SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द कथाओं का समावेश है। विशेष जिज्ञासुओं को ग्रंथ का विषयानुक्रम अवलोकन करने से स्पष्ट मालूम हो सकेगा । अन्त में || ग्रंथकाने चारों वर्ग का उपसंहार मलीभांति से कर दिखाया है। ग्रंथ के अन्त में मूलकर्ता की प्रशस्ति के साथ २ संस्कृत अनुवादक की भी प्रशस्ति दी गई है । माशा है कि गुणानुरागी धर्ममार्गानुगामी विवजन इस ग्रंथ के रचयिता के अमूल्य परिश्रम का यथार्थ सत्कार कर ग्रंथ की उपादेयता को और भी बढ़ावेमे । समिति की ओर से २२ x ३० का साइज के १२ पेजी में २९ फार्म का यह ग्रंथ प्रथम पुष्प सरीके निकल रहा है जो विद्वजनों की रुचि में अवश्य आदरणीय होगा | यदि प्रेसदोष या प्रमादयन जो त्रुटिये रह गई हों उन्हें विद्वज्जन सुधार कर पढ़ें । किमधिकं विशेषु ।। यतः-गच्छशः संकलनं पछापि, भवन प्रसादतः सन्ति दुर्जनास्तत्र, समावधति सज्जनाः ॥१॥ निवेदिकाश्रीभूपेन्द्रमूरिजनसाहित्यसंचालकसमिति-वाया एरणपुरा मु. पो० आहोर (मारवाड़) नोट-जिन महानुभावों को इस ग्रंथ की आवश्यकता हो उन्हें चाहिये कि डाक खर्च के लिये १) रु. भेज कर पुस्तक प्रकाशक समिति से मंगालें। P11
SR No.090483
Book TitleSuktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherBhupendrasuri Jain Sahitya Samiti
Publication Year1997
Total Pages344
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy