखण्डं जिगमिषुरसौ द्विलक्षयोजनप्रमाणे लवणसमुद्रे ठरल२ ममुंचत सत्र व ससैन्यः स उपाविशत् । तदनु सहस्रदेववाहित सखचाल । तदैकेन देवेनाऽचिन्ति-अहो ! एतस्पटलण्डसापन
इयान कालो लमः। पुनर्धातकीखण्डस्य साखण्डसाधने कियान समयो कास्यतीति को जानाति ? अव इदानी छनोऽहं निजां देवीं मिलित्वा पुनस्त्रागच्छानि पेद्वरमिति विचिन्त्यैको देवो गतः । एवं क्रमेण सर्वेऽपि देवा निजनिजप्रेयसी मिलितुं गताः । ततस्तचर्मरत्ने बुडिते ससैन्यः स जल एव दुर्यानेन ममार। मृत्त्वा सुभूमचक्रवर्ती सप्तमं नरकमाप । अतः परिग्रहेऽति ममता नैव कार्या ।
अथ २७-सन्तोषगुण-विषये - सकल सुख भराए विश्व ते वश्य थाए, भवजलधि तराए दुःख दूरे पलाए ।
निज जनम सुधारे आपदा दूर वारे, नित धरम वधारे जेह संतोष धारे ॥ ३५॥ सन्तोपी पुमान सदैव सुखमुपैति, सकलजन वशयति । तोयस्थलवणमिव तद्विपदो विलयं यान्ति । संतोषतो भवाम्बुधि सुखेन । तरन्ति संतोषिणः कदापि दुःखं न जायते । सन्तुष्टस्य जन्मनः साफल्यं जायते, तदात्मनि धर्मोऽपि वरीवृध्यते ॥६५॥
सकल सुख तणो ते सार संतोष जाणे, कनक रमणिकेरी जेह इच्छा न आणे।
रजनि कपिल यांध्यो स्वर्णनी खोलताए, भमर कमल बांध्यो ते असंतोषताए । ६६ ॥ किस-सन्तोषो हि सर्वेषां सुखनिदानमस्ति यो हि कनकं कामिनीश जहाति स एव सन्तोषी ज्ञातव्यः । पश्यत-कपिलो
कहान
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मापया मितव नकलिप्सया समयमयजामन् राजपुरुचौरषिया निगृहीतोऽभूत् | नवनवरसं जिघृक्षुभ्रमरो यथाऽस्तसमनमविताय कमलान्तस्तिठस्तत्रैव मध्यते, अतः सर्वसुख हेतुः सन्तोष एव सजनैः परिधार्यः ।। ६६ ॥ वरप्रभावो नीविशाध्यक्तं यथा
सर्पाः पियन्ति पवनं न च दुलारते, शुष्करतृणैवेनगजा बलिनो भवन्ति । कन्दैः फलमुनिवरा गमयन्ति कालं, सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ॥ १॥ अपि चइंसितं मनसा सर्व, कस्य संपद्यते सुखम् ।। देवायत्तं जगत्सर्व, तस्मात्संतोषमाश्रयेत् ॥ २॥
अथ २८-विषयतृष्णा-विषये--- शिवपद यदि वांछ जेह आनंद दाई, विष सम विषया तो डि दे दुःखदाई।
मधुर अमृत धारा दूधनी जो लहीजे, अति विरस सदा तो कांजिका स्युं ग्रहीजे ॥ ६७॥ हे भव्यजीवा ! यूयं यदि स्वात्मानन्दप्रदं मोक्षं वाञ्छय तहि-महादुःखदमिर्म विषयविषं त्यजत ! यतः पीयूषमिवातिमधुरं शर्करामिभं सुस्वादुपयो यस्य संमिलति स विरसमतिकटुकाञ्जिकं कदापि नेच्छति । इति दुर्गतिनिदान विषयसुखं हेयमेव ॥ ६७ ।।
विषय विकल ताणी कीचके भीम-भार्या, दशमुख अपहारी जानकी राम-नार्या ।
रति धरि रहनेमी देख श्रीनेमि-भार्या, जिण विषय न वा तेह जाणो अनार्या ॥ ६८॥ किश-विषविणां महतामपि या दुर्दशा जापते तां शृणुत-चारुतरां पाण्डवभार्यामालोक्य रागान्धीभूतो विराटराजस्य श्यालः
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कीचक भीमेन दुर्दशीकृतः कालं नीतः । तथैव जानक्या रामपत्न्या अपहारेण लङ्केशः सकुले रामचन्द्रेण विनाशितः । सभा कन्दर्पषगो भवन् रथनेमिमुनिरपि स्वपत्नीमिव चारित्रवतीमतिरूपवतीमनानृतसर्वाङ्गी नेमिनाथ प्रभोः पत्नी राजीमतीमालोक्य तामपि विषयसुखमयाचत । परन्तु तत्राऽवसरेऽनेकदृष्टान्तैः सा सती साध्वी राजीमती तं प्रतिबोध्य मार्गमानीतवती । तदनु सोऽपि भगवतः पार्श्वे तन्प्रायश्चितमकरोत् । यतो विषयिणो जना अनार्या एव भवन्ति, अतोऽहमेवं न स्वामिति निषयो हातव्यः ॥ ६८ ॥ अथ २९ - इन्द्रिय-विषये
गणतं
गागा, इक इक विषयाथी ते लहे दुःख जंगा ।
जस परवश पांच तेनुं शं कहीजे ?, इम हृदय विमासी इन्द्रि पांच दमीजे ॥ ६९ ॥
इह खलु यधेकैकस्यापीन्द्रियस्य वशीभवन्तो गज-मीन- पतङ्ग- अमर - मृगादिजीवा महादुःखिनो जायन्ते तर्हि ये जीवाः वेन्द्रियैर्वशीकृताः सन्ति तेषां दुःखजातन्तु गदितुं नैव शक्यते । अतः सर्वैः सर्वाणीन्द्रियाणि जेतव्यानि । अन्यथा तेषां सुखस्य लेशोऽपि न संभवति न संभविष्यति चेह परलोकेऽपि ।। ६९ ।।
विषय- वन चरंतां इन्द्रि जे ऊंटड़ा ए, निज वश नवि राखे तेह दे दु:खड़ा ए ।
अवश करण मृत्यू ज्यूं अगुप्तति पामे, स्वच्श सुख लह्यां ज्यूं कूर्म - गुप्तेन्द्रि नामे ॥ ७० ॥ अस्मिन् विषयवने यस्येन्द्रियगण उष्ट्र इव स्वैरं चरति, सदैव स दुःखमाप्नोत्येव । यश्च गुप्तेन्द्रियगणः स कूर्म व सदैव
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सुखमनुभवति । अतो निजनिजविषयगत्वराणि स्वेन्द्रियाणि निजायत्तानि कृत्वा सर्वैर्गुप्तेन्द्रियगणैरेव माव्यम् ॥ ७० ॥ अथ ३० प्रमाद - विषये-
सहु मन सुख वांछे दुःखने को न वांछे, नहि धरम चिना ते सौख्य ए संपजे छे ।
इह सुधरम पानी कां प्रमादे गमीजे ?, अति अलस तजीने उद्यमे धर्म कीजे ॥ ७१ ॥
इद सर्वे लोकाः सुखं वाञ्छन्ति, दुःखं केऽपि नेहन्ते । परन्तु स्वर्गमोक्षसुखनिदानं धर्म विना सुखमनुभवितुं न शक्यते । ईदृशं धर्ममासाद्य ये तत्र प्रमादाऽऽलस्यादिकं विदधति, ठेभ्योऽधिका विमूढाः पापपरायणाः पामरा: के सन्ति १ न केऽपीत्यर्थः । अतः प्रमादं त्यक्त्वा चेह परलोके सुखसौभाग्यादिदातरि धर्मे सत्याणिवर्गेण सदैव यतितव्यम् ॥ ७१ ॥
इह दिवस गया जे तह पाछा न आवे, धरम समय आले कां प्रमादे गमावे ? |
धरम नवि करें जे आयु आले चहावे, शशिनृपति परे त्थं सोचना अंत पावे ॥ ७२ ॥ किश्च - भो जीवा ! यद्दिनं याति तद्दिनं पुननैवाऽगच्छति, इति पश्यद्भिर्भवद्भिः प्रमादालस्यादिपारवश्येन धर्नसमयो वृथा न गमनीयः । धर्ममकुर्वता निजायुचैव हार्यते प्रान्ते च स शशिराज इव पश्चात्तापमुपैति तत्कथा धर्मत्रर्गे ९ प्रबन्धे द्रष्टव्या ॥ ७२ ॥ अथ ३१ - साधुधर्म - विषये, शार्दूलविक्रीडित छन्दसि - जे पंच व्रत मेरु-भार निवहे निःसंग रंगे रहे, पंचाचार घरे प्रमाद न करें जे दुःपरीसा सहे ।
पांचे इन्द्रि तुरंगमा वश करे मोक्षार्थने संग्रहे, एवो दुष्कर साधु-धर्म धन ते जे ज्यूं ग्रहे त्यूं वहे ॥७३॥
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इह खल ते साधयो धन्या विरलाश्चैत्र जायन्ते, ये किल मेरुवर्धराणि प्राणातिपात-पृपावादावचादान-मैथुन-परिस्पाग|| रूपाणि पश्चमहाप्रतानि सम्यक पालयन्ति । पुनर्य पाक्षाभ्यन्तरसंयोगनिःसमा विचरन्ति, पञ्चविधानाचारान् पालयन्ति । शीतादि दुःखपरीपह सहन्ते वशीकृतपञ्चेन्द्रियतुरङ्गवेगा मोक्षमीहन्ते । ईदृशमतीव दुष्करं साधुधर्म गृहीत्वा पावजीवमवन्ति ॥ ७॥
मयण शिर विमोड़ी कामिनी संग छोड़ी, तजिय कनक कोड़ी मुक्तिसं प्रीत जोड़ी।
भव भव भय वामी शुद्ध चारित्र पामी, इह जग शिवगामी ते नमो जयुस्वामी ॥ ७४ ॥ यो हि कन्दर्पदप जिगाय कामिनीमत्यजत् । अधिगतवर्णकोटि मुक्त्वा मुक्तिस्त्रियामरस्त शुद्धञ्चारित्रच यावजीवमपालयत् । सकलभवभीतिमपनीतवान् प्रान्ते चासारसंसारतो मुक्तवान् । एतादृश जम्बूस्वामिने नमत भृशमदमपि तश नमस्यामि ।। ७४ ।।
अथ ३२-श्रावकधर्मविषये-शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम्जे सम्यक्स्व लही सदा व्रत धरे सर्वज्ञ सेवा करे, संध्यावश्यक आदरे गुरु भजे दानादि धर्माचरे । नित्ये सद्गुरु-सेवना मन धरे पचो जिनार्धाश रे!, भाख्यो श्रावक धर्म बोय दशधा जे आदरेते तरे॥७॥
यथा-भो भव्यप्राणिन् ! जिनेश्वरो भगवान भवाधिं निस्तषुमीदर्श सद्धर्मभाषते-यो हिसम्यक्त्वमेत्य सदैव व्रतं कुरुते । सर्व पूजयति प्रातः सायश्च प्रतिक्रमण नियमतो विधिवत्करोति । भक्त्या सादरं गुरून सेवते तथा दानशीलतपोमावलक्षणचतुर्षा धर्ममापरति । सदैव सद्गुरौ भक्ति तनोति तथा द्वादशविधश्राद्धधर्म परिपालयति । ईशो या भावका स एष मवाम्मुधि निस्तीर्य । मोक्षसुखमनुभवति ।। ७५॥
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निशदिन जिनकेरी जे करे शुद्ध सेवा, अणुव्रत धरि जे ते काम आनंद देवा ।
चरम जिनवरिंदे जे सुधमें सुवास्या, समकिति सतवंता श्रादका ते प्रशंस्या ॥ ७६ ।। किश्च शुद्धमनसा दिवानिशं प्रभुसेवातत्परः, तथाऽणुव्रतपरिपालको द्वादशविधवताराधक ईदृग्गुणविशिष्टः श्रावक आवन्दनामा | कामदेवनामा चाऽभूत् । ययोः सम्यक्त्वं धर्मदृढत्वं सत्यवादित्वं च जिनवरेण श्रीवीरप्रभुणा वर्णितं स्वमुखेन तौ च प्रान्ते । सौधर्मे देवलोके समुत्पन्नावभूताम् ॥ ७६ ॥
___ अथ दृढधर्मे कामदेवश्रावकस्य ४८-कथानकम्___ यथा-चम्पापुर्या धर्मध्यानकधामा कामदेवनामा श्रावको निवसति स्म स चैकदा कायोत्सर्गध्याने रात्रौ तस्थौ । तस्मिन्नवसरे द्वा- । त्रिशलापविमानस्वामीप्रथमदेवलोकाधिपतिः स्वसदसि तत्पईसामकरोत् । तदाकर्ण्य कश्चिन्मिथ्यात्वी देवस्सत्परीक्षायै वाऽऽत्य गजरूपं विकृत्य तमधःपात्य दन्तैरपीलयत् तथापि स ध्यान न जहौ । तदनु महाकायं सर्परूपं विकृत्योच्चैः फूत्कृर्वन्मुहुर्मुहुस्तं इदंश । परमेतावत्युपसर्गेऽपि स निश्चलतां नाऽस्यजत् । ततो राक्षसरूपं विकृत्याट्टहासं विदधदनेकथा तममीषयाच घोरोपद्रवमकार्षीत । इत्थं रात्रौ चतुर्याम तदुपद्रुषोऽपि मेरुवभिश्चल एवाऽदर्शि तदनु तत्पदे प्रणतो देवः स्वाऽपराधं धमयित्वा निजस्थानमगात् । एतदेवाह-उपदेशमालायां
देवोहि कामदेवो, गिही वि नवि चालिभो तवगुणेहिं । मत्तगइंदभुभंगम-रकरणसघोरक्षासेहिं ॥१॥ "देवैः कामदेवो गृही-गृहस्थोऽपि नापि पासितस्तपोगुणेभ्यो,मत्तगजेन्द्रजङ्गमराक्षसवोराहासः। ततः प्रभाते ध्यान
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समाप्य श्रीषीरप्रस वन्दितुमगात तत्र च वन्दनानन्तरं प्रदशविषपर्षदने तमेवं प्रशस यथा-मो लोका । एष कामदेवः भाषको भूत्वापि या नियममपालयत् तादृशनियमपालयितारः साधवोऽपि विरलाः सन्ति । तदनु नैशिकोपसर्पजात सर्वानवोचत । ततः श्रमणाः श्रमण्योऽपि जिनवचनं तत्तथेति कृत्वा पालयन्ति निरतिचार चारित्रं सहित्वोपसर्गान् । ततो इष्टस्तुष्टः पृष्ठा प्रश्नान्स लन्धप्रश्नपरमार्थः कामदेवश्राद्धो बन्दित्वा वीरं गतः स्वगृहमिति तथैव सर्वैः सुश्रावकैर्भाव्यम् ।
इम अरथ रमाला जे रची सूक्तमाला, धरमनृपति-बाला मालिनी छंदशाला।
घरममति धरंतां जे इहां पुन्य बांध्यो, प्रथम धरम केरो सार ए वर्ग साध्यो ।। ७७ ॥ सूतानि सुमाषितान्येव मुक्ताया आवली पंक्तिरित विद्यन्ते यस्यां सैषा मुक्तमुक्तावली धर्मराजस्य पुत्रीवनिरवधं छन्दोऽर्थादिदोषरहितं सर्वमंगं यस्यास्तथाभूता, अत एव महार्था उदारार्था अपि च वैराग्यादिसद्रसैराध्यतरा तथाऽनेकैः शार्दूलविक्रीडितेन्द्रबञोपेन्द्रवज्रास्वागतापसन्ततिलकादिवृत्तनिवद्धाऽपि प्रायेण सर्वजनश्रवणसुखरुचिररसोत्यादक-मालिनीवृत्ते निर्मिता । ततस्तामेना!
धविधानशालिनी सरलसरससंस्कृतमयीं सूक्तमुक्तावी धर्मधिया ये पठिप्यन्ति ते धर्मराधि मन्धिष्यन्ति ततवान्ते सर्वसुखानीप्सितानि प्राप्स्यन्ति ।
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UMINATURFIRMSITISHESETTE
BUNUNLAISIRASIN D A YAIONYESHID SYRIMIST
इति सर्वजीवहितेच्छुकेन पण्डित-श्रीमत्केसरविमलगणिना भाषाकवितामयविरचितायां ततः श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय-सुविहितसूरिशकचक्रपुरन्दरसकलजैनागमपारदृश्व-परमयोगिराज-जैनाचार्यभधारक-श्रीमद्विजयराजेन्द्र सरीश्वरान्तवासि-सिहान्तमहोदधि-न्यायचक्रवर्ति---परम्परानुगश्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश-पट्टप्रभावक-साहित्यविशारदविद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरेण सरलसरससंस्कृते सङ्कलितायां सूक्तमुक्तावल्यां प्रथमा
___ धर्मवर्गः समाप्तः॥ Dan NILFIGYETARIMLARIDWARMILY
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अथ द्वितीयोऽर्थवर्गः प्रारभ्यते ।
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अथार्थवर्गे हितचिन्तनश्री,-मितम्पचार्थ्यस्वमहीशसेवाः ।
खलादिमैत्रीव्यसनादि चैव,-मिहाऽधायः कतिचिरप्रसंगाः ॥१॥ तत्र स्वपरहितचिन्तनं १, सम्पद-लक्ष्मीः २, कृपणता ३, अर्थी याचना ४, अस्त्र-निर्धनता ५, राजसेवा ६, खलता-दुर्जनता ७, आदिशब्दादविश्वासः ८, मैत्री-मित्रता ९, सप्तकव्यसनानि-पूत-क्रीड़ने १०, मांस-भक्षणं ११, पौर्य करणं १२, मद्यपान १३, वेश्याऽऽसक्तिः १४, आखेटकं १५, परस्त्रीप्रसंगच १६, पुनरादिशब्दातू-कीर्तिः १७, मन्त्री १८, कला १९, मुर्खता २०, लखा २१, चैवमर्थवर्गेऽस्मिले कविंशतिविषयाः क्रमेण पर्यन्ते ॥ १॥
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अथं १-स्वपरहितचिन्तन-विषये-मालिनी-छन्दसिपरहित करवा जे चित्त उच्छाह धारे, परकृत हित हीये जे न कोई विसारें।
प्रतिहित पर थी ते जे न वांछे कदाई, पुरुष-रयण सोई बंदिये सो सदाई ॥१॥ - ये हि सदैव परेषां हितं कसुत्साह दधति पाञ्छन्ति च । ये च कदाचित्सकृदपि परकृतोपकारं न विस्मरन्ति । तथा परानुपकृन्य बराः प्रतिफले जनादिर हिमालि जि रत्नसभिभाः सत्पुरुषाः सदैव लोकमान्याः सन्तस्सर्वत्र जयन्ति ॥ १॥
निज दुख न गीने पारकुं दुःख वारे, तिणतणि बलिहारी जाइये कोड़िवारे ।
जिम विषभर जेणे डंक पीड़ा सहीने, विषधर जिनवीरे यूझव्यो ते वहीने ॥ २ ॥ ये सत्पुरुषा दुःखानि सहमाना अपि परेषां दुःखं निराकुर्वते ते जनाः सदा सर्वेषां चन्दनीया विलसन्ति । यथा-वीरप्रमअण्डकौशिकमहाहिदंशनवेदनां सहमानस्तस्मै प्रतिबोधमदात् । तत्प्रभावतः सोऽष्टमसहस्त्रारदेवलोक प्राप्तवान् । एवं यः स्वयं दुश्लीभवमपि परकीयक्लेशं वारयति हितश्च करोति स एव धन्यो जगत्पूज्योऽस्ति ॥ २ ॥ . अथ परहितचिन्तकमहावीरस्वामि-करात्माचण्डकौशिकयोः १-कथानकम्
· क्याहि-चण्डकौशिकनामा फणी भवान्तरे साधुरभूत । स चैकदा कनिष्ठशिष्येण सह गोचर्यं गतः। अग्रे गुरुः पृष्ठे च शिष्य इत्ये चलतस्तस्य गुरोः पादतलेन मर्दितो मयको ममार । परं गुरुर्नाऽपश्यत् शिष्यो दृष्टवान स वदा गुरुमवक्-स्वामिन् ! मा
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दधिणा मर्दितो मण्डूको मृतः । तस्मावतत्पापाऽपनोदनाय भवानीर्यापथिविधि प्रतिक्रम्य तदालोचनं करोतु । गुरुषोत्तम्गच्छ गच्छ मत्पादतले नैव कोऽपि दर्दुरो मर्दितः । तदनु गोचरी लाला स्वस्थानमागतो गुरुस्तात्कालिक गमनागमनमानोचितवान् । तदापि शिष्येण तस्मिन् स्मारिते गुरुरूधे-अरे ! मुहुर्मुहुनिष्फलं किं पे ? मत्पादतले कापि किमपि नैव पीलितम् । तदा शिष्येणाऽचिन्ति-इदानीमनवकाशतो नाऽकारि, सायन्तनप्रतिक्रमणसमय एतत्प्रायश्चित्तमालोचिष्यते । तऽपि प्रतिक्रमण समाप्प गुरुस्तत्पापं यदा नाऽऽलोचितवांस्तदा शिष्यो मनसि दध्यौ । एतस्य गुरोः शिरसि पश्चन्द्रियहत्याऽलगत संयमश्वास्य दृषितो भवति । गुरुयुद्धत्वाम बुध्यत अतो भया तद्विजानताऽसी दोषमुक्तो विधातव्यः, नो पेन्ममाऽप्यतिचारो लगिष्यतीति विचार्य तत्रावसरे शिष्य स्तत्स्मारितवान् । तदा गुरुर्महाकोषं कृत्वा निजौघां गृहीत्वाऽतिवेगेन शिष्यं ताडयितुमघावत । धिक् कोप! येन रजोहरणेन जीवा रक्ष्यन्ते तेनैव स शिष्यजीव घातयितुमैच्छत् । तत्रावसरे गुरुभयेन सोज्पन्न पलायितः, तत्पृष्ठे धावन् । स गुरुनिशि तमोबाहुल्याकेनचिदपि स्तम्भन मर्मणि हतो दुयानेन मृत्वा ज्योतिषदेवोऽभवत् । ततश्युत्वा चण्डकौशिकनामा | तापसोऽभूत् स फलपुष्पमयमुपवनमकरोत । तत्र क्रीडन्तो नृपकुमाराः प्रत्यहं तमुपदुद्रुवुः, निवारिता अपि दुरास्ते यदा न न्यवर्तन्त, तदा स तापसः कुठारमादाय तान्प्रत्यधावत । तेषु पलायितेपु कर्मयोगात्कुत्रापि गते पतन कुठारेण वक्षसि हतस्वापसो
ध्यानेन मृत्वा महाकायो भीषणो नागोऽभूत् । तस्य विषज्वाला महती जाता सच लोकान् दृष्टिमात्रेणापि भस्मीकर्वाऽऽसीत् । ततो लोकास्तन्मार्गमप्यत्यजन् । अथैकदा तेनैव मार्गेण गच्छन्महावीरस्वामी सर्पभीति निगद्रिलोकः प्रतिषेधितोऽपि तस्य विलोपरि कायोत्सर्गध्याने तस्थिवान् । तदा विलाद बहिरागतश्चण्डकौशिको महादिविषज्वालामुद्वमन वीरप्रभोश्चरणं दर्दश, परं स
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निश्चल एवातिष्ठत् । किन्तु तस्य दष्टप्रदेशतो रक्तं न निरगात् पय एव किश्चिदुदगच्छत् । तदाश्वयं विलोक्य स दध्यो अहो ! अन्येषां मया दष्टे रक्तं प्रसवति, एतस्य तु दुग्धं बहति, इति महाश्चर्य लगति । इत्थं विचिन्तयन् स प्रभुणा भणितस्तथाहि-हे चण्डकौशिक ! इदानीमपि स्वं ने प्रतियुद्धोऽसि ? कोपकरणादेव त्वमत्र सर्वभयदो भीषणः सोऽभः | अधुनापि तथा कुरुष्व येनेम संसारमुचीर्य सवगतिमधिगच्छ । इति प्रभुमुखाच्छ्रुत्वा सातजातिस्मरणो बिलाइ बहिरागतः स फणी प्रई त्रिःप्रदक्षणीकृत्य त्रिवारं शिरसा नमस्कृत्य तमचे-हे स्वामिन् ! शरणागतवत्सल ! मामधुना तारय तारय । हे अनन्वभवसन्तापवारक ! संसारसागरनिमज्जप्राणिसमुद्धरणपटो ! मद्भाग्योदयवसादेवावाऽऽगतोऽसि ततो निरशनं व्रतं दीयतां तदा प्रमुस्तस्मै पञ्चदशदिवसानशनमदात् । तदनु गृहीताऽनशनः स स्वशरीरमुत्ससर्ज । तथाहि-ममैतच्छरीरे ममता नास्ति, यदेतदनित्यमित्यवार्य मुखं बिलान्तनिधाय शेषाई बहिविधाय तस्थौ । ततःप्रभृति कस्याऽप्यपराधं मनागपि नाऽकरोत् । ततश्च नागदेवः सर्वोपरि तुष्टोऽभुदतो न कमपि कदापि दशतीति लोकास्तं तुष्टुवुः । अस्माकमेष पूज्य इति विदन्तः सर्वे जनास्तं भक्त्या पूजयन्ति स्म । तद कियन्तो घृतं, कियन्तो दुग्धं, चान्ये नवनीतमित्यादि नित्य क्षेप्तुं लमाः । ततस्तच्छरीरं घृतमलकीटिकाः समागस्य भृशं भक्षयन्ति स्म । तदनु तत्कायवालनीय सहस्रच्छिद्रतामापत् । तथापि स शमतां न जहाति स्म । ततः शुभयानतो मृत्वाऽष्टमदेवलोकं गतः । अयमत्र सार:-यथा भगवान् श्रीमहावीरस्वामी सर्पमुद्धर्तुकामस्तदंशनजां पेद नामसोढ । । तथैव परोपकारहेतवे पैरपि दुःस्त्रं सोढव्यं तत्सर्प इव शमतां विप्रधः परानुपकरिष्यति स धुरमुभयलोके मुखी भविष्यति ।।
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अथ २-सम्पद-लक्ष्मी-विषये-मालिनी-छन्दसिपर वारशिगो स्वाया विश्व होघे, जिण विण गुण विद्या रूपने कोन जोवे । - अभिनव सुखरी सार ए अर्थ जाणी, सकल धरम एषी साधिए चिस आणी ॥ ३ ॥
इह जगति सम्पसिमतामखिलं जगदश्यतो याति । तमर्थ विना महानपि गुणवान विद्वान रूपवान शोभते । सम्पत्तिमांस्तु धीविद्यादिगुणहीनोऽपि लोके संपूज्यते सबैश्च रूपवान गुणवानुच्यते । यदाहलक्ष्मीभूपयते रूपं, लक्ष्मी प्रयते कुलम् । लक्ष्मीभूषयते वियां, सल्लिक्ष्मीविसर्वो लक्ष्म्या विशिष्यते ॥ १ ॥ ___इति हेतोः सर्वेषां गुणानां सदन, लक्ष्मीरवास्ति लौकिकसकलविधसुखस्य मूलमपि सैवास्ति । धनेन सुख प्राप्यते पुनर्धोऽपि समुत्पद्यते । अपि च वित्तस्थैर्यमपि संभवति धनसद्भावे ॥ ३ ॥
अथ संपदाऽऽप्तसुम्बस्योत्तमकुमारस्य २-दृष्टान्त:वाराणसीनग- मकरध्वजो राजाऽस्ति तत्पत्नी लक्ष्मवती विद्यते । तयोः पुत्रः शीलवान सत्यवक्ता दयालुायनिपुणः | स्वधर्मतत्परः परदाराविमुखः सन्तोषी देवगुरुभक्तिकरो धर्मानुरागी परोपकर्ता द्विसप्ततिकलाकौशलवान नाम्नोत्तमकुमारोऽस्ति । | 15 स चैकदा देशान्तरं निजमाग्यपरीक्षायै निरगासतोऽनेकनगरप्रामपट्टगादिकौतुकं पश्यन् चित्रकूटगिरिमागच्छत् । तत्रत्यनृपस्य |
महासेनस्य मेवाड-मालय-मरुदेश-सौराष्ट्र-कर्णाटकप्रमुखदेशाधिपस्य निरपत्पत्त्यसमुत्पनत्रैराग्यस्य कस्मैचियोग्याय सत्पुरुषाय गुण
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शालिने राज्य दवाऽत्मसाधनाय दीक्षाजिघृक्षा समुत्पदे । अथैवं चिन्तयन स राजा नवमश्वमारा पथि गच्छन् तुरगगतिमान्य प्रधानमपृच्छ तू-तदा तपस्थः स उत्तमकुमार ऊचे । भो राजन् ! एष घोटको महिषीक्षीरमपिवदतो मन्दगतिरेतस्यास्ति । तद्वच
आकर्ण्य राजा तमपृच्छत्-भो वत्स! त्वयैतत्त्व थमवेदि ? तेनोक्तम्-राजन् ! अश्वविद्यां जानामि । तदा नृपोजक्-त्वदुक्तं सत्य- | मस्ति शैशय मृतमानकोऽसौ महिप्याः क्षीरं पपौ। पुनरुक्तम्-हे सौम्य ! त्वं कोऽसि ? कुत्र ते वसतिर्विद्यते । तदोत्तमकुमारो मृपस्य यथोचितं प्रश्नोत्तरमदात् । नृपो नूनमसौ कोऽपि राजकुमारोऽस्तीति मत्वा तमेवभवदत्-हे सौम्य ! त्वं ममेदं राज्यं गृहाण । |
यतोऽहं संसारादुन्निोऽस्मि, सेनोक्त-हे पितः । त्वदुक्त सत्यमस्ति, परं ममेदानीमनेकदेशाटनचिकीवास्ति पश्चाद्यथा कथयिIPI प्यसि तथा करिष्यामीति निगय ततोऽग्रेञ्चलत।
अथानुक्रमेण स भृगुकच्छनगरमागत्य नगरश्रियं पश्यन मुनिसुव्रतस्वामिचैत्यमालोकितवान् । तत्रान्तः प्रविश्य भक्त्या प्रभु नमस्कृत्य यथाविधि संस्तुत्य बहिरागतः । तत्रैव कस्यचिन्मुखादशृणोत्-यदेतश्नगरश्रेष्ठी कुबेरदत्तनामा पोतव्यापारी क्रेयवस्तुभिः पोतं भृत्वाऽष्टादशशतयोजनात्परं मुन्धद्वीपं जिगमिषति । तत उत्तमकुमारस्तदन्तिक मला भाटकं निर्णीय तेन सह तत्राऽगच्छत ततः पोतः समुद्रमार्गेण घचाल । अथ कियदिनानन्तरं समानीतजलनिःशेषे सर्वे तृषाकुलाचिन्तामापुः । तदा द्वीपान्तरं मिष्टानि जलानि लातुमागताः सर्वे । तत्र ते जलानि ललुः पश्चासत्र भ्रमर के तुराजो राक्षससैन्यसमाकुलस्तत्राऽऽगस्य कियतो लोकान् पादत- लैरपीलयत् । कियतो जनान निजकच्छेऽग्रहीत कियतो निजपाणि भ्यां जग्राह । तीन्या कियन्तो लोकाः पोतान्त शुरित्यादि । लोकदर्थनमालोक्य म धीरः सस्यवादी दयालुस्तै राक्षसराजमवादीत । भो राक्षसेन्द्र । दीनान कि कदथर्यसि ? यदि युयुत्ससि ,
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వాటం
तहि मया सह युध्यस्वेत्युदीरयन कुमारस्तेन सह भृशं युध्वा तं पराजितवान् । स यावचेन सह युध्यमानो दूर गतस्तावत् | स श्रेष्ठी निजपोतमचालयत् । तत्राप्रात्य पोसमपश्यमेव व्यचिन्तयत्-अहो ! लोकस्थितिः कीदृशी वर्तते १ यानई तस्मादरवं
तेऽत्रैव मां मुक्त्वा मताः । जगति सबै स्वार्थलम्पटा एव वा कोऽपि कस्यापीष्टमनिष्टं वा कसु न शक्नोति । यद्देवं समीहते हैतर भवति कृतं कर्म भोगेनैव क्षयं याति । अतो हे जीव ! तव धर्म एव सर्वत्र समुपकर्तास्ति, नान्यः कोऽपि, इत्येवं विचिन्तयन्
फलादिनाऽऽत्मानं पोषयन् परशचाल । मार्गे च मदनमतिमिव तमुत्तमकुमारमालोक्य तवीपदेवी तरक्षणं घोडशशृङ्गारसज्जिता, हावभावादिकं कुर्वती परितः कटाक्षयन्ती मदनशरबाहपीडिताङ्गी तदभिमुखी बभूव । तदने तजिगीषया प्रथमं कामराजस्व सामन्तभूतभ्रमरायितकटाक्षविशिखान्मुमोच । तदनु स्मितजितशरदिन्दुक्दनविनिर्गतवाग्याणवृष्टिमकरोत् । ततः कन्दर्पराजस्व प्रयाणसमये हृदयभूधरोपरि तत्सैन्यभेरीमिव स्तनकमलकोरकमदर्शयत् । इत्थं बहुमियुवजनमोहनकरैहर्भािश्च मोहितोऽपि स मेस्खनिश्चल एवादर्शि | वशीकृतात्मनां राजादयोऽपि मनामप्यनिष्ट कर्तुं न प्रभवति । यतायस्य हस्तौ च पादौ च, जिहा चाऽपि सुयन्त्रिता। इन्द्रियाणि सुगुप्तानि, रुष्टो राजा करोति किम् ? ॥२१॥
ततस्संतुष्टा सा तं संस्तुबती तदने सार्धद्वादशकोटिस्वर्णवृष्टि विधाय निजस्थानगयात् । कुमारोऽप्यग्रे गच्छन् समुद्रदचव्यापारिणः पोतमपश्यत् । स उच्चमकुमार सादरं निजपोतमारोहवत् । कियदिनानन्तरं तस्मिन्नपि जलव्यये सर्वे लोकास्कृषाकुलाचिन्तामापुः । तत्राऽवसरे तत्रस्थनियामकः शास्त्रमवलोक्य जगाद मिष्टवारिपूर्णः कूषोत्र पर्वते विद्यते, परं ततो जलाहरममतिक
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ठिनमस्ति । पुनरत्र अमर केतुनामा राक्षसेन्द्रो जनान् हिनस्तीति श्रुव मया । इतोऽन्यत्र कुत्रापि समीपे मिष्टं वारि नास्तीत्यत्रैव पोतः स्थाप्यताम् । इत्युदीर्य पोतः स्थापितस्तदा राक्षसभीत्या केऽपि तस्मादुसीर्य जलान्यानेतुं नोत्सेहिरे । तदा दयासिन्धुः स उत्तमकुमारः पोतादवतीर्य कूपस्थानमागतस्तत्र कूपे डोरकं पातयन् जलार्थिनो भयाद्दूरे स्थितान् लोकानवोचत् मो लोका ! भागच्छत जलमाहरत यतो मयि सति राक्षसः कमपि पराभवितुं न शक्ष्यति । तदनु स तद्राक्षसेन्द्रसमीपमुपाविशत् तदालोक्पाव्येऽपि पात्रहस्तास्तत्राऽभ्ययुः । तं सर्वे कूपे गुणं पातयामासुः परमख लिमात्रमपि जलं केऽपि नाऽऽददुः । तत्रात्रसरे कुमारश्चिन्तयतिअहो ! जलं दृश्यते परं पात्रे कथं नाऽऽगच्छति । एते च वृषाकुलाः पीडयन्ते । अतोऽत्र केनापि कारणेन भवितव्यम्, लोकाश्च कूपान्तः पश्यन्तः स्वान्ये राक्षसभीतिमावहन्ति । तदा पोताधिपेनोक्तम्- कोऽप्येतदन्यः प्रविश्य जलानि समानेतुं शक्नोति ? परं क्षभीत्या कोsपि तदा नाऽवदत् सर्वे मौनमाजग्मुः । तदा वीरशिरोमणिः परमसाहसिकः परोपकरिष्णुः कुमारो लोकैर्निवारितोsपि परदुःखमसहिष्णुस्वभावतया गुणं दृढं बध्वा तदवलम्बनतः कूपान्तर्ययौ तत्र च जलोपरि स्वर्णजालकमपश्यत् । तद्वीक्ष्य दध्यौं- अहो ! ईर्श जालकं कुत्रापि न दृष्टं न श्रुतम, अत्राऽपि कोऽपि हेतुरस्ति तदनु स बलेन जालकमत्रोटयत् । ततो जल सर्वे यथेष्टं नीतवन्तः सर्वे तुष्टुवुव कुमारसाहसम् । अत्रापि भाग्यं परीक्ष्यमिति ध्यात्वा कौतुकी स इतस्ततः पश्यन् कूपभिम्येमागे समुन्नतमेकं जालकं पुनर्ददर्श, तदन्तश्च स्वर्णमयुसुरत्नजटितसोपानपंक्तिरालोकि । ततस्तेन कुमारेण तज्वालकान्तः प्रविश्यात्रे गच्छता दिव्यमेकं प्रासादमालोक्य सद्वारि वृद्धैका स्त्री दृष्टा । तत्रान्तिकमागतं कुमारं साध्वादीत्भाग्यमुक्त ! त्वं कोsसि १ राक्षसेन्द्रं भ्रमरकेतुं किं न जानासि यदत्राऽऽगतोऽसि १ तदुक्तमाकर्ण्य कुमारों जगाद - भो वृद्धे !
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8 तमहं जानामि, संग्रामे च तं जित्वात्राऽजातोऽस्मि त्वङ्कासि ! कस्य चाऽयं प्रासादोऽस्ति ? तद्वद । वदुक्तमबं निशम्य प्रद्धा
पदति-हे धीर । वीर 1 श्रूयताम, सर्व त्वां कथयामि । इह राक्षसद्वीपे लकानामनगस्ति, तत्र अमरफेतुनामा राजाऽस्ति, तत्पुत्री
महालसानाम्नी महासुन्दरी चतुष्पष्टिकलानिपुणा वर्तसे । कदाचित्स निमित्तामपृच्छत्-भो नैमित्तिक ! ममैतस्याः पुत्र्या वोढा 2 5] को भविता ? इति पृष्टे तेनोक्तं भूचारी उत्तमकुमारस्ते पुर्वी परिणेष्यति । स राजराजेश्वरोज्नेकविधाघरकुलस्य सेव्यो भविष्यति
तदाकर्ण्य स भृशं खेदमकरोत् । यन्मे राक्षसस्य सुताया मनुष्यो मर्ता स्यादिति हेतोरत्रैतद्भबने पश्चरत्नानि दिव्यानि दत्वा मया । सह तां पुत्रीमतिष्ठिपन । अन्पदा तदर्थ किमप्यानीय समायांती दासी कूपेऽस्मिन्नपतत् । ततस्तेनेदृशं जालकं कूपे जलोपरि दत्तवान् । ____ अर्थकदा पुनरसौ तमेव नैमित्तिकमपृच्छत्-भोः कथय मत्पुत्री का परिणेष्यतीति ? तेनोक्तम्-क्षत्रियो भूचर उत्तमकु. मारः । पुनरपृच्छत्तत्र कमपि दृष्टान्तं गदितुं शक्यते चेद्वद ? सेनोक्तं शृणु-स हि पोतमारुह्य समुद्रे गच्छन् सर्वेषां भीतिप्रदं त्वां युद्धे विजित्य लोकानभयान विधास्यति । इति नैमित्तिकमापितं श्रुत्वा चिन्तातुर इतस्ततः पर्यटन कालं गमयति । इत्थं निगद्य सा यावद्विरराम, तावत्तत्र महालसाप्वाध्ययौ । तदनु मा कुमारदर्शनादतितरां कामुकी भूता तत्रावसरे द्वयोमिथोऽनुराग शास्त्रा युद्धा स्त्री तदैव तयोर्गन्धर्वविधिना विवाहमकरोत् । तदा दास्या रत्नकरण्डकमानाय्य दासीसहिता कुमारेण सह कृपोषकण्ठमागात। तत्रावसरे किसन्तः पोतयायिनो लोका उपरिस्थितास्तान वीक्ष्य रज्ज्वा कूपाय नीतवन्तः । तस्मिन् समये तो दृष्ट्वा किमिद | देवयुगलं विद्याधरयुगलं वेत्यादि शशकिरे ? । ततः कुमारस्तया सह तत्र पोते समागत्य पुरश्चचाल । कियदिनानन्तरं पुनरपि तत्र महापोते व्ययिसेषु पानीयेषु स. तृपापीडिताश्चिन्तामापुः । सदा तानतिदुःखितानालोक्य महालसा प्राणेशमेतद्चे
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हे कान्त ! ममैतत्करण्डके पितृप्रदत्सानि दिव्यानि पञ्च रत्नानि सन्ति । तेषेक पृथिवीरत्नं पूजित नानाविधमन मणिकनकरत्नमयमाजनं 18 प्रयच्छति । द्वितीयं जलरत्नं पूजितं सद्वाञ्छितमतिमिष्टं वारि वर्षसि । तृतीयं वह्निरत्नमस्ति तत्प्रभावात सूर्यपाक रसायथेष्ट भोज्यं । लभ्यते । चतुर्थ वायुरस्नमस्ति, तेन पूजितेन ग्रीष्मातिरुपशाम्यति मनोऽनुकूलञ्च वायुति । पुनरेवमेव पञ्चमे रत्ने पूजिते यथेच्छदेवदूष्पवसनानि लम्पन्ते । ईदृशेषु पञ्चरत्नेषु सत्सु लोकोपकारः क्रियताम्। इति प्रेयसीनिगदितमाकलयन प्रमोदमानः कुमारस्तदेव । जलरत्नं संपूज्य पोसस्तम्भे न्यवघ्नात् । तदा तत्क्षणमेव जलवृष्टिरजायत लोकाश्च तेजलैः स्वस्त्रपात्राण्यपूरयन् मुदिता लोकाः । कुमारं प्रशसुः । कियत्कालानन्तरं तत्र पोतेऽनमषि क्षीणमसूत् । तदा लोकाननविकलानालोक्य पृथिवीनामरत्नं परिपूज्य धान्यस्थानेऽस्थापयत ततो धान्यराशिस्तन्प्रभावाजझें । ईदृशोपकुर्वन्तमुत्तमकुमार प्रशस्य समस्ता अपि पुरुषास्तदादेशवर्ति- ! नोऽभूवन् । पोतनायकः समुद्रदनश्च रम्भोपमा महालसा तानि दिव्यरत्नानि च विलोक्य नितान्तं तदर्थ लुलुमे ।।
तत एकदा नरकादयविभ्यत् समुद्रदत्तः सत्ययसरे कुमार सागरेऽपातयत् तदा सर्वे दुःखमापुः । महालसापि तद्वियोगज IPII दुःखमसहिष्णुस्तदैव मर्तुकामाभूत । तदा सख्या भणिता-हे स्वामिनि ! मा म्रियस्थ, बालमरणेन दुर्गतिरेव जायते, यतः शाखेऽपि
तनिषिद्मस्ति । अत इदानीं शीलरक्षार्थ केनाप्युपायेनासौ पापीयान् वञ्चनीयः । अग्रे च रत्नप्रभावेणाऽभीष्ट सेत्स्यति भापि |
च तेऽवश्यं समेष्यति । नो चेदन्ते चारित्रं लात्वाऽऽत्मसाधन विधातव्यमिति वयस्योक्तं साधु मत्वा सा तथैवाऽकरोत् ।। 8. इतस्तमुत्तमकुमार सत्र सागरे कश्चिन्महाकायो मत्स्योऽगिस्त । ततस्तटागतं तं धीवरो जाले गृहीत्वा विददार तदुदरादुत्तमकुमारो
जीतमप्यचेतनो निरगाद् धीवर उपचारेण कुमारं सनीचक्रे । महालसाऽपि वायुरत्नप्रभावादिनद्वयनैव पल्लीनामबन्दरे पोतस्थिति
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स्थानमागात् तत्र व जैनधर्मी नरवर्मनामा राजास्ति । समुद्रदत्तव्यापारी महाहरनभृतस्थालमादाय महालसया सह नृपान्तिकमागत्य तक नमस्कृत्य तत्स्थालकमुपदीचक्रे । राज्ञा च कुशलप्रन्नानन्तरमुक्तम्-भोः श्रेष्ठिन् ! तब को देशः १ कस्माद् द्वीपादिहागतोऽसि । तत्कथय । तेनोक्त-स्वामिन् ! चन्द्रद्वीपादागतोऽस्मि मार्गे घेयं स्त्री लब्धा । श्रीमतामादेशेनैनामई मार्यो चिकी-18
पोमि तमिशम्य महालसा राजानमेवं विज्ञप्तवती । राजन ! सीमापापी पूर्वसंत सर्वपकिमेव निगछि। असो मम भार द सागरान्तरपातयदित्येतस्य चाण्डालस्य मुखदर्शनादपि पाय लगति । अतो दुष्टस्यास्य मुखं नैवाऽवलोकनीयम् । इति तद्वषः ।
नमाकर्ण्य तदुपरि भृशं प्रकुपितो नृपम्तस्य पञ्चशतपोतान् प्राह ! तश्च कारागारेऽस्थापयत् महालसाच राजावक-हे वत्से ! | पुत्रीवस्वं मम गृहे सम्यक्सया सुखेन तिष्ठ 1
तदनु नृपप्रदत्तावासे तिष्ठन्ती रत्नप्रभावात्प्रत्यहं धनधान्यसुवर्णादि निराधारेभ्यो जनेभ्यश्च ददती कालं यापयति । अहर्निश 18 MI स्वधर्मतत्परा प्रत्यह जिनेन्द्रमर्चति, प्रासुकाऽऽहारवस्त्रादि सुबुद्ध्या सुपात्रेभ्यो दानं प्रयच्छति, पुनरनुकम्पया दीनानुपकरोति, शरीर-16
पुष्टिकरमाहारमेकमपि न गृह्णाति भूमावेव शेते । स्नानमुत्तमवस्वाऽऽभरणादिकं त्यजन्ती शरीरं सुगन्धिद्रव्यर्न विलिम्पति ताम्मूललब.लादिसर्वमस्यजत् । सकलशाकदधिदुग्धशर्करादिमिष्टपदार्थ सा जहाँ । सदैव नीरसं लब्धाहारं सहदेव भुक्ते. महत्कार्य विना कदापि बहिर्न याति, गवाक्षबीक्षणमट्टालिकोपवेशनं न विधत्ते । विवाहायुत्सवे कुत्रापि न गच्छति सख्या सह शृङ्गारवार्तामपि न कुरुते । दासदास्यादिभिः सह कार्य विना किमपि नाऽऽचष्टे । सदैव वैराग्यमेव विचिन्तति, इत्थं नाना-1 विधधर्मकृत्यैर्महालसा कालं गमयसि ।
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इतश्वोत्तमकुमारस्तेन धीवरेण सह कस्मैचित्कार्याय तत्रैव नगरे समाययो । तनावसरे नरवर्मनृपो निजपुत्रीकृते क्रियमाण सप्त- भौमिकमुत्तमं प्रासाद द्रष्टुं तत्रागत्य तदीयशिखरासीनः पुरकौतुकं वीक्षते । तत्र निपुणास्तक्षाणः कार्य कुर्वन्ति कुमारोऽपि यत्र ।
गत्वा स्वचातुर्यमदर्शयत तेन च सर्वे कारुवराश्रमत्कृता अभवन् । सर्वे किमसौ विश्वकर्मेति विदाञ्चक्रुः ? कुमारस्तत्त्रानया नत्रैव । " वस्थौ। पीयरश्व पश्चाद् गतः, पुनरन्यदा चित्रादिभिः सजिते तत्र प्रासादे नृपादयः सर्वे द्रष्टुमाजग्मुः। तदोत्तमकुमारस्य रूपादिक |
विलोक्य नृपो मनस्यचिन्तत् । असौ रूपेण, गुणेन, व्यवहारेण च कश्चिदुचमकुलवान् लक्ष्यते । सत्कुलं विना किलेदृर्श रूपादिक कथं संभाव्यते ? अतोऽसौ कश्चित्सवंशजात एषेति मनसावधार्य स नृपो नैमित्तिकमप्राक्षीत । यथा भो ! मम पुत्र्या भर्ता को 19 भावीति विचार्य हि ? तेनोक्तानन्। कश्रिद्वैदेशित करनाशाशुगलो महायशाली त्रिलोचनाभर्ता भविष्यति । ततः शुभ- 4 दिने शुभमुहूर्ते राजा त्रिलोचनामुत्तमकुमारेण सह महता महेन परिणाय्य तस्मै धनधान्यादिसहित तदेव सप्तभौमिकं प्रासादमदात् । । का तत्र कुमारः प्रेयस्या सह मुखमनुभवभास्ते ।
इतश्चैकदा महालसा दासीमवादी-मो दासि ! अधावधि मम मर्तुः शुद्धिर्न जाता, तेनाऽनुमीयते यत्स सागरे त्यक्तासुरभूत् । P3] अतो मे जीवितेनालम्, किन्तु रत्नप्रसादेन वीतरागस्य मन्दिर स्वामिवात्सल्यश्चाऽकार्पम् । बहूनि ज्ञानपुस्तकानि लेखितानि -
दानादिकमकारि किमपि नाऽवशिष्यते । अतः परमेतद्धनादिकं त्रिलोचनायै समर्प्य संसारसागरतरी दीक्षामेव ग्रहीतुमिच्छामि । तदा र दासी जगाद-हे स्वामिनि ! एवं त्वरी मा कुरु । मया पते राजा त्रिलोचनापुत्री केनचिद्वैदेशिकेन सर्वगुणाकरेण रूपलावण्य
बता परिणायिता, को जानाति तत्रैव भर्ता सो भवेत् इति तवाऽऽदेशेन तं द्रष्टुमिच्छामि । तदा दासी तदावेश लावा, त्रिलोचना
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तिकमागत्य, तया सहालप्य कुमारं किश्चिदभिलक्ष्य च समागता तस्यै कथपति-हे स्वामिनि ! सोऽपि त्वत्प्राणेश्वरसदृश kal एव लक्ष्यते, परंतु स एवेति मया निश्चेतुं न शक्यते । तदाकर्ण्य महालमाऽवक्-धिग्मां यत्परपुरुषरागोऽभूत् । अतोई पापिनी । X जावा, ततः पुनर्वैराग्यमापन्ना धर्मकृत्ये प्रयताभूत् ।
इतो दासीगमनानन्तरं कुमारखिलोचनामपृच्छत-अयि प्रेयसि ! सा वृद्धा का ? या त्वयाऽलापिता । तयोक्तं हे नाथ ! शृणु-काचिन्महालसानाम्नी वैदेशिकी युवती गुणवती महारूपवत्यपि निरन्तरं धर्मतत्परा मद्गृहे तिष्ठति, सा भगिनीत्युच्यते । | मया, तस्या विचक्षणा दासी साऽसीत् । इत्याकर्थ कुमारा स्वमनसि शशाङ्के सा कि मम दयिता तु नास्ति ? अहो ! कोऽयं में व्यामोहः १ तस्या अब कः संभवः ? इत्यालोच्य मनसि खेदमावहन स्वात्मानं निनिन्द। ___अथान्पदा स समीपयर्तिनि चैत्ये भगवन्तं पूजितुंगतः। कियकालानन्तरमनागतं तं वीक्ष्य तस्य शोधनार्थ दासोमप्रैषीत्रिलोचना दासी समागत्य तत्र सर्वत्र तच्छुद्धिमकरोत, परं कुत्रापि स नैव दृष्टः। पश्चादागत्य त्रिलोचनां तदकथयत् तदनु पतिमलभमाना सा भृशं शोकमकरोत् । तदानीं तत्र नमरे महेश्वरदत्तनामा व्यवहारी षट्पञ्चाशत्कोटिद्रव्यनायकोऽस्ति । तस्य द्वीपान्तरं गत्वा क्रयविक्रयार्थ पञ्चशतप्रवहणानि सन्ति, पञ्चशतानि शक्टानि वर्तन्ते, गृहागा प्रयती, तान्ति हट्टानि क्यिन्ते, तथा धान्यानो सदनानि पञ्चशतानि, गोकुलानि पञ्चशवानि, पञ्चशतगजास्तावन्तस्तुरगाः, पञ्चलक्षसेक्काः, परमेतावत्सम्पसिमतोऽप्यस्य पुत्रो माऽऽसीत् । बहुधा यतमानस्य तस्यैका पुत्री जाता । सा शशिकलेव सकलजननयनयोरानन्ददात्री सहस्रकलानाम्नी सदध्यापकेन
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सम्यक् पाठिता चतुष्षष्टिकलाकुशला शैशवात्परं वयः प्रपन्नास्ति, कस्मैचिद्योग्यवराय तां दत्वा संसारविमुखः श्रेष्ठी चारित्रं जिघृक्षति स चैकदा नैमित्तिकमाहूयाऽपृच्छत् ।
भो निमितज्ञ ! मम पुत्र्याः को भर्त्ता भविष्यतीति । तेनोक्तमद्यतन दिनात् त्रिंशत्तमे दिवसे तव पुत्र्या वरो मिलिष्यति स सार्वभौमो भविष्यति । तदुक्तदिनावधारणं सत्यं मन्यमानः स पुत्र्या लग्नसामग्री सकलां सज्जीकृत्य महामहं वितनुते । विस्तृ सुरचिते मण्डपे मङ्गलगीतं प्रावर्तत तथा करमोचन कालिकजामातुप्रदानार्थं गजतुरगरथ सुखपालवसनाभरणादिसर्वमपि सज्जीचक्रे । एतत्सकले पुरे प्रख्यातमस्ति तेन सर्वेषामाश्वर्यं लगति यद्वरं विना विवाहसामग्रीमखिलामसौ श्रेष्ठी सज्जयामास । इतोऽन्यदाश्चर्य किं स्यात् ? राजाप्येतत्स्वरूपं ज्ञात्वा चकितोऽस्ति । स्वयं महेश्वरदत्तः श्रेष्ठी कन्यां विवाह्य दीक्षाजिघृक्षां धत्ते । तेन तस्मै धन्यवादमपि नृपो ददानो विचारयति संसारविमुखीभूत अहो ! यदा जामाता मे मिलिष्यति तदैव तस्मै राज्यं समर्प्य प्रवजिष्यामि । ततो नृपो महेश्वरदसश्रेष्ठिनं समाहूय तेन सह सर्व विमृश्य नगरे पटहमवीवदत यथा - " यो हि त्रिलोचनाभर्तुः शुद्धि महालसाया मूलत निगदिष्यति तस्मै राज्यं श्रष्ठिनः पुत्र सहस्रक्लाश्च दास्यामीति । " अथ देवज्ञकथित विवाहदिवसे चैका कीरः पटहं स्पृशत्र नृभाषया राजपुरुषमवादीत भो ! अहं नृपं सर्वं कथयिष्यामि कथिते च तयोर्लाभो मे स्यात्, अहो ! ममापि भाग्यमुद्बभूव । कीरवाचमीशीमा जननी माकर्ण्य से तं नृपान्तिकं निन्युः । तदा कीरो राजानमवक्- राजन् ! अहं त्रैकालिकज्ञानवानस्मि । अत्र सदसि त्रिलोचनां महालसायानीय वसनादिना व्यवहितां स्थापय सदा सर्वमामूलं गदिष्यामि राजापि तथैवाऽकरोत् । कीरो विचारयतिराज्येन मे प्रयोजनं नास्ति परं महालसायास्तन्वं कथनीयमस्ति । इति ध्यात्वा कीरो वदति - राजन् । निशम्यतां यथा
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वाराणसीनगरीनाथस्य ज्यायान पुत्र उत्तमकुमारो देशाटमचिकीर्षया समुद्रे महापोतमारुरोह । तदनु सागरे व्रजन तत्र जलकान्तगिरी कूपान्तरलतार | तत्र राक्षसराजस्य लदेशभ्रमरकेतोः पुत्रीमुदवोद । सदनु पत्नीयुतः स कूपामिर्गत्य समुद्रदत्तव्यापारिणः पोते समुपाविशत् तत्र च लोकान पश्चरत्नप्रभावादनवनजलैः सुखिनश्चक्रे । ततः स्त्रीधनलिप्सया समुदत्तः । कुमारं सागरेऽक्षिपत् तत्र तं महामीनो निगिरति स्म । तं मीनं जालेन गृहीत्वा गृहमानीय कश्चिद्धीवरस्तदुदरं विददार, तत्र च कुमारमपश्यत् । स तमुपचारेण सज्जीचक्रे पश्चात्तेन सह सोन नगरे समायासः । ततो नैमित्तिकवचनाद्राजा तस्मै त्रिलोचना पुत्रीं विवाहविधिना दयाम्। तया सह सुखना सतभामभवने निर्वसितवान् । सोऽन्यदा मध्याहे समीपस्थचेत्ये पूजायै गतस्वत्र जिनेन्द्रं पूजयन सर्पण दष्टोऽचेतनोऽभवत् । अहिश्चतत्रत्यपुष्पराशिमध्ये तस्थौ, इत्थं महालसोत्तमकुमारयोः सम्बन्ध निगद्य कीरो
वदत् । मया सर्व कथितं ततो मे राज्य कन्याञ्चाय निजं वचन सत्य नय । तच्छुत्वा राजा मनसि शुशोच-पक्षिणे राज्य कर्थ दीयसे १ तदा किश्चिन्मौनीमय कीरः कथयति-राजन् ! दीयता राज्यम् । यदई ददनुभवामि राजा च तदा शून्यचेताः
त | पश्ची पुनः कथयति-स्वामिन ! मम का हानिः १ तवैव वचनं याति । अहं सदैव वने सुखमनुभवामि । Call सर्वदा नवनवफलमश्नामि मया तु त्वत्परीक्षा कृतास्ति। इत्थं कीरोदितं निशम्य तं स्वहस्ते निधाय पाणिना तदई संस्पृशन्नृपोNI बादीत-हे कीरराज ! ते राज्यं दास्यामि । चिन्ता मा कृथाः परं शिष्टवचनं कथय यस्कुत्र कुमारस्तिष्ठति, सुखी वा दुःखी वा
जीपति कदा कथं मिलिष्यतीति । सदा पुनः कीरो बदति, राजन् ! निशम्यतामने यदसूतत्कथयामि-सपदेशनानन्तरं तत्रैकाकिनी गणिकाता मदनमिव रूपलावण्यवन्तं कुमारश्वाऽऽलोक्य तदनुरागिणी अभूव । पश्चात्सा निजकरस्थितो विवापहारिणी
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क्ली
मणिरत्नमयीं मुद्रिकां प्रक्षाल्य तदङ्गमसित् तत्क्षणञ्च विषमुक्तः कुनार उदतिष्ठत् तदैव सा गणिका कुमारं निजभवनमानी - तवती । तत्र चतुर्थ्यां भ्रम चित्रशालायामस्थापयत् तया सह स विषयसुखं स्वैरं भुङ्क्ते । इत्थं स स्वस्तिमान् सुखमनुभवति राजन् ! स्वस्त्यस्तु ते मुञ्च मां यदहं वनं गत्वा सुखेन फलादिकं खादामि । तव सुखमस्तु यतस्त्वं सत्यवक्तासि । मम राज्येन कि प्रयोजनम् ? नाई सदिच्छामि । किन्तु राजन् ! अन्यदपि किञ्चिच्छृणु - लोकास्तानेव वैद्यानभिलषन्ति ये धर्मार्थ रोगानपहरन्ति धनं नेच्छन्ति ये च रोग शमयित्वा ततो धनमिच्छन्ति, ते महामूर्खाः । अहमपि तथैव भवामि, यत्सर्वं स्वत्कार्य संपा भवतो राज्यमाशासे । एतदाकर्ण्य नृपस्तमेवमत्रदद् भोः कीर! स्फोटके स्फुटिते पिवैरायते इति दृष्टान्तं जगदि तदधुना न घटते । यदेतत्प्रत्यक्षमन्तरा कथं प्रत्येमि १ तदा शुक्रः पुनर्जगाद - राजन्निदानीमेव गणिकागृहं गत्वा तं विलोकय । राजा तदैव प्रधानादिकतिपय परिवारः सह तत्र गत्वा सर्वत्र विलोकितवान् परं कुमारं यदा कुत्रापि न दृष्टवान् । तदा पश्चादागत्य फीरमवदत् - दे कीर ! त्वमेवं मां सुधा कि वञ्चयसि १ वञ्चनमात्रेण तब को लाभो भविता ? कीरो निगदतिस्म
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स्वामिन् ! नाहं वश्चामि परमत्र कारणं निशम्यताम् - या गणिका कुमारं सज्जितं कृतवती सा दध्यों । एष राज्ञो जामाता नात्र स्थास्यति तर्हि मम प्रयत्नो वैफल्यं वजिष्यतीति विचिन्तयन्ती सा मन्त्रवलेन कुमारं कीररूपं विधाय तबरणे सूत्रमवशत् । यदा तेन सह सा रिरंसति तदा तत्पदात्सूत्रमपनीय नैसर्गिकं रूपं विधते । ततः पुनः सूत्र बत्रा कीरं कुरुते पुनरुडधनशङ्कया d पिञ्जरे स्थापयति । इत्थं तत्कृतकीरत्वमापन्नः सोऽहमुत्तमकुमारो दध्यौ मया भवान्तरे कीदृशं कर्माऽकारि येना मवे नरो भूत्वापि पक्षित्वं यातोऽस्मि । तथा राक्षसराजपुत्र महालतां छनं परिणीतवान् । इत्याद्यवटिताऽऽचरणयोगादिदानीमी डग्दुःख
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SHORTAN
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मन्त्रभूवम् । को जानाति पुनर्भवान्तरे कां गतिमेष्यामीति विमृशन्मासमेकमनङ्गसेनावेश्यालये तिष्ठमय पिञ्जराद्वहिर्मुक्ला त्राप्यन्यत्र गतां तां दृष्ट्वा पटहनादमाकलय्य तव उड्डीय पटहम स्पृष्टवानसि । तच्छ्रुत्वा राज्ञा तत्पदः सूत्रे मोचिने स्त्ररूपं प्रपन : कुमारः प्रादुरासीत् नृपाः सर्वे लोकाः मोगाः । वमहेश्वरदतः श्रेष्ठी नैमित्तिकप्रोक्कदिने मिलिते. निज रसि ज्ञाप्रतिपालना कुमारेण सह सहस्रकलां पुत्रीं महता महेन विवाहितवान् । करमोचनसमये प्रचुरं धनादिकं प्रादात्, तदनु महालसा - त्रिलोचना सहस्रकला भिस्तिसृभिः पत्नीमिभोग भुखानः कुमारः सुखेन कालं गमयति स्म ।
ततरे राजा वामनङ्गसेनां वेश्यामाकार्य तत्सर्वमपृच्छत् । तयोक्तम्- राजन्! समुद्रदत्तः श्रेष्ठी कुमारमारणाथ पञ्चरावदी नारदानलो प्रदर्श्य मयात पुष्पकदम्बके सर्प स्थापितवान् लोमान्धीभूतया मयैतन्महापापं कृतं तन्निशम्य राजाऽधिकं चुकोप । तयोर्द्वयोश्च शूलिकारोपणमादिशत्परं दयालुरुत्तम कुमारो राजानं भृश मनुनीय तौ तस्मादमोचयत् । पश्चाद्राजा वयो: सर्वस्त्रं गृहीत्वा देशाभिष्काशितवान् । तदनुजामात्रे राज्यं दच्या संसारादुद्विग्नचेता राजा चारित्रमग्रहीत्, तेन सह किषन्तो व्यवहारिणोऽपि दीक्षां ललुः । उचनराजत्र न्यायतो राज्य कुर्वन् प्रेयसीत्रितयेन सह विषयसुखमनुभवति स्म तत्र नगरे । अथैकदा अमरकेतुर्निमित्तविज्ञमाहूय पत्रच्छ-भो ! मम शत्रुरुतमकुमारः सम्प्रति कुत्रास्ते । तेनोक्तं स्वत्पुत्रीसहितः स इदानीं पल्लोनेलाले राज्यं करोति । तदारुप क्रोधारुणाखो अमरकेतुरटादशसहस्त्र सैन्यानि तेन सह योद्धमेकत्री चके, पर प्रमाणसमये सदध्यौ अहो ! कीदृशं निमित्तानं १ यत्पुरोदितं नैमित्तिकवचनं सत्यमेवाऽभूत् कुमारसाहस यदेकाकिनैव कूपान्तर्गत्या मत्पुत्री परिणीता । चामुखानि पश्च रत्नानि जगृहिरे स चेदानीं प्रशस्यो जामाताऽभूत्, भवितव्यं केन वार्यते १ यदाह-
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अवश्यं भाविनो भाषा, भवन्ति महतामपि । नग्नवं नीलकण्ठस्य, महाविशयनं हरेः ॥३॥ किश्चललाटे लिखितं यत्सु, षष्ठीजागरवासरे । म हरिः शङ्करो ब्रह्मा, बान्यथाकर्तुमर्हति ॥ ४ ॥
इति पूज्येन महीयसा तेन जामात्रा सह सङ्गरो मे त्रपाकर एव भविष्यति । लोके हि महता प्रयत्नेनापि कदाचिदेवेदशो जामाता प्राप्यते । मम त्वभिमत एवैषोऽभदतो हर्षस्थाने विषादो न घटते । इत्थं विमृशन प्रशान्तकोघरयः स हृष्टस्सन कुमारनगरमागत्य पुत्री जामातरश्च मिलित्वा किंवन्ति दिनानि तत्र स्थित्या पुनर्प्रमरकेत राक्षसराजः स्वपुरमागात् ।
अथाऽन्यदा सदसि सुखासीनस्योत्तमभृजः कश्चिद् दूत एक आगत्य पत्रमेकमर्पयदित्थं तत्र पत्रे लेख आसीत् । यथा-स्वस्ति श्रीवाराणसीनमरतो लिखति मकरध्वजो राजा निजप्रियपुत्रमुत्तमकुमारं निर्मरमालिङ्गन तदीयकुशलमीहते । हे प्रियपुत्र ! त्वयि निर्गते | मया तव शुद्धिः सर्वय कारिता प्रतिग्रामनगरपर्वतादौ बहुधा मार्गितोऽपि त्वं कुत्रापि न मिलितस्तेन महान्मे खेदोऽवर्तत । परं साम्प्रतं |
तब शुद्धिमासाद्य हष्टमनास्त्वां द्रष्टुकामोऽई त्यामानेतुं सपत्रं दृतं प्रहिणोमि पत्रं वाचयित्वा सत्वरमत्राऽमन्छ। अहमिदानी वार्धक्याद्राज्यकार्य यथावत्व तुं न शक्नोमि त्वद्वियोगाद्विशेषतः खिन्नमना अस्मि। पल्लीवेलाकूले त्वया राज्यं प्राप्त, तच्छृत्वातिहर्षो जातः । | तल्लोभेनाऽत्राऽऽगमने विलम्बमाकार्षीरिति पितृपत्रं पठित्वा तत्काल मन्त्रिणमाहूय राज्यभार तदायत्तीकृत्य पत्नीत्रयसहितः कतिपयसै
न्यादिभिः सहोत्तमनृपो वाराणसी प्रतस्थे, क्रमेण चित्रकूटगिरिमाययो। तत्र महासेननृपो वैराग्यादीक्षार्थी भवन पुत्रासच्चाद्राज्यदानाय | कान योग्यपुरुषमपेक्षमाण आसीत् । स स्वकुलदेवतामारराध सा तुष्टा सद्यः प्रत्यक्षीय समवा-प्रभातेऽत्र राज्यधुरन्धर उत्तमम्रपाल
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आगमिष्यति, तस्मै राज्यमिदं दत्त्वात्महित साधनीयम् । ततः प्रभाते तमागतमालोक्य सादरं तस्मै स्वराज्यं दत्वा महासेनो राजा श्रीचन्द्रशेखरमरिनिकटे दीक्षितो भूत्वा मुनियमेन संयम परिपाल्य सुदुस्तरमपि भवाब्धि स्वरितमेव ततार । इत उत्तमः क्षितीशस्तत्र कियकालं स्थित्वा निजपुण्यप्रताप सर्वत्र प्रसार्य चहन्देशान् जिगाय । अथैकदा सिन्धुसौवीरनगराधीश निजाज्ञामुरीकर्तुं दूतमुखेनोचमः क्षितिष इदं न्यगादयस् यथा-यदि मदादेशमुरीकरोषि तर्हि कर देहि नो चेत्समराय समुद्यतो भवेति । यदा सदाझा स नोररीकृतवान् तदा मन्त्रिण राज्यकार्ये नियुज्य चतुरक्षौहिणी सेनामादायोत्तमनरेशः सिन्धुसौवीरपुरीपरिसरमागत्य तस्थौ । तत्र द्वयोस्तुमुले संगरे प्रवृत्ते निर्जितो वीरसेनो नृप उत्तमकुमाराय राज्यं दत्त्वा सहसपुरुषः सह चारित्रं ललौ। तदनु। क्रमशः स उत्तमभूपालो वाराणसीमागात पिता च तदभिमुखमेत्य महता महेन पुरीं प्रावेशयत । तस्मिन्नेव दिने पुत्र राज्येऽभिपिच्य मकरध्वजो नृयो दीक्षा ललौ । इत्थमुसमनृपस्य चत्वारिंशल्लक्षकोटियामा बभूवुः । चत्वारिंशतक्षमिता गजाश्वाथाऽऽसन् | तावन्तो स्थाः पदातयश्च । इत्थं चतुरङ्गबलयुतो प्राज्यं राज्यं न्यायतः परिपालयन सर्वत्र राज्ये वीतरागस्य दिव्यानि बहूनि चैत्यानि, प्रतिवर्ष रथयात्रामहोत्सवमकरोत् । प्रतिग्रामं दानशालाज्ञानशालादिकं कारयन् शाश्वतमहिसामयं धर्म पालयन् । दीनानुद्धरन सदैव धर्मकार्ये तत्परोऽवर्तत।
त्रायदोघाने कश्चित्केवली समायातो वनपालेन तदागमे निवेदित तस्मै तुष्टिदानमदादुत्तमनरेशः । तदनु नृपादयः सर्वे पौरास्तं वन्दितुं तत्राऽऽजग्मुः । देशनान्ते राजा पृष्टम्-भगवन् ! भवान्तरे मया किमकारी येनात्र भवे चैतावती समृद्धिराता ? केन कीरखमितः १ केन कर्मणान्धौ पतितः ? केन चाऽनंगसेनागणिकायाः वशंवदोऽभृवं तत्प्रकाशं कृपया कथय । केवली वदति
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स्म-राजन् ! श्रूयताम-त्वं भवान्तरे हिमालयचूलिकायां सुदत्तनगरे 'कणवी' जातौ धनानिधो बभूविथ, पुनस्तव चतस्रो मार्या | आसन पूर्व धनधान्यादिसमृद्धिमानभूः । पश्चात्पुरावतकर्म योगाद् दारिद्रयवाजातः परमेकदा पथि चौरलुण्टितवस्त्रपात्रादयश्चत्वारः । सत्यसाधवस्तत्र नगरे समाजग्मुः । तेभ्यस्त्वं भक्या पात्राणि, वस्त्राणि प्रासुकाहारांश्च ददिथ, तब चतसृमिश्च पत्नीभिस्तदनुमोदिसं, तेन हेतुनाऽत्र भने सुसमृद्धिमान त्वं राजाऽभूः । चतुर्मु निदानपुण्याद्राज्यचतुष्टयं लब्ध, चततः प्रेयस्योऽप्यभूवन पञ्चामूल्यरत्लानि मिलितानि । कि बहूक्तेन यानि यानि लोके श्रेष्ठानि वस्तूनि वर्तन्ते तानि सर्वाणि त्वया लब्धानि । परमेतत्सर्व साधुदान पुण्ययोगादेवात्र भवे लब्धमवेहि । मवान्तरे स्वयैकः कीरः पञ्जरे क्षिप्तस्तेनाऽत्र भषे त्वमपि शुकीभूय पञ्जरेऽवात्सीः, भवान्तरे स्वमेकदा कञ्चन साधुमालोक्याऽसौ मत्स्य इव दुर्गन्धिरस्तीति निन्दितवान् । तदुत्थकर्मयोगादिह जन्मनि त्यमपि समुद्रे पवितश्च । मकरण ग्रस्तोऽभः । पुनः साऽनङ्गसेना भवान्तरे महासुन्दरी सपत्नी हास्येनाऽनेकधा तद्रूषाधिक्यागणिकामचीकथदतः साप्यस्मिन् भवे वेश्याऽभूत् पूर्वभवपत्नीनेहादत्रापि तदशोऽजनि । इत्याकर्ण्य सनातसंसारखैराग्योऽथोत्तमनृपः पुत्राय राज्यं दचा तदैव तत्केवलिपार्श्वे दीक्षामादात । उ तपश्चरमध्युपि सम्पूर्णे कालं कृत्वा देवोऽभवत् । ततश्युत्वा महाविदेहक्षेत्रेवतीर्य कर्माणि क्षपयित्वा मोक्षं लप्स्यते । भो भो लोका! असारेऽस्मिन्संसारे भवन्तोऽपि स्वस्त्रद्रव्यस्य सदुपयोगं कुरुत, यतो निर्धनोऽप्युसमकुमारोभवान्तरे सुपात्रदानमदात्तेनात्र भवे महती राज्यसमृद्धिं सुखसंपत्तिं च प्राप । अतस्तद्वद् यः प्राणी निष्काम धनं सुपात्रक्षेत्रे. वपति यस्यति च स तद्वदेवात्र परत्र सुखी भवति भविष्यति च ।
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धन विन कयवनो जेह वेश्याइ नाख्यो, धन ज दिन वशिष्ठे राम जातो न भाल्यो।
सुकृत सुजसकारी अर्थ ते ए उपार्जी, वणिज उपजन्तो अर्थ ते दूर वाों ॥ ४ ॥
भो भो लोका ! इह संसारेऽर्थसञ्चयोऽपि कर्तव्य एकास्ति । यतस्तद्विना महतामपि दुःखमेव जायते यथा-कयवमानामा श्रेष्ठी, जयदा द्रव्यहीनोऽभूत्तदा भुक्तभोगया गणिकया हठाभिजालयानिष्काशितः । रामचन्द्रमपि वनवासगमनसमये कुलगुरुरपि वशिष्ठो | निर्धनत्त्वान्नाऽऽद्रियत । अर्थे सति सुकृतशतमपि कर्तुं शक्नोति । अर्थतः सर्वाण्यपि महान्ति कार्याणि सिध्यन्ति । मतः सर्वैर्धनसङ्ग्रहः कर्तव्य एव ॥ ४ ॥
द्रव्यद्वीनतया पैश्यानिष्कासितस्य फयवनानोष्ठिन: ३-कथाकश्चित्कृतपुण्यनामा श्रेष्ठी द्वादशवर्षाणि यावद्वेश्यालये स्थित्वा तस्यै षोडशकोटिद्रव्यमदात् । मृते च पितरि निर्धनतामापी कयवनाश्रेष्ठिनं ज्ञात्वा साऽका गणिकामुवाच-पुत्रि ! निर्धनमेनं मुश्च । पुत्री बदति है मातः ! एतस्य षोडशकोटिधनानि त्वया मया च गृहीतानि । तेनैतदन्यस्य कस्यापि सङ्गो न कृतः सम्प्रति निर्धनत्वेऽपि पुरा दत्ताऽमितद्रविण भुञ्जानाऽइमेनं कथं त्यजानि ? तत्राऽवसरे साऽका प्रकृपिता कयवमावेष्ठिन निर्भय निष्काशितवती । अहो! कीदृशः स्वार्थसाधनतत्परो जनस्त्रमावो यतो याक्त्तस्य धनान्यासन सावत्तं भृशमासक्ती । रिक्त पार्थे तमेव निर्मर्त्य निरकाशयत्वगेहादिति हेतोरथ एवं जगति सर्वतः श्रेयानस्ति । अर्थश्च दुष्करमपि सुकरायते धनिनं सो लोक आद्रियते किश्च द्रव्यहीनं रामचन्द्रमवेक्ष्य गुरुणापि सोनाहा । यथा
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पुरा बनगमनकाले रामचन्द्रो धर्मयुद्ध या कुलगुरु वशिष्ठ प्रणमन्तुकामस्तदाश्रममाययो । शिष्येण तदागमने निवेदिते वशिष्ठ उवाच । कियत्परिवारैरागतोऽस्ति रामचन्द्रः ? शिष्योऽवक-एकाक्येव । तदाकर्ण्य तस्य भाषणदर्शनादिदानं विनैव गुरुानमन्दिरं प्राविशत । इत्यं तं निर्धनं विदित्त्वा कुलगुरुरप्युपेक्षितवान् रामचन्द्रोऽपि तदभिप्राय जानन परावर्तमानोऽग्रे चचाल । अतोऽस्मिन् संसार लक्ष्मी विना कोऽपि कुत्रापि नैव सत्कृति सुकीर्तिश्च लमते ।
यतो लक्ष्मीप्रभावोऽप्येवं नीतिशास्र प्रदर्शितःवारांराशिरसौ प्रमुय भवती रत्नाकरत्वं गतो, लक्ष्मि ! त्वत्पतिभावमेत्य मुरजिमातत्रिलोकीपतिः ।। कन्दो जनचित्तरञ्जन इति त्वन्नन्दनत्वादभूत, सर्वत्र त्वदनुग्रहप्रणयिनी मन्ये महत्वस्थितिः ।। ५ ।।
नरिसुत रति-रंगो पो नो सात लारी, शिवतनय कुमारो ब्रह्मपुत्री कुमारी।
हित करि हगललिा जेहने लक्ष्मी जोवे, सकल सुख लहे सो सोहि विख्यात होवे ॥५॥ यथा-हरिसुतो-जयन्तोऽनंगो वा धनं धनं ददानो रत्या सह रेमे । शिवसुतो गणेश कार्तिकेयो वा ब्रह्मपुत्रीमसेवत प्रचुरतर- | लक्ष्मीप्रदानतः । यतो धनवाञ्जनः सदैव लक्ष्म्पनुभावतः सर्वसुखमनते । लक्ष्मीकटाक्षवीक्षितोऽपि जनः सर्वत्र प्रख्यातिमेति । | अतः सम्पदेव सर्वेषां सदैव सुखकारिणी संसारे सबैजनैर्विज्ञेया ॥ ५ ॥
लखमि पल यशोदा नंदने विश्व मोहे, लस्वमि विण विरूपी शंभु भिक्षु न सोहे। लखमि लहिय रांके जे शिलादित्य भज्यो, लखमि लाहिय शाके विक्रमे विश्व रंज्यो ॥ ६ ॥
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लक्ष्मीपतिसयादेव श्रीकृष्णो जगन्मोहयति विश्वविजयी च वर्तते शम्मुश्च तद्राहित्येन भिक्षाशी विलसति । लक्ष्मीप्रमादालोऽपि रंकनामा श्रेष्ठी शिलादित्यसदृशं पलीयांस मपतिमजयत् । पुनस्तधेन लक्ष्मीप्रसादाहिजपो जगद्विजयीभय जनतामृणमुक्तां कृत्वा स्वनाम्ना संवत्सरं प्रावर्तयत ॥ ६ ॥
अथ धनप्रभावेण रंकष्ठिजित-शिलादित्यनृपस्य ४-कथानकम्अस्ति गुर्जरदेशस्य पश्चिमभागे सर्वसमृद्धिसम्पन्चाद्धर्माऽनुरागिमहामहेभ्यराठ्या वलभीनामपुरी तस्यागतिप्रतापी शिलादित्यनामा राजा राज्यं करोतिस्म । तत्रैव नगरेऽतिधर्मिष्ठो धनधान्यसमृद्धो नित्यं देवगुरुभक्तिकारको दीनजनपरिपालको रंकनामा श्रेष्ठी प्रतिवसति स्म । राजमहिण्याः श्रेष्ठिन्या सह प्रीतिरासीत् । एकदा राज्ञोऽन्तःपुरे कुतश्चित्कार्यवशादागतायाः श्रेष्ठिन्याः करे | | रलजटितस्वर्णकंकतिका राश्यावलोकिता, तल्लुब्धया तयाऽयसरं प्राप्य भूपो भणित:-स्वामिन् ! रंकनाम्नः श्रेष्ठिनो भाया रात्री असाधनी वर्तते तादृशी तु ममाऽपि नास्ति । ततो यथा सा मे देयात्तथा कुरु नो घेदहमन्नोदकं न ग्रहीष्यामि । तमिशभ्य राज्ञोक्तंप्रिये ! त्वं माशोची:, सांप्रतमेवानीय दीयते । ततः श्रेष्ठिगृहं गत्वा राज्ञा श्रेष्ठी गदितः भोः-श्रेष्ठिन् ! तव गृहे रत्नककतिका al वर्तते सा मे राश्य देहि नो चेदलाद् ग्रहीष्यामि । श्रेष्ठी भार्यया निषिद्धः कथमपि दातुं नाङ्गीयके । अथ नृपेण भृशं सदर्थमुपद्वतः
भेष्ठी गजनपतिहमीराय प्रभूतद्रविणं दत्वा तत्साहाय्येन शिलादित्य पराजितवान् । इत्थं धनमहिमानं विलोक्य भो भव्या ! यूपमपि सर्वापविनाशकं धनं मत्वा तदर्थ निरन्तरं प्रयतध्वम् । पोडतीर्थकल्पेऽयं प्रबन्धः ।
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PLAN
अथ ३-कृपणता-विषयकण कण जिम संचे कीटिका धान्यकेरो, मधुकर मधु संचे भोगवे को अनेरो ।
तिम धन कृपिरो नोपकारे दिवाये, इम हि विलय जाए अन्यथा अन्य खाए ॥ ७ ॥ यथा-कीटिकागणः कणशोधनानि मञ्चित्य न स्वयं मुक्ते, न परान् भोजयति. न वा धर्मार्थ व्येति, किन्त्वन्य एव वदीप संचितं धनं भुङ्क्ते । पुनथा शुदाभिः पर मधुको छन्ते, सवैप कृपणो धनसञ्चवमेव करोति । तत्स्वयं धर्मादौ व व्येति, किन्तु राजा यक्षादिौरादिको वा तद्धनं हठादपि गृह्णाति ।। ७ ।।
कार्पण्ये मधुमक्षिकायाः ५-दृष्टान्त:___यथा-कोऽप्येको दाता ज्ञानिनमप्राक्षीत-हे दयानाथ ! कृपणस्य मधुमक्षिकासाम्यं कथं दीयते १ ज्ञानी जजल्प-दे दातः ! * श्रूयताम-मधुमक्षिका हि महता परिश्रमेण नानादेशतो रससश्चयमेकत्र कुर्वते इयन्तं परिश्रमं कृत्वाऽपि रसेषु माधुर्यरूपां लक्ष्मी al स्वयं मनागपि न भुञ्जते, नेव कस्मैचिदपि सुपात्राय दानबुझ्या ददते । तथैव ये कृपणा जायन्ते तेऽपि समर्जिवं निज द्रव्यं । भूमावेव निदधते । स्वयं किश्चिदपि नोपभुञ्जते । नैव कुत्रापि धर्मार्थ विनियुञ्जसे । अतः लोके रुपणा मधुमक्षिकासमा गीयन्ते।
कृपणपणु धरंता जे नव नंदराया, कनकगिरि कराया ते तिहां अर्थ नाया। इम ममत करतां दुःस्त्र-वासे पसीजे, कृपणपणु तजीने मेघ ज्यूं दान दीजे ।। ८ ॥
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किश्च-कृषणाग्रेसरा नवनन्दराजाः पृथक् पृशार कामगिरी : पं. नेमाकोशी , सर्वमत्रैव मुक्त्वा कालशकुः ।। तादृशाः कृपणा इह परत्र च दुस्समेत्र सहन्ते । अतो धनवद्भिः कपणे व माव्यम् । किन्तु यथा सोयदः स्वार्थनिरपेक्षो जल वर्षति, तथा सदुपार्जितं धनं सुपात्रादिसप्तक्षेत्रेषु वपनीयम् । तदैव लक्ष्याः साफल्य भवितुमर्हति नान्यथा ॥ ८ ॥
अथ ४-अर्थी-याचना-विषयेनिरमल गुणरागी त्यां लगे लोग राजी, तब लगि लहि जी जी त्यां लगे प्रीति झाझी ।
सुजन जम सनेही त्यां लगे मित्र तेही, मुख थकि न कहीजे ज्यां लगे देहि देहि ॥ ९॥
यावज्जनो लोमपिशाचवशीभय निजाभिमानं मुक्त्वा मां देहि मां देहीवि दीनवचनं मुखान्न निस्सारयति, तावदेव तस्मिन् I विद्यमानाः सर्वे निर्मला: सद्गुणाः सर्वत्र सुशोभन्ते । लोकाश्वाऽपि तमेवातिप्रियवचनेन समालपन्ति समाद्रियन्ते श्लाघन्ते च। पुनबान्धवा मित्राण्यपि च सत्रैव जनेऽनुरक्ता जायन्ते । ततोऽखिलगुणापहो याचनादुर्गुणोऽवश्यमेव सर्वैः सज्जनैहय एवेति । किंबहुना? तस्मिन् याचके येऽतिपरिचिता अपि तेऽपरिचिता इव तेन सह समाचरन्ति। कस्मिंश्चिदवसरे तु याचनभिया ते तन्मुखमपि द्रष्टुं नेहन्ते । असो ये गुरुत्वं महत्त्वं लोकमान्यत्वं चामिलषन्ति ते कदाचित्केपाश्चित्समक्षेऽतिलघुत्त्रनिदान याचनं नैव कुर्युः । यतो याचकाँल्लोकास्तुणादपि लघु मन्यन्ते । इति हेतोःस्थत्वेऽपि येन केनोपायेमाऽपि स्वनिहिः करणीयः । परं लघुत्वमुलं परयापन नैव कर्चध्यमित्येव परमाः ॥९॥ .
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___ जइ बड़पन बांछे मांगजे तो न कांई, लहु पण जिण होवे केम कीजे ति काई ।
जिम लघु शा माले नीरथीनानाधु, हरि बलि-तृप आगे बामना रूप कीg ॥ १०॥
हे प्रातः ! यदि महत्त्वमभिलषसि तर्हि कदापि किमपि कश्चन मा याचस्व । यदाह-' गुणशतमप्यर्थिता हरति ' याचK कस्य तूलादप्राधिका लघुता जायते । पुरा किल सोमिलनामा द्विजातिर्महावीरप्रभोलभवन दानमाप्तवान् । सर्वशक्तिमान् विष्णु-18 रपि बलेः सकाशाद्वामनीभ्य दानमग्रहीत ॥ १० ॥
अथ ५-निर्धनता-विषयेधन विण निज-यंधू तेदने दूर छडे, धन विण गृह-भार्या भर्तृसेवा न मंडे।
निरजल सर जेवो देव निर्जीव जेवो, निरधन पण तेवो लोक में ते गणेवो ॥ १२ ॥
यथा-जगति धनहीनजनं स्वरधुरपि नाद्रियते, भार्या तिरस्करोति, त्यक्तमर्यादीमय कदाचिदपि स्वपति न सेवते, भृशं । B मर्स्यति, शुष्क सर इव निधनो न शोभते । यथा जीव विना देहो न भाति तथा धनं विना प्राणी कुत्रापि कथमपि शोमा । नैव पत्ते कापि न च गण्यते ॥ १२ ॥ अन्यच
सरवर जिम सोहे नर पूरे भराये, धन करि नर सोहे तेम ते जे उपाये। धन करिय सुदंसो माघ जे जाण छूतो, धन विण पग सूझी तेह दीठो मरंतो ।।१३।।
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वारिपूर्ण सर इव धनवान् पुमानेव शोभते, नो निर्धन इति विदन् महाकवि घोऽपि निर्धनतया चरणरुजातों मृतिङ्गतोऽतो- 10 प्र लोके धनमपि महत्वप्रदायकं सर्वत्र यशकीर्तिमहिमादरादिगुणप्रख्यातिकरच समस्तविपत्तिरक्षणेप्यतिशक्तिमद्धोद्ध| व्यमिति सज्जनः ।।१३।
अथ ६- राजसेवा-विषयेसुजन सुहित कीजे दुर्जना सीख दीजे, जग जन वश कीजे चित्त यांछा वरीजे।।
निज गुण प्रगटीजे विश्वना कार्य कीजे, प्रभु सम विचरीजे जी प्रभू सेव कीजे ॥१४॥ हे भ्रातरः ! यदि यूयं लोकमान्यतामिछथ, तहि सजनजना विनय कुरुत, दुर्जनसङ्गति त्यजत, गुरुजनशिक्षा मनसि | | धरत । तथा सदाचारेण विश्वं पश्यत, लोकानुपकुरुत स्वार्थमुज्झत, राजसेक्या गुणानुद्घाटयत । प्रभुरिव-निजलामीवद | निगदितैर्गुणैर्लोके पूज्या वा निखिलकार्यकरणे शक्तिमन्तो भवेत ॥ १४ । किञ्च
भगात कार बड़ानी सेव कीजे जिकाई, अधिक फल न आपे कर्मी ते तिकाई।।
जलाध तरिय लंका सीत संदेश लावे, हनुमत करमे ते राम कच्छोट पावे ।। १५ ।। __गुरुन् भन्या भजत, लोको हि सर्वत्र प्रारब्धानुसार्येव फलमानोति । यथा सागरसूतीर्य लकातः सीताशुद्धिमानीय रामचन्द्राय यदा महावीरो-हनुमान न्यवेदय सदा तुष्टो रामस्तस्मै कच्छचन्धनक्सनमात्रमदात । अतः कर्मानुसारि फलं मत्वा महता भक्ति कुरुत ॥ १५॥
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अथ ७-खलता-दुर्जनसा-विषयरस विरस भजे ज्यू अंब निब-प्रसंगे, खल मिलण हुवे स्यूं अंतरंग प्रसंगे।
सुण सुण ससनेही जाणि ले रीति जेही, खल जन निसनेही तेशू प्रोति केही ? ॥१६॥
यथा निम्बरसालयोरेकदेशस्थयोः सम्पति निम्बकटुतागुण आम्ररसे समायाति अर्थादाम्रस्य नैसर्गिक यन्माधुर्य तदपि । दि निम्बसंगेन कटुवमुपैति । तथा खलसंमत्सजनोऽपि दुर्जनायते द्वौ शुकाविव यदाह-. "माताप्यका पिताप्येको, मम तस्य च पक्षिणः। अहं मुनिभिरानीतः स च नीतोगवाशने
गवाशनानां स गिरः शणोति, अहं च राजन् ! मुनिपुडवानाम् ।
प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ।। ६ ॥ अतो द्यूतपरस्त्रीरमणादिकात्मिकोभयलोकदुर्गतिदुःखप्रदायिकतादृशी दुर्जनसङ्गतिः सदैव सस्यया ॥ १६॥ अन्यच्चमगर जल वसंतो ते कपीराय दीठो, मधुर फल चखावी ते करयो मित्र मीठो।
कपि कलिज भखेवा मत्स खेली स्खलाई, जलमहि कपि धुडी छांडि दे ते भलाई ।। १७ ॥ कश्चिन्मर्कटो जलस्थमेकं मकरमसिमिष्ट फल भोजयित्वा मित्रमकरोत् । स खलतरो जलचरस्तु तदीयहृदयमेव भक्षितुमयतत । द्विदित्वा बुद्धिमहिम्नातं मकर तत्रैव मुक्त्वा स मर्कटो जलाइहिराययौ ।अतः खलेन कपटिना सह मैत्री कदापि नैव विधातव्या||१७||
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अथ सरलकपविमित्रोपरि-कपिमकरयोः ५-कथासमुद्रे कश्चिमकरः प्रतिवसति, वमेकदा तीरागत मर्कटोऽपश्यत् । सरलस्वभावः कपिस्तस्मै निष्ट फल प्रदाय तेन सह मैत्रीनकार । मकरोऽपि तद्भक्षित्वा तदपूर्वरसलोभेन प्रत्यहमुपतीरमागत्य तस्थौ । कपिरपि प्रतिदिनमनेकविधममृतोपम परिपकं फलमानीय तस्मै स्नेहयशाददात् । अर्थकदा स मकरस्तत्फलानि स्वमकरी भोजितवान् । साप्यतिमिष्टदिव्यफलाऽशनप्रमुदिता स्वपतिमपृच्छत-हे नाथ! त्वमेतत्फलममृतस्वाद कुत्र कथं लेमिषे ? तेनोक्तं-प्रिये ! ममैकः कपिः सखा वर्तते सेनाऽर्पितम् । तत्रावसरे साञ्चक-स्वामिन् ! यः प्राणी सदैवेशान्यमृतोपमानि फलान्यन्नाति, तस्य शरीरस्य माधुर्यमनु राममेव स्यात् । ततो मे तस्य हृदयमशितुं वाञ्छास्ति साम्प्रतमन्तर्वस्नीत्वादयमेर दोहदो ममोत्पन्नोऽस्ति । एष के नाप्पुयायेन काटादिनापि त्वयाऽऽशु पूर्यताम्, नो चेद् गर्ने विकृतिमुपैष्यति । इति मकरीवचः समाकी मीनोऽचिन्तत | एपाऽतिदुष्करकार्यमादिशति, यदि न पूरयिष्यामि तदाऽनिष्टमपि स्यादिति विमृश्य तेनोतं-प्रिये ! दुष्करस्ते दोहदस्त तस्तयोक्तं नाथ ! छलप्रपश्चादिना समित्रं तमत्र समानय । पश्चादहं चातुर्येण सदीयहृदयमांसमशित्वा पूर्णदोहदा भविष्यामि । अब तदिने स मकाश्चिन्तित स तत्राकात्य तस्थौ कपिनाऽर्पितफलमपि मक्षितु नैच्छत् । तदा प्रेमपात्रेण कपिना भणितो मित्र ! किपच जातम् ! येनौहास्य भज से, सस्नेहेन न माणसे न किमप्यसि ? तदा दीर्घ निःश्वस्य कपटेन मकरोक्-मित्र ! कि वच्मि? अब मे प्रिंयकरी मकरी केनचितुना कृपिता जाता । अतो न खादति, न पित्रति, मय्यालपति न मया सह प्रेम्णा वक्ति । शतशः पार्थिवापि न प्रसीदतीति दुःखातुराय मेऽशनलपनादि किमपिन रोचवे, अतोघाऽऽगन्तुमपीच्छा नासीत्। तथापि तवाऽतिस्नेहेन कमपाऽऽगतोऽस्मि ।
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यावत्सा प्रसभा न भविष्यति तावन्मं मनोऽपि स्वस्थं नैव स्यात् । मम तु तत्प्रसादकृते कृता यत्नाः सर्वे वैफल्यमीयुः त्वं मे स्निग्धः सरवाऽसि, अतस्त्वदुपायेन सा प्रसन्ना भविष्यति । अतस्त्वं आजायां प्रसादय, येनाऽहमपि सुखी स्याम् । तदुक्तमाकलय्य कषिनाचिन्दिना हि सर्वस्यापि वलहादिक्केश मोचयन्त्येव, मम त्वसौ परमस्नेही सखा वर्तते । एतदीयदुःखन्तु मोचितव्यमेवेति विसृश्य तमद - सखे ! चिन्तां मा कुरु त्वरितमहमवश्यमेव केनचिदुपायेन तां प्रसादयिष्यामि । परं सा जले तिष्ठति, मित्र ! तत्र मे गमनं कथं भविष्यति १ राच्छ्रुत्वा मकरोदक- तत्राऽहं त्वां सुखेन नेष्यामि त्वं मम पृष्ठे समारोह, तत्राsहं स्वामक्लेशेन शीघ्रं नयामि । ततः कपिस्तत्पृष्ठोपर्युपाविशदथो मकरस्तं नीत्वा हृदि मुदमावहन् स्वस्थानं प्रत्यचलत्कियद्दूरं गत्वोवाच- हे सखे ! मम मकरी तब हृदयं बुति । सा सगर्भा वर्तते तस्या ईगेत्र दोहदः समुत्पन्नोऽस्ति । तच्छ्रुत्वा कपिर्दथ्यो अहो ! मया त्वस्यातिमिष्टानि फलानि भोजितानि । तत्प्रतिपले त्वेष खलतामेव प्रकटयन् मामेव जिघांसति, अतोऽसौ स्वबुद्धया वञ्चनीयस्तदैव जीविष्यामीति विश्वार्य प्रत्युत्पन्न बुद्धिः कपिर्विहस्यावोचत । मम भ्रातृजाया महृदयं युयुक्षति चेत्का हानिः १ सहर्षमह दास्यामि । परमेतवया तत्रैव कथं नोक्तम् १ यतोऽहं हृदयं वृक्षोपर्येव स्थापितवानस्मि, ततस्तत्र गत्वाऽपि तस्यै कि दास्यामि १ अतो मां पश्वाचीरं नय । तत्र गत्वा हृदयं लाला सत्वरमागमिष्यामि ततस्ते पत्न्यै दच्या प्रसादविष्यामि । निर्बुद्धिर्मकरस्तदैव तटमाययौ, कपिस्तूत्छत्य वृक्षमारुरोह । विश्विद्विरम्य मकरेण समाहूतः कपिरवादीद-रे विश्वासघातक खल ! त्वं जलचरोऽहं च भूचर इति स्वया सह मम का मंत्री ? मया ते यन्मधुरं फलमेतावद्धोजिटं तत्फलमदर्शि । त्वन्तु मामेव जिघांससि, याहि याहि ।
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कपिनोक्तमन्योऽपि यः कश्चन खलेन सह मैत्री कुरुते करिष्यते वा सस्यापि मारवत्स खलः सत्यक्सरे जीवितं लाति लास्पति | पात: प्राणधनसुखादिकापहारिणी खलमंत्री सर्वथा त्याज्यैव ।
अथ ८-अविश्वासविषये-उपजाति-छन्दसि--- विश्वासि साथे न छले रमीजे, न चैरि विश्वास कदापि कीजे ।
जो चित्त ए धीर गुणे धरीजे, तो लच्छिलीला जगमां वरीजे ॥ १८ ॥ यो हि विश्वस्तेन सह कपटं न करोति, तथा शत्रौं न विश्वसिति पुनर्यो धैर्येणामु गुण हृदिधत्ते, सनरो लक्ष्मी सुखेनाऽऽभोति॥१८॥ इन्द्रवजा-छन्दसि-चाणायके ज्यूं निज काज सारथो, जे राजभागी नृप तेह मारयो ।
___ जो धूअड़े काक विश्वास कीधो, तो धूकने वायस दाह दीधो ॥ १९ ॥ यथा-चाणक्यनामा द्विजः पुग मायाप्रपञ्चेन पर्वतराज विश्वस्तं विधाय पश्चात्तमुपायेन निहत्य निजकायमसाधयत् । 2 तथा जगद्धृत्तकचतुरे काके विश्वासकरणादुलूको मृत्युमियाय ।। १९ ॥
अथाऽविश्वासे घूककाकयोः ६-कथानकम्-- कश्चिदेक उलूका प्रत्यहं रात्रौ तत्रस्थकाककुलमुपद्रवमासीत । तेन सर्वे काका एकत्र गोष्ठी विधायैतदपायोपायं व्यमशन । Ram तदा काकनायको न्यगदद-वयं सर्वे तं जेतुं न शक्नुमः, यतः स बलीयान वर्तते । अत: केनचिदुपायेन तं विश्रब्धं कृत्वा पश्चात्स
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मीहितमनायासेन साधनीयम् । यावदस्मात् तस्य विश्वासो न भविष्यति तावत्तस्याऽपायङ्कर्त्तुं नैव शक्ष्यामः | अतः प्रथममस्माभिस्तथा विधातव्यं यथाऽस्मासु तस्यात्मीयबुद्धिरुत्पद्येत, लेशतोऽपि भेदबुद्धिर्न तिष्ठेदिति सर्वैरनुमोदितम् । तदनु सर्वे काकास्तदन्तिकमेत्य तं नमश्चक्रुः सर्वे च तत्रोपाविशन् । तत्राऽवसरे तेषां मध्ये यो नायकः स जगाद हे पक्षिराज निशाटन ! स्वमस्माकं स्वाम्यसि वयं ते प्रजाः स्मः । सदैव स्वरसेवायै समुद्यतस्तिष्ठामोतो मनसि कस्मादपि भीर्ति मागाः । अस्मासु सत्सु सुरक्षhyastar केsपि नार्हन्ति किमधिकेन १ तवार्थे सर्वे वयं प्राणान्दित्सामः । अस्माकन्तु तव सुखेनैव सुखं दुःखेन च दुःखं भविष्यति, अत्र मनसि मनागपि शङ्कां मा कृथाः । ravaraar कृपा विधातव्या
यतः सेवकाः सदैव प्रसादमेव वाञ्छन्ति । यथाधुता वयं पीयन्ते हे नाथ ! तथा पीडां मा देहि तथा सति जीवितदानमेवास्माभिस्त्वत्तः प्राप्तमिति ज्ञास्यामः । अथ काकस्येदृशं वचनमाकपये तेनोक्तम्-यूपं सर्वे मामभिरक्षत, युष्माक मद्यप्रभृति कापि भीतिर्न भविष्यति । तनिशम्य सकला अपि काका उदकवचनं सहर्षं मेनिरे । अथ तस्मिन्नेव दिने स उलूकः कतिपय परिवारयुतो गिरिमहरे तस्थिवान् चायसाथ तद्वारि रक्षाकृते तस्थुः । तदा पूर्ववैरं स्मरन्तः काका दध्युः - ईदृशोऽसरो न मिलिष्यति, इतीदानीमेव समीहितं साधयाम | तदनु ते काका अनुक्रमेण चच्चा बहूनि शुष्केन्धनान्येकैकशः समानीय तत्र गुहाद्वारि समचिन्वन् । तदनु सञ्चितेषु तेषु तेऽर्घज्वलदङ्गारं समानीय क्षिप्तवन्तः । तत इन्धनेषु प्रज्वलितेषु गुहान्तः स्थास्ते उलूकपक्षिणो भस्मसाद्भभूवुः । ततः कृतकृत्याः काकास्तदर्थं स्वच्छजलवति सरसि स्नात्वा स्वस्थानमः । परस्परमुचुः - भो
! काका: ! पश्यत २ विश्वासमुत्पाद्य दुष्करं यद्वैरिनिकृन्तनमासीत्तदनायासेनैव सम्पादितमस्माभिरम्पथा तचैव स्यात् ।
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SECUR
अयमत्र ज्ञातुं सारोऽस्ति यदुलूको रिपोः काकस्य मिष्वाक्पै विश्रब्धीभूय यथा सकुलो ममार, तथाऽन्योऽपि यः कोऽपि शत्रौ विश्वास | विधास्यति स नूनमुलूकवजीवितं हास्यति । अतोऽहं वच्मि दुर्जनजनस्य कदापि विश्वासो नैव कर्त्तव्यः ।
-मित्रता-विषये-- करि कनक सरोसी साधु मैत्री सदाई, घसि कसि तप वेधे जास वाणी सवाई।
अहव करहि मन्त्री चंद्रमा सिन्धु जेहा, घट घट वधवाधे सारिखा वे सनेही ।। २० ॥ यथा-सुवर्णमग्नितापितं समुज्ज्वलति, यथा वा कयणोपलसंघृष्टं कनकं महार्वतामुपैति । पुनः कनकं कदापि निजगुण न मुश्चति, तथा परीक्षितेन सजनेन सह मैत्री कर्तव्या । स एव सन्मित्रमुच्यते, यो विपद्यपि न जहातीति सुवर्णवत्सन्मित्रस्य । लक्षणमवसेयम् । पित्तलमग्नौ यथा श्यामायते, तथा यः कार्यकाले भित्रं त्यजति, अन्यदा स्वार्थवशेन तमुपैति, ईदृशेन सह मैत्री न विधेया, यदियं सत्यवसरे विफलायते । गदाह भापाकविः-- सज्जन तब लग जाणिये, जब लग पड्यो न काम । हेम हुताशन परखिये, पीतल निकसे श्याम ॥७॥ अतः साधुजनैः सह कृता मैत्री सदैव सुखदा भवति कदापि दुःखदा न जायते । यदुक्तम्
साधु मिले सुख ऊपजे, सोय मिले मल जाय | सामाने पावन करे, पोते पावन थाय ।। ८॥ अतः साधुमैत्री हेमोपमा ज्ञातव्या यथा-हेम्नो दहनादिसंताप कृतेऽपि जात्वपि स्वगुणं न त्यति, किन्त्रधिकं द्योतते तथा
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साधुजनमंत्री जातेऽप्यपराधे न हीयते, लेशतोऽपि द्वेषं नोत्पादयति, प्रत्युत संयमगुणा एधन्ते । किञ्च साधवोऽपकर्तुरपि गुणानेव ख्यापयन्ति परषहसहने तत्कृतसाहाय्यं मन्वते । अपि च पूर्णचन्द्रोदयात्सागरो यथा वर्धते तथा जलयोगाच्चन्द्रकला नितरां शोभते । इत्थं चन्द्रसागरयोः स्नेह इव साधुजनमैत्री प्रतिदिवसमेधते इति तात्पर्यार्थः ॥ २० ॥
साधुजन मित्रतोपरि सहस्रमसाधोः ७ - प्रबन्धः -
I
यथा - पुराऽवन्तीनगरे जितशत्रुनृपस्य पार्श्वे वीरसेननामा कश्चन क्षत्री जीविकायै समायातस्तस्य तत्र सेवायां महान कालो यातः । अत्रान्तरे राज्ञः कालसन्दीपननामा रिपुरासीत् स निर्बुद्धिः परमाभिमानी राज्ञः प्रणामं तदादेशश्च न चिकीर्षति । अत एकदा राजा सदसि सर्व सभ्यानवोचत - भो भो ! वीरा ! यो हि कालसन्दीपनं गृहीत्वाज्ञाऽऽनेष्यति तस्मै सत्पारितोषिकं दास्यामि परं कोऽपि तर्भाग्यकरोद । तदैव वैदेशिको वीरसेनो नृपं जगाद - अहमेकाक्येव तमत्र समानेतुं शक्नोमि । राजाज्वक्सहि गच्छ सत्वरमत्रानय ततो नृपादेशात्स तत्र गत्वा छलप्रपञ्चादिना तं नृपान्तिकं निनाय । तेन च तुष्टो राजा तस्मै देशमेकं दत्त्वा राजानमकरोत् तहिनात्तस्य सहस्रम् इति नाम पप्रथे स राज्ञः प्रेमपाश्रमभूत् । कालसन्दीपनञ्च गर्वमुक्तं व्यधात् तदनु नृपा देशमशेषमङ्गीचक्रे, नृपाऽऽज्ञया च स्वनगरमाययौ । सहस्रमहनृपो राजस्नेहितयाऽन्यान् सर्वान् तृणाय मन्यमानः सर्वयाऽकुतोभयः केसरीव बभ्राम । अथैकदा तत्र चतुर्ज्ञानी श्रुतसाररिराययौ, तद्वन्दनार्थं नृपादयः सर्वे लोका आययुः । सहस्रमल्लोऽपि निजपरिवारयुतस्तत्राऽऽगात् । वन्दित्वा यथास्थानमुपविष्टे नृपादिके लोके स सूरिर्भविकजनमुद्दिश्य देशनां प्रारमत तथा हि-भो भो ! लोकाः सावधानतया शृणुत यदिह संसारे कोऽपि शूरो, दाता, विद्वेश्व नास्ति । वा कस्यापि वाक्पटुता
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| नास्ति तदैतन्मात्रमेव श्रुत्वा सहस्रमल्लो जगाद-भगवन ! भवदुपासको भवदग्रेहमेव शूरस्तिष्ठामि । योऽहं नृपादेशात्परैरग्रायं सुदुष्टं
कालसन्दीपनमेकाक्येक बध्वा नृपान्तिकमनयम् । इत्थं मयि शूरे विद्यमाने नास्ति कोऽपि शूर इति किं धूपे? तत्रावसरे गुरुणोक्तम्___अप्पा व दमेअव्वो, अप्पा हु खलु दुबमो। अप्पा दंतो सुद्धी होइ, अस्सि लोए परस्थ य ॥९॥
अयमोऽस्या गाथायाः-भो! आत्मा एव दमितव्यो वशीकर्तव्यः, हु इति निश्चयेन खलु यस्मात्कारणादात्मा दुर्दमो दुर्जेयो वर्तते आत्मानं दमन जीवोऽस्मिन लोके परत्र-परभवे च सुखीभवति । यतः परेषां दमनेन शौर्य न जायते यो हि निजेन्द्रियः । सह निजात्मानं जयति, स एव शूरो निगद्यते । इति गुरूकं श्रुत्वा सञ्जातविषयमुख्यः सहस्रमल्लस्तदैव तस्यैव गुरोः पार्थे | चारित्रं ललौ। पुनर्विहरन स्वपरात्मानं पुनानः कालसन्दीपननगरमागत्य कायोत्सर्गध्यानमाश्रित्याज्य इव निश्चलस्तस्थौ । ___अथ रथवाटीतः परावर्तमान। कालसन्दीपनरतत्र तथावस्थं तमालोक्य सम्यगुपलक्ष्य च मनसि व्यचिन्तत--अरे ! स एवाऽयमत्रागतो दृश्यते धर्मधूर्तः, यः पुरावाऽऽगत्य मा बध्वा नृपान्तिकमनवदेष एव मे वैरी। न जाने पुनरपि किमपि विधातुमेतद्वेषेण समागतो भवेदतो वध्य एवेति ध्यात्वा सेवकानादिशद्-भो ! एनं घातयत । ततस्ते लोकास्तकालमेव शस्त्रैरसर्लोष्ठेई- | ण्डैध ताडितुं लमाः । परमेवं महोषसर्गेऽपि सहस्रमल्लो मुनिस्तेभ्यः किश्चिदपि न चुकोप न वा मनसि खेदं चकार, किन्तु सर्व
समभावेन सेहे | ततः क्रमशः क्षपकश्रेणीमारूढोऽतकृत्केवलीभूय मोक्षमियाय । ईदृशां साधूनां सदैव षट्कायजीवैः सह मैत्री | तिष्ठति अत ईशसाधुभिरेव मैत्री कार्या । किश्व
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गली
६॥
शह सहज सनेहे जे लहे मित्रताई, रवि परि न चले ते कंज ज्यु पन्धुताई।
हरि हलधर मैत्री कृष्णने जे छ भासे, हलघर निम खंधे ले फिरयो जीव आसे ॥ २१ ॥ सूर्यकमलयोमित्रतेत्र यस्य स्वभावो निश्चलो जायते तेन सह कृता मित्रता यावनीवं न विमुञ्चति । यथा कृष्णबलभद्रयोरमृद् यो हि बलभद्रः कृष्णशवं षण्मासपर्यन्तं मोहवशानिजस्कन्धे स्थापितवान् । तथैवाज्येऽपि सज्जनैः सह मैत्री कुयुः ॥ २१ ॥
अथ मित्रतोपरि कृष्णबलभद्रयोः ८-कथानकम्__ यथा पुरा-द्वारिकापुरे दग्धे कृष्णबलमद्रौ ततो निर्गत्य काचिदेकामटवीमीयतुः । तत्र श्रीकृष्णस्य वृपा लग्ना, तेन बलमद्रो जलं याचितः । तत्राऽवसरे श्रीकृष्णस्तरोरधस्तादुपाविशन् बलमद्रश्च जलं लातुं गतवान् । मार्गे केनचिद्वैरिणा सह युध्यमानस्य बलस्य विलम्ब जाते वृषातुरः श्रीकृष्णचन्द्रः पादोपरि पदं निघाय तत्रैव सुधाप, परं तदीयचरणे यत्पपलक्ष्माऽऽसीत्तद् दूरत एवं रोचिष्णु विलोकमानस्तद्वन्धुर्मत्तः कृष्णस्य विनाशो माभूदिति धिया पूर्वत एव वने वसन् जराकुमारो मृगभ्रमावाणं मुमोच, वेन च तच्चरणं विद्धमभूत् । तदाऽतिव्यथितः कृष्णोऽपि अरे किञ्जातमित्युच्चैरजल्पत्तदा लक्ष्ये सलग्नं नाणं लातुं तत्राऽजातो जराकुमार। स्वपाणेन विद्धं यदुपतेश्वरणं वीक्ष्य पश्चाचापं कुर्वन् तदीयचरणयोः पतन भृशं शुशोच अवदच्चरे बन्धो । मया मृगान्त्या शरो मुक्तस्तदागः क्षम्यताम् । तदा कृष्णेन भणित:-हे कुमार! लमितः सस्वरमपसर, नो पेबलभद्रः समागतस्त्वामपि हनिष्यति । अथ निर्गते जराकुमारे कृष्णस्त हाणमुद्दधे, तदा तस्य महती वेदनाऽभूत् तेन तस्य जराकुमारोपरि विद्वेषो जातः । तत आयुषः
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क्षीणत्वात्तथैव भवितव्यत्वाच्च स ममार । तदतुः समागतो बलभद्रस्तमेवमवदत् - हे भ्रतः । मया जलमानीतं सत्वरमुचिष्ठ जलं पिच । इत्थं बहुधाssलपितोऽपि स यदा नोत्तस्थौ, चोतदार तदा बलभद्रेण ज्ञातं, अहो ! मम विलम्बोमूत्तेनाऽसौ कृपितो न वदति, न वोसिष्ठति, ततस्तत्पदयोः पतभिजापराधः क्षमितश्विरमनुनीतथ । अहो ! जन्मत एवासौ रोषणस्वभावोऽस्ति सम्प्रति मम विलम्बत्वे विशेषेण रुष्टोऽस्ति, तेन नोत्तरति । इत्यादि विलपतस्तस्य महान् कालो यातः । ततः स्नेहप्रथिलः स निजस्कन्धे तं नीत्वा पण्मासानितस्ततो भ्राम्यन् व्यतीयाय । किश्चोत्तमपुंसां तादृशां श्ववाः षण्मासपर्यन्तं विकृति नाधिगच्छन्तीति तच्छवविकृतिशङ्कावकाशोऽप्यत्र नोत्पदे । स्नेहात्कृष्णशवं वहन् स बलभद्रस्तं मृतं नावबुध्यते स्म । तेन संस्कारादिक्रियामपि न विदधाति । सत्रावसरे बलभद्रप्रतिबोधनाय कश्विदेवो नररूपेण तदग्रे तैलनिष्कासनयन्त्र सिकताः पीलयितुं प्रारभत । तं तथा कुर्वन्तं बलदेवोऽवदत्- कि भो ! लोको हि तिलानि निपल्प तैलमधिगच्छति, वालुकन्तु न कोऽपि पीलयति । त्वमेतत्कथं पीलयसि १ देवोऽवदत्-भोः ! तैलमवश्यमेव निर्गमिष्यति । बलदेवोsap - नहि नहि, एतस्मात रजांस्येवोत्पत्स्यन्ये । सिकतापेषणात्तैलोत्पत्तिः कुत्रापि दृष्टा श्रुता वा ? एतत्कर्मणा एवं मूर्ख एव प्रतीयसे । अरण्यरोदनवदेष ते प्रयत्नः कदापि नैव सफलीभविष्यति । तदा देवोऽवदत्-भो ! अहं नास्मि मूर्खस्त्वमेव मूर्खसि । यतः पण्मासमृतमपि बन्धुं जीवन्तं मन्वानस्वच्छ वसे । यदि ते शवोऽयं जीविष्यति तर्हि रालुकेभ्योऽपि तैलोत्पत्तिर्भविष्यत्येव । तच्छ्रुत्वा वलदेवस्त्वं मूर्खोऽसीति तं निगद्याज्ये यातस्तावत्पुरो गत्वा देवोऽपि शिलोपरि कमलबीजं वप्तुं लमः । तदालोक्य
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तमप्यवदर-मो: किकरोषि ? जलप्वेतदुप्यते, प्रस्तरे तु कमलानि मोप्यन्ते । अनेन कर्मणा त्यामतिमूर्ख जनाः कथयिष्यन्ति । देवो || जगाद-भो ! अहन्तु मूर्खः, परं त्वन्तु मूर्खराज एव लक्ष्यसे । यवं मासपट्कमेनं एवं जीवितधिया वहन्न बुध्यसे । यदि मृतो | जीवितो भविष्यति सहि चैलेऽपि कमलमुत मेक्ष्यत्येव । इति हदुक्तमाकर्ण्य व्यचिन्तकला-अहो ! किमेष तथ्यं ब्रूते ? तावदव
पिप्तौं शवे च वैकृत्यमजायत सदालोक्य कृष्ण मृतमवेदीत । तदनु तदीयं शर्व क्षीरसागरे निक्षिप्तवान् । तत्रासीमस्नेह त्यक्त्वा । लिचारित्रं गृहीत्वा तपश्चर्यायै सत्परोऽभवत् । बलभद्रस्य कथा पुरात्र धर्मवर्गे ४०-प्रबन्धे दर्शितास्ति ग्रन्थान्तरे च विस्तरतया | वर्तते, तत एव विशेषदिदृक्षारतात्रलोकनीया । इह तु प्रसङ्गता संक्षिप्तैव साऽलेखि ।
___ अथ १०-कुण्यसन-विषयेमलिन मलिन शोभा सांस थी जेम याए, इस कृषिसमयी त्यूं संपदा कीर्ति जाए ।
तिण कुषिसन हेते सर्वथा दूर कीजे, जनम सफल कीजे कीर्तिकांता वरीजे ॥ २२ ॥ दिने शोममानं कमलवनमपिरजन्या म्लानतामुपैति ।याशी सम्पत्तिः-शोमा तस्य दिने वर्तते ताशी रात्रौ न जायते । तथा | सदाचारवता या शोभा, या कीर्तियां च सम्पत्ताशी दुर्व्यसनरतजनस्य सा पूर्वोक्ता कापि न सम्भवति । ताः सर्वा अपि II दुर्व्यसनिनं नरं त्यजन्ति । सम्पदाविहीनः कुव्यसनी लोकनिन्दामनेकविध दुःखश्च सहते । अतो दुर्व्यसनं त्याज्य येन
सदाचारेण जन्मना साफल्यं भवेचदापरणीयम् । कुव्यसने त्यक्ते समाभिते च सदाचारे मोधोऽपि सुलमायते ।। २२ ॥
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अथ १० - द्यूत विषये - द्रुतविलम्बित-वृत्तम्
सुगुरु देव जहाँ नवि लेखवे, धम विनाश हुवे जिण खेलवे । भवभवे भमवूं जिण ऊवटे, कहि वि कोन रमे तिण जूनटे || २३ ॥
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द्यूतव्यसनी पुमान् विशुद्धेषु देवगुरुधर्मेषु रागं न कुरुते, सन्मार्ग नाश्रयति, सर्वतोऽपि भ्रष्टीभूय धूतरमणसमासक्तमना धनानि गमयति । संसारसागरान्मुको भवितुं नाहतेि । अनन्तकालपर्यन्तं भवाम्बुध बुडमेव क्लेशपरम्परां सहते । यद्रमणेन युधिष्ठिरादयो महापुरुषा अपि राज्यदारादिकं हारयामासुर्वनवासादिक्केशमपि सेहिरे । सर्वे श्रुता दृष्टा ये दोषास्तं धूर्त रममाणस्यैव वर्तन्ते | अतः श्रेयोऽर्थिना मतिमता तस्याज्यमेव ।। २३ ।
श्रुतरमणस्यागात्सुखीभवतः पुण्यसारस्य ९-कथा
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यथा-इहैव भरत क्षेत्रे गोपालपुरनगरे घनद इवासीमसम्पत्तिमान् राजप्रमुखसकललोकमान्यः पुरन्दरनामा श्रेष्ठी निवसति । तस्य मार्या शीलगुणमण्डिता पुण्यश्रीर्वर्तते । परं सकलसमृद्धिसम्वेऽपि तयोर्दम्पत्योः पुत्रार्थं महती चिन्ताऽऽसीत् । अथैकदा पुत्रार्थी स श्रेष्ठी लोकोच्या धूपदीपा दिनानोपचारैर्निजगोत्रदेवीमारराध । किय हिमाम्येवमाराधयतस्तस्य सा तुष्टा देवी प्रत्यक्षीभूष जगाद वत्स ! किमीइसे १ तन्मार्गय तदा श्रेष्ठी देवीं पुत्रमयाचत । अथ तथास्त्वित्युदीर्य देवी निजस्थानमगात् । स्तोकेनैव दिनेन तत्पत्नी गमं दधार तत्प्रभावतः सा निशि सुस्वममपश्यत् । ततो जागृता सा तत्फलं पतिमपृच्छत् । विचार्य सोडवत्र हे प्रिये ! तव गर्भे
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बली
॥
महादजी
साष्टात् । तृतीये मासे श्रेष्ठी स्वामिवात्सल्यं, सङ्घपूजनं जिनेन्द्राराधनं महामन चक्रे । तथा सप्तक्षेत्रयां यथाशक्ति धनान्यदात पुण्यश्रियाश्च गर्भप्रभात्रत उत्तमा दोहदा अभूवन् सर्वे च वे श्रेष्ठिना पूरिताः । तदनु दशमे मासि शुभमुहूर्ते स्वोवस्थानैकसवग्रहे सा पुण्यश्रीः पुत्रमजनिष्ट श्रेष्ठी महोत्सवं कृतवान् । ततस्तस्य पुण्यसार इत्यभिधानमकरोत् पञ्चमाब्दात्परं तं लेखकशालां प्रावेशयद । स चाऽचिरेण कालेन पुंसो द्विसप्तति'कलाकुशलोऽभवत् ।
तत्रैव नगरे रत्नसारनामा श्रेष्ठी वर्तते तत्पुत्री रत्नवत्यपि तस्यामेव शालायामागत्य पठति स्म । अथैकदा तथा सहकेन हेतुना पुण्यसारस्य कलहो जावो. द्वयो: हुङ्कारतुङ्कारादिकममवत् । छात्रैर्वारिते तयोः कलहो यदा न न्यवर्तत, तदा शिक्षकाः समेत्य तौ वारयामासुः । तदा पुण्यसारस्तामुवाच - हे रत्नवति । त्वं ग मा कुरु, नूनमहं त्वां परिणीय दासों करिष्यामि, एषा मे प्रतिज्ञा'भूत् । एतत्सत्यं कृत्वैव स्वस्थीभविष्यामि तयोक्तं कदाप्यहं त्वाश र गुणहीनं न वृणुयाम् । त्वाच्शास्तु मम गृहाणि मार्जयन्ति जलाहारका भृत्याश्च विद्यन्ते स्वप्नेऽप्येष से मनोरथो न सेत्स्यति । तदा पुण्यसारोऽवदत्- नूनमहमेव त्वां परिणेष्यामि, अत्र मनागपि सन्देहं मागाः । ततःप्रभृति तावेकत्र पठन्तावपि मिथो भाषणादि नाऽकुरुताम् ।
अथ पुण्यसारः स्वमन्दिरमागस्य चिच्छायमंदनः कुत्राप्येकान्तप्रदेशे तस्थौ । मात्रादिपरिवारैः सह नवदति स्मन व मुङ्क्ते । केवलं तामहं कथं परिणीय कृतां प्रतिज्ञां पूरयिष्यामीति विचार सागरे -निमग्नस्तथा रत्नवत्यास्तादृग्वाग्बाणैरनुष्ठतः शिखापर्यन्तं विद्धः किङ्कर्त्तव्यविमूढ इवाऽदृश्यत यदाह-' उनतो न सहते तिरस्क्रियाम् । अन्यथ
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पादाहतं यत्थाय मूर्धानमधिरोहति । स्वस्थादेवाऽपमानेऽपि देहिनस्ततूरं रजः ॥ १० ॥
इति परमेषा तत्कृता प्रतिज्ञा तामपरिणीय कदापि न गन्तुमर्हति पुनस्तदुद्वाहस्तु दैवायत्त इति हेतोस्तस्य पुण्यसारस्याऽधिकं वैलक्ष्यमभूत् । अत्रावसरे तत्पिता पुरन्दरो गृहमाययौ । भोजनसमये समाकारितोऽपि पुण्यसारः कुत्रापि केनाऽपि न लक्षितस्तदा erria श्रेष्ठतस्ततः शोधयनेकान्ते त्रुटिते मञ्चके विलक्षवदनं सुप्तं तमपश्यत् । तदा पित्रोक्तम्-वत्स ! उत्तिष्ठ, भोजनं कुरु, अद्य . कि जाते, देना नषः सुतो : तेनोक्तं- हे पितः १ स्वं याहि युङ्क्ष्वामिदानीं न भोक्ष्ये । पिताऽवक् कथम् १ पुत्रोऽगदत - हे पितः ! मयाद्य प्रतिज्ञातम् - यात्रद्रत्नवतीं न परिषेष्यामि तावदन्नोदके न ग्रहीष्यामीति । यावदियं प्रतिज्ञा में न पूर्वेत तावत्कथं भुञ्जीय १ अत एनामपूरयित्वा प्राणात्ययेऽपि भोजनं नैव कुर्यामिति तथ्यं विद्धि । तच्छ्रुत्वा पित्रोक्तम्- हे वत्स ! इदानीम
समय वर्ततो यत्नेन विद्याभ्यासः क्रियताम्, परिणयनकाले प्राप्ते त्वदनुकूलया तयाऽन्यथा वा सह ते लग्नं कारयिष्यामि । इदानीमुदि भुज्यतां पुत्रोऽवदत्-पितः । तामुद्वावाऽशिष्यामि । श्रेष्ठी जगौ वत्स । एतदाश्रहं त्यज किं त्वत्कथनेन त्वां परिणायिष्यामि ? मम तु स्वत एव महसीच्छा वर्तते तव लग्नार्थम् । पुण्यसार आख्यत - पुत्रपरिणयेच्छा पितुर्भवत्येव । मया त्वेषा प्रतिज्ञा कृतास्ति यद्रत्नवत्याः पाणिग्रहणं कृत्यैवाऽशिष्यामीति । प्रान्ते पित्रोक्तम्- हे वत्स ! उतिष्ठ भोजनं कुरु । तस्याः पितुः पार्श्वङ्गत्या स्वदुक्तं साधयिष्यामि । तदनु पित्रा सह गत्वा पुण्पसारो बुभुजे । अथ पुण्यसारः पितरमवादीत् - हे पितः । त्वमिदानीं तत्र गच्छ, कार्य साधय । यदा पुरन्दर श्रेष्ठी बहुयोग्यपरिवारयुतो रत्नसारगृहमाययौ । तमायान्तं विदित्वा रत्नसारस्तदमिमुखमा
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९॥
गात गृहागत सं बहु सम्मेने। स्वागतप्रश्नानन्तरं सोपस्छत् । मोः ! स्वामिन् ! त्वदागमनेनाहमद्य स्वं धन्यं मन्ये, गृह में पवित्रममत् । अत आगमनप्रयोजनं ब्रूहि कार्यशेतिमपि तदादिश । तेनोक्त-भोः श्रेष्टिवर्य ! मत्पुत्रेण सह तब पुश्या लग्नं यदि स्यातर्हि शोभनं भवेत् । एतदर्थमेवागतोऽस्मि, तच्छुत्वा रत्नसारश्रेष्टिना सहर्षङ्गीचके । परं तत्रस्था तत्पुत्री ऋषां विहाय जगादनहि नहि पुण्यसारमह कदापि न वरिष्ये, तदन्यमेव वरिष्यामि । आजन्मकौमारव्रतिनी स्यामिति परं तं तु स्वमेऽपि वरीतुं न कामये । तत्रावसरे मनसि दथ्यौ पुरन्दरः । अहो! इदानीमेव यस्या ईदृशी निर्लज्जता साऽ किमाचरिष्यति ? परं रत्नसारश्रेष्ठिना दोक्त-ई श्रेष्ठिवर्य ! इयं मे पुत्री मुग्धा निमामि द वेत्ति । अत एजहोनालिगेगा। अहमेनां परिबोध्य स्वीकारयिष्यामि त्वं मान्योऽसि, स्वदुक्तं सर्वेषां शिरोधार्य मम तु विशेषतः । इत्थमवसरोचितवचोमिः सत्कृतः पुग्न्दरश्रेष्ठी निजालयमागात सर्वमपि पुत्राय न्यवेदयत् । तदा पुण्यसारो मनसि निश्चिक्ये यत्वदापि सा मां स्वेच्छया न वरिष्यति परमहं निजगोत्रवेव्या दसो. ऽस्मि । अत एतदर्थ सैव समागध्या साऽवश्यं मदीप्सितं पूरयिष्यति । ति निश्चित्य धूपदीपनैवेद्यादिमिः प्रत्यहं त्रिसन्ध्यं तां गोत्रदेवीमाराधितुं लग्नः । अथैकदा तुष्टा देवी सं प्रत्यक्षीभ्य जगाद-वत्स ! तवाराधनेन तुष्टाऽस्मि स्वेप्सितं प्रार्थय । सोऽवदत्हे मातः ! यदि प्रसन्मासि सहि रत्नवती मां यथा पृणुयात्तथा कुरुष्व । एतदर्थमेव समाराधितासि । देव्युवाच-अस्तु सापि तुम्यं दत्तात्र संशय माकार्षीः । इत्युदीर्य देव्य भ्याऽभूत पुण्यसारोऽपि इष्टः स्वकार्यमध्ययनादिकं सयस्लतया का लग्नः । अथ पुण्यसारस्य केनचित् छूतकारिणा सह सङ्गतिता तत:प्रभृति स द्यूतासकोऽभवत् । अथैकदा राजा लक्षमूल्यकमाभरणं पुरन्दराय रक्षित दत्तं कथिता कार्यकाले त्वयैतदातव्यं गृहे स्थाप्यतामिदानीमिति । सोऽपि तदाभरणं पृथ गेव सुरक्षितप्रदेशे स्थापितवान् ।
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पुण्यसारेण तदालोकि, अथान्यदा तदादाय ते पुण्यसारेग हारितम् । कियदिनानन्तरं रामा मागिते तस्मिन् पुरन्दरो गृहमागत्य तत्र मजूषायां समुदघाटितायां समाऽपश्यदा स पुण्यसारमपच्छत । हे पत्र ! मयान त्वत्समक्षे राजकीयमाभरणं स्थापितम् । परमत्र तम पश्यामि कि त्वया नोतं तत् ? नृपोऽध मार्गयति-पुत्रोऽवक्--मयैव गृहीतम् । तदा पित्रोक्तं तदानीय देहि राजे देयमस्ति । पितुर्वचनं श्रुत्वा तदैव स निजगृहाचिन्तातुरो निरगच्छत् ग्रामावहिरागतः स सन्ध्यां विलोक्य निशि झुत्र कथं ब्रजेयमिति विचिन्त्य तकस्य वटवृक्षस्य कोटरे समुपविष्टः। इतश्च निशि पुत्रमपश्यन्ती तन्माता श्रेष्ठिनमवक्-सामिन् ! पुण्यसास क गतः । श्रेष्ठी न्यगदत । मया राज्ञो लक्षमूल्यकमाभरणं स्थापितं तत्तेनाऽपहृतमतो मवैव शिक्षार्थ निष्काशितः। हा ! रात्री त्वया पुत्रो निष्काशितो धन्योऽसि, याहि, सत्वरं संशोध्य पुत्रमत्रानयेति भायोक्त्या पुरन्दरः स्वयमेव सर्वत्र संशोधितुमलगत् । सर्वत्रैवान्विष्टोऽपि कुत्रापि तच्छुद्धिर्न लब्धा । इत्थं पुत्रं शोधयतस्तस्य सकला रजनी निरगात् । यदा नगरान्तस्तस्य शुद्धिर्न लब्धा सदा श्रेष्ठी प्रभाते जाते नगराबहिरितस्ततस्तं संशोधयबासीत् । इतश्च यभृक्षकोटरे स सस्थिवान, तक्षोपर्यागते द्वे स्त्रियो मिय एवमारपितुं लमे। यथा तयोरेकाऽचक्-अपि सखि ! अध मे कस्याप्यमृतकौतुकस्थ दिक्षा वर्तते। द्वितीयावदत कुत्र' साध्वक्-सखि ! इतश्चतुःशतक्रोशोपरि बल्लभीपुरनगरं वर्तते । तत्र धनप्रवरनामा महर्षिक: श्रेष्ठी निवसति, तस्य समपुत्र्यो विद्यन्ते । ता युवतीः पश्यता पित्रा वरचिन्तां कुर्वता लम्बोदरो देवः समाराषितः स प्रत्यक्षीभूय तमबोचत । अमुकमासे अमुफतिथी निशि प्रथमयामे नगरद्वारे स्त्रीद्वयागमनानन्तरमेक: पुमान महामाग्यवान सकलगुणवानागमिष्यति तस्मै त्वया सप्तैव कन्या पेयाः । इति हेतुना स सकलो विवाहसामग्री सबीचके
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'सुन्दरमद्भुतं विशाल मण्डपमरीरचत् । तेन विवाहोत्सवः प्रारम्भ परं वरस्य नियमोज्यावधि न जातः । देवोदित दिनमद्यैवास्तीति तत्र गत्वा कौतुकं द्रष्टव्यं किं भवतीति निश्चित्य तं वृक्षमभिमन्त्रितवती । तदा स वृक्षः समुङ्गीय क्षणादेव वल्लभीपुर• परिसरमा गात् । तत्र च ते स्त्रियों ततो वृक्षादवतीर्य रात्रेः प्रथमे यामे द्वारं प्रविश्वाऽन्तरागच्छताम् । तदनु पुण्यसारोऽपि तत्को|टराद्वहिर्भूय तदनुपदं तद्द्वारेण पुरान्तः प्राविशत् । तत्रावसरे देवतो दित्तवचनानुसारतः स्त्रीद्वयप्रवेशानन्तरं प्रथमे यामे प्रविशन्तं • तमालोक्य श्रेष्ठिमटास्तं पुण्यसारं श्रेष्टिसमीपमानिन्युः । श्रेष्ठयपि तं कन्यावरं मत्वा बनं सत्कृतवान् । तदा सोऽचिन्तयदेष महत्या मामपरिचितं कथमेवं ज्योति १ ततः ष्टी जगह महाभाग्य ! मम सप्त पुत्र्यः सन्ति तास्त्वमुद्वहस्व । तच्छृष्यन् पुण्यसारो मनसि नितरां जहर्ष ततस्तमुत्तमत्रस्त्राभरणैरलंचक्रे । तदनु वरो घोटिकारूढो महता महेन नृत्यगीतवादित्रैः सह पौरलोकैः पुरे बभ्राम । ततो विधिना ताः सप्तकन्याः पुण्यसारः उपायंस्त । करमोचनवेलायां स श्रेष्ठी पुण्यसाराय वराय प्रचुरं धनमदात् जाते च विवाहे तस्य सप्तभौमं प्रासादं शयनाय दत्तवान् । तत्र प्रासादे सप्तपत्नीभिः सह पुण्यसारः सप्तम्यां मालायामागतः । तत्र च ताः सप्तभगिन्यः परस्परं कलां विकलां बद्दिर्लापिकामन्तर्लापिकां काव्यनाटकादिकञ्च सरसमालपन्ति । परं तस्मै किमपि न रोचते यतस्तत्रावसरे तन्मनसि महती चिन्ताऽसीत् । मया नृपस्थापितमाभरणं छूते हारितं तदर्थ मत्पितरं राजा किंङ्करिष्यति ? यदि ते स्त्रियों गमिष्यतस्तर्हि मम का गतिर्भविष्यतीत्यादि चिन्तातुरः पुण्यसार आसीत् । वाच नानाविधदा-भावादिकं दर्शयन्त्यो मुहुस्तमालापयन्ति परं स तु चिन्तया किमपि नोत्तरति । तत्रावसरे से चिन्तातुरं शून्यमान दिला वा काचिदपृच्छत हे नाथ ! कि क्षुधा बाधते १ येनोकं नहि नहि । वयोक्तं तर्हि चिन्धातुरो मौनं कथं भजसे १ तेनोक्त मन्य
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किमपि नास्ति परं देहशङ्कां निर्वर्तयितुमिच्छामि । तदेव सप्तमी सुदक्षा गुणसुन्दरी श्री भृङ्गारके जल लात्वा जगाद -- नाथ ! उत्तिष्ठ, ततस्तया सह पुण्यसारस्तत्र बहिर्गतवान् । परमसौ दध्यो- एता हि मम ग्रामनामादिकं न विदन्ति । एवास्त्यक्त्वा यदि गमिष्यामि तर्हि परिणीतानामासां का गतिर्भविष्यति सर्वाश्च महादुःखिन्यो भविष्यन्ति । अतः किमपि सूचनीयं ततो गन्तव्यमिति • घ्याला तत्र कुड्ये तदै लिखित्वा नीचैरुदतस्त् । तथाहि-
"क्यां गोवालय वल्लही, क्यां लम्बोदर देव ? | आव्यो बेटो वद्दि वसण, गयो सत्त परिणेव ||११|| अथ बहिरागतः स तामवादीत् - अयि श्रेयसि ! त्वयान्त्रैव स्थीयताम् । अहं शौचं विधाय समागच्छामि, सा तत्राऽविष्व । पुण्यसारस्तत्रे वञ्चयमितस्ततः पश्यन् द्रुतं व्रजन वटवृक्षकोटरे तस्मितिष्ठत् । तावता नगरकौतुकं वीक्ष्य ते स्त्रियावपि तत्र वृक्षे समुपाविशताम् । मन्त्रप्रयोगेण क्षणादेव स वृक्षो गोपालपुरे निजस्थाने समागतवान् । ते वनिवे निजालयं जग्मतुः । पश्चास्पुण्यसारोsपि कोटराद्वहिर्भूय नगरकौतुकं बिलोकमानः कुत्रापि चतुष्पथेऽतिष्ठत् । तावत्पुत्रं शोधयन्पुरन्दरः श्रेष्ठी तत्राऽययौ । पुत्रदर्शनादसिहृष्टीभूय पुत्रं गृहमनयत् । तत्र पिताऽपृच्छत् - हे वत्स । त्वं कुत्राssसीः ? अहं सर्वत्र त्रिलोकयनैव त्वां कुत्राप्यपश्यम् । तदा मोsवक्र - हे पितः १ त्वमेव निजगदिश यद्राजकीयं स्थापितमाभरणमशेषमानीय देहि तदेव लातुमहं गत आसमू, ततो द्यूतकारिपार्श्वतः सर्वान्याभरणानि समानीय पित्रे ददौ । श्रेष्टयपि तानि लात्वा नृपाय समर्पयस् ।
are भी पुरे सां गुणसुन्दरी तत्रैव चिरं स्थित्वा भर्तारमपश्यन्ती तत्रागत्य ताः सर्वा अपि भगिनीस्तत्स्वरूपं न्यवदत् । तातोपममुदन्तं वा विच्छांमवदनाः सर्वा अपि बिखिदिरे । जाते व प्रभाते मियौ तलिखितां गायां वाचयित्वा शा
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resist व्यसनीमः परिणीय गोपालपुरमगमत् । तदनु तासां पित्रादिभिरप्येतद्विदित्यौदासीन्यं हेमे । तत्रावसरे गुणसुन्दरी पितर१ ई पण्मासाभ्यन्तरे तं सशोध्यायानयामि नात्र संशयीथाः । यदाह--- उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः, देवेन दयामिति कापुरुषा वदन्ति ।
!
hi freer कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, यस्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ॥ १२ ॥ सर्व हि यत्नतः प्राप्यसे तदा तस्यै पुंवेषं समयं शकटोष्ट्रेवनेकेषु क्रेयवस्तुनि भृत्वानेकपरिवारैः सह तां कनीयस पुत्र गुणसुन्दरीं भर्तुः शुद्ध प्रास्थापयत् । ततः प्रस्थिता सा कियद्भिर्दिन गोपालपुरमागात् । तत्र च विशिष्ट रत्नादि लात्वा तत्रत्यनृपायो पहृतवान् । राजा च कुशलप्रश्नादिना सत्कृत्य तस्य निवासाय चैकं महाभवनं समर्पितवान् । तत्र स्थित्वा सुखेन नानाविधं व्यापारमारब्धवान् । अल्पदिनैरेव तत्र प्रख्यातोऽभवद् गुणसुन्दरनाम्ना सर्वे च व्यापारिणस्तत्पार्श्वमागन्तुं लग्नाः । पुण्यसारोऽपि तदन्तिके क्रयविक्रयावालोकितुं लग्नः । तमुपलक्ष्य पुंवेषे व्यापारयन्त्या गुणसुन्दर्या निश्चितम् । यदयमेवाऽस्माकमुवोढाऽस्ति तेन हेतुना तत्साकं महती मैत्री चक्रे । ततः प्रभृति द्वयोर्महान् स्नेहः पप्रथे चैकं विनाऽपरस्मै किमपि न रोचतेस्म । अथ गुण सुन्दरस्य वैदेशिकस्य गुणसम्पन्यादिकमालोक्य सा रत्नवती पितरमवोचत । हे तात! मह्यं गुणसुन्दर एव रोचते, अतस्तमेव शृणोमि तेन सह मम पाणिग्रहणं कारय । तच्छ्रुत्वा रत्नसारश्रेष्ठी निजपरिवारयुतस्तदन्तिकमागत्यैनमनदव हे गुणसुन्दर ! त्वं मम पुत्रीं परिणय । यथा गुणैरुदारैस्त्वं शोभसे, तथैव सापि सकलैर्ललनागुणै रूपैश्च शोमते । तदाकर्ण्य मनसि सोऽचिन्तयत्- हा दैव ! स्वया प्रथमं
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ममेदृशं दुःखं दस । पुनरस्या अपि कि हिरमसि । तथापि तदवसरे यथा माव्यं तया भविष्यतीति विमृश्य गुणसुन्दरस्तदुक्तिमगीकृतवान् । सतो महोत्सवेन रत्नसारश्रेष्ठी निजपुत्री रलवर्ती गुणसुन्दरेण साकं परणायितवान् । ___अथ रत्नवतीपरिणयं श्रुत्वा पुण्यसारः कुलदेवीमवदत्-मातः ! तवाऽपि वचनमलीकमभवत् यद्रलवत्या गुणसुन्दरेण सह विवाहो जातः । देव्यवदत-पुत्र ! मवचनं पृथा नाऽस्म भविष्यति पुण्यसारः पुनरवदत्-मातः ! सा परस्त्री जाता सा मदुपयोगे नागमिष्यति । देवी जगौ त्वं निश्चिन्तो भव, सा लक्ती तु पूर्वमेव तुभ्यं मया दत्ता । सा कदापि परखी नाभन भविष्यति ततः स देवी प्रणम्य निजकार्ये लग्नः। ततो गुणसुन्दरेण सह तस्याः स्नेहो वयुधे, यथा नखमांसयोरस्ति, परं दाम्पत्यसंयोगसम्बन्धस्तयोस्तावदप्रकटित एवाऽऽसीत् । अथैक्दा गुणसुन्दरी दो-पन्मया प्रतिज्ञातं तस्याप्यवधिरासमो दृश्यते ।। पतिः प्राप्तस्तत्र संशयो नास्ति, अतो मतेवियोगजदुःखसहनमनुचितमेव । इति फेनाप्युपायेन पति व्यक्तीकृत्य सुखमनुभव नीयमिति विचार्य श्मशानभूमो चिता कारिता । तस्यां मर्तुकामोऽभवद् गुणसुन्दरस्तत्स्वरूपं सर्वेऽपि नृपादयो विविदुः । सर्वेषो विस्मयो जो यत्केन हेतुना गुणसुन्दरसार्थवाहो नवयौवनश्चित प्रथेष्टुमिच्छति ? कारणन्तु केऽपि न विदुः । सर्वत्र कारो जातो नृपोदध्यो-यदि स एवं विधास्पति तदा मे महत्यपकीतिर्भविष्यति । यदेतद्राज्येमुक सार्थवाहश्चितो प्रविश्य ममारेति। अतस्तथा स न कुर्यादिति यतितव्यम् । तदनु राजा स्वयमेव गुणमुन्दरान्तिकमागत्य तस्कारणमपृच्छत् । बहुधा पृष्टोऽपि स किमपि नोचतार । तत्रावसरे केनचिदुक्तं-हे स्वामिन् ! स गुणसुन्दरः पुण्यसारस्य महान स्नेही वर्तते एतादृशं मित्रं तस्पान | कोऽपि नास्ति । अव एनमादिश, स सदन्तिकं गत्वा कारणं पृच्छेभिवारयेछ । सदाकर्ण्य नृपेणोक्तम्-भोः पुण्यसार ! तब पित्र
KI
टा
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किमर्थं म्रियते ? तदेनं पृच्छ निवारय च । अथ राजादिष्टः पुष्पसारस्वत्पार्श्वमागत्य तमव । हे मित्र ! तव किमयेन यौवन मुमूर्षसि ? तत्कारणं वद येन तदुपायं कुर्याम् । असति प्रतीकारेऽहमपि त्वया सहेब मरिष्यामि क्षणमपि ते विभोमो मया नैव सते । तदा चिरै निःश्वस्य सोऽवक हे मित्र । नमस्य प्रकाशेनापि कि स्यात् १ अत एवद्विषये किमपि मा पृच्छ । पुण्यसारेण पुनरुक्तं भो ! यदि मां मित्र जानासि तर्हि रहस्यगोपनं सर्वथा नैव युज्यते यदुक्तम्
प्रीति तहां पहुंदो नहीं, पड़दो तहां शी प्रीत । प्रीति विषे पड़दो करे, वही बड़ी विपरीत ॥ १३ ॥
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इत्याकर्ण्य तेनोक्तं- हे मित्र 1 त्वं मे महामित्रमसि । रवं महताग्रहेण पृच्छसि तेन त्वां निषेदुःखस्य कारणं वच्मि, शनैः शनैः कर्णे न्यगदत् कुब्धे यदलेखीस्तत्स्मर्यते न वा ? तनिशम्य पुष्पसारोऽप्यवदत् - सत्यमेव मयाऽलेखि । तत्रावसरे सर्वमादितो यथा जावं तथा सा जगाद । सर्व श्रुत्वा पुण्यसारस्तदैव स्वगृहाद् स्त्रीपरिघानीयव
मानाय्य तस्यै समर्पयत् । मूलतत्वं विदन्यः सर्वे नृपादय आश्रमापुः । तत्रावसरे रत्नसारः श्रेष्ठी नृपं व्यजिज्ञपत्स्वामिन्द्र । मम पुत्र्याः का गतिः १ नृपोऽवक् सापि पुण्यसारस्य भार्याभूत् । तदनु तामपि सत्कृत्य महता महेन गृहमानयत् । तदा तन्मनसि पूर्वजातकलहद्वेषो लेशतोऽपि नासीत् । तस्या अपि पुरातनकलहकालीन प्रतिज्ञा विस्मृतिरेवाभृत् । ततस्तयोरपूर्व एषानुरागः परस्परमुदैत । तदनु गुणसुन्दरी भईमिल नवार्तामाकर्ण्य ता अपि षड्भगिन्यस्तत्राऽऽययुः । ततस्ताभिरष्टाभिः पत्नीभिः सहदेव इव स सुखमयुक्त । तत्र नगरे तदभितोऽपि सर्वत्र पुष्पसारस्य कीर्तिः प्रससार । तत्रावसरे उमगरोधाने चतुर्ज्ञानी श्रीधराचार्य आगात | वनपालेन तस्य वर्धापनं नृपाय निवेदितम् । राजा वनपालाय यथेष्टं धनं दधे । तदनु
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सपरिवारो राजा तं बन्दितुं तत्राऽभ्ययो । सर्वे लोका बन्दनानन्तरं यथायोग्यस्थाने समुपाविशन् । तदा गुरूरवसरोचित व्याख्यानं प्रारेमे तथाहि -मो लोकाः । सर्वे पदार्थों विनश्वरा दृश्यन्ते । परमविनाशी सर्वत्र सहायको धर्म एवाऽस्ति । स सर्वैः सदैवाराधनीयो यस्तं प्राप्यापि न करोति स एवातिमूढः । यतः
अपारे संसारे कयमपि समासाद्य नृभवं, न धर्म यः कुर्याद् विषयसुखतृष्णातरलितः । ब्रुडन् पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणं, स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ १ ॥
इह दुस्तरे संसारे महता कष्टेन मानुष्यं प्राप्य यो धर्म न कुरुते वस्त्रालभ्यमिदं मानुष्यं मुधैत्र याति । अथ देशनान्ते पुरदरश्रेष्ठी गुरुमपृच्छत हे स्वामिन् । पुण्यसारं वरीतुं रत्नवस्था इयान् विमर्शः कथमुदपद्यत ? गुरुवदत् श्रूयताम्, एष पुण्मसार: पूर्वजन्मनि संयमं लौ | परमसौ कायमुर्ति सम्पक्तया परिपालयितुं न शशाक केवलं सप्त प्रवचनमातृरेव सुखेन पर्यषालयत् । ना भवे सप्तदारान् सुखेनाऽलमत । अष्टमभार्याप्राप्तौ चास्य विलम्बो जातस्तत्र कारणमष्टमी कामगुप्तिमवगच्छ । गुरुभाषितमेतदा समुपावैराग्यतया तदैव पुरन्दरः श्रेष्ठी दीक्षामग्रहीत् । शुद्धं साधुधर्ममाचर्य प्रान्ते देवगतिमाप 1
तदनु पुण्यसारो नगरश्रेष्ठी बभूव । ततो धर्ममर्जयन् न्यायतो घनं वर्धयन वार्धक्ये पुत्रं निजस्थाने संस्थाप्य मार्गाभिराभिः सह संयमं परिपालय देवगतिमगच्छन् । भो मन्याः । एषा कथास्मान बच्छिश्यति तदाकर्म्यताम् पूर्व यदास धूतयसनी बभूव तदा नृपस्थापितं लक्ष मूल्याभरणं चोरयित्वा द्यूते हास्तिम् । वयः पित्रा निष्कासितः कुत्रापि तरूकोटरे तस्थिवान् दैवात्परिणीताभिर्न-
છૂટ
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वोढाभिः सरसं भाषितोऽपि किमिति वसुं नासो सूर्या एमरोद | सर्वत्रेउ द्यतव्यसनादेव पुष्पसारोऽसहव । पुनर्वदासी aast तदा तस्य नानाविधं सुखमुदियाय । सर्वत्र कीर्तिः पप्रये, प्रान्ते संयमं गृहीत्वाऽऽत्महितं कुर्वन् देवगतिमाप, अतः सर्वचा धूतव्यसनं हेयमेव सर्वैरिति ॥ २३ ॥
अथ ११ - मांसभक्षण-विषये, इन्द्रवज्रा-वृत्तम्
जे मांस लुब्धा नर ते न होवे, ते राक्षसा मानुष रूप सोहे ।
जे मांसभक्षी नरके हि जावे, छोड़े भला ते स्वरगे सिधाचे || २४ ॥
मोः सज्जनाः ! इह यो मांसमन्ति स नररूपधारी राक्षस एव प्रतिभाति । ईदृशो जीवो ध्रुवं नारकी नरके च पुनर्गन्धा तत्र सन्देहो नास्ति, अतो मांसाशनव्यसनं सर्वथा शिष्टजीवैस्त्याज्यम् । किश्व - निजप्राणवदन्येषामपि जीवानां प्राणाः संरक्षणीयाः कदापि तद्विनाशो न करणीयः, तभ्यागाचे दयालवः सत्पुरुषा निश्वयेन स्वर्गे प्रयान्ति ॥ २४ ॥
अथ मांसमहार्घता सिद्धिं कुर्वतोऽभयकुमारस्य १०-कथा
मगधावीशः श्रेणिको नृपो राजगृहे निवसति तस्याभयकुमारो मंत्री वर्तते । तत्रान्यदा राजसभायां कथाप्रसङ्गतः कश्चिन्मांसलोलुपः क्षत्रियो जग - स्वामिन् ! अथ व आपणे मांसस्य महार्षता नास्ति । अल्पेनापि मूल्येन यथेष्टं लभ्यते तदिति श्रुत्वाऽममकुमारो मनस्यवदत् । यो हि जीवं घातयति तस्यैव मांसं सुलभमस्ति । मम तु दुर्लभमेव प्रतिभाति, अवोऽय मांससौलम्यवक्ता
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सो येन केनाप्युपायेन प्रतिबोधनीय इति विमृश्पस मौनमाश्रित्य तस्थौ । अथ समा विसज्य नृपोन्तापुरमागाधान्येऽपि श्रीमन्तो जनाः स्वस्थानमीयुः । अथ रजन्यामभयकुमारः प्रथम मांससौलम्यवादिनो महर्षिकस्य गृहमगात् । प्रधानं गृहागवं वीक्ष्य | यथोषितं सत्कृत्य कृताञ्जलि सोऽवदव-स्वामिन् ! अद्य मे सौभाग्यमुद्घटितं या गृहागतं वीक्षे । प्रभो ! कार्यमादिश तदा कुमारेणोक्तम्-सम्प्रति नृपारीरेऽकस्मान्महान रोग उत्पेदे वैधः कथयति रोगो महानस्ति । अतो यदासो राजा सेटकषोडशांशप-टू रिमितं सपादं दूध मांस भुञ्जीत, तदाप्रोग्यं लब्धुं शक्यते । अत आगतोऽस्मि राजाने त्वयोक्तं मससौलम्यमिति तत्तावन्मित हृदयमांसं देहि । यत्सत्वरं राजानं नीरोग कुर्यां वदाकर्ण्य राजमान्योऽपि सोऽवदत्-हे नाथ ! एतत्तु दुष्करमस्ति, अहं धनं ददामि मांस त्वन्यत एव लात्वा कार्य साधय यतस्त्वं मतिमसमरसतोऽसि गई हुन्छ । दश महसमयकारेण भो ! राबस्तु मांसापेक्षा वर्तते तदीयताम् । तदा पुनः सोऽवक-एवं मा कुरु मचो लक्षमितं द्रविण गृहाण । ततोऽन्ते लक्षद्वयमुद्रां लात्वा कुमारोपरगृहमागत्य तथैव तमप्यवादीत तेनापि कुमारमधिकमनुनीय मांसमदाना तावदेव धनमदायि । इत्य सकलराजमान्पश्रीमगृहाणि गत्वा मांसव्याजादनेकलचमुद्रां गृहीस्वा निशान्ते गृहमाययौ प्रमाणे च कुमारो राजसमामागतः । सदा सर्वे ते समागसा राजानमनामयमपृच्छन् । नृपस्तदा सविस्मयः कुमारमुखमालोक्त तत्रापसरे कुमारोऽवदद् महाराज ! गतेजनि सदस्येते सर्वे मसिसौलम्य जगवुः । असोई रात्रौ सर्वेषां गृहाणि गत्वा मांसं याचितवान, केनापि तम दत्तं सर्वे यथेष्टधनवितरणमेव पकुः । राजन् ! यदि मांसं सुलभ भवेचर्हि भवदर्थ सेटकस्य षोडशांशपरिमिते सपादे रदयमांसे मार्गिवेऽपि | सवादिलक्षवनानि कपमेवेऽदुः । तदाकर्णयन्तस्ते सर्वे त्रपावनतसूर्धान एव तस्थुः केऽप्यभिमुखं द्रष्टुन शेतः । वदेव सर्वे मांस
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||4|| भक्षणं प्रत्यावरूयुः सर्वे जीवाः सर्वतः प्रियतमा जीविताचामेव वहन्ति मृत्यू नैव वान्छन्ति । अतो जो हवा ये तन्मासमभन्ति
तेऽवश्यं नरकं व्रजन्ति तस्मान मांसभक्षणं सर्वथा सबैस्त्याज्यमेव । पुनरेतदेव स्पष्टीकर्तुमाह-पथा ये मांसाथिनो मान्ति ते महान्ति दुःखानि प्राप्नुवन्ति मूत्वा चान्तेऽवश्यमेव कालिकशूलिकप्रमुखा व नरकमधिगच्छन्ति ।
अथ मांसभक्षणानरकं प्राप्तस्य कालिकशूलिकस्य पुनस्तत्यागतः स्वर्गतस्य सुल सस्य ११-कथा__ यथा-राजगृहे नगरे कालिकालिको मांसाशी निवसति मांसधनलोलुपत्वात्प्रत्यहं स पचनतमहिषान् निहन्ति । इस्थमाजन्म र जीवाभिमवस्तस्य वार्धक्ये मरणसमये महादुरखमुत्पते। दुःखाता बरालय तदाखवावार मानाधियचिकिशानकारयत्सुलपः परं | कृतेषु प्रतीकारेषु घधिकमेव जातम् । तदा सुलसः पितुःखापनोदार्थममयकमारपार्थमागत्य नमस्कृत्य व्यजिजपत-दे स्वामिन् !
मया पितुर्दुःखोपशमाय पदव उपायाः हवा, परमुपाये सति तापशान्दिन जायचे, किन्त्यधिक वर्धदे, तत्र को हेतुरिति कथय ? ४॥ इति सुलसप्रश्नमाकलय्य कुमारेगाचिन्ति-असो महापापी नून नरके यास्यति तत ईदृशी घेइनामनुभवति । ततस्तमेवमवा
दीत-हे सुलस ! तव पिता यावजी क्रूरकर्माकरोद् धर्मन्तु स्वमेऽपि नाऽकृत । अतस्तस्य मुखकृत्कृतोप्युपायो नाभूत् खरोट्रादेरिव तस्य क्लिष्टोपचारैरेव शान्तिर्मविष्यति । अतः परं भूमौ सूचीमुखापसास्तरणे से स्वापय यदा तस्य पिपासा भवेत्तका स्वारेतमत्युष्णा वारि पायय शीतल सुस्वादु जलं मा देहि । तदनेषु सुरभिशीतलं तैलं मा मर्दय, किन्तु विष्ठामेव विलेपय, तदा स सुखी भविष्यति नान्यथेति निश्रित जानीहि । अथ कुमारकपनानुसारतस्तथैव कुवेतस्प शान्तिरसूचदा तेनोक्तम्-रे पुत्र 12
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अयं शय्या सुखकरी विद्यते । जलमप्यद्य शीवलं सुखपति, लेपोऽपि सुरभिर्ममवि रोचते । एतावद्दिनमी दृस उपचारस्त्वया कथं न विधे १ अतिगर्हितैरुपचारैः सुखं मन्यमानः स आयुःश्रये मृत्वा सप्तमै नरकं प्राप ।
अथ तदन्तिम क्रिया करणानन्तरं सर्वोऽपि तत्कुटुम्बवर्गः सुलसँ प्रत्यवोचत हे सुलस । त्वमिदानीं पितृस्थमाचर कुटुम्बे पोषय, नो चेदस्माकं का गतिर्भविष्यति । तदा सुलसोडादव-भोः कुटुम्बवर्ग 1 तदुक्तं सत्यमस्ति परं तथाचरणेन पिता मे यादर्शी दुःखवेदना भूसा भरद्भिरपि दृष्टा । अहमपि तथा करणेन तामेत्र यातनां मोपेऽवमेतत्पापं न चिकीर्षामि | तदा तैरुकं हे सुस ! तत्पापतो मा मेोवेदः सर्वेऽपि वयं तत्पापं स विभज्य लास्यामः, ततस्तव वासी वेदना नोदेष्यति । तत्रावसरे सुलसस्तत्समक्षमेव समीपस्थेन कुठारेण निजचरणमभांक्षीत् । तदा तदुदितवेदनार्दितः स सुलसः परिवारमत्रक हे मातः ! अतः ! हे मित्र ! ममेदानीं कुठाराघातेनाऽसया वेदना जायते । भवद्भिरपि किञ्चित्किञ्चिद् गृह्यतां विभज्य भवद्भिर्गृहीतायां वस्यां ममाल्यैव स्थास्यति । तैरुक्तं भोः सुरूप ! स्यमिदानीमुदरं निज हरे संपर्च शूल उत्पादयभित्र स्वयमेव पादं छखा वेदनामुत्पादितवानसि । पुनरस्तांस्तां वेदनां विमज्य लातुं कथयसि । साऽस्माभिः कथं गृह्येत १ यतः स्वकृतं कर्म स्वेनैव भुज्यते । तच्छ्रुत्वा मुलसोऽवदत्-मोः कुटुम्ब ! यदीमामरसी पर्सी वेदनां भवद्भिर्विज्य लातुं न शक्यते तर्हि जीवतोभूतमहापापं मत्कृतं भवन्तः संविभज्य कथं लास्यन्ति १ अतो येन यादृशं धर्म्यम वा कार्य क्रियते, तेनैवात्र परत्र च सुखदुःखात्मकं तत्परिपाकं शुज्यते । अन्यकृतं कर्म चाऽन्यैर्नैव भुज्यत इति सिद्धान्वितं वीतरागैरतोऽई भवत्प्रेरितो न कदापि पिकस्यं करिष्यामीति सुलसोतमाकर्णयन्तस्ते सर्वे तत्सत्यं मेनिरे । किञ्चाज्ञ संसारे यथा पक्षिणो निशि कुत्राप्येकत्र वृक्षे विवि प्रगे च ते दशदिक्षु यान्ति ।
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तथा मनुप्या अप्येकत्र पुत्रकलत्रबन्धुमित्रादिभिः सह तिष्ठन्ति मृत्वा च पुनर्यत्र तत्र स्वर्गनरकादौ गच्छन्ति । पुनरेका पक्षिण -
वेमे परिवारा नैव मिलन्ति । ततोऽहं पापं दुर्गविदायकं कदापि नैव चिकीषोमि । अथेतद्धमैनिश्चर्य मत्वा ते कुटुम्बाः स्वस्व| कृत्ये लपाः । सुलसोऽपि कुमारमाच्च्य धर्मे दाय विदधर्ममाराधयमायुषः क्षये कालं कृत्वा धर्मप्रभावाद्देवो जातः । मोर प्राणिनः ! एतत्कथासारमेतदेवाऽवगच्छत यत्कालिकलिको मांसाशिवादत्रासामवाच्यमनेकविध दुःखमनुभूय परत्र समर्म महादुखाई नरकमाप । तत्पुत्रः सुलसस्तत्प्रत्याख्याय धर्ममाराध्य देवगतिमीयिवान । अतो भवन्तो मांसाशनं त्यजत धर्ममारावयत
___ अथ १२-चौर्य-विषये-इन्द्रयग्रा-वृत्तम्चोरी करन्तां भय चित्त प्रान्ति, विश्वास जाचे नहि सौख्य शान्ति ।
दोनुं हि लोके बह दुःस्व भोगे, मण्डीक जैसे इणही कुजोगे ।। २५ ।।
चौर्य कुर्चतामधमानां घेवः सततं भीत्या भ्रान्तमिव लक्ष्यते ततस्तेषु दस्युषु फेऽपि नो विश्वसन्ति । पुनस्तयोगादेव मण्डी-12 ID कनामा तस्करोऽस्मिन् लोके मारितस्वाडितोऽतिनिन्दया सह शूलिकारोपितोऽतिकष्टमसहत । ततः परत्र स चातिदुस्सहां नारी वेदनामन्वभूत् । मतस्सम्यैर्भव्यैर्दुःखसन्ततिमूलं स्टैन्यं त्याज्यमेव ।। २५ ।।
अप चौर्यविषये मण्डीकचोरस्य १२-प्रवन्धःपथा--बेनानदीतीरे स्मशानभूमौ मण्डीकनामा चौरो गुप्ते भूमिगृहे निवसति । तस्यैका भगिनी कुमारी वर्तते स च गृहान्तः
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| रूपमेक करवानस्ति स चोरितं धनं येन भारवाहिना समानयति व सर्व तत्र कूपे पादप्रक्षालनव्याजात्यावयति । यथा स ततो
पहिरेतुं न शक्नुयात् स रात्रौ चोरयति दिने च नृपसदनप्राकारान्तिक समुपविष्टस्तत्रागतलोकाना वसनानि सीवनार्थ गृह्णाति, पुनस्तानि नानाविधानि सेवित्वा तत्मदातुं सद्गृहे याति । तत्र गरवा सर्वत्र विलोक्य तोदं जानाति रात्रौ च दिनदृष्टं सर्वस्व
तस्य चोस्यति । इत्थं महाचौरः स पौराणां सर्वेषां धनादिसर्वस्वं चोरयामास पर कदापि केनापि न धृतः । तत एकदा हृतसर्वस्वाः ८. सर्व लोका मिलित्वा मूलदेवनृपपार्श्वमेत्य तत्स्वरूपं व्यजिज्ञपन् । तदा स मूलदेवो नृपस्तहोरग्रहणाय सकले पुरे पटई वादितवान् पर |
कोऽपि चौरग्रहणाय पटई न स्पृष्टवान् । तदा राजा स्वयमेव चौरनिग्रहप्रतिज्ञां विधाय पटहमस्पृशत् । ततो राजा रात्रौ नानापेण
सर्वत्र बभ्राम, अथैकस्या रात्रौ कस्पचित्तापसस्याऽऽश्रमान्तिके महारक्षेषेण गुप्तासिः सुप्वाप । तत्र भारवाहिजिघृक्षया स है मण्डीकचौरः समागत्य तमुत्थापितवान् । तदा तेन सह चोरितधनग्रन्यि मस्तके निधाय भारवाहपेषी नृपोऽचलत् । गृहागतश्चौरी | अन्थिमुत्तार्य भगिनीमवक्-भगिनि ! एनं पादशौचादिकं कारय । ततस्तं तत्र कूपतटे समानीतवती, पार्द प्रक्षालयन्ती सा तन्मृदुत्वं जानती दथ्यो-न असौ भारवाही कोऽप्यसाधुचमः पुमाँल्लक्ष्यते, अतोऽसौ कूपे न पात्यः किन्तु रक्षणीय इति विमृश्य सावक-रे महाभाग ! त्वमितः सत्वर पलायस्व नो पेचामत्र कुपे पातयिष्यामि । अथ नष्टे राशि किश्चिद्विरम्य ठया पूषके।। हे प्रातः ! भारवाही पलायिता, पावस्व र गृहाण २ इति श्रुत्वा सोऽपि खड्गपाणिस्तदनु जवादधाक्त । अनुपदमायान्त तमालोक्य महता जन धावमानः क्षितीको झटित्येव निजसदनमागत्य सुष्वाप । तस्याऽनुपृष्ठमागतचौरससत्र नृपद्वारे पुरुषाकारं स्थित शिलास्तम्भ तद्घान्त्या जघान । सतः कृतकृत्यो भवधिव स चौरः स्वस्थानमागाप्रभाते व पूर्ववतत्रागत्य सीवनादिकृत्य
का
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कर्नु लमः । अथ राजा निजपुरुषेण तमायसेन शमानयोरो नृपान्तिकमागत्य तस्थौ। तदा राजा स्वसमीपे समुपापेश्य मिष्टक्पनैः सान्त्वयंस विश्वस्तीकृतवान् । पश्चाद्राजा जगौ-किं भोः ! तब भगिनी कुमारी वर्तते, तां मया साकमुवाहप ततः स्वमगिनी राज्ञा परिणायिता । ततो राजा वन्मुखेन सर्व विदित्वा सच्चोरितं सर्व धनं गृहीतवान् त गर्दभारोपणादिक्टिम्बित शूलारोपेण धातितवान, मृत्वा च स नरकं गतवान् । भो लोका:! एषा कथा सर्वानिदमुपदिशति-पचौर्य कुर्वन्यथा मण्डीकचौरो धनादिसर्वस्वमषहत्य राज्ञा मारितो नारकी बभूव । अनिच्छताऽपि तेन भगिनी राक्षा परिणापिताऽतो भान्तोऽपि चौर्य मा कुर्वन्तु ।
अथ १३-मद्यपान-विक्ये, भुजंगप्रयात-वृत्तम्सुरापानी चित्त सम्भ्रान्स थाए, गळे लाज गंभीरता शील जाए।
जिहाँ ज्ञान विज्ञान मुझे न यूझे, इशं मद्य जाणी न पीजे न दीजे ॥ २६ ॥ यथा मद्यया नराः सदैव सुरायत्ता जायन्ते तेषां विचारशक्तिरपैति । तेन ते सदसद्विवेक्तुं न प्रभवन्ति । वायसा इशाप्रपेय पिबन्ति, अखाद्यमदन्ति नित्रपाः शीलहीना गांभीर्यरहिताश्च ते जायन्ते । अवाच्यमपि वदन्ति, सर्वैर्हिता महादुःखमनुKला भवन्ति । अतो मदिरा यत्नतः सस्पाजश्व ।। २६ ।।
अथ मद्यपानथ्यसनिनो जितशत्रुक्षितिपस्य १३-कथायथा-वसन्तपुरनगरे जितशत्रुनृपो वर्तते सुकृमालिका तस्य प्रेयसी महीयसी राशी विद्यते, उभावपि दिरानिशं सुरापा
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२१२७०REXX
यिनौ बभूपतुः । तदासक्तौ राजकार्य किमपि नैय चक्रतुः । तेन हेतुना तत्पुत्रः प्रधानेन सह मंत्रयित्वा मद्यपानव्यसनासक्तों X सावुभावेकदा चन्द्रहासमा यथेष्ट पाययित्वा यत्किश्चिद्धनादिक पाथेय दपचाऽतिदरे महाटव्यां मोचितवान । तत्र दिनत्रयाke नन्तरं सञ्जातस्वास्थ्यो राजा व्यचिन्तयत्-अहो ! क मे प्रासादः ? अहमत्र कथमागतोऽस्मि ? अथ मयप्रान्तचेता राजा सत्र
शयने पाथेयं धनादिकं दृष्ट्वा निश्वितवान्-यन्मा मद्यव्यसनित्वादयोग्यं मत्वाध्याऽमोचयन्मन्त्री । भवतु यहाव्यं तद्भवत्येव, ततो राजा समायः पुरोऽचलत्तदैव मधं प्रत्याचचक्षे । मार्गेऽध राज्ञी तृषातुरा जलमयाचत । तदा कुत्राऽपि जलमलममानो राजा रहसि निजोरु छिया पत्रपुटके रक्तं गृहीत्श राज्ञीमवादीत-अयि प्रिये ! जलमत्र सम्यक कुत्रापि नास्ति । तया च त्वाम2 पिकं बाघते, अत एतज्जलं नेत्रे निमील्य पीयवां, सापि तथैव तत्यपौ। ततोऽग्रे क्षुवार्ता राजी जगाद-मम क्षुधा मइती लग्नाऽतः 13 | पदमपि गन्तं न शक्नोमि । तत्रावसरे राजा निजजकामांसं खण्डशः कृत्वा तस्यै ददौ सा तदपि जघास । तदन्वय कानपुरनगरमाययौ तत्र कस्यचिद् गृह भाटकेन लात्वा भार्यया सह तस्थौ । तत्रैकदा स दम्यौ-मम पार्थे धनमत्यल्पं वियते, ! असोज़ापणे कोऽपि व्यापारः कर्तव्य इति निश्चित्य स तत्र व्यापर्तुमचलत्तदा राज्यवक्-स्वामिन ! ममैकाकिन्या अत्र मनो न लागिष्यति । तदा सोऽवमिदानीमेव कश्चन योग्यपुरूषमत्रानयामि, यथा ते मनोविनोदो भविष्यतीत्याभाष्य स आपणे समायातः । वायत्तत्रैकः पङ्गुरागतस्तस्प स्वरमाधुर्यमालोक्य समवक, अरे ! वे मोजनवसनादिकं दास्यामि से मद्गद तिष्ठ तेनापि तद्वचः प्रतिपयम् । तदा । निजगृहे समानीय नियमवदत-हे बल्ल ! एष पक्रानीत एष ते समीपे सदा स्थास्यति । मनेन सहालप्य गायनश्चास्य श्रुत्वा सुखेन दिन निर्गमयाहमाषणे प्रजामि । ततस्तं तत्र संस्थाप्य स्वयमापणे व्यापारे लग्ना सा च
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तेन पङ्गुना सहालपति तस्य मधुरस्वरं गानं भृणोति । ततस्तो दावेव तत्र गृहे तिष्ठन्तौ मिथो रागिणो बभूवतुः । अथैकदा सर्वाङ्गध्याक्षभदनपीडिता सुकुमालिका राशी पगुमवदन-पड़ो! मेऽतिप्रेयानसि स्वयि में महान रागो जातोऽस्ति । मदनश्च मामधिकं बाधतेऽतो मां स्वैर मुश्त्व, तेनोक्तमहं ते मर्तुर्विमेमि । तयोक्तं सतः कामपि भीति मा कथाः स तु सदैवाऽऽपण. एव तिष्ठति । आक्योरेतत्स्वरूपं स कदापि न ज्ञास्पति, ततस्तेन पगुना स्वैरं रममाणा सा राझी तस्मिन्नेवानुरागिणी बभूव । भथैकदा कुत्रचिन्महोत्सवे बहवो लोका नदीतीरमगुस्तदा राशी राजानमवर-हे नाथ ! आवामपि कुशपि छन्नप्रदेशे स्थित्वा, | द्रक्ष्याव एनं महोत्सवम् । अथ तो दम्पती नदीतीरं गत्वा कुत्रापि निर्जने गङ्गाकूले समुपविष्टौ । इतस्ततो विलोक्य विरक्ता सा
राझी नृपं गङ्गाहूदेऽम्मसि न्यपातयत्परं दैवयोगात्स ती| जीवन्नुपरि समायातः । तत्रैव चाऽपुत्रस्य नृपस्य मृत्यौ प्रधानादिलोंके 10 कृतं पश्चदिव्यं प्रावर्तत । वादित्रादिमहोत्सवेन पृष्ठानुगतसकलपौरजनः स करीन्द्रो ग्रामा बहिरागच्छस्तत्रागत्य जिक्शत्रुनृपं डू कलशवारिणा स्नपयाञ्चके । वाजिना हेषितं न तदुपरि तस्थौ चामरे च तमुभयतो वीजयाञ्चक्राते । तदनु स गजेन्द्रः शुण्डा-15 दण्डेन तं पृष्ठमारोपयत् । इत्थं महता महेन पुरमानीय नृपासने समुपायेशयत्पुण्याढ्यनाम्ना स तत्र पप्रथे। तदनु न्यायतः प्रजाः पालयन सुखमनुभवमास्ते । ____ इतश्च सा सुकुमालिका राझी नृपं हूदे निपात्य गृहमागता लोकानवदत-न जाने मम स्वामी कुत्र गतस्तत्र महोत्सवे गंगावीरे मां मुक्त्वा । किमपि कौतुकं द्रष्टुं क्वापि गता, स इदानीमपि नायातो मया तत्र सर्वत्र विलोकितः, परं न मिलितः । तेन मे महती चिन्ता भवति किरोमि ! अहमेकाकिनी क प्रजामि १ हा देव ! कि कुतम् । तद्वियोगान्मे हृदयं शतधा विदीर्यते । यदि कोऽपि
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Mail तच्छुद्धिमानयिष्यति तस्मै पारितोषिकं दास्यामि तदुषकताच भविष्यामि । इत्य विलपन्ती निजोदास्य प्रकटयन्ती गृहान्तः प्राविशतदा!
पगुमवक्-हे नाथ! क्षिप्तो गंगाप्रवाई मया विघ्नोऽधप्रभृति निःशको भव । यतस्ते मीतिरासीचमब जले न्यपातयम् । ततस्तेन | पगुना दिवानिशं विषयसुख कर्वाणा सुग्वेन दिनानि गोलु लामा ।इल तस्याः किय द्भिर्दिनः पार्श्वस्थे धने व्ययिते द्वाभ्यां विद्यारि तम्-धनन्तु व्ययितं किमपि नास्ति भोजनादिकृत्यं कथं निष्पत्स्यते ? तेनोक्तं प्रिये ! अहं मातुं जानामि परमहं चरणाम्यां विही- 1
नोऽस्मि कुत्राप्येकपदमपि गन्तुं न शक्नोमि । तयोक्तं नाथ अहं त्वां निजस्कन्धे धृत्वा सर्वत्र पर्यटिप्यामि | तथा निश्चित्य ॐ सा पणु निजस्कन्धे संस्थाप्य भिधायै नगरमागता । पङ्गुश्च मधुरस्वरेण सकलजनश्रोत्रसुखं गायति, तदीयमधुरगीतेन वशी| कतो जनवर्गस्तं परिपत्य तस्थौ । तदा कियन्तो लोकाः सुकुमालिकायाः सौन्दर्यातिशयेन मुमुहुः । कियन्तो लोकाः पङ्गोमेनोहरगानेन मोहमीयुः कियन्त एवं जजल्पुः-अहो ! पङ्गोरीदृशी सुन्दरी स्त्री न युज्यते । इत्थं यथारुचि वदन्तो लोका यद्ददति तेन तो भोजनादिकं कुर्वाते । इत्थमेव प्रत्यई सा भिक्षते एवं कियन्ति दिनानि तत्र नगरे मिक्षित्वा ग्रामान्तरे मिक्षितुमलगत्तत्र | महारूपवतीखीस्कन्धे स्थित्वा मधुरं गायन्तं पङ्गुमालोक्य सर्वे द्रष्टारः "पांगलो गाय, आंधलो दले ने कूतर खाय" इति जनश्रुतिस्मृत्या सहाश्चर्य मनसि मन्यमानास्तं द्रष्टुमेकत्र मिमिलुस्तेषु कियन्तस्तां स्त्रियं तुष्टुवुः । यथा ननमियं स्त्रीमतल्लिका पदमु भार स्कन्धे निधाय सर्वत्र पर्यटति । सर्वत्र पतिव्रतानाम्ना सा प्रख्यातिमलब्ध | अनुक्रमेण पर्यटन्ती सा पुण्यादवराजस नगर समाससाद, तत्रापि तस्याः प्रतिष्ठां सर्वे जगुः । कथाप्रसङ्गात्कियन्तो राजानं जजल्पु:-हे महाराज साम्प्रतमत्र नगरे काचिका महारूपवती पतिव्रता स्त्री पङ्गुमर्तारं निजस्कन्धे धृतवती भिक्षते । पञ्जुश्च मनोहर प्रशमं गायतीति श्रुत्वा नृपो मन
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2 सि शशके नूनं सैव दुष्टा भविष्यति ! या मां जले पातयामास । पुनस्तत्रावसरे रामा निजसेवक सम्प्रेष्य सा समाकारिता । तदानी की- मनसि जहर्षाऽचिन्तयक्ष सा यदय गीतमाकण्यं माश्च विलोक्य राजा प्रसन्नो भूत्वा यथेष्टं दास्यति । अथ तावुभौ नृपसदसि | EME समेतौ गातुं लग्नश्च पास्तद्गीतमाकर्ण्य नृपोऽवदत्
__ चने रुधिरमापीतं, भक्षितं मांसभूरुजम् । भागीरथ्यां पतिः क्षिप्तः, साधु साधु पतिव्रते ! ॥१॥
अथ नृपोदितममुं श्लोकं निशम्य सा तत्कालं विच्छायवदनाऽभवत् । तदनु स राजा तावुमौ स्वराज्याभिकसितवान् । | स्त्रियं दुःशीलामालोक्य समुत्पन्नवैराग्यः स पुण्यायो नरपतिश्चारित्रमादाय स्वात्मश्रेयो विधत्सुखी वधूव । भो लोकाः ! पश्यत यदसौ जितशत्रुनरपतिरपि यावद् व्यसन्यासीचावदःखमेवाऽन्वभूत्त्यक्ते च तत्र व्यसने राज्यसुखमाप | ततो मोक्षार्थीभूय संसारमसारममुमत्यजत् । अतो यूयं भ्रमादपि मद्यव्यसनवन्तः कदापि नो भवत ।
तथा मद्यव्यसनादेव द्वारिकापुरी कृष्णसुरक्षितापि भस्मसादभूत्तस्याः १४-कथानकम्___ अथैकदा श्रीकृष्णो नेमिनायदेशनान्ते तं भगवन्तमपृच्छत-हे भगवन 1 ममैतद्वारिकापुर्या अवसानं कदोदेष्यति । भगवानाह-हे कृष्ण ! एतदवसानं तदोदेष्यति यदा तव पुत्रौ शाम्बप्रद्युम्नौ सुरां निपीय वनस्थं द्वैपायनमुनिमनेकोफ्सर्ग विधाय हनिष्यतः । ताम्यां निहतः स कृतनिदानो मरियति तदनु स एवामिकुमाररूपेण सकला सजनादिकामिमा नगरी मस्मसात्करिष्यति । इति भगवन्मुखान्मधपानेन विघ्नं मंभाव्य पुत्रादिसकलजनान् मद्यपानतो न्यवर्तयत श्रीवासुदेवः ।
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तद्वचसा सर्वे तदत्यजन् परं भवितव्यप्रावल्यादेकः। श्रान्नादयः काननक्रीडाविधातुमगुस्तत्र मद्यगन्धमासाद्य तत्र गत्वा वे सर्वे यथेच्छमदिरामपित्रन् । तदाऽचिरादेव मद्योष्मणा सदसद्विवेकशून्याः प्रमत्तास्ते सर्वे यत्र कुत्र आम्यन्तः समीपे तपस्यन्तं द्वैपा यमृषिमद्राक्षुः । तदा ते सर्वे द्वारिकाविनाशकं तदन्तिकमागत्य बहुधा तमुपद्रोतुं लग्नाः केवन मुष्टिना कियन्तो लोष्टादिमिरवाडयन् । ततस्ते लोकैर्निवारिता ऋषि मुमुचुस्तदनु प्रकोपितः स निदानं कृत्वा मृत्वाऽग्निकुमारोऽभवत् । ततस्तद्वैरं स्मरन् सलोकां द्वारिai दग्धुं प्रावर्तत । परं ततो भीताः सर्वे लोका अखिलेऽपि पुरे प्रतिगृहमा चाम्ल मारेभिरे । तदाम्बिलतप:प्रभावतो द्वादशवर्षाणि यावत्तां दग्धुं नाऽशक्नोत् ततोऽवश्यं माव्यत्वात्सर्वे सरस्वत्यजुः । यथा सुभ्रमचक्रवर्तिन श्वर्मरत्नमेदैव तदीयदुर्दिष्टोदयात्सकला देवा अत्यजंस्तथा तदेवाऽवसरमासाद्य सोमकुमारस्तां पुरीं कृष्णालभद्रौ विना सकलचराचरप्राणिसहितामदsasaसरे ये दीक्षाभिलाषिणस्तानप्यमुञ्चत् । सर्वाणि भवनानि सर्वाः सम्पदः सोऽग्निरूपेण भस्मसाञ्चक्रे सर्वमेतत्सुर - पानव्यसनादजायत । मद्यपास्तत्कालमेव तत्पारवश्यङ्गता विवेकविकला अपेयं पिबन्ति, अत्राच्यं निगदन्ति, अकार्यमाचरन्ति, किंबहुना तत्यानेन महान्तोऽपि नरा अघमा भवन्ति । अतो मद्यमपेयमेव सदा सर्वेषामिति सर्वे विदाङ्कुर्वन्तु ।
अथ १४ - वेश्याव्यसन-विषये
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कहो कोन वेश्या तणो अंग सेवे, जिणे अर्थनी लाजनी हानि होवे ।
जिणे कोश सिंही गुफाये निवासी, छल्यो साधु नेपाल ग्यो कंबलासी ॥ २७ ॥
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तः ! त्वमेव कथय यां निषेवमाणो नरों धनं विनाशयति । लोके च निन्दामामोति कुलमुज्ज्वलं मलिनीकरोति । Fel सकलदोषघ गणिकां को मतिमान सेवेत १ यो हि महामूर्खः स एव तामिच्छति पश्य पश्य यदसौ स्थूलभद्रसाम्यलिप्सुः सिंहगुहापासी गुरुप्रापशावेश्यादिदेशसमस्यामा रत्नममानिनीषुर्नेपालदेशमतिवृरमगच्छत् || २७ ॥
अथ सिंहगुहावासिसाधूपकोशावेश्ययोः १५- कथानकम् -
यथा पाटलिपुरनगरे नन्दनामा राजा वर्तते तन्मन्त्री सकडालाख्यो विद्यते । तावकः स्थूलभद्रनामा पुत्रः कोशानामभ्यारागी भूत्वा सदालये द्वादशवर्षाणि तस्थिवान् सार्धद्वादशकोटिधनमदान्त्र सस्यै । अत्रान्तरे केनापि हेतुना वररुचित्राह्मणकूटपश्चयोगात् कडालमंत्री मृत्युमभ्यगच्छत् । तत्रावसरे नन्दराजो मन्त्रिपदप्रदानाय स्वपुरुषेण तं स्थूलिभद्रं वेश्यालयतः समाहायत् । नृपाहूतः स तदैव प्रतस्थे, यदा वेश्या वमधिकं निरुरोध, परं चतुरः स समुचितैर्मिष्टवाक्यैस्तामनुनीय दूतेन सह राजान्तिकमायौ मार्गे च पितुर्मरणमाकलय्य तन्मनो नितरामसारसंसारतो विरक्तमभूत । अथ राजान्तिकमागत्य तं नमस्कृत्य कृताञ्जलिर्व्यजिज्ञपत्-स्वामिन् । किमर्थ मामध समाकारितवानसि १ सेनोक्तं त्वं पितुः स्थाने स्थाप्यसे । तेनोक्तं हे महाराज 1 श्रीमतामादेशः शिरसा धार्यते परमत्र विषये किमप्यालोचनीयमस्ति तदालोच्य निश्वयं वदिष्यामि ततो नृपादेशतः सोऽलोकननमागत्य निजहस्तेन केशानवलुच्य रत्नकम्बलस्य रजोहरणं विधाय राजसभामागत्य वारस्वरेण कल्पतरुरिव ' धर्मलाभ ' इत्युवचार । ततः संमृतिविजयाचार्यपार्श्वे दीक्षां ललो | अथ वर्षर्ती गुरवश्चतुः शिष्येषु स्पलिभद्रमेवमादिशन् । त्वं तत्रैव वेश्यालये चतुरो मामान् स्थित्वा संयमाराधनं कुरुष्व । एकं शिष्यं वने सिंहगडरद्वारे तिष्ठन्नुपवसंश्चतुर्मासं विधेहीत्यादिदिशुः । कूपभारवटे
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( कूपोपरि दसकाष्ठे ) स्थित्वा चतुर्मास कुर्विति तृतीय शिष्य मादिष्टवन्तः । सर्पविलोपरि चतुर्मासं तिष्ठेति चतुर्थमाशप्तवन्तः । अथ गुर्वाज्ञया ते चत्वारस्तत्र तत्र ययुः । राजानं मिसिमे ! साम्प्रतं गुरुनियोगतः स्थूलिभद्रमुनिर्देश्ागारमाययौ । तमागतं वीक्ष्य चिरादुत्कण्ठिता सा गणिका घनागममवाप्य मयूरीव नितरां मुमुदे सादरं चित्रशालायां न्यवासयत् । अथ सा मुनिषेषं त्यक्तुं तमधिकं प्रार्थितवती परं दृढात्मा स नैवाऽमुश्चत् । विषयभोगाय बहुषाऽयतत, हावभावादिना तमलोभयत परं वशीकृतेन्द्रियवर्गः स तामूचे सार्द्धत्रिहस्तदूरे तिष्ठन्ती यदीच्छामुत्पादयिष्यसि तर्हि त्वां सेविष्ये नान्यथेति निगद्य पुष्करपलाश्वत्रिलिप्तः स तद्गृहे चतुर्मासं तस्थिवान्र । अथ सा वेश्या प्रतिसन्ध्यं नवं नवं महापुष्टिकरं मदनोकिरमाहारं भोजयन्ती नानाविधहावभावं वितन्वती कटाक्षयन्ती तन्मनश्चालनवरासीत् परं मनागपि तन्मन चाञ्चल्यं न प्राप । मेरुमिव निश्चलं तं वीक्ष्य सा चकिता जाता जगाद च अहो ! सैवेयं चित्रशाला तान्येव चित्रितानि चतुरशीतिसम्भोगाऽऽसनानि । स एवासौ यः पुरा वारितोऽपि क्षणं माँ न त्यक्तुमिच्छति स्म । सम्प्रति मयैचमर्थितोऽपि मदनतरं संयमकुठारेण समूलमुच्छि मेरोरप्यधिकं मनः स्थैर्य प्रकटयते । अथ चमत्कृता सा कोशा वेश्या तदुपदेशतः शुद्धा श्राविका जाता द्वादशवतान्याददे ।
अथ चतुर्मासानन्तरं तस्या आइया स्थूलिभद्रमुनिर्गुर्वन्तिकमाजगाम | गुरुस्तमायान्तं विलोक्य तदभिमुखमेत्य वारज greरकारमदा । तदनु द्वितीयः सिंहगहरवासी चतुर्मासोपवासी शिष्य आगात् । तस्मै सकृद्दष्करवादं दत्वा सुखशातमपृच्छत् । तथा कूपोपरि तिष्ठन् कृतचतुर्मासोपवासस्तृतीय आगत स्वमप्येकवारं दुष्करकारदानेन सचक्रे । एवं सर्पबिलोपरि चतुर्मास स्थित्वा समागतः चतुर्थशिष्यमप्येकवारं दुष्कर इत्युबार्य भावितवान् । अथ मिथो मिलितेषु चतुर्षु स्थूलभद्रस्पर्धालुः सिंहगुहावासी मुनिर्म
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नसि खेदमकरोत् । यद्गुरुस्खीनस्मानेकदैव दुष्करदानेन बभापे । यः पुनरपापि निजस्वभाव नाश्त्यजत्तस्य महाकायस्य शकडालमन्त्रिपुत्रस्य दुष्करकार विचारं ददौ । अर्थतज्ज्ञात्वा गुरुस्तमाचरूपो भो महानुभाव ! त्वं कथं खिद्यसे? मया यदुक्तं तत्सम्यगेच । यद्भवन्तस्त्रयोऽपि यष्करश्चक्रुः, सदेकेनैव तेन चके । तथाहि____ या सत्र चित्रशाला तां कूपमारवटं जानीहि, कुत एतत्-यस्यां परितश्चतुरशीतिसंमोगासनचित्राणि पश्यमप्यसौ किश्चिदपि 4 मनोविकृति नाप | पुनर्या गणिका सा विषमा अनही तत्सानिध्येऽपि कदापि तयाप्पो न दः। यश्चाऽसौ दिसन्ध्यमविसरस पसमाहारमकत तमेव सिंहमवेहि । इत्थं गुरुणा तत्कारणे निगदितेऽपि सिंहगुहावासी तस्मिन् मत्सरतां न जहाँ । पदनेन कि दुष्करं चक्रे ? मयापि तल्लघुभगिन्या उफ्कोशावेश्याया गृहे चतुर्मासी करिष्यते। अथाषाढचतुर्मास्यामागतायां सिंहगुहागसी गुरुप्रत्यवदत्-मो गुरो! अहमपि वेश्यागृहे चातुर्मासिकी स्थिविञ्चिकीर्षामि, अनुनांददस्त्र, वट्टवापि गुरुमनिमाश्रयत् । तदनु गुर्वाज्ञां विनैव स मुनिरुपकोशावेश्यालयं प्रत्यचलत् । तत्रावसरेऽट्टालिकायां स्थिता सा वेशा तमायान्तं विलोक्य तदाकृत्या विदाश्के । यदसौ स्थूलिभद्रस्पर्धयात्रागच्छति परमस्य पूर्व परीक्षा क्रियेत चेदरमिति यावद्विमृशति, तावद् द्वारि समागतः स उच्चैर्धमेंबाममवदत् । तच्छ्रुत्वा तयोक्तं मो मुने ! अत्र धर्मलाभो नाऽपेक्ष्यते किन्त्यर्थलाभ एवेत्याकर्ण्य म तन्मुखचन्द्र वीक्ष्य मनसि विकृतिमुद्रावयमवोचत । अयि लावण्यवारिधे ! त्वं कीदृशमर्थमीइसे ! तं प्रकाशं वद तयोक्तं रत्नकम्बलं वाच्छामि । मुनिनोक्तं तत्कृत्र लभ्यते । तयोक्तं तदत्र न मिलति । नेपालदे भवाशे मुनये राजा सपादलक्षमूल्यं वद्वितरति । तथापि मया सह रिसंसा चेतन यादि, रसकम्पलमानीय मे देहि । अयैतदाकर्ण्य सिंहगुहावासी साधुश्चातुर्मास्यपि महता कष्टेन नेपालराजपाश्रम
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ril गाद । तं धर्मलामाशिषावर्धयत् राजापि तस्मै सपादलक्षस्य रत्नकम्बलमदात् । तल्लात्वा परावर्तमानः स पथक्रमेण चौरपालीमा
गतः। तत्र चौरा यत्र तत्र तिष्ठन्ति परं पिञ्जरस्थ एकः शुकः शाखाश्रितोऽस्ति । धनमादाय यदा सत्र कोऽप्यागच्छति तदा स! | कीरस्तान सूचयति । तदा ते समेत्य तं पान्य षिलष्टयन्ति । सोऽपि तत्र यदाऽऽयात्तदा स कीरोधा-भो मोथौरा ! धावत धावत कश्चन सपादलक्षीयरत्नकम्बलमादाय गच्छति । तनिशम्प तत्र समेतास्ते तस्य तल्लुष्टन्ति स्म । ततः स विलक्षादनीमवन पुनस्तत्रागत्य राज्ञे शुभाशिष ददौ । राज्ञोपलक्षितः पुनरागमनकारणश्च पृष्टः सोऽपक्-पुरा दत्तं तन्मार्गेऽाहरन । तदनु [ भूभुजा पुनरपि लक्षमूल्यकं रत्नकम्बल वंशदण्डान्तनिक्षिप्य दत्तम् । तल्लात्या वागते तस्मिन् कोरः पूर्वस्यगदत्-
मोर भोः! धावत २ शीशमाछत, वादनी कति समयोति निशम्य तत्क्षण समेत्य चौरास्तत्वाधै धनं विलोकितवन्तो यदा नैव लब्धं तदा ते तमेवमूचुः । भो ! एतत्कोरवचः कदापि मिथ्या नादधैव विवध माति । अस्वं सत्यं वद, तत्ते प र नाऽपहरिष्याम इति श्रुत्वा तेन मुनिना वंशान्तः क्षिप्त तदर्शितम् । तदालोक्य कोरवचप्ति प्रामाण्यं दवतस्ते लुण्टाकाः पुरादत्तवचनतया नामाहरन् । अथ स ततो निर्गच्छंश्चतुर्मासान्ते तद्गणिकालपमामात् । तयोक्तं भो! आतीतं तदा मुनिराख्यदानोतं रायोक्तं तर्हि दीयताम् । अथ स गणिकाय तदर्पयत्साऽपि तहात्वा तदैव स्नात्वा तेनाशेषाई प्राञ्छित्वा पश्पति मुनौ तदशुचिस्थाने प्रक्षिप्तवती । तदसमञ्जसं मत्वा तां निजदारामित्र कुपितो जगाद-अरे प्रचण्डे रण्डे ! गतभाग्ये ।
त्ययेदं किमकारि ? यदमूल्य दुष्प्राप्यमेतद्शुचिस्थानके तुच्छमिव क्षिप्तम् । मया तु महता कष्टेन चातुर्मासेऽपि वाद्वयं तत्र 1 गत्वा तदानीतम् । नसमेतत्कर्मणा महामूर्खाणां मूर्धन्या नष्टभाग्या प लक्ष्यसे । तदा सा तमेवमवादीत-भो मुने! नाई मूर्खा
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| ऽस्मि किन्तु महाविज्ञा महाभाग्यवती चास्मि | पर त्वमेव सकलमहामुढनरनायकः प्रतीतो भवसि, स्वसोऽधिकं भाग्यहीनमन्य कमपि नैव पेखि यतः स्थलिभद्रप्रतिष्ठामसहमानः स व स्त्रमत्रागाः । स मासचतुष्टयं मयाम्पर्थितोऽपि किश्चिदपि विकारं न प्रापत् । त्वन्तु तत्कालमेव मदास्पदर्शनमात्रेणेव विषयमोगामिलापी श्वावदः किश्च लक्षमूल्यकैतद्रनकम्बलावनया मामेवमुपालभसे। परं स्वयं पत्रमहावतात्मकचिन्तामणिरतं गमयन किमल विक्त्वा यत्संपामय चातुमांसमध्ये समूच्छर्यजीवान् विराधयन, विषयरिरंसामधि
श्रयन नेपालं वारद्वयं गत्वा, तल्लात्वाऽनागतोऽसि पुनरीदृशस्वं मदनमातङ्गकुम्भमेदनक्षमस्य केसरिणः स्थलिभद्रस्योपरि द्वेष बहमून 1टा मृगालायसे । अथोषकोशावेश्याया दिशेराक्षेपवाक्यैः प्रतिबुद्धः स तदैव स्थूलिभद्रपार्धमागत्य स्वापराधं शामितवान् । गुरुपा 12 जातमतिचार समालोच्य पुनः संयमाराधने तत्परोऽभवत् । भो भो! लोकाः ! पश्यत, विदारुत, यदेश्यासंगमात्कियतीत
हानिर्भवतीति सिंहगुहावासी संयतोऽपि साततत्संगमेच्छुश्चिन्तामणिमिव पञ्चमहाप्रतमत्यजत् । चतुर्मास्यामतिर नेपालमगमद खटकायिकजीवजातमहन्, सचित्तं वारि तत्कर्दमादिकं स्पृष्ट्वान । दण्टाकेन विलुण्टितः पुनस्तत्र गत्या नृप याचित्वा प्राप्तं रत्नक
म्पलं वेश्यायै ददौ । तथापि तयावज्ञातो निर्भसितः स मुनिरपि, अतो येण्यासङ्गमेच्छापि कदापि न कर्तव्या सद्भिस्तहि गमनन्त सुतरां महानिष्टत्वानिषिद्धमेव ।।
अय १५-आखेटकव्यसन-विषयेमृगया ने तज जीप घात जे, सघले जीव दया सदा भजे । मृगया यी दु:ख जे लयां नवा, हरि रामादि नरेन्द्र जेहवा ।। २७ ।।
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भो लोकाः ! प्राणिप्राणविघातकरीमृगया भ्रमादपि न कर्त्तव्या किन्तु जीवरक्षार्थं सदैव यतितव्यम् । मृगयाव्यसनतः पुरा रामकृष्णादयो महान्तोऽपि बहूनि दुःखानि प्रपेदिरे । तस्यागतः संयतिराजयत्कियन्तः सन्तः सुखमापुः । एतत्कथो तराध्ययनसूत्रीयाष्टादशाध्याये विस्तीर्ण विद्यतेऽय तु संक्षिप्तैव प्रसङ्गाभिद्यते ॥ २८ ॥
अथाऽऽखेटव्यसनत्यागे लब्धमुक्तेः संयतिनृपस्य १६ - कथा -
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यथा-संगतिनामा कश्चिद्राजा मृगयाव्यसनी बभूव । स चैकदा मृगयायै वनमगा सत्र मृगं विलोक्य यावद्वाणं मोक्तुमैच्छत्तावत्स लक्ष्यो नष्ट्रा कायोत्सर्गध्याने स्थितभ्य गर्दभ मुनेश्वरणोपान्तेऽतिष्ठचावदेव सन्मुक्तोऽपि शरस्तस्याग्रेऽपतत्। तदनु द्रुतं तत्रागतो राजा मुनिमालोक्य पश्यतीति भीत्या तं ननाम जगाद च महात्मन् ! ममाभयं देहि । अहमन्यो न किन्त्वेत भगरीनृपः संगतिनामाऽस्मि, ममाऽऽश्रयेण बहवो लोका जीवन्ति । भतो मयि प्रसीद अपराधथ क्षम्यताम् । साधुरगदत-राजन् ! यथा निजप्राणानवसि तथान्यानपि जीवानव । यथा त्वं जिजीविषसि तथैवाऽन्ये जीवा अपि जीवितुमिच्छन्ति मर्तुङ्गेऽपि न चेष्टन्ते । अतस्त्वयापि दीनेम्यो जीवेभ्योऽभयं प्रवेयम् । तवामयमित्थमेव स्यादिति साधुभाषणमाकर्ण्य प्रबुद्धो राजा षट्कायजीवजातेम्पोऽभयं प्रदाय तत्पार्श्वे चारित्रं गृहीत्वा ततो विज । मार्गे कश्विदेकः क्षत्रियः साधुर मिलत्तमपृच्छत्संयतिराजर्षिः । भोः ! स्वोऽसि ? तेनोकं किं त्वमेवात्र शासने साघुरभूरन्यो नास्ति ? एवं माध्मंस्थाः । इह शासने भरतचक्रवर्विसनत्कुमारशान्तिनाथप्रमुखा अनेके महापुरुषा अभूवन् । तान् किम जानासि १ तद्वाक्यश्रवणेन प्रतिबुद्धः स चारित्रेऽतिदादर्थं नयमानो धर्ममाराधयन् देहं त्यक्त्वा मुक्ति
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क.
मियाय । हे प्राणिनः ! पश्यत, संयतिनामाऽसौ नरपतिराखेटकत्यागेन मोक्षमाप्तवान् । असाविव मृगशं विहाया येपि । मोक्षभियं लभन्ताम् ।
अ -परस्तीमान वि. सोपाई-.. स्वर्गसांख्य भाण जो मन आशा, छांड तो परनारि विलासा ।
जेण एण निज जन्म दुःख ए, सर्वथा न परलोक सुक्ख ए ॥ २९॥ भो लोका ! यदि यूर स्वर्गीयसुखमन्ततिमभिलपथ सहि परदारागानं स्वप्नेऽपि नो चिन्तन । यो हि परदारान वाञ्छति स पापीयानस्मिन्नेव लोके यात्रजीवं दुःखं भुक्ते परत्र च दुर्गतिमुपैति तथाहि-त्रिभुवनविजेतापि दशाननः परदारारिरंसा भूत्वा सीतामपहत्य लक्झामनैपीत् । तदनु तेन पापेन तस्य दशाननानि रणागणे रामेग छिन्नानि । भृतः संश्चतुर्थ नरकं ययौ ।। २९ ।।
अयैकेन श्लोकेनैतत्सप्तव्यसनवतां यज्जातं तदाह-शार्दूलविक्रीडित छन्दसिजूआ ग्वेलण पाण्डवा वन भमे मद्ये बली द्वारिका, मांसे श्रेणिक नारकी दुख लहे षांध्या न के चौरिके!। आखेटे दशरस्य पुत्र विरही केवन वेश्या घरे, लंका स्वामि परत्रिया रसरमे जे ए तजे ते तरे ॥ ३०॥
द्यूतव्यसनात्पश्चापि पाण्डवा द्वादशवर्षाणि वने न्यवात्सुः १, मद्यानव्यसनतो द्वारिकापुरो सलोका सपरिच्छदा सन्दग्धा S२, मांसाशनव्यसनाच्छ्रेणिको नृपो नरकम्पाप ३, चौपव्यसनतो रोहिणोनामा प्रसिद्धो महाचौरो निगृहीतः४, आखेटकव्यसनाद्रामो
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निजप्रियया स्त्रिया वियुक्तोऽभूद ५, वेश्यागमनव्यसनाद्रीय कृतपुयाभिषा श्रेष्ठौ महादुःखी बभत्र ६, परतीलाम्पत्यम्यसनाद्रावणश्चतुर्थनरकवासी जज्ञे ७, अत एतानि सप्तव्यसनानि दूरतः परिहर्तव्यानि श्रेयोऽथिभिः सकलैर्मव्यजनैरपि ॥ ३०॥
अथ १७-कीर्ति-विषये, मालिनी-छन्दसिदिशि दिशि पसरन्ती चन्द्रमा ज्योति जैसी, श्रवण सुनत लागे जाण मीठी सुधा सी।
निशिदिन जन गाये राम राजिंद जेवी, इणि कलि यह पुण्ये पामिये कीर्ति एवी ॥ ३१ ॥ इह संसारे चन्द्रकलेव समुज्जला, सकलाशाप्रसृता रामचन्द्रस्येव दिवानिश लोकेर्गीयमाना सुकोर्तिः पुण्यवतामेव समुद्रBा वति । ईदी सुकीर्ति भीमाशाहमवेभ्यस्तत्पत्ती च जनयामास |
अथ सुकीर्तिविषये भीमाशाहस्य १७-कथानकम्__ यथा कश्चिदीमाशाहनामा वणिक्कुबेर इव समृद्धिमान सदैव दानधर्म वितनुते । भट्टभोजकाद्यार्थियो यथेच्छ द्रव्यादिक ददाति । इत्थं सर्वत्र प्रसृतां तत्कीर्तिमाकर्ण्य कश्चिदेकचारणस्तत्रामासमागवं वीक्ष्य तत्सेकोजदत् । मोचारण ! श्रेष्ठी प्रामान्तरे तिष्ठति । तद्वचसान्तर्विद्यमानः स दथ्यो श्रेष्ठी यदि न मिलिस्ताहि तत्पनीमेव मिलेपम् । मा कोदशो वर्तते तदपि हास्यामि, इति विमृश्य धेष्ठिने शुभाशिष बदस्तदङ्गणे समेत्य तस्थौ सद्भार्यपा दापितासने स आविशत् । या उद्घोटको तस्या अप्पभवणादिकमदापयत् । अथ सादरेण तं चारण मिष्टान सम्भोज्य सत्पत्नी तमे जगाद सम्पति श्रेष्ठी गृहे नास्ति, यदागमिष्पति तदा | त्वां सत्करिष्यति । तावदई ते पर्णवीटिकां बितरामि तां सहर्षेण गृहाण चारणोऽददेवमस्तु । अथ सा सुरसबटित
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बहुमूल्यं कर्णाभरणं पर्णवीटिकायां निधाय तस्मै ददौ । सतां त्वा तस्यै चाशिषं ददानः प्रतस्थे । बहिरागतः सीटिक गुर्वी ज्ञात्वा समुद्घाटितवान् । तत्र प्रोज्ज्वलद्रत्नं महाई निरीक्ष्य पुनस्तस्या अन्तिकमाजगाम तदैवमभाषत" जे पण सुवन्नह रयण कीं खुलह, माहिं मेल्यो फोफलवन्नह ।
अवर राय जो मां सोल्लह, सोहि न पहुंचे भीमतंबोल्ल " ॥ १ ॥
इति गाथां पठित्वा सदैव स प्रतिज्ञामकरोत् - यदद्यप्रभृति भीमाशाह श्रेष्ठिनं विना कमप्यन्यं न याचिभ्ये, इत्थं तत्कीर्तिः सर्वासु दिक्षु प्रससार | एवं स्वकीर्तिपताका प्रसारणेच्छावद्भिः सज्जनैरन्यैरपि तथाचरणीयं यथा तस्येव सुकीर्तिः सर्व लोके प्रयेत ।
अथ १८ - मंत्रि-विषये
सकस व्यसन वारे स्वामि सूं भक्ति धारे, स्वपरहित वधारे राजना काज सारे । अनय नय विचारे क्षुद्रता दूर वारे, निज सुत जिम धारे राज्य लक्ष्मी वधारे || ३२ || कीदृशेन प्रधानेन भाव्यमित्युपदिशति - सन्त्यक्त सप्तव्यसनकः, स्वस्वामिमुक्तः, स्वस्य परेषाञ्च हितचिन्तको, राज्यकार्यकरणे दक्षिणः, योsन्यायं कदापि कर्तुं नार्हति सदाचारनिरतः पुत्रार्थं पितेव सदैव सर्वतो राज्यलक्ष्मीं वर्धयेत, प्रजाश्च पालयेदीदृग्गुणविशिष्ट एव प्रधानतामर्हति यथाऽमयकुमारादिरभूत् ।
अय प्रधानपदे श्रीमतोऽभयकुमारमन्त्रिणः १८ - कथा -
यथा - राजगृहनगरे राजा प्रसेनजितो वर्तते । स एकदा शसपुत्राणां मध्ये परीक्षया श्रेणिकं राज्याई मत्वाऽस्य कोऽप्यनिष्ट
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माकार्षीदिति घिया स्वदेशं त्यक्त्वा देशान्तरे यत्र कुत्रापि स्थातुं तमादिदेश । सोऽपि सहर्ष पितुरादेशं शिरसाऽवधार्य तदैव ततो निर्गत्य किमया दिनेन सोध्नगरमाययी। वन व वनानि वा समुपाविशतदा स आपणभवनं संमार्ण्य तद्रजांसि बहि1. क्षेप्तुं लग्नः । तदालोक्य तत्रोपविष्टः श्रेणिको व्यमृशत् अहो ! किमसौ मातीतो यदेतदविमहार्घाः पीतमृतिका : कनकाभाः (सेजमनुरी:) प्रक्षिपति । अतस्तमवदत् भोः श्रेष्टिन ! एतानि रजांसि गृहान्तः स्थापय । सत्यवसरे समुपयोक्ष्यन्ते तद्योग्यवचनेन योग्यं मत्वा निजालयमनयत् । श्रेणिकस्तद्गृहे गोपालकनाम्ना प्रसिद्धो भवतिष्ठत् । कियत्समयानन्तरं स श्रेष्ठी तस्मै निजपुत्र सुनन्दां सुविवाहविधिना ददौ । तया सह मोगं हुआनो गोपालकः श्रेष्ठिन आपणीयक्रयविक्रयाद्यापव्ययौ लिखन् सुखेन दिनानि मासीत् । अथैकदा तत्र नगरे कश्वन वणझारः सोपस्कराणां भारवाहिकवृषभानां सपादलक्ष लात्वा तत्रागात् । स प्रतिहट्टं तेजमतुरीति भाषाप्रसिद्धां क्रेतुमगमत्परं कुत्रापि तेन सा न लब्धा । तदा स तत्रत्यनुपमुपहारीकृत्य प्रार्थितवान् । राजन् ! मम ते जमतुरी मृण्मयाऽपेक्षा वर्तते, प्रसिद्धं सा मार्गिता परं कुत्रापि न प्राप्ता । तच्छ्रुत्वा तदैव तदर्थं नगरे सर्वत्र पटडो वादितो राज्ञा परं कोऽपि तं नास्पृशन्तत्रावसरे गोपालकेन जामात्रा प्रेरितो घनावहश्रेष्ट्री पटहं पस्पर्श । तदनु तस्मै वणझारभावाप्रसिद्धाय स गोपालकः श्रेष्ठिनः समक्षं तामेव तेजमसुरीमदापयत् । तदा श्रेष्ठी जहर्ष व्यचिन्तयच - अहो ! पुराहमेतद्रजो धिया प्रक्षेप्तुं लमः । तत वाद्य ममेयान् लाभो जातो तो धन्यो मतिमान मे जामाता येन वारितः पुरा । तदानीं तेन प्रतिनगरं पर्यटता वणझारेण दृष्टपूर्वः श्रेणिकः समुपलक्षितः । अथ तेज तुरीं लात्वा स निज स्थानमागात् । कियदिनानन्तरं स राजगृहं कार्यवशादागत्य श्रेणिकं शोधयन्तं राजानमवदय- हे प्रभो ! मया श्रेणिकः कुमारः सोईग्रामे घना वह श्रेष्ठिन आपणे दृष्टः कुशली वर्तते । तनिशम्य राजा नितरी
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| ग्रामोदत्त । इतश्च श्रेणिककुमारपत्नी गर्भवती जाता तस्या अमयदानदोहद उत्पेदे । ततः स तत्रत्यनृपाय रत्नाथुपहारं दवा सदीयसाहाय्यता सपन्या दोहदमपूरयत् । अथैकदा राजगृहनगरात्प्रसेनजितनृपेण प्रेषितो इतस्तत्रागत्य श्रेणिकं न्यगदत् । भोः कुमार ! राजा वृद्धो जातस्तुभ्यं राज्यं दित्सुस्त्वां सत्वरं दिक्षते । अथ समर्मो तां सुनन्दा प्रेयसी तत्रैव मुक्त्वा तदरले मगधदेशीयराजगृहनगरे निवसामीति लिखित्वा श्रेणिकः पितुरन्तिकमागतः।। ___ अथ प्रसेनजितो राजा शुभ मुहूर्ते महामहेन श्रेणिकस्य राज्याभिषेकं कृतवान् । परं राज्यसुखमनुभवन्नपि पूर्वप्रेयसीं विना तन्मनः सुखं न धत्ते । श्रेणिकगमनानन्तरं तत्पत्नी पूर्ण मासे सति समस्तसुपुण्यबुद्धिकलानिधानं सुपुत्र सुषुवे । तस्य च दोहदानुसारादमयकुमार इति नाम धृतवती । स श्रेष्ठी तं दौहित्रं कलाचार्यतः सकलाः कलाः सर्वाश्च विद्या अशिक्षयत् । अथ द्वादशवार्षिक: सोऽन्यदा मातरमपृच्छत-हे मातः! मम पितुर्नाम किम् ? कुत्र च स गतोऽस्ति ? येनाद्यावधि तन्मुखावलोकनमपि मे नामत । अथैतद् वृत्तमायोपान्तं माता तं न्यत्रदत् । अथ मातामहादेशेन मात्रा सहाऽभयकुमारो राजगृहनगरमागत्य कुत्राप्यारामे तस्थौ । तत्रावसरे राजा सुयोग्यमन्त्रिपरीक्षायै कुत्रचित्कूपे जलविहीने स्वमुद्रिका न्यस्य गदितवान् । यो हि कूपमुखे तिष्ठन्मत्करपवितां
मुद्रिका हस्तेनादाय कराहुलौ परिधास्पति स मन्त्रिपदं प्राप्स्यति । इति हेतोरनेके मतिमन्तो जनास्तत्र कूपे मिलिता नानोपार्य | विदधिरे, परं कोऽपि तथाकर्तुं नाशक्नोत् । अथ मातरं तत्रोपवने संस्थाप्य नगरं द्रष्टुमना अभयकुमार इतस्ततः परिभ्रमन् कुपोपर्यागत्य लोकमुखात्तत्स्वरूपं विज्ञाय भृत्येन गोमयमानाय्य कूपान्तर्मुद्रिकोपरि निक्षिप्तवान् । तदुपरि जलदार न्यासिवम् । तापयोगाद् गोमयं परिशुष्कं विधाय समीपवर्तिपवारिणा त कूपं भृत्वा गोमयपिण्डसंसकामुपागतां at मुद्रिका गोमयामि
KARMER
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कासितवान् करागुलौ प निधाय सदसि समागत्य श्रेणिकराजानं प्रगनाम । स नृपोऽयसतमपरिचितं रूपेमातिमनोहर के पालक विलोक्य तमामप्रामादिकं पप्रच्छ । अभयकमार आद्योपान्त स्ववृत्तमाचचक्षे तदनु सादर तां निजप्रेयसी निजसदन प्रापेशायद
अभयकुमारच मन्त्रिपदे न्ययुक्त | तत प्रभृति सकलं राज्यमारं गृहीत्वा न्यायतः प्रजाः पालयन् सुखमन्वपदभरकमारः। || नृपोऽपि मन्विणि महामतिमति तस्मिन्नमयकुमारे सकलराज्यकार्यधुरन्धरे सति निजप्रेयस्या सह मोगं सजाना सुखी वस्त्र । | सर्वत्राऽभयकुमारस्य सुकीर्तिः प्रससार । अस्मिनबसरे तत्र नगरे लवचिदुपरने वोगजिनेश्वो भगवानायलों सेः समवसरणाकारि ।
तत्रोपविष्टः प्रभुर्देशनामारब्धवान तदागमनवर्धापनं वनपालको राझेददत् । तनिशम्य मुदितो नृपस्तस्मै धन धनं प्रापच्छहै दैवाऽभयकुमारादिपरिवारैः सह श्रेणिको नरनायकस्तं वन्दितु तत्रोधाने समायावस्त वन्दित्ता देशनां शुभाव पेशनावरणतः | संसारमसारं जानन समुत्पन्नवैराग्योऽभयकुमारो दीक्षायै नृपमाज्ञामयाचत । हे-राजन् ! इह संसारे धर्म एव सारोऽस्ति । अतोऽई | दीक्षा जिघृक्षामि तदनुज्ञां देहि नृपोऽवा हे वत्स ! इदानीं तिष्ठ यदाऽई वां बजेति कथयेयं तदा त्वया गन्तव्यमिति वातवच । भुत्वा विनयेनांगीकृत्य स तस्थौ । कियत्यपि गते काले पुनस्तत्र चतुर्दशसहस्रमुनिमण्डलीसहितः श्रीवीरममा समायातः। सबैका साधुनंदीतीरे कायोत्सर्गध्यानतिष्ठत् । अथ पौषमासे प्रवर्षमानशैत्ये निशि कथञ्चिभिरावरणं चेलणाराश्याः करपचमतिशीतलमवत् । बर्दिता सा दिने महावीरप्रमुमभिवन्ध परावर्तमाना नदीतीरे यं साधुमपश्यत्तत्स्मृत्या जगौ । " अहो ! कपमेतस्मिन् समये स तत्र तिष्ठेत् " सुभाषेनेत्याघाजपन्तीं तामसती मन्यमानः श्रेगिस्नृपः शशके । नूनमेषा कमपि जारं निषेवते येन सं स्मृत्वा स्वमेऽप्येषा वदत्येवम् । अथ कथमपि रजनी व्यतीत्य प्रमातेभयकमारमाकार्य नृपस्तमादिष्टवानेव भोः कुमार !
२.
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- समिदानीमेवात्तापुरमशेष दाहय । अथैव कुमारमादिश्य राजा वीरभगवन्त वन्दिसुमगात् । इस: कुमारणाचिन्तिः किजातं ? या- येन राजैवमयादिशवीति सुबुद्ध्या किञ्चिविचार्य तवान्यापुरे समागतः स प्रथमं सर्वा राशी भवनान्तरे संस्थाप्य तदन्तापुरमददत् ।। ॥ गोतास राजा श्रीवीरजिनमभिषन्य पच्छ---भगवन् । मम महाशका समुदायत, सा सत्या मिथ्या वेति बुभुत्सुस्त्वां पृच्छामि।
पथा: मम राझी शीलवती वर्तते न वा वीरेणोक्त सजन ! तवैषा शक्कर मिथ्या वर्तते । यतश्चेटकराजस्य सप्तापि पुत्र्या भील क्त्मः सन्ति । अपैरमाकार्य बत्कालभव प्रभु नमस्कृत्य मत्रिणः कथितमादेश निवर्सयितु राजा त्वरया गृहमानगाम मार्गे च कुमारभद्राशीतः । तमश्चक्कि मो. .!.यदादिष्टमन्तःपुरं दग्धव्यमिति तत्कृतन्तु सवा ? कुमारोञदत्-हे महाराज ! भवतामा | पेशकरणे को विलम्वेत ? यथादिष्ठं तथाकृतम् । तच्छुत्वा क्रुद्धो राजाज्वदद् धिक्त्वामविचार्य कार्यकारिणम् । महो। ईदशान्याय कला लजसे कथं नेत्याश्चर्य लगति । गच्छ, मम मुख मा दर्शय, इति वदति नृपे कुमार आह-हे पितः ! पुरा में प्रव्रज्यो
त्सुकस्य त्वमकथयः, यदा प्रति कथयामि यदा गन्तव्यम् । तदद्य जातं ते वचनं तेन महान्मे हर्षोऽभूत, अतस्त्वां प्रणमामि क्षाम्यो 15 मेऽपराध इत्यानमन पितरं कुमारो भगवदन्तिकं दीक्षार्थी गच्छन् राजानमुच्चैर्जगौ । हे पितः । तेन दुःखेन स्वात्मनि मा खियस्व मम
मातॄणां सर्वासां कुशलक्षेममस्ति । तच्छ्रुत्वा मुदितो राजात निवर्तयितुमधिकमयतत, परं संसारमसारं जानाचः स नैव न्यवर्सस । तदैव जिनवीरान्तिकमेत्य दीक्षामग्रहीत । यथावत्संयम परिपाल्य प्रान्ते शुभपरिणामेन त्यक्तदेहोऽनुत्तरविमाने : समुत्पेदे । ठतः। ध्युत्वा महाविदेहेऽवतीर्य, मोक्षमधिरामिप्यति । ..
