Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोभारती-जैन-प्रकाशन-समिति-पुष्पम्-४ हिन्दी-भाषानुवाद-भूषिता स्तोत्रावली [विविध-द्वादश-स्तोत्रात्मिका] - स्तोत्रकारा: - न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय-षड्दर्शनवेत्तारः NDED पूज्य-श्रीमदयशोविजयजीमहाराजाः प्रधानसम्पादक: संयोजकश्च श्रीयशोविजयजीमहाराजः सहित्य-कलारत्नम् सम्पादक उपोद्घातलेखकश्च ACAVPA डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी एम. ए., पी-एच. डी., प्राचार्यः Gadada a MODDADAM SUDOODY તેંત પ્રકાશન સt Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोमारतीजनप्रकाशन-पुष्पम्-४ न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीयशोविजयजीगरिण विरचिता हिन्दीभाषानुवाद-भूषिता स्तोत्रावली [ विविध-द्वादशकृतिरूपस्तोत्रादि-समन्विता ] प्रधान-सम्पादक: संयोजकश्च मुनिः श्रीयशोविजयजी महाराजः . -साहित्य-कला-रत्नम् अनुवादकः परिमार्जकः सम्पादक उपोद्घातलेखकश्च डॉ० रुद्रदेवत्रिपाठी, एम. ए., पी-एच० डी० साहित्य सांख्ययोगाचार्यः / श्रीयशोभारतीजैनप्रकाशनसमितिः बम्बई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका यशोभारतीजैनप्रकाशनसमितिः बम्बई प्रथमावृत्तिः 1975 ई. प्रतयः-५०० मूल्यम् 10=00 रूप्यकारिण ___ (c) सर्वेऽधिकाराः प्रकाशिकासमित्यधीनाः / मुद्रक : अमर प्रिंटिंग प्रेस, ___8/25, विजयनगर, दिल्ली-६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YASHOBHARATI JAIN PRAKASHAN PUSPA-4 With Hindi Translation STOTRAVALI Composed of different 12 stotras written by Nyaya-visharada, Nyayacharya Mahopadhyaya Shri Yashovijayaji Maharaj Gani Cheif Edittar MUNI SARI YASHOVIJAYAJI MAHARAJ Sahitya. Kala-Ratna Translation and Editing By Dr. RUDRA DEO TRIPATHI .: M. A., Ph. D. Sahitya-Sankhyayogacharya. Shri. Yashobharati Jain Prakashan Samiti BOMBAY Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti BOMBAY First Edition 1975 Copies-500 Prices Rs. 10=00 (c) Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti BOMBAY Printers : AMAR Printing Press 8/25, Vijay Nagar, Delbi-9 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका १-प्रकाशकीय निवेदन २-श्रीयशोविजयजी उपाध्याय का जीवन चरित्र ३-प्रधानसम्पादक का पुरोवचन ४-उपोद्घातस्तोत्र साहित्य दिग्दर्शन तथा स्तोत्रावली : एक अनुचिन्तन : 1-3 १-श्रीआदिजिनस्तोत्रम् २-शमीनाभिधश्रीपार्वजिनस्तोत्रम् . ३-श्रीपार्श्वजिनस्तोत्रम् ४-श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तोत्रम् ५-श्रीशङ्केश्वर-पार्श्वजिनस्तोत्रम् ६-श्रीपार्श्वजिनस्तोत्रम् ७-श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्रम् ८-श्रीमहावीरप्रभुस्तोत्रम् ६-वीरस्तवः (खण्डनखाद्यटीकाछायार्थसंवलितः) १०-समाधिसाम्य-द्वात्रिंशिका ११-स्तुतिगीतिः १२-श्रीविजयप्रभसूरिक्षामणक-विज्ञप्तिकाव्यम् परिशिष्टम्१-श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्याय द्वारा विरचित कृतियों की सूची २-मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज द्वारा रचित कृतियों की सूची 4-6 7-14 15-24 25-55 56-85 86-117 118-123 124-232 233-242 243-246 247-272 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय-निवेदन परमपूज्य आचार्यश्री 1008 श्रीमद् विजयप्रताप सूरीश्वरजी महाराज तथा परमपूज्य आचार्य श्री 1008 श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज एवं परमपूज्य मुनिवर श्रीयशोविजयजी महाराज की प्रेरणा से आज से अठारह वर्ष पूर्व सन् 1957 ई० में बम्बई के माटुंगा उपनगर में दानवीर धर्मश्रद्धालु श्रेष्ठिवर्य श्रीयुत श्रीमारणेकलाल चुनीलाल के शुभ करकमलों से 'श्रीयशोविजय स्मृति ग्रन्थ'-प्रकाशन का भव्य समारोह सम्पन्न हुआ था। उस समय बम्बई के अनेक सुप्रसिद्ध तथा अग्रणी समाजसेवी उपस्थित हुए थे। उस प्रसंग पर सत्रहवीं शती में गुजरात में उत्पन्न, हमारे परमोपकारी, जैनशासन के समर्थ ज्योतिर्धर, सैंकड़ों ग्रन्थों के रचयिता, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य सरल बने, इस दृष्टि से एक छोटा-सा फ़ण्ड इकट्ठा हया और उसमें जैन-जनता ने उदारभाव से सहयोग दिया। तदनन्तर उनके ग्रन्थों को प्रकाशित करने के लिये 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' नामक एक संस्था की स्थापना की गई। इस संस्था द्वारा आज तक कुछ ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया, जिनमें 'ऐन्द्रस्तुति-चविंशतिका, यशोदोहन, वैराग्यरति' आदि तीन ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं / इन तीन ग्रन्थों के प्रकाशन के पश्चात् फण्ड कम होने से चिरस्थायी फण्ड के लिये प्रयास किया गया तथा जैन श्रीसंघ ने पुनः प्रशंसनीय उत्साह से सहयोग दिया। उसी का यह परिणाम है कि पू० उपाध्यायजी के अन्य ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य सुलभ हो सका। अतः उपदेशकों, प्रेरकों और दानदाताओं को हम धन्यवाद देते हैं। / Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पूज्य उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज की रचनाएँ क्रमशः प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और मिश्र भाषा में हैं। वे संस्कृत- भाषा के एक महान् कवि एवं टीकाकार थे। उनकी रचना-शैली शास्त्रनिष्ठ एवं सारगभित है अतः उनका आनन्द सर्वसाधारण को प्राप्त हो, इस बात को लक्ष्य में रखकर संस्था ने प्रारम्भ से ही गुजराती और हिन्दी में अनुवाद करवाकर ग्रन्थ-प्रकाशन को प्राथमिकता दी है। इससे हमारा गुजराती समाज एवं संस्कृत का दर्शनशास्त्राभ्यासी वर्ग तो उनके महनीय साहित्य से परिचित होता रहा है किन्तु 'कवित्वपूर्ण रचनाओं के रूप में हिन्दीभाषी रसिक साहित्यिक वर्ग भी उनकी कृतियों से अनभिज्ञ न रहे, यह पवित्र भावना मन में रख कर उनके द्वारा प्रणीत भक्तिस्तोत्रों को हिन्दी भाषा में अनुदित करवाकर सर्वप्रथम 'स्तोत्रावली' के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें पर्याप्त प्रानन्द का अनुभव हो रहा है। इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण संयोजना एवं प्रधानतया सम्पादन-कार्य साहित्य-कलारत्न परमपूज्य श्रीयशोविजयजी महाराज की ही देन है। परमपूज्य श्रीमद् यशोविजयजी महाराज के प्रति अनन्य भक्ति एवं उनके साहित्य को सर्वांश रूप से परिपूर्ण करके चिर-स्थिर रूप देने की अदम्य निष्ठा से ही अनेक दुर्लभ ग्रन्थों का संग्रह, प्रतिलिपिकरण, सम्पादन, अनुवाद तथा प्रकाशनकार्य सुसम्पन्न हो रहा है। अतः हम विद्वत्-प्रवर मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज के अत्यन्त : ऋणी हैं और अन्तःकरण पूर्वक आभार स्वीकार करते हैं। . प्रस्तुत 'स्तोत्रावली' में 'वीरस्तव' को छोड़कर शेष स्तोत्रों के अनुवाद की प्रेसकॉपी अन्तिम निरीक्षण के लिये पण्डित श्री नरेन्द्रचन्द्र जी को दी गई थी। तदनन्तर मुद्रण के लिये डॉ० रुद्रदेवजी त्रिपाठी को भेजी गई तब पूज्य मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज ने त्रिपाठी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी को भी निरीक्षण एवं परिमार्जन के लिये सूचित किया। इस तरह दोनों विद्वानों ने परिश्रमपूर्वक यथाशक्य संशोधन किया और 'वीरस्तव' का पूरा अनुवाद डॉ. त्रिपाठी ने करके प्रेसकॉपी तैयार की, जिसे मुनिराजश्री ने आवश्यक सूचना के साथ मुद्रण की स्वीकृति प्रदान की। आज यह स्तोत्रावली हिन्दी अनुवाद सहित छंपकर पाठकों के करकमलों में आरही है। डॉ० रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने बहुत परिश्रमपूर्वक यह कार्य सम्पादन किया है, तथा मुद्रण कार्य भी अपनी देखरेख में करवाया है, अतः उनके पूर्ण कृतज्ञ हैं। चरमतीर्थङ्कर परमोपकारी भगवान् महावीर के 25003 परिनिर्वाण वर्ष में प्रकाशित यह ग्रन्थ भावुक-भक्तों तथा विद्यानुरागी विद्वज्जनों को अवश्य ही आनन्दित करेगा। इसी प्राशा के साथ इसके प्रकाशन में शास्त्रदृष्टि अथवा मतिदोष से कोई क्षति रह गई हो, तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं और आशा करते हैं कि विद्वज्जन हमें सूचित करने की कृपा करेंगे तथा सुधार कर इसके अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रम को सफल बनाएँगे। मन्त्री श्रीयशोभारती जैन प्रकाशन समिति बम्बई Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય વિ86ી. પરમપૂજ્ય આચાર્ય શ્રી 1008 શ્રીમદ્ વિજ્યપ્રતાપસૂરીશ્વરજી મ૦ તથા પરમ પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી 1008 શ્રીમાન વિજયધર્મ સૂરીશ્વરજી ભ૦ તથા પરમપૂજય મુનિવર શ્રીયશોવિજયજી મહારાજશ્રીની પ્રેરણાથી, આજથી અઢાર વરસ ઉપર મુંબઈના માટુંગા પરામાં દાનવીર ધર્મશ્રદ્ધાળુ શ્રેષ્ઠિવર્ય શ્રીયુત માણેકલાલ ચુનીલાલના સુહસ્તે, “શ્રીયશવિજય-સ્મૃતિગ્રન્થને ભવ્ય સમારોહ ઉજવાયેલ, તે વખતે મુંબઈના અનેક નામાંકિત અને અગ્રગણ્ય આગેવાનોએ હાજરી આપેલી. આ પ્રસંગે સત્તરમી સદીમાં ગુજરાતમાં જન્મેલા આપણા મહાન ઉપકારી, જૈનશાસનના સમર્થ જતિર્ધર,સેંકડો ગ્રન્થના રચયિતા ન્યાયવિશારદ, ન્યાયાચાય, મહર્ષિ શ્રીમદ્દ યશોવિજ્યજી મહારાજ વિરચિત ગ્રંથનાં પ્રકાશનનું કાર્ય સરલ બને એ માટે એક ફંડ થયેલું અને એમાં જૈનજનતાએ ઉદાર ભાવે સહકાર આપેલ. ત્યાર બાદ તેઓશ્રીના ગ્રન્થ પ્રકાશન માટે યશભારતી જૈન પ્રકાશન સમિતિ” નામની એક સંસ્થાની સ્થાપના કરવામાં આવી. પ્રસ્તુત સંસ્થા તરફથી કેટલાક ગ્રંથનું પ્રકાશન થયું. જેમાં ઐન્દ્રસ્તુતિચતુર્વિશતિકા, યશદેહન, વૈરાગ્યરતિ” આદિ ત્રણ ગ્રંથ મહત્ત્વપૂર્ણ છે. આ ત્રણ ગ્રંથના પ્રકાશન પછી ફંડની ન્યૂનતાને લીધે ચિરસ્થાયી ફંડ માટે પ્રયાસ થયેલ તથા જૈન શ્રીસંઘે ફરીથી પ્રશંસનીય ઉત્સાહ સાથે સહ્યોગ આપેલું. તેનું જ આ પરિણામ છે કે પૂ. ઉપાધ્યાયજી મહારાજના અન્ય ગ્રંથનું પ્રકાશનકાર્ય સરળ બન્યું છે. તે માટે ઉપદેશકે, પ્રેરક અને દાન આપનારાઓને અમે આભાર માનીએ છીએ. . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 પૂજય ઉપાધ્યાય શ્રીયશોવિજયજી મહારાજની કૃતિઓ ક્રમશઃ પ્રાકૃત, સંસ્કૃત, ગુજરાતી, હિંદી અને મિત્રભાષામાં રચાયેલી છે. તેઓ સંસ્કૃત ભાષાના એક મહાન કવિ અને ટીકાકાર હતા. તેમની રચનાૌલી શાસ્ત્રનિષ્ઠ અને સારગર્ભિત છે. તેથી તે રચનાઓનો આનંદ સર્વસાધારણુને પ્રાપ્ત થાય, આ વાતને લક્ષ્યમાં રાખી સંસ્થાએ આરંભથી જ ગુજરાતી અને હિંદીમાં ભાષાંતર કરાવી ગ્રંથપ્રકાશનને પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે. તેથી આપણો ગુજરાતી સમાજ અને સંસ્કૃતિનો દર્શનશાસ્ત્રાભ્યાસી વર્ગ તેઓશ્રીના મહનીય સાહિત્યને પરિચય મેળવતો રહ્યો છે. પણ “કવિત્વપૂર્ણ રચનાઓના રૂપમાં હિંદીભાષી રસિક સાહિત્યિક વર્ગ પણ તેમની કૃતિઓથી અનભિજ્ઞ ન રહે, એવી પવિત્ર ભાવના મનમાં રાખી પૂજય ઉપાધ્યાયજી મહારાજ વડે રચાયેલાં ભક્તિસ્તાને ભાષાંતર કરાવી સર્વપ્રથમ સ્તોત્રાવલી'માં રૂપમાં પ્રકાશિત કરતાં અમને અનેરો આનંદ અનુભવ થઈ રહ્યો છે. આ ગ્રંથની સમગ્ર યોજના અને પ્રધાનપણે સંપાદનનું કાર્ય સાહિત્ય-કલા-રત્ન પરમપૂજય શ્રીયશોવિજયજી મહારાજે કરેલું છે. પરમપૂજય શ્રીમદ્દ યશોવિજયજી મહારાજ પ્રત્યે અનન્ય ભકિત અને તેમનાં સાહિત્યને સશે પરિપૂર્ણ કરી ચિર તેમજ સ્થિરરૂપ આપવાની અદમ્ય નિષ્ઠાને લીધે જ અનેક દુર્લભ ગ્રંથોનો સંગ્રહ, પ્રતિલિપિકરણ, સંપાદક, અનુવાદ તથા પ્રકાશન કાર્ય ઉત્તમ રીતે સંપન્ન થઈ રહ્યું છે. એટલે અમે વિદ્વત પ્રવર મુનિરાજ શ્રી યશોવિજયજી મહારાજના અત્યંત ઋણી છીએ અને અંત:કરણપૂર્વક આભાર માનીએ છીએ. પ્રસ્તુત “તેંત્રાવલી”માં “વીરસ્તવ' સિવાયના શેષ બીજા બધાં સ્તોત્રના ભાષાંતરની પ્રેસકો પી છેલ્લા નિરીક્ષણ માટે પંડિત શ્રી નરેન્દ્રચંદ્રજીને આપી હતી. તે પછી મુદ્રણ માટે ડો. રુદ્રદેવ ત્રિપાઠીને મોકલાયેલી. ત્યારે પૂજય મુનિરાજ શ્રી યશોવિજયજી મહારાજે Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ] ડે. ત્રિપાઠીને પણ ફરીવાર નિરીક્ષણ અને પરિમાર્જન માટે સૂચવેલું. આ રીતે આ બંને વિદ્વાનોએ પરિશ્રમપૂર્વક યથાશકય સંશોધન કર્યું અને “વીરસ્તવનું પૂરું ભાષાંતર ડે. ત્રિપાઠીએ કરી પ્રેસકોપી તૈયાર કરી જેનું મુનિરાજશ્રએ નિરીક્ષણ કર્યું અને આવશ્યક સૂચના સાથે મુદ્રણ માટે સ્વીકૃતિ આપી. આજે આ સ્તોત્રાવલી હિંદી ભાષાંતર સાથે મુદ્રિત થઈ પાઠકવર્ગના કરૂકમલેમાં પહોંચે છે. ડો. રુદ્રદેવ ત્રિપાઠીએ ભારે પરિશ્રમપૂર્વક આ કાર્ય સંપાદિત કર્યું છે અને આનું મુદ્રણ-કાર્ય પણ પિતાની દેખરેખમાં કરાવ્યું છે, તે બદલે પૂર્ણ કૃતજ્ઞતા અનુભવીએ છીએ. ચરમ તીર્થંકર પરમોપકારી ભગવાન મહાવીરના ૨૫૦૦માં પરિનિર્વાણુ વર્ષમાં પ્રકાશિત આ ગ્રંથ ભાવુકભકત તથા વિદ્યાનુરાગી વિદ્વજનોને અવશ્ય આનંદિત કરશે. એવી આશા સાથે આનાં પ્રકાશનમાં શાસ્ત્રદષ્ટિ અથવા મતિષથી જે કોઈ ક્ષતિ રહી હૈય, તો તે માટે ક્ષમા પ્રાથી છીએ અને આશા રાખીએ છીએ કે વિદ્વતંગ અમને સૂચિત કરવાની કૃપા કરશે તથા પિતે સુધારી આનાં અધ્યયનઅધ્યાપન વડે શ્રમને સફળ બનાવશે. એજ. - મંત્રી શ્રી યશભારતી જૈન પ્રકાશન સમિતિ, મુંબઈ. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રધL6ી અપાદકઠા પચોવચ61, સત્તરમી સદીના મહાન તિર્ધર ન્યાયવિશારદ, ન્યાયાચાર્ય, મહોપાધ્યાય શ્રીમદ્દ યશોવિજયજી મહારાજ વિરચિત સ્તોત્ર-સ્તવાદિકની સંસ્કૃત પદ્યમય કૃતિઓનું “યશોભારતી જૈન પ્રકાશન સમિતિ તરફથી પ્રકાશન થતાં હું અત્યંત આનંદ અને અહોભાવની લાગણી બે કારણે અનુભવું છું. પ્રથમ કારણ એ કે એક મહાપુરુષની સંસ્કૃત ભાષામાં પદ્યબદ્ધ થયેલી મહાન કૃતિઓના પ્રકાશનની જવાબદારીથી હું હળવો થઈ રહ્યો છું અને બીજું કારણ એ કે તમામ કૃતિઓ હિન્દી અર્થ સાથે બહાર પડી રહી છે તે. હિન્દી ભાષાંતર સહિત આ સ્તોત્ર હેવાથી તેનું પઠન-પાઠન જરૂર વધવા પામશે. ભક્તિભાવ ભરી તથા કાવ્ય અને અલંકારની દષ્ટિએ શ્રેષ્ઠ ગણુતી કૃતિઓનો આલાદક રસાસ્વાદ વાંચકે જરૂર અનુભવશે, એ દ્વારા જીવનમાં અનેક પ્રેરણુઓ મેળવી અનેક આત્માઓ ભક્તિમાર્ગોન્મુખ બનશે, અને વીતરાગની ભક્તિ જીવનને વીતરાગભાવ તરફ દોરી જશે. આ કૃતિઓ પૈકી અમુક કૃતિના તથા અન્ય કૃતિઓના કેટલાક કોના પ્રાથમિક ગુજરાતી અનુવાદો મેં કરેલા. જે કૃતિઓ દાર્શનિક તથા તર્કન્યાયથી વધુ સભર હતી તે કૃતિઓના અનુવાદનું કાર્ય એકાંત અને ખૂબ સમય માગી લે તેવું હતું, વળી અમુક કૃતિઓ તથા Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અમુક ગ્લૅકોના અનુવાદનું કાર્ય મારા માટે પણ દુઃશક્ય હતું. આમ છતાંય વહેલે મોડો સમય મેળવીને, પરિશ્રમ સેવીને, જરૂર પડે ત્યાં અન્યને સહકાર મેળવીને પણ ઉપાધ્યાયજી ભગવંતની કૃતિઓના અનુવાદની આ નાની સેવા માટે જ કરવી એવા મારા માનસિક હઠાગ્રહને કારણે વરસો સુધી આ કાર્ય બીજા કોઈને મેં સુપરત ન કર્યું. છેવટે મને લાગ્યું કે હું એકથી વધુ ઘોડા ઉપર સવાર થયેલો છું, કાર્યને ભાર વધતું જાય છે, વળી દિન-પ્રતિદિન સાર્થક કે નિરર્થક વધતી જાંજાળો પણ મારો સમય ખાઈ રહી છે. ઉપરા-ઉપરી આવી રહેલી દીર્ધકાલીન માંદગીઓ, અન્ય પ્રકાશનોનાં ચાલતાં કાર્યો, કલાના ક્ષેત્રમાં થઈ રહેલી પ્રવૃત્તિઓ અને ઈચ્છાઓ કે અનિચ્છાએ સામાજિક કાર્યોમાં કરવી પડતી પટલાઈએ, વગેરે કારણે મને લાગ્યું કે હવે આ કાર્ય મારાથી થવું શક્ય નથી. એટલે પછી આ કાર્ય મેં મારા વિદ્વાન મિત્ર પંડિતને સેંપી દીધું, જેનો ઉલ્લેખ પ્રકાશકીય નિવેદનમાં કર્યો છે. તેઓ દ્વારા સહૃદયતાથી થયેલા કાર્યને પરિભાજિત કરી “વીરસ્તવ” નામની જે કૃતિનું ભાષાંતર કર્યું ન હતું. તેનું પણ ભાષાંતર મારા વિદ્વાન સહૃદયી મિત્ર પં. ડો. રુદ્રદેવજી ત્રિપાઠીએ કર્યું. છેવટે સંપૂર્ણ પ્રેસકોપી તપાસવા માટે પછી મને મેકલી. તે પ્રેસકોપી આદિથી અંત સુધી જોવાનો સમય ન મેળવી શકો છતાં ઉપલક નજરે જોઈ ગયો. કયાંક કયાંક અર્થની દષ્ટિએ વિચારણ માગી લે તેવા સ્થાને હતાં વળી વીરસ્તવનો અનુવાદ ખૂબ પરિશ્રમ પૂર્વક કરવા છતાં ક્યાંક કયાંક સંતોષકારક ન લાગે એટલે ઘટતી સૂચના સાથે પ્રેસકોપી અનુવાદકશ્રીને મોકલી આપી. તેઓએ પણ પુનઃ ઘટતા સુધારા વધારા કર્યા, છતાં પુનરવલકન માગી લે તેવી આ કિલષ્ટ કૃતિ હોવાથી આ વિષયના કેઈસુયોગ્ય વિદ્વાન આ અનુવાદ ખંતથી જોઈ જાય અને - અશુદ્ધ અને શકિત સ્થળો જે હોય તે વિના સંકોચે જણાવે અથવા તે એ સંપૂર્ણ અનુવાદ કરીને તે અનુવાદ મેકલવાની મોટી કૃપા દાખવે Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તે ઘણો આનંદ થશે અને તેથી હવે પછી મુદ્રિત થનાર ગુજરાતી અનુવાદ વાંચકે ને સુયોગ્ય રીતે પ્રામાણિકપણે આપી શકાશે. - પ્રાથમિક યોજના મેં એવી નકકી કરી હતી કે દરેક ક્ષેકની નીચે ગુજરાતી અને હિન્દી અનુવાદો આપવા જેથી મારા ગુજરાતી દાતારો અને વાંચકોને ખૂબજ સંતોષ થાય પણ ગુજરાતી અનુવાદ માટે હું સમય કાઢી શકું તેમ હતું નહિં, બીજા દ્વારા પ્રયાસ કર્યો પણું સમય બહુ જાય તેમ હતું. સુયોગ્ય અનુવાદ ન થાય તે કશો અર્થ ન સરે એટલે તત્કાલ તે હિન્દી અનુવાદથી જ સંતોષ માને છે. ભવિષ્યમાં જેમ બને તેમ જલદી ગુજરાતી અનુવાદ તૈયાર કરાવી જલદી પ્રકાશિત થાય તે માટે જરૂર પ્રયત્નશીલ રહીશ. કઈ સંસ્કારી ભાષાના લેખક મુનિરાજ યા કેઈ વિદ્વાન આવું ઉપકારક કામ કરવા તૈયાર હોય તેઓ મારી સાથે જરૂર પત્ર વહેવાર કરે તેની સાદર નમ્ર વિનંતિ કરું છું. પ્રસ્તુત સ્તોત્રો, કાવ્ય, ઉપ્રેક્ષા, અલંકાર, અર્થ, ભાષ્ય, અને વિવિધ દૃષ્ટિએ કઈ રીતે ઉત્તમ પ્રકારના છે, ઉપાધ્યાયજીએ પ્રાસંગિક કયાં કયાં માર્મિક અને મહત્વની વાતે રજૂ કરી છે તે, સમન્વયાત્મક દષ્ટિએ અવકન વગેરે અંગે હું કશું લખી શક્યો નથી પણ જો કોઈ સુયોગ્ય વિદ્વાન સમીક્ષા કરીને મોકલશે તો ગુજરાતી આવૃત્તિમાં તે જરૂર પ્રગટ કરીશું અને ગૃહસ્થ વિદ્વાન હશે તે યોગ્ય પુરસ્કારની પણ વ્યવસ્થા સંસ્થા કરશે. આ સ્તોત્રના શ્લોકેના ટાઈપ જે વાપર્યા છે તેથી દોઢા મોટા વાપરવાના હતા પણ પ્રેસ પાસે સગવડ ન હોવાથી બની શક્યું નથી. - આ પુસ્તકમાં આપેલા તેત્રમાંથી ઘણું તો જો કે અગાઉ જુદી જુદી સંસ્થા તરફથી પુસ્તકાકારે તથા પ્રતાકારે પ્રગટ થયાં છે છતાંય એક જ સાથે એક જ પુસ્તકમાં તે આ વખતે પ્રથમ જ પ્રગટ થાય છે. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ] . . કેટલાક તેત્રો ગજરાતી અર્થ સાથે પ્રગટ થયાં છે પણ એક બે નાનકડા સ્તોત્ર અવશેષ રહી જાય છે, તે ગુજરાતી આવૃત્તિમાં સમાવી લેવાશે. આ તમામ સ્તોત્રાદિક હિંદીઅર્થ સાથે પ્રથમ જ પ્રગટ થાય છે. અમુક કૃતિઓ પહેલી જ વાર પ્રગટ થાય છે. ઉપાધ્યાયજીના સ્તોત્ર “તેંત્રાવલીથી પ્રસિદ્ધ હોવાથી આ ગ્રન્થનું નામ પણ “સ્તોત્રાવલી રાખ્યું છે. આ અંગેની વિસ્તૃત નોંધ લખવાનું માંદગીના કારણે હોસ્પિટલમાં બિછાનાવશ હોવાથી શકય નથી તેથી સંક્ષેપમાં જ ઉલ્લેખ કર્યો છે. મારા સહૃદયી મિત્ર ડો. રુદ્રદેવજીએ અનુવાદક તરીકે, અનુવાદના સંશોધન તરીકે, મુદ્રણાદિકની સંપૂર્ણ જવાબદારી ઉપાડી લઈને જે સહકાર આપ્યો તે બદલ તેઓ સાચા અભિનંદનના અધિકારી બન્યા છે ઉપાધ્યાયજી વિરચિત કાવ્ય-પ્રકાશની ટીકાનું મુદ્રણકાર્ય મુફ સંશાધન વગેરે પણ તેઓ જ ખૂબ જ ખંતથી કરી રહ્યા છે. થોડા મહિના બાદ તે કૃતિ પણ બહાર પડશે. ઉપાધ્યાયજીના ગ્રંથોનું વરસોથી અધૂરું પડેલું કાર્ય મારા ધર્મસ્નેહી ધર્મબંધુ શ્રીં ચિત્તરંજન ડી. શાહ અને ધર્માત્મા સરલાબહેને માઉન્ટયૂનીકમાં આવેલા તેમના અનુજ બંધુ હેમંતભાઈની જગ્યાની અમને સગવડ આપી અને મેં ત્યાં બહારની કેઈપણ વ્યક્તિને આવવા ઉપર સખત પ્રતિબંધ રાખીને ભૂગર્ભવાસની જેમ જ હું રહ્યો. નીરવ શાંતિ અને રોજના દસ-દસ બાર-બાર કલાક કામ કરીને ઉપાધ્યાયજીની પ્રેસકોપીઓ શોધ માટે જે જે અધૂરી હતી, કેટલીકને છેવટને સ્પર્શ આપવાનું હતું એ બધી પ્રેસકોપીઓને આપો, કલ્પના ન કરી શકાય તેવો ક્ષયોપશમ જાગ્રત થયો હતો, પરિણામે કામ ખૂબ થયું. આ સ્તોત્રાવલીને આખરી સ્પર્શ પણ માઉસૂનીક જગ્યામાં જ આ હતે. દશ વરસનું કામ જે જાહેર સ્થળમાં મારાથી Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થઈ શકતું ન હતું તે પ્રસ્તુત જગ્યામાં ચાર પાંચ મહિનામાં પાર પાડી શકાયું આ અંગે વિશેષ ઉલ્લેખ હું બહાર પડનારા અન્ય ગ્રન્થના નિવેદનમાં કરવા માગું છું. અત્યારે તે મારા એ ભક્તિવંત ઉપર્યુક્ત ધર્માત્માઓ, ભક્તિવંત ધર્માત્મા સુશ્રાવિકાઓ સરલાબહેન, કેકિલાબહેન શ્રી વિરલભાઈ તથા ઘરના શિરછત્ર ધર્માત્મા સુશ્રાવક શ્રી દામોદરભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની સમાજસેવિકા ધર્માત્મા સ્વ. રંભાબહેન વગેરે કુંટુંબ પરિવારને ખૂબજ આભારી છું. તેઓ સહુ શ્રુતસેવાના કાર્યમાં . નિઃસ્વાર્થ રીતે અનુપમ ભક્તિભાવ દાખવી અનેક રીતે જે સહાયક બન્યા તે બદલ જેટલા ધન્યવાદ આપું એટલા ઓછા છે. દેવ, ગુરુ અને ધર્મ પ્રત્યેનો આ ભક્તિભાવ સદા ય જવલંત રહે એ જ શુભેચ્છા ! સ્તોત્રના અનુવાદનું કામ ઘણું કપરું છે. અનુવાદની પદ્ધતિઓ, - લઢણે ભિન્ન ભિન્ન પણ હોય છે અહીં આ અમુક પદ્ધતિને જાળવીને અનુવાદ પ્રસ્તુત કર્યો છે. વીરસ્તવના અનુવાદનું કાર્ય ઘણુ જ કપરું હતું, સંક્ષેપમાં કરવું વધુ કઠિન હતું અને એ અનુવાદ જોઈએ તેવો ચીવટથી જોઈ શકાય પણ નથી એટલે અનુવાદક મહાનુભાવની જે કંઈ ક્ષતિઓ હોય તે માટે વાંચકો ક્ષમા કરે અને તે ક્ષતિઓ સંસ્થાને જણાવે. - અન્તમાં સહુ કોઈ આત્મા આ સ્તોત્રનું અધ્યયન-અધ્યાપન કરીને આધ્યાત્મિક પ્રકાશ મેળવે એજ મંગલ કામના. મુનિ યશોવિજય ડે. બાલાભાઈ નાણાવટી હોસ્પીટલ વિલેપારલા, મુંબઈ તા. 31-4-75 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, षड्दर्शनवेत्ता, पूज्य श्रीमद् यशोविजयजी महाराज __ का संक्षिप्त जीवन-चरित्र -ले० मुनि श्रीयशोविजयजी . हमारे भारतवर्ष के पश्चिम भाग में गुजरात प्रदेश है। इस भूमि पर ही शत्रुजय, गिरनार, पावागढ़ जैसे अनेक पर्वतीय पवित्रधाम हैं, जो दूर-दूर से लोगों के मन को आकर्षित करते हैं / धार्मिक क्षेत्र में दिग्गजस्वरूप समर्थ विद्वान्, महान् प्राचार्य और श्रेष्ठ सन्त, तपस्विनी साध्वियाँ तथा राष्ट्रीय ग्रंथवा सामाजिक क्षेत्र में सर्वोच्च कोटि के नेता, कार्यकर्ता, साहित्यक्षेत्र में विविध भाषा के विख्यात लेखक, कवि और सर्जक भी गुजरात की भूमि ने उत्पन्न किये हैं / महान् वैयाकरण पाणिनि के संस्कृत-व्याकरण से निर्विवादरूप में अति उच्चकोटि का माने जानेवाले 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक व्याकरण की अनमोल भेट केवल गुजरात को ही नहीं अपितु समस्त विश्व को जो प्राप्त हुई है, उसके रचयिता गुजरात की सन्तप्रसू भूमि पर उत्पन्न जैनमुनि कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी ही थे। भारत के अठारह प्रदेशों में अहिंसा-धर्म का व्यापक प्रचार करनेवाले गुर्जरेश्वर परमार्हत महाराजा कुमारपाल भी गुजरात की धरती पर उत्पन्न होनेवाले नररत्न थे। जिनके आदेश से सेना के लाखों की संख्या में नियुक्त व्यक्ति, हाथी एवं घोड़े भी जहाँ वस्त्र से छना हुआ पानी पीते थे। सिर में पड़ी हुई जूं तक को जिसके राज्य में मारा नहीं जा सकता था, जिसने धरती से हिंसा-राक्षसी को सर्वथा देशनिकाला दे दिया था, वे महाराजा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] कुमारपाल पूज्य श्री हेमचन्द्राचार्यजी के ही शिष्यं थे। यही कारण है कि हेमचन्द्राचार्यजी एवं कुमारपाल की जोड़ी द्वारा लोकहृदय में बहाई गई अहिंसा, दया, करुणा, प्रेम, कोमलता, सहिष्णुता, समभाव, शान्तिप्रियता, धार्मिक भाव, सन्तप्रेम, उदारता आदि गुणों की धारा इस देश में प्रमुख स्थान रखती है। वस्तुतः अपने गुरुदेव के आदेश से कुमारपाल द्वारा योग्यता और सत्ता के सहारे गुजरात की धरती . के प्रत्येक घर से लेकर कण-कण तक फैलाई गई अहिंसा भारत के इतिहास में बेजोड़ है, अद्भुत है और अमर है। ऐसी गुजरात की पुण्य भूमि पर उत्तर गुजरात में एक समय गुजरात की राजधानी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त 'पाटण' शहर है / जो कि मन्दिर, सन्त, महात्मा, धर्मात्मा तथा श्रीमन्तों से सुशोभित है। उस पाटण नगर के निकट ही 'धीरपोज' गाँव है / इस धीणोज से कुछ दूरी पर 'कनोडु' नामक गाँव है / आज वह गांव सामान्य गाँव जैसा है, आज वहाँ सम्भवतः जैनों के एक-दो घर होंगे किन्तु सत्रहवीं शती में वहां जैनों की बस्ती अधिक रही होगी। इसी 'कनोडु, गाँव में 'नारायण' नामक एक जैन व्यापारी रहते थे, जो धर्मिष्ठ थे। उनकी पत्नी का नाम 'सोभागदे' (सौभाग्यदेवी। था। इस पत्नी ने किसी सुयोग्य समय में एक महान् तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। माता-पिता ने उसका नाम 'जसवंत कुमार' रखा। ये जसवंत ही थे हमारे भावी 'यशोविजय जी।' ___ अत्यन्त खेद की बात है कि वे किस वर्ष के किस मास में किस दिन उत्पन्न हुए थे' इसका कहीं कोई उल्लेख हमें प्राप्त नहीं होता है। उनके जीवन को व्यक्त करने वाली- 'सुजसबेली, ऐतिहासिक वस्त्रपट, हैमधातुपाठ की लिखित पोथी, ऊना के स्तवन का लिखित पत्र तथा उनके द्वारा रचित ग्रंथों की प्रशस्तियाँ'- इन सब सामग्रियों Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 का अध्ययन करने से आपका जन्म सम्भवतः वि०सं० 1640 से 1650 के बीच का माना जा सकता है तथा वे सं० 1743 में स्वर्गवासी हुए थे, इस उल्लेख के आधार पर उनकी आयु सौ वर्ष की रही होगी यह अनुमान किया जा सकता है / सं.१६८८ में 'सुजसवेली' रचना के कथनानुसार पण्डित 'नयविजयजी' कुणगेर से चातुर्मास करके कनोडं पधारे, जसवंत की माता 'अपने पुत्र का जीवन धामिक-संस्कारों से सुवासित बने' इस भावना से प्रतिदिन देवदर्शन तथा गुरुदर्शन के लिये जाती थीं तब जसवन्त को भी साथ ले जाती थीं। देवदर्शन करके नित्य उपाश्रय में गुरु को वन्दना और सुखशाता की पृच्छा करके माङ्गलिक पाठ का श्रवण करतीं और अपने घर गोचरी-भिक्षा का लाभ देने की प्रार्थना करतीं। धीरे-धीरे जसवंत अन्य समय में उपाश्रय जाता-अाता, साधुओं के साथ बैठता, साधु महाराज उसे प्रेम से बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते / रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसो के अनुसार गुरुवर्य नयविजयजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता ग्रादि गुणों को देखकर भविष्य के एक महान् नररत्न की झाँकी पाई / जसवंत के भविष्य का अङ्कन कर लिया। गुरुदेव ने संघ की उपस्थिति में जसवंत को जैनशासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढ्य बनेगा अथवा देश-विदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हूँ तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] समान रहकर घर को प्रकाशित करेगा किन्तु यदि त्यागी होकर ज्ञानी बन गया तो सूर्य के समान हजारों घरों को प्रकाशित करेगा, हजारों आत्माओं को आत्मकल्याण का मार्ग बताएगा। अतः यदि एक घर की अपेक्षा अनेक घरों को मेरा पुत्र प्रकाशित करे, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या प्रिय हो सकता है ? मैं कैसी बड़भागी होऊँगी ? मेरी कुक्षि रत्नकुक्षी हो जाएगी।' ऐसे विचारों से माता के हृदय में हर्ष और आनन्द का ज्वार उठा, जैनशासन को अपनाई हुई माता ने उत्साहपूर्वक गुरु और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य किया। अपने अतिप्रिय कुमार को एक शुभ चौघड़िये में गुरु श्रीनयविजयजी को समर्पित कर दिया। यह भी एक धन्य क्षण था। इस प्रकार जैनशासन के भावी में होनेवाले जयजयकार का बीजारोपण हुग्रा। धर्मात्मा सोभागदे ने वैरागी और धर्मसंस्कारी जसवंत को शासन के चरणों में अर्पित कर दिया.। छोटे से कनोई ग्राम में ऐसे उत्तम बालक को दीक्षा देने का कोई महत्त्व नहीं था, अतः श्रीसंघ ने अनुकूल साधन-सामग्री वाले निकटस्थ पाटण नगर में ही दीक्षा देने का निर्णय लिया। पिता नारायणजी का पाटण शहर के साथ उत्तम सम्बन्ध था। इसलिये हमारे चरित्रनायक पुण्यशाली जसवंत कुमार की भागवती दीक्षा शुभ मुहूर्त में 'अरणहिलपुर' के नाम से प्रसिद्ध पाटण शहर में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई। ___ अपने भाई को संयम के पन्थ पर जाते हुए देखकर जसवन्त के भाई 'पद्मसिंह' का मन भी वैराग्य के रंग में रंग गया था, धर्मात्मा माता-पिता उसमें सहायक थे और पद्मसिंह द्वारा दीक्षा लेने की उत्कट भावना व्यक्त करने पर उसे भी उसी समय दीक्षा दी गई। जैनश्रमण परम्परा के नियमानुसार गृहस्थाश्रम का नाम बदलकर जसवन्त का नाम –'यशोविजय' 'जसविजय' और पद्मसिंह का नाम Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 13 'पद्मविजय' रखा गया। इन नामों का समस्त जनता ने जयनादों की प्रचण्ड घोषणां के साथ अभिनन्दन किया। जनता का आनन्द अपार था। चतुर्विध श्रीसंघ ने सुगन्धित अक्षतों द्वारा आशीर्वाद दिये। दोनों पुत्रों के माता-पिता ने भी अपने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद देकर उनको बधाई दी। अपनी कोख को प्रकाशित करनेवाले दोनों बालकों को चारित्र के वेश में देखकर उनकी आँखें अश्रु से भीग गईं। घर में उत्पन्न प्रकाश प्राज से अब जगत् तो प्रकाशित करनेवाले पथ पर प्रस्थान करेगा, इस विचार से दोनों के हृदय आनन्दविभोर हो गये। पहले छोटी दीक्षा दी जाती है, बाद में बड़ी / अतः इस दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा के योग्य तप किया। पूरी योग्यता प्राप्त होने पर उन्हें बड़ी दीक्षा दी गई। तदनन्तर गुरु नयविजयजी विहार करके अहमदाबाद पधारे। वहाँ विविध प्रकार का धार्मिक शिक्षण प्रारम्भ किया। तीव्र बुद्धिमत्ता के कारण वे तेजी से पढ़ने लगे। पढ़ने में एकाग्रता और उत्तम व्यवहार को देखकर श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने बालमुनि जसविजय में भविष्य के महान् साधु की अभिव्यक्ति पाई। बुद्धि की कुशलता, उत्तर देने की विलक्षणता आदि देखकर उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुआ, धारणा शक्ति का अनूठा परिचय मिला। वहां के भक्तजनों में 'धनजी सुरा' नामक एक सेठ थे। उन्होंने जसविजयजी से प्रभावित होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि 'यहाँ उत्तम पण्डित नहीं हैं अतः विद्याधाम काशी में यदि इन्हें पढ़ने के लिये ले जाएँ तो ये द्वितीय हेमचन्द्राचार्य जैसे महान् और धुरन्धर विद्वान् बनेंगे और इसके लिये होनेवाले समस्त व्यय का भार उठाने तथा पण्डितों का उचित सत्कार करने का वचन भी दिया। ___ गुरुदेव यशोविजय के साथ उत्तम दिन विहार करके वे परिश्रम- . पूर्वक गुजरात से निकलकर दूर सरस्वतीधाम काशी में पहुंचे। वहाँ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] एक महान् विद्वान् के पास सभी दर्शनों का अध्ययन किया। ग्रहणशक्ति, तीव्रस्मृति तथा आश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण व्याकरण, तर्क-न्याय आदि शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही वे अन्यान्य शास्त्रों की विविध शाखाओं के पारङ्गत विद्वान् भी बन गये। दर्शनशास्त्रों का ऐसा आमूल-चूल अध्ययन किया कि वे 'षड्दर्शन-वेत्ता' के रूप में प्रसिद्ध हो गये। उसमें भी नव्यन्याय के तो वे बेजोड़ विद्वान् बने और शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने में उनकी बुद्धि-प्रतिभा ने अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये। उन दिनों अध्यापन करनेवाले पण्डितजी को 30 रु० मासिक दिया जाता था। - काशी में गङ्गातट पर रहकर उपाध्यायजी ने 'ऐङ्कार' मन्त्र द्वारा सरस्वतीमन्त्र का जप करके माता शारदा को प्रसन्न कर वरदान' प्राप्त किया था जिसके प्रभाव से पूज्य यशोविजयजी की बुद्धि तर्क, काव्य और भाषा के क्षेत्र में कल्पवृक्ष की शाखा के समान बन गई। __ एक बार काशी के राज-दरबार में एक महासमर्थ दिग्गज विद्वान् -जो अजैन थे—के साथ अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी-वर्ग की उपस्थिति में शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला धारण की थी। उनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर कांशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से सम्मानित किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर और जैन प्रजा के इस सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया तथा जैनशासन का गौरव बढ़ाया। काशी से विहार करके आप आगरा पधारे और वहाँ चार वर्ष रह 1. यह बात स्वयं उपाध्याय जी ने अपने ग्रन्थों में व्यक्त की है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 15 कर किसी न्यायाचार्य पण्डित से तलस्पर्शी अभ्यास किया। तर्क के सिद्धान्तों में वे उत्तरोत्तर पारङ्गत होते गए। वहाँ से विहार करके गुजरात के अहमदाबाद नगर में पधारे। वहाँ श्रीसंघ ने विजयी बन कर पानेवाले इस दिग्गज-विद्वान् मुनिराज का पूर्ण स्वागत किया। उस समय अहमदाबाद में महोबतखान नामक सूबा राज्य-कार्य चला रहा था। उसने पूज्य उपाध्यायजी की विद्वत्ता के बारे में सुन कर आपको आमन्त्रित किया। सूबे की प्रार्थना पर आप वहाँ पधारे और 18 अवधान प्रयोग कर दिखाए। सूबा उनकी स्मृतिशक्ति पर मुग्ध हो गया। उनका सम्मान किया / जैनशासन का जय-जयकार हुआ। वि० सं० 1718 में श्रीसंघ ने तत्कालीन तपागच्छीय श्रमणसंघ के अग्रणी श्रीदेवसूरिजी से प्रार्थना की कि 'यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान् हैं और उपाध्याय पद के योग्य हैं। अतः इन्हें यह पद प्रदान करना चाहिए।' इस प्रार्थना को स्वीकृत करके सं० 1718 में श्रीयशोविजयजी गणी को उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। उपाध्याय जी के अपने छह शिष्य थे, ऐसी लिखित सूचना प्राप्त होती है। .' उपाध्याय जी ने स्वयं लिखा हैं कि 'न्याय के ग्रन्थों की रचना . करने से मुझे 'न्यायाचार्य' का विरुद विद्वानों ने प्रदान किया है / उपाध्यायजी ने अनेक स्थानों पर विचरण किया था किन्तु प्रमुखरूप से वे गुजरात और राजस्थान में रहे होंगे ऐसा ज्ञात होता है / 'सुजसवेली' के आधार पर उनका अन्तिम चातुर्मास बड़ोदा शहर के पास डभोई (दर्भावती) गाँव में हुआ और वहीं वे स्वर्गवासी हुए। इस स्वर्गवास का वर्ष सुजसवेलि के कथनानुसार 1743 था। तदनन्तर उनका स्मारक डभोई में उनके अग्निसंस्कार के स्थान पर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाया गया और वहाँ उनकी चरण-पादुका स्थापित की गई। पादुकाओं पर 1745 में प्रतिष्ठा करने का उल्लेख है। उपाध्याय जी के जीवन का निष्कर्षरूप परिचय 'यशोदोहन' नामक ग्रन्थ में मैंने दिया है वही परिचय यहाँ उद्धत करता हूँ जिससे उपाध्याय जी के जीवन की कुछ विशिष्ट झाँकी होगी। __ "विक्रम की सत्रहवीं शती में उत्पन्न, जैनधर्म के परम प्रभावक, जैन दर्शन के महान् दार्शनिक, जैन तर्क के महान् तार्किक, षड्दर्शनवेत्ता और गुजरात के महान् ज्योतिर्धर, श्रीमद् यशोविजय जी महाराज एक जैन मुनिवर थे। योग्य समय पर अहमदाबाद के जैन श्रीसंघ द्वारा समर्पित उपाध्याय पद के विरुदं के कारण वे 'उपाध्याय जी' बने थे / सामान्यतः व्यक्ति विशेष' नाम से ही जाना जाता है किन्तु इनके लिए यह कुछ नवीनता की बात थी कि जैनसंघ में आप विशेष्य से नहीं अपि तु 'विशेषण' द्वारा मुख्यरूप से जाने जाते थे। “उपाध्यायजी ऐसा कहते हैं, यह तो उपाध्यायजी का वचन है" इस प्रकार उपाध्यायजी शब्द से श्रीमद् यशोविजय जी का ग्रहण होता था / विशेष्य भी विशेषण का पर्यायवाची बन गया था / ऐसी घटना विरल व्यक्तियों के लिए ही होती है / इनके लिए तो यह घटना वस्तुतः गौरवास्पद थी। ___ इसके अतिरिक्त श्रीउपाध्याय जी के वचनों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही एक और विशिष्ट एवं विरल घटना है। इनकी वाणी, वचन अथवा विचार 'टंकशाली' ऐसे विशेषण से प्रसिद्ध हैं। तथा 'उपाध्यायजी की साख (साक्षी। 'पागमशास्त्र' अर्थात् शास्त्रवचन ही हैं ऐसी भी प्रसिद्धि है। आधुनिक एक विद्वान् प्राचार्य ने आपको 'वर्तमान काल के महावीर' के रूप में भी व्यक्त किया था। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 17 आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्यायजी द्वारा रचित शास्त्र अथवा टीका के 'प्रमारण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है। उपाध्यायजी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय / इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेवली' ऐसे विशेषण से सम्बोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के सर्वज्ञ' अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान / इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का वर्णन कर सकने वाले। ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में (प्रायः आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के अभाव अथवा अन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर-सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखात्रों का आमूलचूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने अद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया एवं विद्वानों में 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए थे। . काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्, जो कि अजन था, उसके साथ अनेक विद्वान तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी। पूज्य उपाध्यायजी के अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से अलंकृत किया था। उस समय जैनसंस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने- जैन प्रजा के एक सपूत ने-जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार कराया था तथा जैनशासन की शान बढ़ाई थी। - ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] दृष्टि से उन्हें दो-चार नहीं, अपितु अनेक विषयों के पी-एच.० डी० कहें तो भी अनुचित न होगा। ___ भाषा की दृष्टि से देखें तो उपाध्याय जी ने अल्पज्ञ अथवा विशेषज्ञ, बालक अथवा पण्डित, साक्षर अथवा निरक्षर, साधु अथवा संसारी सभी व्यक्तियों के ज्ञानार्जन की सुलभता के लिए जैनधर्म की मूलभूत प्राकृतभाषा में, उस समय की राष्ट्रीय जैसी मानी जानेवाली संस्कृत भाषा में तथा हिन्दी और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है / उपाध्यायजी की वाणी सर्व नयसम्मत मानी जाती है अर्थात् वह सभी नयों की अपेक्षा गर्भित है। विषय की दृष्टि से देखें तो आपने अागम, तर्क, न्याय, अनेकान्तवाद, तत्त्वज्ञान, साहित्य, अलंकार, छन्द, योग, अध्यात्म, प्राचार, चारित्र, उपदेश आदि अनेक विषयों पर मार्मिक तथा महत्त्वपूर्ण पद्धति से लिखा है। संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो उपाध्याय जी की कृतियों की संख्या 'अनेक' शब्दों से नहीं अपि तु सैंकड़ों' शब्दों से बताई जा सके इतनी है / ये कृतियाँ बहुधा आगमिक और तार्किक दोनों प्रकार की हैं / इनमें कुछ पूर्ण तथा कुछ अपूर्ण दोनों प्रकार की हैं तथा कितनी ही कृतियाँ अनुपलब्ध हैं। स्वयं श्वेताम्बर परम्परा के होते हुए भी दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ पर टीका लिखी है / जैन मुनिराज होने पर भी अजैन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिख सके हैं। यह आपके सर्वग्राही पाण्डित्य का प्रखर प्रमाण है / शैली की दृष्टि से देखते हैं तो आपकी कृतियाँ खण्डनात्मक, प्रतिपादनात्मक और समन्वयात्मक हैं / उपाध्यायजी की कृतियों का पूर्ण योग्यतापूर्वक पूरे परिश्रम के साथ अध्य१. उपाध्याय जी महाराज द्वारा रचित कृतियों की सूची के लिए देखिए परिशिष्ट पहला। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 16 यन किया जाए, तो जैन आगम अथवा जैन तर्क का सम्पूर्ण ज्ञाता बना जा सकता है / अनेकविध विषयों पर मूल्यवान् अति महत्त्वपूर्ण सैंकड़ों कृतियों के सर्जक इस देश में बहुत कम हुए हैं उनमें उपाध्यायजी का निःशङ्क समावेश होता है। ऐसी विरल शक्ति और पुण्यशीलता किसी-किसी के ही भाग्य में लिखी होती है / यह शक्ति वस्तुतः सद्गुरुकृपा, सरस्वती का वरदान तथा अनवरत स्वाध्याय इस त्रिवेणी सङ्गम की आभारी है। __ उपाध्याय जी 'अवधानकार' अर्थात् बुद्धि की धारणा शक्ति के चमत्कारी भी थे। अहमदाबाद के श्रीसंघ के समक्ष और दूसरी बार अहमदाबाद के मुसलमान सूबे की राज्यसभा में आपने अवधान के प्रयोग करके दिखलाए थे। उन्हें देखकर सभी आश्चर्यमुग्ध बन गए थे। मानव की बुद्धि-शक्ति का अद्भुतं परिचय देकर जैन-धर्म और जैन साधु का असाधारण गौरव बढाया था। उनकी शिष्य-सम्पत्ति अल्प ही थी। अनेक विषयों के तलस्पर्शी विद्वान् होते हुए भी 'नव्यन्याय' को ऐसा आत्मसात् किया था कि वे 'नव्यन्याय' के अवतार माने जाते थे। इसी कारण वे 'ताकिक-शिरोमणि' के रूप में विख्यात हो गए थे / जनसंघ में नव्यन्याय के आप अनन्य विद्वान् थे। जैन सिद्धान्त और उनके त्याग-वैराग्य-प्रधान आचारों को नव्यन्याय के माध्यम से तर्कबद्ध करनेवाले एकमात्र अद्वितीय उपाध्याय जी ही थे। उनका अवसान गजरात के बड़ौदा शहर से 16 मील दूर स्थित प्राचीन दर्भावती, वर्तमान डभोई शहर में वि० सं० 1743 में हुआ था। भाज उनके देहान्त की भूमि पर एक भव्य स्मारक बनाया गया है जहां उनके वि० सं० 1945 में प्रतिष्ठा की हुई पादुकाएँ पधराई गई हैं / डभोई इस दृष्टि से सौभाग्यशाली है। उपाध्याय जी के जीवन की तथा उनको छूनेवाली घटनाओं की यहाँ संक्षेप में सच्ची झांकी कराई गई है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक का पुरोवचन सत्रहवीं शती के महान् ज्योतिर्धर, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज विरचित स्तोत्र-स्तवादि की संस्कृत पद्यमय कृतियों का 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' की ओर से प्रकाशन होने से मैं अत्यन्त आनन्द तथा अहोभाग्य का अनुभव करता हूं इसके दो कारण हैं; एक तो यह कि एक महापुरुष की संस्कृतभाषा में निबद्ध पद्यमय महान् कृतियों के प्रकाशन की जबाबदारी से मैं हलका हो रहा हूँ और दूसरा यह कि ये सभी कृतियां हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो रही हैं। हिन्दी अनुवाद के साथ इन स्तोत्रों के प्रकाशन से अवश्य ही इनके पठन-पाठन में वृद्धि होगी। भक्तिभाव से, अोतप्रोत तथा काव्य एवं अलंकारों की दृष्टि से श्रेष्ठ कही जानेवाली इन कृतियों के आह्लादक रसास्वाद का पाठक अवश्य ही अनुभव करेंगे, इनके द्वारा जीवन में अनेक प्रेरणाएँ प्राप्त कर अनेक आत्माएँ भक्तिमार्गोन्मुख बनेंगी तथा वीतराग की भक्ति जीवन को वीतरागभाव के प्रति आकृष्ट करेगी। हमारा स्तुति-साहित्य आगमों के काल से ही पर्याप्त विस्तार को प्र.प्त है। प्रत्येक जिनभक्ति-सम्पन्न भविक अपने आत्मकल्याण के लिये प्रभुकृपा का अभिलाषी होता है / इस पर भी जो संवेगी मुनिवर्ग है वह तो सर्वतोभावेन मन, वचन और काया से प्रभु की शरण प्राप्त कर लेता है, अतः उसका प्रत्येक क्षण उपासना, नित्यक्रिया एवं व्याख्यानादि में ही बीतता है। प्राक्तन संस्कारों से तथा इस जन्म के स्वाध्याय से कवि-प्रतिभा-प्राप्त मुनिवर्ग इष्टदेव के चरणों में वाणी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 के पुष्प सदा से अर्पित करता आया है। वे ही पुष्प उत्तरकाल के भविकों के लिये स्तोत्र के रूप में संग्राह्य होते रहे हैं / इस प्रकार जैन सम्प्रदाय में स्तोत्र-सम्पदा बहुत ही अधिक सङ्गृहीत है। पूज्य उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने भी प्राकृत, संस्कृत एवं गुजराती-हिन्दी भाषा में अनेक स्तोत्र लिखे हैं उनमें कुछ तो यत्र-तत्र प्रकाशित हुए हैं और कुछ जो बाद में उपलब्ध हुए हैं वे इस ग्रन्थमें अनुवादसहित दिये गये हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'देवता की उपासना, स्तुति, भक्ति साधना और वरदान क्या ये कम-सत्ता पर प्रभाव डाल सकते हैं ? अथवा कर्म के क्षयोपशम में निमित्त बन सकते हैं ? ऐसी शङ्का सहजसम्भव है ! ऐसा समझकर ही उपाध्याय जी ने 'ऐन्द्रस्तुति' के एक पद्य की टीका में स्वयं प्रश्न उठाया है कि-'नच देवता-प्रसादादज्ञानोच्छेदासिद्धिः तस्य कविशेष-विलयाधीनत्वात्' इति वाच्यम्, देवताप्रसादस्यापि क्षयोपशमाधायकत्वेन तथात्वात्, द्रव्यादिक प्रतीत्य क्षयोपशम-प्रसिद्धेः' अर्थात् क्या देवलोक के देवों की कृपा से अज्ञानता का उच्छेद हो सकता है ? और उत्तर में कहा है कि-'वस्तुतः अज्ञानता के विनाश में 'ज्ञानावरणीयादि कर्म का क्षय, क्षयोपशम का कारण है। इतना होने पर भी देवकृपा भी क्षयोपशम का कारण बन सकती है, क्योंकि क्षयोपशम की प्राप्ति में शास्त्रकारों ने द्रव्यादिक पाँचों को कारण के रूप में स्वीकार किया है। इनमें देवता-प्रमाद 'भाव' नामक कारण में अन्तहित माना है। साथ ही पुरुष की प्रवृत्ति में जिस प्रकार श्रतज्ञान उपकारी है उसी प्रकार देवता की कृपा भी उपकारी है, यह बात 'ऐन्द्रस्तुति' में पद्मप्रभस्तुति के श्लोक 4 की टीका में 'भवति हि पुरुषप्रवृत्तौ श्रुतमिव देवताप्रसादोऽप्युपकारीत्येवमुक्तम्' कहकर भी उसकी पुष्टि की है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] इस दृष्टि से ही प्रेरित होकर सम्भवतः सभी साधकवर्ग: यदि स्वयं कवित्वशक्ति रखता है तो स्वयं स्तोत्रादि की रचना करता है अन्यथा अन्य साधकों द्वारा प्रणीत स्तुतियों से इष्टदेव की कृपा प्राप्त करता है। इसी प्रसङ्ग में स्तोत्र, स्तुति, स्तव, संस्तव, स्तवन आदि शब्दों से रूढ प्रक्रिया के शाब्दिक एवं पारिभाषिक अर्थों पर विचार करना भी अप्रासङ्गिक न होगा। ___ इन सभी शब्दों के मूल में ष्टुन -स्तुतौ' धातु का 'स्तु' रूप निहित है। स्तुति अर्थ में प्रयुक्त इस धातु का स्फुट अर्थ गुणप्रशंसा होता है। इसी के आधार पर - 'जिनेश्वर देव के विशिष्ट सद्गुणों के कीर्तनादि से सम्बद्ध जो रचनाएँ हुई हैं वे 'स्तोत्र' नाम से अभीष्ट हैं।', स्तोत्र-रचना दो प्रकार की होती है / एक नमस्काररूप और दूसरी जिनेश्वरदेव के असाधारण गुणों का कीर्तन करने रूप / यहाँ द्वितीयरूप ही स्तोत्र' पद से गृहीत है। अर्थ की दृष्टि से वैसे स्तोत्र, स्तव आदि शब्द समानार्थक ही हैं तथापि रचना की दृष्टि से कुछ सूक्ष्म भेद उपलब्ध होते हैं / यथा 'तत्र स्तुतिरेकश्लोकमाना, एव दुगे तिसलोका, थुतीसु अन्नेसि जा होई, समय-परिभाषया स्तुतिचतुष्टये' आदि वाक्यों के अनुसार एक पद्य 1. उच्चर्युष्टं वर्णनेडा, स्तवः स्तोत्र स्तुतिर्नुति; / श्लाघा प्रशंसार्थवाद: (अभित्रान-चिन्तामणि, नाममाला, काण्ड 2, 183/84 / ) स्तुतिर्नाम गुणकघनम् (महि० स्तो०)। 2- स्तुतिद्विधा प्रणामरूपा, असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा च / आवश्यकसूत्रे / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 से चार पद्य तक की रचना स्तुति कहलाती है जबकि 'स्तोत्रं पुनर्बहुश्लोकमानम्' (पंचा०) के अनुसार स्तोत्र अनेक श्लोकवाला होता है / प्रस्तुत 'स्तोत्रावली' में प्रत्येक स्तोत्र के श्लोकों की संख्या भी 4 से अधिक है, अतः इन्हें स्तोत्र की संज्ञा दी गई है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में यह भी कहा गया है कि-'स्तुतिस्तू/भूय कथनम्' अर्थात् 'स्तुति खड़े होकर बोली जाती है जबकि स्तोत्रस्तवादि बैठकर बोले जाते हैं। . स्तुतियों के प्रकार पद्यसंख्या एवं वर्ण्यविषय के आधार पर ही बताये गये हैं जबकि रचना-सौष्ठव, उक्तिप्रकार, वचनवैचित्र्य आदि की दृष्टि से तो ये अनेकविध होती हैं / उदाहरण के लिये१-वर्णविन्यासात्मक-एकाक्षरी से लेकर अनेकाक्षरी तक। २-भाषावैविध्य-पद्धतिरूप-प्राकृत, संस्कृत, देशी, अपभ्रंश प्रादि से मिश्रित। ३-चमत्कृतिमूलक-विविध चमत्कारपूर्ण शास्त्रीय पद्धतियों से . . रचित। ४-कल्पनामूलक-वाचकों के मन को मानन्द के प्राकाश में विचरण करानेवाली कल्पना से संयुक्त / ५-विविधार्थमूलक-एक अर्थ से लेकर दो, बार, दस, सो अर्थों से युक्त। ६-काव्यकौतुकपूर्ण-अनेक विषयगर्भ, चित्रबन्धादि तथा प्रहेलिका, * समस्या-पूर्ति प्रादि काव्यकौतुकों से परिपूर्ण / इनके अतिरिक्त भी और कई प्रकार प्राप्त होते हैं, जिनकी विशेष चर्चा यहाँ प्रसङ्गोपात्त नहीं है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] ___ स्तुति किसकी की जाती है ? यह एक प्रश्न और उठता है, जिसका उत्तर है कि-देवताओं में अरिहंतों की स्तुति की जाती है। अरिहंतों को तीर्थङ्कर भी कहा जाता है। अरिहंत सर्वज्ञ होते हैं, सर्वदर्शी होते हैं, सर्वोत्तम चारित्र्यवान् तथा सर्वोच्च शक्तिमान् होते हैं। अन्य' शब्दों में कहें तो त्रिकालज्ञानी अर्थात् विश्व के समस्त पदार्थों को प्रात्मज्ञान द्वारा जाननेवाले तथा सभी पदार्थों को आत्म-प्रत्यक्ष से देख सकनेवाले तथा रागद्वेष से रहित होने के कारण सम्पूर्ण वीतराग और विश्व की समस्त शक्तियों से भी अनन्तगुरण अधिक शक्तिसम्पन्न होते हैं / तथा नमस्कार-सूत्र अथवा नवकारमन्त्र में पहला नमस्कार भी उन्हें ही किया गया है। अरिहंत अवस्था में विचरण करनेवाले व्यक्ति संसार के सञ्चालक, घाती-प्रघाती प्रकारके प्रमुख आठ कर्मों में से चार घाती कर्मों का क्षय करनेवाले होते हैं। इन कर्मों का क्षय होने से, अठारह प्रकार के दोष कि जिनके चंगुल में सारा जगत् फँसकर महान् कष्ट पा रहा है, उनका सर्वथा ध्वंस होने पर सर्वोच्चगुण सम्पन्नता का आविर्भाव होता है और विश्व के प्राणियों को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अमैथुन तथा अपरिग्रह का उपदेश देते हैं और उसके द्वारा जगत् को मङ्गल एवं कल्याण का मार्ग दिखलाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही 'अरिहंत' कहते हैं। __ये सरिहंत जब तक पृथ्वी पर विचरण करते रहते हैं तब तक उन्हें अरिहंत के रूप में ही पहिचानते हैं। किन्तु ये सिद्धात्मा नहीं कहलाते / क्योंकि इस अवस्था में भी अवशिष्ट चार घाती कर्मों का उदय होता रहने से अल्पांश में भी कर्मादानत्व रहता है। पर जब ये ही शेष उन चारों अघाती कर्मों का क्षय करते हैं तब अन्तिम देह का स्याग होता है और आत्मा को संसार में जकड़ रखने में कारणभूत Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 प्रघाती. कर्मों के प्रभाव में संसार के परिभ्रमण का अन्त हो जाता है, प्रसिद्धपर्याय समाप्त होजाता है, सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति होने पर आत्मा सिद्धात्मा के रूप में यहाँ से असंख्य कोटानुकोटि योजन दूर, लोक-संसार के अन्त में स्थित सिद्धशिला के उपरितन भाग पर उत्पन्न. हो जाते हैं। तब वे सिद्धात्मा के अतिरिक्त मुक्तात्मा, निरञ्जन, निराकार आदि विशेषणों के अधिकारी बन जाते हैं। शास्त्रों में शिवप्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, निर्वाणप्राप्ती, मोक्षप्राप्ति प्रादि शब्दों के जो उल्लेख मिलते हैं, वे सभी शब्द पर्यायवाची हैं। सिद्धात्मा हो जाने पर उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता है अर्थात् वे अजन्मा बन जाते हैं / जन्म नहीं तो जरा और मरण भी नहीं, मौर जरा-मरण नहीं तो उससे सम्बन्धित संसार नहीं, संसार नहीं तो आधि, व्याधि और उपाधि से संस्सृष्ट अन्य वेदनाएं, अशान्ति, दुःख, असन्तोष, हर्ष-शोकखैद-ग्लानि आदि का लेश मात्र सञ्चार भी नहीं। नमस्कार-सूत्र के द्वितीय पद में ऐसे ही सिद्धों को नमस्कार किया गया है और उन्हें द्वितीय परमेष्ठी के रूप में स्थान प्राप्त है। . वैसे स्तुति के पात्र तो पाँचों परमेष्ठी हैं। किन्तु उनमें भी धर्ममार्ग के अाद्य प्रकाशंक अरिहंत ही होते हैं। जगत् को सुख-शान्ति और कल्याण का मार्ग बतानेवाले भी ये ही हैं। प्रजा के सोधे उपकारक भी ये ही हैं / अतः सभी अरिहंत अथवा अरिहंतावस्था की स्तुति की जाए यह उचित और स्वाभाविक है। ___ यहाँ यह भी विचारणीय है कि एक मनुष्य सामान्य-स्थिति से - उठकर अरिहंत जैसी परमात्मा की स्थिति में कैसे पहुँचता होगा? इस सम्बन्ध में शास्त्रों के आधार पर उनके जीवन-विकास को अति संक्षेप में समझ लें। - अखिल विश्व के प्राणिमात्र में से कुछ प्रात्माएँ ऐसी विशिष्ट Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] होती हैं कि, वे परमात्मा की स्थिति में पहुँचने की योग्यता रखती हैं।' ऐसी आत्माएँ जड़ अथवा चेतन का कुछ न कुछ निमित्त मिलने पर अपनी आत्मा का विकास करती जाती हैं। अन्य जन्मों की अपेक्षा मानवजन्मों में उस विकास की गति अति तीव्र होती है। उस समय इन आत्मानों में मैग्यादि भावनाओं का उद्गम होता है और उत्तरोत्तर इस भावना में प्रचण्ड वेग आता है तथा एक जन्म में इन की मैत्रीभावना पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। उनकी आत्माओं में सागर से भी विशाल मैत्रीभाव उत्पन्न होजाते हैं। 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये', के समान विश्व की समग्र आत्माओं को वे अात्मतुल्य मानते हैं / उनके सुखदुःख को स्वयं का ही सुख-दुःख मानते हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि-- जन्म-मरणादि के अनेक दुःखों से व्याकुल, दुःखी और अशरण-रूप इस संसार को मैं भोक्तव्य दुःखों से मुक्ति दिला कर सुख के मार्ग पर पहुँचाऊँ। ऐसी शक्तिबल मैं कब प्राप्त कर सकूँगा? ऐसी प्रान्तरदृष्टि होने पर सामान्य निर्भर से अनेक गुना अधिक प्रभावशाली तथा वायु से भी अधिक वेगशील प्रवहमान भावना का महास्रोत परमात्मदशा प्राप्त की जा सके ऐसी स्थिति निर्माण करता है। इस स्थिति का निर्माण करनेवाला जन्म इस परमात्मा होनेवाले भव से पूर्ववर्ती तीसरा भव होता है और बाद में तीसरे ही भव में, पूर्व के भवों में अहिंसा, सत्य, क्षमा, त्याग, तप, सेवा, देव-गुरुभक्ति, करुणा, दया, सरलता आदि गुणों 1- 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति' छान्दोग्यउपनिषद् का यह वाक्य समझ में न आये तो अनर्थकारक बन जाए इस दृष्टि से श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने उत्तरवाक्य सुधारकर 'सुखदुःखे०' पद रखकर निःसेन्देह बना दिया Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 27 के द्वारा जो साधना की थी, उस साधना के फल-स्वरूप परमात्मा के रूप में अवतार लेते हैं। यह जन्म उनका चरम अर्थात् अन्तिम जन्म होता है / बे जन्म लेने के साथ ही अमुक कक्षा का (मति, श्रुत अवधि) विशिष्ट ज्ञान लेकर आते हैं / जिसके द्वारा मर्यादित प्रमाण की भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा-समझा जा सकता है। जन्म लेने के साथ ही देव-देवेन्द्रों के द्वारा पूजनीय बनते हैं / तदनन्तर धीरे-धीरे बड़े होते हैं। गृहस्थधर्म में होते हुए भी उनकी प्राध्यात्मिक साधना चालू रहती है / स्वयं को प्राप्त ज्ञान के द्वारा अपना भोगावली-कर्म शेष है, ऐसा ज्ञात हो तो उस कर्म को भोगवर क्षय करने के लिए लग्न करना स्वीकार करते हैं और जिन्हें ऐसी आवश्यकता न हो तो उसे अस्वीकृत कर आजन्म ब्रह्मचारी ही रहते हैं। इसके पश्चात् चारित्र, दीक्षा अथवा संयम के समक्ष आनेवाले चारित्रमोहनीय कर्म का क्षमोपशभ होने पर, अशरण जगत् को शरण देने, अनाथ जगत के नाथ बनने, विश्व का योग-क्षेम करने की शक्ति प्राप्त करने, यथायोग्य अवसर पर सावध (पाप) योग के प्रत्याख्यान तथा निरवध योग के प्रासेवन-स्वरूप चारित्र को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् परमात्मा सोचते हैं कि जन्म, जरा, मरण से पीड़ित तथा तत्प्रायोग्य अन्य अनेक दुःखों से सन्तप्त जगत् को यदि सच्चे सुख और शान्ति का मार्ग बताना हो, तो पहले स्वयं उस मार्ग को यथार्थरूप में जानना चाहिए। इसके लिए अपूर्ण नहीं में पितु सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जिसे शास्त्रीय शब्दों में केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञत्व कहते हैं / तथा ऐसा ज्ञान, अज्ञान और मोह के सर्वथा क्षय के बिना. प्रकट नहीं होता। अतः भगवान उसका क्षय करने के लिए अहिंसा, संयम और तप की साधना में उग्ररूप से लग जाते हैं। उत्कृष्ट कोटि के प्रतिनिर्मल संयम की आराधना, विपुल तथा अत्युग्र Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] कोटि की तपश्चर्या को माध्यम बनाकर गांव-गांव, जंगल-जंगल और नगर-नगर में (प्रायः मौनावस्था में) विचरण करते हैं। इस बीच उनका मनोमन्थन चलता रहता है। विशिष्ट चिन्तन और गम्भीर आत्मसंशोधनपूर्वक क्षमा, समता आदि शस्त्रों से सुसज्जित होकर मोहनीय आदि कर्मराजाओं के साथ महायुद्ध में उतरते हैं तथा पूर्वसञ्चित अनेक संविलष्ट कर्मों को नष्ट करते जाते हैं। इस साधना के बीच चाहे जैसे उपसर्ग, आपत्तियाँ, संकट अथवा कठिनाइयाँ आएँ तो उनका सहर्ष स्वागत करते हैं। वे उसे समभाव से देखते हैं जिसके कारण मौलिक, प्रकाश, बढ़ता जाता है / अन्त में वीतरागदशा की पराकाष्ठा तक पहुँचने पर आत्मा का निर्मल स्वभाव प्रकट हो जाता है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों पर आच्छादित कर्म के प्रावरण हट जाने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन का सम्पूर्ण ज्ञानप्रकाश प्रकट हो जाता है अर्थात् त्रिकाल-ज्ञानादि की प्राप्ति हो जाती है / प्रचलित शब्दों में वे 'सर्वज्ञ बन' गए ऐसा कहा जाता है। यह ज्ञान प्रकट होने पर विश्व के समस्त द्रव्य-पदार्थ और उनके कालिक भावों को सम्पूर्ण रूप से जाननेवाले तथा देखनेवाले बनते हैं और तब पराकाष्ठा का प्रात्मबल प्रकट होता है जिसे शास्त्रीय शब्दों में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र तथा अनन्तवीर्य-बल (शक्ति) के रूप में पहचाना जाता है। इस प्रकार जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वचारित्री तथा सर्वशक्तिमान् होते हैं वे ही स्तुति के योग्य होते हैं / सर्वज्ञ बने अर्थात् वे, प्राणियों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ? धर्म क्या है और अधर्म क्या ? हेय क्या है और उपादेय क्या ? कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या? सुख किससे मिलता है और दुःख किससे मिलता है ? आत्मा है अथवा नहीं है तो कैसा है ? उसका Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 26 स्वरूप क्या है.? कर्म क्या है ? कर्म का स्वरूप क्या है ? इस चेतनस्वरूप आत्मा के साथ जडरूप कर्म का क्या सम्बन्ध है ? हर समय जीव को केवल सुख ही सुख का पूर्णरूपेण अनुभव हो, ऐसा कोई स्थान है क्या ? यदि है तो वह किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? इत्यादि अनेक बातों को जानते हैं / आज के वैज्ञानिकों को तो प्राणियों अथवा संसार के एक-एक पदार्थ के रहस्य को समझने के लिए अनेक प्रयत्न-प्रयोग करने पड़ते हैं। पर ये आत्माएँ तो बिना किसी प्रयत्नप्रयोग के, एकमात्र केवलज्ञान के प्रत्यक्ष बल से विश्व के सभी सचेतन प्राणी, यथार्थ तथा अचेतन द्रव्य-पदार्थों के आमूल-चूल रहस्यों को जान सकती हैं। उनकी त्रैकालिक स्थिति समझ सकती हैं। अपने आत्मबल से विश्व में यथेच्छ स्थल पर उड़कर जाना हो, तो पलभर में आ-जा सकती हैं। सर्वज्ञ वीतराग दशा को प्राप्त प्रभु हजारों आत्मानों को मङ्गल और कल्याणकारी उपदेश सतत प्रदान करते हैं तथा विश्व के स्वरूप के यथार्थरूप से ज्ञाता होने के कारण उसे यथार्थरूप में ही प्रकाशित भी करते हैं। ये अरिहंत भगवंत अपनी आयु को पूर्ण करके जब निर्वाण (देह से मुक्ति) प्राप्त करते हैं तब वे सिद्धशिला पर स्थित मुक्ति के स्थान में उत्पन्न हो जाते हैं। और वहां शाश्वतकाल तक आत्मिक सुख का अद्भुत आनन्द प्राप्त करते हैं जैसा कि मानन्द विश्व के किसी भी स्थल अथवा पदार्थ में नहीं होता। - यह सब अरिहन्तपद किन कारणों से ? किस प्रकार प्राप्त होता है, इसकी एक अच्छी-सी रूपरेखा प्रस्तुत की गई। संक्षेप में समझना चाहें तो- ये अरिहंत की आत्माएँ अठारह दोषों से रहित हैं। परम-पवित्र और परमोपकारी हैं / वीतराग हैं। प्रशमरस से पूर्ण और आनन्दमय हैं / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] - उनकी मुक्तिमार्ग बताने की शैली अनूठी और अद्भुत है / उनका तत्त्वप्रतिपादन सदा स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की मुद्रा से.अंकित है / मन, वचन और काया के निग्रह में वे बेजोड़ हैं / सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य और शीतल हैं / सागर से भी अधिक गम्भीर हैं। मेरु के समान अडिग और अचल हैं / अनुपम रूप के स्वामी हैं। ऐसे अनेकानेक विशेषणों से शोभित, सर्वगुणसम्पन्न अरिहंत ही परमोपास्य हैं और इसीलिये वे स्तुति के पात्र हैं। - इसी प्रसङ्ग में एक प्रश्न और किया जा सकता है कि 'स्तुति करने से क्या लाभ मिलता है ?' इसका उत्तर इस प्रकार है - __सर्वगुणसम्पन्न अरिहंतों की स्तुति करने से मुक्ति के बीजरूप तथा प्रात्मिक-विकास के सोपानरूप सम्यग्दर्शन' की विशुद्धि होती ___ तथा स्तुति करते समय यदि भगवान् हृदय-मन्दिर के सिंहासन पर विराजमान हों, तो उससे क्लिष्ट कर्म का नाश होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक स्थान पर देवों के स्तव-स्तुति-रूप भावमङ्गल के द्वारा जोव किस लाभ को प्राप्त करता है ? ऐसा एक प्रश्न हुआ है। वहाँ उत्तर में भगवान् ने बताया है कि-स्तव अथवा स्तुतिरूप भावमङ्गल के द्वारा जीव ज्ञानबोधि, दर्शनबोघि और चारित्रबोधि 1- (प्र०) चउवीसत्थएणं भत्ते ! किं जणयई ? (उ०) चउवीसत्थएणं दंसण-विसोहि जणयई // 6 // (उत्तरा०) 2- हृदि स्थिते च भगवति क्लिष्टकर्मविगमः // (धर्मबिन्दु') 3- (प्र०) 'थय थुइ मङ्गलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? (उ०) नाणदंसणचारित्तबोहिलाभं संजणयइ, नाणदंसंणचारित्तबोहिसंपन्नेणं जीवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं पाराहलं पाराहेंइ // 14 // // 1 क जणयइ ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लाभ को प्राप्त करता है तथा इस प्रकार सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयी का लाभ होने पर वह जीव आकाशवर्ती कल्पविमान में उत्पन्न होता है अर्थात् देवत्व प्राप्त करता है और अन्त में आराधना करके वह प्रात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह कि परमात्मा के स्तवन और स्तुतिरूप भावमङ्गल से दर्शनशुद्धि के अतिरिक्त सम्यग्ज्ञान और क्रिया की भी विशुद्धि होती है तथा उससे उत्पन्न आत्मिकविशुद्धि ही जीव को मुक्ति के शिखर पर पहुँचाती है / श्रीमन्त अथवा अधिकारियों को की गई स्तुति निष्फल हो सकती है किन्तु तीर्थङ्करों की स्तुति करने पर वह निष्फल नहीं होती है। और वह परम्परा से बाह्य एवं प्राभ्यन्तर सुख को देती है। इस तरह स्तुति भी एक प्रकार के राजयोग का ही सेवन है। . ___ अन्य शब्दों में कहें तो अनन्तज्ञानी की स्तुति से अनन्तज्ञान प्रकट होता है, जैसे रागी की स्तुति करने से रागीपन प्रकट होता है उसी प्रकार वीतराग को स्तुति करने से वीतरागदशा प्रकट होती है और अनन्त वीर्यशाली की स्तुति करने से अनन्त वीर्य प्राप्त होता है। ___ तथा पुण्यानुबन्धी पुण्य की प्राप्ति और इष्ट मनोरथ की प्राप्ति भी सुलभ बन जाती है। - इन बातों को लक्ष्य में रखकर प्रस्तुत स्तोत्रों का नित्यपाठ, सार्थ मनन और आत्मीकरण करना प्रत्येक साधक के लिये अत्यावश्यक अपनी बात पूज्य उपाध्यायजी की रचनाएँ विद्वद्भोग्य मानी जाती हैं / उन की ज्ञानशक्ति प्रबल थी और संस्कृत-भाषा के ब्याकरण, अलंकार आदि से युक्त उत्कृष्ट कोटि की रचनाएँ वे धाराप्रवाहरूप से लिखा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] करते थे। अतः इन रचनाओं का भाषानुवाद किये बिना रसं प्राप्त करना सर्वसाधारण के लिये कठिन ही था। यही कारण है कि अनुवाद कार्य को आवश्यक माना गया। ___ इन कृतियों में से कुछ कृतियों तथा अन्य कृतियों के कुछ पद्यों का प्राथमिक गुजराती अनुवाद मैंने किया था। जो कृतियाँ दार्शनिक तथा तर्कन्याय से अधिक पुष्ट थीं उनके अनुवाद का कार्य एकान्त तथा पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता था, तथा कुछ कृतियों एवं कुछ पद्यों के अनुवाद का कार्य मेरे लिये भी दुःशक्य था। इतना होने पर भी 'जैसे तैसे समय निकालकर, परिश्रमपूर्वक आवश्यकतानुसार अन्य विद्वानों का सहयोग प्राप्त करके भी उपाध्याय महाराज की कृतियों के अनुवाद की यह तुच्छ सेवा मुझे ही करनी चाहिये' ऐसे मेरे मानसिक हठाग्रह के कारण वर्षों तक यह कार्य किसी अन्य को मैंने नहीं दिया। अन्त में मुझे लगा कि मैं एक से अधिक घोड़ों पर सवार हूँ। कार्य का भार बढ़ता ही जा रहा है तथा सार्थक अथवा निरर्थक दिनोंदिन बढ़ती उलझनें भी मेरा समय खा रही हैं, एक के बाद एक आने वाली दीर्घकालीन बीमारियाँ, अन्य प्रकाशनों के चल रहे कार्य, कला के क्षेत्र में हो रही प्रवृत्तियाँ तथा स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से सामाजिक कार्यों में होनेवाली व्यस्तता, आदि के कारण मुझे अनुभव हुआ कि यह कार्य अब मुझ से होना सम्भव नहीं है। अतः यह कार्य मैंने मेरे विद्वान् मित्र पण्डितों को सौंप दिया, जिसका उल्लेख प्रकाशकीय निवेदन में किया गया है। उन्होंने सहृदयता से पहले किये गये कार्य को परिमार्जित किया तथा 'वीरस्तव' नामक जिस कृति का अनुवाद नहीं हुआ था उसका अनुवाद भी मेरे विद्वान् सहृदयी मित्र डॉ. रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने किया। अन्त में सम्पूर्ण प्रेसकॉपी संशोधन के लिये मेरे पास भेजी। वह प्रेसकॉपी विभिन्न व्यस्तताओं के कारण Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 33 मैं देख नहीं पाया तथापि सिंहावलोकनन्याय से देख गया / कहीं-कहीं अर्थ की दृष्टि से विचारणा-सापेक्ष स्थल थे और 'वीरस्तव' का अनुवाद पर्याप्त परिश्रमपूर्वक करने पर भी यत्र-तत्र सन्तोषकारक प्रतीत नहीं हुआ, अतः आवश्यक सूचनाओं के साथ प्रेसकॉपी अनुवादक को प्रेषित की। उन्होंने भी पुनः अपेक्षित सशोधन-परिवर्धन किया, तथापि पुनरवलोकन की अपेक्षा रखने योग्य श्लिष्ट कृति होने से इस विषय का कोई सुयोग्य विद्वान् इस अनुवाद को सूक्ष्मदृष्टि से देख ले और अशुद्ध एवं शंकास्पद जो स्थल हों उन्हें निःसंकोच बतलाये अथवा इसका सम्पूर्ण अनुवाद पृथक रूप से करके प्रेषित करने की महती कृपा करे तो अत्यन्त आनन्द होगा तथा उसके द्वारा इसके पश्चात् मुद्रित होनेवाला गुजराती अनुवाद पाठकों को प्रमाणितरूपसे दिया जा सकेगा। प्रकाशन के लिये मैंने प्राथमिक योजना इस प्रकार बनाई थी कि प्रत्येक श्लोक के नीचे गुजराती और हिन्दी अनुवाद दिया जाए जिससे मेरे गुजराती दानदाता एवं पाठकों को पूर्ण सन्तोष हो, किन्तु गुजराती अनुवाद के लिये मैं समय निकालने की स्थिति में नहीं था। दूसरे के द्वारा भाषान्तर करवाने का प्रयास किया किन्तु उसमें पर्याप्त समय लगता और सुयोग्य अनुवाद न हो तो उसका कोई फल नहीं / ऐसी स्थिति में अभी तो हिन्दी अनुवाद से ही सन्तोष किया है / भविष्य में यथाशक्ति शीघ्र गुजराती अनुवाद करवाकर इसका प्रकाशन किया जाए इसके लिए अवश्य प्रयत्नशील रहूँगा। कोई संस्कारी भाषा के लेखक मुनिराज अथवा कोई विद्वान् ऐसे उपकारक कार्य को करने के लिये तैयार हों, तो वे मेरे साथ अवश्य पत्र-व्यवहार करें ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] प्रस्तुत स्तोत्र काव्य, अलंकार, अर्थ, भाषा तथा विविध दृष्टि से किस प्रकार उत्तम कोटि के हैं, इस सम्बन्ध में मैं कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ। इसके सम्पादक डॉ. त्रिपाठीजी ने उपोद्घात में इस पर कुछ लिखा है तथापि और कोई सुयोग्य विद्वान् इसकी समीक्षा करके भेजेगा तो गुजराती प्रावृत्ति में उसे अवश्य प्रकाशित करूंगा तथा गृहस्थ विद्वान् होगा तो उन्हें योग्य पुरस्कार देने की व्यवस्था भी संस्था की ओर से की जाएगी। / स्तोत्र के श्लोकों के टाइप जो प्रयोगों में लाये गये हैं, वे इनमे ड्योढ़े मोटे प्रयोग में लाने चाहिये थे किन्तु प्रेस में सुविधा न होने से वैसा नहीं हो सका। इस स्तोत्रावली में मुद्रित स्तोत्रों में से बहुत से तो यद्यपि इससे पूर्व भिन्न-भिन्न संस्थाओं के द्वारा पुस्तकों अथवा प्रतियों के आकार में छप चुके हैं तथा कुछ स्तोत्र गुजराती अनुवाद के साथ भी छपे हैं किन्तु इसमें कुछ स्तोत्र पहले बिलकुल प्रकाशित नहीं हुए थे और शेष इतस्ततः पृथक्-पृथक् मुद्रित थे उन समस्त स्तोत्रों को एक ही साथ अर्थसहित प्रकाशित करने का यह पहला अवसर है। उपाध्यायजी के स्तोत्र 'स्तोत्रावली' के नाम से प्रसिद्ध हैं अतः इस ग्रन्थ का नाम भी 'स्तोत्रावली' ही रखा गया है। बीमारी के कारण हास्पीटल में शय्याधीन होने से इस सम्बन्ध में विस्तृत परिचय लिखना सम्भव नहीं था अतः संक्षेप में ही उल्लेख किया है। मेरे सहृदयी मित्र डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी ने अनुवादक, अनुवाद संशोधक तथा सम्पादक के रूप में मुद्रणादि का समस्त उत्तरदायित्व ले Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 35 कर जो सहयोग दिया है, तदर्थ वे सचमुच अभिनन्दन के अधिकारी ___ उपाध्याय जी के द्वारा विरचित 'काव्यप्रकाश' की टीका का हिन्दी अनुवाद सहित मुद्रण कार्य, प्रूफसंशोधन आदि भी वे ही बड़ी लगन से कर रहे हैं / कुछ महीनों में वह कृति भी प्रकाशित हो जाएगी। उपाध्यायजी के ग्रन्थों का वर्षों से अपूर्ण पड़ा हुआ कार्य मेरे धर्मस्नेही-धर्मबन्धु श्री चित्तरंजन डी० शाह तथा धर्मात्मा सरला वहिन ने 'माउण्ट यूनिक' में स्थित उनके अनुज बन्धु हेमन्तभाई के स्थान की हमें सुविधा दी और बाहर के किसी भी व्यक्ति के आने पर कड़ा प्रतिबन्ध रखकर भू-गर्भ-वास के समान ही मैं वहाँ रहा। नीरव शान्ति तथा दिन के दस-दस, बारह-बारह घण्टे तक कार्य करके उपाध्यायजी की रचनात्रों की प्रेसकापियाँ संशोधन के लिए जो अपूर्ण थीं तथा कुछ को अन्तिम रूप देना था उन सभी को व्यवस्थित रूप दिया। इस 'स्तोत्रावली' का अन्तिम व्यवस्थापन भी माउण्ट यूनिक स्थान में ही किया गया / दस वर्ष का कार्य जो प्रख्यात स्थानों में मुझ से सम्पन्न नहीं हो सका था उसे प्रस्तुत स्थान में चार-पांच मास में पूर्ण कर सका इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेख मैं प्रकाशित होनेवाले अन्य ग्रन्थ के निवेदन में करना चाहता हूँ। अभी तो मैं अपने इन उपर्यक्त भक्तिशील, धर्मात्मा, सुश्राविका-सरला बहन, कोकिला बहन, श्री विरलभाई तथा घर के शिरश्छत्र धर्मात्मा सुश्रावक श्री दामोदर भाई और उनकी धर्मपत्नी समाजसेविका धर्मात्मा स्व० श्री रम्भा बहन आदि कुटुम्ब परिवार का बहुत ही आभारी हूँ। ये Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] सभी श्रुतसेवा के इस कार्य में अनेक प्रकार से सहायक बने तदर्थ धन्यवाद देता हूँ तथा देव, गुरु और धर्म के प्रति ऐसा भक्तिभाव सदैव बना रहे ऐसी शुभकामना करता हूँ। स्तोत्र के अनुवाद का कार्य अत्यन्त कठिन है / अनुवाद की पद्धति एवं अभिव्यक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है। यहाँ एक पद्धति का अनुसरण करते हुए अनुवाद प्रस्तुत किया गया है / अतः अनुवाद में जो भी त्रुटियां रही हों उन्हें पाठकगणं सुधार कर पढ़ें तथा संस्था को भी सूचित करें। अन्त में सभी प्रात्माएँ इन स्तोत्रों का सहृदयंतापूर्वक अध्ययनअध्यापन करके प्राध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त करें यही मङ्गल कामना है। '-मुनि यशोविजय डॉ० बालाभाई नाणावटी हॉस्पीटल विलेपारले (बम्बई) दि०१३-४-७५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात स्तोत्र-साहित्य दिग्दर्शन तथा स्तोत्रावली :: एक अनुचिन्तन :: अक्षुण्ण-परम्परा __ हमारा काव्य-संसार अपार है। इसमें कोटि-कोटि काव्य-कलाकुशलों ने अपनी-अपनी काव्य-केलियाँ कुतूहल-पूर्वक प्रकट की हैं, जिसका सामूहिक सङ्कलन करना विधाता से भी सम्भव नहीं है। क्योंकि अनेक कविवरों ने वचन-वैचित्र्य सम्पन्न सुमन समर्पित किए हैं, कई प्राचार्यों ने भाव-भक्ति की धारा से अराध्य के चरणों को पखारा है, बहुत से प्रभुकृपा प्राप्त साधकों ने अपने अन्तर की वीणा के तारों पर प्रार्थना के सुमधुर गीत गाए हैं तो लक्ष-लक्ष लक्ष्य प्राप्ति के इच्छुकों ने लीलामय की ललित लीलाओं के प्राख्यानों से पूर्ण अपनी भारती से देवाधिदेव की आरती उतारी है। इन्हीं के प्रभाव से यह असार संसार सारपूर्ण बना और उन वचनों का आश्रय लेकर अनेक जीव आत्म-कल्याण करने में अग्रसर हुए। यह परम्परा आगम और वेद दोनों के उद्भव काल से ही अक्षुण्ण रूप से प्रवहमान है। पाराधना के मानबिन्दु और स्तुति आगमों की अपरिमेय ज्ञान-गरिमा का अवगाहन करनेवाले पूर्वाचार्यों ने मानव-जीवन की सफलता एवं कर्मनिर्जरा-पूर्वक शुभ कर्मों के उदय के लिए आराधना के विभिन्न मार्गों का प्ररूपण किया है। इन मार्गों में कुछ सूक्ष्म और कुछ स्थूल संकेतों का समावेश हुआ है। सूक्ष्म-सङ्केत उत्तम साधकों के लिए निर्दिष्ट हैं, जिनमें उत्कृष्ट योग को भूमिकाएँ तथा मान्त्रिक-प्रक्रियाओं के साथ-साथ लोकोत्तर वैराग्य की आवश्यकता होती है। ऐसी साधना में सुबुद्ध एवं कृतशास्त्र गुरु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] स्वयं अपने शिष्य की पात्रता, योग्यता, दृढता और लक्ष्यकचक्षुष्कता का परीक्षण करके अपने सान्निध्य में साधना करवाते हैं, उससे नियत और अपेक्षित क्रिया का प्रत्यक्ष निर्देश प्रायोगिक रूप से मिलता रहता है। किन्तु लौकिक-क्रियानों से सङ्क्रान्त तथा यन्त्र की भांति परमुखापेक्षी आज के मानव के लिए यह सब सहज साध्य नहीं है, अतः स्थूल सङ्कतों का निर्देश मध्यम साधकों के लिए दिया गया है। इनमें बाह्य उपकरणों के द्वारा प्रभु-पूजा और स्तुति, प्रार्थना आदि का विशिष्ट स्थान है। पूजा में साधक अपनी शक्ति के अनुसार सञ्चित धन का व्यय करके पूजा-सामग्री लाता है और उसे भाव-भक्ति के साथ मन्त्रप्रार्थना-पूर्वक प्रभु को समर्पित करता है / तदनन्तर स्तुति-स्तोत्र द्वारा प्रभु की कृपा-प्राप्ति के लिए निवेदन करता है, यह एक सामान्य विधि है / इसी लिए स्तुति को आराधना का एक प्रमुख मानबिन्दु भी कहा जाता है, जो कि सभी दृष्टि से सत्य भी है / इसी सत्य की पुष्टि अन्य दृष्टि से भी हमें प्राप्त होती है और 'स्तोत्र-स्तुति की आवश्यकता' सहज सिद्ध हो जाती है। 'स्तुतियों का प्राविर्भाव मानव-जन्म में आया हुआ प्राणी पद-पद पर सङ्कटों का सामना करता है / कई बार वह प्रार्त होकर सहायक की खोज करता है, तो कई बार किसी ज्ञान-विशेष की उपलब्धि के लिए लालायित होता है। लौकिक घात-प्रतिघातो के कारण उमड़-उमड़ कर आनेवाले प्रभावों के बादल उसकी पार्श्वभूमि को घेर लेते हैं, उस समय की विडम्बना कुछ ओर ही होती है, यहाँ तक कि उन दिनों जो सहायक मिलते हैं वे भी 'अन्ध-बधिर-संयोग' के अतिरिक्त कुछ नहीं होते / 'एक बाँधता है तो हजार टूटती हैं' इस प्रकार प्रभावों की शृङ्खला कभी किसी दिन किसी भी प्रकार से व्यवस्थित नहीं हो पाती। अतः 'आर्त, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 36 जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी'' सभी गुरु-प्राप्ति के पश्चात् एकमात्र अशरण-शरण, अकारण-करुणा-करण-परायण परमात्मा की शरण में पहुँचते हैं। ___ शरण में पहुँचने की भावना के साथ ही उपर्युक्त स्थितियों में से किसी भी स्थिति का व्यक्ति सोचता है कि-'मुझे क्या कहना चाहिए, किस प्रकार कहना चाहिए ?' क्यों कि जो सांसारिक आश्रयदाता थे, उनको तो 'पापा मामा, काका, माता' आदि कह कर आत्मीयता प्राप्त कर लेता था किन्तु परमात्मा तो किसी एक का आश्रयदाता नहीं है, वह तो चराचर का पालक है और मुझ जैसे यहाँ एक-दो, चारछः ही नहीं, अपितु अनन्तानन्त जीव अपनी-अपनी समस्याएं लेकर उपस्थित हैं। सभी अपनी-अपनी वाणी में अनेकानेक प्रकार से प्रार्थनाएँ तया गुण-गान कर रहे हैं / अतः वह कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध हो जाता है किन्तु 'मांगे बिना माता भी दूध नहीं पिलाती' और 'बोलने से धूल भी बिक़ जाती है' यही सब सोचकर वह कुछ बोलता है और जैसे-जैसे वह अपनी पाशात्रों को अंकुरित होते देखता है वैसेवैसे उसकी वाणी विविध शृङ्गार सजने लगती है। . उस स्थिति में सुख की आशंसा, कृपा की कामना, अपेक्षित की प्रार्थना और उपेक्षणीय की निवृत्ति के लिए सोते-जागते, उठते-बैठते, हँसते-गाते तथा रोते-चीखले जो भी बोलता है, जैसे भी बोलता है वही 'स्तुति' बन जाती है / इस तरह अन्तस्तल ही स्तुति की उद्गमस्थली है और उसकी सहज ध्वनि के रूप में ही उसका आविर्भाव होता है। अचेतन प्रकृति के कार्य-कलापों में सरितानों का कल-कल, पत्तों का मर्मर, बादलों की गड़गड़, कन्दरामों की प्रति-ध्वनि तथा चेतन - 1. चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ! / आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ / / 7 // (गीता). Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ] * पशु-पक्षियों में प्रत्येक के गर्जन, तर्जन और कलरवों में भी उसी पर मात्मा के प्रति की जानेवाली अनिर्वचनीय स्तुति का आभास मिलता है / अतः यह कहा जा सकता है कि 'सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही स्तुति-स्तोत्र का आविर्भाव हुआ है, यह निर्विवाद है। स्तोत्र की परिभाषा विश्व के समस्त धर्मों का सर्वोत्तम तथा प्राथमिक साहित्य स्तोत्ररूप में ही प्राप्त होता है / ऐसे साहित्य का पर्यालोचन करने से विदित होता है कि-'इष्ट देव के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन अथवा आत्म-निवेदन का ही नाम स्तोत्र' है / तथापि विद्वानों की तुष्टि के लिए विचार करते हैं तो 'ष्टुञ्-' धातु से 'त्र' प्रत्यय होने पर 'स्तोत्र' और 'क्तिन्-ति' प्रत्यय होने पर स्तुति शब्द बनता है / इनका अर्थ है स्तुति अर्थात् 'स्तोतव्य देवता के प्रशंसनीय गुणों के सम्बन्ध में कथन ही स्तुति अथवा स्तोत्र कहलाता है। 'जैमिनीय-न्यायमाला' में 'स्तोतव्याया देवतायाः स्तावकैर्गुणैः सम्बन्धकीर्तनं स्तोति-शंसति-धात्वोर्वाच्योर्थः' कहकर इसे स्पष्ट किया गया है। स्तोत्र शब्द से यह सहज ही व्यक्त होता है कि 'यह स्तुति के लिए रचित काव्य है। अपने इष्टदेव के गुणानुवाद और अपनी आन्तरिक अभिलाषा का स्तोत्र में उसके रचयिता साक्षात्कार कराते हैं तथा ऐसे स्तोत्र भक्त की भक्तिभावना की उच्चता अथवा विशिष्टता का आभास कराते हैं। लौकिक धारणा के अनुसार 'कतिपय अतिशयोक्तियों को माध्यम बनाकर की गई प्रशंसा ही स्तोत्र है' यह कहना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि शास्त्रकारों की आज्ञा है कि 'परमात्मा की केवल स्तुति की अपेक्षा उसमें उसकी महती शक्तियों और गुणों का चिन्तन करना चाहिए। ऐसे चिन्तन से मानव को अपने अवगुणों और असमर्थतांत्रों का ज्ञान होता है तथा वह अपनी विकास-साधना में तत्पर होता है।' पूर्वमीमांसा के अर्थवाद प्रामाण्याधिकरण में व्याख्याकार वेदान्ता Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 चार्यादि ने तथा उत्तरमीमांसा के देवताधिकरण सू. 1-3-26 में भाष्यकार एवं भाष्य-विवरणकार आचार्यों ने स्तुति शब्द की व्याख्या में सिद्धान्त निश्चित किया है कि "गुण यदि असत् हों, तो स्तुतित्व ही नष्ट हो जाए अथवा मिथ्यागुण कहने से प्ररोचना भी नहीं हो सकती है / अतः अर्थवाद कर्म के प्ररोचक अर्थवाद गुणों की विद्यमानता को ही व्यक्त करते हैं।" क्योंकि उत्कर्षाधायक गुणों का वर्णन ही स्तुति होने से गुण न हों और मिथ्याकथन किया जाए तो वह एक प्रकार से प्रतारणा ही कही जाएगी।' अतः ईश्वर के गुणों का कीर्तन ही भगवत्स्तुति कही जा सकती है। 'स्तुतिविद्या' के रचयिता श्रीसमन्तभद्राचार्य ने स्तुति करने का मुख्य हेतु 'पागसां जये' अर्थात् अपराधों पर विजय प्राप्त करना माना है। अन्य विद्वान् स्तोत्र की परिभाषा करते हए कहते हैं कि-'प्रतिगीतमन्त्रसाध्यं स्तोत्रम्, छन्दोबद्धस्वरूपं गुणकीर्तनं वा' अर्थात् प्रत्येक गीत-पद्य में जो मन्त्र-विचारणा प्रस्तुत होती है, वह स्तोत्र है अथवा छन्दोबद्ध रूप में जो गूणकीतन किया जाता है, वह स्तोत्र है। विष्णुसहस्रनाम तथा ललितासहस्रनाम आदि में तो देवताओं के नाम ही स्तुति-स्तोत्र गिनाए हैं। इसी प्रकार अग्निपुराण में अलङ्कारों की शृङ्खला में 'स्तुति' को एक स्वतन्त्र अलङ्कार ही माना है। इस प्रकार स्तोत्र की परिभाषाएँ भी अनेक रूप में प्राप्त होती हैं किन्तु इन सब में-'भगवत्तोष एव सर्वत्र कारणं तस्य च साधनं भगवत्स्तुतिरेव'-सर्वत्र भगवत्-सन्तुष्टि ही कारण है और उसका उपाय एकमात्र भगवत्स्तुति ही है। इसी लिए कहा गया है कि 1. गुणकथनं हि स्तुतित्वं गुणानामसद्भावे स्तुतित्वमेव हीयेत / न चासता गुणेन कथनेन प्ररोचना जायते / अतः कर्म प्ररोचयन्तो गुणसद्भावं बोधयन्त्येवार्थवादाः / शास्त्रमुक्तावली पू० मी० 1-2-7 / तथा--स्तुतेरुत्कर्षाधायकगुणवर्णनरूपत्वेन गुणाभावेऽसत्कथनं प्रतारकता सम्पादयेत् / (अरणभाष्य प्रकाश 1-3-26) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] - स्तवैरुच स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रः पौराणः प्राकृतैरपि / स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वन्देत दण्डवत् / ' छोटे-बड़े, पौराणिक अथवा प्राकृत स्तव-स्तोत्रों के द्वारा स्तुति करके 'भगवन् ! प्रसीद' ऐसा कहे और दण्डवत् प्रणाम करे। . . . स्तोत्रों के प्रकार 'शौनकीय बृहदेवता' में कहा गया है कि 'स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन च / स्वर्गायुर्धन-पुत्राद्यैरथैराशीस्तु कथ्यते // ' अर्थात् स्तुति को नाम, रूप, कर्म और बन्धुत्व,के द्वारा व्यक्त किया जाता है तथा स्वर्ग, आयु, धन और पुत्रादि प्राप्ति की भावना से आशीर्वादात्मक स्तुति भी की जाती है। इसके आधार पर १-नामस्तोत्र, २-रूपस्तोत्र, ३-कर्मस्तोत्र, ४-गुरणस्तोत्र और ५-प्राशीःपरक स्तोत्र ऐसे पाँच प्रकार किए जा सकते हैं / अन्य प्राचार्यों का अभिमत है कि मूलतः तीन प्रकार हैं-१-आराधना-स्तोत्र, २-अर्चना-स्तोत्र तथा ३-प्रार्थना-स्तोत्र / इन प्रकारों में 'आराध्य के रूप, गुण तथा ऐश्वर्य का विस्तृत वर्णन जिनमें रहता है, वे पाराधना-स्तोत्र कहलाते हैं। भाव-भक्तिमूलक द्रव्यपूजा के विविध प्रकारों के साथ ईश्वर के कृतित्व एवं कर्तृत्व का जहाँ विश्लेषण हो, वे अर्चनास्तोत्र कहे जाते हैं। तथा आराध्य की प्रशंसा, आराधक की दयनीयता एवं दीनहीनता का प्रदर्शन करते हुए जहाँ प्रभु की विशेष अनुकम्पा-प्राप्ति के लिए प्रार्थना, निवेदन आदि किए जाते हैं, वे प्रार्थना-स्तोत्र की कोटि में आते हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि-१-द्रव्य, २-कर्म, ३-विधि और ४-अभिजन नामक स्तोत्रों के चार विभाग होते हैं जब कि उपलब्ध स्तोत्र-साहित्य के आधार पर तो स्तोत्रों के अनेक प्रकार किए जा सकते हैं। 1 श्रीमद्भागवतपुराण, 11 / 27 / 45 / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 43 उदाहररमार्थ-संख्याश्रित-स्तोत्र-मुक्तक, पञ्चक, षट्पदी, सप्तक, अष्टक, दशक, द्वादशी, पञ्चदशी, षोडशी, विंशतिका, चतुविंशतिका, द्वात्रिंशिका, पञ्चाशती, शतक, पञ्चशती, सहस्रनाम आदि / फलाश्रितस्तोत्र-भिग्रह, अनुग्रह, उपालम्भ, पीडाहर, ऋणहर, दारिद्रयनाशक, रक्षा, वर्म, कवच, पञ्जर, शरण आदि / ध्यानपूजाश्रित-न्यास, ध्यान, हृदय, प्रार्थना, अपराध क्षमापन, मानस-पूजा प्रात्मबोध, कैवल्य वैराग्य आदि / मन्त्रपदाश्रित-विभिन्न देवताओं के मन्त्रों के समावेश से युक्त / शास्त्राश्रित-भिन्न-भिन्न शास्त्र एवं सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवाले स्तोत्र / काव्यकलाश्रित-जिसमें १-'कोष' की दृष्टि से नाममाला अष्टोत्तरशतनाम, सहस्रनामादि, 2- 'भाषा' की दृष्टि से विविध भाषाओं के सौष्ठव से सज्जित, ३-'छन्द' को ध्यान में रखकर बनाये गये आर्यादि स्तोत्र, 4- अलंकार' को माध्यम बनाकर लिखे गये स्तोत्र जिनमेंशब्द और अर्थगत अलङ्कारों के अङ्कन प्रमूखता को लिये रहते हैं, 5- 'चमत्काराश्रित'-काव्य एवं तत्सम्बन्धी अन्यान्य विभिन्न चमत्कार, जैसे चित्रबन्ध, समस्यापूर्ति, श्लेष, सरस्वती, कमल आदि प्रमुख पदगर्भ, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, योग, भेषज, आभारणक आदि को गभित रखकर बनाये गये स्तोत्र आते हैं। इसी प्रकार उपदेशाश्रित --जीव, आत्मा, मन, मानव आदि को लक्ष्य में रखकर उनका कल्याण करने की भावना से दिये गये उपदेशों को आवजित करने वाले स्तोत्र आदि और भी भेद गिनाये जा सकते हैं। ___ इसी प्रकार 'रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजु-कुटिलनानापथजुषाम्' के * अनुसार भक्ति, प्राचार्य और कवियों के वाग्विलास का वर्षा के दिनों में अनायास गिरी हुई बूंदों के समान यथारुचि, यथामति, यथागति 1. . ऐसे कतिपय स्तोत्रों की विधानों के परिचय के लिए 'चारणस्मा' उ० गज' रात से प्रकाशित 'श्री भटेवापार्श्वनाथ स्मृतिग्रन्थ' में लेखक का ही 'भारतीयं स्तुतिसाहित्यं जैनसम्प्रदायश्च' शीर्षक लेख द्रष्टव्य है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] मार्गानुसरण की पद्धति की गणना सामुद्रिक तरङ्ग, नक्षत्रमाला एवं सिकतासमूह की गणना के समान नितान्त दुःशक्य है। स्तुति करने की पद्धति स्तुति किस प्रकार की जाय ? यह एक प्रश्न है। प्रायः स्तोत्रकार स्तुति के प्रारम्भ में प्रगन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ?,' महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी- "ममाप्येष स्तोत्र हर निरपवादः परिकरः,२ सरति सरति चेत: स्तोतुमेतन्मदीयं, न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणान् , स्तवनमिषात्ते निजां जिह्वाम्', त्वं नाथस्त्वां स्तुवे नार्थ इत्यादि सहस्रों तर्क-वितर्क देकर अपनी आसक्ति, अज्ञान, आवश्यकता प्रादि को सिद्ध करते हुए प्रवृत्ति को सिद्ध करता है तथा प्राचार्य समन्तद्र ने 'स्वयम्भूस्तोत्र' में कहा है कि- स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल-परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे' श्रेयसपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान् सततमभिपूज्य नमिजिनम् / / 116 / / इस प्रकार उत्तम स्तोता. के कुशल परिणामों के लिये होती है फिर उसका फल प्राप्त हो, अथवा नहीं / इसलिये स्तुति फलाकांक्षा से रहित होकर 'दीपक में जलने वाली बत्ती के समान तैलादि से सज्जित होकर, जैसे वह दीपक की उपासना करती हुई उसके चरणों में ही तन्मयता-पूर्वक अपने आपको समर्पित कर देती है, तद्रूप बन जाती है और स्वयं दीप के समान बनकर प्रकाशमान हो जाती है, वैसे ही' स्ततिकार भी स्वयं में उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करने की दृष्टि 1. सौन्दर्यलहरी में श्री शङ्कराचार्य / 2. महिम्न: स्तोत्र में श्रीपुष्पदन्त / 3. सर्वजिन साधारण स्तव में श्री नरचन्द्र सूरि / 4. साधारणजिन स्तवन में श्री बप्पभट्ट सूरि / 5. जिनस्तुतिपञ्चाशिका में महीमेरुमुनि। 6. साधारण जिन स्तवन में श्री सोमप्रभ सूरि / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 45 से स्तुति करे। ___ इससे यह स्पष्ट है कि जो स्तुति केवल स्तुति हो अथवा तोतारटन्त अथवा रूढिपालन मात्र हो, तो उससे कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता वह तो सच्चे हृदय से होनी चाहिये / स्तुतिकर्ता स्तोतव्य के गुणों की अनुभूति करता हया उसी का अनुरागी बनकर अथवा तद्रूप बनकर उन गुणों को स्वयं अपने में विकसित करने का प्रयास करे तो स्तुति का उद्देश्य एवं उसका फल सिद्ध होता है / इसके साथ ही श्रद्धा और विश्वास, मन, वचन तथा काया के द्वारा स्तुत्य के प्रति निष्ठा होना भी पूर्ण आवश्यक है। वैसे स्तुति साधना के आवश्यक अंग 'ध्यान' का ही विशदरूप कहा जा सकता है। अनेक भक्त साधक जब अपने आराध्य का ध्यान-पद्यात्मक स्वरूप वर्णन करते हैं तो जिस प्रकार का वर्णन होता है उसी प्रकार का स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। स्तुति में भी यही स्थिति अपेक्षित हैं / विविध छन्दों का प्रयोग, काव्य-कला से पूर्ण शब्द-विन्यास, अलंकृत शैली और कल्पनामूलक भाव-समावेश आदि स्तुतियों में इसी तथ्य को सामने रखकर लिखे जाते हैं कि उनके पठन-श्रवण से निर्मल-चित्त में वर्णनानुसारी प्रतिबिम्ब अङ्कित हो सके तथा कुछ क्षणों के लिये तदाकाराकारित चित्तवत्ति बने। महाकवि कालिदास ने लिखा है कि 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये ?'स्तोत्र किस की प्रसन्नता के लिये नहीं होता ? इसका तात्पर्य यह है कि स्तोत्रपाठ में तुष्टिकारिता होनी चाहिये। वैसे शास्त्रों में कहा गया है कि 'स्तोत्र का मानसिक स्मरण और मन्त्र का वाचिक स्मरण दोनों ही फूटे हए कलश में पानी भरने के समान हैं,।' अतः स्तोत्रपाठ मधुर स्वर से वाचिक रूप में होना चाहिये, साथ ही अर्थानुसन्धान.-'जो बोला जा रहा है उसका अर्थ क्या है ? इसका ज्ञान-' 1. मनसा यः स्मरेत् स्तोत्रं, वचसा वा मर्नु जपेत् / उभयं निष्फलं देवि ! भिन्नभाण्डोदकं यथा ॥-कुलार्णवतन्त्र, उल्लास 15 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] रखते हुए यह पाठ होने से सफल होता है। तीसरी बात है स्तोत्र-पाठ नित्यकर्म के पश्चात् करने की। यह सामान्य प्रक्रिया है। 'ज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म निष्फल नहीं होगा' इस बात को ध्यान में रख कर स्तोत्र के छन्द बोलने की पद्धति, शुद्ध उच्चारण और रसानुकूल स्वरोच्चार ये सब बातें पूज्य गुरुदेव अथवा योग्य विद्वान् से सीख लेना भी हितावह है। कतिपय सिद्ध स्तोत्र विश्व-साहित्य के विराट् दर्शन में यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो यह निश्चित रूप से कहना पड़ेगा कि सर्वाधिक साहित्य में स्तुतिसाहित्य जितना विशाल है उतना अन्य साहित्य नहीं। वेद, आगम, सुत्त-पिटक आदि सभी में स्तुतियाँ हैं। पुराणों में बहुधा स्तुतियाँ वर्णित हैं। महाकाव्यों में भी इन्हें प्रासङ्गिक स्थान मिला है / स्वतन्त्र स्तोत्र-स्तुतियाँ भी अनन्त हैं तथा लौकिक भाषाओं में भी इनकी न्यूनता नहीं है। ऐसे स्तोत्रों में कतिपय स्तोत्र 'सिद्ध-स्तोत्र' कहे जाते हैं इनके सिद्ध कहलाने का हेतु क्या है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसका समाधना यह है कि १-इनमें कुछ स्तोत्र स्वयं देवताओं द्वारा वरिणत होकर उनके द्वारा ही सिद्ध कहे गये हैं।' २-कुछ स्तोत्र ऋषि-मुनियों अथवा देवताओं द्वारा प्रोक्त होने पर स्वयं स्तोतव्य द्वारा सिद्ध होने का वरदान दिया गया है। ३-कतिपय स्तोत्र पठित-सिद्ध भी होते हैं, जिनका तात्पर्य है कि स्तोता किसी का पाठ करते रहता है और उस 1. दुर्गासप्तशती, भैरवनामावली आदि में ऐसे पाठ मिलते हैं / यथा-. युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः / ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्तु शुभां मतिम् // अथवा * एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः / तस्याहं सकलां बाधां शमयिष्याम्यसंशयम् // दुर्गा० // .. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [47 से उसकी अभीष्ट सिद्धि हो जाती है। इन तीन कोटियों में प्रथम कोटि के स्तोत्र वैदिक सम्प्रदाय के स्तोत्रों में पर्याप्त उपलब्ध होते हैं। द्वितीय कोटि के स्तोत्र विभिन्न आख्यानों-उपाख्यानों में मिलते हैं तथा तृतीय कोटि के स्तोत्र प्रत्येक सम्प्रदाय में नित्यपाठ में प्रयुक्त होते हैं। इनके अतिरिक्त मन्त्रगर्भ-स्तोत्र भी होते हैं जो मन्त्रमयता के कारण स्वयं सिद्ध होते हैं / जैनस्तोत्र साहित्य भारतीय साधना-परम्परा में जैन, बौद्ध और वैदिक सम्प्रदायों की साहित्य सम्पदा सम्पन्नरूप से समृद्ध है / इनमें जैनसाहित्य प्राकृत, अर्धमागधी और संस्कृत में, बौद्ध साहित्य पालि और संस्कृत में तथा वैदिक साहित्य वैदिक संस्कृत एवं श्रेण्य संस्कृत में संकलित है। यही परम्परा स्तोत्रसाहित्य में भी भाषा की दृष्टि से अवतरित एवं प्रवाहित होती रही है। उत्तरकाल में लोकभाषा में भी यह साहित्य निर्मित होता रहा है, हो रहा है और होता ही रहेगा। ___जैन स्तोत्र-साहित्य संस्कृतभाषा में अपूर्व गौरव को प्राप्त है। सहस्रों स्तोत्रकारों ने अपनी अनवरत भक्ति से भीने भावपुष्पों की मालाएँ प्रभु-चरणों में अर्पित की हैं। यह कहा जाता है कि संस्कृत भाषा में जैनसाहित्य के आलेखन का सूत्रपात श्रीउमास्वाति ने ही सर्वप्रथम किया था, किन्तु उत्तरकाल में तो इस भाषा में न केवल जैनसाहित्य ही लिखा गया अपितु जैनेतर संस्कृत साहित्य में उसकी विभिन्न धाराओं के मूर्धन्य ग्रन्थों पर उत्तमोत्तम टीका-प्रटीकात्रों की रचना भी की गई। फलतः आज जैनसाहित्य संस्कृत-वाङ्मय में अपना प्रौढ़ स्थान बनाये हुए है और उसमें भी स्तोत्र-साहित्य तो और भी अपूर्वता को प्राप्त है। जैनस्तोत्रों के प्रकार ___ संक्षेप में जैनस्तोत्रों के प्रकारों पर विचार करते हुए प्रो. श्री * हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने लिखा है कि-'स्तुति, स्तोत्र, स्तव'. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] संस्तव तथा स्तवन ये संस्कृत शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, इस लिये किसी कृति को स्तोत्र कहा जाता है तो किसी को किसी अन्य पर्यायवाचक नाम दिया जाता है। इस प्रकार का जो जैन-साहित्य है उसका भिन्न-भिन्न दृष्टि से विचार करने पर स्तुति-स्तोत्रों के विविध वर्ग किपे जा सकते हैं।' उनमें से कुछ के निदर्शन इस प्रकार हैं 1. पद्यात्मक, गद्यात्मक और उभयात्मक स्तोत्र .. 2. संस्कृत, प्राकृत, द्राविड़ तथा फारसी भाषात्मक स्तोत्र 3. स्वाश्रयी तथा पराश्रयी 4. मौलिक और अनुकरणात्मक 5. व्यापक और व्याप्य - ये लेखन-पद्धति और भाषा की दृष्टि से किये गये वर्ग हैं, जबकि विषय की दृष्टि से इनके वर्ग, उपवर्ग तथा अन्तर्वर्ग, दिखलाये हैं। जिनमें 10 प्रकार निम्नलिखित हैं स्तति-स्तोत्र १-तत्त्वप्रधान (दार्शनिक) . २-भक्तिप्रधान ३-जिनविषयक १०-अजिन विषयक *एक (जिन) ५-अनेक (जिन) ६-शुद्ध ६-शुद्ध मिश्रित . ८-विशिष्ट 8-सामान्य १-जनसंस्कृतसाहित्यनो इतिहास-भाग-२, पृ०२७८ / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [46 इसी वर्गीकरण में आये प्रत्येक वर्ग का भी उपवर्ग-विचार किया जाए तो उससे भी कई प्रकार हमारे समक्ष प्राजाते हैं। इसी प्रकार रचना-शिल्प की दृष्टि से १–विषय, २-भाषा, ३-छन्द, ४अलङ्कार-शब्दगत, अर्थगत एवं उभयगत, ५-वर्णन शैली, ६प्रतिपादन और ७-विशेष / इन सात आधारों पर विवेचन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन स्तोत्रों में कई स्तोत्र ऐसे महत्त्वपूर्ण हैं जिन पर एक-दो नहीं, अपित कई टीकाएँ अनेक प्राचार्यों ने निर्मित की हैं। इतना ही नहीं इन स्तोत्रों के अनुकरण पर भी जैनाचार्यों-कवियों ने बड़ा बल दिया है और यही कारण है कि अनेक स्तोत्रों के अनुकरण भी हुए हैं। जैन स्तोत्रकार वाग्देवी के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'यमैवेष वृणुते तं तमुग्रं कृणोति'-अर्थात् इसकी जिसपर कृपा हो जाती है, उसको सब प्रकार से उग्र-समर्थ बना देती है / इसके अनुसार वाग्देवी की अनुकम्पा से अभिषिक्त अनेक प्राचार्यों, मुनिराज तथा गृहस्थ कविवरों ने अपनेअपने इष्टदेव की कृपा-प्राप्ति के लिए स्तोत्रों की रचनाएँ की हैं। सामूहिक पर्यालोचन से यह सर्वथा निश्चित हो जाता है कि जैनस्तोत्रकारों में जैनाचार्य एवं साधु-महाराजों का योगदान ही महत्त्वपूर्ण है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि जैनमुनियों ने अपने इष्टदेव के गुणानवादों का गान करने में अपनी निर्मल भावना, उदात्त आदर्श तथा वैराग्यराग-रसिकता का परिचय स्तोत्रों के द्वारा ही अधिक व्यक्त किया है। मुनियों में भी बालदीक्षित मुनियों की परम्परा बहुत विकसित रही है। जैनशासन के धर्मधुरन्धर प्राचार्यों में अधिकांश बालदीक्षित ही थे। अतः पूर्वभव के शुभसंस्कार, माता-पिता की धार्मिकवृत्ति, सद्गुण के निकट निरन्तर चरित्र का पालन एवं शास्त्राभ्यास जैसी प्रवृत्ति के कारण उनका मन सांसारिक तृष्णाओं से पूर्ण Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] रूपेण निलिप्त रहकर ज्ञान साधना करता है, फलतः उनकी प्रतिभा जब फलवती होने लगती है, तो भक्ति-काव्य फूट पड़ते हैं। नित्य, नैमित्तिक क्रियाकाण्ड तथा ज्ञानाभ्यास में ही निरन्तर व्यस्त रहनेवाले त्यागी जैनमुनिवरों की ज्ञान, दर्शन तथा चरित्रमूलक प्रवृत्तियों का प्रभावशाली परिचय यदि कहीं मिलता है, तो वह स्तोत्र-साहित्य में सबसे अधिक मिलता है। स्तोत्रों में भक्ति की प्रधानता के अतिरिक्त तत्त्वों की प्रधानता को भी पर्याप्त पोषण मिला है जिससे ललित स्तोत्र एवं दार्शनिक-स्तोत्र दोनों की परम्परा पूर्ण विकसित 'सिद्धसेन दिवाकर' को जैन स्तोत्रकारों में प्रथम स्थान प्राप्त है। इनका समय जैन परम्परा के अनुसार विक्रम की प्रथम शती माना जाता है। श्रीसुखलाल जी जैन ने सिद्धसेन दिवाकर को 'प्राद्य जैन तार्किक, आद्य जैन कवि, 'प्राद्य जैन स्तुतिकार, प्राद्य जैन वादी, आद्य जैन दार्शनिक तथा प्राद्य सर्वदर्शन संग्राहक' माना है।' __ श्री सिद्धसेन दिवाकर ने 1. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, 2. कल्याणमन्दिर स्तोत्र तथा 3. शक्रस्तव की रचना की है। इनमें बत्तीसबत्तीस पद्यों की बत्तीस स्तुतियाँ बहत ही महत्त्वपूर्ण तथा अनेक दार्शनिक तत्त्वों से संवलित हैं / कल्याण-मन्दिर स्तोत्र बहुत ही प्रसिद्ध स्तोत्र काव्य है तथा इसकी पादपूर्ति के रूप में भी अनेक स्तोत्र-काव्यों का निर्माण हुआ है। इस पर भिन्न-भिन्न आचार्यों ने 16 से भी अधिक टीका एवं वृत्तियां लिखी हैं तथा देश-विदेश की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ है। स्वामी समन्तभद्र-जिन्हें 'कवि-गमक-वादि-वाग्मित्व गुणालं १-द्रष्टव्य-नवमी द्वात्रिंशिका, भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रकाशन, 1645 ई० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 51 कृत' विशेषण से सम्बोधित किया जाता रहा है, ने जनस्तोत्र-साहित्य में अनेकविध नवीन परम्पराओं को आविर्भूत किया है। 1. स्वयम्भूस्तोत्र, 2. देवागम-स्तोत्र, 3. जिनशतक तथा 4. वीर जिनस्तोत्र ये चार इनके प्रमुख स्तोत्र हैं। इनमें प्रथम स्तोत्र 146 पद्यों में है जिसमें 13 प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुअा है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति से अलंकृत इस स्तोत्र में अनेक दार्शनिक तत्त्वों की चर्चा है। द्वितीय स्तोत्र का अपरनाम 'स्तूतिविद्या' भी है। 116 पद्यों में भरतक्षेत्र के वर्तमान 24 तीर्थकरों की स्तुति चित्रकाव्य के रूप में की गई है अतः जैनपरम्परा में चित्रकाव्यात्मक स्तोत्रों को प्रारम्भ करने का श्रेय स्वामी समन्तभद्र को ही है। अनेकविध चित्रबन्धों के साथ ही यमक का भी इसमें पर्याप्त प्रयोग है / यद्यपि इनके चित्रबन्ध मुरज, अर्धभ्रम, गतप्रत्यागतार्ध, चतुररचक्र, अनुलोम प्रतिलोम, सर्वतोभद्र, गतप्रत्यागतपाद और षडरचक्र तक ही सीमित हैं, तथापि 'अलंकार-चिन्तामणि'कार श्री अजितसेनाचार्य ने इनके कुछ अन्य रूप भी प्रस्तुत किये हैं और उत्तरकाल के स्तुतिकारों के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त किया गया। तृतीय स्तोत्र का अपरनाम 'युक्त्यनुशासन' भी है / 64 पद्यों में श्रीमहावीर की स्तुति करते हुए प्राचार्य ने वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक प्रादि अन्य दर्शनों की समालोचना भी की है। सर्वोदय-तीर्थ, अनेकान्तवाद का भी इसमें वर्णन है। चतुर्थ स्तोत्र का दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा' है। 115 पद्यों में जैनतीर्थंकरों की प्राप्तता सिद्ध करना और एकान्तवाद का निरसन इसका प्रमुख विषय है। विक्रम की छठी शती में आचार्य देवनन्दि ने 'सिद्धिप्रिय स्तोत्र' १-कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि / यशः सामन्तभद्रीयं, मूर्ध्नि चूडामणीयते / / 44 // -आदिपुराण, जिनसेनाचार्य / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] अथवा 'षडरचक्रस्तोत्र' की रचना में पादान्तयमक और चक्रबन्ध का पूर्ण प्रयोग किया जब कि आठवीं शती में श्रीमानतुंग सूरि ने 'भक्तामर स्तोत्र, नमिऊण थोत्त एवं भत्तिब्भरथोत्त' की रचनाएँ की / ये सूरिवर महान् प्रभावशाली थे, अतः इनकी इन रचनाओं में भक्ति के साथ ही मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, आभारणक तथा अन्यान्य शास्त्रीय विषयों का ग्रथन भी हुआ और इस प्रकार स्तोत्रसाहित्य में एक नए प्रयोग का और सूत्रपात हो गया। भक्तामरस्तोत्र इनमें सर्वाधिक प्रिय हया जिसके परिणाम-स्वरूप 16 टीकाएँ, तथा 22 से अधिक पादपूर्तिमूलक काव्यों की सृष्टि हुई / ' श्रीहरिभद्रसूरि ने एक लघु किन्तु महत्त्वपूर्ण 'संसारदावानल-स्तुति' की 'भाषासमक' पद्धति में रचना की तो श्री बप्पभट्ट सूरि ने 'चतुर्विंशतिका' द्वारा यमकप्रधान स्तुति का निर्माण किया। दो चरणों की समान प्रावृत्तिवाले यमक का प्रयोग यहाँ सर्वप्रथम हुआ है। इसी के साथ 'शारदा-स्तोत्र' अथवा 'अनुभूतसिद्ध सारस्वत-स्तव' में मन्त्राक्षरों का समावेश करते हुए पूर्व परम्परा को भी निभाया। ___ ग्यारहवीं शती के प्रथम चरण में जम्बू मुनि ने 'जिनशतक' में स्रग्धरा छन्द का प्रयोग तथा शब्दालंकारों का समावेश किया, तो 'शिवनाग' ने 'पार्श्वनाथ महास्तव, धरणेन्द्रोरगस्तव अथवा मन्त्र स्तव' की रचना की। इसी शती के तृतीय चरण में बाल ब्रह्मचारी श्री शोभनमुनि ने 'स्तुति-चतुर्विंशतिका' अथवा 'शोभनस्तुति' की रचना द्वारा 'स्तुतिचतुर्विशतिका' की यमकमय स्तुति-परम्परा को आगे बढ़ाया / इस कृति पर 8 टीकाएँ हुई हैं तथा डा० याकोबी ने जर्मन में अनुवाद किया है जब कि गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद प्रो० १-भक्तामर स्तोत्र की महत्ता एवं पादपूर्ति काव्यों के बारे में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा लिखित भूमिका एवं परिशिष्ट लेख देखें-'श्रीभक्तामररहस्य' (गुजराती संस्करण-सं० शतावधानी पं० धी० टो० शाह)। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 53 कापड़िया ने किया है। विनयहंसगरिण का 'जिनस्तोत्रकोश', धन जय का 'विषापहार-स्तोत्र', जिनवल्लभ सूरि, दि० भूपाल तथा श्रीपाल कवि के कुछ स्तोत्र इसी कोटि के हैं। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य ने १-'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका, २-अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, ३-वीतरागस्तोत्र तथा ४-महादेवस्तोत्र की रचना द्वारा पूर्वाचार्यों की स्तोत्ररचना-पद्धति का ही अवलम्बन लिया और अपने अगाध ज्ञान का समावेश करते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का चिन्तन प्रस्तुत किया। तेरहवीं शती का पूर्वार्ध प्राचार्य हेमचन्द्र की ऐसी अनेक रचनाओं से मण्डित हुआ, जिनके पालोडन से उत्तरवर्ती प्राचार्य न केवल प्रभावित ही हुए अपितु अपनी सर्जन-शक्ति का उपयोग उन्होंने उनकी रचनाओं के भाष्य एवं व्याख्यान में ही अधिक किया। श्रीरामचन्द्र (सूरि) ने अर्थालंकारों को महत्त्व देते हुए विरोध, उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपह नुति आदि अलंकारभित द्वात्रिंशिकानों की रचना की। कवि प्रासड, मन्त्री आह्लाद, मन्त्री पद्म तथा धर्मघोषसूरि ने इसी धारा को और विकसित किया। श्री जिनप्रभसूरि (वि० सं० 1365) ने इस परम्परा में एक बहुत बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया। इनके बारे में यह प्रसिद्धि है कि 'श्रीपद्मावती देवी की कृपा से आपको प्रखर वैदुष्य मिला था और आपका यह अभिग्रह था कि प्रतिदिन एक नवीन स्तोत्र की रचना करके ही आहार ग्रहण करना। यही कारण था कि श्रीसूरिजी ने विविध चित्र, यमक, श्लेषादि अलङ्कार तथा छन्दों के विभिन्न प्रयोग से युक्त 700 स्तोत्रों का निर्माण किया। श्री कुलमण्डन सूरि, जयतिलकसूरि, जयकोतिसूरि, साधुराज गरिण आदि कतिपय आचार्य शुद्ध रूप से चित्रकाव्यमय स्तव लिखने में विख्यात हैं / सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि (वि. सं. 1485) ने 'जिनस्तोत्ररत्नकोश अथवा जिनस्तोत्रमहाह्रद' की रचना की थी। इसके Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] प्रथम प्रस्ताव में ही 23 स्तोत्र हैं जबकि अन्य प्रस्ताव उपलब्ध नहीं हुए हैं। श्री सोमसुन्दर सूरि के 'युष्मच्छन्दनवस्तवी' और 'अस्मच्छब्द नवस्तवी' में 18 स्तव निर्मित हैं। इन्हीं के शिष्य रत्नशेखरसरि ने त्रिसन्धान-स्तोत्रादि के द्वारा कुछ नए मार्गों का उद्घाटन किया तो समयसुन्दर गरिण (वि. सं. 1651, ने प्रायः 3 स्तुति काव्यों द्वारा अपने अर्चनापुष्प चढ़ाए हैं। - इस प्रकार स्तोत्रावलीकार पू० उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज के पूर्ववर्ती अनेक प्राचार्यों ने स्तुति-काव्य रचना के क्षेत्र में अनेक विधानों को जन्म दिया, विविध विषयों का समावेश किया तथा 'प्रतिभा का सर्वाधिक प्रयोग परमात्मा के गुणगान में ही होना चाहिए' इस धारणा की प्रबलरूप से पुष्टि की। यही कारण था कि-उपाध्याय जी ने भी ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः' वाली उक्ति को सार्थक बनाते हुए अपने पवित्र अन्तःकरण से उद्भूत भावों को भगवत्स्तुतिरूप वाक्यपुष्पों के माध्यम से अर्पित कर विश्वसाहित्य को सुवासित किया। उपाध्याय श्रीमद्यशोविजय जी महाराज सोलहवीं शती के अन्तिम चरण में उत्पन्न महान् विद्वान् जैन मुनि श्रीमद् यशोविजय जी महाराज ने लगभग 100 वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर प्रात्मकल्याण एवं लोककल्याण की कामना से विभिन्न तीर्थों में विराजित जिनेश्वरों की भक्ति से प्रेरित होकर अनेक स्तोत्रों की रचना की है। आपकी रचना-शक्ति अद्भुत एवं पूर्ण वेगवती थी। ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश इतना प्रखर था कि साहित्य का कोई भी क्षेत्र उनसे अछूता नहीं था। साथ ही वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती (कहीं कहीं मारवाड़ी पद्धतिवाली गुजराती) और हिंन्दी भाषा में अबाधगति से रचना करने में भी पटु थे। विषय की दृष्टि से उनका Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 55 साहित्य निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होता है १-धार्मिक तथा २-दार्शनिक / धार्मिक साहित्य के १-ललित, २दार्शनिक और ३-प्रकीर्ण ऐसे तीन वर्ग हैं तथा दार्शनिक साहित्य में १-ज्ञानमीमांसा, २-न्याय, ३-पदार्थ-परामर्श (तत्त्वज्ञान) ४-परमतसमोक्षा, ५-अध्यात्म तथा ६-जीवन-शोधन ऐसे 6 वर्ग हैं। इनमें ललित-साहित्य का एक वर्ग 'स्तोत्र-साहित्य' है जिनमें से कुल 11 स्तोत्र प्रस्तुत पुस्तक में दिए गए हैं। इस तरह की मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त उपाध्यायजी ने विवरणात्मक ग्रन्थ भी अनेक लिखे हैं जिनमें स्वोपज्ञ विवरण तथा अन्यकर्तृक ग्रन्थों के विवरण ऐसे दो वर्ग हैं / भाषा की दृष्टि से संस्कृत और गुजराती भाषा में ये विवरण प्रस्तुत हुए हैं। इस प्रकार के उपलब्ध संस्कृत स्वोपज्ञ विवरण 17, गुजराती स्वोपज्ञ विवरण 8, अन्य कर्तृक ग्रन्थों के संस्कृत विवरण 16 तथा अन्यकर्तृक ग्रन्थों के गुजराती विवरण 3 हैं / 37 संस्कृत ग्रन्थ स्वोपज्ञविवरणवाले नहीं हैं। प्राकृत की 6 कृतियाँ हैं जिनमें दो कृतियों पर स्वोपज्ञ टीकाएँ नहीं हैं और ये टीकाएँ संस्कृत में ही हैं / हिन्दी में 8 कृतियाँ उपाध्यायजी की प्राप्त हैं किन्तु उन पर कोई स्वोपज्ञ विवरण नहीं है। .. संस्कृत स्तोत्रों के अतिरिक्त 152 प्रादेशिक भाषा में रचित स्तोत्र तथा अन्यान्य कृतियों के परिशीलन से यह सहज स्पष्ट हो जाता है कि पू० उपाध्यायजी महाराज एक समर्थ रचनाकार थे और अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों के दाय को बहुत ही सतर्कता के साथ निभाते हुए उत्तरोत्तर महिमापूर्ण. साहित्य की सृष्टि में वे अत्यन्त आदरणीय स्थान को प्राप्त हुए हैं। . उनके जीवन-चरित्र की दो घटनाएँ भी यहाँ विशेष स्मरणीय हैं, जो उनकी अद्भुत स्मरण-शक्ति एवं अपूर्व प्रतिभा का परिचय कराती हैं Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] (1) पूज्य उपाध्यायजी की संसारी माता ने गुरु के समक्ष यह नियम लिया था, कि प्रतिदिन 'भक्ताभर-स्तोत्र' सुनने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करना। इस नियम का वे यथाविधि पालन करती थीं किन्तु वर्षा के दिनों में एक दिन बड़ी तेजी से वर्षा हुई, जो रुकती ही नहीं थी। बहुत समय बीत गया। वे रसोई नहीं बना रही थीं। तब भूख से व्याकुल 'जसवन्त' से नहीं रहा गया। उसने माता से पूछाआज भोजन क्यों नहीं बना रही हैं ?' माता ने अपनी स्थिति स्पष्ट की तब बालक ने कहा कि 'मैं अपिके साथ प्रतिदिन उपाश्रय में आता हूँ और गुरुदेव के मुख से जो स्तोत्र आप सुनती हैं उसे मैं भी सुनता हूँ, वह मुझे पूरा कण्ठस्थ है, अतः आप आज्ञा दें, तो मैं सुना दूं?' माता यह सुनकर प्रसन्न हुई तथा स्तोत्र सुनकर शेष कार्य पूर्ण किया। (2) काशी में अध्ययनार्थ निवास करके पू० उपाध्यायजी महाराज ने न्यायशास्त्र के सभी ग्रन्थों का विधिवत् अध्ययन कर लिया था किन्तु एक ग्रन्थ शेष रह गया था, जो सात हजार श्लोक-प्रमाण का था, उसे अध्यापक-महोदय अपने गौरव के क्षीण हो जाने के भय से नहीं देते थे। तब किसी तरह केवल देखने के लिए गुरुजी को प्रसन्न कर ग्रन्थ प्राप्त कर लिया और एक ही रात्रि में आपने चार हजार श्लोकप्रमाण तथा आपके अन्य साथी श्री विनयविजय जी उपाध्याय ने शेष तीन हजार श्लोकप्रमाण विषय को कण्ठस्थ कर लिया और प्रातः वह ग्रन्थ यथावत् लौटा दिया।' ___ इन किंवदन्तियों से आपकी असाधारण अवधारण-शक्ति का परिचय अभिव्यक्त होता है। ऐसी उत्कृष्ट स्मृति-शक्ति के कारण ही तो इतनी अधिक रचनाएँ करने में आप समर्थ हुए। १-जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावमा पृ० 61 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 57 ऐन्द्रस्तुति चतुर्विशतिका स्तुति-साहित्य के परिवेष में पू० उपाध्याय जी ने स्वतन्त्र रूप से 'ऐन्द्रस्तुति'' की रचना की है। यह रचना मुख्यतः श्री शोभन मुनि की 'स्तुतिचतुर्विंशति-शोभनस्तुति' एवं गौणरूप से पूर्वपरम्परा का निर्वाह करते हुए को गई है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुति है तथा उसमें भी प्रत्येक का प्रथम एवं द्वितीय पद्य तीर्थंकरों से सम्बद्ध है, तृतीय पद्य प्रागम को तथा चतुर्थ पद्य देवी की स्तुति से सम्बद्ध है। इस तरह 66 पद्य स्तुतिरूप तथा शेष 2-3 पद्य प्रशस्तिमूलक हैं / 18 प्रकार के छन्दों में निबद्ध यह स्तुति यमकालङ्कार के अनेकविध प्रयोगों से समृद्ध है। साथ ही स्वयं कर्ता ने 'स्वोपज्ञ-विवरण' द्वारा इसके रहस्य को भी पूर्णरूपेण स्पष्ट किया है। भाषा, भाव, शैली एवं रचनासौष्ठव की दृष्टि से यह अवश्य ही पूर्ववर्ती रचनाओं से बढ़ीचढ़ी है। स्तोत्रावली में संगृहीत अन्य स्तोत्र _ 'भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावुपेयमाधुर्यमधैर्यकारि'-उपाय के प्रति प्रवृति होने और उसका फल मिल जाने से वैसे ही कार्य को पुनःपुनः करने की इच्छा होती है' इस भाव को प्रथम स्तुति के द्वितीय पद्य में संकेतित करके उपाध्याय जी ने स्पष्ट किया है कि ऐसी स्तूतियाँ उत्तम तथा शीघ्र फलदायिनी हैं, अतः मेरा मन भी बार-बार ऐसी स्तुतियाँ करने की इच्छा करता है और इसी का परिणाम है कि उन्होंने अन्य अनेक स्तोत्र लिखे / संस्कृतभाषा में निबन्ध ऐसे स्तोत्रों का एकत्र १-इस स्तुति का अनुवाद और भूमिका आदि से युक्त सम्पादन मुनि श्री यशोविजयजी महाराज ने किया है तथा प्रकाशन 'यशोभारती जैन प्रकाशत-समिति' बम्बई से हुआ है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] संकलन अब तक अन्यत्र प्रकाशित नहीं हुअा था; अंतः पूज्य, मुनिप्रवर श्री यशोविजयजी महाराज ने इन सबका व्यवस्थित संकलन किया, सम्पादन किया, गुजराती अनुवाद किया और अपनी देख-रेख में हिन्दी अनुवाद करवाया। पूर्वाचार्यों के अप्रकाशित साहित्य को प्रमाणित रूप में प्रकाशित करने की अभिरुचि तथा पूज्य उपाध्यायजी महाराज के प्रति अनन्य निष्ठा ही इस ग्रन्थ के प्रकाशन में मूल प्रेरक है। इसमें प्रकाशित स्तोत्रों का संक्षिप्त परिचय तथा साहित्यिक विमर्श इस प्रकार है(१) श्रीआदिजिनस्तोत्र __ प्रस्तुत स्तोत्र पुण्डरीक गिरि-श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ पर विराजित श्री आदिनाथ भगवान् के गुणगान को माध्यम बनाकर लिखा गया है। इसमें पाँच पद्य गोतिरूप तथा अन्तिम पद्य वसन्ततिलका छन्द में निमित हैं / इस स्तोत्र को 'पुण्डरीक गिरिराज (मण्डन) स्तोत्र" और 'शत्रुञ्जयमण्डन श्री ऋषभदेवस्तवन' नाम से भी सम्बोधित किया गया है / प्रारम्भिक पांच पद्यों की रचना में प्रत्येक अर्धाली का प्रथम भाग 16 मात्रा और द्वितोय भाग 12 मात्रा में निर्मित है। द्वितीय चरण के अन्त में 'रे' सम्बोधन का प्रयोग हुआ है जिसे मिलाने पर इस चरण की 14 मात्राएँ हो जाती हैं। ऐसे पाँच पद्यों के समूह को 'कुलक' कहा जाता है / ___ इस में भगवान् ऋषभदेव के गुण-वर्णन में उनकी वाणी, योग, उदारता, प्रभा तथा गति आदि का वर्णन प्रमुख है। अधिकांश पद समास-बहल हैं और 'पादि जिनं वन्दे' इस वाक्य का सभी पद्यों के साथ अध्याहार किया जाता है। अलङ्कार की दृष्टि से इसमें 'यमक' १-यह नाम श्रीयशोविजय वाचक ग्रन्यसंग्रह' (पृ० 46 अ) में दिया है, जब कि दूसरा नाम 'गूर्जर साहित्य संग्रह' (वि० 1, पृ० 427-428) में दिया गया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [56 नामक शब्दालंकार के एक विशेष प्रकार का प्रयोग हुया है / पदावृत्ति में दो और तीन वर्गों के पदों की आवृत्ति होने से 'अनेकाक्षरावृत्तिम्लक' शब्दों की कहीं अखण्ड-रूप से और कहीं खण्ड-रूप से श्रावृत्ति होने से 'अव्यपेत-व्यपेत' तथा प्रतिपद्य के प्रथम और द्वितीय चरगा में 'अन्तादिक' और द्वितीय-ततीय चरणों में भी इसी पद्धति का का निर्वाह करते हुए पाँचों पद्यों में क्रमनिर्वाह होने से 'शृखला'. यमक' का यह भेद माना जा सकता है। वैसे यह ‘पञ्चपदी' एक 'शृंखला-बन्ध' और 'शृंखलागर्भ-हारावली-बन्ध' की भी सृष्टि करती है, जिसका चित्रकाव्यशैली में आलेखन होता है। जैन कृतियों में ऐसी यमक पूर्ण रचना प्राकृत में सूयगड, समराइच्च चरिय तथा बप्पभट्टि सूरि कृत चतुर्विंशतिका में दृष्टिगोचर होती है। सम्भवतः पूज्य उपाध्याय जी ने इन्हीं से प्रेरणा प्राप्त की हो ? ___ यमक के अतिरिक्तं छेकानुप्रास की छटा भी स्पृहणीय है। भाषा को प्रवाहशील रखते हुए वर्ण योजना की गई है तथा उपमा, रूपक और अतिशयोक्ति अलङ्कार भी प्रयुक्त हुए हैं। वर्ण्य-विषय में दार्शनिक शब्दावली का समावेश एवं जैनाचार के प्रमुख तत्त्वों का अभिनिवेश स्तोतव्य के प्रति अगाध भक्ति तथा उन के प्राचार के प्रति अपार निष्ठा के परिचायक हैं। स्तोत्रकार श्री उपाध्यायजी ने प्रस्तुत १-यद्यपि इस नाम से किसी पूर्वाचार्य ने यमक भेद प्रस्तुत नहीं किया है, तथापि वामन ने 'काव्यालङ्कार' में यमक की उत्कृष्टता के लिए पदों में किए जानेवाले भङ्ग-पदविच्छेद के प्रकारों में 'शृङ्खला' का लक्षण- अखण्डवर्ण-विन्यासचलनं शृंखलाऽमला' करते हुए स्पष्ट किया है कि-वर्णों के विच्छेद के क्रमश: प्रागे सरकने की प्रक्रिया 'शृङ्खला' कहलाती है। इसके अनुसार ही यहाँ वर्गों के स्थान पर शब्दों अथवा पदों का एक विशिष्ट क्रम से यमन होने से यह नाम दिया गया है / वैसे यह सन्दष्टक, चक्रवाल, चक्रक आदि भेदों का एक सूक्ष्म भेद है / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] रचना की पुष्पिका में स्तुति की रचना के किसी विशिष्ट उद्देश्य का संकेत न करके इतना ही कहा है कि 'यह स्तुति प्रमोद-पूर्वक की गई है', अतः यह एक स्वाभाविक भक्त एवं कवि-हृदय की भावना के अनुरूप है और साथ ही स्तुति के फलस्वरूप स्वयं कुछ भी नहीं माँगते हुए सज्जन स्तोतारों के कल्याण की कामना की है जो कि साधुजीवन के लिए सर्वथा शोभास्पद है तथा आशीर्वादात्मक अन्त्यमङ्गल भी है। अन्तिम पद्य में कर्ता का नाम 'व'चक' उपाधि से भूषित होकर आया है ? अतः इससे यह निश्चय होता है कि-श्रीयशोविजयजी गणी ने यह रचना 'वाचक' पद प्राप्ति के पश्चात् लिखी होगी। ___ इस स्तोत्र का गुजराती अनुवाद श्री ही. र. कापड़िया ने किया / है तथा यह 'चतुविशतिका' (पृ० 8384) में छपा है। (2) श्रीपार्श्वजिनस्तोत्र श्री पार्श्वनाथ भगवान् की स्तुति में लिखा गया यह स्तोत्र भगवान् के दर्शन, स्मरण तथा प्रणति की विशेषता व्यक्त करता है। इसकी रचना का हेतु श्री शमीनपार्श्वनाथ के दर्शन है। शमीन के स्थान पर 'जैन ग्रन्थावली' पृ० 106 में तथा 'जिनरत्नकोष' (वि०१, पृ. 451) में 'समीका' पद का प्रयोग हुअा है। अतः यह प्रश्न होता है कि ये दोनों स्तोत्र पृथक्-पृथक् हैं अथवा एक हैं ? वैसे कहीं-कहीं 'समीन' शब्द का प्रयोग भी हुआ है। ___ इस 'शमीन' पद का तात्पर्य यहाँ किसी ग्राम या तीर्थ विशेष से जुड़ा हुआ है। राधनपुर तथा गुजरात के बीजापुर के पास 'समी' नामक गाँव है। इसमें शंखेश्वर से कुछ दूर तथा राधनपुर के पास आए हुए 'समो' गाँव को लक्ष्य करके यह स्तोत्र बनाया गया है, ऐसा कुछ मुनिवरों का अभिमत है / वैसे केशरियाजी के मार्ग में 211 मील की दूरी पर 'समीना खेड़ा' तीर्थ है और वहाँ भी भगवान् पार्श्वनाथ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61 का मन्दिर है अतः.यह स्तोत्र उनकी स्तुति में लिखा गया हो, यह भी सम्भावना है। हमने इसका अर्थ 'शमी+इन' शान्तचित्त तपस्वियों के स्वामी ऐसा किया है। स्तोत्र की भाषा अन्य स्तोत्रों की अपेक्षा सरल है। यह स्तोत्र अनुष्टुप् छन्द में रचित नौ पद्यों में निर्मित है, जब कि इसका प्रथम पद्य प्राप्त नहीं हुआ है / रचना में उपाध्यायजी की यमकवाली शैली के स्पष्ट दर्शन होते हैं। चौथे पद्य से आगे 'मूर्ति-स्फूर्ति, लोचने-लोचने, मानसं मानसं, वाणी वाणी, घटी घटी', आदि पदों का प्रयोग चमत्काराधायक है। भावगत सारल्य होने पर भी भाषागत प्रौढता यथावत् बनी हुई है। इसका शमोन-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' नाम से 'जैनस्तोत्रसन्दोह' (भाग 1 पृ. 362-363) में यह प्रकाशन हुअा है। (3) श्रोपार्वजिनस्तोत्र ___ भगवान् पार्श्वनाथ के गुणों का 21 पद्यों में वर्णन करते हुए यह स्तोत्र बनाया गया है। इसी स्तोत्र को कुछ विद्वान् ‘वाराणसी-पार्श्वनाथ स्तोत्र' भी कहते हैं, जिसका कारण उपलब्ध प्रतियों में अङ्कित 'वागणस्यां रचितम्' पाठ है / तथा वाराणसी में तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के चार कल्याणक हुए हैं / भेलुपुर में ये कल्याणक हुए थे अतः पूज्य उपाध्यायजी ने सम्भवतः इसी से प्रेरित होकर इस रमणीयस्तोत्र की रचना की थी। सभी गद्य 'स्वागता' छन्द में निर्मित हैं। ग्यारह अक्षरों से बना यह छन्द विभिन्न वर्णन एवं गेयता के लिए प्रशस्त है / अलङ्कारयोजना की दृष्टि से इस स्तोत्र के प्रथम पद्य में 'दुरित-द्रम-पार्श्व' पद में रूपक का अच्छा समावेश है / पशु शब्द के अर्थ के लिए प्रयुक्त यम कान्तर्गत पार्श्व शब्द का कुठार अर्थ विस्मयावह है और यही पद 'जिनपार्श्व' के द्वितीय प्रयोग से 'तृतीय-चतुर्थ चरणान्तयमक' को Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] प्रस्तुत करता है। द्वितीय पद्य में जहां 'कालिदास के 'क्व सूर्यप्रभवो वंशः ?' इत्यादि को पद्धति से अपनी असमर्थता व्यक्त की है, वहीं स्वर्गीय वृक्ष के पुष्पों की प्राप्ति के समान दुःशक्य गुणवर्णनों की महत्ता प्रदर्शित कर 'निदर्शना' अलङ्कार को उदाहृत किया है / विश्वविश्वविभुता, खलता ख-लता, शुभवता भवता जैसे अनेक यमकित पदों के अतिरिक्त छठे और सोलहवें पद्य में 'अपह नुति', 12, 13 और १५वें में श्लेष, आठवें में 'अनन्वय' अलङ्कार वस्तुतः हृदयग्राही हैं / श्लेष के माध्यम से क्रमशः विष्णु, सूर्य और पृथ्वी से समानता एवं कतिपय गुणों में उनसे भी अधिक गुणशाली बताकर 'व्यतिरेक' अलकार को भी व्यक्त किया है / १६वें पद्य में 'प्रतापरूपी डण्डे से चलाए गए चाक से महाकुम्भरूप सूर्य की सृष्टि' बड़ी ही मनोरम कल्पना है जो रूपकों पर आधारित है। न्यायशास्त्र के महान् विद्वान् होने के कारण उपाध्यायजी कूलाल, चक्र, घट जैसी ,वस्तुओं को काव्य में लाना कैसे भूल सकते थे ? उनकी तर्कशैली अद्भुत है / 'अयं दान. कालस्त्वहं दानपात्रं भवान्नाथ ! दाता त्वदन्यं न याचे' जैसी प्रसिद्ध पंक्तियों को अपना कर उपाध्यायजी ने प्रभु को कल्पवृक्ष एवं स्वयं को दानपात्र' बताया है / (पद्य 19) / अन्त में मोक्षलक्ष्मी की कामना करते हुए अपने द्वारा की गई स्तुति की पूर्णता चाही है। . ___ स्तोत्र के प्रारम्भ में ही पार्वजिनेश्वर की भक्ति से अपने मन की उज्ज्वलता का ‘भक्तिभासुरमना' पद से उल्लेख करते हुए स्तुति की प्रवृत्ति का सूचन किया है। अनन्तगुणशाली की गुणगणना में असमथता, एकान्तवाद का खण्डन, तर्क द्वारा अन्य देवों की समानतासिद्धि के प्रयास की तुच्छता, सप्तभङ्गी नय का संकेत, श्रीपार्श्वप्रभु द्वारा कामदेव का तिरस्कार, भगवान् की भक्तों के प्रति कोमलहृदयता, शुद्धनिश्चयनय द्वारा ज्ञेयता, पापनिवारकता, मोक्षदायकता, क्षमाभाव, प्रथितकीर्तिशालिता आदि का मनोरम वर्णन स्तोत्र की विशिष्टता को सिद्ध करते हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 63 यह स्तोत्र .'यशोविजय वाचक ग्रन्थ संग्रह' (पृ० 43-44 अ) में मुद्रित हुअा है। (4) श्रीशर्खेश्वरपाश्र्वनाथस्तोत्र श्री शर्खेश्वर पार्श्वनाथ के प्रति श्री उपाध्यायजी महाराज की परम भक्ति है। गुजरात में महेसारणा जंकशन से मांदरोड होकर हारीज जानेवाली रेलवे लाइन में हारीज स्टेशन से 15 मील दूरी पर यह प्रसिद्ध जैनतीर्थ है / समस्त भारत के जैनधर्मानुयायियों के लिए यह प्राचीनतम तीर्थ अतिशय श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ विराजमान श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति में लिखित 33 पद्यों का यह स्तोत्र उनके गुणोत्कीर्तन में अोतप्रोत है तथा 'ऐङ्काररूपां प्रणिपत्य वाचं' से प्रारम्भ करके 31 उपजाति और 2 आर्या छन्दों में निबद्ध है। ___ अलङ्कारों के अङ्कन को इसमें अधिक प्रश्रय नहीं मिला है तथापि विभिन्न तर्कों के द्वारा पार्श्व प्रभु की उपासना, भक्ति एवं उनकी वाणी का आदर सिद्ध करने के लिए उत्तम वर्ण-विन्यास हया है। 'जनुःपुपूर्षा और दुरितजिहासा' इस स्तुति के मूल प्रेरक हैं। अनेक दृष्टान्तों से इष्टदेव की विलक्षणता व्यक्त की गई है। एक पद्य में अन्य मेव की अपेक्षा पार्श्वप्रभु को विलक्षण मेघ बतलाया है तो अन्यत्र अपने स्मरण के प्रतिफल रूप में भवभ्रम के भजन की भावना अभिव्यक्त की है। ___ इस स्तोत्र में उपाध्यायजी ने हार्दिक भावों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ अपने अभीष्ट की पूर्ति की प्रार्थनाएँ भी अधिक की हैं / अपने द्वारा किए जाने वाले ग्रन्थ-निर्माण कार्य में सहायक बनने की प्रार्थना करते हुए वे कहते हैं अध्ययनाध्यापनयुगग्रन्थकृतिप्रभृतिसर्वकार्येषु / श्रीशलेश्वरमण्डन ! भूया हस्तावलम्बी मे // 33 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [64 इस प्रकार यह स्तोत्र प्रात्मीयभावों की पूर्ति में सहायता को इच्छा से प्रावृत्त है तथा कोमल शब्दावली से संसक्त होकर स्तोताओं के लिए वाञ्छापूरक है। (5) श्रीशवेश्वरपार्वजिनस्तोत्र यह स्तोत्र भी उपाध्याय जी महाराज द्वारा शखेश्वर पार्श्वनाथ . की स्तुति में ही निर्मित है। इसके प्रारम्भ में वाराणसी-निवास काल में सरस्वती देवी की कृपा से प्राप्त विशिष्ट बुद्धि का स्मरण कराते हुए 'समूलमुन्मूलयितुं रुज: स्वाः' कहकर बुद्धि की कृतार्थता एवं अपने रोगों के समूलनाश को स्तुति-रचना का कारण बताया है। स्तुति में वर्ण्य-विषय दार्शनिक अधिक बन गया है। जगत्कर्तृत्ववाद का खण्डन. प्रभु के शरीर का माहात्म्य, जन्म से ही सहोत्थित तीर्थंकरों के चार अतिशय, स्याद्वाद के स्वरूप का निरूपण तथा प्रभु के गुणों की महिमा के वर्णन इसके वैशिष्ट्य को निखारते हैं। भाव एवं भाषा की प्राञ्जलता में आवेष्टित प्राचीन सम्प्रदायसिद्ध अन्तःकथाओं का समावेश तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवरूप ही श्रीपार्श्वनाथ को सिद्ध करने के लिए 'महाव्रती होने से शङ्कर, जगत् के पितामह होने से ब्रह्मा तथा पुरुषोत्तम होने से विष्णरूप' होने की बात कही है। यहां क्रमभङ्ग भी हुआ है / वर्णन-पद्धति में बहुधा अन्य देवों में कुछ न्यूनताएँ दिखलाई गई हैं और उनसे मुक्त रहने के कारण श्रीपार्श्वनाथ को सर्वपूज्य माना है / अनेक पद्यों में न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध दृष्टान्तों को भी स्थान मिला है। नैषधीय-चरित के कई पद्यों की छाया इस स्तोत्र में प्राप्त होती है। अपह नुति अलङ्कार के माध्यम से यहाँ चन्द्रमा को अनेकरूप में प्रस्तुत किया है / उसका कलङ्क विविध तर्को से लगभग 20 पद्यों के द्वारा निःसार सिद्ध किया है। इसी प्रकार विधाता की विविध शास्त्र-निष्णात मेधा को भी व्यर्थ बताने का प्रयास हुआ है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 65 98 पद्यों में निर्मित यह स्तोत्र महाकाव्य के किसी सर्ग की स्मृति दिलाता है / प्रारम्भ के पद्य उपजाति में निबद्ध हैं, जब कि अन्तिम 12 पद्यों में स्रग्धराछन्द का प्रयोग हया है। अन्त के ये पद्य 'सूर्यशतक' और 'चण्डीशतक' की रचनाशैली का स्मरण कराते हैं क्यों कि इनमें दीर्घ समास-शैली एवं अद्या वद्या, नद्याः सद्यः, माचे नाचे, सेवा हेवा, सेकच्छेक, मोहापोहा जैसी प्रानुप्रासिक पदावली का मसृणप्रयोग वाचकों के मन को मोह लेता है। ६१वें पद्य के चारों चरणों के ग्रारम्भ में भर्ता पद के साथ-साथ गर्ता, हर्ता, तर्ता और कर्ता पदों का सन्निवेश तथा अन्तिम 7 पद्यों में 'जीयाः' पद से किया गया जयगान बहुत ही प्रौढ काव्यत्व का परिचायक बन पाया है। ___ यह स्तोत्र 'जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा' की ओर से वि० सं० 1998 में प्रकाशित 'श्रीयशोविजयवाचकग्रन्थसंग्रह' के पृ० 45 अ-से 46 अ० में पहले मुद्रित हुआ है। (6) श्रीपार्श्वजिनस्तोत्र प्रस्तुत स्तोत्र भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति में लिखा गया है इस में कुल 108 पद्य हैं किन्तु उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों में पाठों के खण्डित हो जाने से प्रारम्भ के 6, 57 से आगे के 5 तथा 67 से आगे के 26 इस प्रकार कुल 37 पद्य अनुपलब्ध हैं। शिखरिणी छन्द की प्रधानता होते हुए भी द्रुतविलम्बित, स्रग्धरा, उपेन्द्रवज्रा, वियोगिनी, भुजङ्गप्रयात, तोटक और पृथ्वी छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। ___ 'जैनस्तोत्रसन्दोह' के प्रथमभाग में इस स्तोत्र का नाम 'श्रीगोडीपार्श्वनाथस्तवनम्' दिया है। गोडीपार्श्वनाथ की स्तुति-भक्ति में विभोर श्री उपाध्यायजी ने पूर्वाचार्यों द्वारा निर्मित 'महिम्नः स्तोत्र' तथा लहरीस्तोत्रों को परम्परा का निर्वाह किया है तथा रचना-सौष्ठव के लिए 'अनुप्रास अलङ्कार' के अनेक भेदोपभेदों का पालम्बन लिया है / गङ्गा की निरर्गल बहती हुई धारा के समान वर्ण-प्रवाह से कमनीय 'शिख Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .66] रिणी छन्द' भक्तिरस की निरिणी बहाने में सर्वथा समर्थ है। श्रीशङ्कराचार्य ने 'सौन्दर्य-लहरी' और देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रादि में इसी छन्द का आलम्बन लिया है। उनकी इन रचनाओं के समान ही उपाध्यायजी महाराज ने भी 'न मन्त्रं नो यन्त्रं' की भाँति प्रत्येक चरण के प्रारम्भ में द्विपदानुप्रास का प्रयोग 'स्मरः स्मारं स्मारं, पुरस्ते चेदोस्ते, दृशां प्रान्तैः कान्तः, प्रसिद्धस्ते हस्ते' जैसे पदों के द्वारा शिखरिणी-नदी के धारा-सम्पात को अभिव्यक्त किया है। कुछ पद्यों में यही अनुप्रास-पद्धति 'चरण-मध्यगत' रूप से भी प्रस्तुत की है। ऐसे पदों में जहाँ समान-पदों की आवृत्ति हुई है वहाँ भिन्नार्थकता के कारण 'यमकालङ्कार' प्रशस्त हुअा है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं अन्यान्य अर्थालङ्कारों का बहुधा समावेश होते हुए भी वे हठादाकृष्ट न होकर दूध में मिली शर्करा के समान घुल-मिल गए हैं, इसीलिए वे 'मधुरं हि पयः स्वभावतो ननु कीहक् सितशर्करान्वितम्' की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। ___ स्तोत्रपाठ की महत्ता में पूज्य उपाध्यायजी ने इसी स्तोत्र के पद्य सं० 12 में कहा है कि उदारं यन्तारं तव समुदयत्पूष-विलसन्, मयूषे प्रत्यूषे जिनप ! जपति स्तोत्रमनिशम् / प्रतर्पद्दानाम्भः सुभग करदानां करटिनां, घटा तस्य द्वारि स्फुरति सुभटानामपि न किम् ? // अर्थात् प्रातः स्तोत्रपाठ करनेवाला व्यक्ति अपार लक्ष्मी प्राप्त करता है। इसी प्रकार अन्य पद्यों में नाम-स्मरण, मन्त्रजप, पालम्बिका आदि तपस्या, विविधप्रकारी पूजा आदि की महिमा भी वर्णित है। १६वें पद्य में अनन्यशरण की अभिव्यक्ति करते हुए त्वमेव सर्वं मम देवदेव' की भावना को व्यक्त किया है तो कहीं प्रभु के आज्ञापालन के अभाव में किए गए योगासनादि समन्वित तपस्याओं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्र [67 को अनुपयोगी बतलाया है / 52 और ५४वें पद्यों में क्रमशः श्लेषपुष्ट व्यतिरेक एवं विरोधाभास अलङ्कार व्यक्त हैं तथा १०३वाँ 'सर्पत्कन्दपसर्प' इत्यादि पद्य सूर्यशतक के पद्यों का स्मरण कराता है। ___ इस स्तोत्र की इस प्रकार की मञ्जुलता से आकृष्ट होकर ही श्री विजयधर्मधुरन्धर सूरि (श्रीधुरन्धरविजयजी) ने अनुपलब्ध 37 पद्यों का निर्माण कर स्तोत्र को पूर्ण किया है तथा इस पर संस्कृतभाषा विवरण और गुजराती अनुवाद करके 'जैनसाहित्य-वर्धक सभा' द्वारा 'श्रीगोडीपार्श्वनाथस्तोत्रम्' नाम से वि० सं० 2018 में प्रकाशित किया है। जैनस्तोत्रसन्दोह (भा० 1. पृ० 363-406) में भी यह स्तोत्र छपा है। (7) श्रीशङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि-'शङ्खश्वर-पार्श्वनाथ' के प्रति श्रीउपाध्यायजी की अनन्यभक्ति एवं अपार श्रद्धा है।' तदनुसार यह स्तोत्र भी 113 पद्यों में विरचित है / यहाँ प्रथम पद्य में शङ्केश्वर प्रभु की महिमा दिखाते हुए–'गृहं महिम्नां महसां निधानं' आदि कहा गया है। आगे कुछ पद्यों में 'अर्थान्तरन्यास' द्वारा गुणस्तव से ही प्राणियों के जन्म की सफलता, वाणी की स्वच्छता, स्तुतिप्रवृत्ति, वाणी की दुष्ट वर्णनों से रक्षा आदि वर्णित हैं। स्तुति की महत्ता का अङ्कन करते हुए कहा गया है किकलौ जलौघे बहुपङ्कसङ्करे, गुरणवजे मज्जति सज्जनाजिते / प्रभो ! वरीवति शरीरधारिणां, तरीव निस्तारकरी तव स्तुतिः // ____ अर्थात् बहुपङ्कसङ्कर कलिसमुद्र में सज्जनों द्वारा अजित गुणों के मज्जित हो जानेपर उनको भवसागर से पार लगानेवाली आप (प्रभु) की स्तुति ही एक अपूर्व नौका है। उपर्युक्त पद्य में प्रयुक्त पदावली 'नृत्यत्पदप्रायता' का अपूर्व उदाहरण है / कैसी मञ्जुल एवं प्रासादिक रचना है ? बिना तोड़-मरोड़ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सहज-सुलभ पदों से भी रचना को किस प्रकार प्रस्तुत किया गया। है ? यह महाकवि की रचना में ही सुलभ है। . ___महाकवि श्रीयशोविजयजी महाराज ने स्तुति के माध्यम से भक्ति की वरीयता, आगमों की गरिमा, जिनाज्ञा की सर्वापत्तिनिवारकता, मानव-जन्म की सार्थकता, भगवान् की वाणी की महिमा, नामस्मरण की विशेषता और अष्टविध भयनाशनपटुता का सहज उल्लेख किया / ___ यहाँ भाषा-सौष्ठव और. वचो-विन्यास-विदग्धता पद-पद पर प्रस्फुटित हो रही है। उपेन्द्रवजा, वंशस्थ, उपजाति, इन्द्रवज्रा द्रुतविलम्बित, पृथ्वी और हरिणी जैसे छन्दों का समुचित प्रयोग कविकर्म की कुशलता का प्रतीक बना हुआ है। भाववाही वर्णन से प्रोतप्रोत यह स्तोत्र सचमुच ही कमनीय काव्य-छटा से अनुप्राणित है। कहीं-कहीं शब्द-मैत्री स्वरमैत्री और ताललयमैत्री का मङ्गल-मिलन तो बहुत ही आकर्षक है / यथा तमाल-हिन्ताल-रसाल-ताल-विशाल-साल-व्रजदाहधमैः। दिशः समस्ता मलिना वितन्वन्, दहन्निवाभ्रं प्रसृतः स्फुलिङ्गः // इसी प्रकार 108 और १०६वें पद्यों में बन्धनभय से मुक्ति दिलाने में नामस्मरण की समर्थता प्रकट करते हुए आपादकण्ठापित आदि पदों से श्रीमानतुंगसूरि के 'भक्तामरस्तोत्र' से सम्बद्ध घटना का स्मरण भी सहज हो जाता है / इन स्तुतियों के फलस्वरूप 'प्रतिभव में प्रभुपदरति की कामना' ही प्रधान है जब कि अन्तिम पद्य में 'यशोविजयश्री' की प्राप्ति अभ्यथित है। यह स्तोत्र 'जैनस्तोत्रसन्दोह' (भाग 1, पृ० 380-362) में मुद्रित (8) श्रीमहावीरप्रभुस्तोत्र दस मन्दाक्रान्ता और एक मालिनी वृत्त में निर्मित यह स्तोत्र भग Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 वान् महावीर की भक्ति को प्रमुखता प्रदान करता है। पहले पद्य में भगवान् को सम्यग् ज्ञानरूप व्यक्त किया है। द्वितीय पद्य में अष्टमङ्गल, दिव्य थव्य-छत्रादि का वर्णन करते हुए उन्हें सालम्बन-योग का प्रापक कहा है तथा इसी सालम्बन-योग के गाढ अभ्यास से पापनिवृत्ति होने पर निरालम्बन योग की सहज सिद्धि का संकेत तीसरे पद्य से दिया है। इसी शृंखला में चरमावञ्चक योग एवं प्रातिभज्ञान की प्राप्ति तथा अन्य पद्यों में भक्ति को ही सर्वोपरि बताया है। यह स्तोत्र इस प्रकार योग और शक्ति दोनों विषयों पर प्रकाश डालता है किन्तु अन्त में भक्ति ही सब कुछ है इस बात को–'एका भक्तिस्तव सुखकरी स्वस्ति तस्यै किमन्यैः' 'कल्याणानां भवनमुदिता भक्तिरेका त्वदीया' इत्यादि कहकर 'त्वत्तो नान्यं किमपि मनसा संश्रये देवदेवम्' से अपनी अटल भक्ति दिखलाई है। यहीं अन्तिम पद्य में अपने पूज्य गुरुदेव श्रीनयविजयजी का स्मरण भी किया है। श्री उपाध्यायजी महाराज का शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल तथा योगानुभव बहुत ही गम्भीर था। जैन मन्तव्यों की सूक्ष्म एवं रोचक मोमासा करने की दृष्टि से 'अध्यात्मसागर, अध्यात्मोपनिषद्, बत्तीस बत्तीसो' आदि ग्रन्थ उनके महत्त्वपूर्ण हैं। महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्रों पर की गई उनकी छोटी-सी वत्ति आपने जैनप्रक्रिया के अनुसार लिखी है, जिसमें यथासम्भव योगदर्शन की भित्तिस्वरूप सांख्यप्रक्रिया का जैन-प्रक्रिया के साथ साम्य भी दिखलाया है। इस प्रकार यह स्तोत्र लघु होते हए भी अपनी पद्धति में अनुपम है। भाषा प्रांजल है, भाव गम्भीर हैं तथा विषय-प्रतिपादन शैली अभिनव है। इसका सार्थ प्रकाशन प्रस्तुत स्तोत्रावली में पहली बार ही हुआ है जबकि मूल रूप से 'श्रीमार्गपरिशुद्धिप्रकरणम्' में 'योगविचारभितं श्रीमहावीरजिनस्तवनम्'१ शीर्षक से सेठ ईश्वरदास मूलचन्द ने अहमदाबाद 1. पुस्तक के पृ. 73 में 'योगनिःश्रण्यारोहभक्तिरसभितम्' छपा है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70.] से वि. सं. 2003 में प्रकाशित किया है। 'जैन साहित्यनो इतिहास' तथा 'यशोदोहन' में यह स्तोत्र चर्चित नहीं है। .. (9) वीरस्तव उपाध्यायजी महाराज ने न्यायशास्त्र से सम्बद्ध दो लाख श्लोकों के परिमाण में ग्रन्थ लिखे थे। आपने हंसराज नामक श्रावक को एक पत्र लिखा था, उसमें लिखा था कि-न्यायग्रन्थ बे लक्ष कीधो छई" इत्यादि / इस प्रकार जिन ग्रन्थों की रचना हुई है, वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी में लिखे गए हैं। , . 110 पद्यों में निर्मित इस स्तोत्र का नाम उपाध्यायजी ने कृति में कहीं नहीं दिया है। वैसे इसका नाम कहीं 'वीरस्तोत्र' कहीं 'महावीरस्तव', कहीं 'न्यायखण्डखाद्य' अथवा 'न्यायखण्डनखाद्य' और कहीं 'न्यायखण्डखाद्यापरनाम-महावीरस्तव-प्रकरण' भी दिया है। जबकि न्या० यशोविजय-स्मृति ग्रन्थ में 'न्यायखण्डखाद्य' को स्वोपज्ञ विवरण कहा है। ___ कृति का मुख्य विषय महावीर की वाणी-स्याद्वाद की स्तुति है। विशेषतः स्याद्वाद के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों की ओर से जो दूषण प्रस्तुत किये गये हैं उनका निरसन किया गया है और विज्ञानवाद की आलोचना की गई है। इस रचना के निर्माण में उपाध्याय जी महाराज ने लिखा है कि-'स्थाने जाने नात्र युक्ति ब्रुवेऽहं, वाणी पाणी योजयन्ती यंदाह (107), अर्थात् 'मैं यह अच्छी तरह से समझता हूँ कि इस स्तोत्र में परमत का निरास एवं स्वमत की जो प्रस्थापना सम्बन्धी युक्तियाँ प्रस्तुत हुई हैं वे मेरी सूझ न होकर साक्षात् सरस्वती द्वारा सुनियोजित की गई हैं।' अतः जहाँ यह स्तव स्तोत्र का एक अंश पूर्ण करता है वहीं स्याद्वाद दर्शन की शास्त्रीयता का भी पूर्ण उपदेश करता है। हम इसे 'शास्त्रकाव्य' की संज्ञा भी दे सकते हैं क्योंकि जैसे भट्टिकाव्यादि कुछ काव्यग्रन्थ काव्य होने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [71 के साथ ही शास्त्रीय विषयों को क्रमशः प्रस्तुत करने के कारण शास्त्रकाव्य कहे जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी दोनों का समावेश होने से उक्त संज्ञा देना अनुपयुक्त नहीं है। विषय की दृष्टि से इसमें (1) मोक्ष के उपाय (2) बौद्धों का अभिप्राय, (3) नैयायिक का अभिप्राय, (4) कुर्वद्रूपत्व के साधनार्थ बौद्धों का प्रयास, (5) बौद्धों के वक्तव्य का खण्डन, (6) न्याय मतानुसार वस्तुस्वभाव का निरूपण, (7) बौद्धों का वक्तव्य और उसका खण्डन, (8) नयप्रतिबन्दी का प्रकार, (6) धर्मकीर्ति और दिङ्नाग आदि के मत, (10) उनके द्वारा उक्त . मतों का पृथक-पृथक् परीक्षण (11) ज्ञेय और ज्ञान की अभिन्न जातीयता का खण्डन, (12) ज्ञेय की असत्यता का खण्डन आदि का बड़ा ही मार्मिक विवेचन किया है। इस विवेचन में तथागत, विशेषवादी, सौत्रान्तिक, सर्वशून्यतावादी विशेष माध्यमिक, विज्ञानवादी सुगतमत, योगाचार मत और शिरोमरिण मत का विचार हुआ है। ____ इस स्तव में मुख्य रूप से वसन्ततिलका छन्द का (1-66 तक) प्रयोग हुआ है, जबकि 6 पद्य शिखरिणी, 1 पद्य हरिणी, 1 पद्य शालिनी और दो पद्य शार्दूलविक्रीडित में बने हुए हैं। भगवान् महावीर के सुखदायी चरणकमलों की सूक्तरूप विकस्वर पुष्पों के द्वारा की गयी यह वाङ्मयी पूजा 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करती हुई अत्यन्त गम्भीरतत्त्व को उपस्थित करती है। प्राञ्जल दार्शनिक भाषा में भावगत मार्दव एवं भक्त-सुलभ हृदय की विशालता के साथ ही विनय और विवेक का स्वर्णसौरभ-सन्निवेश चमत्कारकारी है। स्याद्वाद की अनन्य निष्ठा ने अपूर्व वैदुष्य का संचार किया है। काव्योचित विषय-प्रतिपादन के साथ तर्कावतारवचनों से की जानेवाली ऐसी स्तुति को अनुत्तरभाग्यलभ्य बताते हुए स्वयं उपाध्याय जी ने कहा है कि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] स्तुत्या गुणाः शुभवतो भवतो न के वा, देवाधिदेव ! विविधातिशद्धिरूपाः / तर्कावतारसुभगैस्तु वचोभिरेभि स्त्वद्वाग्गुणस्तुतिरनुत्तरभाग्यलभ्या // 2 // साहित्यिक सौष्ठव का प्रवाह कहीं भी क्षीण नहीं होने पाया है। यमक की छटा पुनः पुनः मुखरित होकर प्रानन्दसिन्धु में निमज्जन' करवाती है तो कहीं अर्थापत्ति (प. 7), दृष्टान्त, काव्यलिङ्ग, (12) अर्थान्तरन्यास, रूपक आदि अर्थालंकारों का परिस्पन्द भी आनन्दित किये बिना नहीं रहता। कहीं पद्यों में अन्तःकथाओं का समावेश है (85) तो कहीं किंवदन्तियों को काव्यमाला में 'शास्त्राण्यधीत्य बहवोऽत्र भवन्ति मूर्खाः (87) कहकर पिरोया है। दर्शन-पक्ष का आश्रय श्रावक, चरित्रच्युत साधक एवं धर्माचरण में मन्दोत्साही तीनों के लिए आवश्यक है (17) यह बतलाते हुए उपाध्यायजी ने सत्य ही कहा है कि-दर्शन-श्रद्धा का धरातल दृढ होने पर अन्य सब साधनों के सम्पन्न होने का पथ प्रशस्त हो जाता है' (वहीं)। ऐसे अनूठे तत्त्वों का विवेचन उपाध्याय जी की दृष्टि में प्रभु महावीर की अनघ सेवा है। वे स्पष्ट कहते हैं कि विवेकस्तत्त्वस्याप्ययमनघसेवा तव भव- . स्फुरत्तृष्णावल्लीगहनदहनोद्दाममहिमा / हिमानीसम्पातः कुमतनलिने सज्जनदृशां, सुधापूरकरग्रहदगपराधव्यसनिषु // 104 // इसी प्रकार इस स्तोत्र की महिमा में लिखा गया यह पद्य इदमनवमं स्तोत्रं चक्रे महाबल ! यन्मया, तव नवनवस्तर्कोद्ग्राह भृशं कृतविस्मयम् / . तत इह बृहत्तर्कग्रन्थश्रमैरपि दुर्लभां, . कलयतु कृती धन्यम्मन्यो 'यशोविजय' श्रियम् // 106 // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [73 स्पष्ट करता है कि 'यह स्तोत्र नये-नये तर्कों के प्रयोग से आश्चर्यकारी और सर्वोत्तम है। इसके अध्ययन से तर्कशास्त्र के बड़े-बड़े ग्रन्थों का श्रमपूर्वक अध्ययन करने से प्राप्त होनेवाला ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है / वस्तुतः यह उक्ति पूर्णतया सत्य एवं तथ्यसंवलित है। ऐसे शास्त्रगर्भ स्तव पर स्वयं रचयिता ने 'स्वोपज्ञटीका' लिखी है। इस टीका में 'अस्पृशद्गतिवाद' नामक अपनी कृति का उल्लेख भी हुअा है। इसका प्रकाशन 'मनसुखलाल भगुभाई' द्वारा अहमदाबाद से 'न्यायखण्डखाद्यापरनाम-महावीर-प्रकरणम्' नाम से हया है। __इस पर द्वितीय विवृति 'न्यायप्रभा' नाम से तीर्थोद्धारक श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी ने की है। इसका प्रकाशन सन् 1928 में श्रीमारणेकलाल मनसुखलाल ने किया है / विवृति पर्याप्त विस्तृत एवं प्रौढपाण्डित्य से परिपूर्ण है। ___एक अन्य विवृति 'कल्पकलिका' नामक श्रीविजयनेमिसूरि के शिष्य श्रीविजयदर्शनसूरि ने की है। इसके दोनों खण्डों में दो-दो विभाग हैं जिनमें प्रथम विभाग 'सौत्रान्तिक मत निरूपण' २२वें श्लोक तक, द्वितीय विभाग में 'प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्षत्व स्वीकार', 23 से 243 श्लोक तक, तृतीय विभाग में 'विज्ञानवादि-मत-खण्डन' 35 से ५१वें श्लोक तक तथा चतुर्थ विभाग में 'स्याद्वादोपदेश-दिग्दर्शन' 52 से ११०वें श्लोक तक का समावेश है। .. इसका श्लोकार्थ एवं भावार्थ श्रीजीवराजभाई प्रोधवजी दोशी ने भी किया है जो 'जैनधर्मप्रकाशक' में 6 अंकों में प्रकाशित हुआ है / (10) समाधिसाम्यद्वात्रिशिका जैन स्तुति-साहित्य में द्वात्रिंशिकाओं की सर्वप्रथम रचना श्रीसिद्धसेन दिवाकर ने की है। इन्होंने द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकाओं की रचना की है किन्तु अभी तक इक्कीस द्वात्रिंशिकाएँ ही प्राप्त हुई हैं जिनमें अधिकांश महावीर स्वामी की स्तुति है / इसी परम्परा से श्रीयशोविजयजी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] उपाध्याय ने भी 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की रचना 1024 पद्यों में की है जिनमें 21 द्वात्रिंशिकाएँ अनुष्टुप् में और एक रथोद्धता छन्द में है। इनके अतिरिक्त उक्त द्वात्रिंशिका अपने ढंग की अनूठी कृति है और यह इस स्तोत्रावली में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई है। इसमें क्रमशः समाधि-परिशीलन का महत्त्व विभिन्न दृष्टान्तों के द्वारा अभिव्यक्त हुअा है। समाधि-साम्य प्राप्त कर लेने पर होनेवाले आनन्द का वर्णन भी अनेक पद्यों में हुआ है / साधुजीवन में आने वाली समस्त कठिनाइयों से पार पाने का एकमात्र उपाय समाधिलाभ ही बताया गया है। समाधियुक्त योगियों को 'स्त्रैणे तृणे ग्राणि च काञ्चने च भवे च मोक्षे' सभी में साम्य होने के कारण उन्हीं में निर्वृतिसुख का अनुभव होता है। . __ पद्य 21 से 24 तक प्रसन्नचन्द्र, भरत चक्रवर्ती, आद्य अर्हन्माता भगवती और बड़े-बड़े हिंसकों के उच्चपद प्राप्ति में समाधिभाव को ही कारण बताया है / पद्य 25 से 30 तक कल्पसूत्र के छठे व्याख्यान में आए हए विशेषणों और उदाहरणों द्वारा समाधि-साम्य-प्राप्त मुनीन्द्रों की महिमा दिखलाई है। ____ इसमें प्रथम पद्य उपेन्द्रवज्रा और अन्तिम पद्य मन्दाक्रान्ता के अतिरिक्त उपजाति छन्द का प्रयोग हुआ है तथा दृष्टान्त, उपमा, रूपक और अर्थान्तरन्यास अलंकारों का प्रयोग रमणीय है। भाषा प्रौढ है और समासनिष्ठ शैली के कारण माधुर्यगुण का अच्छा विकास हुआ है। (11) स्तुतिगीति , प्रस्तुत कृति का नाम गीतिमय होने से 'स्तुतिगीति' रखा गया है। वैसे अन्यत्र इसका नाम 'षड्दर्शनमान्यताभितः श्रीविजयप्रभसूरिस्वाध्यायः' भी प्राप्त होता है। सात पद्यों में निबद्ध यह रचना.षडदर्शन की मान्यताओं का संक्षिप्त निर्देश करते हुए उनके तत्त्वों का जिनकी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 75 वाणी से खण्डन हो जाता है, ऐसे गच्छाधिपति की महत्ता को प्रस्तुत करती है। श्रीविजयदेवसूरि के पट्टरूप गगन में सूर्य के समान श्रीविजयप्रभसूरि जी के सम्बन्ध में की गई यह स्तुति तर्क-युक्ति से पूर्ण होने के साथ ही उनकी वाणी की प्रशंसा व्यक्त करती है। समवाय, अपोह तथा जाति की शक्ति, जगत्कर्त त्ववाद, प्रकृति, स्फोट तथा ब्रह्म इन अजैन मन्तव्यों का और सम्मति (प्रकरण) का उल्लेख इस कृति में है। इस रचना की गीति-पद्धति 'कडखा की देशी' है। श्रीपाल राजा को रास में इस पद्धति का प्रयोग हुआ है। ___ इस कृति के अनुकरण में श्रीविजयधर्मधुरन्धरसूरि ने प्रभातिया राग में गाने योग्य संस्कृत में विजयनेमिसूरिस्वाध्याय' नाम से निर्मित की है। ___ यह कृति 'स्तुति चतुर्विंशतिका' की प्रो० कापड़िया द्वारा लिखित भूमिका में, 'जैनस्तोत्रसन्दोह' (भाग 1) की मुनि श्रीचतुरविजय जी लिखित संस्कृत-प्रस्तावना में तथा गूर्जर साहित्य संग्रह (भा. 1) में पाठान्तरपूर्वक प्रकाशित हुई है। (12) श्रीविजयप्रभसूरिक्षामणक-विज्ञप्तिकाव्यम् श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के विभिन्न साहित्यिक दायों में 'विज्ञप्तिकाव्य' भी एक है। शृंगार-साहित्य और भक्ति-साहित्य की श्रीवृद्धि कालिदास के 'मेघदूत' नामक सन्देशकाव्य के रूप में प्रारम्भ होकर अनेकशः अनुकृतियों के द्वारा पर्याप्त हुई है। जैनमुनि अपने संयमीजीवन में रहते हुए गुरुभक्ति से प्रेरित होकर पर्युषण-पर्व पर की गई अाराधना एवं श्रीसंघ द्वारा सम्पादित धार्मिक कृतियों का विवरण देते हा चातुर्मास के कारण अन्यत्र विराजमान गुरुदेव के चरणों में विज्ञप्तिरूप काव्यों की रचना करके पत्र रूप में प्रेषित करते रहे हैं। ऐसे विज्ञप्तिकाव्यों की एक स्वतन्त्र परम्परा है जिनमें श्री प्रभाचन्द्र गणि (वि. सं. 1250) से अब तक लगभग 30 पत्रकाव्य बने हैं / इन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] काव्यों में शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा चित्रबन्धों को बहुधा स्थान दिया है और विविध वर्णनों से परिपुष्ट काव्य तत्त्वों का समावेश किया गया है।' श्री उपाध्याय जी ने भी इसी परम्परा में यह 'क्षामरणक-विज्ञप्तिकाव्य' लिखा है। इसमें दीव बन्दर स्थित तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयप्रभसूरीश्वरजी के प्रति भक्तिपूर्वक पर्युषणा-पर्व की समाप्ति के पश्चात् क्षमापना माँगी गई है। यह क्रमशः-१. पार्श्वप्रभु वर्णन, 2. दीवबन्दरनगरवर्णन, 3. गुरुवन्दना और 4. उपसंहार-रूप चार भागों में विभक्त है। प्रथम में 22, द्वितीय में 2, तृतीय में 25 और चतुर्थ भाग में 7 पद्य हैं। इस प्रकार.८४ पद्यों का यह काव्य उपजाति' अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित तथा प्रार्या छन्दों में निबद्ध है। ____वर्णन में विविध अलङ्कारों का समावेश चमत्कारी है / महाकाव्यों में आने वाली वर्णन-पद्धति पद-पद पर स्फुटित हुई है। समुद्र-वर्णन में उत्प्रेक्षात्रों का बड़ा ही रमणीय प्रयोग है और उनमें नवीन कल्पनाओं का प्रयोग हुआ है। कवित्व की अभिव्यक्ति और कल्पनाओं को उड़ान यहाँ अवश्य ही दर्शनीय है। कुछ पद्यों में 'परिसंख्या' और 'यमक का प्रयोग भी हुआ है। नगर, नगर की समृद्धि, जिनचैत्य और उपाश्रय आदि के वर्णन अतीव श्लाघनीय हैं। ___यह काव्य 'स्तोत्रावली' में पहली बार व्यवस्थित रूप से प्रकाशित किया गया है। . यहां ये विचारणीय प्रश्न है कि 'क्या रसात्मक स्तुति-स्तोत्रों में काव्य में गडुभूत (गन्ने में स्थित ग्रन्थि के समान) यमक जैसे शब्दा 1. ऐसे विज्ञप्ति-काव्यों का विस्तृत परिचय देखें-'सन्देशकाच्यों की सृष्टि में एक अभिनव मोड़-विज्ञप्ति-काव्य' ले. डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, महावीरपरिर्वाण स्मृति ग्रन्थ' संस्कृत-विद्यापीठ, नई दिल्ली प्रकाशन / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [77 लङ्कारों का प्रयोग उचित है ? जब भक्त सरल हृदय से प्राराध्य के चरणों में अपना निवेदन प्रस्तुत कर रहा हो, तब ऐसे शब्दाडम्बर की क्या आवश्यकता है?' इस का समाधान यह है कि- 'वस्तुजगत् के प्रति प्रात्म-संवेदना को अभिमुख बनाने का कार्य आवर्तधर्म का है। व्यक्ति-घटित जीवन-संवेदना का रूप-परिग्रह एवं एक वस्तु अथवा व्यापार के समान दूसरी वस्तु या व्यापार का विधान भावानुभूति को तीव्रता प्रदान करता है। आवर्त-धर्म के कारण जो साम्य उद्भूत होता है वह हमारे हृदय को प्रसृत करता है शेष सृष्टि के साथ गूढ़ सम्बन्ध की धारणा को स्थिर बनाता है तथा स्वरूप-बोध के साथ-साथ विचार-लोक की नई दिशा भी प्रदान करता है। इस दृष्टि से प्रार्थना या स्तति-स्तोत्रों में ऐसी अलंकार-योजना गड्भूत न होकर रसास्वाद के प्रति उन्मुख करने में सहायक ही होती है।' ___ इस दृष्टि से बारह कृतियों का यह संकलन भक्तजनों और सहृदय साहित्यिकों के लिए अवश्य ही अानन्दवर्द्धक बन गया है। ___ऐसी अपूर्व संकलना के लिए पूज्य श्रीयशोविजयजी महाराज समस्त साहित्यसेवी समाज के लिए आदर के पात्र हैं। ऐसे महनीय साहित्योद्धारक के जीवन और कृतिकलाप से भी हमारा पाठक-समाज परिचित हो तथा उनसे सहयोग और प्रेरणा प्राप्त करे' इस दृष्टि से उनका संक्षिप्त जीवन-चरित्र एवं कृति-परिचय देना भी हम अपना कर्तव्य समझते हैं, जो कि इस प्रकार है प्रधान सम्पादक मुनिश्री यशोविजयजी महाराज जन्म एवं परिवार गुजरात की प्राचीन दर्भावती नगरी आज 'डभोई' नाम से प्रसिद्ध है। इस ऐतिहासिक नगरी में वि. सं. 