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अथ १९- कला - विषये. -
चतुर कर कलानो संग्रहो सौख्यकारी, इण गुण जिण लाधी द्रौण सम्पत्ति सारी । हिवर मन रंगे ले धरधो उत्तमाङ्गे || ३२ ||
कर्ता
लाने
हे प्राणिनः ! सुवेच्छा चेत्कला विज्ञानं कुरुत । हे चतुर । इह हि कलावत प्राणिनामसीमानि सुखानि सम्पदश्व सकला अनायासेन जायन्ते । पश्यत - द्रोणाचार्यस्य कला विज्ञानयोगात्कीदृशी सम्पत्तिर्जाता कियती च तदीया सुकीर्तिलोंके प्रथितेति । तथा महादेवः पुरा कलायोगाच्छसि वारि दधत्रिपुरं व्यजेष्ट । एवं जैनेतरग्रन्थेऽस्ति तत एवं समस्तं तद् बोधनीयम् ।। ३२ ।। अथ कलावद्रोणाचार्यार्जुनभिल्लानां १९ - कथानकम् -
यथा -- कलावान् द्रोणाचार्यः पार्थ बाणावलीकलामशेषामशिक्षयत । मादृशो धनुर्धरोऽन्यः कोऽपि मास्त्विति धियाऽर्जुनो गुरुमवोचत - हे गुरो ! मामिवाऽन्यं कमपि धनुर्विद्यां मा शिक्षस्तेनापि तत्प्रतिपन्नम् । अन्यदा कश्चिद्धिलः समागत्य द्रोणगुरुं महतादरेणावोचत । हे गुरो । मामपि धनुर्विद्यां शिक्षय द्रोणोऽवकू एवं नीचोऽसि ततोऽहं त्वां न शिक्षामि । तदनु स कुत्रचित्पर्वते गत्वा मृमर्थी द्रोणाचार्यप्रतिमां स्थापितवान् । प्रत्यहं वां द्रोणमूर्ति विधिना सम्पूज्य नमस्कृत्याऽभ्यर्थयत — द्रोणगुरो ! त्वं मां धनुर्विद्यां शिक्षण । त्वत्प्रसादादागमिष्यति सकला कलेति संप्रार्थ्य तं कस्यचिदेकस्यामलकीत रो: सूक्ष्मपत्राणि - लक्ष्यीकृत्य वाणेनाऽविध्यत् । इत्थं प्रत्यहं शिक्षमाणस्य भिल्लस्य षड्भिर्मासैः सकला कला स्वभ्यस्ताज्यूस सरोरेकमपि : पत्रमविद्धं
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-प
पा
नावाशिषत् । अथैकदा पार्थस्तत्रागत्य समपश्यत्तेन चमत्कृतः पार्थश्वेतसि दध्यो- अहो! केनैतानि तरुपत्राणि सकलानि रैविद्धानि ? मत्परोक्षे द्रोणाचार्यः कमप्यन्यमशिक्षयत्किमे यावदशस्त तावत्तत्र स मिल्ल एवागतस्तेन पृष्टः–किम्भोः । त्वरतानि दलानि विद्धानि ? वनेचरोचदन्मयैव | पार्थः पुनरपृच्छन्-मोः। तब गुरुः कोऽस्ति तेनोक-द्रोणाचार्यः । अथ सोड- र्जुनस्तं भिल्लं द्रोणान्तिकमनयत्कथितञ्च-भो गुरो ! त्वमेतस्य मिल्लस्य धनुर्विधामरिक्षयः किम् ? सोऽवक्--हे पार्थ ! बहमेनं किमपि नाशिक्षयम् । जानाम्यपि न कोऽस्तीति तदाऽर्जुनोऽपृच्छत्-भोः सत्यं वद, तवैतत्कलाशिक्षक कोऽस्तीति ? | तेनोक्त-हे अर्जुन ! अलीकमह न वदामि । नूनं ममैप द्रोणाचार्य एवं शिक्षकोऽस्ति । तदार्जुनो द्रोणमवदव-गुरो ! शृणोषि ? असौ किम्वतीति ? अथैतदाकार्य भिल्लमुद्दिश्य द्रोणाविदत्-अरे नाच । मुधा मनाम किं गृहासि ! भिल्लोऽवदधदि मिथ्या | मनुषे तदाऽऽगच्छ, द्रोणगुरुं दर्शयामि । अथ तेन सह द्रोणार्जुनौ तत्रागच्छताम् । तत्र तौ भिल्लोऽवदद्-मो ! पस्मादहमेना । कलामशिक्षे, तं द्रोणाचार्य युवां पश्यतम् । तन्मूर्तिमालोक्य तो मिथोऽवोचताम्-नूनमेष श्रद्धालरस्ति । मक्तियोगादेवाऽस्येदृशी कला जाता । तत्रावसरे द्रोणोऽवदद्-भोः पार्थ ! अत्र को मे दोषः ? अनेन तु गुरुमक्ति विधाय वयमेव धनुर्विघानें- S पुण्यमवाप्तं । तदनु तो स्वस्थानमाजग्मतुः । इत्थमन्योऽपि यः सत्यया गुरुभक्त्या कलां शिक्षिष्यते, तस्याऽवि विद्यावश्य फलिष्यति ।
अथ २०-मूर्खता-विषयेवचन रस न भेदे मूर्खवार्ता न वेदे, तिम कुवचन स्वेदे तेहने सीख जे दे । नृप शिर रज नाखी जेम मर्खे चहीने । हित कहत हमी ज्यूं धानरे सुग्रहीने ॥ ३३ ॥
"ODHARA
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अहो ! मूर्खश्चातुर्यभाषितरहस्यं किमपि न जानाति । अवसरोचितमुत्तरं न कत्तं शक्नोति परेषां शिक्षणमपि तस्मै न रोचते।। यथा कश्चन महामृों राज्ञः शिरसि धूलिमक्षिपद । यथा वा सुनिका पक्षिणी कश्चन वानरं हितमुपादिशत् । तदा स मूर्खस्तस्या आलयोन्मुलनामोदरलीच नार : हितसारि रजनमपि मूर्ख एवमेव कुरुते एतदेव मूर्खदृष्टान्तेन स्पष्टीकरोति ।। ३३ ।।
अथ मूर्खतोपरि वणिक्पुत्रस्य २०-कथाकश्चिदेको वणिकपुत्रो जन्मतो महामूर्ख आसीत्कस्यापि हितोपदेशं न मन्यते । वस्तुनः साराऽसारतामपि नैव वेत्ति । सदैव निरङ्कुशो यथेच्छं जल्पन्कदाचिद्धसन्कदाचित्कलइन दिनमतिवाइयति । स चैकदा मात्रै शिक्षितः भोः पुत्र ! सदा सर्वोचैरा- | क्रोशवा त्वया गन्तव्यम् । तथा सति यत्र तत्र समुपविष्टा हिंसाः दुर्घला वा जीवा मागतोऽन्यत्र यास्मन्ति | ततःप्रभृति सर्वत्र | तथैव कुर्वन् स ब्रजति । अथैकदा कोऽपि व्याघो महून् पक्षिणः समवरुध्य क्वचिल्लीनस्तस्थिवान् । तावदुधेश्वीत्कारं कुर्वन् सस
। तदीयचीत्कारवमाकर्ण्य ते पक्षिणो इतमेव समडीय पलायन्त । तदा ऋद्धो व्याधस्तं मूर्खमधिकं जपान । अथ तं मूर्ख विदित्वा स एवमशिक्षयत्- मूर्ख ! त्वं सर्वत्र मौनमाधाय प्रज, यत्र यत्र यासि प्रच्छन तिष्ठ । इत्यं शिक्षितो बहुप्रार्थना मुक्तः स कचिचटाक्मागत्य चौरवल्लीनस्तस्थौ । अथैनं वीक्षमाणः प्रत्यहमपहृतक्सनः कश्चिद्रजकचौरषिया गृहीत्वा बहताडयत् । असावपि मतिविकलं मत्वा तमत्यजदगदश्चरे मूर्ख ! एवं कदापि कुत्रापि मा तिष्ठ। यत्र कुत्र व त्वं पाहि त्रत्वमा स्वल्पं भवविति वाच्यम् । अथैतच्छिक्षामभ्यसमग्रे चलन् कस्पचिनगरस्य समीपमामत्याऽतिष्ठत्तत्रावसरे हालिकाः शुभमुद्दः शुम
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शकुनेन गृहानिर्गत्य तत्र क्षेत्र क्रष्टुं जयाः, तदा तेषामये तेन स्वयं भवत्विवि सुरु भैरजल्पत । ततः सर्वे कर्षका मिलित्वा-भूशं कमताडयन् । अथ बहुप्रार्थितास्ते से मुमुचुः कथितश्चारे मविहीन ! एवं मा वद सर्वत्र बहु भवत्वित्येव वक्तव्यम् । अथैतत्पदं मुहुः स्मरणग्रे गत्वा कुतश्रिद् ग्रामाद्बहिः शवमादाय समागच्छतां पुंसामग्रे बहु भक्तु बहु भवत्विति तेनोक्तम् । तदाकर्ण्य ते शक्वाहकास्तमतितरां ताडयामासुः । ततो मूर्ख ज्ञात्वाऽत्यज मवदंश्व-रे मूर्ख ! एवं मा भवतु कदापि कस्यापीति जल्प | अथ ततोss कश्चन नगरमागतः स मूर्खः कस्यचन श्रेष्ठिनः पुत्रस्य विवाहोत्सवे धवलमाङ्गलिक गीत वाद्यं नृत्यादिकं प्रारब्षमालोक्य तत्र स्थितानां लोकानां पुरत एवं मा भवत्विति महता स्वरेणाऽनेकधा बभाषे । तदमङ्गलमुचरन्तं तं द्वित्रा जना मिलित्वा यथे कुट्टितुं लगाः । अथ तदीयदीनवचनेन सदयास्ते मूर्खोऽयमिति ज्ञात्वा तत्यजुः शिक्षितश्च रे जड ! सदा सर्वेषामेवमस्त्विति ब्रूहि । अथ ततो निर्गत्य कस्यचिद्राज्ञो द्वारि समेत्य तस्थौ । तस्मिन्नवसरेऽन्तः पुरे परस्परं कलहाथमानौ राजानावास्ताम् । वौं तमेर्व सदा भवत्विति भाषमाणं वीक्षाञ्चक्राते । तदैव कुषितो राजा केनचित्पुंसा तं निजान्तिकमानाय्य वाडयामास । पश्चात्सूर्खधिया जातानुकम्पया राज्ञा मोचितः शिक्षितश्चरे भाग्यहीन ! कुत्राऽपि गत्वा त्वया मौनमाश्रित्य स्थातव्यम् । यदा कोऽपि किश्चित्पृच्छेत्सदा शनैः शनैः किञ्चिभिगद्यमिति शिक्षयित्वा सा राज्ञी स्वपार्श्वे तं नियुक्तवती । अथैकदान्तःपुरेऽयों लग्ने झटिति वच्छमनाय राजानं तद्वक्तुं सा तं प्राहिणोन् । स तु समाभागत्य तूष्णीमतिष्ठत् कियत्कालानन्तरं राज्ञा पृष्टः स शनैः शनैस्तत्स्वरूपं कर्णे जगाद । तच्छ्रुत्वा कुपितो राजा तमाख्यत् भरे मूर्ख गृहे दह्यमानेऽश्रागत्य तदैवोच्चैः कथं न जगदिश १ रजांसि कथं नामौ चिक्षेपिथ । अतः परं त्वया धूम्रे दृष्टे सति सर्वत्र धूलि प्रक्षेप्तच्या । इत्यं तस्मै शिक्ष
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दवा गृहमागत्य ब्रडिसीशमतः । अथाऽन्यदा राज्ञी स्नानानुलेपनादिकं विधाय वेणीं धूपयन्ती बनून । तस्मिन्नवसरे सकुचि"देत्य राज्याः शिरसि धर्मः विलोक्य शटिति तत्र धूलि प्रक्षिप्तवान् । तेन कर्मणाऽयोग्योऽयमिति मत्वा राजा तं निष्कासितवान् । अतो दे नराः ! ईदृशो मूर्खः सह सर्वैवायते । अतो वच्मि-सदा सर्वैः परमार्थ विदित्वा तदुचितं विधेयम् । शैशवे सर्वैरेव विद्यायासे यवितव्यम अन्यथा यावज्जीवं मूर्खाः सन्तः क्लिश्यन्ति ।
अथ पुनरपि सुतोपरि कपिग्रहिपक्षिणोः २१-कथा-
यथा - कदाचित्कुत्रचिह्नने शीतबाधया वेपमानं वानरमालोक्य कुतनीडस्था काचन सुगृही-पक्षिणी जगाद -
दो हत्या दो पाउरा, दो लोयण दो कन्न । थर थर कंपे देहड़ी, कर घर रखवा तन ॥ १ ॥ अपि च-द्वौ हस्तौ द्वौ पादौ च दृश्यते पुरुषाकृतिः । शीतभीतिहरं मूढ !, गृहं किन करोषि भोः ! ॥२॥ इत्यादि सुगृहिपक्षिण्योत्तमाकर्ण्य सञ्जातरोषः स कपिस्तदैव समुत्प्लुत्य तद्गृहमभावक्षीत । तदानीं तद्भीत्या नश्यन्ती सा तेनेत्यं भणिता – सूचीमुखी दुराचारी, रे रे पण्डितमानिनि || असमर्थी गृहारम्भे, समर्थो गृहभञ्जने ॥ ३ ॥ रे रण्डे ! त्वं मां मूर्खमशरूमवेदीस्तत्फलं पश्य – अहो ! मूर्खाणां हितोपदेशोऽपि सतामनर्थाय भवति । भत उक्तम्
उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने । पश्य वानरमूर्खेण, सुगृही निर्गृही कृतः ॥ ४ ॥ भतो वच्मि सद्भिरयोग्याय हितमपि नोपवेष्टव्यम् । यतो मूर्खोपदेशस्तेवायुपदेष्टृणामेवाऽनर्थाय जायते ।
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अथ २१ लजा-विषयेनिज वचन निवाहे वाजि ज्यू वालि पाले, व्रत तप कुमारीले मात ज्यूं लाज पाले। सकल गुण सुहावे लाज थो भावदेवे, व्रत नियम धर्यो जे भाइ लज्जा प्रभावे ॥ ३४ ॥
इह लोके स एव श्लाघ्यो यो हि स्ववचनं नैत्येन पालयति । किञ्च सुशिक्षिताश्ववत्सन्मार्ग एच सदा चलति । कुलस्य मर्यादा व्रतादिकसानुसरति । यथा कश्चन भावदेवनामा लोकलाजाभिया भवदेवेन भाया सह दीक्षा लावा व्रतनियमादिकं सम्यगपाखयत् । इन्धं लज्जयाऽपि शुभकार्य सिध्यति तस्मात्सता सदैवात्मनि सुधिया लजा कार्यैव ॥ ३४ ॥
___अथ लजया प्रव्रजितयोर्भवदेवभावदेक्योभ्रांत्रोः २२-कथा-- तथाहि-सुग्रीवनाग्नि नगरे भवदेवभावदेवनामानौं भ्रातरावभूतां, तयोर्मध्ये ज्यायान् भवदेवः प्रबजितोऽभवत् । स चैकदा 0 तत्रैव नगरे मुनिभिः सह विहरभागात् । स गोधरीकृते नगरे भ्राम्यन् पातुर्विवाहसमारोहमपश्यत् । तत्राऽऽगतं बन्धुमालोक्य भावः | देवस्तत्संमुखमेत्य भक्तिस्नेहाभ्यामधिकं प्रत्यलाभयत् । तद्वोढुमशस्तं भवदेवमुनि मत्वा सोऽवदत्-हे बन्धो ! एतावदानेन ते | क्लेशः स्यादतो ममापि पात्रादिकं देहि यच्चस्थाने सुखेन तन्नेप्यामि । इत्थं भाषाम्पर्थितः पात्रादिकं तस्मै ददौ ततो द्वावपि । भ्रातरौ चेलतुः । समीपमागच्छन्तौ तौ विलोक्याज्ये कियन्तः साधवस्तदभिमुखमागत्य जगदुः-अहो ! धन्योऽसि यदध नवर रिणीतमपि भ्रातरं प्रतियोभ्य साधुमकृथाः । तदाकये मावदेवो मनसि दथ्यो-अहो ! किं कर्चव्यम् ? यदीवो गृहं यामि वहि मे
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भ्रातरमेते किलोपहसिष्यन्ति । मम मातरमपि निन्दिष्यन्तीत्यादि विमृश्य तदैव हसावधप्रतिबुद्धो भावदेवोऽपि दीक्षामग्रहीत । भवदेवमुनिश्चारित्रं परिपाल्य स्वास्थये मृत्वा येवोऽभवत् । अथ तस्मिन्मृते भावदेवेन व्यचिन्ति-मया स्वेच्छया दीया न गृहीता, किन्तु पन्धुलज्जया स पन्धुः परलोकमगात् । गृहे घ नवपरिणीता पत्न्यपि मन्मार्ग पश्यन्ती भविष्यति । अतो मका गृह गन्तव्यमिति विचार्य साधुलिङ्गं त्यक्त्वा परावर्तमानः स तत्र नगरे समामत्य नगरसमीपे कुत्रचित्रासादे समुपावित्रत् ।। सावत्तत्र केनापि हेतुना समागता नागिलाख्या तत्पत्नी तं स्वभारमुपलक्ष्य भ्रान्तचितं तं प्रविषोध्य संयमे सुस्थिरमकरोत् । | एष भाषदेवो जम्यूस्वामिजीव आसीदसौ लजया दीक्षा ललौ । प्रान्तेऽपि स्त्रीवचसा स्थैर्यमासाध स्वात्मार्थमसाधयदतोऽन्य- ५ | रप्येवं लजा मन्तव्या । येन तस्य जनस्यापि सर्वेप्सितकार्य विति। __ लक्ष्म्युपसंहारः, शालिनी-छन्दसि-एवा जे जे ख्यड़ा भाव राजे, एणे विश्वे अर्थ यी तेह छाजे ।
एवं जाणी सार ए सौख्य केरो, ते धीरो जे अर्थ अर्जे भलेरो ॥ ३५ ।। __ अतः हे प्राणिनः ! यूयं यदि सुखं वाञ्छय तर्हि धीरतयार्थोपार्जनं कुरुत । अर्थ विना महान्तोऽपि नैव शोभन्ते । तदैI कल्ये रामचन्द्रमपि पथिकाः पारधिमजल्पन । भतो लोके सर्वतः श्रेयसी सम्पत्तिरेवास्तीति मत्वा तदर्जन सर्वैविधेयमेवेति ॥३५॥
अथ राज्याभिषेकावसरे पितुर्वनवासाऽदेशेन ससीतः सलक्ष्मणो रामो बनाय गच्छन् मार्गे केनापि पथिकैन पलोकि । | सत्रावसरे तदन्येन पान्थेन स पृष्टः-कि भोः । कोऽयमदृष्टपूर्वोऽनीदृक् पुनो गच्छन् वीक्ष्यते । तदाकर्ण्य तेनोक्तमसो कोऽपि पारधिर्मविष्यति । तयोरीदृशं वचनमाकर्णयन रामो जगाद
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लखमण लखमी पाहिरा; नर लहुआदीसंत । तुझ सरिता धणुहर घरे, पंथी गाध भणन्त ।। ५ ।। लक्ष्मी पिना महानपि पुमान शोभते, अतो लक्ष्मीलगार्जनीया सबैरिति विमाव्यम् ।
HEREDI BLICE-CRITICLEARINE
हति सर्वजीवहितेच्छुकेन पण्डित-श्रीकेसरविमलगणिना भाषाकवितामयविरचितायां तता
श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय-साहित्यविशारद विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रमरीश्वरेण, . सरलसरससंस्कृतसंकलितायां सूक्तमुक्तावल्यां द्वितीयोऽर्थवर्ग: समाप्तः ।।
| increamITATDEHATIALLAHABHIARPITOME
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अथ तृतीयः कामवर्गः प्रारभ्यते
उपजाति - वृत्ते -- प्रायाः कियन्तः किल कामवर्गे, कामो नृनार्यो गुणदोषभाजः । सुलक्षणे योगवियोगयुक्तैः, समातृपितृप्रमुखाः प्रसंगाः ॥ १ ॥
तत्र कामः १, पुरुषगुणदोषों २, स्त्रीगुणदोषों ३, संयोगवियोगों ४, मातृ- कर्तव्यं ५, पितृ - वात्सल्यं ६, प्रमुखशब्दात - पुत्र-वर्णनं ७, चेत्यस्मिन् ' कामनमें' सप्तविषयाः क्रमेण वर्ण्यन्ते ॥ १ ॥
अस्मिन्संसारे कन्दर्पदर्पः प्रबलो दुर्जयों मासते । तस्य विजेता कोऽपि सुपुण्यशाली विरल एवाऽस्ति स . तु. ब्रह्मादिकमये जगद्विजमते । किश्व-वत्पारवश्यं नीता नरा विमूढा इव निवान्तं क्लिश्यन्ति । सदसद्विवेकशून्यास्तथा जगत्यात्मभूजेवारी दिरलाः सत्पुरुषा एव जायन्ते यदाह-
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"फेचित्प्रचण्डगजराजधिनाशदक्षाः, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ।
श्रीस्थूलिभद्रमुनिराजमुखा हि सन्ति, त्रैलोक्यजेतृमदनप्रशमेऽतिदक्षाः" ।। १ ।। किञ्च-मदनवशङ्गतो नन्दिषेणो द्वादशवर्षाणि गणिकालये तिष्ठन् तया सह विषयसुखं सुआन आसीत्ततः संयमे दाढर्यमातशन् । मदनजेतार एव जना आत्मश्रेयः साधयन्ति । पुरा कामपारतयं नीतः पश्चाद्विनिर्जितस्मरो नन्दिपेण भात्म६ साधनमकरोदत्त उपयुक्ततया तत्कथाऽत्र लिख्यते
अथ कामभोगे तया तस्यागोपरि नदिषेणमुनेः १-कथानकम्___ इहैच मगधदेशे श्रेणिको नाम राजास्ति तदीयो नन्दिषेणनामा कुमारो विद्यते । स च स्वानुरूपाभिः पञ्चशतीभिः कन्यामिः पित्रा परिणायित्तः सुखमनुभवन्नस्ति । अथैकदा तत्र नगरे कुत्रचिदुपरने गुणशीलनाम्नि चैत्ये श्रीमहावीरप्रवरागतः । तत्र अब। नपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैस्तदीयसमवसरणं चक्रे, तच्च पृथ्वीतः सार्धक्रोशद्वयोमतं जज्ञे । तदारोढुं चतुर्दिक्षु कवहस्तान्तरालानि चाशीतिसहस्रसोपानानि व्यधुः । तत्र च पूर्वस्यां दिशि सिंहासनोपरि ' नमो तिस्थस्स' इत्युदीर्य श्रीवीरप्रशविरराज । तथाऽवशिष्टासु दिक्षु ते देवाः सिंहासनोपरि प्रभो तिमतिष्ठिपन् । तनावसरे भगवान् वीरो देशनां ददते, सा च बहुविधदानशीलतपोभावनारूपा मुक्तिमार्गस्य द्वारमिव भाति स्म, एतत्स्वरूपं वनपाल श्रेणिकराजाय निवेदितवान्। बदाइष्टो राजा तस्मै बहुदानमदात् । प्रभोरागमनहर्षतो राशः सकलानि रोमकूपानि समुत्तस्थुः । अथ तदैव क्षोणीपसिनन्दिषेणतनयेन तथाऽभय
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कुमारप्रधानवगैः पौरजनैश्च सह वीरप्रमोर्वेन्दनार्थं तत्राऽऽगात् । अथो दूरादेव समवसरण मालोक्प खड्गच्छत्र चामरादीनि राजचिन्हानि सोऽत्यजत् । अथ तत्र समवसरणे समागतो नृपः प्र त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य समभिवन्द्याष्टोत र सहस्र काव्यैः संस्तुत्य स्वोचित स्थानके समुपाविशत् । देशनाथ गणतो नन्दिषेणेन संसारमसुमपारमबोधि । देशनान्ते च वीरप्रमभिवन्द्य स्वालयमागत्य मइवाग्रहेण मातापित्रोः पत्नीनाश्वादेश लात्वा वीरान्ति के दीक्षार्थी स आगात् । तत्रावसरे व्योमनामजायत यथा - हे नन्दिषेण । तवेदान भोग्यकर्माण्यत्र शिष्पन्ते तानि शुद्ध तदन्ते चारित्रमादेयमिति । परमसौ तामप्यगगयन् सदैव भगवदन्तिके दीक्षा मग्रहीत् ।
ततो भाविवशात्कालान्तरेणाऽज्ञानतः सोऽन्यदा गोचर्यै गणिकागेहं प्राविशत् । तत्र च प्राक्तन मोग्य कर्मोदयाद् द्वादशवर्षाणि स्थित्वा तां खानः कर्मक्षयमकरोत् तदनु तां विहाय स्वात्मश्रेषोऽपाधपत् । अहो ! मtree कीदृगस्ति यदीदृशमपि साहसिकं स्ववशमकरोच तरेषां का वार्ता ? भवो विषयतो दूरमेत्र स्थेयं श्रेयोऽर्थिभिः सकरैरिति । एतत्कथानकमत्रैवाव १६ नन्दिषेणतयः प्रत्रन्धे लिखितमस्ति तत्रैव विशदवयावलोकनीयमिति, अत्र तु प्रमङ्गतः संक्षेपेणैवादशि ।
अथ १-काम-विषये – उपजाति छन्द:
कन्दर्पपश्चाननसेज आगे, कुरंग जेवा जग जीव लागे ।
स्त्री शस्त्र लेई जग जे विदीता, जे एण देवा जनवृन्द जीता || २ |
अस्मिन् भवारण्ये बलीयानसौ स्मरः पञ्चानन व दुर्जयो विलयति । सिंहस्य यथा चत्वारो दहला मुखश्च पश्चनमस्ति
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| तथाश्यापि शब्दादिविषयाः पचाननानीच विद्यन्ते । यथा मृगारातः पुरतो मृगादयो निस्तेजरकारूशे तिष्ठन्ति तथास्य मदनस्याग्रेऽमी जीवा मतपसास्तदश्यता यान्ति । अस्याऽमोषमस तस्वविदः स्त्रियमेव कथयन्ति । कामो हि रमणीशलेण देवान् । धीरान योगिनोऽपि जिगाय । एष कातरै विषयलुब्धैः कदापि न जीयते, किन्तु शौर्यवद्भिरेव तत्ववैदिभिर्जेतुं शक्यते ॥ २ ॥ नान्यैर्देवादिभिरपि नरेश मयति । . मालिनी-वृत्ते-मनमय जगमा दुर्जयी जे सदापि, त्रिभुवनमुरराजी जास शस्त्रे सतापी ।
.. जलजविधि उपासे वार्षिजा विष्णु सेवे, हर हिमगिरिजाने जण अर्धाङ्ग देवे ।। ३ ।। . इह त्रिभुवने कामो हि सर्वेषामजय्यो भाति । एष त्रिदशानपि लीलया निजवश्यं विधाय विषयातुरानकोत । यथा हरि| हरादयोऽपि मदनजिताः कान्ताः सिषेविरे ॥ ३ ॥ तवेव दर्यते । शार्दूलविक्रीडित-वृत्तेमिलीभाव छल्यो मद्देश उमया जे काम रागे करी, पुत्री देखि चल्यो चतुर्मुख हरी आहेलिका आवरी। इन्द्र गौतमनी त्रिया विलसिने संभोग ते ओलच्या, कामे एम महंत देव जग जे ते भोलच्या रोलव्या ॥ __हरोऽप्येकदा तपस्यां विहाय बनेचरीमालोक्य तस्यामेव सिंसामुवाह । विधाता निजपुत्री विलोक्य स्मरपारतन्त्र्यमनुभवन् । | वामन्वधावत् । हरिरपि गोपीमी रेमे, देवेन्द्र आहेलिकायै गौतमपल्यै उलमे, इत्थं महान्तो देवा अपि तद्वश्या अभूवन् ॥ ४ ॥
. अथ चनेचरीं विलोक्य विषयसुखप्रार्थयितुः परस्य २-कथाएकदामहादेवो वने तपस्यबासीचत्सझानध्यानादिपरीक्षाकृते चातीवसौन्दर्यरूप विधाणा गिरिजा वनेचरीपेण तत्पुर आगत्य
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तस्थौ, सदा ततूपकटाक्षवीक्षणमृदुहासादिहावभावैः समुत्तमदनोद्रेकः स तामयाचत रतिम् । अथ कामयशङ्गतं तमवादीत्साहे त्रिपुरहर ! अहं त्वां सेविष्ये । परमेकदा कर शिरसि दच्चा, तथैकपाणि कटिप्रदेशे निधाय स्वनृत्यं मां दर्शय । तत्रावसरे रतिलोभवशात्तपस्यामपि त्यक्त्वा तेन तदप्यमीचक्रे । अहो ! तर्हि संसारे साधारणस्य पुरुषस्य का गतिः ? अतः कामजयोजीव कठिनोऽस्ति । य एनं जयति स एवात्मकल्याणं विधातुमर्हति नाऽन्ये इत्येवपरमार्थः ।
अथ कानयोगायनिय प्रालिनी-हतेमल नृप दमयन्ती देखि चारित्र-चाले, अरहन रहनेमी ते तपस्या विटाले ।
चरमजिन-मुनी जे चेलणा रूप मोहे, मयण रस व्ययाना एह उन्माद सोहे ।। ५ ।। यथा गृहीतसंयमस्यापि नस्वराजर्षः सार्धी दमयन्ती व्यालोक्य मनो विव्यथे । यथा पा श्रीनेमिनाथस्य भगवतो भ्राता रथनेमिमुनिः कृतकायोत्सर्गध्यानो राजीमत्याः संयमिन्या अनावृतमङ्गमालोक्य ध्यानतो व्यस्त । एवं वीरस्य भगवतोऽन्तेवासिनः । संयमधारिणो मुनयोऽपि श्रेणिकराजपत्नीचेल्लगारूपदर्शनाद ज्यामुग्छन् । अहो! प्रादुर्भुते कन्दर्षे स्त्रीदर्शनाघल्लोकानां मनांसि क्षुम्यन्ति स एव कन्दर्पोन्मादोध्यगन्तव्यः ॥ ५ ॥
__ अथ दमयन्तीविलोकनाचल वित्तस्य नलराजर्षेः ३-कथानकम्तथाहि-नैषधाभिषे नगरे नैषधो नाम राजाऽस्ति । तस्य च नल-कूपरनामानौ पुत्रावभुताम् । अथ ज्ञातसंसाराइसारो राजा
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l नलं राज्ये बरं यौवराज्ये चन्यस्य दीक्षा ललौ । तदनु नलं राजानं घूते जित्वा कुबरो नृपोऽमयत् । नलस्तु दमयन्त्या सह वनवास्वस्त दैवयोगान्मार्गे दमयन्तीमपि जहौ । स्त्रयन्तु कुजत्वमगच्छ-कर्मयोगादमयन्त्या अपि मुधा चौर्याऽपवादोऽलगत् । क्रमशस्तस्याः पुनः स्वम्पराऽवसरे परस्पर सम्मेलनमभूद्राज्यमप्याप्तवान् । तदनु चिरं राज्यसुखमनुस्य सजातवैराग्यवशात्स नलः प्रवाज दमयन्त्यपि संयमिनी जज्ञे । उभावपि संयम पालवन्तौ पृयर पृयह विचरतुः । अथैकदा दमयन्ती सानी विलोक्य नलराजर्षे. चित्रं कामर्शवदमजायत । तज्ज्ञावा प्रतिबोध्य सा दमयन्ती तस्प चारित्रस्वैये व्यघात । .
अथ राजीमती कामयमानस्य समुनिमतोत्सर्गध्यानस्य रथनेमिमुनेः ४-प्रबन्धःयथकदा श्रीनेमिनाथस्य भगवतो बन्ध स्थनेमिनामा नेमिप्रभोर्देशनातः प्रतिबोधमासाद्य दीक्षितोडमवत् । ततःप्रभाति पर्वतगुहायां कायोत्सर्गध्यानेतिष्ठन् । अथैकदा वर्षौ भगवन्तं नेमिनाथमभिवन्ध ततः परावर्तमाना साधी राजीमती मार्गे वर्षात आर्द्रवसना जाता तानि च शुष्कयितुं सा साधीः गुहान्तर्गता। तत्राई सतानि देहादुत्तार्य शुष्कयितुं लगा। तत्रावसरे राजीमत्याश्चारुतरमङ्गोपाङ्गमनावृतं निरीक्ष्म कायोत्सर्गध्यानस्थोऽपि रथनेमिमुनिः कामनरजालतो विभिन्नपात्रो जातः । शुभध्यानन्तु सर्वथैव विसस्मार। केवलमशुभध्यानकर्दमे निमग्नोऽभवद् विपश्मदिरामत्तः स गतत्रपस्ता मुखतः कामक्रीडामयाचिष्ट । तथाहि-अयि राजीमति ! तदृशं योरनं वयोरूपादिकपतिसुन्दरं वर्तते । तरी मुधा किं गमयसि ? शीघ्रमेहि मया सह यथेष्ट स्मस्व । येनाऽनयोरिदं जन्म सफलीभविष्यति, आकस्मिकमीशं प्रारहितं तदूचः श्रुत्वा सा राजीमती निजमङ्गोपाङ्गं सम्यक् । संगोप्य सतस्त्वां घिगित्यादिभाषगपूर्व कियदपि काकवादिदृष्टान्त तमदर्शयत् । प्रान्ते च तं निन्दन्ती जगाइ । भो अधीर ।
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KI साधुर्भला किगना जललिमित्थं जल्गन कथं न लबसे १ तब सुनाने क गतं यदेवं षे । पप-अगन्ध
नकुलजातः सोऽपि स्वेन बान्त विष निजाणातिपातेऽपि कदापि नानाति । वन्तु संयमी भयोऽपि सत्कुलजातस्त्यक्तमपि विषयहालाहलमधुना वाञ्छसि तत्सत्कुलोत्पन्नस्य तव नैव घटते । एवं कते कुलमपि मलिन स्यात् चारित्रश्च नश्यति । तन्नाशात्तव l नारकीगतिर्दुवरि भविष्यति, अत एवं मा कृथाः । अथ सतीमुखोदीवचनश्रवणतो रथनेमिः प्रतिबुद्धो जातः । दयौ
चैवं मनसि अहो ! धन्येयं सतीशिरोमणिर्यया सत्यपि मदतौ रूपलावण्यतारुण्ये स्मरो जित:, अस्यामनार्य अन्त मां घिग् यदई || मानुसमानां प्रातृजायामपि भोक्तुमैच्छम् । तदनु कृतपश्चात्तापः स भगवदन्तिकं गत्वा तन्प्रायश्चित्तं लात्वा पुनश्चारित्रवान् मृत्वा
भृशं तपस्यन्सद्गतिमाप । ईदृशां महतामपि कन्दर्पवश्यत्वमभूत्तर्हि पामरजनानां का वार्ता ? अतः कामो दुरवस्त्यक्तव्यः। यो हितं Lal जयति स एव जीवः स्वजन्म सफलीकरोति पुनरक्षयसुखमप्यधिगच्छति । तथैवैकदा वीरभगवतः सङ्घाटकीयाः साधवश्वेलणाराही || वीक्ष्य चलचित्ता अभूवमित्यादिकथा ग्रन्थान्तरादनगन्तव्या सद्भिभवद्भिः ।
अथ २-पुरुषगुणदोषोद्भायनविषये-रथोद्धता-वृत्तम्उत्तमा पण नरा न सम्भवे, मध्यमा तिमन योषिता हुवे ।
एह उत्समिक मध्यमी पणी । बेहु माहि गुण दोष नो गिणो ।। ६ ।। इह जोके ये जीवाः स्वगुणैः शोभन्ते स उत्तमा ये च पितुर्गुणरुपलक्ष्यन्ते से मध्यमाः कथ्यन्ते । अनयोरिव गुणदोषा
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भ्यामुत्तममध्यमयोर्महदन्तरं विद्यते । यथा हि गुणवानिजगुणेनैव सर्वत्रोपलक्ष्यते निर्गुणन्तु पिवगुणनामादिनैद ज्ञायते । तथैव | गुणी निजगुणतो, निर्गुणी दोषतः सर्वत्र प्रख्यातिमुपैति ॥ ६ ॥
अथ पुरुषगुणविषये-शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम्जे नित्ये गुणवृन्द ले परतणा दोषो न जे दाखवे, जे विश्वे उपगारि ने उपगरे पाणी सुधा जे लथे। पूरा पूनम चन्द्र जेम सुगुणा जे धीर मेरू समा, जे गर्भार सदा सुसायर जिसा से मानवा उत्तमा।।७।।
यो हि सदैव परेषां गुणग्राहको भवति, दोषांश्च न ख्यापयति, जगदुपकरोति, परकृतमुपकारं सदैव मनुते, तथा सुधामिव ।। मधुरां सत्या वाणी पदति, कदाचिदसत्यमप्रियं न भाषते, तथा शारदपाणशर्वरीश इव सकलसगुणवान मेरुवदपलः, समुद्र इव | गम्भीरः, ईदृशो जन उसमा कीर्त्यते अत एव लोकैरुत्तमैरिति भाव्यम् ॥ ७॥
___ अय परकीयस्तोकमपि गुणमुदाहरतस्तथा दोषमपलपतः श्रीकृष्णस्य ५-कथाअर्थकदा सौधर्मेन्द्रः सभासीनः श्रीकृष्ण समम्तायीत-भो भोः सभ्याः ! साम्प्रतं मर्त्यलोके श्रीकृष्ण इद गुणग्राही कोऽप्यन्यो नास्तीति । तदसहमानः कोऽपि मिथ्यात्वी देवस्तं परीक्षितुं मृत्युलोकमागात् । तत्रावसरे श्रीकृष्णो स्थवाटिकातः परावर्तमानः स्वनगरमागच्छयासीन्मार्गे । अथैतदवसरे स एव मिथ्या दृष्टिदेवश्चलत्कोटिकीटाऽऽकीर्णस्यातिदुर्गन्धमयस्य मृतस्य | शुनो रूप विधाय मध्येमार्ग तस्थिवान । तदीयदुर्गन्धियोगाद्गजतुरणादयो विषेकविकलाः पशवोऽपि तन्मार्गेण गन्तुं न
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| शेकुः । पुनर्मनुष्याणान्तु का वातई ? स्थैतत्परूपं विलोकन गुणाशी कणो हस्तिपकमपृच्छत्-कि भो ! कथमने हस्ती न चलति ? यूयमपि वस्त्रेण घ्राणमवरुध्य कर्ष तिष्ठय ? अथ सोऽवदत्-स्वामिन् ! मार्गे मृतो विकृतो दुर्गन्धिमयः श्वा तिष्ठति । तदीयातिदुर्गन्धितः केऽप्यने चलितुं न प्रभवन्ति । तच्छ्रुत्वा स्वयमेव हठागजम्ग्रे समानीय शान्तिके तिष्ठमधोदष्टिः कृष्णोऽवक-भो भो लोकाः ? एतस्य गुणान्कथं न गृहीथ ? सेक्का ऊचुः-स्वामिन् ! वयमेतस्मिन्मेकमपि | गणं न पश्यामा, किन्तु दोषानेव वीक्षामहे । अथ वासुदेवोऽवदतु-अहो ! मोक्तिकश्रेणीव समुज्ज्वला दन्तावली शोमतेऽस्य ।
शुनः । अन्येऽपि विलसन्त्यस्मिन् सद्गुणास्तथापि यूयमेनमगुणं कथं वदथ ? । इन्थं गुणग्राही कृष्णस्तस्य दोषानपश्यन् गुणानेव जग्राह । उचितमेव तदेतादृशां गुणिनां गुणग्राहित्वं । अथ स देवोऽपि प्रत्यक्षीभ्य श्रीकृष्णं प्रणिपत्य संस्तुत्य च सौधर्मेन्द्रसभामागत्य श्रीकृष्णस्य यथावत्गुण प्रशशंस । अत उसमेन पुंसा गुणग्राहिणा माव्यं तथैव गुण्यपि यथा__ रूपसौभाग्यसम्पन्नाः, सत्वादिगुणशोभनाः । ते लोके विरला धीराः, श्रीरामसदृशा नराः ॥ ८॥ 16 इह लोके गम-कृष्णसदृशा रूपसौभाग्यशौर्योदार्याऽऽदिगुणैः शोभमानाः परगुणग्राहिणः सत्यप्रतिज्ञा विरला एव भवन्ति ॥८॥
अथ पुरुषदोषविषये-शार्दूलविक्रीखित-वृत्तम्लंकासामि हरन्ति राम तजि ते सीता भली जानकी, स्त्री वेची हरिचंद पाण्डवनृपे कृष्णा न राखी सकी। रात्रै छाडि निजप्रिया नलनृपे ए दोष मोटा भणी, जोचो उत्तम माहिं दोषगणमा का पात पांजा तणी॥९॥
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लापतिः प्रतिवासुदेवो रावणो रामस्य शीलवती जायां सीतामपाहस्त । तेन दुष्कर्मणा तत्प्राणा राज्यं कुलश्च सकलं प्रगष्टम् । तथा हरिश्चन्द्रो राजा निजमार्यामपि नीचगृहे व्यकीणीत । स्वयमपि पाण्डालस्य जलबाहकोऽभूत् 1 एत्रं जगदेकवीराः पाण्डवा अपि यूते सुशीला पत्नी द्रौपदी हारितवन्तः । तथा त्रिभुवन विजयी सकललोकपालस्तद्वन्धुः कृष्णोऽपि तत्र विपदि पाण्डवाम
रक्षितवान । किञ्च नलराजोऽपि निजप्रेयसी दमयन्तीमेकाकिनी वन मुक्तवान् स्वयमन्यत्र गतवांश्च । भो भो लोका! ईशेष्वपि Cil महापुरुषेषु यदीदृशा दोषा आपेतुस्ताई पामरजनानां का गणना ! ।। ९ ।।
अथ ३-स्त्रीगुणदोष-विषये, जपजाति-नमसुसीख आले प्रियचित्त चाले, जे शील पाले गृहचिंत टाले ।
दानादि जेणे गृहधर्म होई, ते गेहि नित्ये घर लक्ष्मि सोई ॥ १० ॥ या कुलवधूरस्ति सा भर्तुः सदैव सानन्दयति, भार हिते नियोजयति, तथाऽजन्म शुद्ध शीलगुणं परिपालयति, गार्हस्थ्य धर्मश्च सम्घमवति, गृहकृत्ये च तत्परा तिष्ठति, गुरूजनानुपास्ते । ईदृशी गृहिणी यस्य भवति तस्यैव धन्यस्य गृहे लक्ष्मीरपि सुस्थिरा विलसति । चत्वारः पुमर्धा अपि तत्र वर्धन्ते अतः सकलाभिललनाभिरीशीभिरेव भाव्यम् ॥ १० ॥
. अथ स्त्रीदोष-विषयेभर्ता हण्यो जे पतिमारिकायें, नाल्यो नदीमा सुकुमालिकायें । सुदर्शन श्रेष्ठि सुशील राख्यो, ते आल देई अभयाय दाल्यो ॥११॥
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अथ तासामेत्र दोषमाह यथा- काचिच्छुकुमालिकाभिधाना दुष्टा स्त्री सरलस्नेहप्रकृतिकं निजवल्लभमपि जितशत्रुनृपं गङ्गाम्भसि न्यपातयत् एषा कथा विस्तरता गुप्त कीर्तितारित, तयातः श्रेष्ठी स्वशीलगुणपाली सहसैवाभयाख्यया राज्या मुधा कलङ्गितोऽभूत् ॥ ११ ॥
अथ सुदर्शन श्रेष्ठिनमभया राज्ञी कलङ्कयामास, तयोः ६ - कथा -
पुरा किल पाटलीपुरनगरे सुदर्शनाभिघानः श्रेष्ठी निवसति स्म । सोऽतीवसुन्दरः सुशीलश्वासीत्तमेकदामपाख्या राशी विलोक्य तस्मिन् रागवतो जाता । तत एकदा केनापि व्याजेन दास्या स्थान्तिके समानादिवती । तमागतं वक्ष्य मन्दं मन्दं हसन्ती भृशं कटाक्षयन्ती नानाहावभावं प्रकाशयन्ती मदनविलासमभ्यर्थयत । तथाहि - हे नाथ । मामधुना भूसे बाधते मदनस्त्वदीयरूपतारुण्यविलोकनादतो मया सह यथे रमस्त्र । इत्थं तत्प्रार्थनं निशम्य निजशीलरक्षायै स तामवदीत - अयि राज्ञि ! ययोक्तं सत्यमस्ति परं किं कुर्याम् ? पौरुपमेव नास्ति मयि, तदभावान्मदनेऽपि चैतन्यं न जायते । अथैवमाकर्ण्य सा से विससर्ज । ततः कियद्दिनानन्तरं सा राज्ञी गवाक्षे स्थिता पथि तुरङ्गारूढान्देवकुमारानिव गच्छतस्वारुण्यादिगुणशालिनः षट् पुरुषानद्राक्षीत् । तदानीं तत्पार्श्वे प्रधानभार्या कपिलाभिधानादासी च स्थितासीत्, अथ राज्ञी पृष्टवती-अघि वयस्ये ! एते व्रजन्तः कस्य पुत्रा सन्ति ? दास्यचे - स्वामिनि । अमी पट् कुमाराः सुदर्शनश्रेष्ठिनः सन्ति । अथैत्रमाह राज्ञी - भो दासि ! तस्य पौरुषहीनस्य षट्सुताः कथमभ्रुवन् ? कपिला जगाद हे स्वामिनि । स घृतस्तथा कथयित्वा स्वां कामुकीम । पौरुषं विना तस्य |दिकं कथं संभाव्यते ? तदनु सा राज्ञी तदुपरि रुष्टा सती दास्या विचार्य सुधेव सुदर्शनस्य कलङ्कमारोपितवती ।
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तथाहि-तत्प्रेरिता कपिला राजानमेवं व्यजिशपत-हे स्वामिन ! अधान्तापुर मम स्वामिन्या आवासे सहसैव सुदर्शनश्रेष्ठी समागात । ततश्च मम स्वामिन्या अभयाराश्या: शीलं खण्डपितुमियेष । राजन ! महता क्लेशेन मयाधस निष्कासितः । त्वयि शासति साधारणस्यापि गृहमागत्य कोऽपि कदाचिदप्येवं नाचरति । तेन तु तवैव प्रेयस्याः सुशीलाया आलयं प्रविश्येश्यामनार्यमाचरितम् । अतस्तरमै योग्यं दण्डं देहि नो घेन्मम स्वामिनी जीवितमेय त्यक्ष्यति। अतदाकये कोपाग्निज्वलितो नृपस्तस्य । शूलारोपणमादिशत् । ततो नृपादेशातादृशा मटाः सुदर्शनं तत्स्थाने बलादानीय शूलिकायामारोपयामासुः, परन्तु सदसण्डशीलप्रभावतः शासनदेवता तदैव शूलिको बोटयित्वा स्वर्णमयसिंहासनश्चक्रे । अर्थतदभुतमाकये सपौरो राजा तत्रागात्सर्वे ष तमालोक्य विस्मिता जाताः । अथ सुदर्शन गजारूढ़ विधाय नृत्यगीतादिमहोत्सवेन नगरान्तः प्रावेशयन् । नृपस्तामभयां राही भ्रष्टशीला विज्ञाय देशतो निष्कासयामास । अतो वच्मि हे स्त्रियः ! भवत्यस्तथा माभूवन ।। वसंततिलका--वृत्ते-मारचो प्रदेशि सुरिकांत विषावलीयें, राजा यशोधर हण्यो नयनावलाये ।
दु:खी कर यो श्वशुर नूपुरपपिहतायें, दोखी त्रिया इम भणी इण दोषतायें ।।१२।। विषयसुखलोभादेव पुरा काचित्परिकान्ता राक्षी निजभत्तार प्रदेशिराज गरलं प्रदाय जिसि । तथा नयनावल्यपि राज्ञी विषयसुखलोभाऽऽक्रान्ता निजप्राणेश्वरं यशोधरं नृपं गले दृढं पाशं वध्याऽवधीत । काचिदेका नूपुरविदग्धा स्वर्णकारखी स्वकीय- | all दुश्चरित्रमपह्रोतुं पति छत्नायित्वा श्वशुर भृशं दुःखिनमकरोत् । हे स्त्रिय ! ईदृशाऽनार्याचरणेन सर्वाः स्त्रियो दृष्यन्ते । अतो
भवतीमिः सर्वथा दुरावारं तत्याज्यमेव ॥ १२ ॥
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अथ यशोधरपघातुकीनयनावल्याः ७ प्रबन्धः
तथाहि - यशोधर क्षितिपस्य नयनावली राज्ञी केनचित् जारेण विषयासक्ताऽऽसीत् । मर्त्रा सह स्वैरं भोगं भुञ्जानापि तृप्तिमनचिणच्छन्ती निशि कस्यचनाऽश्वपालनायकस्पान्तिकं गत्वा स्वैरं रममाणासीत् । प्रतिरात्रमित्यमाचरन्ती मुखेन कालं व्यस्येति । अथैकस्यां रात्रौ नृपसुतं विदित्वा सा जारान्तिकमागत्य तेन सह रन्त्वा पुनर्नृपान्तिकमागात् । तदन्तरे व कथन वणिक्पुत्रौर्यव्यसमी नैव मार्गेण राजसोधं प्रविश्य नृपपस्थङ्कावस्तस्थौ । अथ जागृतो राजा तामपृच्छत् - अयि राशि ! मधुना कुत्राऽसी ? साक - नाथ ! लघुबाधां नित्रर्तयितुं गता । पुनर्निद्रिते नृपे सा दध्यो- अद्य मे दुश्चरित्रं राजा विदितवान् । इदानीं किमपि नोक्तं प्रगे नूनम सर्व वदिष्यति । अतोऽधुनैव मया तस्प्रतीकारो विधेयः । यथा लोके निर्दोषा भविष्यामि निर्वाध भोगमपि नामुन सह करिष्यामि । इति विचिन्त्य तदेव सा दुष्टा सुप्तं राजानं गलपाशबन्धनेन जघान । मृते च भर्तरि सा तारस्वरेण वार्ड रुरोद हा देव त्वमधुना मामनाथां कथमकथाः १ मया मवान्तरे कि पापमकारि । येनेह जन्मनि दुःखोदधौ पतितास्मि । इत्थं नानाविधं सकरुणं विलपन्तीमुरः शिरश्च ताडयन्तीमा लोक्थ रक्षकाः प्रधानादयश्च तथाऽजग्मुः । किमभूदिति पृष्टे साकूहो ! हा!!हा !!! अकस्मादेव मे प्राणेश्वरो ममार । ततो मन्त्रिप्रमुखाः सर्वे लोका राजानं श्मशान भूमावानीयाऽग्निना । अथैतस्या घोरं पापकस्यं शय्याधःस्थेन चौरेण वणिक्पुत्रेण विलोकितम् । तमपि बहुतरनप्रदानेन संतोष्य, त्वमेतद्वदिष्यसि चेन्मारयिष्यामीति सत्रास शिक्षां दन्या च मुक्तवती । अतो वच्मि हे लोकाः ! सर्वखीषु कदापि विश्वासो नैव कर्त्तव्यः । दादोषसङ्गावाद दुष्टतरा एव भवन्ति ।
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२६ ॥
अय जापल्य शयानाया नूपुरपण्डितायाः ८-कथा
यथा राजगृहनगरे जर्जरनामा स्वर्णकारोऽस्ति । तस्यैकः पुत्रोऽस्ति स पित्रा परिणायितः परमेतस्य पत्नी व्यभिचारिणीशिरोमणिरस्ति । अथैकस्यां रात्रौ भवरं गृहान्तः सुर्स मुक्त्वा स्थलान्तरे दिव्यां शय्यां विधाय जारमाहूय तेन सह रेमे । रावेतदनाचारमालोकमानो जर्जरस्वां जारश्च निद्रितं वीक्ष्य तत्राऽऽगत्य चम्बा नूपुरमादाय पुनः स्वस्थानमेत्य सुष्वाप । नूपुर शय्योपरि न्यस्तवान् अथ जागृता सा घरणे नूपुरमपश्यन्ती व्यचिन्तयत् । यदेतत् धनुरस्यैव कृत्यं नान्यस्य नूनमसौ प्रभाते लोकान् वदिष्यति मे दुश्चरित्रम् । अतो मयाप्येतत्फलं तस्य दर्शनीयमित्यवधार्य जारमुत्थाप्य निजालय मंत्रैषीद, स्वयं भर्तुः पार्श्वमागत्य सुष्वाप । अथ किञ्चिद्विरम्य पतिमुत्थाप्य यत्र शयने जारेण सह पुरा सुप्ताऽऽसीत्रैव शयने समागत्य भर्त्रा सह पुनः शिश्ये, पतिरचिरादेव निदद्रौ । ततः सा सुप्तं तभवगत्य बुम्बा व्यधत्त - यथा हे नाथ ! हुतमुचिष्ठोत्तिष्ठ । पश्यानेन निषेण तव पित्रा लज्जास्थानकेऽप्यत्र समागत्य मदीयं नूपुरमपजड़े । अथ सहसैव समुत्थाय झटिति पितुः पार्श्वभागत्य ताडितुं लनोऽवदन्च - अरे पापिष्ठ ! निर्लज्ज ! रात्र गत्वा पुत्रवधूचरणं स्पृशतस्ते मनागपि लज्जा नाऽप्राता ? धिकू त्वां वि of ! तदा पित्रोक्तं- रे पुत्र ! त्वं तदानीं नासीरन्यः कोऽप्यासीत् । पुनर्जगाद पुत्रः- रे दुर्बुद्धे ! अन्यः कोsपि नाssसीदमेवासम् । इत्थं पितापुत्रयोर्विवादे प्रवर्धमाने बहवो लोकाः समीपस्थास्तत्राऽऽगताः । तत्स्वरूपं ज्ञात्वा सर्वाः स्त्रियः सर्वे पुरुषाच पितरं जर्जरमेव निनिन्दु । अप्रमत्त ara ra जगदुश्च सर्वे । सेन स जर्जरो विचारसागरे ममज्ज । बहो । किं जातं मया तु सर्व सम्बरित्रं प्रत्यक्षीकृतं तथापि सर्वे मदुक्तमसत्यमेव मन्यन्ते निन्द
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न्द्रि च मामेव । इति चिन्वानमन्नो जर्जरो मनागपि न निद्राति, नाभाति, न विवति नैव च सौमनस्यं प्रकाशयति । अथ प्रभाते जाते सा समुत्थाय निजपितरमाकार्य नैशिकं वृसमशेषमवदत् । अथ रुदतीं पुत्रीमाश्वास्य सोऽत्र भोः सम्बन्धिन् ! स्वं वृद्धोऽसि तथापि मे पुत्र मुत्रा किङ्कलङ्कयसि ? अत्रान्तरे सकलजनसमक्षं सायाहीन - एतावता मे सन्तोषो न भविष्यति । यदाह" अतथ्यो वा तथ्यो हरति महिमानं जनस्वः " अतोऽई लोकसमक्षमेतद्विषये दिव्यशुद्धि विधित्सामि । लोका ऊचुः कीदृर्शी शुद्धिचिकीर्षसि ? तयांत देव नगरे वाटिकायां भवानी देवी प्रत्यक्षफलदा वर्तते सा मे सदसत्परीक्षां तत्कालमेव करिष्यति । अथैतद्वचसि सर्वैरङ्गीकृते सर्वेऽप्येवं जगदुः । यदियं निगदति तत्सत्यं चेदियं देवीचरणाधः प्रविश्य बहिरेष्यति । अन्यथा मध्ये मर्दिता तत्रैव प्राणान् हास्यति इत्युदीर्य सर्वे लोका देव्यन्ति चेलुः । इतश्चेतसि नूपुरपण्डिता दध्यो- अहो ! सर्वेषां सन्निधौ यदि देवी पादतले मर्दिता स्पां तर्हि महती मेडन कीर्तिरुदेष्यति । अतः प्रागेव स्त्रीचरित्रं विधेयमिति ध्याखा तं जारपुरु मेवमववदत्-हे प्राणेश्वर ! अहमद्य लोकैः सह दिव्यं विधातुं देव्यन्तिके यानि सदा मार्गे प्रमत्तरूपं कुर्वता त्वयाऽहं कण्ठग्रामालिङ्गनीवावश्यमेव । अथ लोक ग्रह तत्र चलिता तेन जारेण तथैच मार्गे तत्कण्ठे लग्नम्, तत्रावसरे लोके: क्लात्सा मोचिता । aar देवीसमीपमागतां जनतां श्रात्रयन्त्रित्थमवादीत - हे मातः ! स्वमनीषां समक्षं तथ्यप्रकार्श कुरु । यद्य सत्यशीलाऽस्मि मार्गे च प्रमत्तसा तथा भर्त्रा विना केनाप्यालिङ्गिता मुक्ता वा स्यां तर्हि मां निजचरणतलपत पीलय विपरीते च मोचय । येनाहं कामुकेन रेण मुधा कलङ्किता यथा शुद्धा भत्रेयमित्येतेषां पुरतस्तवा कुछ | अत्रावसरे पुरा जनैर्वारिताऽपि जस्विनी भो भो लोका! यूयं मदुक्तं शृणुत- पुरापि सीताद्याः शीलवत्यः खिप ईशे लोकापवादे लमेने त्रिदिव्यमपत | अजोऽहमपि
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भक्ता समक्ष देवीचरणाधः प्रविशामि।यदि मे शील सत्यमेव शील भ्रष्ट वा तर्हि प्रत्यश्चफलं देयं देवी मास्वपादतले निपीलयिष्यति । यद्ये
तेन दिव्येन निदोषा स्या तर्हि श्वशुरो मे सबैरेव दण्डनीयः । अथ धूर्ता सा तथोश्चार्य देवीपादतलमागत्य सुखेन बहिर्दय तस्यौ। Ra] तसो लोका जर्जर विकृर्वन्तस्ता प्रशशंसुः । यथा-अहो ! धन्येयं शीलशालिन्यस्ति यया मिथ्यापादेशीदृशं दिव्यमकरोत् । सांस्तुवPM न्तः सर्वे लोकाः स्वस्थानमापुस्तस्या अपि लोके कीति: प्रससार । इतश्च तहःखेन जर्जरस्य स्वोऽपि निद्रा वैरिणी जाता। कियत्काला| नन्तरमसौ जर्जरो दिनानिर्श जागत्यैव, वदापि न शेते। इति निशम्य श्रेणिको नृपेन्द्रस्तं निजकोषागारे रक्षकत्वेन नियुक्तवान् । अथ स कोषालये दिवानिशं सर्वतः परिभ्राम्यन् रक्षन्नासीत् । अर्थकरयां रात्रौ कस्याश्चिद्राजपत्न्या दुश्चरित्रं न वीक्षितम् । सदालोक्य तदैव स बुबुधे, चिन्तामपि तत्याज । अहो ! कामस्प बलीयस्त्वं यददिता विश्वभर्तः सार्वभौमस्य महाप्रतापिनोऽतिबलवतोऽपि भार्या नीचजारमासेवते । तहि माशां गृहे खीजातीनां का गणना? अथ त्यत्तचिन्तस्य जर्जरस्य तदेव वसा प्सादयः समुत्पेदिरे । मासादलब्धनिद्रो जर्जरस्तथा सुचाप यथा मोक्षार्थी परब्रह्मणि सलीनो भवति । तदङ्गे कुत्रापि प्राणानां सञ्चारणं नाऽऽसीत् । यथा प्रारब्धमासिकपाण्मासिकादिवतावसाने लोको यथेष्टं भोजनशयनादिकृत्यं विधत्ते। तथैव सोऽपि वृद्धः पश्यतोहरः पुत्रवध्वा दुष्टां पश्यन् विहितपाण्मासिकजागरणरूपाभिग्रहो राजदाराकुचेष्टितं विलोक्य तदभिग्रहसमाप्ताविवातो गतचिन्तो निदद्गौ। ततो निशान्ते नगरचर्चा वीक्ष्य परावर्तमानो राजा तं जर्जरं कोष्ठागारे मृतमिव प्रसुप्त व्यलोकत । अथ प्रभाते प्रधानमपृच्छत्
भोः प्रधान ! जर्जर: कदापि न शेते, इत्युक्तं पुरा भवतिः, परमह निश्चित मृतप्रायमिव मु दृष्टवान् । किङ्कारणं यत्सोध्येतार वत्काल नोस्थितवान सुप्त एवाऽस्ति । अथ सप्रधानो राजा तत्रागत्य तथैव सुप्तं तमालोकत, ततो नृपादिष्टो मंत्री जागृतिकते
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समुश्रवदतु-भो जर्जर ! मध्याहवेलाऽगता, सथापि तव निद्रावसानो नाऽभूत कोऽत्र हेतुः १ एतावतोपायेन स यदा नोसस्यो, तदा तत्कर्णान्तिके भृशं घिरं मृदङ्गाद्यवादयत, इत्थं महता काप्टेन स समुस्थितवान् । तत्र समये तमपृच्छत-हे जर्जर ! तव पण्मासादेकदापि नागता निद्रा परमद्य कि जातं सदीदशी तगयाटाइटिसा प्रष्टः सोयन-तत्कारणं वक्तं न शक्नोमि. , तत्तु सर्वथावाच्यमस्ति । अथ सत्रासं मुहुर्मुहुस्तेन पृष्टः सोऽवादीत-यथावधत्कारणं कथयामि तत्सावधानेन श्रयताम्-अद्य मध्यरात्रे राज्ञी गवाक्षस्थितां इस्तिएका करिशुण्डादण्डेन गजस्कन्धे समानिन्ये । ततो गजशालामागत्य चिरमनङ्गलीला | विधाय पुनस्तथैव तां तत्र गवाक्षे समानीय मुमोच । स्वामिन् ! भवादशां दाराणामीदृशमनाचारमालोक्य निजपुत्रवध्वा जारसेवादर्शनान्महती पण्मासतो या चिन्ता ममाऽऽसीत्सा तु तदैव माममुश्चत् । अतो ममेदृशी निद्रा समागता अथैतदाकये तत्कालमेव सेवकान् समादिशद्राजा-मोः सेक्का! अद्यैव भवन्तस्तां राहीं तं हस्तिपक
तं दन्तिनञ्च नगरे प्रतिमार्ग पटई वादयन्तो वैभारगिरि नयत, सेवकरतथाकृते । पुरलोका राजानमेवमभ्यर्थितवन्तःमी हे नाथ ! अत्र दन्तिनः को दोपः ! असौ सर्वथा निदोपः, अस्येदृशो दण्डः क्षम्यताम् । अथ सर्वेषामाग्रहेण दोष *क्षान्त्वा तं परावर्तयितुं तत्र कमपि जनमप्रेषीत् । अथ स तत्रागत्य करिणं परावर्तयितुं नृपादेशमयदत् । तत्र समये गजपेनोक्तम्K यदि नृप आवयोरप्यभयदान ददीत तर्हि दन्तिनमप्येनमधः परावर्तयेयमिति तज्जनमुखात्तद्धस्तिपप्रार्थनां श्रुत्वा राजा तयोर
ध्यभयदानमदात् । अथ त्रयोऽपि ततो गिरिशिखरादधः परावर्तन्त । सतो नृपादेशात्करिणं तत्स्थान आस्ताने बबन्ध । परममोच्यौ तो स्वदेशानिष्कासितवान् ।
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अथ निष्कासितौ मार्गे चलन्तौ कुत्रचिन्मदिरे निशि तस्थतुः। तत्र हस्तिपको निद्रितो जातो निशायर्या तत्र चौराः समाजग्मुः । अथ || प्रतिमागे धूपं ददतं रूपेणातिसुन्दरं चौरनायकं विलोक्य तदनुरागिणीभ्य राजी तमेवमादीत-हे मच्चिसमोहन ! मां हित्वा मागा। अहमपि त्वया सहैष्यामि चौरोऽवदत्-हे सुन्दरि ! येन सह वमत्राऽगाः, स यद्युत्थास्यति तदा किं स्यादाययोरत्र प्राणभीतिपतिष्यति । सा दध्यौ असो तस्करः सधनः प्रतायत,
हास्ता
नवरत निर्धतः । किमनेनेति विमृश्य चौराधीशेन तमजीपनत्स | मृत्वा व्यास भवन ब रसानाशीलत्र दुष्टी ज्ञात्वाचौराधीशोदध्यो-इयमसती क्तेते । या हि साधेमागतं स्वप
स मती वर्तते । या हि सार्धमागतं स्वपात । ४|| जारं वा घातितवती को जाने ने ममापि किकरिष्यति ? अत एषा त्याज्येति विमृश्य तामुवाच-दे प्रिये ! एपाऽगाधजला नदी
वर्तते । अतस्तवाङ्गे यानि यान्याभरणादीनि सन्ति तानि सर्वाण्यकत्र बस्त्रखण्डे अन्थि बच्चा मह्यं देहि । तत्तीवा परतीरे पूर्व | नयामि पश्चादागत्य वामप्युत्तारयिष्यामि । अथ मुग्धा हतमाया सा निजवस्त्राभरणादीनां अन्यि बधा तस्मा अदात । सोऽपि तदीयं सर्व लाया नी तीवग्रेि चचाल । तन्मार्ग प्रतीक्षमाणा किर्तव्यतामूढा सती सा तत्रैव तस्थौ। तत्रावसरे |