1972 की पौष शुक्ला द्वितीया Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 78] के दिन बीसा श्रीमाली जाति के धर्म-परायण सुश्रावक 'श्री नाथालाल वीरचन्द शाह' के यहाँ पुण्यवती 'राधिका बहिन' की कोख से आपका जन्म हुआ। आपका नाम 'जीवनलाल' रखा गया। आपके तीन बड़े भाई और दो बड़ी बहिनें थीं। आपके जन्म से पूर्व ही पिता परलोकवासी हो गए थे / पाँच वर्ष की आयु में माता का भी स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार बाल्यावस्था में माता-पिता की छत्रछाया उठ गई थी, किन्तु ज्येष्ठ बन्धु नगीन भाई ने बड़ी ही ममता से आपका लालन-पालन किया, अतः मातापिता के प्रभाव का अनुभव नहीं हुआ। * विद्याभ्यास तथा प्रतिभा-विकास आप पाँच वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रविष्ट हुए और धार्मिक पाठशाला में भी जाने लगे। नौ-दस वर्ष की वय में संगीत-कला के प्रति मुख्यरूपेण आकर्षण होने के कारण सरकारी शाला और जैनसंघ की ओर से चल रही संगीत-शाला में प्रविष्ट हुए तथा प्रायः 6-7 वर्ष तक संगीत की अनवरत शिक्षा प्राप्त करके संगीतविद्या में प्रवीण बने / आपकी ग्रहणधारण शक्ति उत्तम होने से दोनों प्रकार के अभ्यास में आपने प्रगति की। सुप्रसिद्ध भारतरत्न फैयाजखान के भानेज श्री गुलाम रसूल आपके संगीत-गुरु थे। आपका कण्ठ बहुत ही मधुर था और गाने की पद्धति भी बहुत अच्छी थी, अतः आपने संगीतगुरु का अपूर्व प्रेम सम्पादित किया था। जैनधर्म में पूजात्रों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इन पूजामों में 'सित्तर,भेदी पूजा' उसके विभिन्न 35 राग-रागिनियों के ज्ञान के साथ आपने कण्ठस्थ कर ली तथा प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समस्त पूजाओं की गानपद्धति भी सुन्दर राग-रागिनी तथा देशी-पद्धतियों में सीख ली और Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [76 साथ ही साथ गाने की उत्तम प्रक्रिया भी सम्पादित की। ___ विशेषतः नृत्य कला के प्रति भी आपका उतना ही आकर्षण था, अतः उसका ज्ञान भी प्राप्त किया और समय-समय पर विशाल सभाओं में उसके दर्शन भी कराए। इस प्रकार व्यावहारिक तथा धार्मिक शिक्षण, संगीत एवं नृत्यकला के उत्तम संयोग से आपके जीवन का निर्माण उत्तम रूप से हुआ और आप उज्ज्वल भविष्य की झाँकी प्रस्तुत करने लगे। परन्तु इसी बीच ज्ञानी सद्गुरु का योग प्राप्त हो जाने से आपके अन्तर में संयमचारित्र्य की भावना जगी और आपके जीवन का प्रवाह बदल गया, इस में भी प्रकृति का कोई गूढ़ संकेत तो होगा ही ? भागवती दीक्षा और शास्त्राभ्यास .. वि. सं. 1987 की अक्षय तृतीया के मङ्गल दिन कदम्बगिरि की पवित्र छाया में परमपूज्य आचार्य श्री विजय मोहन सूरीश्वर जी के प्रशिष्य श्री धर्मविजयजी महाराज (वर्तमान प्राचार्य श्री विजय धर्म सूरीश्वर जी महाराज) ने आपको भागवती दीक्षा देकर मुनि श्री यशोविजयजी के नाम से अपने शिष्य के रूप में घोषित किया। इस प्रकार केवल 16 वर्ष की अवस्था में आपने संसार के सभी प्रलोभनों का परित्याग करके साधयवस्था-श्रमण जीवन को स्वीकार किया / तदनन्तर पूज्य गुरुदेव की छाया में रहकर आप शास्त्राभ्यास करने लगे, जिसमें प्रकरणग्रन्थ कर्मग्रन्थ, काव्य, कोष, व्याकरण तथा अागमादि ग्रन्थों का उत्तम पद्धति से अध्ययन किया और अपनी विरल प्रतिभा के कारण थोड़े समय में ही जैनधर्म के एक उच्चकोटि के विद्वान् के रूप में स्थान प्राप्त किया। बहुमुखी व्यक्तित्व आपकी सर्जन-शक्ति साहित्य को प्रदीप्त करने लगी और कुछ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] वर्षों में तो ओपने इस क्षेत्र में चिरस्मरणीय रहे ऐसे मंगल चिह्न अङ्कित कर दिए जिसका संक्षिप्त परिचय इस स्तोत्रवली के अन्त में दिया गया है। आप जैन साहित्य के अतिरिक्त शिल्प, ज्योतिष, स्थापत्य, इतिहास तथा मन्त्रशास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता हैं, अतः आपकी विद्वत्ता सर्वतोमुखी बन गई है तथा अनेक जैन-जैनेतर विद्वान्, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रथम श्रेणी के राजकीय अधिकारी और नेतृवर्ग को आकृष्ट किया है। आप अच्छे लेखक, प्रिय वक्ता एवं उत्तम अवधानकार भी हैं। " उदात्त कार्य-कलाप जीवन के विविध क्षेत्रों में विकास-प्राप्त व्यक्तियों के विस्तृत परिचय के कारण आप की ज्ञानधारा अधिक विशद बनी है, आपके विचारों में पर्याप्त उदात्तता आई है तथा आप धर्म के साथ ही समाज और राष्ट्र-कल्याण की दृष्टि को भी सम्मुख रखते रहे हैं। धार्मिक अनुष्ठानादि में भी आपकी प्रतिभा झलकती रही है तथा उसके फलस्वरूप उपधान-उद्यापन, उत्सव-महोत्सव आदि में जनता की अभिरुचि बढ़े ऐसे अनेक नवीन अभिगम आपने दिए हैं। जैनजनेतर हजारों स्त्री-पुरुष आपसे प्रेरणा प्राप्त करके आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त कर रहे हैं। ___ अष्टग्रहयुति के समय 'विश्वशान्ति जैन आराधना सत्र' की योजना आपके मन में स्फुरित हुई और पूज्य गुरुदेवों की सम्मति मिलने पर बम्बई महानगरी में उसका दस दिन तक अभूतपूर्व आयोजन हुआ। उस समय निकाले गए चलसमारोह में प्रायः एक लाख मनुष्यों ने भाग लिया था। इसके पश्चात् राष्ट्र के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 81 यापकी ही प्रेरणा से 'राष्ट्रीय जैन सहकार समिति' की रचना की गई और उस समय के गृहमन्त्री श्रीगुलजारी नन्दा को बुलाकर उसके माध्यम से 17 लाख का सुवर्ण गोल्डबॉण्ड के रूप में अर्पित किया गया। अनन्य साहित्यस्रष्टा तथा कला प्रेमी मनिजी की विशिष्ट प्रतिभा से साहित्य और कला के क्षेत्र में उपयोगी संस्थाओं की स्थापना हई है। अनेक प्रकार के समारोह तथा भव्य प्रदर्शनों की योजनाएं होती रहती हैं। आपके मार्गदर्शन में ही 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' तथा 'जैन संस्कृति कलाकेन्द्र' उत्तम सेवाकार्य कर रहे है और इसके अन्तर्गत 'चित्र-कला निदर्शन' नामक संस्था भी प्रगति के पथ पर पदार्पण कर रही है। आपकी साहित्य तथा कला के क्षेत्र में की गई सेवा को लक्ष्य में रखकर जैन समाज ने आपको 'साहित्य-कलारत्न' की सम्मानित पदवी से विभूषित किया है। __भगवान् श्रीमहावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के निमित्त राष्ट्रीय समिति की जो रचना की गई है, उसमें आपकी विशिष्ट योग्यता को ध्यान में रखकर आपको 'अतिथि-विशेष' के रूप में लिया गया है और यह समिति आपकी * साहित्य-प्रतिभा, कल्पना-दृष्टि, शास्त्रीय ज्ञान एवं गम्भीर सूझ-बूझ का यथासमय लाभ ले रही है। लोककल्याण की कामना पूज्यश्रो साहित्य के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट योगदान करने की भावना तो रखते ही हैं, साथ ही मुख्य रूप से वर्तमान पीढ़ी के लाभ के लिए तथा जैन संघ के गौरव की अभिवृद्धि के लिए जैनसंघ का सर्वांगीण सहयोग प्राप्त होता रहा तो चित्रकला और शिल्पकला के क्षेत्र में अनेक अभिनव सर्जन करने तथा कुछ-न-कुछ नई देन देने की भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] भावना रखते हैं / जैनसमाज, जैनसंस्कृति और जैनसाहित्य का विदेश में भी गौरव बढ़े, जैनधर्म का प्रचार एवं पर्याप्त विस्तार हो और आनेवाली पीढ़ी जैनधर्म में रस लेती रहे, इसके लिए आप सतत चिन्तनशील हैं और तदनुकूल नये-नये मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं। __ पू० मुनिजी के इस सर्वतोमुखी विकास में आपके दादागुरु प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजय प्रतापसूरीश्वर जी महाराज तथा आपके गुरुवर्य प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजय धर्मसूरीश्वर जी महाराज की कृपादृष्टि ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण भाग लिया है / आज भी इन दोनों गुरुवर्यों की आप पर असीम कृपा है और वह आपको भविष्य में केवल भारतवर्ष के ही नहीं, अपितु विश्व के एक आदर्श साहित्य-कलाप्रेमी साधु के रूप में महनीय स्थान प्राप्त कराएगी, ऐसी पूर्ण प्राशा है / ऐसे अनुपम विद्वान्, साहित्य-कला-रत्न मुनिवर्य श्रीयशोविजय जी महाराज ने 'स्तोत्रावली' का अनुवाद, सम्पादन एवं उपोद्धातलेखन का कार्य देकर मुझे अपने विचारों को प्रस्तुत करने का जो अवसर दिया है उसके लिए मैं पूर्ण आभारी हूँ। ___ इस कार्य में जो अच्छाइयाँ हैं वे मुनिराजजी की हैं तथा जो त्रुटियाँ हैं वे मेरी अल्पज्ञता अथवा जैन शास्त्रीय अज्ञानता से हुई होंगी। अतः सुधी पाठक गण उन्हें सुधार कर पढ़ें और यथावसर हमें सूचित करने की कृपा करें जिससे भविष्य में सुधार किया जा सके। ___ एक बार पुनः मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज एवं 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' के अधिकारियों के सौजन्य और सौहार्द की सराहना करते हुए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ तथा इस ग्रन्थ के सर्वत्र सादर की कामना करता हूँ / अलं पल्लवितेन / 15 अगस्त 1975 विद्वद्वशंवद नई दिल्ली-२१ डॉ. रुद्रदेवत्रिपाठी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्रावली Page #93 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-विशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीमद्-'यशोविजय'गरिण-विरचिता हिन्दी भाषानुवादभूषिता स्तोत्रावली ... [1] श्रीपुण्डरीक-शत्रुञ्जयगिरिराजविराजमान श्रीआदिजिनस्तोत्रम् / श्रीपुण्डरीक शत्रुञ्जयगिरिराजमण्डन श्रीअादिजिनस्तोत्र . (गीति-छन्द) प्रादिजिनं वन्दे गुण-सदनं, सदनन्तामलबोधं रे / बोधकलागुण-विस्तृतकोति, कीर्तितपथमविरोधं रे / प्रादि० // 1 // गुणों के आगार, सत्, अनन्त तथा निर्मल ज्ञान से युक्त, ज्ञान-प्रद गुणों से विस्तृत कीर्तिवाले और जिसका मार्ग सभी के द्वारा प्रशंसित Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] है ऐसे वीतराग भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 1 // रोधरहितविस्फुग्दुपयोग, योगं दधतमभङ्गरे / भङ्गनयव्रजपेशलवाचं, वाचंयमसुख-सङ्ग रे॥ आदि० // 2 // अप्रतिहत-स्वतन्त्र उपयोगों से विभासित, अभङ्गयोग के धारक, भङ्ग (विकल्प-विशेष) और नैगमादि नयों से सुन्दर वचनवाले तथा श्रमणों के सुख के लिये सङ्गमरूप भंगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 2 // सङ्गतपदशुचिवचनतरङ्ग, रङ्ग जगति ददान रे। दानसुरद्रुममञ्जुलहृदयं, हृदयङ्गमगुणभान रे // प्रादि०॥ 3 // संसार में सर्वोपयोगी आगम पदों से युक्त, निर्मल वचनों की तरङ्गों से हर्ष का वितरण करनेवाले, दान में कल्पवृक्ष के समान तथा मनोहर हृदयवाले और सुन्दर गुण से विभूषित भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ // 3 // भानन्दित-सुरवरपुन्नागं, नागरमानसहंसं रे। हंसगति पञ्चमगतिवासं, वासविहिताशंसं रे // आदि० // 4 // अपनी कान्ति से देवश्रेष्ठ और पुरुषश्रेष्ठ को आनन्दित करनेवाले, सज्जनों के अन्तःकरणरूप मानस सरोवर में हंस के समान, हंस के समान गतिवाले, पञ्चमगति (मोक्ष) में निवास करनेवाले तथा इन्द्र के द्वारा प्रशंसित ऐसे भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ॥४॥ शंसन्तं नयवचनमनवम, नवमङ्गलदातारं रे। तारस्वरमघघनपवमानं, मानसुभटजेतारं रे // प्रादि० // 5 // Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3] अनवद्य नय-वचनों को कहनेवाले, नवीन-नवीन मङ्गल के दाता, उच्चस्वरवाले, पापरूपी बादलों को हटाने में वायु के समान तथा मान-अहङ्काररूपी योद्धा को जीतनेवाले भगवान् आदि जिनेश्वर को मैं वन्दन करता हूँ॥ 5 // . (वसन्त-तिलका-छन्द) इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदाच्छ्रीमद"यशोविजयवाचक"पुङ्गवेन // श्रीपुण्डरीकगिरिराज-विराजमानो, मानोन्मुखानि' वितनोतु सतां सुखानि // 6 // इस प्रकार वाचक श्रेष्ठ श्रीमद् यशोविजयजी' द्वारा प्रानन्द-पूर्वक स्तृति किये गये, पुण्डरीक गिरिराज पर विराजमान भगवान् आदि जिनेश्वर सज्जनों को सम्मान-पूर्वक उन्नति एवं सुख प्रदान करे॥६॥ 1. मानोन्नतानि' इति पाठान्तरम् / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] . शमीनाभिध- .. श्रीपार्श्वजिनस्तोत्रम् / शमीनाभिध श्रीपार्श्वजिन स्तोत्र (अनुष्टुप् छन्द) ... ... ... ... // 1 // [इस लघु स्तोत्र का पहला पद्य प्राप्त नहीं हुआ है / ] .. ... ... .... // 1 // कल्पद्रुमोऽद्य फलितो लेभे चिन्तामरिणर्मया। प्राप्तः कामघटः सद्यो यज्जातं मम दर्शनम् // 2 // हे देव ! आज कल्पवृक्ष फलवान् बन गया है, मैंने चिन्तामणि प्राप्त कर लिया है और तत्काल ही कामघट भी मिल गया है। क्योंकि मुझे आपके दर्शन हो गये हैं // 2 // 1. अस्य लघुस्तोत्रस्याचं पद्यमप्राप्तमस्ति / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीयते सकलं पापं दर्शनेन जिनेश ! ते। तृण्या प्रलीयते कि न ज्वलितेन हविर्भुजा ? // 3 // हे जिनेश्वर ! आपके दर्शन [मात्र से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि जब आग जल उठती है, तो उससे तिनकों का समूह जल कर भस्म नहीं हो जाता क्या ? // 3 // मूत्तिः स्फूतिमती भाति प्रत्यक्षा तव कामधुक् / सम्पूरयन्ती भविनां सर्वं चेतःसमीहितम् // 4 // हे देव ! भव्यजीवों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करती हुई, तेजोमय तथा प्रत्यक्ष कामधेनुरूप आपकी मूर्ति शोभायमान हो रही है। (जिसका कि मैं दर्शन कर रहा हूँ) // 4 // लोचने लोचने ते हि ये त्वन्मूर्तिविलोकिनी। यद् ध्यायति त्वां सततं मानसं मानसं च तत् // 5 // हे देव ! वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं जो कि आपकी प्रतिमा के दर्शन करने में तल्लीन हैं। तथा वही हृदय वास्तव में हृदय है जो निरन्तर आपका चिन्तन करता रहता है // 5 // सती वाणी च सा वाणी या त्वन्नुतिविधायिनी। येन प्रणम्रो त्वसादौ मोलिमौलिः स एव हि // 6 // .. हे देव ! वही वाणी उत्तम वाणी है कि जो आपकी स्तुति करनेवाली है। तथा वही मस्तक उत्तम मस्तक है, जिसने आपके चरणों में प्रणाम किया है / / 6 // मुखस्फूति तवोद्वीक्ष्य ज्योस्नामिव विसृत्वरीम् / / मुखानि कैरवाणीव हसन्ति नियतं सताम् // 7 // Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे देव ! चांदनी की तरह व्यापक आपके मुख की कान्ति को देख कर जिस प्रकार चन्द्र-किरणों के द्वारा कुमुद विकसित हो जाते हैं उसी प्रकार निश्चय ही सज्जनों के मुख प्रसन्न हो जाते हैं / / 7 // घटी पटीयसी सैव तद् गलवृजिनं दिनम् / समयोऽसौ रसमयो यत्र त्वदर्शनं भवेत् // 8 // हे देव ! वही घड़ी उत्तम घड़ी है, वह दिन पापनाशक दिन है तथा वह समय रसमय-आनन्दप्रद है कि जिसमें आपके दर्शन हो // 8 // श्रीशमीनाभिधः पार्श्वः पार्श्वयक्षनिषेवितः / इति स्तुतो वितनुतां 'यशोविजय'सम्पदम् / / 6 // इस प्रकार (मेरे द्वारा) स्तुति किये गये, पार्श्वयक्ष से सेवित, 'श्रीशमीन'' नामक पार्श्वजिनेश्वर यश, विजय और सम्पत्ति को प्रदान करे // 6 // __ (प्रस्तुत पद्य में स्तुतिकर्ता महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने प्रासंगिक अपना नाम भी 'मुद्रालङ्कार' के रूप में संयुक्त कर दिया उपर्युक्त स्तोत्र भगवत्-प्रतिमा के दर्शन की महत्ता को अभिव्यक्त करता है / तथा इस स्तोत्र का प्रथम पद्य प्राप्त नहीं हुआ है।) 1. यहाँ 'शमीन' शब्द एक ओर तो इस नामवाले गांव का सूचन करता है तथा दूसरी ओर शमी-शान्त चित्तवाले तपस्वी जनों के इन = स्वामी का सूचन करता है जो यथार्थ है। ---सम्पादक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] श्रीपा/जनस्तोत्रम्' श्रीपार्वजिन-स्तोत्र (स्वागता-छन्द) ऐन्द्रमौलिमरिणदीधितिमाला- पाटले जिनपदे प्ररिणपत्य / संस्तवीमि दुरितद्रुमपाश्र्वं भक्तिभासुरमना जिनपार्श्वम् // 1 // इन्द्र के मुकुट में जटित मणियों की किरणों से (प्रणाम करते समय) कुछ लाल वर्णवाले श्रीजिनेश्वर देव के चरणों में प्रणाम करके, उनकी भक्ति से उज्ज्वल मनवाला मैं-'यशोविजय' पापरूपी वृक्ष को काटने में कुठाररूप श्रीपार्वजिनेश्वर की स्तुति करता हूँ // 1 // अस्य सम्प्रति जनस्य रसज्ञा, त्वद्गुणौघगणनास्पृहयालुः / उद्यतं तुलयति स्थितमुर्त्यां, स्वर्गशाखिकुसुमावचयाय // 2 // हे देव ! इस समय इस स्तुतिकर्ता की जिह्वा जो कि आपके गुणसमूहों की गणना के लिये लालायित हो रही है, वह- पृथ्वी पर रहते हुए स्वर्ग में स्थित कल्पवृक्षादि के पुष्पों को चुनने का प्रयास करनेवाले 1. इदं स्तोत्र पूज्यरूपाध्यायैर्वाराणस्यां रचितम् / अत्रैवारम्भे "ऐ नमः॥ सकलवाचकशिरोवतंसमहोपाध्याय * श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगरिणगुरुभ्यो नमः // " इति मूल प्रतावधिकः पाठः / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] व्यक्ति की तुला-समानता को प्राप्त हो रही है। अर्थात् जिस प्रकार पृथ्वी पर रहने वाला स्वर्गस्थ वृक्षों के पुष्प नहीं प्राप्त कर सकता वंसे ही मेरी जिह्वा भी आपके गुणों की गणना में असमर्थ है // 2 // विश्वविश्वविभुतां निमृतं (तां) यः, शङ्कते परसुरेषु तवेव / तस्य हन्त ! खलता ख-लतायां, पद्मसौरभमिवानुमिनोति // 3 // हे देव ! जो व्यक्ति आपके समान ही अन्य देवताओं में समस्त विश्व के स्वामित्व की ऐकान्तिक 'शङ्का करता है, उसकी खलतादुर्जनता निश्चय ही आकाश-लता में कमल की सुगन्धि का अनुमान करती है। अर्थात् जिस प्रकार आकाश-लता में कमल की उत्पत्ति और उसकी सुगन्धि की कल्पना उपहास मात्र है उसी प्रकार अन्य देवताओं में आपके समान विश्वस्वामित्व की कल्पना भी उपहास मात्र है / / 3 // - यः परं परमदेव ! विमूढस्त्वत्समानमनुमित्सति तर्कः। भास्करत्वमनुमाय पतङ्ग, सूरमेव न करोति कुतोऽसौ // 4 // हे परमदेव ! जो विमूढ तर्क द्वारा किसी अन्य देव को आपके समान मानने का अनुमान करना चाहता है, वह सूर्य का अनुमान करके पतंगे को ही सूर्य क्यों नहीं बना देता है ? अर्थात् जैसे पतंगा सूर्य नहीं बन सकता वैसे ही अन्य देव भी आपकी समानता नहीं कर सकते / / 4 // देवदेव ! वचनं यदवोचः, सप्तभङ्गमपि निर्गतभङ्गम् / तन्यते ननु मनः श्रमरणानामस्तमोहमपि तेन समोहम् // 5 // है देवदेव ! आपने जो सप्तभङ्ग-सात खण्डों से युक्त होते हुए भी अभङ्ग-निर्भीक, पराजय-रहित और परिपूर्ण वचन कहा है, उससे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6 मोह-रहित श्रमरम समुदाय का मन भी निश्चय ही मोहयुक्त बनाया जा रहा है / / 5 // न्यक्कृतः शुभवता भवता यच्चित्तभूस्त्रिजगतामपकारी। तज्जिनोत्तम ! तमोदलन ! त्वच्छाययैव तनुमेष बित्ति // 6 // हे जिनोत्तम, हे अज्ञाननाशक ! कल्याणकारी आपने तीनों लोक का अहित करनेवाले कामदेव का जो तिरस्कार कर दिया है, उसी कारण वह आपकी छायामात्र से अपने शरीर को धारण किये हुए है अर्थात् कामदेव आपसे तिरस्कृत होकर लज्जावश अपने शरीर का परित्याग करके 'पाप नहीं तो आपकी छांया' से ही अपना शरीरश्यामवर्णवाला धारण कर रहा है / / 6 / / अप्सरोभिरपि नाद्रितकं यद्यच्च न स्मरशिलीमुखभेद्यम् / वज्रतुल्यमपि तत्कथमन्तर्भक्तिभृत्सु तव मार्दवमेति // 7 // हे देव ! जो अप्सरात्रों के (भाव-विलासादि) द्वारा द्रवित नहीं हुप्रा और जो कामदेव के बाणों से भी नहीं बिंधा गया ऐसा आपका वज्रतुल्य हृदय भी भक्तजनों के प्रति कोमल कैसे बन जाता है ? (यह आपका स्वामि-वात्सल्य ही है / ) / / 7 // स्वं विशुद्धमुपयुज्य यदाप्यं, श्राम्यसीह न परं परिणम्य / सर्वगोऽपि नहि गच्छसि सर्व, तद्विभासि भुवने त्वमिव त्वम् // 8 // हे देव ! इस संसार में प्राप्त करने योग्य निर्मल आत्मा को पाकर तथा उस विशुद्धि का भोग करके पुनः वही विशुद्धि दूसरे में परिणत करके भी आप नहीं थकते हैं और सर्वगत होकर भी सर्वत्र नहीं जाते हैं अथवा सर्व-शिव के पास नहीं जाते हैं इसलिये विश्व में आप अपने समान ही शोभित होते हैं / अर्थात् ऐसा कोई आपके समान न होने से Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] आप अप्रतिम हैं यहाँ 'अनन्वयालङ्कार' है // 8 // रोहिताविहितसख्यमरीचि-त्वन्नखानविधृतप्रतिबिम्बः / मज्जति प्रणमतां भवताप-व्यापदानुपशमाय नु कायः // 6 // हे देव ! जो मनुष्य इन्द्र-धनुष से स्पर्धा करनेवाले आपके नखानभाग में (प्रणाम करने के माध्यम से) अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को मज्जित कर देता है वह भवत सन्तापरूप विपत्तियों को शान्त करने के लिये मानो (किसी अमृत-सरोवर में ही) स्नान करता है। अर्थात् प्रणाम करते समय अपने शरीर का प्रतिबिम्ब भगवान् के चरणों के नखाग्रभाग में पड़ने से उस व्यक्ति का भवंताप शान्त हो जाता है अथवा उसका भवताप भगवान् मिटा देते हैं // 4 // वेद यो विमलबोधमयं त्वां, शुद्धनिश्चयनयेन विपश्चित् / स स्वमेव विमलं लभमानो, द्वेष्टि रज्यति न वा भुवि कश्चित् // 10 // हे देव ! जिस विद्वान् ने शुद्ध निश्चयनय के द्वारा निर्मल बोधस्वरूप आपको जान लिया वह स्वयं को ही निर्मल बनाता हुआ संसार में न किसी से द्वेष करता है और न किसी से अनुराग // 10 // ईहते शिवसुखं व्रतखिन्नस्त्वामनाहतवता मनसा यः / विश्वनाथ ! स मरुस्थलसेवा-योग्यतामिह बित्ति पिपासुः // 11 // हे जगन्नाथ ! इस ससार में जो व्यक्ति आपके प्रति अनादरभाव रखते हुए अन्य विभिन्न व्रतों के कारण खिन्न होता हुआ मोक्षसुख को चाहता है, वह प्यासा होकर भी (किसी आप जैसे सरोवर का अनादर करके) मरु-स्थल से जल प्राप्ति की अपेक्षा करता है। अर्थात् आपके प्रति अनादर-भाव रखकर किये जानेवाले तप-त्यागरूपी व्रत कभी फलदायक नहीं होते हैं / / 11 // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 प्राश्रितः कमलया जिननाथ ! त्वं विभासि नरकान्तक एव / युज्यतामिति तवामृतधाम-प्रासलालसतमो विनिघातः // 12 // हे जिनेश्वरदेव ! आप लक्ष्मी-शोभा के द्वारा सेवित होने के कारण नरकासुर के विनाशक अथवा नरक-पाप का अन्त करनेवाले विष्णु के समान शोभित हो रहे हो। इसलिये अमृतधाम-चन्द्रमा अथवा मोक्षधाम को निगलने की लालसावाले तमस्-राहु अथवा पाप का नाश करना आपके द्वारा उचित ही है / अर्थात् जिस प्रकार लक्ष्मी से सेवित नरकान्तक विष्णु ने अमृतधाम चन्द्रमा को निगलने की इच्छा वाले राहु का सिर काट दिया था उसी प्रकार मोक्षलक्ष्मी से सेवित पाप-प्रज्ञान का नाश करनेवाले आपके द्वारा मोक्षधाम को निगलने वाले पाप-प्रज्ञान का विनाश करना उचित ही है / / 12 / / त्वां श्रितं जिन !. विदन्ति दिनोद्यन्मानबारविमलं सुरसाथैः / उद्भटं सुरुचिभिर्वचनौटुर्मानवार विमलं सुरसाथैः // 13 // हे उदीयमान अहङ्कार के निवारक जिनेश्वर ! लोग आपको देवसमूह से सेवित, निर्मल, सुन्दर रसयुक्त तथा सुरुचिपूर्ण वचनों से सर्वज्ञरूप सूर्य ही जानते हैं-समझते हैं। अर्थात् जिस प्रकार सूर्य अन्धकार का निवारण करता है. वैसे ही आप अहङ्कार का निवारण करते हैं, जैसे वह ग्रहगणों से सेवित है वैसे ही आप देवसमूह से सेवित हैं, जैसे सूर्य उत्तम और मधुर किरणों से सर्वज्ञ है वैसे ही आप भी उत्तम रसपूर्ण तथा सुरुचिपूर्ण वचनों से सर्वज्ञ हैं अतः मनुष्य आपको सूर्य ही समझते हैं / / 13 / / . पाकलय्य तव वार्षिकदानं, याचकार्थनिजभेदविशङ्की। निह नुते किमिह किन्नरगीतस्त्वद्यशोभिरमरादिरपि स्वम् // 14 / / हे देव ! आपके वार्षिक दान-वरसीदान को देखकर 'कहीं ऐसा न Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] हो कि भगवान् मुझे भी खण्ड-खण्ड करके दान में दे दें' इस प्रकार की शङ्का करता हुआ सुमेरु पर्वत किन्नरों के द्वारा गाये जानेवाले आपके यश की आड़ में अपने को छिपा रहा है क्या ? // 14 // वर्षणैर्मुशलधारघनानां, पङ्कलेशमपि या न बभार। सा क्षमैव तव कापि नवीना, यच्चलेऽपि कमठे न चकम्पे // 15 / / हे देव ! मेघों की मूसलधार 'बृष्टि के कारण जो क्षमा-पृथिवी कीचड़ के तनिक अंश को भी धारण नहीं कर सकी (अर्थात् पानी की अतिवृष्टि से वह कीचड़ बह गया) वहीं आपकी क्षमा-शान्ति कमठासुर के उपद्रव से तनिक भी विचलित नहीं हुई यह एक नवीन ही घटना है। अर्थात् शास्त्रों में पृथ्वी का दूसरा नाम जो 'क्षमा' कहा गया है उससे आपकी 'क्षमा-' भावना कुछ विचित्र ही है क्योंकि उस क्षमा पर जब मूसलधार वृष्टि होती है तो वह उस कीचड़ का सामान्य अंश भी धारण नहीं कर पाती जबकि आपकी क्षमा कमठासुर के द्वारा किये गये अनेक उपद्रव-परीषहों को सहन कर लेती है इसी प्रकार वह क्षमा-पृथिवी जिस कमठ-कच्छप की पीठ पर स्थित है उसके तनिक चञ्चल होने पर ही काँप उठती है जबकि आपकी क्षमा-भावना उस कमठ दैत्य के भीषण उपद्रवों में भी विचलित नहीं होती // 15 // अम्बरत्रिपथगाशतपत्रं, लाञ्छन-भ्रमरशोभि विभाति / तीर्थनाथ ! तव कीर्तिमराली-भुक्तशिष्टमिह मण्डलमिन्दोः // 16 // हे तीर्थेश ! इस संसार में यह जो चन्द्रमा का बिम्ब शोभित हो रहा है वह (वस्तुतः चन्द्रमा न होकर) आपकी कीर्तिरूपी हंसी के खाने से बचा हुआ तथा भंवरा जिसमें बैठा हुआ है ऐसे लाञ्छन से युक्त आकाशगङ्गा का कमल शोभित हो रहा है / 16 / / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 13 त्वत्प्रतापदृढंदण्डविनुन्नं, बम्भ्रमीति गगने ग्रहचक्रम् / कुम्भमत्र जिनराज ! तदुच्चैः, प्रातरेव सृजति द्युतिमन्तम् // 17 // हे जिनेश्वर ! आपके प्रतापरूपी मजबूत डण्डे से चलाया हुआ यह ग्रहों का समूह तथा ग्रहरूपी चक्र-चाक आकाश में बार-बार घूम रहा है और वही यहाँ प्रातःकाल में कान्तिमान् महाकुम्भ-सूर्य को उत्पन्न करता है // 17 // दुर्जनस्य रसना रसनाम, द्वेषपित्तकटुरेव न वेद। नो सुधाशिरसनोचितसारान्, सद्गुणानपि तवाद्रियते या // 18 // हे देव ! दुर्जन की जिस जिह्वा ने द्वेषरूपी पित्त के कारण कटु हो जाने से रस का नाम भी नहीं जाना वही जिह्वा अमृतभोजी देवों की रसना के प्रास्वादन योग्य आपके उत्तम गुणों का आदर नहीं करती है / / 18 // जङ्गमोऽसि जगदीश ! सुरद्रुर्दानपात्रमिह तद्बहु याचे / सर्वगोऽसि परिपूरय सर्व, हृद्दरीपरिसरस्थितमिष्टम् // 16 // हे जगदीश ! आप इस जगत् में जङ्गम कल्पवृक्ष हैं और मैं दान लेने की पात्रतावाला हूँ। अतः आपसे बार-बार माँगता हूँ और आप सर्वान्तर्यामो हैं अतः मेरी हृदयरूपी गुफा के अन्तराल में स्थित सभी अभिलाषाओं को पूर्ण करो // 16 // यस्तव स्रजमवाप कृपायास्तं 'यशोविजय' मेनमवैमि। . तत्र सत्रमिव मङ्गललक्ष्म्याः , सम्पदे तदधुनापि तवाख्या // 20 // हे देव ! जिस यशोविजय ने आपकी कृपारूपी पुष्पमाला प्राप्त की है वही यह 'यशोविजय' है ऐसा मैं मानता हूँ / अतः आप मेरी रक्षा करें, मैं आपकी शरण में आया हूँ। यह आपका नामस्मरण इस लोक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] में तपःसम्पत्ति और लोकान्तर में मोक्षलक्ष्मी का प्रदाता हो // 20 // वासवोऽपि गुरुरप्यपरोऽपि, त्वद्गुणान् गणयितुं कथमीष्टे / प्रस्य ते करुरणयव दिगेषा, भ्राजतां तदपि भूरिविशेषा // 21 // हे देव ! चाहे इन्द्र हो, चाहे देवगुरु बृहस्पति हो अथवा कोई और अन्य मेधाशाली हो किन्तु वह आपके गुणों की गणना में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् यद्यपि वे ऐसे महान् हैं, तथापि आपके गुणों का वर्णन उनके द्वारा भी नहीं किया जा सकता, अतः मेरे द्वारा की गई यह दिङमात्र संक्षिप्त स्तुति आपकी कृपा से ही विशिष्टताओं सेपरिपूर्ण होकर शोभित हो (ऐसी मेरी कामना है)' // 21 // 1. पूज्य उपाध्यायजी ने इस स्तोत्र की रचना वाराणसी में की थी। रचना की दृष्टि यह स्तोत्र एक अत्युत्तम साहित्यिक एवं दार्शनिक कृति है। इसमें प्रायः सभी पद्यों में यमक, रूपक और अपह्न ति अलङ्कारों का तथा जैनन्याय के परिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है अतः भाव एवं भाषा दोनों की मनोरमता से स्वर्ण-सौरभ-संयोग-- समन्वित यह स्तोत्र सहृदयों द्वारा सर्वथा श्लाघनीय है। -सम्पादक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4 // श्रीशर्खेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्रम् श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तोत्र (उपजाति छन्द) ऐ काररूपां प्रणिपत्य वाचं, वाचंयमवातकृतांह्रिसेवम् / जनुःपुपूर्पर्दुरितं जिहासुः, शङ्ख श्वरं पार्श्वजिनं स्तवीमि // 1 // अपने जन्म की पूर्ति एवं पाप-निवृत्ति की इच्छावाला मैं (यशोविजय उपाध्याय) एंकाररूपिणी सरस्वती देवी को प्रणाम करके श्रमणसमूह द्वारा सेवित श्री शङ्केश्वर पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति करता हूँ / / 1 / / अध्येकमीशं जगतां भवन्तं, विहाय ये नाम परं भजन्ते / कुपक्षिरणस्ते ननु पारिजात-स्रजं भजन्ते न करीरसक्ताः॥२॥ हे देव ! संसार के एकमात्र स्वामी आपको छोड़कर जो लोग अन्य देवताओं की सेवा करते हैं, वे निश्चय ही करीर वृक्ष के प्रति आसक्त बने हुए कुत्सित पक्षी के समान-(अनुत्तम पक्ष का आग्रह रखने के कारण) सर्वेप्सितदाता-पारिजात वृक्षों की श्रेणी का आश्रय नहीं लेते हैं // 2 // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहार्यदेवान् भजतां सरागाँस्त्वद्वेषिरणां चेतसि या मुमुक्षा। अज्ञानभाजां किल सा जनानां, तृप्याथनां शलशिलाबुभुक्षा // 3 // हे देव ! रागयुक्त कृत्रिम देवताओं के प्रति आसक्ति रखनेवाले आपके विरोधियों की जो मुक्ति कामना है, वह तृप्ति की इच्छावाले अज्ञानी जनों की पर्वतशिला को खाने की इच्छा के समान है / / 3 // परेषु देवत्वमुपेत्य देव !, मूढा विमूढेषु हिताथिनो ये। प्रारोपितादित्यगुरणेन तेषां, खद्योतपोतेन कृतार्थताऽस्तु // 4 // .. हे देव ! जो अविवेकी मोहयुक्त अन्य देवों में देव के गुण-धर्म को मानकर अपना हित चाहते हैं उनकी सूर्य के गुणों से आरोपित जुगनू के शिशु के समान कृतार्थता हो, अर्थात् वे सूर्य को छोड़ कर जुगनू को सूर्य मानते हैं // 4 // त्वदर्शनाय स्वहिताथिनोऽपि, द्रुह्यन्ति ये नाम जिनेश ! मूढाः / -मोहेन पीयूषमपि त्यजद्भिः, पिपासुभिस्ते सह तोलनोयाः // 5 // हे जिनेश्वर ! जो अज्ञानी अपने हित की इच्छा रखते हुए भी आपके दर्शन के लिए द्वेष करते हैं- (आपके स्याद्वाद दर्शन का विरोध करते हैं) वे अज्ञानवश अमृत का त्याग करनेवाले प्यासे व्यक्तियों की समानता में गिने जाने चाहिए // 5 // त्वत्सेविनां दैशिकशासने भ्यो, ये नाम वाचं न विशेषयन्ति / जागर्तु तेषां भृशमन्धकार-प्रकाशयोरप्यविशेष-बुद्धिः // 6 // हे देव! दैशिकशासनों से आपके सेवकों की वाणी का जो लोग आदर नहीं करते हैं, उन लोगों की अन्धकार और प्रकाश में भी समानबुद्धि निरन्तर जागती रहे // 6 // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17 दुन्न तयः शान्तरसं सवन्ती, ये सप्तभङ्गों तव नाद्रियन्ते / पिपासवस्ते पतिताः कृशानौ, हता हता एव हहा हताशाः // 7 // हे देव ! जो दुर्नीतिवाले हठवादी व्यक्ति शान्त-रस को टपकाती हुई आपकी सप्तभङ्गी-(नय) का आदर नहीं करते हैं, वे वस्तुतः बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि जल को पीने की इच्छा रखते हए भी प्राग में गिरे हुए हैं, वे हतभागे हैं और मरे हुए ही हैं // 7 // विधि निषेधं च दिशन् जनेभ्यो, जगज्जगन्नाथ ! पितेव पासि / चित्रं तथापि स्वपितामहादीन्, त्वां निह नुवन्तोऽपि न निह नुवन्ति // 8 // हे जगत् के स्वामी ! लोगों को विधि और निषेध (कर्तव्य, अकर्तव्य वस्तु का उपदेश) को बतलाते हए आप पिता की तरह रक्षा करते हो, तथापि आश्चर्य है कि आपको छिपाते हुए भी वे लोग अपने पिता एवं पितामह आदि को नहीं छिपाते हैं / सारांश यह है कि परमपिता परमात्मा श्रीपार्श्वप्रभु को भूल कर जो केवल सांसारिक पितापितामह के प्रति आदर करते हैं वे मूढ हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पार्श्वप्रभु सारे जगत् के पिता हैं // 8 // वसुन्धरां नीरभरेरण सिञ्चन्, यथोषरानूषरयोः पयोमुक् / असत्सतोरन्यतरत्र नैव, तथोपदेशस्तव पक्षपातो // 6 // हे देव ! जिस प्रकार पृथिवी को जलवृष्टि से सींचता हुअा मेघ बंजर और उपजाऊ भूमि पर अनुचित अथवा उचित का पक्षपात किए बिना ही बुष्टि करता है उसी प्रकार आपका उपदेश भी दर्जन अथवा सज्जन का ध्यान रख कर किसी एक के प्रति उपेक्षा और किसी एक के प्रति आग्रह करते हुए पक्षपाती नहीं बनता अर्थात् दोनों के लिए आप समानरूप से उपदेश करते हैं / / 6 / / ... 1. पाणिनीयादिमते त्वात्मनेपदिवा भाव्यम् / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] महीसिचः पङ्ककृतः पयोदाद्धर्म दिशन् देव ! विलक्षणोऽसि। . . यथा यथा सिञ्चसि भव्यचेतस्तथा तथा कापाकरोषि // 10 // हे देव ! (यद्यपि ऊपर मेघ के साथ आपका साम्य दिखलाया गया है किन्तु विशेष विचार करने पर) आप विलक्षण प्रतीत होते हैं क्यों कि वह मेघ तो जब बरसता है तो पृथ्वी पर कीचड़ ही कीचड़ हो देता है और आप तो धर्म का उपदेश करते हए जैसे-जैसे भविक जनों के चित्त को सींचते हैं वैसे-वैसे उसके पङ्क-पाप को दूर कर देते हैं / अतः पङ्ककृत मेघ से पङ्कहत आप विलक्षण हैं // 10 // स्फुटे विनिर्णतरि देवदेव !, सन्देग्धि यस्त्वय्यपि जागरूके। निमील्य चक्षुः स घटाद्यपश्यन्, प्रदीपवृन्दैरपि किं करोतु // 11 // हे देवदेव ! जो व्यक्ति स्पष्ट, विशेषरूप से निर्णायक एवं जाग्रत्स्वभाववाले ऐसे आपमें भी सन्देह करता है वह अपने नेत्र मूंदकर घट-पटादि को नहीं देखता हुआ उत्कृष्ट दीपक समूहों से भी क्या करे? अर्थात् वह सन्देहकारी स्वयं आँखें बन्द करलेता है तब घटपटादि दिखाई नहीं देते, अब वहाँ यदि अनेक उत्तम दीपक भी जलाये जाएँ तो उनसे क्या लाभ होगा? // 11 // सोऽयं मया ध्यानपथोपनीतः, केनाऽपि रूपेण चिरन्तनेन / भवभ्रमघ्नो मम देवदेव ! प्रणम्रदेवेन्द्र ! चिराय जीयाः॥१२॥ हे देवदेव ! हे इन्द्रवन्दित ! मैंने किसी चिरन्तन रूप से आपको उपर्युक्त गुणों का स्मरण करते हुए ध्यान-मार्ग से- प्राप्त किया है, आप मेरे भवभ्रम-बार-बार जन्म लेने के चक्र का नाश करनेवाले हैं, आपकी सदा जय हो // 12 // Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16 प्रलोकलोकव्यंतिवृत्तिदक्षा, शक्तिस्त्वदीया समये स्मृता या। अस्मादृशां सा सहतामपायं, भेत्तुं क्षणाद्धेऽपि कथं विलम्बम् // 13 // हे देव ! जो आपकी शक्ति समय पर स्मरण करने पर समस्त लोकों के विशिष्ट जीवन के उपायों को बतलाने में निपुण है, वह शक्ति हम जैसे व्यक्तियों के विघ्नों-कष्टों को नष्ट करने के लिये तनिक भी विलम्ब कैसे कर सकती है ? अर्थात् आपकी शक्ति हमारे कष्टों को शीघ्र ही नष्ट कर देगी।। 13 / / प्रश्ने परेषां यदधीष्टदेश्य, त्वमेव देवो मम वक्तुमर्हः / ततोऽस्य भक्तस्य समीहितार्थ, पद्मावतीभोगिपती क्रियेताम् // 14 // हे देव ! दूसरों के प्रश्न में जो अधिक अभीष्ट उत्तर हो सकता है वह उत्तर दिव्यज्ञानवाले आप ही बता सकते हैं। अतः हे पद्मावती देवी और सहस्रफरणा श्रीपार्श्वनाथ ! इस भक्त के मनोवाञ्छित को प्राप दोनों पूर्ण करें // 14 // प्रदाः सदा नम्रसुरासुरेश ! प्रसूनमालां किल यां मनस्वी। त्वत्किङ्करस्यास्य तयैव विश्वे, प्रकाश्यतां देव ! चिरं जयश्रीः // 15 // सदा सुर और असुर के स्वामियों से नमस्कृत हे देव ! श्रेष्ठ मन वाले आपने मुझे जो पुष्पमाला दी, उसी से आपके इस सेवक की जयलक्ष्मी संसार में चिर काल तक जगमगाती रहे // 15 // कथाश्लथासत्य' पथःपरीक्षा, परीक्षकारणां हृदये निलीना / कलौ कुपक्षग्रहिलप्रतापे, त्वत्किङ्कराणां शरणं त्वमेव // 16 // . 1. सत्यसृतेः सत्यपयः वा पाठः साधुः / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] हे देव ! सत्यमार्ग की परीक्षा अब कथानों से शिथिल होकर परीक्षकों के हृदय में जा छिपी है / इसीलिये कुत्सित पक्ष के प्रति दुराग्रहवाले इस कलियुग में अपने सेवकों के शरण आप ही हैं // 16 // प्रौदास्यभागेव तुलां दधाने, खद्योतपोते द्युतिमालिनो या। कलौ गलबुद्धिपरीक्षकारणां, तां चातुरी देव ! वयं न विद्मः // 17 // हे देव ! जो बुद्धिमत्ता सूर्य की तुलना को धारण करनेवाले छोटेसे जुगनू में उदासीनता को धारण करती है, कलियुग में ऐसे नष्टबुद्धिवाले परीक्षकों की उस बुद्धिमानी को हम नहीं जानते अर्थात् इस प्रकार का विचार ही मूर्खतापूर्ण है // 17 // कवेः सभायां कुपरीक्षकारणामधिक्रियापि स्फुटधिक्रियेव / बकस्य पङ्क्तौ वसतो न किं स्याद् मरालबालस्य महोपहासः // 18 // हे देव ! कुपरीक्षकों की सभा में कवि का अधिकार (सम्बन्ध) भी स्पष्ट धिक्कार ही है, क्योंकि बगलों की पंक्ति में रहनेवाले बालहंस का भी क्या बड़ा उपहास नहीं होता ? // 18 // .. कण्ठीरवा एव कुपन्थिनागे, भवत्प्रसादाद्वयमुद्धताः स्मः। . स्याद्वादमुद्रारहिताः कुतीर्थ्याः, शृगालबाला इव नाद्रियन्ते // 16 // हे देव ! आपकी कृपा से हम कुमार्गगामी हाथी के विषय में उद्धत सिंह ही हैं, इसीलिये स्याद्वाद की मुद्रा से रहित गीदड़ों के बच्चे जैसे कुतीर्थी लोग हमारा आदर नहीं करते हैं // 16 // याचामहे देव ! तवैव भूयः, कृपाकटाक्षेण कृतार्थभावम् / जरानिहन्ता किल यादवानां, दासं दृशैनं प्रविलोकयस्व // 20 // हे देव ! हम पुनः आपके ही कृपा-कटाक्ष से कृतकृत्यता की याचना Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 करते हैं। आप यादवों की जरा-वृद्धावस्था के विनाशक हैं, मैं आपका दास हूँ, आप अपनी दृष्टि से इस दास को देखें अथवा आप इस सेवक पर कृपादृष्टि करें / / 20 / / प्रत्यक्षलक्षामिव कल्पवल्ली, तवापि मूत्ति किल यो न मेने / स्वबोधिबीजस्य जिनेश ! तेन, न्यधायि कण्ठे कठिनः कुठारः॥ 21 // हे जिनेश्वर ! जिसने प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली कल्पलता के समान आपकी मूर्ति को भी नहीं माना, उसने अपने ज्ञानरूपी वृक्ष के कण्ठ पर कठोर कुल्हाड़ा चला दिया है / / 21 // नयानविज्ञाय जिनेश ! किञ्चिदभ्यस्य येषां तव वागबुभुत्सा। द्रुतं रुताभ्यासकृतां हि तेषां, पिकस्वरेच्छा किल वायसानाम् // 22 // हे जिनेश ! नयों का ज्ञान किये बिना कुछ अभ्यास करके जो आप की वाणी को जानने की इच्छा रखते हैं, उनकी वह इच्छा कुछ समय में अभ्यास करके कोयल के स्वरों के समान मधुर स्वर के इच्छुक कौनों के समान है। अर्थात् जैसे कौया तात्कालिक कोयल के स्वरों का अभ्यास करके अपने आपको कोयल के समान मधुर स्वरवाला घोषित करने की चेष्टा करता है किन्तु वह जेसे चिरस्थायी नहीं होता वैसे ही उसका ज्ञान अस्थायी होता है / / 22 // एकत्र वस्तुन्वभिदोर्णशेषं, कुपक्षिरणां यः किल पक्षपातः / स एव तीर्थेश ! परानुयोगे, मतिच्छिदायाः परमं निदानम् // 23 // .. हे तीर्थेश ! एक पदार्थ में शेष अन्य पदार्थों को सर्वतोभावेन विदीर्ण करनेवाला कुपक्षियों का जो पक्षपात है, वही पक्षपात परानुयोग-अन्यप्रश्न में बुद्धिभेद का परम कारण है // 23 // Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] भिन्दन्ति तत्त्वानि भिदाप्रतीति, निदानमासाद्य कुवादिनो ये। .. संख्यामनासाद्य विहाय भूमि, विहायसि स्थातुममी धृताशाः // 24 // हे जिनेश्वर ! जो कुवादी लोग भेदप्रतीतिवाले कारण को लेकर तत्त्वों-वास्तविकताओं का भेदन करते हैं, वे संख्या-बुद्धि, विचार, अथवा तत्त्वज्ञता को न पाकर ऐसे लगते हैं मानो पृथ्वी को छोड़कर आकाश में रहने की आशा लगाये हों / / 24 // येऽपि प्रकामं प्रतिजानतेऽज्ञा, जगज्जनकान्तत एकमेव।.. जारं च सत्यं पितरं च तेऽपि, समानबुद्ध्यैव समाश्रयन्तु // 25 / / हे जिनेश्वर ! जो भी अविवेकी एकान्तरूप से एक ही जगत् को स्वेच्छानुसार अंगीकार करते हैं, वे जार और सच्चे पिता को भी समान बुद्धि से ही देखें, अर्थात् वास्तविक तत्त्व-ज्ञान से सून्य हैं // 25 / / अभिन्नभिन्नं तु नयैरशेषैरदीदृशः साधु तथा पदार्थम् / दोषाख्यया नाथ ! यथाश्रयन्ते, त्वद्वेषिरणो वाततयोद्विषन्तः (?) 26 / / हे नाथ ! आपने समस्त नैगमादि-नयों द्वारा अभिन्न और भिन्न पदार्थ को अच्छी तरह दिखला दिया कि जिसके कारण दोष को आप के पास रहने का स्थान नहीं मिला तब वह आपके द्वेषी लोगों के पास जाकर रहने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि वे लोग दोषनामक वातता-वातव्याधि से विशेषरूपेण दूषित होकर (सान्निपातिक रोगी की तरह) पीडित हो रहे हैं // 26 // पदार्थगान् पर्यनुयोगयोग्यान्, सप्तापि भङ्गान् विभनक्ति भाषा। तथा तवाधीश ! यथा कथायां, शङ्का-समाधानमर लभन्ते // 27 // हे स्वामिन् ! आपकी वाणी पदार्थगत प्रश्न के उत्तर देने अथवा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 समाधान करने में समर्थ सातों भङ्गों को इस प्रकार विभक्त करती है कि जिससे दूसरे लोग आपकी कथा-व्याख्यान में शङ्का का समाधान शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं // 27 // जिह्वासहस्र जिनराज ! युष्मद्गुणान्न संख्यातुमलं यदासीत् / सहस्रजिह्वोऽपि ततः स्वनाम्ना, द्विजिह्व इत्येव जनैः प्रतीतः // 28 // हे जिनेश्वर ! हजार जिह्वा होते हुए भी शेषनाग आपके गुणों की गणना में समर्थ नहीं हुअा, यही कारण है कि उसका ‘सहस्रजिह्व' ऐसा नाम होते हुए भी लोग उसे 'द्विजिह्व'-दो जीभ वाला ही मानते-कहते हैं // 28 // जङ्घालभावं कलयन्नशेषं, नभो जिनाक्रामति यः क्रमाभ्याम् / प्रशासनः सोऽस्य पदं निदध्याद्, वक्तुं विशेषं तव सर्ववाचाम् // 26 // हे जिन ? आपकी समस्त वाणी की विशिष्टता को कहने का साहस वहीं उच्छं खल व्यक्ति कर सकता है, जो कि तेजी से दौड़ता हया अपने दोनों चरणों से पूरे आकाश को आक्रान्त-उल्लंघन कर सके अर्थात् जैसे यह कार्य असम्भव है वैसे ही आपकी वाणी का वर्णन भी असम्भव है / / 26 / / / प्रणम्रदेवेन्द्रशिरःकिरीटरत्नातिद्योतितदिगविभागः / अस्मन्मनोवाञ्छितपूरणायां कल्पद्रुकल्पः कुशलाय भूयाः // 30 // प्रणाम करनेवाले देवेन्द्र के मस्तक पर रखे हुए मुकुट के रत्नों की कान्ति से दिशाओं के विशिष्ट भागों को प्रकाशित करने वाले तथा हमारी मनःकामनाओं की पूर्ति के लिए कल्पवृक्ष ऐसे भगवान् जिनेश्वर हमारे कल्याण के लिये हों // 30 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] हितार्थिना सम्प्रति सम्प्रतीतः, संस्तूयसे यच्छिवशर्मदाने। .. तेनैव तीर्थेश ! भवे भवेऽस्तु, भवत्पदाम्भोरुहभृङ्गभूयम् // 31 // हे तीर्थङ्कर ! आप मोक्षसुख देने में यहाँ चिरप्रसिद्ध हैं अतः हिताभिलाषी जन आपकी स्तुति करते हैं, और यही कारण है कि (मैं भी मोक्षसुख की प्राप्ति के लिये कामना करता हूँ कि मेरा मन) प्रत्येक जन्म में आपके चरण-कमलों के लिये भँवरा बना रहे / / 31 // . (आर्या छन्द) इत्थं श्रीशङ्केश्वर-पार्श्वनाथः प्रणतलोकहितदाता। स्तुतिपन्थानं नीतो यशोविजयसम्पदं तनुताम् // 32 // इस प्रकार प्रणति करनेवाले लोगों का हित करनेवाले श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की मैंने स्तुति की है अतः वह मुझे यश, विजय और सम्पत्ति प्रदान करे। (यहाँ यशोविजय को सम्पत्ति प्रदान करे / इस कथन से श्री उपाध्याय जी ने अपना नाम भी सूचित कर दिया है) // 32 // अध्ययनाध्यापनयुग-ग्रन्थकृतिप्रभृतिसर्वकार्येषु / श्रीशळेश्वरमण्डन !, भूया हस्तावलम्बी मे // 33 // हे शंखेश्वरमण्डन अर्थात् हे पार्श्वजिनेश्वर ! (मेरी यही प्रार्थना है कि आप) मेरे अध्ययन, अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माणादि सब कार्यों में आप सहायक बनें / / 33 // -: 0 : 1. संस्तुतिपथं हि नीतः' इति पाठन भवितव्यम् / 2. पूर्वार्धे छन्दोभङ्गदोषः स च 'नाथो नतलोक' इति पाठेन समाधेयः / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] शवेश्वरपार्श्वजिनस्तोत्रम् श्रीशंखेश्वर-पार्वजिनस्तोत्र (उपजाति छन्द) ऐंकाररूपस्मरणोपनीता, कृतार्थभावं धियमानयामि / समूलमुन्मूलयितुं रुजः स्वाः, संस्तूय शखेश्वरपार्श्वनाथम् // 1 // मैं अपने रोगों का समूल उन्मूलन करने के लिये श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की स्तुति करके ऐ कार मन्त्र के जप से उपलब्ध बुद्धि को सफल बनाता है // 1 // भवद्गुणानां गणनां विधातुं, पुरन्दरोऽपि प्रभुरेव न स्यात् / तथापि निःशङ्कतया प्रवृत्तिर्यत्तत्र हेतुनिजकार्यलोभः / / 2 // हे देव ! यद्यपि आपके गुणों की गणना (स्तुति) करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता तथापि इस कार्य में मेरी जो निःशङ्क प्रवृत्ति हो रही है, उसमें अपने कार्य का लोभ ही कारण है // 2 // यः कार्यमासाद्य महान्तमीशं, न याचते नाम निजानुरूपम्। रत्नानि वर्षत्यपि वारिवाहे, स पारिणदाने कृपणत्वमेति // 3 // Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जो व्यक्ति महान् ऐश्वर्यशाली स्वामी को पाकर अपने अनुकूल वस्तु की माँग नहीं करता है, वह मेघों के रत्न बरसाने पर भी अपना हाथ पसारने में कंजूसी करता है / / 3 // त्वयि प्रभौ पूरयति प्रकामं, मुहुर्मनःप्रार्थितमर्थमेषः। .. चिरं करालम्बनदत्तखेदां, कल्पद्रुकोटीमपि किं करोतु // 4 // हे देव ! मेरी मनोवांछित वस्तु को आपके द्वारा निरन्तर पूर्ण करने पर यह व्यक्ति अधिक समय तक हाथ में रखने से कष्ट देनेवाले ऐसे करोड़ों कल्पवृक्षों को लेकर भी क्या करे ? // 4 // वाञ्छातिगार्थप्रदमीशमेनमासाद्य लोकः पुरुषोत्तम त्वाम् / चिन्तामणौ यच्छति कञ्चिदर्थ, को रज्यते ग्राविण विशेषदर्शी // 5 // हे देव ! इच्छा से भी अधिक वस्तु को देने में प्रभु-समर्थ एवं पुरुषोत्तम ऐसे आपको पाकर कौन बुद्धिमान् मनुष्य ऐसा है कि जो कतिपय वस्तु को देनेवाली प्रस्तररूप चिन्तामणि के प्रति मोह करता है // 5 // तृणानि भुक्त्वा किल कामधेनुर्गवान्तरस्यैव दशां बिभर्तु / अस्याः पुरो न्यस्यति कः करौ स्वौ, त्वदेकनाथे भुवने मनस्वी // 6 // हे देव ! घास को खाकर कामधेनु भी दूसरी गौ के समान पशु ही है। जगत् में आपके एक स्वामी होने पर कौन ऐसा विवेकशील व्यक्ति है, जो उस कामधेनु (पशु) के आगे अपने हाथों को फैलाता है ? // 6 // कथं निषेव्यो दृषदाहतोऽपि, व्ययं वजन देव ! महत्करीरः त्वां पारिजातं सुकृतैरपूर्व, सदातनं प्राप्य सचेतनञ्च // 7 // - हे देव ! अपूर्व सनातन और सचेतन कल्पवृक्ष के समान आपको Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 27 प्राप्त कर लेने पर, पत्थरों से मार खाया हा तथा नश्वर विशाल करीर (पत्र रहित वृक्ष) के समान कुदेव किस तरह सेवन के योग्य है ? (यहाँ कल्पवृक्ष और भगवान् दोनों ही अभीष्ट को देने वाले हैं किन्तु कल्पवृक्ष जड़ है और भगवान् चेतन है, इसलिये भगवान् को अपूर्व कल्पवृक्ष कहा गया है) // 7 // अन्विष्यमाणं तु हितानुरूपं, देवेषु रूपं त्वयि पर्यवस्यत् / कुतूहलं भानुमतः सभाया, ग्रहस्य किञ्चित् कलयाम्बभूव // 8 // जिस प्रकार अन्य ग्रहों की सभा में सूर्य का रूप कुछ कुतूहलवर्धक माना गया। उसी प्रकार हे देव ! सभी देवों में किस देव का रूप हितकारी है ? इस बात की खोज करने पर आपमें ही वह रूप मिल पाया / / 8 // . कि कालकूटाशिनि शूलपारणौ, सजन्ति देवत्वधिया न मूढाः / वयं तु सद्वोधसुधां लिहन्तं, त्वामेव देवं विनिभालयामः // 6 / / हे जिनेश्वर ! क्या मूह लोग विषपान करनेवाले शिव में देवत्व बुद्धि से अनुराग नहीं करते हैं ? किन्तु हम तो सद्बोधरूपी अमृत का आस्वादन करनेवाले आपको ही देव विशेष के रूप में देखते हैं / / 6 / / इच्छावशं चेद् भुवनं भवस्य, तिष्ठेत् सदा वा निपतेत सदा वा / नेच्छावशं चेद् भुवनं भवस्य, कर्मप्रकृत्यैव तदा सदाशम् / / 10 / / यदि भव ईश्वर की इच्छा के अधीन ही संसार है अर्थात् ईश्वर ही जगत्कर्ता है तो संसार को सदा स्थिर रहना चाहिए। और यदि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है तो जगत् को सदा अस्थिर रहना चाहिए किन्तु वस्तुतः वह ऐसा नहीं है। अतः कर्मस्वभाव से ही संसार है . (यही मत) उचित है / / 10 / / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] सर्वत्र कार्ये न कृतिनिमित्तं, विलक्षणत्वेन यत्र तत्त्वम्। .. जिनेश ! किञ्चिन्निजवासनायां, न्यायं नयन्तः कुदृशः पतन्ति // 11 // __कार्य के विलक्षण होने से सभी कार्यों में कर्ता का व्यापार कारण नहीं है। इसमें जो एक तत्त्व है उसे न समझकर कुछ अपनी वासना (मिथ्याज्ञानजन्य एक संस्कार) में न्याय को ले जाते हुए कुदृष्टिवाले लोग गिर जाते हैं // 11 // इत्थं च कार्य न सकर्तृ कत्वं, शक्यं बुधैः कार्यतयाऽनुमातुम् / तकं विना यत् किल जागरूकः, शरीरजन्यत्वमुपाधिरत्र // 12 // .. और इस प्रकार कार्य में सकर्तृ कत्व का अनुमान करने के लिये -अर्थात् सभी सकर्तृक हैं 'कार्यत्वाद् घटवत्' ऐसा अनुमान करने के लिये कार्यता (कार्य के विविध लक्षण से) कोई भी पण्डित समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि "सभी कार्य कर्तृजन्य हैं' ऐसा मानने पर यहाँ तर्क के बिना ही शरीरजन्यत्व उपाधि (न्याय का एक दोष) आ खड़ी होती है // 12 // भवेद् भवे दुर्नयतो हि नित्य-प्रमेव नित्यभ्रम एव भूयान् / . मानं यतस्तस्य धियो न किञ्चित्, प्रत्यक्षतायां किल पक्षपाति // 13 // चूंकि दुर्नय से भव (ईश्वर अथवा जगत्) में नित्य-प्रमा की तरह अधिक नित्यभ्रम ही होगा, क्योंकि उस (दुर्नय) की बुद्धि) का मान (प्रमाण) कुछ भी नहीं है, वह मान प्रत्यक्षता में ही पक्षपात करने वाला अर्थात् प्रत्यक्ष को ही माननेवाला है // 13 // कार्यानुरोधेन कुदर्शनानां, कर्तव नित्यस्तनुरस्तु नित्या। जगच्छरीरैर्यदसौ शरीरी, तदीश्वरास्तहि वयं भवामः // 14 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 26 कुदर्शनों के कार्यानुरोध से "अर्थात् 'सभी कार्य सकर्तृक हैं अलः संसार का कर्ता ईश्वर है" इसके अनुरोध से (दुराग्रह से, किसी तरह मानने पर) नित्य कर्ता की तरह नित्यतनु (शरीररूप कार्य) भी होना चाहिए और यदि जगत् रूप शरीरों से वह शरीरी है, तो हम भी ईश्वर बन सकते हैं // 14 // उत्पत्तिनाशौ न यथा नितान्तं, नेयं सिगृक्षा न च सजिहीर्षा / मृषा गुरणारोपकृता किलैषा, विडम्बना केवलमीश्वरस्य // 15 // ___ कुदर्शनों ने ईश्वरकृत जगत् की उत्पत्ति और संहार को जैसा कहा है वैसी न उत्पत्ति हैं और म संहार है / ईश्वर को न संसार बनाने की इच्छा है और न संहार करने की ही इच्छा है अपितु असत्य गुणों का आरोप करनेवालों ने यह कहकर केवस्व ईश्वर का उपहास ही किया है // 15 // देवं परे श्रद्दधते यदीमे, कषायकालुष्य कलङ्कशून्यम् / तदा मदापूरिणतलोचनेयं, गौरी वरीतुं वरमोहतां कम् // 16 // ___यदि दूसरे लोग अपने देव-शिव को 'ये कषाय की कालिमा से रहित देव हैं' ऐसा मानकर उन पर श्रद्धा करते हैं तो फिर मदमाती आँखोंवाली यह पार्वती अपने वर के रूप में वरण करने के लिये किस देव की इच्छा करे ? // 16 // देवं परे श्रद्दधते यदीमे, कालीकटाक्षस्पृहरणीयशोभम् / कुतस्तदा श्रद्दधते न भानु, समुद्धतध्वान्तविलुप्तदीप्तिम् // 17 // और ये दूसरे यदि काली के कटाक्ष से स्पृहणीय शोभावाले शङ्कर को देव मानते हैं तो फिर महान् अन्धकार के विनाशक तेजस्वी सूर्य . (जिनेश्वर) को देव क्यों नहीं मानते हैं ? // 17 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] . तीर्थेश ! वाणी तव सप्तमार्गा गङ्गां त्रिमार्गामतिशेत एव / विहाय तीर्थ परमं तदेनामन्यां भजन्ते न कथं त्रपन्ते // 18 // हे तीर्थङ्कर ! सात मार्गों में जानेवाली (सप्तभंगीरूप) आपकी वाणी त्रिपथगामिनी गङ्गा का अतिक्रमण करती ही है, अतः आपकी वाणीरूप इस परमतीर्थ को छोड़कर अन्य तीर्थों का सेवन करनेवाले क्यों नहीं लजाते हैं ? // 18 // प्रभो ! परेषां त्वयि मोहभाजां, यो नाम योग्यानुपलम्भदम्भः। अर्थे समस्तेऽपि बिभर्तुं मौनं, स देशकालव्यवधानभाजि // 16 // हे जिनेश्वर ! आपके विषय में दूसरे अज्ञानियों का जो 'योग्य को प्राप्त नहीं करने का दम्भ है, वह समस्त अर्थ के रहने पर भी देशकाल में व्यवधान-रुकावट को धारण करनेवाले इस विषय में मौन धारण करे // 16 // अपह नुवन्ते नितमां भवन्तं, जाति येषां दृगयोग्यतोच्चैः। स्वनेत्रपन्थानमनाप्नुवन्तस्तेषामयोग्याः स्वपितामहाद्याः // 20 // हे जिनेश्वर ! जिन व्यक्तियों में आँखों के रहते हुए भी वस्तुतत्त्व को देखने की शक्ति नहीं हैं, वे ही आपको पूर्णरूपेण नहीं मानते हैं, किन्तु उनकी आँखों के सामने उनके पितामह-दादा आदि के न रहने से क्या वे भी अयोग्य नहीं ठहरते हैं ? // 20 // नखेषु चन्द्रेषु वितेनिरे यस्तारासमालिङ्गनकौतुकानि / त्वत्पादयोर्देव ! नमोऽस्तु तेभ्यः सुरेन्द्रचिन्तामणिचुम्बितेभ्यः // 21 // - हे जिनेश्वर ! आपके नखरूप चन्द्रमानों में ताराओं के समान आलिङ्गन कौतुक किये हैं ऐसे इन्द्र के (मुकुट में स्थित) चिन्तामणि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से चुम्बित आपके उन नखों को नमस्कार हो / / 21 // नीलां जिनाधीश ! तवैव देहच्छायां नु कामं मनुते मनस्वी / * सम्भाव्यते नाम न रूपमोहक, त्रिनेत्रनेत्रानलभस्मनस्तु // 22 // हे जिनेश्वर ! मनस्वी लोग आपके शरीर की छाया को ही कामदेव का स्वरूप मानते हैं, क्योंकि शिव की नेत्राग्नि से जलकर राख बने हुए कामदेव के ऐसे रूप की तो सम्भावना ही नहीं है // 22 // कल्पद्रुकोटीगुणलुण्टनस्य, द्वारेव सङ्क्रान्तमिति त्वदीये / सौरभ्यमङ्गऽप्सरसां भ्रमभि भिमिलिन्दैः परिचीयते च / / 23 // हे जिनेश्वर ! करोड़ों कल्पवृक्षों के गुणों (सुगन्ध) को लूटने के कारण ही आपके अंग में सुगन्धि आ गई, जो कि आपके शरीर पर भ्रमर के समान मँडराते हुए अप्सराओं के नेत्ररूपी भ्रमरों से जानी जाती है / / 23 // परस्य रोगान् हरतस्त्व(ति त्व)दीये, रोगाः शरीरे न विशन्ति युक्तम् / विषव्यथानाशकरं जनानां, किं कालकूटान्यमृतं स्पृशन्ति ? // 24 // हे जिनेश्वर ! दूसरों के रोगों को दूर करनेवाले आपके शरीर में जो रोग प्रविष्ट नहीं होते हैं वह उचित ही है, क्योंकि विष की पीड़ा को नष्ट करनेवाले अमृत का क्या कालकूट स्पर्श करते हैं ? // 24 // न शोणिमारणं रुधिरामिषौ ते, न स्वेदखेदो दधतश्च मेदः / इदं विदन्तोऽपि कुपन्थिनो ये, त्वदक्षमास्तेषु जगाम खेदः // 25 // हे जिनेश्वर ! आपके रक्त एवं मांस लाली को धारण नहीं करते .. हैं और आपकी चर्बी भी पसीने और खेद को धारण नहीं करती है Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] यह जानते हुए भी जो कुमार्गानुयायी आपको नहीं मानते हैं उनमें ही वह दोष चला गया // 25 // कल्पद्रुसौरभ्यसुखं मिलिन्दा, भनन्त्यमी श्वाससमीरणं ते। अवाप्य कि नो गुरिसनं गुणज्ञाः, प्रमोदमेदस्वलतां व्रजन्ति ? // 26 // हे देव ! ये भँवरे आपके श्वासों की वायु को कल्पवृक्ष की सुगन्धि के सुख के समान मानते हैं। यह उचित ही है। क्योंकि गुणज्ञ लोग . गुणी को पाकर अधिक हर्ष को नहीं पाते हैं क्या ? // 26 // यज्ञो यतो जन्म लभन्नितान्तमद्यापि विश्वं विशदीकरोति / तस्मिन् शरीरे रुधिरामिषौ ले, गोक्षीरधाराधवले कथं नो ? // 27 // हे जिनेश्वर ! आपके जिस शरीर से जन्म पाकर आपका यश आम भी संसार को निर्मल करता है ऐसे आपके उस शरीर में रक्त और मांस गौदुग्ध की धारा के समान उज्ज्वल क्यों न हों ? // 27 // तम्मानसे कस्य न चर्करीति, चिरं चमत्कारभरं बुधस्य / आहारनीहारविधिविरेजे दृश्या(शा)प्यदृश्या(श्यो)भवतो यदुच्चैः // 28 // हे जिनेश्वर ! चर्मचक्ष से नहीं देखने योग्य आपकी जो आहार और नीहार की क्रिया अत्यधिक शोभित हुई वह किस विवेकशाली के मन में अतिशय आश्चर्यों को उत्पन्न नहीं करती है ? // 28 // गुणरमीभिः किल अन्मतोऽपि, विश्वं विनेतर्ननु योऽतिशेषे। नृधर्ममात्रेण कथं कृशाशाः, कुवादिनस्त्वां तमपह नुवन्ति // 26 // हे स्वामिन् ! इन लोकोत्तर गुणों से तथा जन्म से भी जो आप विश्व में सर्वातिशायी हैं, ऐसे आपको कुवादी हतभाग्य-जन मनुष्यधर्म मात्र से क्यों छिपाते हैं ? अर्थात् आपको देव क्यों नहीं मानते हैं ? // 26 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 33 पुंसोऽतिशेषे पुरुषोत्तमत्वाद्देवाधिदेवः सकलांश्च देवान् / अन्यत्र कुत्राप्युपमानमुद्रा, कुवादिविज्ञानसमानशीला // 30 // हे जिनेश्वर ! आप पुरुषों में उत्तम होने से पुरुषोत्तम हो, देवाधिदेव होने से देवों में श्रेष्ठ हो, आपकी उपमा की मुद्रा कुवादियों के के विज्ञान के समान शीलवाली कहीं भी अन्यत्र नहीं है अर्थात् आप आपके ही समान हैं / / 30 / / त्वं शङ्करो भासि महावतित्वाद्ब्रह्माऽसि लोकस्य पितामहत्वात् / विष्णुविनेतः पुरुषोत्तमत्वाज्जिनोऽसि रागादिजयाज्जनार्यः // 31 // हे देव ! महाव्रती होने से आप शङ्कर के समान शोभित होते हो, लोगों के पितामह होने से ब्रह्मा हो, पुरुषों में उत्तम होने से विष्णु हो और राग-द्वेष को जीतने से जनों के पूजन योग्य जिन हो // 31 // विधृत्य वाचं भवतः कथायामक्षान्त-पक्षान्तरसन्निवेशः। उदास्यमाने कुपरीक्षकोघे, त्वत्किङ्करः किं करवै विनेतः ? // 32 // हे स्वामिन् ! आपकी कथा में वारणी अर्थात् आपके सिद्धान्त को लेकर अक्ष-शास्त्रार्थ अथवा वाद-विवाद में विशेष दृष्टि से परपक्ष के सन्निवेशों का अन्त करनेवाला अथवा परपक्षों के निवेशों को नहीं सहन करने वाला आपका यह किङ्कर-सेवक मैं कुपरीक्षक-समूह के उदासीन होने पर क्या करूँ ? // 32 // कलौ कुकाले किल सत्परीक्षा-भिक्षाचराणां सुलभा न भिक्षा। कथा प्रथायामिति कोतिलाभे, त्वत्किङ्करस्यास्य गतिस्त्वमेव // 33 // वास्तव में इस कुकाल कलिकाल में सत्परीक्षा के भिक्षुकों को भिक्षा सुलभ नहीं हैं, इस बात की प्रसिद्धि होने पर इस आपके सेवक को यश प्राप्त कराने में आप ही गति हैं // 33 // Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवत्प्रसादाद् भवदिद्धबुद्धिलघुर्महानेव तवास्तु दासः। '' ग्रावाऽप्यधिष्ठापकसन्निधानाच्चिन्तामणिः किं न जगन्निषेव्यः // 34 / / हे देव ! आपके द्वारा प्रदीप्त बुद्धिवाला आपका छोटा-सा दास भी आपके प्रसाद से बड़ा ही है, क्योंकि अधिष्ठापक के समीप में होने से पत्थर भी चिन्तामणि के समान जगत् के लोगों से सदा सेवनीय ही होता है // 34 // अयं जनो यद्यपि कुन्थुरेव, (श्रुताढयनाग)'प्रभृतीनवेक्ष्य। भजे तथापि प्रसभं कथायां, भवत्प्रसादात् परवारणत्वम् // 35 // हे देव ! यह जन श्रुताढ्यनाग-पण्डितों में हस्ती के समान, महापण्डित, कोविदकुञ्जर आदि को देखकर यद्यपि कुन्थु-बहुत छोटा ही है, तथापि आपके अनुग्रह से कथा-शास्त्रार्थ, वाद-विवाद-में दूसरों को मूक बनाने में समर्थ है अथवा परपक्षों को पराजित करने के लिये पण्डितकुंजर के समान है // 35 // एकान्तमुद्रामधिशय्य शय्यां, नयव्यवस्था किल या प्रमीला। तया निमीलन्नयनस्य पुंसः, स्यात्कार एवाञनिको शलाका // 36 // एकान्तमुद्रा एकान्तवाद)वाली शय्या पर सोकर नय-व्यवस्था नामक जो प्रमीला (निद्रा) है, उससे मुंदती हुई आँखोंवाले पुरुष को स्यात्कार–स्याद्वाद ही अञ्जन करने की शलाका है-अर्थात् एकांतवादियों को नैगम-निश्चय-व्यवहारादि नयों से दिव्यदृष्टि देनेवाला अनेकान्तवाद ही है / / 36 // एकान्तभेदः किल धर्ममिव्यवस्थया विष्णुवदे(वस्तुषु