व्यन्तरीभूतो हस्तिपकजीवः शृगालमीनी विकृतवान् । पुनर्यावरस श्रृगालो मीनमशितुमैच्छत तावत्तत्र तेनैव व्यन्तरेण विकतः | कश्चिद् गृध्रपक्षी व्योम्नः समेत्य मीनमादाय गमनमगात् । शृगालो विच्छायवदनः पश्यन्नेव तस्थौ। अस्मिन्नवसरे तद्विलोकमाना K|| राज्ञी तमुपहस्त्र जमाद । अरे निर्बुद्धे ! गृधोऽपि स्वामवश्चत्तच्छ्रुत्वा शृगालस्तामवदत-भो राज्ञि ! ममैकमेव गतं त्वं तु
त्रिभिर्वश्चितासि । तदपश्यन्ती मां किं दूपपसि चोपहससि ? तदा राश्यूचे हे शृगाल! २ तिर्यग्भूला कथमेतत्सि ! सत्रावसरे मार्गे जातं सर्व वृत्तान्तं स तामवोचत । ततः सा रानी प्रतिबुद्धा विषयवासनां तत्याज, तेन चिरं सा सुखमन्वभूत् ।
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मो लोकाः ! पश्पत इत्थमन्या अपि या स्त्रियो विषयवाधनां दुर्गतिप्रदां मत्वा त्यक्ष्यन्ति, ता अपिराजीव सुखिन्यो भविष्यन्ति प्रान्ते च सद्गतिमाप्स्यन्ति । पुनर्याः खियो दुश्चरित्रमाचरिष्यन्ति ता नूपुरपण्डितेवोभयलोके दुःखिन्यो भविष्यन्ति चान्ते दुर्गतिमाप्स्यन्ति ।
___ अथ सुलक्षणस्त्रीणां गुणानाह-शार्दूलविक्रीडित-वृत्तेरूडी रूपवती सुशील सुगुणी लावण्य अंगे लसे, लजालू प्रियवादिनी प्रियतणे चित्ते सदा जे वसे । लीला यौवन उल्लसे उरवसी जाणे नृलोके वसी, एवी पुण्य तणे पसाय लहिये रामा रमा सारसी ॥ १३ ॥
या स्त्री कुलीना भवति सा हि सर्वाङ्गानवद्या लज्जावती रूपवती शीलवती सदगगवती लावण्यलीलावती, मिष्टातिसToll त्यभाषिणी, भर्तृ चित्तानुवर्तिनी देवीव सदा सुस्थिरयौवना लक्ष्मीरिव महापुण्यवना प्राप्यते ।। १३ ॥
अथ कियतीनामुत्तमलक्षणवतीनां कामिनीनां नामानि-दर्यन्ते उपजाति-वृत्ते
सीता सुभद्रा नलराय-राणी, जे द्रौपदी शीलवता वखाणी ।
जे एहवी शीलगुणे सराणी, सुलक्षणा ते जगमाहि जाणी ॥ १४ ॥ पुरा श्रीरामचन्द्रस्प पत्नी सीताऽभूत् । यामपहत्य दशकन्धरः स्वगृहे षण्मामानस्थापयत् । तथापि नानाले सहमानापि निज शीलं न सत्याज । पुनलोंकसमक्षं ज्वलत्खदिरागारमयामिकण्डे पतिस्वाक्षताङ्गथेव शीलप्रभावाखलादिव पहिराययो। लोकापवादमपाजडू । यथा का सीतासुभद्रादमयन्त्यादयः प्रातःस्मरणीयतमाः कीर्तिमत्यः पुरात्र महासत्योऽभवन् । या सुभद्रा
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नलनुपण
चामतन्तुभिश्चालनी बध्वा कूपाजलमाजहे । पुनस्तेन वारिणा चम्पापुर्याद्वारमुद्घाट्य निजसतीत्वमहिमानं दर्शितवती । एवमरण्ये | नलनृपेण पत्या त्यक्ता महाकष्ट सहमाना शीलमखण्डितं दधार सतीशिरोमणिर्दमयन्ती । एवं पाण्डवानां पत्नी द्रौपदी सदसि ४ा दुःशासनाकृष्टवसना शीलप्रमावादेव निजोत्तरीयवासोऽवर्षयत । एतादृश्यो या या ललना अत्राप्रभूवन तारता उसमा सुलक्षणाः प्रशस्तयशस्काः प्रातःस्मरणीयाः सकलवाछितफलदाय आसन् ॥ १४ ॥
शीलप्रभावान्महाग्निकुण्डोऽपि जलवदतिशीतलमभूत्तदुपरि सीतायाः ९-कथायथा-पुरा रामपनी सीता रावणोहत्या लक्कामनैपीत्तत्र षण्मासी यावत्सा तस्थौ। ततो युद्ध रावण हत्वा सीतामयोध्यामनयत् ।। तामन्तःपुरे तिष्ठन्तीमकदा काचिदेका सपत्नी पर्यपृच्छद्यथा-हे सखि ! रावणः कीदृशोऽस्तीति मां कथय । तदीयं रूपं झातुं | कौतुकं महन्मे वर्तते । सीताञ्चदत-हे भगिनि ! मया कदापि तन्मुखं नाऽऽलोकि तत्कथं तद्रूपं वर्णयामि ? केवलं तस्य चरणावेव वीक्षितौ । तच्छ्रुत्वा सा तदैव पट्टिका रम्यां लेखनसामग्रीच सर्वामानीय सीताने न्यस्तवती । जगाद च हं सखि ! अस्यां पट्टिकायां तस्य चरणाषेच लिखित्वा दर्शय | सरलधीः सा सीता तस्यां रावणाऽची विलिख्य सपत्न्यै तस्यै ददौ । मा
क्रूराशया सपली ता पट्टिकामादाय तत्र च पुष्पादिकं दवा रामचन्द्रमदर्शयज्जगाद च हे नाथ ! स्वं सदैव सीता सती २ कथदा यसि तद्गुणान् प्रशंससि । सा तु प्रत्यहमित्वं तच्चरणौ विलिख्य पुष्पादिना पूजयति । अथ तस्याः कथनेन रावणचरणदर्शनेन
च रामस्य मनसि शङ्का जाता । पुनरेकस्यां रागो रामो रूपान्तरेण नगरान्तर्नवनवचर्चा बुभुत्सुः प्रतिप्रतोलि गच्छन् सर्वेषामालाएं
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शृण्वन्कस्यामेकस्यां तैलिकप्रतो ल्यामागत्य तस्थौ । तावचत्र काचित्तं लिक्खी कस्मैचित्कार्याय दिनान्तसमये बहिर्जमाम । तस्पा बहुविलम्बताऽनागतां वीक्ष्य तत्पतिः कुपितो द्वास्थकपाटे कीलकं दस्खा गृहान्तरविष्टत् । तावत्तत्पत्नी तत्रागत्य कपार्ट सार्गल वीक्ष्य जगाद - हे स्वामिन् 1 कपाटसुद्घाटय, द्वारि कपाटः सार्गलः कथं कृतः १ पतिरूचे - त्वमेतावत्कालं कुत्रासस्तद्वद् | ant विलम्बितं कुतः १ त्वमेवं युध्यसे, सत्यपि स्वेच्छाचारे मर्ता मे किङ्करिष्यतीति । परमहं रामचन्द्र इव विचारविकलो नास्मि । यो शमः सीतां पण्मासपर्यन्तं रावणालये स्थितामध्यानीय जग्राह अहं तादृशो नास्मि, यत्कामचारामपि त्वां ग्रहीष्यामि । तत्रैव तिष्ठ, प्रभाते तनिश्रयं कृत्वाऽन्तः प्रवेश दास्यामि । तस्येदृशं वचनं श्रुतवान् रामस्ततो गृहमागतवान् । अथ सीतायाः शीलपरीक्षायै लोकापवादनिरासाय रामचन्द्रः शतत्रयगजाऽऽयतनिम्नं महागर्त निर्माय तच ज्वलत्खदिराङ्गारैर्निभृतवान् । पुनः सर्वान् पौरांस्तत्राहूय सीतामवादीत् सोते ! यदि व शीलमखण्डित बिभषि तर्हि त्वमघुना लोकसमक्षम स्मिमग्निकुण्डे प्रविश, यथा ते कलङ्कोsपेतो भविष्यति । तच्छ्रुत्वा लवकुशाभ्यां पुत्राभ्यां सह सीता तत्राऽऽमत्य तस्थौ । चतुर्दिक्षु दिव्यं दिहवो लोकाः सबालाः सत्रियश्च समेत्य तस्थुः । देवा अपि विमानारूढा व्योनि समाजग्मुः । अत्रावसरे सीता पपाठ यथामनसि वचसि काये जागरे स्वप्न के वा, मम यदि पतिभावा राघवादन्यपुंसि ।
तदिह दह शरीरं मामकं पावक । स्वं सुकृतकुकृतभाजां त्वं हि लोकेन साक्षी ॥ १ ॥ tararaad सीता तत्राभिकुण्डे पपात, परमेतच्छीलमाहात्म्यतस्तदैव ज्वलअग्निकुण्डः साक्षात् शीतलवारकुण्डोऽमत्रत् । सरस इव ततोऽमिकुण्डादक्षताङ्गी निरगात् । तदानीं तदुपरि सुरनरगणाः कुसुमानि वपुः सर्वे जयजयारावञ्चकुः ।
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इत्थं लोकापवादमपगम्य संमारविरक्ता सती सीता चारित्रग्रहणोत्सुकाऽभूत, परं रामेण बहुधा निवारिताऽपि तस्मै सुतौ समl जयभूषणसाधुपाचे चारित्रं गृहीत्वा सुप्रमासाध्वीसकाटके निवसति स्म । समाधिना संयममाराध्य द्वादशे देवलोके द्वाविं
शतिसागरोपमायुष्कोऽच्युतेन्द्रो जज्ञे । ततश्युत्वा महाविदेहक्षेत्रे मानुष्यमवाप्य चारित्रम्परिपाल्य मोक्षं यास्यति । ईदृश्युसमा खी | पुण्यवतैव लभ्यते ॥
__ अथ ४-संयोगवियोगविषय-मालिनी वृत्तम्प्रिय सखि ! प्रिय योगे उल्लसे नेत्र रंगे, हसित मुख शशी ज्यूं सर्व रोमाञ्च अङ्गे।।
कुच इक मुज्ञ वैरी नम्रता जे न राखे, प्रिय मिलन समे जे अंतरो तेह दाखे ।। १५ ।।
या कामिनी कान्तविलोकनेन नयनयुगलं सानन्दमुल्लास्यति । यस्याश्चेषत्स्मरं मुखं शारदशर्वरीश इव शोभते। या च कान्तति प्रेक्षणवशात्पुलकं वहते, सा कामिनी सी ब्रूने यथा-अयि पखि ! नूनमिमी मामको कुचौं वैरिणौ भवतः । यतः प्रियालिङ्गन समये रत्यौ नम्रतां न कदाचिद् दधाते । भर्तुरङ्ग संयोगसमयेऽपि च व्यवधायको भवतः ॥ १५ ॥
अथ वियोगिनीलक्षणमाददिन चरस समाणे रेणि कल्पान्त जाणे, हिमकर कदली जे तेह जाला प्रमाणे । रसिककर शशी जे सूर स्यो सोह लागे, प्रिय-विरह प्रियाने दुःख स्थो तेन जागे ॥ १६ ॥
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प्रतिदिनं पत्सरकल्पं मन्यते । यामिनी तु वियोगिनीनां कल्पायते । हिमकरकरः कदलीवन तापायते । अहो ! विरहिणीं कामिनी किमपि सुखं न जनयति, सर्व दुःखायते । यदाह
" तव कुसुमशरत्वं शीतर रिमत्वमिन्दो - ईयमिदमयथार्थ दृश्यते मद्विधेषु । विसृजति हिमगमैरग्निमिन्दुर्मयूरवैस्त्वमपि कुसुमवाणान् वज्रसारीकरोषि ॥ २ ॥ " अथ ५ - मातृकर्तव्य-विषये, इन्द्रवज्रा-वृत्तम्
जे मातनी वो कदा न लोपे, ते विश्वमां सूरज जेम ओपे ।
ज्यां धर्मचर्या बहुधा परीखी, त्यां मात पूजा सहुमां सरीखी ।। १७ ।। यथा— उत्तमा नरा जनन्या वचनं कदापि नोलयन्ति, सदैव तदादेशे तिष्ठन्ति । वाच्याः पुमांस इहलोके सूर्य इव भासन्ते । सर्वत्र तेषां महती कीर्तिः प्रसरति । सर्वत्र धर्मवेत्तारो मातृपूजां सर्वतः श्रेयसी माहुः ॥ १७ ॥
किश्च - जे मात मोहे जिन एम कीधो, गर्भे वसंतां शुभ नेम लीधो ।
जे मात भद्रा वयणे प्रबुडो, शिल्ला-तपन्ते अरइन्न सिद्धो ॥ १८ ॥
गर्भे निक्सन जिनवरो बीरो मातुः स्नेहक्शादेवं नियममङ्गी चक्रे यदेतयोर्मातापित्रोजींव तोर्मया चारित्रमनादेयम् । तथा-मद्राया गृहीत संमोहनामा पुत्रोऽपि मातुरादेशेनाऽतिसंतप्त चिलोपरि झनशनमकरोत् । ततस्समाधिना मृत्वा मोक्षमाप ॥ १८ ॥
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२॥
अथ निर्मोहकृताऽनशनस्य मोक्षमधिगतस्याऽरहनकमुनेः १०-कथातगरपुरीनगर्यो दत्ताभिधानः श्रेष्ठी वर्तते । तस्य मार्या भद्राभिधाना पारहनकाभिधस्तत्पुत्रोऽस्ति । अथैकदा गुरुमुखाद्देशनामाकर्ण्य सपुत्रः सभायों दसश्रेष्ठी संसारमसारमवबुध्य दीक्षा ललौ । तावुभौ यथावत्संयमाराधनपरावास्ताम् । परमसौ दससाधुः पुत्रोपरि घनिष्ठस्नेहक्शात्पुत्र न कष्टयते । आहारजलादिकृत्यमपि स्वयमेव करोति स्म । इत्थं पुत्रं सुखयन संयम पालयंश्वायुःक्षये दत्तमुनिदेह त्यक्त्वा परलोकमगच्छत् । ततस्तस्यारहमकमुनेः शीतातपे जलाहाराद्यर्थ प्रामान्तर्गमनादिनाऽतिक्लेश ! उदपद्यत । या च माता भद्रा साध्वी तदानीतमाहारपेयादिकं तस्य साधोरकल्प्यमेवाऽस्ति । अतः सोऽहम्मको मुनिरधिकं क्लेशमन्वभूत ____ अथैकदा साघवः स्वस्वपानानि समादाय गोधरीको गालवेलुः । सत्प्रेरितोरहनकोऽपि पात्राणि लात्वा तत्पृष्ठानुगोऽभवत्, परं निदाघतापाधिक्यासेऽग्रे चेलुः । अतो गन्तुमनहः पथि कुत्रचिन्मन्दिराधश्च्छायायामतिष्ठत् । तत्र स्थितं तं काचिचिरविरहिणी तरुणी निजगवाक्षस्था निरीक्ष्य सद्रूपेण मोहिता दासीमादिशत-हे क्यस्ये : स्वं याह्येनं मुनिमत्रानय । अथ दासी तत्रागत्य तं मुनि तदन्तिकमनयत । अथागतमसिसुन्दरं तरुणमरहन्नकमुनि साऽवोचत-मुनिसुन्दर ! त्यमेनं तारुण्यमनेन घेषेण मुधा किङ्गमयसि ? स्वमत्रैव सुखेन तिष्ठ, मया सह स्वैर स्मस्व । तदुक्तिमङ्गीकृत्य तत्रैव तिष्ठन् स तया सह विषयसुखं स्वैरं भुङ्क्त।
इतश्च गोचरीमादाय समागतेषु साधुषु भद्रा साध्वी पुत्रमपश्यन्ती तानपृच्छत्-भो मुनयः ! मम पुत्रः क मतः । तैरुक्तमस्माकं पृष्ठे स आसीत्परं कुत्र गतबानिति न विद्यः । इत्याकर्ण्य तदैव विक्षिप्ता सती अरहनक ! अरहनक ! इत्यालपन्ती नगरान्तरितस्तितो बभ्रामाञ्चकार, तां तथावस्थामालोक्य कियन्तो लोका यालकाश्च कौतुकात्ता परिवत्रुः । अपैकदा वालपरिपृता सा विक्षिप्ता
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निजजननी तेन वङ्गवाक्षनीचैर्दृष्टा । तामालोक्य स मनसि दध्यौ - नूनमियं मद्वियोगादीदृशीमवस्थां गतास्ति । अहो ! किं कृतं मया १ धिग्मामीदृशं कुपुत्रं जननीक्लेशकारिणमिति विमृश्य तत्कालमेवाध उत्तीर्य मातुश्चरणयोरपवत् । पुत्रदर्शनात्साऽपि स्वस्थाऽभवत् । अथ माता पुत्रमवदत् - पुत्र ! सव सर्वेष्टदं चारित्रचिन्तामणिमधिगतस्य स्त्रीसेवनं न घटते । विषयी जीवः सदैवाऽत्र परत्र चापकीर्तितां महर्ती यातनां सहते, लोके च सर्वत्र गर्हितो भवति । असो दुर्गतिप्रद्मेनं विषयसुखं त्यज, संयमं च परिपालय । अथैतनिशम्य पुत्रोऽचक्र हे मातः ! अहमीदृकपरीपहान सोढुं नैव शक्नोमि । किन्तु तवानुमतिभेदस्यां शिलायामनशनं कुर्यो मात्रा तदनुमोदितम । तदैवातितप्स शिलोपरि निरशनमकरोदरह नकः । ततोऽचिरादेव शुमध्यानेन मृत्वा देवत्वं प्रपेदे । अतो वच्मि धन्य ईदृशः पुत्रो यो हि जननी क्लेश मसहमान: स्वयमनशनमकरोत् । मातापीदृशी धन्या प्रशस्या या हि नरकापुत्रमुक्ती, अतो हे लोका ! मातृस्नेहः कीदृश इति पश्यत । या अकृत्याचरणान्नारकी यातनामनुभविष्यन्तं सुस्नेहिनं पुत्रं न्यायमार्गे समानीय सुखिनमकरोत् ॥
जे बालभावे सुतने
अथ ६ - पितृवात्सल्य-विषयेरमाडे, विद्या भणावे सरसुं जिमाड़े |
ते सासनी प्रत्युपकार एही, जे तेहनी भक्ति हिये हे ही ॥ १९ ॥
यो हि शैशवे भृशं रमयति, मिष्टामादिकं नानाविधं भोजनं भोजयति स पिता शश्वद् भक्तिकरणेन प्रत्युपकरणीयः । पितुः सेवारतस्य लोके सर्वत्र सुकीर्तिः प्रसरति ॥ १९ ॥
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मालिनी-वृते निषध सगर-राया जे हरीभद्र चन्द्रा, तिम दशरथ राया जे प्रसन्ना मुनीन्द्रा ! मनक जगधना मोह धारया, स्वसुत-हित करीने तेहना काज सास्था ॥ २० ॥ अहो ! निषधस्य नृपेन्द्रस्य, तथा सगरचक्रवर्तिनो हरिभद्रमूरि- हरिश्चन्द्रनृपयोदशरथस्य, प्रसमचन्द्रराजर्षिप्रमुखादेव स्वस्वपुत्रोपरि महान् स्नेह आसीत् । चैवं मनकजनकस्य शय्यंभव मूरेर्द्विजकुलभूषणस्याऽसीमः पुत्रप्रेमासीत् । अतोऽमी सर्वे पुरुषोत्तमाः पुत्रमोहवशंगताः पुत्राणां यदिष्टं तदेव चक्रुः ॥ २० ॥
अथ सगरचक्रवर्तिनः षष्टिसहस्रतत्पुत्राणाश्च ११ -कथा
इह हि सगरचक्रवर्तिनः षष्टिसहस्रपुत्रा अभूवन् तेष्टापदतीर्थस्य रक्षार्थमभितः परिखाकारं गर्त कर्तुं प्रावर्तन्त । तदालोक्य ज्वलनप्रभनामा नागदेवस्तानवादीत् - मोः सागरा ! यूथमत्र महागर्त खनथ तेनाऽस्मद्भुवने रजांसि पतन्ति, अत एतत्कर्मणो विरमध्वम् । तदानीं तत्कथनान्ते तत्कत्वं ते तत्यजुः । अथ कियत्कालानन्तरं पुनस्ते दध्यु: - वास्माभिर्महता परिश्रमेण परिखा खनिया साध्यधुना जलं विना विनंक्ष्यतीति सा जलैराशु परिपूरणीया । यथा कोऽप्यस्य तीर्थराजस्पाशातनां न कुर्यात् इत्यवधा तैमतिका निजदण्डयोगतः सार्धद्वापष्टियोजनानि यावत्तत्र स्वकृतमहागर्ते गङ्गाप्रवाहमानिन्यिरे । तेन वै कियन्तो नगरा देशाश्व जलनिमग्ना अभूवन् । अथ गंगाम्भसा भृतां तावर्ती परिखामालोक्य तेन वारिणा त्रुडितप्रायं निजभुवनश्वोद्वीक्ष्य सञ्जातकोपः स नागदेषो निजमनस्यवदत्-अहो ! मया पुरा वारिता अप्यमी न न्यवर्तन्त । समीहितश्च साधितमेव, अत एवान्
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भस्मसाद्विधाय सुखी स्यामिशि निश्चित्य सत्रागत्य तानालोक्य विषाग्नियोगादेकदेव तान् सर्वान् भस्मसादकरोत् । मथ मस्मीभूतेषु सकलेषु कुमारेषु तत्सार्धमागता द्वात्रिंशत्सहस्रनृपेन्द्राः प्रधानादयश्च दध्यु:-अधुना किर्त्तव्यम् ? कुमाररक्षार्थ क्यं सर्वे राज्ञा | ग्रेषितास्तांश्च नागदेवो ममाचक्रे । संसद्रामाने निषिध्यामस्तहि कथयिष्यति स यन्मृतेष्वस्मत्पुत्रेषु भवन्तो जीवन्तः कथम| वागताः ? अतोऽस्मामिपान्तिक न गन्तव्यमिति निश्चित्य ससैन्यास्ते ततो निर्गत्य ग्रामस्तो बहिरेव कुत्रापि तस्थुः । अत्रान्तरे 12
चक्रिप्रवोधाय सौधर्मेन्द्रो ब्राह्मणरूपं कृत्वा मृतं पालक स्कन्धे निधाय नगरान्तश्चतुष्पथे तिष्ठन् भृशं रुदन्नतिव्यलपत-हा देव ! ममैक एव पुत्र आसीत् सोऽपि सर्पदष्टो ममार । किङ्करोमिक गच्छामि कथं पा जीवेयम् । इत्थं विलपन स लोकैर्भणितः-मो द्विज ! कदा कुछ कथं वाहिना दष्टो मृतश्च ते शिशुः ? विजोऽवकू-भो मो लोका ! भवन्तस्तदुपायं जानन्ति चेनहिं वदन्तु अन्यदिदानीं मुधा 18 किंपृच्छन्ति ? लोका ऊचुमों विप्र ! शोकं माकार्षीः, राजसमं ब्रज । तत्र राजकीयाः षष्टिसहसमहाभिषवरास्तिष्ठन्ति । तेऽवश्यमेने जीवयिष्यन्ति ।
अथ राजद्वारि समेत्य स भृशं विलपन रुदस्तस्थौ । अथ नृपावतः स समामागत्य सर्व राजानं समाख्यत् । वदा चक्रायुः | पाच-भो षेधाः ! यूयं कमप्युपायं कुरुत यथेष मृतो चाखको द्रुतं जीवेत, तच्छत्वा सर्वे वैद्याश्चिन्तोदयो बुडिताः। यद्वयं मृतं केनोपायेन जीषयामः । पुनस्ते चिर विमृश्य नृपाय जगदुः-मो राजन् ! यस्य गृहे कदापि कोऽपि न मृतो भवेत्तद्गृहचुलिकामस्म | बागच्छेत् सहि मुवोऽस्य विप्रस शिशुः पुनर्जीवेत् । अथ नृपादेशाबरलो लोकाः प्रतिगृहं गत्वा ताशं भस्म मार्गयामासुः परं शापि सम सेमिरे । ततो राजा स्वपमेव मातुः पार्थमागत्य तयाचत, पर माता जगाद-हे पुत्र ! तब पिवैव मृगोऽस्ति, रामापि तदुक्तं
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साधु मेने । पुनश्चक्रवर्ती समामागत्य तदीयशोकापनोदाय द्विजमेवमुवाच-हे द्विज ! संसारचक्रे समागतो जीवः सर्वोऽपि नियत एव । यदेतजमदनित्य गीयते भावी केनाऽपि रोढुं न शक्यते, अतः शोकं त्यज, अस्य चोत्तरक्रियां विधेहि । तच्छ्रुत्वा द्विजो | जगाद-'परोपदेशे पाण्डित्य, सर्वेषां सुकर रहणाम इत्यस्योहार माग गदुदीरिने द्याऽपि परिपाल्चमेव । भवतामपि | षष्टिसहस्रपुत्रा नागदेवेन भस्मसात्कृताः । अथैतषातोपमगिरमाकर्णयन्नेव नृपेन्द्रो मृ मापन्नो विचेतनो भूमी पपात । तदनु
कृतनानाविधशीतलोपचारेण लब्धचैतनो भृशं शोचन विलपंश्च चक्रवर्ती प्रकटितस्त्ररूपेणेन्द्रेण गतशीको विदधे । ततः स्वलोकमा| गात् । ततः सगरचक्रवर्दी निजपौत्राय भगीरथाय सेनाऽऽधिपत्यमदादिति पुत्रमोहाधिकारो दर्शितः ।
___ अथ शय्यंभवमूरितस्पुत्रमनकयोः १२-कथा-- यह पुरा श्रीवीरप्रभोः पद्धे श्रीसुधर्मस्वामी स्थापितस्तत्पट्टे श्रीजम्बूस्वामी, तत्पट्टालङ्कारी श्रीप्रभवस्त्वाम्यभूत् । स हि |
प्रान्ते निजपवालङ्कारियोग्य कमपि यदा जिनशासने नाऽपश्यत्तदा लब्धिप्रयोगेण शय्यमवनामानं द्विजवरं यज्ञं विद्धतं सूरियोग्यतम मत्वा । 18| तत्प्रतिबोधाय द्वौ मुनी तत्पार्श्वे प्राहिणोत् । तो तत्र गत्वा जगदतुः--"अहो ! फष्ट महाकष्टं तच्चं न ज्ञायते स्वया" तयोरेतद्वचो
निशम्य शय्यभवोऽपृच्छत् मो मुनी ! युवाभ्यां किमुच्यते ? तावचतुः । आवामन्यन्न किमप्यवोचाव । ततो यज्ञस्तम्ममुस्साट्य - तदधः श्रीजिनेन्द्रबिंब तो मुनी अदर्शयताम् । ततस्तेन संजातप्रतिबोधः स्वपत्नी गर्भवतीं हित्वा शय्यंभवः प्रबबाज । निरतिचारं
धारित्रमयन शिक्षितसाध्वाचारविचारोऽनुक्रमादाचार्यपदमाष । इतश्च गृहे तत्पनी नयमे मासि पुत्र प्रासोट, तदीय नाम 'मनक' |
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इति चक्रे । लोका ऊचुः- यदीदानीमस्य पिता गेह अभविष्यतर्हि सम्यग् जन्मोत्सवम करिष्यत् । अथाऽनुक्रमेण वर्द्धितः संस्कृतश्च स शिशुर्मातुर्मुखास्थितुः स्थिति निशम्य मातरमा पृष्ठ्य यत्र नगरे तत्पिता शय्यंभव सूरिरासीच्चत्रागात् । तत्र च तस्मिन्नवसरे स्थण्डिले गच्छतस्तस्य मात्रोक्त सुलक्षणेन तं स्वपितरमुपलक्ष्य तचरणे स मनकशिशुः पपात । तदा सूरिः श्रुतज्ञानयोगात्तमुपलक्ष्य पृष्टवान् भवन कोऽस्ति, कुत आगम्यते १ मनकोऽपि स्ववृत्तमाद्यन्तं तस्मै निवेदितवान् । सूरिणोक्तं-भो वत्स ! त्वया कस्याप्यन्यस्याs एप आवयोः संबन्धो न शच्यः, पुत्रोऽवक् तथास्त्विति । अथ सदैव स्थण्डिलाभिवृत्त: सूरिस्तमुपाश्रये समानीतवान् पुनस्तं शीघ्रमेव दीक्षां ददौ । ततस्तत्राप्यागमज्ञानेन तस्यासन्नकालं ज्ञात्वा दध्यों आयुश्चास्यात्यल्पीय: । अनेन गतायुषा किमपि पठितुं न शक्यते । अतस्तदुद्धारहेतवे प्रातरारम्य सन्ध्यापर्यन्तं दशभिरध्ययनैरलङ्कृतं दर्शवेकालिकं सूत्रं निर्मितवान् । तच्च षद्भिर्मासैः सोऽध्यगीष्ट संपूर्ण सतः क्षीणायुः स ममार | श्रावकाश्च तस्यामिसंस्कारं विधायोपाश्रयमै युस्तत्रावसरे श्लोकं पठतस्वस्थ सुरेर्ननाभ्यामणि निर्जग्मुः । ततः संघोऽपृच्छत् स्वामिन् ! चतुर्दश पूर्वधारिणस्तवेद्यशो मोहः कुतः ? गुरुवक्-भो भव्याः ! स मे पुत्र आसीन हेतुना तस्मिन्ममेदृशो मोह उत्पेदे । तदाकर्णयन्तः साधव ऊचु:- महाराज ! यदेवं पुराऽस्माभिर्ज्ञातिं चैा तेन मसूत्रष्ठीवनादिन्यासमका श्याम | गुरव ऊचुः - भोः साधवः । यद्यसौ साधूनां वैयावृत्यादिकं न कुर्यातहिं कथमस्येष्टं सिध्येत् । अहो ! पश्य २ यदीशां श्रुतकेवलिमहापुरुषाणामपि सुतस्नेह ईदृशोऽजायत, तर्हि छवस्थजीवानां तदुद्गमो भवेदत्र किञ्चित्रम् ? अतो मोहः श्रेयोऽर्थिभिः सर्वचैव त्याज्यः । तस्मिंस्त्यक्ते सत्येव जीवाः सुखिनो जायन्ते । अन्यथाऽस्मिन्संसारेऽतिभ्रमन्ति मुखन्स्येव । अनेन प्रबन्धेन पितापुत्रयोरीदृशः स्नेह इति ज्ञातव्यम् ।
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RAK
अथ ७-पुत्रवर्णन-विषये स्वागता-छन्दसिमाय ताय पद पंकज सेवा, जे करे तस सुपुत्र कहेवा
जेह कीर्ति कुल लाज पधारे, सूर्य जेम जगि तेज सवारे ।। २१ ।। यह-विनयवान समो निगरमाणितो गरे, जहां शबान लज्जालुभवति । तस्य सर्वत्र सुकीर्तिः प्रख्यातिमेति, कुलं शोभयति सूर्य इव तेजस्तस्यैधते ॥ २१ ॥ ईदृशः सुपुत्रः कोऽभूदिति जिज्ञासोदयादाहशालिनी-वृत्ते - गंगापुत्रे विश्वमा कार्ति रोपी, आज्ञा जेणे तात केरी न लोपी ।
ते धन्या जे अंजना पुत्र जेघा, जेणे कीधी जानकीनाय सेवा ॥ २२ ॥ पुरा गंगापुत्रो भीष्मपितामहः पितुरादेशे स्थित्वा जगत्पपलं यशस्तम्भ समारोपितवान् । एवमञ्जनापुत्रो इनुमान् सीवापत A सेवारतो नका भस्मसादकरोत् । श्रीरामचन्द्रस्व दौत्यमभजत प्रान्वे च हनुमान कुमारो मोक्षं गतवान् । ईदृशः सुविनीतः सुपुत्रा
प्राक्तनपुण्यरेच प्राप्तुं शक्यते । ईदृशः सुपुत्र एव सर्वैः सत्पुरुषेर्धन्यशदारे जायते । अञ्जनायाः हनूमतस्तपितुश्च सविस्तरं कथान| कमत्रैव धर्मवर्गे सज्जनतोपर्येकविश्वतितमेऽञ्जनाप्रबन्धे लिखितमस्ति, तत एव द्रष्टव्यम् ।। २२ ।।
अथ सुपुत्रोपरि गांगेयकुमारस्य १३-कथानकम्पुरा किलेह भारते शान्तनुनामा राजा गंगानाम्नी तस्य पल्ली घाऽऽसीत तयोगशिपनामा पुत्रो जाले । अथैकदा नृपो बने ।
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क्रीडितुं गच्छन् पथि गंगानदीतीरे समुपाविशत् । तावचत्र नद्यां पोतं वाहयन्तीमतिरूपवती तारुण्यशालिनीं धीवरसुतामपश्यतस्पाश्च महीपतेः शान्तनोर्महान् राग उदियाय । तद्रयमोदितः स एकपदमपि गन्तुं न शशाक । तथापि कथमपि स्वालयमागत्य मंत्रिणमाहूय तमुत्तमवदत् - भोः प्रधान ! एवं रात्र याहि । तं धीवर था कयच यथा स निजपुत्र सत्यवर्ती रत्नवतीं मे दद्यात्तां विना किमपि मे न रोचते । अन्यथा मम जीवितेऽपि संशयमवेहि । अथ तदेव मन्त्री तदन्तिकमागत्थ धीवरं कन्यामयाचत । सर्व निशम्य स मत्स्यजीवी बभाषे - हे प्रधान ! तवोक्तं सत्यमस्ति । इमां कन्यामपि दित्सामि परन्तु तत्र स्वामिनो राज्ञो गांगेम नामैकः पुत्रो विद्यते स एव राज्यं ग्रहीष्यति । मदीयदौहित्रो राज्यं न प्राप्स्यति, मम पुण्यपि यावज्जीवं सपत्नीदुःखेन निजतनयस्य राज्यानधिकारित्वेन च दुःखमेवानुभविष्यति । अतो राजा मदीयदौहित्राय राज्यमिदं प्रदातुमिदानीमङ्गीकुर्यात्तर्हि सुखेन तस्मै पुत्रीमिमामहं दद्याम् । अन्यथा नेति तद्वचः श्रुत्वा तत आगत्य नृपाय सर्व व्यजिज्ञयत् । ततस्तदतिदुष्करं मत्वा शान्तनुः कर्तव्यतामूढो नितराम दास्यमभजत् । अथ सभावामासीनमुदासीनं पितरं दृष्ट्वा गरियोऽपृच्छत- पितः ! अद्य त्वं विच्छायक्दनः कथं लक्ष्यसे १ तव किमभूतन्मे कृपया ब्रूहि यदहं तत्प्रतिक्रियां कुर्याम् । अथ राज्ञा सत्स्वरूपे यथावत्कथिते गांगेयोऽवदत्-एवदतीव सुकरं चि । अहं सर्वसमक्षं कथयामि तत्पुत्राय राज्यप्रदानमङ्गीकुरु पुनस्तां परिणीय सुखी भव । इत्थं भाषितेऽपि नृपेण न विश्वस्तमितीङ्गितज्ञो गांगेयस्वत्कालमेव सकल्वलोकसमर्थ पितुर्निश्वासोत्पादनाय स्वपुंलिगमच्छेत्सीत् । तदत्याधर्म वीक्षमाणाः सकलाः जना विस्मयाविष्टा बभूवुः । ततः स धीवरो नृपाथ सुतामददत तस्यां श्वान्तनोः पुत्राभूतां तयोर्ज्यायान् पुत्रो
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राज्यमलभत | पुनः कनीयान् यौवराज्यमगात्तेन गांगेयस्य जगति महती सुकीर्तिः पप्रथे । ईदृशो वशंवदः सुपुत्रः पूर्ण भाग्यभाजामेव जायते । किश्चेत्थं पितुर्मनोवान्छित परिपूर्णकरणादेव लोकैः सहपुत्रतया कीर्त्यते ।
त्रोटक - वृत्तेते — इम काम विलास उहालत ए, रसरति रुषे अनुभावत ए । जिम चन्दन अंग विलेपत ए, हिय होय सदा सुख संपत ए ॥ २३ ॥ इत्थं येषाञ्चतसिः मदनबिलासोल्लासः प्रादुर्भवति । यथावत्तदास्वादयतां सरसानां पुंसां श्रीखण्डपकद्रवानुलेपनमित्राङ्गेषु सदैव निःसीमसुखानुभूतिरुत्पद्यते ॥ २३ ॥
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इति सर्वहितेच्छुकेन पण्डित - श्रीकेसर विमलगणिना भाषाक वितामयविरचितायां ततः श्रीसौधर्मबृहसपोगच्छीय-साहित्यविशारद - विद्याभूषण- श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरेण सरल
सरससंस्कृतसंकलितायां सूक्तमुक्तावल्यां तृतीयः कामवर्गः समाप्तः ॥
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अथ चतुर्थो मोक्षवर्गः प्रारभ्यते।
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संसारे प्राणिमा भोवाधिगम ये इतवः सन्ति तान् दर्शयतिउपजाति-छन्दसि-ग्राह्याः कियन्तः किल मोक्षवर्ग, कर्मक्षमासंयमभावनाथाः ।
विवेकनिवेदनिजप्रबोधा, इत्येवमेते प्रवरप्रसंगाः ॥१॥ तत्र मोक्षः १, कर्म २, क्षमा ३, संयमः ४, अनित्याधा द्वादशभावना: ५, रागद्वेषौ ६, सन्तोषः ७, सदसद्विवेकः ८, निर्वेद-वैराग्य ९, चात्मबोधः १०, एते दव सद्विपया मोक्षहेतुभूता अस्मिन्मोक्षवर्ग क्रमेण वर्ण्यन्ते ।। १ ॥
___ अथ १-मोक्ष-विषये-मालिनी-छंदसिइह भव सुख हेते के प्रवर्ते भलेरा, परमव सुख हेते जे प्रवर्ते अनेरा। अवर अरथ छडी मुक्ति पंथा अराधे, परम पुरुष सोई जेह मोक्षार्थ साधे ॥ २॥
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___ इह जगति लोकिक सुखजास प्रायशः सर्व एव समीहन्ते, कियन्तः सन्तो जीवाः पारमार्थिकस्याऽपि सुखस्य कामयितारः सन्ति, परन्तु ये प्राणिनो लौकिकलौकिकोत्तरं सुखद्यमपि त्यक्त्वा मोक्षमेव वाञ्छन्ति। तदर्थमेव यतन्ते, त एव धन्यवमाः कथ्यन्ते, जम्बूस्वामिशालिभद्रादिवत् ।। २॥ .
तजिय भरत भूमी जेण षट्रखण्ड पामी, शिव पय जिण साध्यो सोलमे शांतिस्वामी ।
गजमुनि सुप्रसिद्धा जेम प्रत्येक मुद्धा. अवर अश्य छड़ी धन्य ते मोक्ष-स्तुहा ।। ३ ॥ तदेव दृष्टान्तेन द्रढयन्नाह-इहैव भरतक्षेत्रमध्ये पुरा किल पट्खण्डात्मिकामिमां वसुधा विहाय षोडशस्तीकरः श्रीशान्ति- | नाथस्तथान्ये तीर्थकरा भरतादिचक्रवर्तिनो मोक्षमार्गमसाधयन्त्रेवं गजसुकुमालप्रमुखा जगति सुप्रसिद्धाः करकण्डनम्यादयः प्रत्येकको युद्धा भव्या: प्राणिनः सर्वमिदं पुत्रमित्रकलबधनादिकं त्यक्त्वा मोक्षायैवाऽयतन्त ॥३॥
अथ २-कर्म-विषयेकरम नृपति कोपे दुःस्त्र आपे घणेरा, नरय तिरिय केरा जन्म जन्मे अमेरा।
शुभ परिणति होवे जीपने कर्म ते वे, सुर नरपति केरी संपदा सोइ देवे ।। ४ ॥ ____अस्मिन् लोके यस्मै जीवाय कर्मरूपोऽसौराजा प्रकृप्यति तस्मै प्राणिने नारी तिर्यग्योन्युइतां यातनां नानाविधा पृथक् पृथमेव प्रयच्छति । यदा पुनः शुभपरिणामिकादेति तदा तस्मै जीवाय दैवीं मानुपी पेन्द्रनरेन्द्रश्रिय प्रदत्ते । अतो जीवस्य सुखदुःखादिमोक्तृत्वे कर्मण एव प्राधान्यमस्ति ।। ४ ।।
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करम शशि कलंकी कर्म भिक्षु पिनाकी, करम बलि नरेन्द्रा प्रार्थना विष्णु रॉकी ।
करम वश विधाता इन्द्रसूर्यादि होई, सबल करम सोई कर्म जेवो न कोई ॥ ५॥ कर्मयोगादेव शशी कलंकी कीर्यते, कर्मप्रापल्यादेव पिनाकी शर्भिक्षुर्गीपते कर्मयोगादेव रंकीभूय विष्णुना वामनीभूतेन बलिनुपः प्रार्थितः-याचितः, तद्योगादेव कदाचिद्रकता, कदाचिच्छीमत्व, एवं कियन्तो बलिनः, केचन निर्बलाः, एके नरेन्द्राः, अपरे रंकाः, अन्ये मूर्खाः, पुनरपरे विद्वांसः, सर्वमेतत्कर्मयोगादेव सुखदुःखादि बहुविध फलं जीवोऽनुभवन् संसाररंगमण्डपे नटवन्नृत्यति । अतः प्रायेण कर्मणः षड्दर्शनेऽपि सर्वतो मुख्यत्वं सिद्ध्यति ।
अथ ३-क्षमागुण-विषयेदुरित भर निवारे जे क्षमा कर्म यारे, सकल सुस्त्र सुधारे पुण्यलक्ष्मी वधारे ।।
श्रुत सकल अराधे जे क्षमा मोक्ष साधे, जिण निज गुण वाधे ते क्षमा कां न साधे? ॥ ६ ॥ अहो ! या क्षमा कृतदुरितजालं विलोपयति, किञ्चालेतनकर्मसन्तति निरोधयति, सकलसुखसंपच्छ्रियमनुभावयति, शुक्लपते । शशिनः कलामिव गुणश्रियं वर्द्धयति, तथा जीवान् श्रुतलानारावने प्रवर्तयति, भव्यान्मोक्षपणे समारोपयति, पुनस्सौ निजगुणान शानदर्शनचारित्ररूपान् भासयति, तामेनां क्षान्ति लोकाः विशेषतः सहर्ष कथं न धरन्ति ? अवश्यमेव तां सर्वार्थसाधनी क्षमा धृत्वा सुखिनो जायन्तां सर्वे भव्यजनाः ॥ ६ ॥
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अथ क्षमागुणमाद्रियमाणजनतोपरि यथा
सुगति लहि क्षमाये खंधसूरीस सीसा, मुगति दृढप्रहारी कूरगण्डू मुनीसा । गजमुनिस स्वमाए मुक्तिपंथा अराधे, तिम सुगति खमाए साधु मेतार्य साधे ।। ७ ।।
पुरा कस्यचित्खन्धकसूरेः शिष्याणां पञ्चशती क्षमयैव मोक्षमाप्तवती । स्वयन्तु क्षमागुगं त्यजन् दुःखसन्ततिमगात पुनर्दृढ़अहारी कूरगडनामा मुनिश्र क्षान्त्यैव कैवल्यज्ञानमाप्य मुक्तावभूताम् । एवं गजसुकुमाल - मैतार्यमुनिवरौ क्षमागुणप्रयोगादन्तकृत्कैवयवन्तौ शिवसुखास्वादकावभवतां एतद्गजसुकुमालमुनेः कथा धर्मवर्गे त्रयोविंशतितमे प्रबन्धे दर्शिताऽस्ति शेषाश्व ताः कथा अत्रैव क्रमशः दन्ते
क्षमया मुक्तिमधिगतानां पञ्चशत शिष्याणामक्षमया दुःखपारंपर्यमा तस्य स्कन्धकसूरेश्व १ - कथा - पुरा कान्तिपुरनामनगरे जितशत्रोः क्षोणिपालस्य खन्धकाभिधः कुमारः पुरन्दरयशाभिघाना कन्यैका चासीन । राज्ञा सा पुत्री दण्डकेन तदनुरूपेण राज्ञा परिणायिता । अथैकदा दण्डकनृपेण कस्मैचित्कार्याय प्रेषितो महान्नास्तिकः पालकनामा मन्त्री जितशनृपस्य सभामागत्य राजानं प्राणमत् । तत्रावसरे प्रसंगवशात्प्रस्तुतायां धर्मचर्चाय खन्धकराजकुमारेण स पालको विजिग्ये तेन पालको मनसि नितान्तमखिद्यत, परं तदानीं किमपि प्रतिकर्तुं नाशक्नोत् । अथ राजकार्य संपाद्य स पालकः स्वनृपान्तिकमाययौ । ततः कतिपय समयानन्तरं तत्रोद्याने विंशतितमतीर्थकरो मुनिसुव्रतस्वामी समवससार । तदैवागत्य बनपालो राज्ञे गुर्वागमन र्धापनं
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ददौ । तस्मै तुष्टो राजा धन धनमदात्ततः सचतुरंगसन्यो परिवारपरिवृतो नृपालः खन्धककुमारेण सह महामहेन । । गुरुवंदनार्थ तत्रागात् । यथावत्तमभिवन्ध तदाज्ञप्तः स्वोचितस्थाने न्यषीदत् । भगवन्मुखारविन्दतो धर्मदेशनां IE अल्ला खन्धककुमारः प्रत्यबुध्यत ! पुनस्तत आलयमागत्य मातापित्रोराज्ञया कुमारः पञ्चशतराजकुमारेण सह प्रक्वाज । | अथ गुर्वन्तिके निवसम्मिरतिचार चारित्रं पालयन खन्धकमुनिर्दण्डकादिदेशेषु विज्ञतु गुरुमयाचत । गुरुणोक्तम्-मुने ! तत्र मागा: 13 यतस्ते प्रबलरिपुस्तत्र वर्तते, स प्राणान्तिकं कष्टं ते दास्यति । स पुनर्गुरुमपृच्छत-हे भगवन् ! अहमाराधको विराधको वाऽस्मि ? गुरुरवदत्-मो मुने! स्वां विना सकला मुनय आराधकाः सन्ति तथापि बलवद्भवितव्यप्रेरितः खन्धकः साधुः पञ्चशत मुनिगणानुगतः प्रतस्थे म साधुः सपरिवारः क्रमशस्तकगरमागतान ! नछत्त्वा प्रागेव तत्रोद्याने पालको मन्त्री प्रच्छन्नतया बहुस्थलेषु नानाविध-! शस्त्रास्त्रजालं न्यासितवान् । सोऽपि मुनिस्तत्रयोदाने समायातस्तदागमनं श्रुत्वा वन्दितुं सपौर सकुटुम्बी राजा तत्रा- | गत्य भक्त्या तान्सर्वान्सान विधिवदभिवन्ध धर्मदेशनामाकर्ण्य स्वस्थानमाययो । अथ म दुष्टात्मा पालको | राजानमेवमवदत-हे स्वामिन् ! एतान् साधून माञ्बेहि, यदमी तत्रोद्याने भूमितले नानाविधानि शस्त्रास्त्राण्यसंख्यानि | गोपयामासुः । अतोऽनुमीयते लक्ष्यते च यदसौ खन्धकस्ते श्यालो मुनिवेषणात्रागतः संग्रामे त्वां विजित्य 18 तावक राज्य ग्रहीष्यति । अत्र संशयश्चेत्तत्र गत्वा संग्रामोपयोगीनि शस्त्रास्त्राणि भूमौ गुप्तरूपेण संस्थापितानि पश्य । ततो Me राजाध्वक्-भो। प्रधान ! यथा त्वं भाषसे, तथा तत्र गत्वा मां दर्शय, सतोऽहं तवोक्तं सर्व सत्यं वेदिष्यामि। तेनोक्तम्-तर्हि विलम्ब मा कुरु, हुतं वा । सतो राजानं तत्र नीत्वा तान्मुनीनन्यत्र कृत्वा सनिहितशस्त्रास्त्राणि समदर्शयत् । सदालोकनतो भीतिमापन्नो
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२...
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राजा तमेवमवादीन-एतद्विषये यथेच्छसि, तथा कुरु मो मा पृच्छ । ततो मुदित: स दुष्टस्तदैव तत्रागत्य पीलनयन्त्रमानाय्य - सर्वान साधूस्तत्राकार्य क्रमश एकैकं तत्र यन्त्रे नवनवस्यधिकचतुःशतमुनीनपिनट् । सर्वेऽभी सुनयश्चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याय ! समाधिना शान्ति वहन्तोऽन्तकृत्केवलिनो भवन्सो मोक्षमीयुः । यदा स पापीयान् जीव एकमेवाऽवशिष्ट लघुसाधु पीलितुमच्छत्तदा खन्धको मुनिः शान्तिमत्यजत्कथितश्च-रे पापिष्ठ ! प्रथम भामेच यन्त्रेन निष्पीलय पश्चात्स्वेच्छानुकूलं विधातव्यम् । वेनोक्तं नहि नहि प्रथममेनमेव क्षुल्लक निष्पील्य पश्चाचा पीलयिष्यामि | तदा त क्षुल्लकमुनि पील्यमानमालोक्य सर्वथा क्षमा त्यजन स्कन्धकसरिगुरूदितं वचः स्त्रभवितव्यञ्च सत्यतां नयनह मृत्वा दण्डकदेशदाही स्यामिति निदानमकरोत् । पीलनसमये लघुरपि साधुः क्षमयानकुत्केवलीभूतोऽक्षयं शिवसुखमाप्तवान, कृतनिदानः खन्धकाचार्योऽपि क्षमात्यागतः पालकेन यन्त्रे पीलितो दुर्ध्यानेन मृत्वाग्निकुमारोऽभवत् । अत्रान्तरे पलनान्त्या शोणिताऽर्द्रग्जोहरणमादाय गृध्र उदडीयत । तथाकस्मात्पुरन्दरयशाराश्या अग्रेउपतत् । तदालोक्य सा राजानमपृच्छत् हे नाथ ! ईदृशो मरणान्तोपसर्गः साधूनां केन पापिना कृतः परं राजा किमपि नोवाच । ततः पौरजनमुखात्पालकेन पापीयसा पञ्चशतमुनिमंडलसहितः खन्धकाचार्यो यन्त्रे पिष्ट इति ज्ञात्वा भृशं शोचन्ती सा राशी दण्डकनृपमत्रोचत्-मोः पापिष्ठ ! येन त्वया पञ्चशतमुनिघातः कारितस्तेन संजातमहापापस्य तब मुखावलोकनमपि न युज्यते । ततः संसारमसारं जानाना पुरन्दरयशामहिपी चारित्रमादाय समधीत्व ततो विजहे । कृतनिदानस्कन्धकाचार्यजीवोऽमिकमारो भृत्वाऽवधिना समुद्भूतमत्सरस्तदैव दण्डकनृपतिदेशं समस्तं भस्मसाबके । यदद्यापि दण्डकारण्यमित्युच्यते लोकैः । एतद वनं
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सम्मेतशिखरस्य मार्गे तिष्ठति । अहो ! स्कन्धकाचार्यस्य पंचशती शिष्यमण्डली क्षमया मोक्षमाप, स्वयन्तु तेषां गुरुत्वाऽपि क्षमात्यागान्महतीं दुःखसन्ततिमसइव | अतः सर्वैरपि श्रेयोऽर्थिभिः श्रमागुणः सादरं धार्थ एव ।
अथ क्षान्त्या मोक्षमधिगतस्य दृढप्रहारिणः २-कथा
पुरा कस्यचिद् ब्राह्मणस्य पुत्रः सप्तव्यसनसमासको दृढप्रहारिनामा मातापितृभ्यां गृहाभिष्कासितोऽमवद । ततचौरग्राममागतस्तत्र चापुत्रश्रौरनायकस्तं योग्यं मत्वा पुत्रत्वेन स्वान्तिके स्थापयामास । अथ कतिपयसमयानन्तरं पितर्युपरते स एव सकलत कराऽऽधिपत्यं लेभे । स कठोरहृदयः क्रूरकर्मकारी च जन्मत एवासीत्, अतोऽनन्तजीवानप्यवधीत् । अथैकदा सपरिवारः स कुशस्थल पुरं लुण्टितमगात् । तत्पुरं लुष्टयित्वा कस्यचिद् ब्राह्मणस्य गृहं प्राविशत्तत्र च महता मनोरथेन क्षीरपाकं पक्वा चुल्ल्युपरि निधाय तत्पत्नी ब्राह्मणी पुत्रं लालयन्ती किश्चिद्दरमुपविष्टाऽऽसीत् । तत्रावसरे सा तद्भाण्डं स्प्रष्टुं यान्तं दृष्टप्रहारिणमबादीत - अरे ! कस्त्वं मदीयं पाकभाण्डं मा स्पृश, यदि स्प्रक्ष्यसि तर्हि ममोपयुक्तं न स्यात्तदाकर्ण्य कुपितः स तच्छिरोऽसिना चिच्छेद | तद्वीक्ष्य स्नानं विदधद् ब्राह्मणोऽखमादाय तं हन्तुमनुपदमेव दधाव, दृढप्रहारी तस्याऽपि शिरोऽच्छेत्सीत । पुनस्वतोऽपसरन्मार्गे गर्भवतीमेकां गामपि जिसि । तत्रावसरे गोरुदरती बहिर्भूतमविदीनं वत्समालोक्य तस्य हृदये दया प्रादुर्भूता तेन स भृशं पश्चात्तापमकरोचथाहि -धि मां धिङ् मां यददं ब्राह्मणो भूत्वाऽपीशं घोरकर्म कृतवान् ! हा! हा ! मम नरके कीटशी यातना सोढव्या भविष्यतीति ? आसाश्चतसृणां - - स्त्री-गो - बालहत्यानां किं फलं भोक्ष्ये ? अथवाऽसावेदनम
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SEKCRICKS
पश्यमेवैतत्फलं मोकास्मि एतानि : महापासकानि कातिमान हास्पन्तिः । इत्य कलानुताप मतदैव कृतपञ्चमुधिलबानः प्रथम पुरद्वारमेस्म कायोत्सर्गज्याने तस्थौ । तदानीं तसं सवारस्थ पश्यन्तः सर्वे लोका: स एक लुण्टाकः ऋरकर्मेदानी | पाखण्डी जात इत्युचरम्तस्तदुपरि केचन मरास्तु लिष्टेिष्टिकोपलादिकानि क्षिपन्ति । भन्ये च महापापीयानितिमत्त्वा | कृपाणादिशखाबस्तर बातमन्ति, तथापि सा ध्यान न स्यजति । इत्थमुपसर्गान - सहमामः स सार्द्धमासं तत्रैवाऽतिष्ठवतः स्वत एवं लोकास्तदुपसर्गकरणाद्विरेमुःअथ स दृढप्रहारी ततोऽप्यन्यस्मिन्पुरद्वारे समेस्पच्यानारूढस्वस्थौ । तत्रापि सादमास लोकास्तमुपा दण्डादिषातमेन धूलिप्रक्षेपेण लोटादिप्रहारेण शसानादिनिपासनेन व भृशमुरमितोऽपि यदा सध्यानाम विररामा वदा स्वत एव तदुपद्रवाते लोका न्यवर्तन्त । तदा नगरस्य तृतीयारि समागत्व पुननिमनजतः । तत्रापि सार्द्धमास लोककृतपरीपहानसहत, व्यानाष चचाल । पुनरसौ चतुर्थद्वारि समापस्य ध्यानलीनोऽमवचनाऽपि साईमास लोकैस्तथैवोपद्रुतः परमित्य - पपमासी क्षमागुणमाश्रित्य पढविधपरीषदं सेहे । ततोऽस्मः षष्ठे मासि केवलज्ञानमुल्पेवेः । अहो ? कीया शान्तिगुणो बदसौ दृद्धाहारी जगददिखीयक्रूरकर्मा महापामिष्ठो भूत्वाऽपि केवलं क्षमागुणयोपतोऽष्टविधफर्मक्षयं विधाय केवलज्ञानमासान दुरापा मोक्षभियममजत् ।
अन्येऽपि ये केचन क्षमागुणं धरिष्यन्ति, तेऽपीत्थमेव मोक्षसुखं शाश्वतमवश्यमेवानुभविष्यन्ति, अतो हे भव्या ! यूपमवश्यमेव | al धमागुणं परत । यतः। यस्य शान्तिमयं शस्त्र क्रोधाग्मेसपशामकम् । नित्यमेव जयस्तस्य, शत्रूणामुदयः कृता ॥१॥
श्रूयते श्रीमहावीर, क्षामत्यै म्लेच्छेषु जग्मिवान् । अयत्नेनागतां क्षान्ति, पोहुँ किमिति नेश्वरः ? ॥२॥
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अथ क्षमागुणेन मोक्षमितस्य कूरगडमुनेः ३-कथा
यथा पुरा कवित्कूरणदुमामा साधुर्निरन्तरमुदरपूरमाहारमोदनममुक्त । कदापि तस्यागं न करोति स्म, तमन्ये मुनयः कथयन्ति मोः! तपसो महाफलमस्तीति सर्वे सहर्ष तपस्यन्ति । त्वन्तु कदापि न करोषि परं स शक्त्यभाववशात्तपस्पामकुर्वाणोऽप्यन्येषां तपस्विनामनुमोदमा फलमधिकमाप । अथैकदा संवत्सरीतः प्राग्दिन एव सर्वे साधवः द्वयहीनमुपवास प्रारंभिरे । तत्रावसरे शासनदेवी श्राफ प्रथमं कुमुनिमयदर । प्रालोक्य साधव ऊचुः - हे श्राविके ! तव विवेको नास्ति । पवया तपस्विन एतान्साधून विहाय प्रथममुदरंभरिः क्रूरगडुसाघुरभिवाद्यते । तयोक्तं भो मुनयः १ तपस्यता भवतामीदृशो मत्सरो न युज्यते यतोsस्य प्रभा समुज्ज्वलं केवलज्ञान मुत्पत्स्यते । तस्मिन्नवसरे किलैतदुर्वदनाय समागतेषु सुरासुर किन्नरविद्याधरादिषु ममैतइन्दनाऽवसरोन - मिलिष्यति । अतोऽहमद्यैव महान्तमेनं वन्दितुमागताऽस्मि । तन्निशम्य मत्सरी कश्चिन मुनिरभाषत - सत्यमस्यैव केवलज्ञानमुत्पत्स्यते १ यो राईि कस्याप्यन्यस्य तदुदेष्यति ? इति निगद्य तमभिवन्द्य सा शासनदेवी स्वस्थानमागात् । ततः सञ्जाते प्रभाशे संवत्सरीदिवसे सत्यवसरे स कूरगडमुनिः श्रावकागारमागत्य निजोदरपूरमोदनं प्रतिलम्पोपाश्रयमाययौ, तंत्र समुनीमन्त्र निवसरे स मत्सरी मुनिस्तत्रागत्य तस्मिनोदने डीवनमकरोत् । परमनेन कुरगडसाधुना व्यचिन्ति-अथ मया पूर्व म सन्धमतोऽनेन मुनिना मदीयाहारे घृतमेवं ष्ठीवितमित्थं सुभावना भावयतस्तस्य केवलज्ञानमुत्पद्यत । तस्मिमंत्रसरे से धन्दितुमिन्द्रादयो देवो आजग्मुस्तै महामहचके । इत्यनुवृत्तमालोक्य स मस्सरी मुनिर्दयी गरोऽहनि मात्र श्राविका समामेता सामायुषी नः किन्तु देव्यासीत् । तदनु सर्वे मुनयस्तं क्रूरगडमुनि ववन्दिरे स्वापराधमपि धामित पश्चात्तापं च वितेनुः तेन
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| सर्वेषामपि साधूनां केवलज्ञानमुदपग्रत । भो लोका ! श्यं कथा युष्मानिदमुपदिशति यल्लोकः सदैव क्षमा धायां कदापि देषमावो न विधातव्यः । किञ्च-यदि स्वस्य व्रतोपवासादिष्ठपस्यामाचरित शक्तिन भवेतहि तदनुष्ठातृणामनुमोदनादिभावनाऽपि विधेया, तथा तपस्विनों साधूनां च वचन शिरसा सदैव धार्यम् । तेषामवगुणा न द्रष्टव्यास्तथा सति करगमुनिरिव भवन्तोऽपि शिवसुखमधि| गमिष्यन्ति । क्षमागुणादधिकः श्रेयस्करः कोऽप्यन्यो गुणो नैवाऽस्ति ।
अथ क्षमया कर्ममुक्तस्य मेतार्यमुनेः ४-कथानकम्यथा-भयान्तरे दो गोपवालको पदारमन्तौ गगनियरोतले रसुविष्ट पाताय । तत्रावसरे तेन मार्गेण गच्छतस्वृषातुरस्य द कस्यचिन्मुनस्तौ गोपौ पयः पाययित्वा तृपामशीशमताम् । सोऽपि मुनिस्सयोर्धर्मदेशनामदाचेन प्रधुद्वौ तौ दीक्षा ललतुः । चारित्र | पालयतोस्तयोर्मध्ये चैकस्य साध्वाचारे घृणा जाता, यत्स्नानहस्तपादमुखप्रक्षालनमकुर्वन्त एव मुनयो भुजत इति नैष सदाचारः।
एवं मनस्येव संकल्पो जाता, परं क्रियान्तु साधूनामेवाऽकरोत् । अथैकदा तो मिध एवं निश्चयं चक्राते यदाक्योर्देवगतिमापनयोर्यः का पूर्व सतयुत्वाऽत्र लोके यत्र कुन जायेस, स देवलोकस्थेनाऽवश्यमेव प्रतिबोधनीयः। अथायुःक्षये कालं कृत्वा तो देवलोके दिव्यसुखं
मोक्तुं लग्नौ । तत्रापि दिव्य सुखं मुक्त्वा ततध्यत्वा यः साधुजीवः साधुचारित्र घृणामकरोत् । स साधुजीवो राजगृहनगरे कस्यचन मेहरनाम्नवाण्डालस्य गृहे सभार्यामेतीकुथौ पुत्रत्वेन समुदपयत । तद्गृहसमीपवर्तिनी काचिदेका व्यवहारिखी मृतवत्साऽमीस् । तस्याश्चाण्डालमार्यया सह भगिनीवन्मिया सख्यमासीत्ते के समकालिकमेव गर्भ धृतवत्यौ । ते उभे अप्येकदा मिथो गर्भविषये समालेपतुस्तदानीं तां चांडालमाहि-रे भगिनि ! त्वं मा निःश्वसिहि । प्राक्तनकर्मदोषतस्तव सन्ततिम्रियते, अलमत्र शोकसन्ताप
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करणेन मम तु बहवः पुत्राः पुत्र्यश्व विलसन्ति । साम्मे मम
मातोऽहं सत्यं वच्मि, यद्यावामेकदिने पुत्र प्रसोब्यावस्तर्हि ममतं चिरजीविनं पुत्रं ते दास्यामि त्वत्प्रसूतं मृर्त शिशुमहं ग्रहीष्यामि । आवामेवैतत्स्वरूपं वास्यावोऽन्यः कोऽपि न घोधिष्यति । केवलं सभाममात्रं मया धृवं त्वया व्याहार्य तदनु वे व्यवहारिखीचाण्डाल्यावेकस्मिमेव दिने सुतं सुषुवाये। जथ चाण्डालस्त्री युक्त्या प्रच्छमतया निजपुत्रं तस्या अदासदीयकं मृतं सुतं स्वयं जग्राह । अथ पुत्रजननमाकर्ण्य व्यवहारी महोसमकरोन्मेतार्थ इति नाम चक्रे, पंचमे वर्षे च लेखशालायां मैषीत् । यदा स सकल कलाकुशलोऽसदा द्वादशवार्षिकं त पुत्रमष्टाभिः स्वजातीयाभिः सुरूपाभिः सुकन्याभिः परिणाययितुं स्थिरीचक्रे । प्रवर्तितश्च तदर्थमुत्सवः स्त्रियश्च द्विसन्ध्यं धवलमङ्गलगीतं गातुं लग्नाः । अत्रावसरे पुराकृतसंकेतो देवस्तत्रागत्य दध्यौ-यद्यसौ एताः कन्याः परिणेष्यति तर्हि भवान्धेर्न तरियति । अतः प्रागेवासो मया प्रतिबोधनीय इति निश्चित्य प्रकटीभूय तं बहुधा प्रत्यबोधत, परन्तु तस्मै किमपि न रुरुचे । ततः स देवो मेतीशरीरे प्राविशत् । इतथ मेती चाण्डाली रोदितं लग्ना । अथ रुदती मेती चाण्डाली व्यवहारिगृहमागत्य मेतार्यपुत्रं निजगृहमानीतवती, भर्तारं चादव हे स्वामिन् ! एष मे पुत्रोऽस्ति अस्य लयं व्यवहारी कथं चिकीर्षति ! एतत्स्वरूप सर्वत्र पप्रथे । ततस्तासामष्टानां कुमारीणां पितरचापि चिन्वामापुः । पुनः प्रकटीभूय स देशे मेतार्थ रहसि जगाद -मो मेवार्य ! जातं ते लग्नं, किमभूत् १ मेतार्यस्तमाह-भो देव ! स्वयैतदयुक्तं कृतं तथाकरणेन ममाऽपकीर्तिः प्रसरति सर्वत्र । देव आहमदुक्तं कथं नाकृथाः १ मेतार्थोऽवक्-मोः ! तवादेशमवश्यं करिष्यामि परमिदानीं श्रेणिकराजस्य पुत्र्या सह यथा मे विवाहो जायेत तथा कुरुष्व, ततोऽहं चारित्रं ग्रहीष्यानि । तच्छ्रुत्वा स देवस्तस्मायेकमजमदाज्जगाद च मो मेवार्य ! एनं गृहाण, एष
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रस्मानि हस्पति, स्याल भूस्खा राजापन विषालयमा कन्माऽपि च वाचनीया, इत्थं वे समीहित सेत्स्यति । अथैवं योनिमय देवे निजस्थानी गले मेताजमादाय निजसवममेव तत्सर्व पितरमप्रदत् । अद्वितीय दिवसें नाजेन रत्नानि इदिवानि
रत्नैर्भूत स्वालमादाय !मेतार्यविता भूपसदसि समागम समुपढौक्य कृतप्रमाणोतिष्ठन् । नृपेम पृष्ट-4 कोऽसि ? कुत: आमतः ?
वि समीहसे वाद अथः सोजदत-अई। जात्या पाण्डालोऽस्मि, अत्रैष नगरे निप्रसामि । ममकः सर्वकलालोऽवित | lal प्रियता 'प्रोऽस्ति सौ त्वं स्वमता विषाहविधिनादेहि । इतोऽपत्किमपि धनादिकन कामये । तदाकये मुल्य
मन्त्रिणे पुत्रमभयकुमारमात्यद्राजा 1 नृपाशयमवमस्य मन्त्री चाममाविमोबाण्डाल ! स्वया कुतः प्राप्तानि | शरलान्येतानि तत्सत्यं वद पाण्डालोऽवक्-मम गृहे. सदैवाजो रत्नान्येव पुरीपयति । अभयकुमारो अगाद-दे। | पृथ्वीपते । इयं देवी माया प्रतीयते “मानुषी नै संमवति । भवतु, मयाऽपि तद्रष्टव्यमिति विमृश्य कुमार आह-k भोयाण्डला ! 'एकवार समजमानय । इति मैत्रिण आदेश लामा तमजे तत्रानीय पन्ध । परमत्र तु दुर्गन्धिमयं पुरीष कृतवान् शहिलोपय मन्त्रिणोतं स्वामिन् ! देवमायेपम्, नो चेदीहग्जनो भवन्तं कथं कन्यां याचेस ! परमथाप्यस्मै । कन्यादान श्रेयस्कर म रोयके । इत्यवधा तमाख्या-भोवाण्डाल ! शृणु, तब पुत्राय राजा तदैव कन्या दास्यति यहंधतन्यामेव रात्रौ मारगिरी मूलतः शिखरपर्यन्त सोपानावली तथा कुरु, यथाऽबालबद्वानो गतिसौकर्य भवेत् । तथा राजनानगरे । योऽभितः प्राकारोऽस्ति त सुवर्णमयं विधेहि । तृतीय क्षीरसागरस्य पयोऽत्र समानय । चतुर्थ गङ्गासरस्वत्योबेलमत्रानीय तब पुत्र लापय । एतकार्य चतुष्टयं यदि करिम्बसि चहि मवत्पुत्राय नृपोऽसौ कन्या दास्यति । सदाकर्ण्य पाण्डालो गृहमागत्य तत्सर्ष ।
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पुनमवादीतस्मामेक रात्रौ स : देवस्तदुदितकार्यपतुष्टयमकरोत, गंगासरस्वत्योर्जलेन मेतार्य व स्नपयामास । द्वितीये दिवसे महता महेनस मेताओं राजपुत्री ला अष्टौ म्यबहारिपुत्रीश्च विवाहितवान् । तस्मिवयसरे स देवस्तत्रागस्याऽतिष्ठदवदच-किं भो। विवाहो जातः । अतःपरं कि विधिससि तवसरे मेतार्योऽवदतु मो देव ! त्वां नमस्करोमि सांजलि: प्रार्थये च यदहमधुना नवपरिणीतोऽस्मि । साभिः सहेदानीं कियन्तमपि कालं सुखानि भोक्तुमनुकम्पय । देवो न्यगदत् भो मित्र ! द्वादशवर्षाणि मुख सुक्ष्व, तदन्ते तु माहौत्र दीक्षेति निगद्य देवः स्वस्थानमगमत् । अथावस्यन्ते स देवः पुनरागात्तदापि नवभिः कन्याभिः प्रार्थितो देवस्तस्य पुनदिशवर्षाणि यावत्समय दचवान् । सस्याऽप्यवसाने स देवस्सत्रागत्य मेतार्यमवोचत--मो मेतार्य 1 अध मा विलम्ब कुरु एतावत्यज, चारित्रं च पालय । वदाकर्ण्य नवपत्नीः परिपृच्छय श्रीमहावीरप्रमोः पार्थमेत्य दीक्षाम्ग्रहीत् । अथ स एव मेतार्यमुनिर्जिनकल्पीयमासक्षपणं विदधदेकदा. पास्णाकृते सत्र राजगृहनगरे कस्पचन स्वर्णकारस्य द्वारि समायातः । तत्रा| वसरे स सुवर्णकारः स्वर्णमयानष्टोचरशतयवान् कृत्वा तत्रैव संस्थाप्य स्वयं गृहान्तरागात् । स मुनिस्तत्रैकातिष्ठतावदेकः क्रौश्चपची ताऽगत्य तान् सकलानपि यवान अग्रास । पुनरुतीय कृषिभरिमारतो दूरं गन्तुमशक्तस्तत्समीपदेश एव वृक्षोपरि तस्थौ वत्रस्थो मेतार्यमुनिः सर्वमेतदपश्यत् । अथ गृहादागत्य तत्र स्थापितान् यवानपश्यन् स मुनिमाख्यत्-भोः साधो ! मयाऽत्र यवाः स्थापितास्ते न दृश्यन्ते केन गृहीताः १ अत्र तु त्वमेवासीः कोऽप्यन्यो नागतोजस्त्रयैव गृहीता नान्येन प्रत्यर्यय ! एते अणिकस्य राज्ञः सन्ति कस्याऽप्यन्यस्य मेल्थ मागितो मेतार्यमुनिर्दच्यो- अहो ! यदि वक्ष्यामि तर्हि तं पक्षिणमसौ नूनं हनिष्यति, अतो मया किमपि न वाच्यम् । यदावि तद्भविष्यतीत्ववधार्य क्षान्त्या मौनमालम्ब्य स तत्र तस्थौ । अथ बहुधा पृष्टो मार्गितो मुनि
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यदा किमपि नोत्तवार न वा वानर्पयत्तदा पुनर्भणितस्तेन-भोः पाखण्डिन् धर्मधृतराड् ! अहं शान्त्या मुहुस्त्वां कथयामि त्वं मौनमाश्रित्य कथं तिष्ठमि सत्वरं देहि नो पेद्धनिष्यामि । परं स क्षान्तशिरोमणिर्दध्यौ-यत्सत्यं वदानि रहि जीवो हिसितो भवति । अतो मया परजीवजीवातषे नश्वरमेवच्छरीरमपि वेयमेवेत्थं विचिन्त्य तूणीस्थितस्य मेतार्यमुनेः शिरः प्रकृपितः पश्यतोहर आईचर्मणा दृढं बध्वासघातपे चिरं समावेष्ठिभत । किश्चिदिरम्प समाष्ट चर्मणि वेदनातो मेनार्यमुनेर्नयने युगएदेव निपेतनुः । तदापि समतां भावयन् क्षान्त्या तबेदना सहमानो मेतार्यमुनिरन्तकृत्केवलीभूत्वा मोक्षमधिजगाम । तदैव कोऽप्येकः काष्ठमारवाही तवृक्षमूलमवष्टंभ्य काष्ठमारं दधार । तदाघातमीत्या स कौशपक्षी पुरा निगीर्णान् यवान् सर्वानवमत, तदालोस्यातिमीतः स | दो-अहो ! मम की दुर्दैवमागतमेष मुनिः श्रेणिकनरेन्द्रस्य जामाताऽस्ति । यं वीक्ष्य प्रधानादयः सर्वे प्रणमन्ति, स एव । मया निहतः । महाननयों जात, एतद् घोरकर्म सपरिवार मा विनाशयिष्यति । इदानीं साधुवेष एव त्राता भविष्यति नान्यः कोऽपीति विमृश्य सकुटुम्यः स स्वर्णकारः साधुषेशं विधाय तत्रोपाविशत् । कियकालानन्तरं तन्मुनेस्ताइसधादिवृत्तमाकर्ण्य कृषितो राजा भटानेवमादिशत्-भो भो भटा ! यूयं तत्र गत्वा स्वर्णकार बध्वा तमाऽनयत । तेऽपि तत्रागत्य सर्वान्मुनीनेवाऽपश्यन् । पुनस्ते नृपान्तिकमागत्य जगदुः-स्वामिन् ! तत्र तु सर्वे साधन एव दृश्यन्ते, स स्वर्णकारस्तु कुत्रापि न दृश्यते । अथ स्वयमेव श्रेणिको राजा मटैः सह वागत्य तानखिलान्मुनिषेषेणोपविष्टानालोक्य जगाद-अरे पश्यतोहर ! त्वया साधु कृतम्, | यदी कुकृत्य कृत्वाऽपि चारित्रं जग्राह । अन्यथैतदन्यायफलमोगं विना तय मुक्तिः कथं स्यात् ! पुनपादपस्वान धृतसाधु- |
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स यानभिवन्ध स्वालयमीयुस्तेऽपि चारित्रं पालयन्तः सुखिनोऽभूवन् । इत्थं मेतार्यमुनिवर्यस्याधिकारः क्षमोपरि निगदितः । उक्तश्चोपदेशमालायाम्
जो कोंचगावराडे, पाणिदया कोंचगं तु गाइक्वे । जीवियमणपेहंत, मेयजरिसिं गमंसामि ॥१॥ णिप्फेडियाणि दोषिण वि, सीसावेढेण जस्स अच्छीणि। ण प संजमाउ चलिओ, मेयजो मंदरगिरि व्य||२|| ___ अहो! पूर्वभवे साधुयेशे यगोपालसाधुर्मनस्यपि साध्वाचारधृणामकरोसेन हेतुना तस्यात्र जन्मनि चाण्डालगृहे जन्माऽभूत् । असो वच्मि कैश्चिदपि कदाचिदपि चारित्रे घृणा नैव विधातव्या, किश्च मेतार्यमुनिः पक्षिजीवानुकम्पोदयात्स्वप्राणातिपातेऽपि क्षमा न। जही तेन स मोक्षमाप । इस्थमन्यैरपि क्षमाधर्म विधावव्यं तेन मेतामुनीश्वरवदक्षय्यं सुख प्राप्तव्यं सर्वैभव्यवरिति ।
____ अय ३-संयम-विषये स्वागता-उन्दःपूर्व कर्म सवि संयम वारे, जन्म-वारिनिधि पार उतारे।
तेह संयम न केम धरीजे, जेण मुक्ति-रमणी वश कीजे ॥ ८ ॥ ___अथ चारित्रशब्दस्य कोर्थ इति जिज्ञासायामाह-पवितं-सश्चिमटविषं जन्मजन्मान्तरीयमशुम फर्म नाशयति तथा ! | भवसागरतस्तारयति तदिदं चारित्रं सर्वेरेव सादरं कर्ष न प्राय ? येन शाश्वतसुखदायिनी शिवसुन्दर्यपि वश्या भवेत् ॥ ८॥
तुङ्ग शैल बलदेव सुहायो, जेण सिंह मृग वोध बतायो। सेम संयम लहीय अरायो, जेण पंचम सुरालय पायो ।।९।।
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पुरा संयमादधिगतलम्धियोगायोल बलदेवानिस्तानामगिरेरुपरि तिष्ठन् सिंहमृगादिकान् कियसो जीवान् प्रतिबोध्य पुनरेतारशः पशु-पक्ष्यादिमिवियकविकलैस्तथा वातुकैाघसिंहादिभिश्च मांसादिकमसदाहारमत्याजयत् पुनरेताशान् जीवानपि सम्यक्त्वलासिताम् धर्माराधकाम् कुर्वन् स्मयश्चापि सम्यक् संयममाराध्य पंचमबमदेवलोकसुखं सुचिरमन्यभूत् ॥ ९ ॥
अथ सिंहादिपशूनपि प्रतिवोधयतस्तस्य बलदेवमुनेः ५-कथानकम्यथैकदा बने कृष्णे कालं गो तर.ग्वेम शाह देवरित लसी, परमेत पराभुनियाऽनुपमयैकदा मध्यासमये गोचर्यै नगरमायत: कपान्तिक स्थिता काचिकान्ता पमोहमपगता तेनान्यमनस्काघटभ्रान्त्या निजशिशोः कण्ठे रज्जंद पध्वा याबदधः पात यितुमुधताऽभूत् । तायचदगतमकार्य विलोक्य बलदेवमुनिस्तामवोचत-अरे एतत्किं करोपि? ततस्तया तदबोधि । ततःसा शिशोर्गलाद्रज्जुमपनीय घटममध्नात् । स मुनिरपि मद्पावलोकनादियं स्त्रीदमकृत्यमकरोत, अतो मया नगरे नागन्तव्यं, क्न एव यदा यल्लप्स्यते, सदा तेनाहारेण पारणं विधातव्यमन्यथा तप एव कर्तव्यमिति निश्चित्य वन एव ततःप्रभृत्यतिष्ठत् । अथातुलतपोबलप्रभावतः शशक-हरिण-सूकर-गज-व्याघ्र-सिंहादयोऽपि तदीयदेशनां प्रत्यहमाकर्णयन्तो मांसादिभक्षणं प्रत्याचख्युः । अथैकदा तत्र कश्चिस्काष्ठम्छेदी समुपागत्य सत्काष्ठानि छेत्तुं लमः । सञ्जाते च मध्यालेद्धच्छिन्नमेकमहातर समाश्रित्य तदधः खाद्यपक्तुं लनः । तत्र पाकधूम्रमालोक्य कश्चन शुभोत्तरसमयः सुश्राद्ध इव मृगो मुनेश्ग्रे पुच्छमकम्पयत् । तदा मुनिरपि पात्रमादाय देन सह ताऽऽगात् । सोऽपि मुनिमायान्तमालोक्य सहसोत्थाय मुनेरभिमुखमागत्य तं प्रणम्य समम्पार्थयत-स्वामिन् । एहि,अध मे जन्म सफलं जातं.भवदर्शना। स्पूतोऽभवम्, अम-मया महत्पुण्यं लब्धम् । तश्रावसरे मृगो दवौ-यद्यहमद्य मनुष्योऽभविष्य तर्हि ममापीदृशो लामोऽभविष्यत् ।।
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संसारे मानुषं जन्म धन्यमस्ति मया किं पापं कृतं भवान्तरे यत्तिर्यक्त्वमवाप्तम् । इत्थं स भावयन्नेवासीचावचत्र महाबातोद्मादकस्मादधच्छियो महातरुत्याणां मुनिसूत्रधारमृगाणामुपरि पपात । ततस्ते त्रयोऽपि सद्ध्यानेन मृत्वा पञ्चमब्रह्मदेवलोके देवत्वेनोत्पेदिरे ।
अय ४-द्वादशभावनासु प्रथममनित्यभावनामाहधन कण तनु जीधी पीज-झात्कार जेवी, सुजन तरुण मैत्री स्वम जेवी गणेवी।
अहव मगनताए मूढता काई माचे', अधिर अरथ जाणी एणखं कोन राचे ? ।। १० ॥ .. अहो भव्यप्राणिनः 1 कीदृशः संमारो वर्तते यत्र प्रसिपलमायुः क्षयति । तडिदिव लोकानामायश्चश्चलं प्रतिभाति । एवं पुत्रक| लत्रपितृमातृसुहृदादिकुटुम्बवर्गोऽपि सर्वः स्वमोपमो भाति । तथाऽप्यज्ञा जीवा अस्थिरमपि जगत्सुस्थिरं मन्यन्ते । धनजीवनयोवनादिस्थैर्य जानाना भ्रान्ता एतान् विषयान सेवन्दे । ज्ञाततवास्तु तत्सर्व स्वप्नवत्पश्यन्ति अतो नैतेषु सतन्ते ॥१०॥
अथ संसारमनित्यं स्वप्रवत्तत्र भिक्षोः ६-कथानकम्- . यथा-कस्यचिदेकस्य कलवणस्य गृहे रात्रौ दधिभाजनमनायतमासीदितिः प्रभाते मोकुं त्यक्तुं वाऽनिच्छन् कञ्चन भिक्षुमालोक्य तस्मै तइघि दसवान्, सोऽपि सदादायतडाकपाल्यां धनच्छायतस्तले काममभुक्त । तद्भक्षणात्तत्रैव स चिरं गाढनिद्रामभजत् । अथ सुषुप्तिसमये राज्यसुखमन्वभूत, यथाऽहं नृपोऽभवम् । अप्सरस व दिव्याङ्गना मामुपासते । मन्त्रिप्रमुखाः सर्वे सदसि तिष्टन्ति, चतुरङ्गीसेना च महती लब्धा-स्ति, गजतुरगरथपत्तिसमूहादिकमनेकमस्ति, 'इत्थं स्वमे मनोराज्यं कुर्वन् स मृशममोदव ।
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तावसत्र मेघो जगर्ज, वेन सदैव तस्य जागृतिर्जाता, ततः कामपि राज्यसमृद्धि नाद्राशीव केवलं खर्परं दण्डं जीर्णकन्यां चैतत्त्रयमेव स्वाग्रे व्यलोकत । यथा स भिक्षुर्मुधा स्त्रमप्राप्तया राज्यसमृद्धया मुमुदे । तथैवाऽहा अपि जीवाः पुत्रकलत्रघनादौ सुचैव मोदन्ते । धरणि तरु गिरिन्दा देखिए भाव जेई, सुरधनुष परे ते भंगुरा भाव तेई ।
इम हृदय विमासी कारमी देह माया, तजिय भरतराया चित्त योगे लगाया ॥ ११ ॥ किञ्च - संसारेऽत्र ये ये जीवादितरुमूरप्रभुखचराचरा भावा दृश्यन्ते ते सर्वे जल बुदबुदोपमाः क्षणभंगुरा एव प्रतीयन्ते, इति विचारयता विदुषा जनेन देहमायां विद्वाय चि खरा चक्रवर्तिना शारीरिकीं मोहमायां पट्खण्डभूमि
सर्व राज्यसमृद्धिश्च सुवैराग्येण त्यक्त्वा मनो योगे योजितम् ॥ ११ ॥
अथाऽनित्यभावनया त्यक्तदेहाभिमानस्य भरत चक्रवर्तिनः ७–कथा—
यथा राज्यसुखं भुञ्जानस्य भरत चक्रवर्तिनश्चक्ररत्नमुदपद्यत वथाऽऽदीश्वरभगवतः केवलज्ञानमजायत । एकदैन कार्यद्वयस्य वर्धापनं भरताय समागतमिति मुदितो राजा ताभ्यां नराभ्यां प्रचुरं दानमददत। ततो मनसि दष्यों यदिदं चक्ररत्नमुत्पेदे तदत्रैव फलदम् । तात ऋषभदेवस्वामी तु लोकद्वयेऽपि निःसीमफलदायी ततो मया प्रथमं उद्भक्तिरेव विधातव्येति विचार्य मरुदेवीमातरं गजोपर्युपावैश्य भरत चक्रवर्ती प्रभोर्वन्दनायै चचाल । या मरुदेवी माता पुरा पुत्रस्य ऋषभदेवस्य विरहादनिशं रुदती वर्षमेकं व्यतीयाय । सैव तस्य चन्दनाये यान्वी देवदुन्दुभिस्वनमाकर्ण्य भरतमपृच्छत्-- भरत ! वाघानामी हग्मधुरध्वनिः कुत्र जायते
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किमस्ति तत्र ? येनेदृशोऽभुतपूर्वोपूर्वो वाद्यध्वनिः भूयते । तदा भरतोजदत-दे मातः ! यत्र पुरा ममोपालम्भं ददानाऽऽसी, 16 यथा-हे भरत ! त्वं नूनं राज्यसुखलुब्धोशा : यदृषमय शुदि न हारे तयर मामलोपा सम्पतिरस्ति । नयनयुगलमुन्मील्य पश्य २ इत्याकर्ण्य हर्षोत्फुल्ललोचना मरुदेवी माता रत्नमयं स्वर्णमय रौप्यमयं चेति प्राकारत्रयमत्युज्जलं विलोकयन्ती विस्मिता व्यमृशत्-अहो ! का पुत्रः का वा जननी ? सर्वमिदं क्षणिकमेवास्ति यस्कृते रुदती २ अन्धाऽभूवम् । स तु सुपुत्रो भूत्वापि मे संदेशमात्रमपि न प्रैषीदत एनमसार संसार धिगस्तु । एकपश्चास्य रागेणाऽप्पलमित्य सद्भावनां भावयन्ती सा मरुदेवी गजारूढैवान्तकृत्केवलज्ञानमासाद्य मोक्षमध्यगच्छत् । तदैवेन्द्रस्वागत्य मरुदेवीत- धीरसागरे स्नापयित्वा संश्रके। पुनर्भरतपक्रिणा सहेन्द्रस्तत्र समवसरणे समागात्तत्र च प्रभुमभिवन्ध तदीयदेशनामृतं निपीय भरतचक्री वीतशोकोऽभवत् । अथ देशनान्ते श्रावकीय द्वादशवतं प्रविपद्य निजालयमागतवान् । सदनु चक्रस्याश्याडिक महोत्सवं प्रातयत, पूजान्ते च तक्षकं व्योम्नि पूर्वस्यां दिशि चचाल । ततश्चतुरङ्गवलमादाय प्रस्थितो भरतचक्री प्राच्यसागरतीरमागत्य तस्थिवास्तत्राप्यष्टमं तपो विदधे मागधतीर्थेशदेव च भृशं मातपान् । अथ रथारूढश्चक्री समुद्ररथनेमिनामिपर्यन्तं रथं स्थापयित्वा स्वनामांकित बागमेकं मुमोच । स चाटचत्वारिंशतक्रोशपर्यन्त मला सिंहासनेलगत्तमभितोऽभिमुगिरन्तमालोक्य देवश्रुकोप । तदा प्रधानोऽवदतु स्वामिन् ! बजमिदानी कोपाटोपेन, प्रथममेनं ।। नामांकित बाण पश्य स्वचोऽपि बलीयस एष प्रतिभाति । ततो देवो नाम वाचयिस्खा भरतश्चानसदिति विवेद। मय सान्तकोयो । देवोऽतिसारभवरलजातमुपायनमादाय तत्रागतो भरतचक्रिणं नमय प्राभृतांश्च वत्सारसत रत्नजावम् । तदनु हे सामिन् । एतावदिनमइमनाथ मास परमयाभूति सनायोभवम् । अथ चक्रवलिना तत्पूछे समोसा
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स्थानमगमत् । चक्रीवोष्टमतपसः पारणमकरोत् । अथोत्तरदक्षिणादिक्षु तमिस्रागद्दरद्वारमुद्याच्य
alt समरं विधाय air जिल्ला त्रिखण्डों महीं संसाध्य गङ्गातीरमागत्य तस्थौ । तत्र च वर्षसहस्रं स्थित्वा परावर्तमा चणि नवनिधयः प्रकटीभूवुः । तदर्थं चक्री तत्र महोत्सवं विततान तानि च नवनिधानानि द्वादशयोजनलंबितानि, नवयोजनो - विदेशिहद्वारे तिष्ठन्ति । परं तेषु पुरापि केचन न प्रविविशुर्न वा प्रवेष्टारः सन्ति । इत्थं तस्य चक्रिणः कनकरजतरत्नाकराणां विंशशिर सहस्रं विद्यते । पट्खण्डानां साम्राज्यमितोऽपि बहुधिकं जायते तादृशी प्रभुता तु कस्याऽपि न भवति । अष्टचत्वारिंशत्सहस्रं पाटणं, महानगराणि च द्विसप्ततिसहस्राणि सहस्राणां विंशतिः खेटक, एवं कर्वट - मण्डपद्रोणप्रमुख ग्रामाणां षष्णचतिकोटिरासीत् । तथा चतुरशीति २ लक्षप्रमाणं गजतुरगस्थं, षण्णवतिकोटिः पदातीनां पण्डितानां षष्टिसहस्रं, ध्वजिनां दशकोटिरभूत् । पंचलक्षाणि महादीपकधरा, लक्षाधिकद्विनवतिसहस्रं दाराणामासन् । देशानां द्वात्रिंशत्सहस्रं बभूव चै द्वात्रिंशत्सहस्रं मुकुटबद्वानां माण्डलिक भूपालानामादेशकारिणां ईदृशीं महतीमनन्यसाधारणां समृद्धिमापन भरतचक्रवर्ती सोऽयोध्यामागतवास्तत्र च द्वादशवर्षाणि महामहं प्रावर्तयस चिरं त्रिखण्डामिमां महीमन्वशात् । अथैकदा स चादर्शभवने सुखासीनो दिव्याम्बराभरणमण्डितात्मा तनुच्छचि पश्यन् भूषण विहीनामंगुलीभशोभनामवेदीत् । तदनु सर्वाभरणानि शरीरतोऽपनीय सर्वामपि पौली मायामर्थात् - शरीरमिदं यद्भूषणवसनादिना शोभते, तदनित्यमेवेति भावनां भावयामास । इत्थं भावयतस्तस्य कैवल्यमुदपद्यत, तत्रावसरे शासन देवता तस्मै साधुवेपमशेषं दतवती । तदनु स चक्री त्यक्तराज्यो दशसहस्रराजन्यैः सह विजहार । अथ महीं पावयन्
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DOESMALEKARE
भव्यजीवान् प्रतिबोधयन् पूर्णे चायुषि शाश्वतसुखप्रदा मुक्ति स्त्रियं भेजे । अहो ! भरतचक्रवर्ती त्वनित्यत्वभावनावलादेव सेष्टमसाधयत् । तथैवान्येऽप्यनित्यमसारश्च संसारं भावयन्तु, यस्मादात्महितं जायेत ।
५-अथाऽशरण २ भाषना-विषयेपरम पुरुष जेवा संहरे जे कृतान्ते, अचर शरण के लीजिये तेह अन्ते ।
प्रिय सुहद कुटुम्बा पास बैठा जिकोई, मरण समय राखे जीवने ते न कोई ।। १२॥ यदि महापुरुषास्तीर्थकरचक्रवर्तिप्रभृतयोऽपि यमराजेन सहसास्तीशः को द्वितीयो बोकालेस्मा शरणप्रदो भवेत् ? अपि तु न कोऽपीत्यर्थः । अपरश्चाऽन्तसमये भ्रातृ-पितृ-भात-मित्रादीनां संबन्धिनां पुरत एवायं संसारी जीवो गच्छत्येव भवभ्रमणार्थम, पर तत्काले न कोऽपि तस्य त्राता भवति । अतः सर्वानुगो धर्म एवाऽऽश्रयणीयस्तं मुक्त्वा शरणभूता नाज्या कापि गतिः ॥ १२॥
सुर-गण नर कोड़ी जे करे जास सेवा, मरण भय न छूटा तेह इन्द्रादि देवा ।
जगत जन हरतो एम जाणी अनाथी, व्रत प्राहिय विछ्टो जेड संसारमा यी ॥ १३ ॥ कोटिसंख्याकाः सुरगणाः नराश्च यानिन्द्रादिदेवान् सेवन्ते । सेऽपि मृत्योर्भयादमुक्का एव विगतमा Mall जीवानवश्यमेव संहरतीति विचिन्त्यानाथिमुनिः पश्चमहायतानि गृहीत्वा पालयित्वा चान्वे संसारसमदानिस्ततार कर
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अथाsशरण भावनोपरि- अनाथिमुनेः ८- कथा
स्थाय
यथा--कौशाम्ब्यां पुर्यां राज्ञस्तरुणः पुत्रो महारोगेण पीडितो जातः । महावैद्यास्तस्य चिकित्सां विमकुमा मनागपि तदुपमो नाभवत् । तस्मादुखार्ता रुवी शोचति । समीरस्था भगिनी जल्पति ह प्रातः ! निजवेदनां मे देहि, त्वं सुखी भव । परं मातृकल मित्रादयोऽपि सर्वे विफलप्रयत्ना जाताः कोऽपि तं नीरोगं विधातुं न शशाक । अथैकदा तन्मनसीविचार उत्पदे, यथा-धर्म एव सर्वेषां विपत्तौ शरणं भवति, धर्मं विना कोऽपि न त्रायते । अतो मयाऽपि स एव शरणी कर्त्तव्यः इति सुनिश्चित्य निशिः स सुवाष प्रभाते चोत्थितः स रोगमुक्तमात्मानं विलोक्य जहर्ष । राजकुमारं स्वस्थं विलोकयन्तः सर्वेऽपि जनाः प्रमोदमेदुरा अभूवन् । प्रवर्तमाने च मंगलवाये से राजकुमारः पंचमुष्टिञ्चनं विधायकत्रादिपरिवारैर्निवारितोऽपि जगाद - भोः परिवार ! समाकर्णय २ - भवत्सु सर्वेषु सत्स्वपि रोगातं मां सुखयितुं कोऽपि नैव प्रभूव । तर्हि एतावद्दिनानि भवत्सु कृतेन स्नेहेन किमभूत् ? धर्मे तु निशामं कामेय रागो जज्ञे, तत्फलमिदं जातम्, यच्चिरो
तोsपि रोगः क्षणादेव व्यन्नीयत । अतोऽदमद्यप्रभृति कृतधर्मशरण एनमसारसंसारं वर्तुकामो विहरामीति निगद्य ततो निजात्मसाधना निरगात् । किन्तं पन्थानमतिक्राम्य क्यचित्तरुमूले निषसाद, तावत्तत्र वीरप्रभुं वन्दित्वा तेनैव मार्गेण परावर्तमानः श्रेणिको राजा तमालोक्य गजादवतीर्य तं प्रणनाम जगाद च – हे मुने ! त्वमिदानीमवसरे तारुण्य त्रयस्कः कथं प्रत्रवजिथ ? यतो यो हि भुक्तभोगः प्रवजति स निर्विनं संयमं पालयति । तनिशम्य मुनिरूचे हे मगधेश ! अहमनाथ तथा साघुरभूवम् | तच्छ्रुत्वा राजा दध्यौ-नूनमेष कश्चिद्रंककुलजातोऽस्ति तत्राऽपि मातापित्रादिविहीनः यदुक्तमनाथवयेति । पुनस्तमूचे राजा - मुने !
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याति । पापीयांस्तु यावजीवमत्र यथा दुःखी जायते, क्या मृत्वाऽपि नारकी यातनामनेकविधा चिरै सहते । एष जीषोय. पञ्चाशदुत्तरशतप्रकृतिकानि कर्माणि सचिन्वन सुखदुःखे संक्ते । अतो हे जीवा ! धर्मेऽत्रा मा कुरुव, सादरं च धर्म सेवध्वम् । यत्सेवनतः क्षीणसकलकर्मोपाधिकाः यूयं मोक्षमाप्स्यथ । एषमनन्तचतुष्टयमाद-शानदर्शनाचारित्रवीर्याऽनन्त्यं सुखेन लप्स्पध्ये ।। असौ जीव एक एव याति, पुनरेकाक्येवायाति घेति विदित्वा मोहं त्यजत धर्मे च निश्चला मतिं कुरुत ॥ १६ ॥
ए एकलो जीव कुटुम्बयोग, सुखी दुस्खी ते तस विप्रयोगे।
स्त्रीहाय देखी चलयो अकेलो, नमी प्रबुद्धो तिण यी वहेलो ॥ १७ ॥ अहो ! चेतनोऽसौ धनकलत्रपुत्रमित्रादिसंयोगे सुखी माति, विप्रपोगे च तेषां बहुदुःखमुपैति । नमिराजो यथा-निजप्राणगरीयसीप्रेयसीकर पल्लवकंकणनिमित्तात्सय एव प्रतिवृद्धोऽभूत्पुरा तत्संयोगात्क्लेशमप्यन्वभूत् ॥ १७ ॥
अथैकत्वभावनोपरि नमिराजस्य १०-प्रबन्धःपुरा विदेहदेशे सुदर्शनपुरनगरे मणिरथनामा राजाऽभूत्तस्य च कनीयान् युगबाहुनामा बन्धुरासीत् । अस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसी प्रेयसी महारूपलावण्यवती शीलवती गुणवती मदनरेखानाम्नी भाऽसीत् । तस्यामनुरागी भवन् मणिरथो राजा दास्या तस्या अन्तिके प्रत्यहं सारसारवस्तुनि प्रेषितु लमा, सानि च पूज्यप्रेषितानि मत्वा सादरमाददानाऽऽमीन्मदनरेखाऽपि वेन निजोद्योग सफलं मन्यमानो नृपो मोदमावहन दासीमुखेन स्वाशयं तस्यै सुचितवान् । तदाकार्य प्रकृपिता सा वो दासी मृशं ।
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पदामि १ यत्र २ मोनावुत्पेदिरेऽमी जीवास्तत्र २ नानाविधसंचिताऽशुभकर्मविलासासंयोगवियोगादिबहुविधा दुःखसंततिमनुभवन्ति स्मेति विचार्य यः संसारमसारं त्यजति, धर्मश्चाश्रयति स ह सर्व सुखमश्नुते चान्ते मोक्षादिकमपि लभते ॥ १४ ॥ इन्द्रवजा-छन्दसि-जे हीन ते उत्तम जाति जाए, जे उच्च ते मध्यम जाति थाए ।
ज्यू मोक्ष मेतार्य मुनींद्र जाए, त्यूं मंगुसूरी पुरयक्ष थाए ॥१५॥ अहो । पिलिय यज हीनयोजाबुत्पन्ना दृश्यन्ते, ते भवान्तरे किलोत्तमजातिमधिगच्छन्ति । एवमुत्तमजातीया अपि मृत्या नीचजातो जायन्ते मेतार्यवन्मगुसरिखच्च ।।
अथ संसारभावनोपरि मङ्गसूरेः ९-प्रबन्धापुरा कश्चिन्मंगुनामा सूरिः पञ्चशतशिष्यैः सेवितो ज्ञानसागरः शुद्धसाध्वाचारप्रतिपालकः पञ्चममितिसुमण्डितः त्रिगुप्तिगुप्तः कदाचिदेकदा मथुरानगरीमगात्तत्रत्यसंघस्तं वंदितुमाययौ । तदीयदेशनामृतं निपीय समुल्लसितमनाः श्रीसंघः सपरिवार तमाचार्य महामईन नगरान्तरानीय निर्वाध उपाश्रये स्थापयामास । प्रत्यहं द्विसन्ध्यं भक्त्या सरसमाहारमभोजयत्। ततः क्रमेण स सूरी रसलोलुपो जातो निजात्मानश्च धन्यममन्यत । सथाहि-अहमिवाऽन्यः कोऽपि सरसमाहारमीदृर्श न लभते । यथा मृदुस्थूलास्तरणप्रावरणचन्द्रकयितानपाटपाटलादिसमृद्धिमानह तथा नान्यः कोऽप्यस्येत्रमिन्द्रियज सुखमपि स बहुशो विषेद । अथ रस-शाता-समृद्धिगौरवमिवः स गुरुः कुत्राप्यन्यत्र विहाँ नैच्छस् । तत्रैव तिष्ठन पूर्णे चायुपि कालं कृत्वा तस्मिन्नेव पुरे नदीतीरे यक्षो जछे । भय |
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वेन यक्षेनावधिज्ञानं प्रयुक्त, टेन पूर्वमवजातमशेष प्रधान्त विदितम् । यदहं मवाचार्यः संयमविराधनमकार्ष, तस्यापेन दुर्गतिमीदृशीमनुभवामि । देवगतिमनवाप्य हीनयक्षयोनाववतीर्णोऽस्मि । ततः स दध्यो-अहो ! मदोर्याशष्याणामपीदृश्येव गतिरुदेष्यति, इति हेतोस्ते प्रतिबोधनीयाः। अथैवं ध्यात्वा स्थण्डिलभूमि गच्छतां साधूनामग्रे स यक्षो दीर्घजिह्वामदर्शयत् । से जगदुः-मो! एवं किं करोषि ? यक्षणोक्तंभो मुनयः ! एतत्करणकारण निशम्यताम् । भवतामाचार्यो मंगुनामाझं जिह्वालौल्याद्यक्षजावो समु. त्यमोऽस्मि । अतोऽहं हितं वच्मि यरसत्वरमितो विहरन्तु भवन्तः । उपदेशमालायां यदुक्तम्पुरनिडमणे जक्खी, महुरा मंगू तहेव सुनिहसी। बोहेइ सुविहियजणं, विसोअङ्ग पहुं च हियाण ।।१।। निग्गंतूण घराओ, न कओ धम्मो मए जिणक्खाओ । इडिरससायगरुअ-तणेण न य घेइओ अप्पा ॥२॥ भय तेऽपीदृशं स्वधर्माचार्यसदुपदेश सन्धृत्य पञ्चशतसाधवस्तदैव ततो विजः ।
५-अथ ४ एकस्वभावमोपर्याहपुण्ये अकेलो जिय स्वर्ग जाये, पापे अकेलो जिय नर्क जाए ।
ए जीव जा आव करे अकेलो, ए जाणिने ते ममता महेलो ।। १६ ॥ एक एव जीवः पुष्पानि विदघदन सुखानि मुक्ते प्रान्ते च समाधिना मृत्वा देवीं संपचिमनुभवति । पुनरयमेव जीव & पापानि कर्माणि समाचरन दुःखमनुमयसि मृत्वा चाञ्चोगति लभते । अयमाशया-पुण्यवानास्मात्र सुखी भयमेकास्येव स्वर्ग |
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याति । पापीयस्तु यावज्जीवमत्र यथा दुःखी जायते, तथा मृत्वाऽपि नारक यातनामनेकविधां चिरं सहते । एष जीवोटपञ्चाशदुतरशतप्रकृतिकानि कर्माणि सञ्चिन्वन् सुखदुःखे भुंके । अतो हे जीवा ! धर्मेऽवशां मा कुरुत सादरं च धर्म सेवध्यम् । यत्संवनतः क्षीणसकलकर्मोपाधिकाः सूर्य मोक्षमाप्स्यथ । एवमनन्तचतुष्टयमर्थात् ज्ञानदर्शन चारित्रवीर्याऽनन्त्यं सुखेन लप्स्यध्ये । असौजी एक एव याति, पुनरेकाक्वायाति चेति विदित्वा मोहं त्यजत धर्मे व निश्वलां मर्ति कुरुत ॥ १६ ॥ ए एकलो जीव कुटुम्बयोगे, सुख दुखी ते तस विप्रयोगे ।
स्त्रीहाय देखी वलयो अकेलो, नमी प्रबुद्धो तिण थी वहेलो || १७ ॥
अहो ! चेतनोऽसौ नकलत्रपुत्रमित्रादिसंयोगे सुखी भवति विप्रयोगे च तेषां बहुदुःखमुपैति । ननिराजो कथा - निजप्राणगरीयसीसीकर पल्लव कंकणनिमित्तात्सद्य एव प्रतिबुद्धोऽभूत्पुरा तत्संयोगात्क्लेशमप्यन्वभूत् ॥ १७ ॥
अयैकत्व भावनोपरि नमिराजस्य १० - प्रबन्धः
पुरा त्रिदेहदेशे सुदर्शनपुरनगरे मणिरथनामा राजाऽभूत्तस्य च कनीयान युगबाहनामा बन्धुरासीत् । अस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसी प्रेयसी महारूपलावण्यवती शीलवती गुणरती मदनरेखानाम्नी भाऽऽसीत् । तस्यामनुरागी मत्रन मणिरथो राजा दास्था तस्था अन्तिके प्रत्यहं सारसारवस्तृनि प्रेषितुं लगः, तानि च पूज्यप्रेषितानि मत्वा सादरमाददानाऽऽसीन्मदनरेखाऽपि तेन निजोद्योगं सफलं मन्यमानो नृपो नोदमावहन दासीमुखेन स्वायं तस्यै सूचितवान् । तदाकार्य प्रकुपिता सा तां दास भृशं
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भर्त्सयन्ती जगाद - अरे दासि ! राजा मे पूज्यो ज्येष्ठो लगति । अहं हि तस्य आढवधूः पुत्रीकल्पामि स कदाचिदपि गर्हित-मीशं मां नैव भाषेत | सत्यमेतन्न प्रत्येमि, अन्यदप्याकर्णय यथा सूर्यः प्राची हित्वा प्रतीच्या नोदेति, यथा वा शीतांशुरमिकणान्न वर्षात, सागरो वा यथा मर्यादां न त्यजति तथा शीलशालिनी कामिनी परं नरं स्वप्नेऽपि नैव वाञ्छति । इति मदनरेखोदितं सा दासी मणिरथज्येष्ठमवादीत् । ततो दुधः स एवं दध्यौ - यदियं युगबाहौ जीवति सति मय्यनुरागिणी न भवितुमर्हति अतोऽयं बन्धुर्येन केनोपायेन हन्तव्य इति निर्णीतधान् । पुनरेकदा रात्रौ सभाय युगबाहुः केल्विने समागत्य सुष्वाप । अथैतत्स्वरूपं चरमुत्रादवगत्य स दुर्घीरवसरं प्रतीक्षमाण एकाकी गाढान्धकारवत्यां रात्रौ तत्राऽऽगतवान् । तत्र रक्षकेण पृष्टः - कस्त्वम् १ कुत इदानीमनवसरेऽत्रागतोऽसि ? तेनोक्तं- अहं मणिरथो राजाऽस्मि । कुतोऽप्यागतं भयमालोक्यास्त्र बन्धोरन्तिकमागतोऽस्मि तदुक्तं सत्यं मन्यमानेन रक्षकेण मुक्तः स तत्समीपमागत्य तस्थौ । तदानीं मदनरेखा तमागतं ज्येष्ठं त्रिलोक्य पल्यङ्कादुत्तीर्य दूरमा - गत्य तस्थौ । तदैव दुरात्मा खड्ग कोपादाकृष्य निजबन्धोः शिरोऽच्छेत्सीत् आक्रुष्टवांश्व - भो भोः सेवका ! उत्तिष्ठोत्तिष्ठत, मम पाणेरकस्मात्पतितेन खड्गेन बन्धुर्हिसितः । इति निशम्य तत्रागताः सर्वे लोका एवं विदितवन्तो यदनेनैव दुरात्मना विषयलुब्धेन बन्धुरसौ निहतः । अथ सेवकेन निष्कासितो मणिरथो मार्गे गच्छन् कृष्णसर्पेण संदष्टो मृत्वा नरकमाप अहो ! अत्युत्कर्ट पा तत्कालमेव फलितं तस्य दुर्धियो मणिरथस्य । प्रभाते तत्सर्वं नगरवासिनो विविदुः । अथ पितरं स्थावस्थ माकलय्य तत्पुत्रचन्द्रपशा राजकुमारस्तत्कालमेव भिपम्बराना कार्य तचिकित्सा प्रारेमे । परं सहस्रशो विहितेष्वप्युपचारेषु मनागपि फलं नाऽभूत् । अथ तदास मृत्युं ज्ञात्वा तस्य श्रेयसे धर्मकृत्यमेव कर्तुं युज्यत इति विमृशन्ती मदनरेखा कथन्किद्वैमालम्ब्य तत्कर्णे मुर्ख निधा
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पंचपरमेष्ठिनमस्कारमन्त्रादिपुण्यगाथाः श्रावयामास कथितश्च स्वामिन्! कुत्राऽपि द्वेषभावं मागाः, यदा संसारे कोsपि कस्याsपि नास्ति । न त्वमसि कस्यापि तथा न तेऽस्ति कोऽपि इति स्वान्ते भूयो भूयो विभावय । अथाईन्तः सिद्धाः साधवो धर्मं चत्वारस्ते शरणं भवन्तु तथा पंचपरमेष्ठिनां ध्यानं विधेहि व्रतादिकं प्रत्याख्याहि । इत्थं मदनरेखासद्वचनेन समाधिना मृतो युगबाडुः पञ्चमं ब्रह्मदेवलोकमा | सदा मदनरेखा शुशोच, अहो ! मदर्थमेव मत्पत्युर्मरणममवदतो मे गृहवासः श्रेयस्करो न प्रतिमाति । मयेि सति कदाचिन्मत्पुत्रस्य चन्द्रयशसोऽपि कष्टमापत्स्यते इति विमृशन्ती गर्भवत्यपि सा मदनरेखा निजसदनं नाच्छन् । तवः लीना देशाविन्येव वर्तमानसहाया काननं प्रस्थितवती मार्गे च कस्यचिद्रम्बसरसस्तीरे कदलीवनं सघनमद्राक्षीत्, तावत्तम्याः कुक्षौ प्रसववेदना समुदपयत, ततस्तत्रैव सा पुत्रमजीजनत् । तदनु पुत्रपाणौ मुद्रिकां दत्त्वा स्वरम्बले शाययित्वा सरस्तीरे गात्रशोधनार्थमागता । तत्राऽवसरे कश्चिद्दन्ती शुण्डादण्डेन सहसा तामाकृष्योन्निन्ये । परं शीलप्रभावादुपर्येव कश्चिद्विद्याधरः स्वीयविमानमारोहयत् । तामतिसुन्दरीमालोक्य कामुकीभूव तां रतिमयाचत । तत्र समये सत्या, पृष्टं भो महापुरुष ! कुत्र गच्छति भवान् तेनोक्तं-मम पिता विद्याधरो गृहीतचारित्रो नन्दीश्वरद्वीपे वर्तते तद्वन्दनायै तत्रैव गच्छामि । तच्छ्रुत्वा तया चिन्तितं यदनेन सह गमनेन शाश्वतं चैत्यमपि द्रक्ष्यामीति मे परं लाभ एव महानिति विचिन्त्य सावक्-भो ! ममेकदा पुत्रदिक्षा जागर्ति | अथ विद्याधरोऽवक - हे सुभगे ! मिथिलानगर्वाः पत्ररथो नाम राजाऽस्ति परमस्य पुत्रो नास्ति सोऽधुना जविना तुरगेणाऽश्रानीतस्तं शिशुं जातमात्रमालोक्य हृष्टस्तमुत्थाप्य गृहमागत्य पत्न्यै समर्पयत् । तौ च पुत्रपालयत इत्याकर्ण्य सा जहर्ष यत्पुत्रो मे कुशली वर्तते । अथ विद्याधरस्वामवदत् - हे सुभ्रू ! मम चेतस्त्वथि नितरां रागि जात
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मतो मदम्यर्धनं स्वीकुरु । तयोक्तम्- प्रथमं नन्दीश्वरद्वीपं मां नय । तत्र गत्वा त्वदुदित श्रोष्यामि ते कथनं करिष्यामि च । तस्या एतद्वचनमाकर्ण्य मनसि स दध्यौ यमधुना मम करतलतो न मोक्ष्यते । इत्यवधार्य वेगेन विमानं नन्दीश्वरद्वीपे समानयत् । तत्रागता मदनरेखा प्रथमं चैत्यमध्ये सकलं शाश्वतविम्बं समर्चितवती । यथामति सचैत्यवन्दनस्तवन स्तुत्यादि विधाय वहिरुपविष्टं विद्याधरमुनिमभिवन्द्य स्वोचितस्थान के निषसाद । अथावधिज्ञानेन साधुर्बुबुधे यदियं शीलवती दुर्धियाऽनेनात्राऽनीताऽस्ति अतो मया तथोपदेष्टया दुर्कीः युधत । साधुपदिष्टवान् तं श्रुत्वा विद्यावरः प्रतिबोधमाप । तदनु सा तमपृच्छत्-भगवन् ! नम पुत्रं केन हेतुना पद्मरथो राजा निन्ये । तेन सह तस्य जन्मान्तरीयोऽस्ति कोऽपि संवन्धः १ साधुर्जगाद - वत्से ! पद्मरथो हि जन्मान्तरीयमोहात्तव पुत्रं गृहीत्वा पुत्रीचकार । इतश्च मदनरेखा पतिर्युगबाहुः पंचमे ब्रह्मदेवलोके समुत्पदे । तत्र च देव्यो जयजयारावं विदधत्यस्तमप्राक्षुः - भोः ! त्वया कीदृशं सुकृतं कृतं यदस्मिन् देवलोके समुत्पेदिषे । अथैतत्प्रसंगे स पूर्वमवजातवृत्तमशेषमवयुद्ध तां मदनरेखां निजत्रीं नंदीश्वरद्वीपे समागतामबोधत् । इति तदैव युगवार्देवस्तत्रागत्य प्रथमं मदन रेखामवन्दत, ततः साधुम् । अत्रावसरे विपरीतं विलोकयन् स विद्याधरोऽवक् भो देव ! स्वयैतदयुक्तं कथमाचरितं १ यद्गुरोः प्रथम मिय स्त्री वन्दिता । देवेनोक्तं- इयं मे धर्मगुरुरस्ति, अत एनामभिवन्द्य गुरुवन्दनामकार्षम् । अथ देवस्तामवदत् - अहं स्वया बहुपतोऽस्मि, नवोऽहं कथयामि किमप्यादिशतु भवती । साव-भो देव ! अन्यस्य कस्यापीच्छा मे नास्ति, किन्तु यत्र मे पुत्रोऽस्ति तत्र भां नय । अथ सा गुरुवंदनं विधाय तेनाऽप्ता विद्याधरस्याऽनुज्ञामयाचत । तदनु स देवस्तामुत्पाट्य तत्र मिथिलापुरे समागतस्तत्र च तामापृच्छय देवो निजस्थानमानात् । मदनरेखा व तत्र साध्वीसमीपे दीक्षां ललो, पंचमहाव्रतानि
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यथावत्पालयति । इतश्च पास्थी राजा पुत्रस्य तस्य नामकुमार इति नाम चक्र | अथ युवानं सकलकलावन्तं नमिछुमारं राज्येडभिषिच्य स्वयं धर्मध्याने लग्नः । अथैकदा तस्य नमिराजस्य पट्टहस्ती सहसालानस्तम्भमुन्मूल्य यत्र तत्र धावन् सुर्दशनपुरमागात् । तं महागजं विलोक्य मणिरथराजसिंहासनासीनो मदनरेखातनयश्चन्द्रयशा नृपः स्त्रीयाडलानस्तम्मेऽपनात् । तच्छ्रुत्वा नमिराजस्तदन्तिके दूतं प्राहिणोत्तन्मुखेनाचीकथच्च-भोश्चन्द्रपशो राजन् ! मम हस्तिनं देहि। अथ दूत आगत्य तस्मै सर्वमवोचत । परं चन्द्रयशसोक्तम्-मो दूत ! अहं तद्गृहाभानीतवान्, किन्वागतमेवाऽगृणाम् । अत्र को मे दोषः ? अतस्त्वं गत्वा कथय, यद्वीरभोग्या वसुन्धरेति । अथ तता समागतो दूतस्तदुक्तं सर्व नमिनृपं व्यजिनपत् । तच्छत्वा कोपोद्भुतभुकुटिभीषणश्चतुरंगसैन्यमादाय सुदर्शनपुरसरिसरमागत्य स तस्थिवान् । चन्द्रपशा अपि निजचसहितस्तदमिमुखमागते दलद्वयसैन्यमेकत्र योद्धं तस्थौ तदनु मिथो युद्धं प्रवधृते । अत्रान्तरे तदेतत्सर्व ज्ञानेन ज्ञात्वा मदनरेखा साध्वी चिचिन्त अहो । उभौ भ्रातरौ युयुधाते,
अत उभौ प्रतिबोध्य यदि वारयामि सहि वर, नो चेदसंख्यजीवनाशो भविष्यति । अथ सा निजगुर्वी सार्वी तत्र स्वगन्तुमभ्यार्थयत् । 5. सावक्-त्वं तत्र गत्वा तौ कथं चारयिष्यसि ? तयोक्तं हे गुर्वि ! उमावपि ममैव पुत्रौ स्तस्ततस्तां तत्र गन्तुमनुज्ञां ददौ । तदनु
मदनरेखा साध्वी नमिराजान्तिकमागत्य तस्थौ। तां विलोक्य नृपोऽनदव-अयि गुर्वि ! अद्य ते महती कृपा जाता यदत्रागत्य दर्शनं दत्तवती । तयोक्तं-राजन् ! केन सह युद्धथसे ! तेनोक्तम्-वैरिणा । पुनः सावक-हे वत्स ! स ते वैरी नास्ति किन्तु सोदरोऽस्ति । अत्रान्तरे सकलमामूलं धृत्तान्त सा तं राजाने निबोधयामास । अथैतच्छुत्ता नमिनोक्तं-मातः ! तकादेशं चिकीर्षामि परमेतत्स्व
नए
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रूपं वमपि ज्ञापय । यतो मानिनो नृपा मान प्राणतोऽप्यधिक मन्यन्ते । अथ तत उस्थाय सा नगरमागच्छन्ती सर्वैरमिवन्दिता, समुपलक्षिता सती चन्द्रयशसमवादीत-हे पुत्र ! पुराणमासमप्रसवा तब पितऍपरते काननमगाम् । तत्र में पुत्रो जाता, स एवायं नामिनामा राजाऽभूत् । अतस्तेन सहोदरेण सह वैरं त्यज भवतोः सोदर्ययोमिथो वैरमोचनायैवावागतास्मि । मथ तदैव समुत्थाय प्रेम्णा सह निजबन्धु मिलितु पचाल, तदुदन्तं निशम्य नमिरपि ज्येष्ठबन्धुं मत्वा ततोप्यधिकवेगेन तदमिमुखमागत्य चन्द्रयशसं राजानं प्राणमत, क्षमयामास च निजकृतागसम् । अथ तौ मिथो बन्धुभावमापो सुखिनावभूताम् । ततश्च सोत्सवं नमिराजानं स नगरं प्रावेशयत्, पुनस्तदानीमेव तं नमिनृप निजराज्यसिंहासने समारोप्य सर्व राज्यादिकमदात् । ततश्चन्द्रयशानृपस्त सहस्रकन्याः परिणाययाञ्चके । अथ कियत्समयानन्तरं नमिनृपस्य दाहज्वरः प्रादुरासीत् । तच्छान्त्यै कृतोपचारा: सर्वेऽपि भिषग्वरा विफला अभूवन् । ततस्ते मलयजवन्दनमुपचारितवन्तः। तदनु सहस्रस्त्रियस्तदर्थ चन्दनं बर्षितुमलगन् । परमासां | घर्षणकाले समुत्पभो यः कंकणध्वनिस्तेन विदूयमानो राजा ता अवोचत्-हे त्रिय ! भवत्यस्तु ममोपकाराय चेष्टन्ते, परमनेन कंकणरवेण केवलमुसाप एव मे जायते । तच्छ्रुत्वा ता बलयानि निरास्यन् । केवलमेकैकमेव वलयं दधानाचन्दनं जघृषुः । तत्रावसरे चलयध्वनिमशृण्वन पुनरूचे नमिः । हे स्त्रियः १ चन्दनं कुतो न घृष्यते ता ऊचिरे-हे नाथ ! वयन्तु घर्षाम एव । सोचक्
कंकणारवः किमिति न श्रयते? ता जगदः-नाथ तेन घनिना भवतः कुशमालोक्याऽस्माभिस्तदेकैकमेव त्रियते, इतराणि च बहिश्चक्रिरे । तदाकर्ण्य नमिरचिन्तयस-यदेकाक्येव सुखी भवति बहुत्वे तु नूनमुपाधिरेव जायते । इत्थमेकर्व विभावयतस्तस्प नमिराजस्य रोगो व्यलीयत। प्रभाते नदसु मंगलवायेषु सहर्ष चारित्रं गृहीत्वा नमिराजा काननमगात् । तत्र च सौधर्मेन्द्रो
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| द्विजरूपेण समागत्य बहुधा तस्य परीक्षा विधाय भावनाशुद्धिमालोक्प निजस्थानमागात् । अथ नमिराजर्षिश्चारित्रं परिपालयन् सोमव्यान् प्रतिबोधयन् स्वायुः पूर्णाकृत्य मोक्षमीयिवान् । एपमन्येऽपि भव्यजीका एकत्वभावनया प्रतिबुद्धय नमिराजरच्छित्रसुखं यान्तु ।
५-अथ ५-अन्यत्वभावनां विशिनष्टिजो आपणो देव ज ए न होई, तो अन्य क्युं आपण मित्त कोई ।।
जे सर्व ते अन्य इहां भणीजे, केहो तिहां हर्ष विषाद कीजे ॥१८॥ भो भव्यजीवा! यदिदं शरीरं स्वीयधिया सरसाहारादिना परिपुष्णीथ, तदपि पर्यवसाने भवतो मुञ्चत्पेव, अत्रैव च भस्मीभवति । | त्वया सहः नैक पाति तहि कथमितरे स्त्रीया भवितुमर्हन्ति । ये पुनः पुत्रमित्रकलादयः परिवारमते तु सुतरामन्य एव दृश्यन्ते । एवं यथार्थतत्त्वविमर्श तव कोऽयात्मीयो नास्ति । स्वमपि कस्थाऽप्यारमीयो नैय भवसि । इत्थमुदासीनतया संसारे तिष्ठतस्ते। कस्यापि कृते हर्षशोको न विधेयौ ॥ १८ ॥
देहादि जे जीव थकी अनेरा, श्यां दुःख कीजे तस नाश करां ।।
ते जाणिने याणि सुप्रषोघी, सुकोशले स्वांग न सार कीधी-।। १९ ॥ विश्वेदः शरीरमपि जीवाशिममेहास्ति शरीरमाचे जीवोऽन्यत्र याति । बहि तस्मिन् वियुक्ते सति कथं त्वं विषीदसि इति निबिन्धन व्यापी प्रतिपोध्य सुकोशसमुनिरात्महितं व्यधत ।। १९ ।।
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५- अथ ६ - अबिभावनाय
काया महा एक अशुचिताई, सिंहां नवद्वार वहे सदाई ।
कस्तूरि कर्पूर सुद्रव्य सोई, ते काय-संयोग मलीन होई ॥। २० ।।
मोः प्राणिनः ! यदिदं शरीरं वहिः सुन्दराकारं दृश्यते, तदशुद्धं वित्त । तथाहि पुंसां शरीरेषु नवद्वारेभ्यः सदैव कफपित्तादिमलानि क्षरन्ति । खीणान्तु द्वादशच्छिंद्राणि सन्ति तेभ्यः सर्वदाऽशुचिमलानि स्त्रवन्ति । किञ्चैतच्छरीरयोगादुत्तमाः सुरभिपदार्थाः कस्तूर्यादयोऽपि मालिन्यमशुचित्वश्च लभन्ते । अहो ! यत्संसर्गवशाभिर्मला अपि मलतां यान्ति । ततोऽविकमशुचि किं स्यात १ शरीरमेवेद साहमस्ति || २० ||
अशुचि देही नर नारि केरी, म रावजे ए मलमूत्र सेरी ।
ए कारमी देव असार देखी, चतुर्थ चक्री पण ते उखी ॥ २१ ॥
अन्यच - स्त्रीपुंसयोः शरीरं मलमूत्राद्याकीर्णतया तत्त्वविदां मनःप्रीतिकरं न भवति । किन्तु य अज्ञास्त एवाञ्च शरीरे राज्यन्ति । इदमसारं ज्ञात्वा सनत्कुमारब्धकी, धनगृहशरीरादिममतां विहाय संसारं त्यक्तवान् ॥ २१ ॥
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एतच्छरीरमशुचि:मस्या तन्ममत्वं विद्वास प्रब्रजितस्य सनत्कुमारचक्रिणः ११-कथा
पुरा- चतुर्थः सनत्कुमार चक्रवर्ती महारूपवान् बभूव । स च प्राग्जन्मनि धर्मनामा श्रेष्ठी निरतिचारं संयमं परिपाल्यः प्रान्ते
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लकलाकर
देवी संपत्तिमाप्तवान् । तत्र सुधिरं सुखमनुभ्य ततश्युत्वा चक्रवर्तित्वमापनोऽस्ति । अबैंकदा सभासीनः सौधर्मेन्द्र एतपातिशय । प्रशंस । यथा-सनत्कुमारचकी निरुपमरूपवानस्ति, सयाम्भ्यः कोवि नास्तासि सहमानौ देवो तदैवोत्थाय विचार्य ष | जामणरूपेण तदन्तिकमाजग्मतुः । तत्रावसरे स्नानागारे स्नानपीठिकोपर्युपविष्ट वेषेण तं साधारण विलोक्यापि तौ देवौ शिरो दुधुवतुः । तदद्भुतरूपावलोकनेन विचारसागरे पतितौ तौ चक्री जगाद-मो विप्रो ! युवां किं पश्यथः ! तावूचतु:-मवदद्भुतं रूपम् ।
राजाध्यक्-भो ! इदानीममण्डितस्य मम रूप किमीक्षेथे । यदाई स्नानानुलिप्तो दिव्वैरामरणैर्वच विभूषितच्छत्रचामरादिसहितः || सिंहासनासीनो भवानि तदा मे रूपं विलोकनीयं । तच्छुत्वा वो मनसि जगदत:-अहो ! वपरीत्य कथं दृश्यते ? यदसौ ।
स्वमुखेनैव स्वस्य रूप वर्णयति महतान्तु नेयं रीतिः। ततस्तो जगदतुः-चक्रिन् ! इदानीमावां बजावः, पुनरागत्य द्रक्ष्यावस्वे शरीरशोमामित्युदीर्य तौ जग्मतुः । चक्रवर्त्यपि कृतनित्यक्रियो वस्त्राभरणादिसन्धितसनुः सिंहासनासीनोऽभवत् । तत्रावसरे पुनस्तौ देवो समागत्य चक्रवर्तिरूपमत्यद्भुतं वीक्ष्य शिरः कम्पनं विदधाते । राजा वक्ति कि भोः ! प्रामिवाऽधुनाऽपि युवाभ्यां शिरः कम्पितम् । तत्र को हेतुः १ तत्तथ्यं असं ती कथयतः-महाराज ! तदा ते रूपममृतमयं विलोकितम्, अधुना तु विषमयं दृश्यते ।। राजा बक्ति कथं ? कोय प्रत्ययः! तौ वदतः-पदि न प्रत्येपि वहि ताम्बूलं चर्बयित्वा ष्ठीवतु । तत्रोपविष्टा मक्षिका तदन्ननेन | तत्काल यदि म्रियेत तईि मदुक्तं सत्यमवगन्तव्यम् । राजन् ! मादृशां ज्योतिर्विदां देवानाच गीः कदापि मुधान भवति । सभ्यं वमि तबाङ्गे वैकृत्यमागतम् । अथ चक्री तदेव वाम्बूलं ष्ठीषित्वा तद्भक्षणान्मक्षिकामरगमालोक्य तमाषितं तथ्यममस्त । इत्थ संजावप्रतिषोधः स चक्री षट्खण्डामिमा महीं विहाय सर्पः कावुकमिव राज्यादिकं सकलं परित्यज्य चारित्रमादाप शात्रिंशत्सहस्त्र
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राजभिस्तथा सुनन्दाप्रमुखप्रमदाभित्र बहुधा निवारितोऽपि सर्वमप्युपेक्ष्य गृहाभिरगात् । षण्मासपर्यन्तं ते सर्वे लोकास्तमन्वगुः । पश्चाचं विरागिणं मत्वा निराशाः परावर्तन्त, अथास्य साधोः सप्तशतवर्षाणि यावन्महारोगस्तस्थिवान्, तमपि स शान्तमनाः सेहे । तस्मिन्समये देवास्तत्परीक्षाकृते वैद्यरूपेण तदन्तिकमगुः । साधुना पृष्टं भवन्तः के सन्ति ? किमर्थश्चात्रागताः सन्ति ये जगदुःवयं वैद्याः, भक्त ईदृशं जावं रोगं श्रुत्वा तचिकित्सार्थमागताः स्मः । साधुवदत्-भो ! भवन्तः कर्मरोगमपि चिकित्सितुं जानन्ति ? उत शारीरिकं रोगमेव । तैरुक्तम् - महाराज ! कर्मरोग प्रतिकर्तुमस्माकं शक्तिर्नास्ति । तत्रावसरे स मुनिरंगुल्या कर्फ निःसार्य यो दर्शितवान् । ते साक्षात्कुन्दभित्र निर्मलं सुरभि सुवर्णमपश्यन् । पुनरुक्तं मुनिना भोः ! ममेदृशी शक्तिर्विद्यते तथापि शरीरेऽस्मिनश्वरेऽशुविमये समुत्यनेन नानाविधरोगेण जीवस्य मनागपि दुःखं न जायते । किञ्च येन यादृशं कर्मसंचित, तत्फलं तेन भोक्तव्यमेव । तत्र का परिवेदना १ अन्यच बाह्योपचारैरान्तरो रोगो नैव शाम्यति । एवं तदीयां दृढभावनां चारित्रस्थैर्यश्व विदित्वा तं संस्तुत्य वन्दित्वा ते देवा निजस्थानं ययुः । स मुनिस्तु चारित्रं परिपाल्य स्वष्टमसाधयत् । इत्थं सनत्कुमारमुनिरिव यः कोऽप्यन्यः शरीरमशुचि भावयन् संसारमसारं हास्यति । सोऽपि सनत्कुमार इव शिवपदमवश्यमेष्यति ॥
५-अथ ७-आश्रवभावनायामाह
इद्द अविरति मिथ्या योग पापादि साधे, इण उण भव जीवा आश्रवे कर्म बांधे । करम जनक जे ते आश्रवा जे न रुंधे, समर समर आत्मा संवरी सो प्रबुद्धे ॥ २२ ॥
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अविरतिदिशाामोउनमा कमाया पंचधा मिथ्यारणे, शिवा योमः, एतान्याभवशाराणि भवन्ति । तैरसो जीवः । ID कर्माणि नध्नाति, वानि जित्वा पुनरसो कर्मापनयन समावबान संतो भवति शावादियुत बोधियोजशाम्युपैति ॥ २२ ॥
इन्द्रवमानन्दसि-... जे कुंडरीके व्रत डि दीधु, भाई तणुं ते बलि राज्य ली ।
से दुःख पाम्पा मरकं पणेरा, ते हेतु ए आश्रय दोष केरा ।। २३ ।। । पुरा कश्चन कुण्डरीकनामा राजर्षितं त्यक्त्वा भातू राज्यमगृहासेम नारकी यातना महर्ती स प्राप्तवान् । अतः श्रेयोऽपिमिराश्रवस्त्याज्या ॥ २३ ॥
आश्रयदोषानरकमितस्य कुण्डरीकस्य १२-प्रयन्धा--- यथा-महाविदेहक्षेत्रे पुण्डरीकिणीपुर्यो कुण्डरीकपुण्डरीकनामानौ भ्रातरौ राज्यं बुझजाते । अत्रान्तरे तत्र कान ज्ञानी गुरुरामासदीयदेशनां निशम्य संजातप्रतिमोधः कुण्डरीको राज्यं पुण्डरीकाय दना दीक्षा ललौं । स सरसनीरसमाहारं कुर्वन् । महारोगग्रस्तोऽभूत् । ततः परिणाममपश्यन् वर्षसहस्त्रं चारित्रं परियारपाऽपि कर्मपायल्पतः स संयम जहाँ । अथ गृहे स्थातृमिच्छया गृहन्तिकेशोकवाटिकापी धर्मध्वजं मुखवसञ्चालम्थ्य, शोषितुं लन्नो यदसौबन्धुर्मे राज्यं दास्यति न वेति विमृशंस्वस्थौ । वायसत्र कुतोऽपि कार्यप्रसंगात्समागता पुण्डरीकम्तमुपलक्ष्य प्रणम्य चागमनकारणमपृच्छत् । तत्र समये कुण्डरीका सर्व मनोगतमुदत
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दा- पुण्डरीकस्तस्मैः राज्यं दच्या गृहमानयत्पर सामन्तादयः केऽपि तं नोपासत । किन्तु घिगेनं यो हि सहस्त्रवर्षाणि 'संयमे स्थित्वा पुना राज्यं बुझते, ततः केनाप्यस्यान्तिकं न गन्तव्यं नासौ सेवनीय इति सर्वैर्निश्चितम् । अथैका इण्डरीको यथेच्छप्सरसं गरिष्ठाहारं विधाय रात्री कविवारमया व आता, इत्थं नानादुःखैर्भृशमाकुलमपि तं कोsपि किञ्चिदपि नोपचचार । तत्रावसरे मनसि दुर्व्यायति यद्यहं शुभस्वास्थ्यं लप्स्ये तर्हि प्रगे सर्वानेव भृत्यान् प्रधानादच शिक्षयिष्ये । इत्यं दुर्ध्यानेन चासमाधिना श्रुत्वा स कुण्डरीकः सप्तमं नरकमगमत् । तत्र चाडप्रतिष्ठाननामकं नरकाचा समासाद्य श्रयत्रिशतकोटिसागरोपमायुष्कोऽमृत इत्थं कुण्डरीकस्याश्रवद्वारप्रभावत ईशी दुर्गतिर्जाता । अतः श्रेयोऽर्थिभिः सर्वैराश्रवद्वारो रोद्धव्यः, संवरथैषामाश्रवाणां यत्नेन विधातव्यः ।
५- अथ ८ - संचरभावनामाह
जे सर्वथा आश्रयने हटावे, तं संवरी संवर भाव पावे ।
ते भाव वन्दो गुरु वज्रस्वामी, जेणे श्रिया कंचन कोड़ि वामी ॥ २४ ॥
यो हि सर्वथा तान्याश्रवस्थानानि निवारयति संवरश्व समाश्रयति स एव प्राणी सदैव सुखी जायते वज्रस्वामीव । यथासमुनिवर्यः कोटिदीनारान महारूपवर्ती वरुणीमनुरागिणीमीदृशी कामिनीश्व त्यक्तवान् समादत्तषांश्च परं संवरं । तेन स सर्वैर्वन्दनीयो: मूर्द्धन्यश्चात्सर्वेषामिति ॥ २४ ॥
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संवरं भजमानस्य वनस्वामिनः १३-प्रयन्य:यथा-पाटलीपुरनगरे निवसतो धनावहमहेभ्यस्य महारूपवती रुक्मिणीनाम्नी कन्या वज्रस्वामिनो देशनामाकर्ण्य तद्रपेण विमोहिता निजसदनमागत्य मातापितरावेवमवादीत-हे पितरौ ! अहमनेन देहेन वज्रस्वामिनमेव वरिष्ये, नान्यं भर्तारं विधित्सामि । ताभ्यामुक्त-हे वत्से ! स त्यागी वर्तते तस्माचां न परिणेष्यति । अनेनाश्रवद्वार सकले प्रत्याख्यातमतः कोऽप्यन्यो गुणवान् वरो वरणीयः । इत्थं बहुधा प्रतिबोधिताऽपि यदा सा न बुबुधे तदा धनावहः श्रेष्ठी कोटिदीनारॉब्लात्वा रुक्मिणी पुरस्कृत्योपाश्रयमागत्य वज्रस्वामिनमवदत्-महाराज ! एतान् कोटिदीनारान गृहाण मम पुत्रीमिमां परिणीयाऽनुगृहाण चेत्युदीर्य कन्यां दीनारांश्च तत्रैव मुक्त्वा निजसदनमाययो । तदनु तथा कन्यया वनस्वामिनं चालयितुं कृतेष्वपि शतश उपायेषु मेरू शिखरमिवाऽचलमवगत्य प्रतियुद्धा सती पितदत्त दीनारादिसर्व सप्तक्षेत्रेषु विभज्य प्रव्रजिता सा कन्याऽऽत्मसाधनतत्परा जाता ।
अथ पुनः संचरद्वारमाद्रियमाणस्य पुण्डरीकस्य १४--प्रबन्धःपुरा संयममार्गात्परिभ्रष्टः कुण्डरीको मुनी रजोहरमुखवसनादि कुत्रचित्तरावाललम्बे । पुनः कुण्डरीके राज्यासनमाप पुण्डरीकस्तदा धर्मध्वजादि तदुपकरणमादाय गुर्वन्तिकं गत्वैव मयाऽनोदकं ग्राह्यमिति नियममङ्गीकृत्य ततश्चचाल मार्गे च पादचारिणस्तस्य कंटकादिविद्धाभ्यां पद्भ्यां स्क्ते निर्गच्छत्यपि मनागपि संबरमत्यजन्नने गच्छस्तृतीये दिवसे कालं कृत्वा सर्वार्थ| सिद्धविमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुष्को देवोऽभूत् । अतो पमि-संवरे महाँल्लाभोऽस्ति, अबोसौ सर्वैरादर्तव्यः ॥
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५-अथ ९-निर्जराभावनामाहदुअदश तप भेद कर्म ए निर्जराए, उत्तपति थिति नाशे लोक भाषा भराए ।
दुरलभ जग बोधी दुर्लभा धर्म बुछि, भव हरणि विभावो भावना एह शुद्धि ।। २५ ॥ कस्य निर्जरा समुदेति यो हि षड्धा बाह्य, तावदेवाऽभ्यन्तरश्च तपः करोति, इत्थं हादशविधतपः करणेन या सश्चि- 13 || तानि कर्माणि क्षपयति यस्याग्रे च कर्माणि नोत्पद्यन्ते तस्य पुंसो निर्जरा जायते । अनयैव भव्याः सद्बोधिषी लभन्ते, lit भवन निस्तरन्ति ॥ २५ ॥ उपजाति-वृत्तम्-धे निर्जराऽकाम सकाम तेही, अकाम जे ते मरुदेवि जेही।
जे ज्ञान थी कर्म ज निर्जरीजे, दृढप्रहारी परि ते तरीजे ।। २६ ॥ __सेयं निर्जरा सकामाऽकामाम्यां विविधा वर्तते । मरुवेवी माता यदज्ञानेन परवशत्येन च कर्माणि क्षापितवती, साकामा | निर्जरा कीर्त्यते । यथा दृढाहारी ज्ञानेन स्वाधीनत्वेन च कर्माणि क्षपयामास, सा सकामनिर्जरा भावना विज्ञेया ।। २६ ।।
५-अथ १०-लोकस्वरूपभावनामाहजिम पुरुष विलोये ए अधोलोक तेवो, तिरिय पण विराजे थाल स्यो वृत्त जेवो।। उरधमुरज जेवो लोकनालि प्रकास्यो, तिम त्रिभुवन भानू केचली ज्ञान भास्यो ।। २७ ।।
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art for: कतिसमारोपितकरः प्रसारितचरणः स्थितो भवेतथे लोकनाल्पप्यवगन्तव्या । सा स्थालवद्वर्तुला बोर्श्वभूमौ रक्षितम ईश्वरप्रतिभाति । अवश्व भुवनपति व्यन्तर- सप्तनरक- सार्द्धद्वयद्वीपा वर्तते चोपरि द्वादशदेवलोक-नक्शैनेयकपञ्चानुत्तरविमानानि सन्ति, तदुपरि सिद्धशिला विद्यते । तत्सर्वं त्रिभुवनदिवाकरके पलिजिनेश्वरैः प्रकाशितमस्ति ।। २७ ।। ५- अथ ११ - बोधिदुर्लभ भावनां १२ - धर्मभावनाचाSSहस्वागता- छन्दसि -- बोधिबीज लहि जेह अराधे, ते इलात परे शिव साधे । भाव ही हि भावो राय संप्रति परे सुख पावो ॥ २८ ॥
इह हि बोधिवीजं - 'सम्यक्त्वं समासाद्य यो हि तदाराधयति सहलाचीकुमारवन्मोक्षमुपैति । एवं धर्मभावनावन्तोऽपि भव्याः संप्रति राजवत्सुखिनो भवन्ति । यथा पूर्वभवे संप्रतिनृपो महारंकोऽपि धर्मभावनयात्र जन्मनि राज्यसुखमन्वभूत् । अतो दे भव्याः 1 यूयमपि सम्यक्त्वमाराधयत तथा धर्म भावयत । यथाऽत्र सुखमनुभूय परs शिवसुखमधिगमिष्यथ । तदुपरि - इलाचीकुमारकथा परं सा पुरात्र धर्मवर्गे सप्तत्रिंशत्तमे ३७ प्रबन्धे निर्दिष्टा ततोऽथ नो लिखितास्ति ।
धर्मभावना सुखमधिगतस्य संप्रतिराजस्य १५-कथा
quisit भवान्तरे मामा भिक्षुरमुत्तस्य मुखे शरीरे च सदैव मक्षिकाः पतन्ति स्म । कोऽपि गृही स्वाऽन्तिके स्थातुं तस्य घृणास्पदत्वादवकाशं न प्रयच्छति । तं विलोक्य सर्वोऽपि जनस्तं तिरस्करोति मुखं पिधत्ते घ्राणं संकोचयति स्म । अथैकस्मिन्दिने स
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है दुमकः कस्यचिद्धनवतो गृहागोचरी लास्या बहिन्तिमेकं मुनि भोजनमयाचत । सोऽजक्-मो ! मयान्यस्मै कस्मैचिदपि न दीयते । l कमपि गृहिणं याचस्व । इस्थ पारितोऽपि स सदनुमण्डन्नुपाश्रयमाययो, तत्रापि गुरुं भोक्तुमाचत । तेनोक्त-साधुना समानीत आहारः
माधुम्यो दीयतेऽन्यस्मै दातुं न शक्यते। सोऽवक-मो गुरो ? यदीगाचारो वर्तते तर्हि मामपि दीक्षय तदनु भोजय । तत्रावसरे चिकि| त्सया नीरोगो भविष्यतीति मत्वा सदैव तमदीक्षयत । सदन सरसं विविधमाहार यथेच्छ स भुक्तवानिति निशि तस्य विधिका संजाता।।
नवीनं स साधु तदवस्थमालोक्याऽनेके घनिनो जनास्तमुपचर्तु सेवितश्चाऽजग्मुः । तान्विलोक्य स एवं व्यमृशत् । यथा-धन्योज्य Rषो यत्प्रभावादद्यैतेऽपीदानीं निर्विकारं मा सेवन्ते ये पुरा मां तिरस्कुर्वन्ति स्मः । मामागतं विलोक्य महतीं घृणामकुर्वन्त इदृशीं K धर्ममाननां विदधरस आयुषः पूर्णत्वे समाधिना कालं कृत्वा धर्मभावनया संप्रतिनामा राजाऽभवत । सोऽन्यदा निजगवाक्षजालया स्थित आर्यमुहस्तिसूरि चतुष्पथै व्रजन्त विलोक्य पूर्वमवे सस्मार । तदेव सौधादवतीर्य तत्रागत्य कृतांजर्लिनृपः ' गुरुं प्रणम्य | जगाद-मोः स्वामिन् ! मां विजानासि, गुरुणोक्त- सर्वे जानन्ति, त्वं राजासीति । सदा पुनरवदद्राजा स्वामिन् ! अहं ते शिष्यकोऽस्मि द्रमकनामा । वं मे परमोपकार्यसि, इदं राज्यं तवेव गृहाण, इतोऽभ्यरिकमुपहरामि ।
श्रुतज्ञानप्रयोगेण गुरुणापि सर्वमदि निगदित्तश्च-भो राजन ! त्वदुदितं सर्व सत्यमस्ति । स्वं धर्मेण राज्यं पालय, मम गतस्पृहस्पः राज्येन कि ? | इत्युदीर्य गुरुरम्पत्र विजहार । राजा धर्मे मतिदाढ्यं नयननेकानि नूतनजिनमैत्यानि जीर्णचैत्योद्धारांध नानाधर्मशालादि धर्मकृत्यमकरोत् । निजराज्ये सर्वत्र जिनधर्म प्रचारितवान् । इत्वं धर्मभावनया राज्यसुखं चिरमनुभूय प्रान्ते देवगतिमाप्तवान् । भतो धर्मभावना सर्वमेव्यैः सदैव सादस्मनुभाब्याा
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अथ ६-राग-विषये-इन्द्रवजा-छन्दसि-- रागे न राचे भवबन्ध जाणी, जे जाण ते राग वशे अनाणी ।
गौरी तणे राग महेश रागी, अर्खाग देवा निज बुद्धि जागी ।। २९ ॥ यः खल्वात्मानं प्रेमद्धेषादिना रज्यति रूपान्तरमादिति विकारिणं च पिते तक हिलाबाहित्वं विरच्य तत्रात्मनि नानाविधं क्लेशमुत्पादयत्यसौ रागः । ईदृशं रागं भवभ्रमणकारिणं कर्मबन्धनस्यादिकारणं झात्रा भो भव्या ! यूयं तत्र नैव | पतन्तु तन्निवारणार्थ यथाशक्ति प्रयतध्वम् । तज्जयार्थ यः सर्वथा तज्जयः कृतोऽस्ति तादृपरमकृपालुसर्वशक्तिमत्श्रीमतीर्थकराणां
शरणं गृह्णीत वीतरागदेवानां दृढालम्बनायूयमपि दुष्टरागस्य जये समर्था भवेयुः । पश्यत-तजयं विना रामादेव लौकिकन्ज्ञानवतां हरिहरादिदेवानामप्यज्ञबभिजाङ्गि निजनिजप्रेयस्यै दातव्यमभूत् । अतो बहुभवभ्रमणात्मको रागः सर्वे मेव्यैः सर्वधात्याज्य एव ।।२९॥
अथ ६-द्वेषोपरि--- रे जीव तूं ! द्वेष मने न आणे, विद्वेष संसार निदान जाणे ।
अद्वेष थी तो सुख होय जेतुं, विद्वेष थी तो दुख होय तेतुं । (पाठान्तर) रे जीव तूं द्वेष मने न आणे, विद्वेष संसार निदान जाणे ।
सासू नणंदे मिलि कूड़ कीचूं, झूठं सुभद्रा शिर आळ दीडूं ॥ ३०॥ व्याख्या हे जीव ! त्वया मनमाऽपि कस्पचिदुपरि द्वेषो न कतर्व्यः, यदसौ संसारस्य निदानमस्ति । वस्यागेन जीवा
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सदा सुखी विष्ठति । अद्वेषिणां यादृशं सुखं जायते, तत्तु वक्तुमपि न शक्यते । किश्व यः कस्मैचिद् द्वेष्टि, सोऽनन्यसंसारी जायते । यथा- पुरा वर्ननान्दा च मिथो मन्त्रयित्वा द्वेषेण सुभद्रायै कलंकं ददतुः । परं सत्यशीला साऽऽमतन्तुना चालन्या कूपाज्जलं समानीय चम्पापुर्या द्वाःस्थकपाटं सकलैरनुद्घाटयं तज्जलसेकादुद्घाटितवती । सकलजनसमक्षं तत्कपाटोद्घाटनेन सुधा जातकलङ्कान्मुक्ताऽभवत्ततश्च सा सुखं लेभे । तस्याः श्वभूननान्दारौ च सर्वे लोका निनिन्दुस्तेन तयोर्भूशं दुःखमञ्जायत । किया रागद्वेषाभ्यामिह केवलं दुःखमेव भवति, शुभफलन्तु मनागपि न जायते । इति विजानता केनचिदपि रागद्वेषौ न कर्तव्यौ । यदाहरागद्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? । तावेव यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ॥ १ ॥
यस्य पुंसो रागद्वेषौ विद्येवे, वस्य पुंसस्तपसाऽनुष्ठितेनाऽपि किमपि न सिद्ध्यति तयोः सद्भावे तत्कृततपसो व्यर्थत्वात् । पुनर्यस्य चि तो रागद्वेषो मनागपि न स्वस्तस्पाऽपि तपःकरणं पृथैव, यसस्य तपो विनैव मनःशुद्धया कृतार्थत्वात् || ३० ॥ अय ७ सन्तोष-विषये वसन्ततिलका-वृत्तम्
सन्तोष - तृप्त जनने सुख होय जेबुं, ते द्रव्यलुब्ध जनने सुख नाहि तेनुं ।
सन्तोषवन्त जनने सह लोक सेवे, राजेन्द्र रंक सरिखा करि ते केवे ।। ३१ ।
वह सन्तोषिणो जना यसुखं विन्दन्ति वसु कुब्धजनैः स्वप्रेऽपि नानुभूयते । सन्तुष्टाः प्राणिनः सर्वैः प्रशस्यन्ते । सन्तोषिणो जना : रङ्कान् चनिन समभाषेन पश्यन्ति । बहुलोमिनस्तु सदैव भू दुःखीमरन्ति । किमधिकं कनकरजय गिरी श्राप्याऽपि लुब्धो नरो न तृप्यवि । दाह
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यहर्गामटवीमटन्ति विकट कामन्ति देशान्तरं, गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृर्षि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पति गजघटासंघद्धासंचरं, सर्गनित मधनं धनान्धित थियस्तल्लो भविम्फ़र्जितम् ।।१॥ सनकी तृष्णा तृप्त है, अन्न सवा के सेर । मन की तृष्णा नहि मिटे, आप मेरु जो घेर ॥ १॥
___ अतः सन्तोष एव सुखस्य निदानमवगन्तव्यम् । नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम्सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते, शुष्कैस्तृणैर्वनगजा यलिनो भवन्ति ।
कन्दैः फलैर्मुनिवरा गमयन्ति कालं, सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ॥ १॥ यद्यपि फणिनः पवनमेव पिबन्ति तथापि बलवन्तो भवन्ति, एवं वनगजास्तृगान्यश्नन्ति, मुनिवरा-वनवासिनो योगिनोऽपि कन्दैः फलैश्च दिनानि यापयन्ति । अतः सन्तोपो नरस्य निधानमिव सुखदो भवति, ततः सन्तोषः सबैरैव विधेयः ॥ ३१ ॥
अय ८-सदसद्विवेक-विषये-उपजाति-वृत्तम्जो जेह चित्ते सुविवेक भासे, तो मोह अन्धार विकार नासे ।
विवेक विज्ञान तणे प्रमाणे, जीवादि जे वस्तु स्वभाव जाणे ॥ ३२॥ विषेकिनः प्राणिनो मोहतमोऽज्ञानान्धकारो नश्यति । सतश्च तस्य विज्ञानचातुर्यादिकं सर्वमपि प्रामाण्यमुपैति । जीवाड15 जीवादिसकलतस्वस्वरूपं जानाति ॥ ३२ ॥
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बालापणे संयम योगधारी, वर्षासमे कांचलिं जेण तारी ।
श्रीवीर अमुक्त तेई, सुज्ञान पाम्यो सुविधेक लेई ॥ ३३ ॥
विश्व-भगवतो महावीरस्य प्रभोः कश्चन । तिमुक्ताभिधानः शिष्यक्षुल्लकः शैशन एवं गृहीतचारित्रचातुर्मासे जलोपरि श्रीफलकोचलिमतारयत् । उत्तमविये कोदधादीर्यानथिविम अधिकान् दगदग इति पदं सम्यग्विभावयन् मिथ्यादुष्कृतमिति मुहुर्निदन् त्वरितमेव केवलज्ञानमाप ।। ३३ ।।
अथ ९ - निर्वेद - वैराग्यविषये- शार्दूलविक्रीडित छन्दसि --
जे बन्धूजन कर्मबन्धन जिसा भोगा भुजंगा गणे, जाणन्तो विष सारिखी विषयता संसारता ते हणे । जे संसार असार हेतु जनने संसारभावे हुवे, भावो तेह विरागवन्तं जनने वैराग्यता दाखवे ।। ३४ ।। यो हि कुटुम्ब कर्मबंधनमवैति तथा सांसारिकं सुखमपि सर्पमिव भयंकरमसारं रोगजनकश्च पश्यति, वैराग्यवान् स पुमान् संसारं सुखेन तरति । यथ संसारे रज्यति, स पुनः २ अत्रैव निपतति । अतो विषयेषु वैराम्यं विधातव्यम् ॥ ३४ ॥ वसन्ततिलका-वृत्तम्- निर्वेद से प्रबल दुर्भर बन्दिखानी, जे छोड़वा मन धरे बुध तेह जानो ।
निर्वेद यी तजिप राज विवेक लीधो, योगीन्द्र भर्तृहरि संयमयोग सीधो ॥ ३५ ॥ fer - निषेधो नाम विषयवासनाराहित्यं, अतएव निवेदी पुमान् संसारममुं कारागारं जानाति । यथा कश्चित्प्राणी देवादेकदा
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कारागारान्मुक्तो भवति, पुनस्वत्कर्म कदापि नैव कुरुते येन तत्र पुनः स न गच्छेत्। तथैवायं प्राणी विवेकप्राप्त्या सद्य एव संसारं मुवति, तेन पुनः स भवं नो भ्राम्यति भर्तृहरिरिव । अयं हि संजातवैराग्याद्राज्यं विहाय योगमार्गमशिश्रियत् ॥ ३५ ॥ अथ निर्वेदाद् गृहीत संयमस्य भर्तृहरेः १६ - प्रबन्धः–
यथा- पुरा राज्ञो मर्तृहरेः कश्विदेशिको विप्रः फलमेकममृतमुपाहरत् कथितश्च राजन् ! य एवद् मोक्ष्यये नरो नारी वा स यावज्जीवं वनं लप्स्यते । ततः स तद् गृहीत्वातिप्रेम्णा निजप्रेयस्यै राश्यै ददौ जगाद च - प्रिये ! स्वयैतदवश्यं मोक्तव्यं, यदेतदशनेन यौवनं ते सदैव स्वास्पति । अथ तत्फलमादाय सा निवप्रेयसे कस्मैपन हस्तिपकाय काय दतवती । सोऽपि ताम्गुणशालि फलं लात्वा निजप्रियायै गणिकायै दत्तवान् । सा तात्वा दध्यौ अहमेतदशित्वा यावज्जीवं स्थिरयोवनमागत्य कि साधयिष्ये । प्रत्युताविकं पापमेव विधास्ये । अत एतत्फलं सुखेन प्रजापालकाय राज्ञे दातव्यं येन तुष्टो भर्तृहरिः प्रचुरं घनं दास्यति बहु सत्करिष्यति
विमृश्य सा गणिका सत्फलं सदसि समागत्य नृपस्योपायनमकरोत् । नृपस्तदुपलक्ष्य तदैव राज्ञ्णाः पार्श्वमेत्य तामपृच्छत् - अयि प्रिये ! तत्फलं स्वया युक्तं न वा १ तयोक्तं-दे प्राणेश्वर । त्वदग्रे मृषावादेन किम् १ अतोऽहं सत्यं निगदामि । परमेषोऽपराधस्त्वषा शाम्य एव । नृपोऽवदत्-- सत्यं ब्रूहि क्षान्तस्तवापराधो मया । अत्रावसरे राशी जमाद स्वामिन् । मया त्वत्प्रदर्श तदमृतक हस्तिकाय दत्तः । ततो नृपः समाभागत्य तमाकार्य पर्यपृच्छत्-मो ! यचे फलं राशी ददौ तत्किं कृतम्, अकं वा कस्यापि प्रदर्श ? वत्सर्वे सत्यं वद । तेनोकतं - स्वामिन् ! मया तत्फले गणिकायै दत्तम् । ततस्तां वेश्या मपृच्छत्-अयि गणिके ! स्वया मे कयमेवदुपहृतम् । स्वयं किम शुकम् ? साध्वनाथ ! अहमाजन्म यदि यौवनं लप्स्ये वर्हि महन्मेऽवयमुत्पत्स्यतेऽतो मबैतम भक्तम् ।
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श्रीमान् भवांस्तु राजा, बहूनां पालकोऽस्ति मत एतत्फलमभित्ता घिर लोकानुपकरिष्यति । अथैतदाकर्ण्य सञ्जातवैराम्पो भर्तृहरिस्तदेमं श्लोकमपठत् । यथा
यां चिन्तयामि सततं मयि सा घिरता, सायन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥१॥ अथ तदैव निर्बिण्णो राजा योगी भत्या गहमत्यनत् । गतः संसार निवारणी मुखमुपैति नान्यथा ।
अथ १०-आस्मयोध-विषयेजे मोह-निंद तजि केवल थोधि देते, ते ध्यान शुद्धि हृदि भावन एक चित्ते ।
ज्यूं निष्प्रपञ्च निज ज्योतिस्वरूप पाप, निर्वाध थी अवय मोक्ष सुखार्थ आवे ।। ३६ ॥ इइ यो हि मोहनिद्रां त्यजति, तस्य केवलज्ञानवीजमुदेति । तदनु स शुद्धध्यानेन निर्मलीकृत चेतसि परां भावनां भावयन् ॥ मुक्तभवप्रपंचजालो ज्योतिस्वरूपममुमात्मानं साक्षात्करोति । पुनरत्र संसारे निर्विष्णतामापनः प्राणी मोक्ष प्रति यतमानो भवति । इत्थमात्मचिन्तनेनासौ जीवः संसारसागर तरीस्वा मुक्तिपुरीमुपैति ।। ३६ ॥ मालिनी-उंदसि-भव विषय तणा जे चंचला सौख्य जाणी, प्रियतम प्रिय भोगा भंगुरा वित्त आणी ।
करम दल स्वपेई केवल ज्ञान लेई, धन धन नर तेई मोक्ष साधे जिकेई ॥३७ ।। । किसान संसारे यानि मन्धस्पर्शरूपरमशम्दारमकानां पञ्चेन्द्रियाणां प्रयोविंशतिविषयसुखानि समुपलभ्यन्ते बानि पपलेच
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त्या
पंचलानि सन्ति । तथा कामिनीभ्रूविलासमृदुहासादिसमुद्भूतमदनविलासोऽपि क्षणिकः प्रतीयते । इति विजानता प्राणिना मोक्षसुखमधिगम्पते । अयमभिप्रायो यः संसारासारतां जानाति, विषयसुखं सर्वमशाश्वतं पश्यति, पुत्रकलत्रादिसंयोगजं सुखमपि नश्वर | परिणामदारूणां पेक्षते, इत्थं निर्विष्णः सन् बोधिवीजमासाद्य संसारं त्यजति संयम समाश्रयति, स मोक्षश्रियं सेवते । धन्यस्तादृशो विभिटो जनः सदवरुष्यते ।। ३७!!
इति सर्वजीवहितेच्छुकेन पण्डित-श्रीमत्केसरविमलगणिना भाषाकवितामयविरचितायां ततः श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-साहित्यविशारद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरेण
सरलसंस्कृते संकलितायां सूक्तमुक्तावल्यां चतुर्थो मोक्षवर्गः समानः ॥ ME.. ... . ... .
, अथ धर्मार्थकाममोक्षानिति पुमर्थचतुष्टयान प्रत्येकं विस्तरतः संवर्ण्य संप्रति तानेच संक्षेपतो वर्णयन्नाह
तत्र १ प्रथमो धर्मवर्ग: द्रुतविलम्बित-छन्दसिदुरगतिं पडतां सब जन्तुने, घरण थी धरमी भण नेहने । सयम आदि कहे दशधा भलो, सुगुरु थी वह धर्म ज सांभली ॥ ३८॥
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यथा
वा - दुर्गयो पसन्तोऽमी जीवा यद्धृत्वा समुद्धृता भवन्ति स एव धर्म उच्यते। सोऽयं धर्मः संयमादिभेदेन दशधा विद्यते । स धर्मः सदा गुरुमुखैः श्रोतव्यो मन्यैर्यथा मनसि सन्तोषः समुङ्गच्छेत् ॥ ३८ ॥
अथ दशधा धर्मभेदानाह
खंडी मदद अजय, मुसिव संजमे य बोद्धव्ये । सत्वं सोपं अकिंषणं च बंभं च होड़ जहधम्मो
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यथा - क्षान्तिः क्षमा १, मार्दवं कोमलता २, आर्जवं सरलता ३, मुक्ति: निस्संगता ४, बाह्याभ्यन्तराभ्यां तपः ५, संयमं सप्तदशधा ६, सत्यं सत्य - हित प्रिययुक्तं वक्तव्यं ७, शौचमन्तः शुद्धिः रागद्वेषादिकषायराहित्यं तथा व्रतादौ निर्दोषः ८, भलोभि बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहराहित्यम् ९, ब्रह्मचर्यम् १०, एते दश यतिधर्मा गुरुमुखाच्छुत्वा सर्वैः सेवनीयाः ॥ १ ॥
अथ २- द्वितीयोऽर्थवर्ग:
अरथ अरथ जेन धर्म थी सिद्धि थावे, धरम करम सिद्धी अर्थ थी संघ पावे ।
सकल सुख ज गेहो सप्तखेत्री सुजाणी, भविक ! स्वघन सारो वावरो सौख्य खाणी ॥३९॥ इह ये पुरा धर्ममाराधयामासुस्तैरेव सुकृतिभिरत्र लोके महती संपलभ्यते । पुनः पुण्यवन्तो जीवाः सुकृतिलभ्यामिमां लक्ष्मीमासाद्य तो जिनभवन १ प्रबिम्व २ पुस्तक ३ साधु ४ साध्वी ५ श्रावक ६ अधिका७त्मकसप्तसु धर्मक्षेत्रेषु सुरपन्ति येनाज्ञ म परमं सुखमनुभू प्रान्ते च निश्चलं शिवपदं यान्ति ॥ ३९ ॥
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अथ ३- तृतीयः कामवर्ग:-- धरम अर्थ पि काम न वेगलो, धरम काम करे सब ते भलो।
सपाल जीपम सौख्य सुभान छ, परम अर्थ ज काम निदान छे ।। ४०॥ यथा-धर्मार्थाभ्यां कामस्य पाक्यं नास्ति किन्तु-यो हि धर्मकार्य वितनोति, स प्राणी जगति सर्वैः प्रास्यते । येन सर्वजगतां प्राणिनां सुखमुत्पद्यते, तदेव कामो निगद्यते । किन्धोत्कृष्टार्थस्य निदान काम एवाऽस्ति अस्मां गाथायां कामशब्देन कार्य निगधते, अर्थात्सदुपार्जितस्य धनस्य धर्मकार्ये विनियोगकरणेनैव साफल्यमुपैति ॥ ४०॥
अथ ४ चतुर्थो मोक्षवर्ग:वसन्ततिलका-छन्दसि-ध्यायन्तु शाश्वतपदं निखिलास्मसेव्यं, यस्योपदेशनपराः सुजना भवन्तु । ___ मोक्षार्थसाधनफलं प्रवरं पदन्ति, सन्तः स्वतो जगति तेऽपि चिरं जयन्तु ।। ४१ ॥ हे भव्यजीवाः ! सर्वतः श्रेष्ठं शाश्वतममुं मोई भजन । येन भवन्तोऽसारसंसारान्मुश्शेयुः । पुरुषोतमस्तीर्यकरः प्रमोक्षसाधनमेव साधीयः फलं सर्वत्र निगदति । ये पुनस्तं साधयन्ति, व एवं धन्या मान्या भव्याः प्राणिनो जगति चिरं जयन्तु, चिरायुपो | विजयन्ते नेतरे । अतो मोक्षार्थ यतितव्यं श्रेयोऽर्थिमिः सबैरिति ॥ ४१ ।।।
__ अय ग्रंथं समापयन्नुपसंहरति ग्रन्धकर्ता
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KAISE
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धर्मार्थकामवरनितिसत्यमार्गे, किञ्चिन्मया प्रकटितोऽत्र हितोपदेशः ।
सन्मार्गगामिसुनरैः शुभबुद्धिवर्य-स्तस्य स्वरूपमवगम्य सुधारणीयम् ।। ४२ ॥ इह हि-धर्मार्थकाममोक्षचतुर्वर्गेषु मया यत्किचिदुपदेशलेशः प्रकटितः स्फुटीकृतः स सन्मार्गगामिभिर्मोक्षपथपथिकैर्मव्यैः स्वघेतसि सदैव भावनीयः । भावयित्वा च तत्तत्त्वमधिगन्तव्यं तथैवाऽऽत्मनि धारणीर्य स्वीकर्तव्य इति शेषः ॥ ४२ ॥ __ उपजाति-वृत्ते-इत्येवमुक्ता किल सूक्तमाला, विभूषिता घर्गचतुष्टयेन ।
. तनोतु शोमामधिकं जनानां, कण्ठस्थिता मौक्तिकमालिकेच ॥ १॥ धर्मार्थकाममोक्षवगैश्चतुर्मिः खण्डैविभूषिता-समण्डिता मयेथं विरचिता सक्तमाला-सूक्तानां सुभाषिताना मालेव माला सैर्य लोकानां हृदये स्थिवा मनसि सम्बगबधारिता सती मुक्ताहार खाधिको शोभां तनोतु विस्तारपतु ॥ १॥
___ अथ मूलमन्थव्याख्याको प्रशस्तिः शार्दूलविक्रीडित-वृत्तेआसीस्सगुणसिन्धुपार्वणशशी श्रीमतपागच्छपः, सूरिश्रीविजयप्रभाभिधगुरूर्षुस्था जितस्वगुर। तस्पद्योदयभूधरो विजयते भास्थानिवोचत्प्रभः, सुरिग्रीविजयादिरस्मसुगुरुर्विजनाऽऽनन्दभूः ॥२॥
आर्यावृरो-विख्यातास्तद्वाज्ये, प्राज्ञाः श्रीशान्तिविमलनामानः।
तत्सोदरा बभूवुः, प्राज्ञाः श्रीकनकविमलाख्याः ॥ ३ ॥ | तेषामुमो विनेयो, विद्वान कल्याणविमल इत्याख्यः । तत्सोदरो द्वितीयः, केसर विमलाभिधोऽपरजः॥४॥
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तेन चतुभिर्वर्ग, रचिता भाषातियवाधिरेयम् । सूक्तानामिह माला, मनोविनोदाय बालानाम् वेदेन्द्रियर्षिचन्द्र, संवस्पमिते श्रीवक्रमे वर्षे । अग्रन्यि सूक्तमाला, केसरविमलन विबुधन
॥५॥
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अक्षीणमहानसीया-घष्टाविंशतिसुलब्धिमापन्नम् । समचतुरस्र देह, वीरशिष्य चतुर्ज्ञानयुतम् ॥१॥ प्रथमगणधरीमदू-गौतमस्वामिनमद्भुतं वन्दे । यत्करदीक्षावन्तः, सर्व एव शिवपदं प्रापुः ।। २ ।। (युग्मम्) वसन्ततिलका-वृत्ते-तीर्थङ्करस्य चरमस्य परात्परस्य, शिष्याग्रणी सुगणधारकपंचमी यः।
लोकत्रयीप्रथितशुभ्रयशाः सुधर्मा, तन्नामगच्छगुरुपट्टपरम्परायाम् ।। ३ ।। श्रीविकमक्षितिपतिप्रतियोधदातृ-नानाऽनवद्यगुरुहृद्यनिबन्धकर्तृन् ।
श्रीसिद्धसेनदिनकृन्निरचवियो,-मास्वातिवाचकमुनिप्रमुखानशेषान् ॥ ४ ॥ उपनाति–वृत्ते-कुमारपालक्षितिपालयोध,-कृडेमचन्द्राभिधमूरिमुख्यान् ।
नमामि चैताञ्जगदद्वितीय,-कीर्तिनजान मूरिगुणप्रशस्यान् ॥ ५ ॥ जजाप कोटिं वरमरिमन्त्रं, विवृद्धमाम्ल व्रतमाततान । वेदाष्टगच्छीय विवादिनश्च, जिगाय सर्वान् सदसि प्रवाग्मी ॥ ६ ॥
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शिखरिणी-वृत्ते-जगधन्द्रः सूरिविमलगुणधामोदयपुरे, प्रजापालात्तुष्टाव विरुदमिति लेभे गुरुतपाः।
ततः स्वच्छो गच्छोऽभवदिह तदीयो बहुतपाः, तमेने संस्तौमि प्रयलबहुविचं युगवरम् ।। ७ ॥
इन्द्रवजा-इत्ते-प्रौढप्रतापी यशसा गरीयान्, सन्मार्गगामी श्रुतपारहवा । सौधर्मपटीयपरम्परासु, श्रीरत्नसूरिः समभून्महीयान् ।। ८ ।। शालिनी-वृत्ते-चित्रायल्ली सुप्रसन्ना सुरक्ता, पादग्राई संस्थिता येन मुक्ता ।
आचाम्लाख्या सत्तपस्याप्यकारि, स्तुत्यं तं वृद्धक्षमासूरिमोडे ॥९॥ नानाशास्त्रविचारदक्षमतिमान् वादीन्द्रजिष्णुर्महान, भूविख्यातयशस्करो युगवरः सत्यप्रतिज्ञाधरः। तस्पर्ट समलंकरिष्णुरभवद देवेन्द्रसूरीश्वरो, विद्याचुञ्चुममुं नमामि गणपं सोधिषीजप्रदम् ॥ १० ॥
इन्द्रवजा-वृत्ते- एतस्य पट्ट समलंकरोयः, कल्याणसूरिमहिमाम्बुराशिः। विद्र खनाग्रेसर उग्रतेजा स्तं सादरं प्राञ्जलिरामतोऽस्मि ।। ११ ।। तत्पधार्धेकदितं प्रमोद-सूरीश्वरचन्द्रमिवार्कभासम् । स्वाचारनिष्ठं सहकार्तिमन्त,-मन्वर्थनामानमभिष्टुवेऽहम् ॥ १२॥ मालिनी-वृत्ते-व्यराचि विशदराजेन्द्राभिधानः सुकोशः, शरयुगमितसूत्रप्रोक्ततत्त्वप्रकाशः। कतिपयजिनधर्मग्रन्थनिर्माणकर्ता, तमतुलमभिवन्दे श्रीलराजेन्द्रसूरिम् ।। १३ ॥
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________________ इन्द्रवजा-पत्ते--धन्दामहे साधनसार, बादीहकान्तारविज्ञारिसिंहम् / प्रारीप्सितग्रन्यसमामिविना-मुरसार्य सिदि ददतां ममैते // 14 // शासिनी-छन्दसि-भाषाटीकासर्वसारं गृहीत्वा, पूर्वाचार्यैः कीर्तितां मुक्तमालाम् / सरष्टान्तैः सारभूतैर्वरा-वगैस्तुणैः शालिनी श्रेयसी ताम् // 15 // व्याख्यानां संस्कृतैर्म गथै,-रल्पज्ञानामाशु दोषोपपत्यै। श्रीभूपेन्द्रः सूरिरल्पप्रयत्ना,-च्छीहर्षायः साघुवर्गेः प्रणशः // 16 // षियः कृशत्वान्मनसः प्रमादाद, यदागमोक्तिमतिकूलमास्मन् / न्यगादिषं तस्य दवामि मिथ्या,-सुष्कृतं स्वात्मविशोधनाय / / 17 // वर्षे भूषसुनन्दचन्द्रतुलिते ज्येष्ठे वलक्ष दले, श्रीसिद्धार्थसुतं स्मरन् गुरुदिने भक्या तृतीयातियी। श्रीमद्राजगढामिधाननगरे सर्वरिशोभास्पदे, खेतद्ग्रन्थसमापन सुकृतवान् भूपेन्द्रसरि दा // 18 // 156GC