नै)व लभ्यः / गोरश्वतेव प्रविभिद्यते चेद्, गोत्वं लभेत्कस्तदिदं विशेषः // 37 // 1. अत्र कश्चन पाठस्त्रुरितः स चानेन पाठेन समाधेयः / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 35 वस्तुओं में धर्म-धर्मिभाव के कारण एकान्तभेद नहीं हो सकता जैसे गो से अश्व / तथा धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद होता हो तो गोत्व कहीं भी नहीं रह सकता अर्थात् गो में भी नहीं रह सकता है यह इसमें विशेष है। प्रत्येति जल्पन् समवायमेकं, गवीव गोत्वं न कथं तुरङ्ग। प्राधार तैक्येऽपि समानयुक्तेस्तया प्रतीकारकृतिर्न युक्ता // 38 // जो समवाय सम्बन्ध को एक मानता है (अर्थात् एक ही समवाय है अनेक नहीं) वह गो के समान अश्व में गोत्व को क्यों नहीं देखता ? इनमें आधार की एकता रहने पर भी समवाय के कारण इस दोष का प्रतीकार नहीं हो सकता // 38 // . अभेदभेदात्किल धर्म मिविशिष्टबुद्धिस्तव शासने नु तु)। तदात्मतावृत्त्यनियामकत्वमेकान्तताभाजि ततो न दोषः // 3 // परन्तु स्याद्वादं में धर्म और धर्मी में भेद और अभेद दोनों है, अभेद के कारण धर्म धर्मात्मा प्रतीत होता है और भेद के कारण धर्म से विशिष्ट प्रतीत होता है। एकान्त अभेदपक्ष में सर्वथा अभेद प्रतीत होना चाहिए और एकान्त भेद पक्ष में कोई भी धर्म अपने वास्तविक धर्म से भिन्न अनेक धर्मियों में प्रतीत होना चाहिये / एकान्त भेद मानने पर धर्म की वृत्ति का नियम नहीं रह सकता। गोत्व धर्म है वह बैल में ही रहता है अश्वादि में नहीं, यह व्यवस्था एकान्तभेद पर नहीं रह सकती / / 36 // एकत्र वृत्तौ हि विरोधभाजोर्या स्यादवच्छेदकभेदयात्रा। द्रव्यत्वपर्यायतयोविभेदं, विजानतां सा कथमस्तु नस्तु // 40 // दो विरुद्ध धर्म जब धर्म में रहते हैं तब नैयायिक आदि अवच्छेदक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] भेद से उनकी सत्ता मानने हैं / वृक्ष में मूल के अवच्छेद से कपिसंयोग का अभाव है और शाखा के अवच्छेद से कपिसंयोग है परन्तु स्याद्वादी द्रव्य-पर्याय का भेद मानते हैं। इसलिये अवच्छेदकों के भेद की पावश्यकता नहीं रहती है, यही स्याद्वादमत की विशिष्टता है // 40 // .. भेदः पृथग भूतिरथान्यभावो, द्विधेति तत्र प्रथमं वदन्ति / विभक्तदेशेषु तथान्त्यमन्ये, स्वधर्ममित्वविभागहेतुम् // 41 // भेद दो प्रकार का है 1 - पृथग्भाव और २-अन्यभाव / जो पदार्थ भिन्न देशों में रहते हैं उनमें पृथग्भाव होता है, जैसे दो वृक्ष भिन्न-भिन्न स्थान पर हैं उनमें पृथग्भाव है। और जब धर्म तथा धर्मी दो वक्षों के समान भिन्न-भिन्न देशों में नहीं हैं वहाँ उनमें पृथक्ता नहीं है अतः उनमें अन्यभाव है। इस अन्यभाव के कारण उनमें एक धर्म और दूसरा धर्मी है, यह वैशेषिक आदि का मत है // 41 // प्रभेद-भेदोल्लसदेकवृत्ती, तेषामवच्छेदकमप्यमृग्यम् / स्वभावयोरेव यदेकवृत्तौ, जागर्त्यवच्छेदकभेदयाच्या // 42 // जिनके मत में एक वस्तु अभेद और भेद से रहती है उनको अवच्छेदक का अन्वेषण नहीं करना पड़ता, क्योंकि स्व और प्रभाव को एक में रहना हो तो अवच्छेदक के भेद को मानना पड़ता है। कपिसंयोगाभाव को एक वृक्ष में रहने के लिये शाखा और मूल इन दो अवच्छेदकों की आवश्यकता रहती है परन्तु गोत्व अभेद और भेद दोनों के द्वारा गो रहता है उसे अवच्छेदकों के भेद की आवश्यकता नहीं // 42 // सदेव चेत् स्यादसदेव चेत् स्यादेकीभवेद्वा न जगद् भवेद्वा।। इमां क्षति सोढुमशक्नुवन्तस्त्वच्छासनं देव ! परे श्रयन्तु // 43 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 37 यदि धर्म और धर्मी में एकान्तभेद माना जाए तो वस्तु केवल सत् ही होगी अथवा असत् ही होगी। सत् और एकान्तवाद मानने पर समस्त जगत् एक वस्तुरूप हो जाएगा अथवा असत् रूप हो जाएगा। परन्तु संसार न तो एक वस्तुरूप है और न असद्रूप है / अतः अनेक रूप वाले इस संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिये - हे देव ! आपके शासन का प्राश्रय लेना ही चाहिये / / 43 / / परेण रूपेण भजत्यजन, स्वरूपतोऽस्तित्वमनस्तिभावम् / अनस्तिभावः पुनरस्ति भावं, परोपनीतः स्वचतुष्टयेन // 44 // पदार्थ का स्व-रूप से अस्तित्व है, पर-रूप से वह अभावरूप हो जाता है और जो वस्तु का अभावरूप है वही स्वद्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से भावरूप को प्राप्त हो जाता है / 44 / / विना भवन्तं स्थितिहेतुमन्यं, विश्वस्य या धावति देवमाप्तुम् / जागति वन्ध्या तनयस्य मौलिमलङ्करिष्णुः कतमा कलेयम् // 45 // हे जिनेश्वर ! जो कला-विद्या अथवा शास्त्र आपके बिना संसार की स्थिति के कारण अन्य देव को प्राप्त करने के लिये दौड़ती है वह वन्ध्या के पुत्र के मस्तक को शोभित करनेवाली कौन-सी कला जाग रही है ? // 45 // जनुभृतां दुर्नयनाशितानां, सञ्जीवनी नाम तवैव वाणी। उपेत्य मच्चेतसि सा समस्त-रुजां विनाशे पटिमानमेतु // 46 // .. हे जिनेश्वर ! दुर्नय से नाश को प्राप्त प्राणियों को आपकी ही वाणी अच्छी तरह जीवन देनेवाली है, वह आपकी वाणी मेरे हृदय में आकर समस्त रोगों को नष्ट करने में पटुता धारण करे / / 46 / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] त्वयि प्रभो ! जाग्रति दानशौण्डे, गोपायति स्वं ननु पारिजातः। .. न केवलं तैः पटलैरलीनां, स्वदारुभावादपि दुर्यशोभिः // 47 // . हे प्रभो ! आप जैसे दानवीर के विद्यमान रहने पर वह पारिजात वृक्ष निश्चय ही अपने शरीर को न केवल भँवरों के समूह से ही छिपाता है, अपितु अपने काष्ठमय-कठोर शरीर होने सम्बन्धी अपयश के कारण भी शरीर को छिपाता है। (यहाँ अपह्न ति अलङ्कार द्वारा वृक्ष पर भँवरों की स्थिति को मुंह छिपाने के भाव से व्यक्त किया गया है) // 47 // अन्ये कथं जाग्रति पारिजाते, ह्यपारिजाते न तव व्यथाय। . निषेव्यतामेष जगन्निषेव्यो, मम प्रभुनूनमपारिजातः // 48 // हे जिनेश्वर ! दूर कर दिया है रागद्वेषादि शत्रुसमूह को ऐसे साक्षात् पारिजात-कल्पवृक्ष आपके रहने पर अन्य शत्रु-समूह से आक्रान्त लोग क्यों जाग रहे हैं ? यह आपकी पीड़ा के लिये नहीं है अर्थात् इस सम्बन्ध में आप तो निश्चिन्त हैं। परन्तु (मेरी कवि की धारणा यह है कि) वे इसलिये जाग रहे हैं कि-'ये जगत् के द्वारा सेवनीय मेरे वीतराग प्रभु ही सबके द्वारा सेव्य हैं, यह निश्चित है' उन्हें यह समझाना आवश्यक है // 48 // भवद्यशोभिभुवि भासितायां, सिनेतरन्नाम सिते ममज्जे। लुम्पत्परेषामभिधां स्वनाम्ना, सितं तु तत्र स्वधिया ममज्जे // 46 // हे जिनेश्वर ! आपके यशःसमूह के द्वारा पृथ्वी के भासित हो जाने पर उज्ज्वलता के अतिरिक्त जो भी वस्तु थी, वह उस उज्ज्वलता में डूब गई। अर्थात् आपके यशःप्रकाश के समक्ष रक्त, पीत, नील आदि वर्ण समाप्त हो गये और अपने नाम से दूसरों के नाम का Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 36 लोप करता हुआ वह उज्ज्वल वर्ण अपनी चतुराई से आपके उज्ज्वल यश में जाकर मिल गया अर्थात् सर्वत्र आपके यश की उज्ज्वलता ही व्याप्त है / / 46 // हसन्निमीलयुगपत्पयोजं, भवन्महो भानुयशःशशिभ्याम् / शङ्का वितेने दिनरात्रशिल्प-क्रमे विधेर्नू नमकौशलस्य // 50 // हे जिनेश्वर ! आपके तेजरूपी सूर्य और यशरूपी चन्द्रमा के एक साथ प्रकाशित रहने के कारण एक ही काल में खिलता और मुंदता हुमा कमल विधाता की दिन और रात बनाने की क्रिया में निश्चित ही अकुशलता की शङ्का को बढ़ा रहा है / / 50 / / विश्वेऽपि यो मात्यपि, नैव वर्णः सकर्णकर्णादरकोणवासी। बोद्धं क्षमास्तीवधियोऽपि धीराः, श्लोकं त (त्व) दीयं कथमेतमेते // 51 // . हे देव ! जो होठों के तनिक हिलने मात्र से ही वक्ता के प्राशय को समझ जाते हैं, ऐसे सावधान व्यक्तियों के कानों के कोण में आदर पूर्वक निवास करनेवाला जो वर्ण आपकी प्रशंसा अथवा यशोवर्णन संसार में भी नहीं समाता है ऐसे आपके उस यशोवर्णन को तीव्रबुद्धि पण्डित लोग भी जानने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? // 51 / / स्वरं दिवः स्नातवतस्तटिन्यां, समुच्छलत्तारकतोयबिन्दु। . सितत्विषस्त्वद्यशसः पवित्रं, विधुस्तनुप्रोञ्छनकं विभाति // 52 // हे देव ! स्वतन्त्रता-पूर्वक स्नान करते हुए शुभ्र कान्तिवाले आपके यश का यह चन्द्रमा उछलते हुए तारकरूपी जलबिन्दुओंवाला पवित्र अंगप्रोञ्छन-वस्त्र (अंगोछा-गमछा) के समान शोभित हो रहा है (यह एक अभिनव उपमा है) // 52 // Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40.] अयं हि चन्द्रो ननु सँहिकेयो, यस्यास्ति कर : किल कुक्षिगामी। . . अवैत्यम म्लानतमं न को वा, विशेषदर्शी यशसस्तवाने // 53 / / हे देव ? जिसकी कुक्षि में रङ्कु हरिण है ऐसा यह चन्द्रमा न हो कर वस्तुतः राहु है। क्योंकि आपके यश के सामने कौन बुद्धिमान इसको अत्यन्त मलिन नहीं मानता है ? // 53 // वियद्विधाता प्रतिघनघृष्ट-चन्द्रेण .भानुद्युति सेचनश्च / .... भवद्यशोराशिनिवासयोग्यं, मत्वैध नित्यं कुरुते पवित्रम् // 54 // हे देव ! विधाता प्रतिदिन इस आकाश को आपके यशःसमूह के निवास योग्य मानकर ही चन्द्रमा के द्वारा घिसकर और सूर्य की किरणों द्वारा पानी डालकर साफ करके पवित्र कर रहा है / / 54 // ' भवद्यशोभिः सकलेऽपि सारे, मुष्टे विधुर्नाम बभूध भिक्षुः / कपालिनं सम्प्रति सेवनानः, प्राप्नोति लक्ष्मैष कपालमेव // 55 // हे जिनेश्वर ! आपके यश द्वारा समस्त सारतत्त्व का अपहरण हो जाने पर चन्द्रमा भिखारी हो गया है। और अब वह कपाली शिव की सेवा करता हुआ भी अपने चिह्न के रूप खप्पर को ही प्राप्त करता है // 55 // 2 1. यहाँ कवि ने कल्पना द्वारा आकाश को यशरूपी महापुरुष के निवास योग्य भवन बताकर उसकी सफाई के लिये चन्द्ररूपी श्वेत साबुन या पत्थर से घिसने और सूर्य-किरणों से धोने की बात कही है। यह एक आधुनिक युग के अनुरूप अपह्न ति अलंकार का उदाहरण है। -अनुवादक 2. वैदिक मत में शिव के मस्तक पर चन्द्रमा की स्थिति मानी जाती है। इस आशय को लेकर कवि ने कल्पना की है कि यह चन्द्रमा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 41 ] भवद्यशः पुष्टिकृते विधिर्यत्, सुधाब्धिमिन्दु निबिडं निपीड्य। गृह्णाति सारं तदमुत्र युक्तमङ्कः समुद्गच्छति पङ्क एव // 56 // हे देव ! ब्रह्मा आपके यश की पुष्टि के लिये अमृत के सागररूपी चन्द्रमा को मथकर उसका सार ग्रहण कर लेता है, यह उचित ही है। क्योंकि जो अङ्क है वह पङ्क के ऊपर ही आता है / / 56 / / ' प्रादाय सारं सकलं यदिन्दोरशोभि विश्वं भवतो यशोभिः / लक्ष्मच्छलात्तत् स्फुटमीक्ष्यतेऽसौ, सुधाम्बुधिः शैवलमात्रशेषः / / 57 // पहले महादेव के मस्तक पर नहीं था, किन्तु जब से जिनेश्वर के यश ने चन्द्रमा का सारा तत्त्व ले लिया तब से वह भिखारी बनकर शिव जी के पास रहने लगा। किन्तु जो स्वयं खप्परधारी था वह चन्द्रमा को क्या दे ? अतः उनसे चन्द्रमा को भी खप्पर ही मिला और वही खप्पर उसमें कलङ्ग के रूप में दिखाई देता है। -अनुवादक 1. सारांश यह है कि चन्द्रमा में जो कलङ्क है वह उसकी नि:सारता का अथवा पाप का प्रतीक है। कवि ने कल्पना की है कि- यह चन्द्रमा पहले निष्कलङ्क था किन्तु विधाता ने जब जिनेश्वर के यश की पुष्टि के लिये चन्द्रमा को मथकर उसका सार ले लिया तब वह कलङ्कवाला रह गया। ___ यहाँ एक पौराणिक कथा भी है कि गौतम ऋषि की पत्नी ग्रहल्या के प्रति इन्द्र द्वारा किये जानेवाले पापकर्म में सहायक बनने के कारण गौतम के शाप से यह कलङ्गित हा है। अतः कवि कहता है कि 'पङ्क में ही अङ्क होता है' अर्थात् जहाँ पङ्क-कीचड़ या पाप होता है वहीं कलङ्क या मलिनता रहती है। निर्मल में नहीं। - उपर्युक्त ३२वें पद्य से 72 तक भगवान् के यश के समक्ष चन्द्रमा को अतितुच्छ बताया गया है। -अनुवादक Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] हे देव ! चन्द्रमा का समस्त सार लेकर अापके यशः-समूह से यह सारा जगत् शोभित हो रहा है, यही कारण है कि यह चन्द्रमा अपने कलङ्क-चिह्न के बहाने केवल शैवाल रूप में बचा हुआ ही दिखाई दे रहा है // 57 // भवद्यशःपूजनतत्पराया, दिवः प्रसूनाञ्जलिरेव चन्द्रः। . तयैव साक्षादुपढौक्यमाना, लाजा इवामी विलसन्ति ताराः // 58 // ___ हे जिनेश्वर ! आपके यश की पूजा में तत्पर आकाश की पुष्पा जलिरूप ही यह चन्द्रमा है। और उसी आक्राश से साक्षात् चढ़ाई गई लाजा के समान ये तारे शोभित हो रहे हैं / 58 // . . जिगीषुणा त्वद्यशसा जगन्ति, पत्रं 'ललम्बे विधुरन्तरिक्षे। तदस्य धात्रोपरि वषितानि, ताराः प्रसूनानि जयस्य चिह्नम् // 56 // हे देव ! जगत् को जीतने की इच्छावाले आपके यश ने चन्द्रमा को यहाँ से भगा दिया तो उसने आकाश में जाकर आश्रय पाया और वह वहीं छिप गया। इस चन्द्रमा पर पाई गई विजय के उपलक्ष में ही विधाता ने जय के चिह्नरूप तारकरूपी पुष्प आप के यश पर बरसाए हैं / / 56 // कथं समस्त्वद्यशसा शशाङ्को, यमष्टमी चुम्बति वक्रमेव। ततो मुधा साम्यविधित्सुरुच्चैस्तक्ष्णोति धाता तनुमेतदीयाम् // 60 // हे देव ! आपके यश के समान चन्द्रमा कैसे हो सकता है ? क्योंकि अष्टमी वक्र चन्द्रमा का ही चुम्बन करती है / और यही कारण है कि यह जब पूर्णिमा के दिन आपके यश के साथ समानता पाने के लिए 1. अन्तभावितण्यर्थः / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 43 बहुत बढ़ता है तो विधाता इस के शरीर को पुनः तराश कर वक्र बनाता है // 60 // इयद्वियत्तावककीर्तिगङ्गा, नीलाब्जलीलाग्रहयालुमूर्तिः। मरालबालस्य तदत्र युक्तं, सुखं सुधांशुः सुषमा बिभर्तु // 62 // हे देव ! नील-कमलों की लीला को ग्रहण करनेवाली मूर्ति से यह आकाश आपकी कीर्तिरूपी गङ्गा है। अतः यहाँ किसी बालहंस का रहना उचित है। इसी लिए वहां ये चन्द्र बालमराल की परम शोभा को पा रहा है / 61 // भवद्यशोहंसमवेक्ष्य यस्य, स्वरूपमाख्याति विशेषदर्शी। वितत्य पक्षौ वियति व्रजिष्णुः, स मीनभोगी बक एव चन्द्रः // 62 // हे देव ! बुद्धिमान् व्यक्ति आपके यशरूप हंस को देखकर जिस चन्द्रमा के स्वरूप का वर्णन करते हैं, वह आपके यशरूपी हंस को देख कर अपनी दोनों (शुक्ल एवं कृष्णपक्षरूपी) पाँखों को फैलाकर आकाश में गमनशील चन्द्रमा मछलियों को खानेवाला बगुला ही दग्धस्य चन्द्रो हरनेत्रवह्नौ, मनोभुवो भ्राजति भस्मगोलः / विलीयते यं सततं त्वदीय-यशःसुधावारिद-वर्षणेन // 63 // हे देव ! महादेव की नेत्राग्नि से जले हुए कामदेव की राख का गोला ही यह चन्द्रमा शोभित हो रहा है। जो निरंतर आपके यशरूपी अमृत की वर्षा से विलीन हो जाता है—बह जाता है // 63 // राकामयं ते तनुते जगद्-यद्यशो विधोलाञ्छन-पङ्कमाजि / प्रस्यायमिन्दोर्ननु पक्षपातो, द्विषाऽन्यथा वेति कथं विवेच्यः // 64 // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 44 ] ___ हे जिनेश्वर ! चन्द्रमा के लाञ्छनरूप पंक को धोनेवाला प्रापका जो यश जगत् को पूर्णिमा के समान पूर्ण प्रकाशमय बनाता है, यह इस चन्द्रमा के प्रति पक्षपात है अथवा द्वेष है ? इसका कैसे विवेचन किया जाए ? // 64 // स्वल्पानुरागेव जडं शशाङ्क, मास्येकवारं भजते नु राका। निरन्तरं प्रेमिण निमज्जतीयं, भवद्यशोभिस्तु सहेन्द्रगेयैः // 65 // ___हे देव ! वह राका-पूर्णिमा तो अल्प अनुरागवाली स्त्री की तरह जड़ चन्द्रमा का महीने में एक बार ही सेवन करती है किन्तु इन्द्र से गाने योग्य आपके यश के साथ तो यह राका सदा प्रेम में डूबी ही रहती है / 65 // भवद्यशोभिः सह लक्ष्मदम्भात्, स्पों दधानः , सुपरीक्षकेण। करेण चन्द्रः कलिकालक्लप्ति-कालेन धात्रा गलहस्तितः किम् // 66 // - हे देव ! उत्तम परीक्षक विधाता ने अपने लाञ्छन के अभिमान से आपके यश के साथ स्पर्धा करने वाले चन्द्रमा को अपने कलिकालयुक्त कालरूपी हाथ से अर्थात् झगड़ालू हाथ से गलहस्तित कर दिया है क्या गले में हाथ डाल कर बाहर धकेल दिया है क्या ? // 66 // ब्रह्मा किल ब्रह्ममयं तनोति, यशश्च विश्वं तव देव ! शुभ्रम् / मध्ये नु राजा तदिह द्विजानां, ब्रह्माद्वयं वा शितिमाद्वयं वा // 67 // ' हे देव ! ब्रह्मा इस संसार को ब्रह्ममय अर्थात् रजोरूप बनाता है और आपका यश उसे श्वेत बनाता है / किन्तु इन दोनों के बीच द्विजराज चन्द्रमा एक मात्र ब्रह्म को अथवा शुक्ल कृष्ण पक्षरूप दो शितिमाओं की रचना करता है / / 67 // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 45 सुधा सुधांशोः कियती किलेयं, विलीयते या त्रिदर्शनिपीता। वर्द्धन्त एवात्र जगज्जनस्ते, यशांसि पीतान्यपि कर्णपत्रैः // 68 // हे देव ! चन्द्रमा का यह अमृत ही कितना है जो देवताओं के पीने पर विलीन--समाप्त हो जाता है, किन्तु अापके यश तो जगत् के लोगों से कर्ण द्वारा पीने पर भी यहाँ बढ़ते ही रहते हैं / / 68 / / सुधाकरस्ते यश एव साक्षाच्चन्द्रे नु तत्त्वभ्रम एव भूयान् / सहावतिष्ठेत कुतोऽन्यथा वा, दोषाकरत्वेन सुधाकरत्वम् // 6 // हे देव ! आपका यश वस्ततः साक्षात् सुधाकर अमृतकिरण है, क्योंकि चन्द्रमा में तो बड़ा तत्त्वभ्रम ही है / यदि ऐसा नहीं हो तो चन्द्रमा दोषाकर (दोषों का खजाना और रात्रि को करनेवाला) होने के साथ-साथ सुधाकर (अमृतमयी किरणोंवाला) के स्वरूप को क्यों धारण करे ? / / 66 // भवद्यशःक्षोर निधेः पयोभिर्भूत्वा शशिद्रोणमियं किल द्यौः। भवद्गुणस्वर्दुमकन्दरूपं तारागणं सिञ्चति शुभ्रभासम् // 70 // हे देव ! यह आकाश आपके यशरूपी क्षीरसमुद्र के दूध से चन्द्रमारूपी द्रोण-पात्र को भरकर आपके गुणरूपी कल्पवृक्ष के कन्दरूप शुभ्रकान्तिवाले तारागणों को सींचता है / / 70 // यशोभरस्ते प्रविभाति विश्व-समुद्रकेऽसौ घनसारसारः / यदेकदेशो विधुरञ्जनत्वं, दिवस्तमोलुप्तदृशः प्रयाति // 71 // हे जिनेश्वर ! कर्पूर के समान श्रेष्ठ आपका वह यशःसमूह - विश्वसमुद्र में शोभित हो रहा है और उसी यशःसमूह का एक छोटा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा भाग यह चन्द्रमा अन्धकार से नष्ट नेत्रोंवाले आकाश का अञ्जन है // 71 // भवद्यशःस्पर्धनजं रजः किं, मिलत्सुधाधाम्नि कलङ्कपङ्कः / जडे भवत्येव नु पङ्किलत्वं, व्याप्तौ निदानं सहचारबुद्धिः // 72 // हे देव ! आपके यश से स्पर्धा करने से उत्पन्न रज (धूलि) ही चन्द्रमा में मिल जाने से कलङ्करूपी पंङ्क बन गई है क्या ? यह उचित भी है, क्योंकि जड़पदार्थ में ही पङ्किलता होती है, जैसे व्याप्ति में सहचारबुद्धि (सहावस्थान बुद्धि) ही मूल कारण है (साहचर्य नियम व्याप्ति का लक्षण है) // 72 // देवाधिदेवस्य तव स्वरूपं, स्तोतुं न देवा अपि शक्नुवन्ति / तथापि कल्यारकरी ममास्तु, भक्त्या भवद्वर्णनरिणकेयम् // 73 // हे जिनेश्वर ! आप देवों के अधीश्वर हैं, आपके स्वरूप का वर्णन करने में देव भी समर्थ नहीं हो सकते हैं; तथापि भक्ति-पूर्वक आपके गुणों के वर्णनवाली यह रचना मेरा कल्याण करनेवाली हो // 73 // पीयूषपात्रं वितनोति तारा-रेखाभिराभिः शशिनं तु रिक्तम् / भवद्गुरणानां गणनां विधित्सुविधिः पुनः किं दिवि पूर्यमाणम् // 74 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना करने का इच्छुक विधाता इन तारारूप रेखाओं से अमृतपात्र चन्द्रमा को खाली करता है (और फिर भी ठीक गणना नहीं होने से) पुनः उस चन्द्रमा को पूर्ण कर देता है क्या ? // 74 // भवेद् भवप्रक्षयशुद्धिभाजां, वाग्वर्णनानां तुलना धियां चेत् / गोणे गुणानां तु तदा कदाचित, पदं निदध्युस्तव योगिनोऽमी // 75 // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 47 हे देव ! भवप्रक्षयशुद्धिवालों के वाग्वर्णन की तुलना यदि बुद्धि में o सके तो कदाचित् ये योगी आवके गुणों की गणना करने में प्रवृत्त हो सकते हैं अर्थात् समर्थ हो सकते हैं // 74 // परार्द्धपाथोनिधिपारदृश्वा, विधेर्यदि स्याद् गणितप्रकारः। भवद्गुणानां गणना तथापि, कथापि वा वारिधिलङ्घनस्य // 76 // हे जिनेश्वर ! यदि विधाता गणित के प्रकार–पराध और सागरपर्यन्त गणित-का पारदर्शी हो, तभी आपके गुणों की गणना हो सकती है अथवा इतना होने पर भी समुद्र लाँघने की बात मानी जा सकती है। अर्थात् आपके गुणों की गणना समुद्र-लङ्घन के समान सर्वथा असम्भव है / / 76 // भवद्गुणानां विधिरभ्रपट्टे, भवत्प्रतापैः परिजितस्य / द्रवः सुमेरोस्त्रपया द्रुतस्य, सवर्णवर्णलिखतु प्रशस्तिम् // 77 // हे जिनेश्वर ! विधाता आकाशरूपी पाटी पर आपके प्रतापों से तजित और लज्जाव पिघले हुए सुमेरु पर्वत की सुनहरी श्याही से आपके गुणों की प्रशस्ति लिखा करे / / 77 // भवद्गुणानां गणनाय नायं, ताराङ्करेखाः प्रवरः प्रकारः। स्मरत्विदानी द्रुहिणस्त्रिलोक्यां, दोधूयमानां परमाणुराजिम् // 78 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना के लिये ताराओं के अंकों के साथ लेखा करना यह उचित प्रकार नहीं है, अतः विधाता अब तीनों लोकों में उड़ती हुई परमाणु राशि का स्मरण करे // 7 // न्यस्ता कदाचिद्धनमूलकूले, करेशयानां च कदाचिदिन्दुम् / भवद्गुरणानां गरणकस्य धातुः, खटी विना नाम घटी न यातु // 7 // Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कभी घनमूल के किनारे रखने से और कभी चन्द्रमा से आपके गुणों की गणना करने के लिये उसे हाथ में रखने से हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना करनेवाले विधाता की (पाटी पर लिखने की) खड़ी के बिना एक घड़ी भी नहीं बीते / / 76 // धातुस्तव श्लोकपरीक्षणेच्छोश्छन्दोऽपि मन्दोदरतां प्रयाति / येनैकवर्णेन जगज्जगाहे, सीमेव काऽनुष्टुभि तस्य नाम // 8 // हे देव ! आपके यश की परीक्षा करने के इच्छुक विधाता का छन्द भी मन्द हो जाता है, क्योंकि आपके यश के एक वर्ण (एक अक्षर) ने ही जगत् को व्याप्त कर दिया फिर उस विधाता के अनुष्टुप् छन्द की सीमा ही क्या है ? // 80 // दिक्चक्रचक्रभ्रमणैर्गुणस्ते, यशःपटं यत् कक्यो वयन्ति / अस्मिन् विधातुः किल तार्किकस्य, पपात तर्कः पथि कर्कशेऽस्य // 1 // हे जिनेश्वर ! कविगण * दिक्समूहरूपी चक्र-भ्रमण के समान गुणों से तन्तुओं से जो आपके यशरूप वस्त्र को बुनते हैं इसमें तार्किक विधाता का तर्क कठोर मार्ग में गिर गया अर्थात् ऐसे विलक्षण पटरूप कार्य का कारण प्रचलित न्यायशास्त्र में नहीं मिलता है क्योंकि चक्रभ्रमण से घटकार्य होता है पट कार्य नहीं // 1 // विद्याकलाकौशलशिल्पिनोऽपि, गुणेऽपि वृद्धिस्तव सुप्रतीता। तदत्र वैयाकरणो विधाता, विलक्षणं लक्षणमभ्युपैतु // 82 // हे जिनेश्वर ! विद्या, कला, कौशल और शिल्प से युक्त होने पर भी आपके गुण में वृद्धि सुप्रतीत है / इसलिये वैयाकरण विधाता यहाँ भी विलक्षण लक्षण (व्याकरण-शास्त्र के लक्षण) को प्राप्त करे अर्थात् व्याकरण के गुण और वृद्धि तो पृथक्-पृथक् होते हैं जबकि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 46 यहाँ तो आपके गुण में वृद्धि होती है / 82 // तारापदैस्ते सुगुणप्रशस्तेर्यस्याः सिसृक्षा नभसः सितस्य / सेयं विधातुः कतमा समीक्षा, भिक्षाचरी भूतवती मनीषा // 3 // हे जिनेश्वर ! आपके उत्तम गुणों की प्रशस्ति के लिये श्वेत प्रकाश के तारागणों के आधार पर सर्जन करने की जो इच्छा है वह विधाता की प्रेत लगी हुई भिखारिन के समान कौन सी समीक्षा बुद्धि है ? अर्थात् उस विधाता की बुद्धि प्रेत लगी हुई होने से विवेकशून्य, दर दर भटकने के कारण भिखारिन और असम्भव कार्य को सम्भव बनाने की प्रवृत्ति के कारण समीक्षा दृष्टि का अभाव व्यक्त करती है अथवा उसकी समीक्षा बुद्धि भिखमंगी हो गई है / 83 // स्वनिग्रहानुग्रहतः स्वभक्तं, परे परं धातुमधीशतां ते। मामेव मां कर्तुमलम्भविष्णुस्त्वमेव देवः कुशलानि कुर्याः // 84 // हे जिनेश्वर ! दूसरे देव अपने निग्रह और अनुग्रह से अपने भक्त का हित करने में समर्थ हों, तो हों, किन्तु मुझे तो मेरे समान-अर्थात् जैसे मैं (आपका भक्त) हूँ वैसा बनाने में आप ही समर्थ देव हैं / इस लिये आप ही मेरा कल्याण करें / / 84 // धृत्वा नयं निश्चयमभ्युपेयस्त्वां नाम नैवेत्यहमाप्तमुख्य ! / वर्ते तथापि व्यवहारवर्ती, त्वत्किङ्करस्त्वत्स्पृहयालुरेव // 85 // हे प्राप्त मुख्य जिनेश्वर ! यद्यपि निश्चय-नय को लेकर मैं आपके निकट पहुँचने के योग्य नहीं हूँ, तथापि व्यवहार नय से आपकी इच्छा रखनेवाला आपका किड़कर-सेवक तो है ही / / 85 // विद्याविदो देव ! तवैव सेवां, मुख्यं महानन्दपदं वदन्ति। इदं पदस्य क्वचिदन्यदर्थे, निरूढया लक्षणया प्रयोगः // 86 // Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] हे देव ! विद्वान् लोग आपकी सेवा को मुख्य और महान् आनन्द का स्थान अथवा मोक्षप्रद कहते हैं / किन्तु इदं पद का तो किसी अन्य अर्थ में प्रयोग 'निरूढलक्षणा' से ही होता है / / 86 // प्रद्यावद्यापनोदादुदयति मम हुन्नन्दने पारिजातो, नद्याः सद्यः सुधाया मम तनुरखिला निर्भरैरद्य शस्ता। चिन्तारत्नं च मेऽभूत् कलितकरतलकोडसक्रीडनधि, श्रीर्मे त्वद्ये (य्ये)व भर्तर्भवति भवतिरोधानदक्षे प्रदृष्टे // 87 // हे स्वामिन् जिनेश्वर ! जन्म-जनित अथवा संसार-सम्बन्धी दुःखों का विनाश करने में समर्थ ऐसे आपके दर्शन होने से आज मेरे पापों का नाश हो जाने पर मेरे हृदयरूपी नन्दनवन में पारिजात (देववृक्ष) उत्पन्न हो रहा है। आज मेरा सारा शरीर अमृत की नदी के प्रवाहों से तत्काल पवित्र-निर्मल हो गया और मुझे मेरे करतल के विस्तार में क्रीड़ा करनेवाली लक्ष्मी से युक्त चिन्तामणि भी आज ही प्राप्त हो गई है जिससे मैं शोभित हैं।॥ 7 // याचे नाचेतनं यत् किमपि सुरमरिण नापि कल्पद्रुपूगं, स्वर्धेनुं नापि नापि प्रसृमरकमलाक्रीडितं कामकुम्भम् / सेवाहेवाकिदेवाधिपतिशतनतस्तद्भवानेव भर्तदाता मे पर्यवस्यन् भवतु भवतुदे वाञ्छितार्थे श्रिये च // 18 // - हे शर्खेश्वर पार्श्वनाथ ! मैं आपसे कोई अचेतन वस्तु-देवमणि नहीं मांगता हूँ और न कल्पवृक्ष के समूह की याचना करता हूँ, चेतन कामधेनु की भी मांग नहीं करता हूँ और न सुविस्तृत एवं लक्ष्मी के द्वारा आक्रीडित कामधट की ही याचना कर रहा है / अतः हे स्वामी, सेवाभावी सैंकड़ों इन्द्रादि देवों से नमस्कृत आप ही मेरे भव Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 51 जनित दुःखों को दूर करने, अभिलषित वस्तु को देने और लक्ष्मी को प्रदान करने में समर्थ दाता बनें / / 88 / / सङ्कल्पाः कस्य न स्युनिजहृदयदरी-कोरणजाकूरकल्पाः, सेकच्छेकस्य तत्र प्रभवति नु परं भर्तुरिच्छा रसस्य / ते तत्त्वं याच्यमानः किमपि जिन ! मनःसञ्चरिष्णु विष्णुर्धाजिष्णुर्भावभाजां मम विमलफलं योग्य एवासि दातुम् // 8 // हे जिनेश्वर ! किस व्यक्ति की हृदयरूपी कन्दरा के कोण में उत्पन्न अंकुर के समान संकल्प नहीं होते ? किन्तु उस अंकुर को सींचने में चतुर स्वामी की इच्छा ही वहाँ रस को पूर्ण करने में समर्थ है। इसलिये कुछ भी याचना किये बिना ही आप मुझे निर्मल फल देने में समर्थ हो, क्योंकि आप भक्तों के मन में विचरण करनेवाले होनहार तथा शोभनशील हो // 86 // मोहापोहाय चेत् स्याज्जिनमतसुमता काम्यकर्मप्रलिप्सा, भर्तक्तिस्तु तत् स्यादभिविभुकृतया याच्या नानुबन्धः / तेनायं याचमानः किमपि जिन ! भवकिङ्करो योग्य एव, प्रायो योग्यत्वभाजस्तव पदकमले भृङ्गभूयं भजन्ते // 10 // हे स्वामिन् ! जिनमत से मानी हुई काम्यकार्य की प्रकृष्ट अभिलाषा यदि मोह का नाश करने के लिये है तो स्वामी के सम्मुख याचना करने में कोई आपत्ति नहीं है, कोई बन्धन अथवा दोष नहीं है अपितु ऐसा करने में भी स्वामी की भक्ति ही होती है। इसलिये हे जिनेश्वर ! आपसे कुछ माँगता हुआ यह सेवक योग्य ही है; क्योंकि योग्यता को रखनेवाले आपके सेवक प्रायः आपके चरण-कमलों में भँवरे बनकर सेवा करते हैं // 10 // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] भर्ता संसारगर्तापतदखिलजनवारणदक्षस्त्रिलोक्या, भर्ता हर्ता जनानां दुरितसुविततेर्जन्मलक्षोजितायाः। भर्ता तर्ता भवाब्धेनिजसविधजुषां तारणेऽपि प्रभूष्णुभर्ता कर्ताऽस्तु शलेश्वरनगरमणिर्भावुकानां ममासौ // 1 // . संसाररूपी गड्ढे में गिरते हुए समस्त लोक की रक्षा करने में समर्थ और तीनों लोकों के स्वामी, प्राणियों के अनन्त जन्मों से उपाजित पाप-परम्परा का हरण करनेवाले, संसार-समुद्र के पारगामी, अपने निकटस्थ सेवकों को पार करने में समर्थ तथा भावूक भक्तों का पालन-पोषण करनेवाले वे शर्केश्वर नगर के रत्नरूप श्री शर्खेश्वर पार्श्वनाथ स्वामी मेरे रक्षक हों / / 61 // . जीयाः स्वर्णाद्रि-चूलाद्यतुलतरकचस्यूतजीमूतमालः, कालिन्दीमध्यवेल्लत्कुवलयवलयश्यामलच्छाय-कायः / कायोत्सर्गावलम्बे शठकमठहोन्मुक्तमेघोपलोद्यच्छत्रीभूताहिनाथस्फुटमणिकिरणश्रेरिणविद्योतिताशः // 12 // * सुमेरु-पर्वत के शिखरों पर पगणित केशों के समान जमी हुई मेघमाला के सदृश, यमुना नदी के बीच में हिलते हुए नील कमल के कङ्कण-समान श्यामल कान्तियुक्त शरीरवाले तथा कायोत्सर्ग के अवलम्बन में दुष्ट कमठ द्वारा बरसाये गये मेवोपल-प्रोलों के समय छत्र के समान बने हुए सर्पराज की फणामणियों की किरणों से दिशात्रों को प्रकाशित करनेवाले श्रीशङ्ख श्वर पार्वश्नाथ जय को प्राप्त करें-विजयी हों // 13 // जोयाश्चान्द्रीयरोचिनिचयसितयशःक्षीर-पाथोधिमज्जद्: ब्रह्माण्डोड्डीनबिन्दुभवदमरनदीनीपूतान्तरिक्षः / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 53 जृम्भत्कुन्दावद्रात-त्रिदशपतिकराम्भोजसंवीजिताभ्यां, चारुभ्यां चामराभ्यां त्रिभुवनविभुतां व्यजितां बिभ्रदुच्चैः // 3 // चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ्रयशरूपी क्षीरसागर में डूबते हुए ब्रह्माण्ड को उड्डीन-बिन्दु (अाकाश में गिरी हुई एक बूंद के समान) बनी हुई देवनदी (आकाश गङ्गा) के जल से अन्तरिक्ष को पवित्र करने वाले, खिले हुए कुन्द-पुष्प के समान शुभ्र तथा देवराज इन्द्र के कर-कमलों द्वारा अच्छी तरह ड्रलाये गये सुन्दर चामरों के कारण प्रकटित तीनों लोकों की प्रभुता को उत्तम रीति से धारण करनेवाले श्रीशङ्खश्वर पार्श्वनाथ जय को प्राप्त करें / / 63 // जीयाः सज्ज्ञान-भास्वन्मुकुरपरिसरक्रीडिताऽऽकारभारं, विश्वं गृह्णन् समग्रं. प्रतिसमय-भवद्-भूरिपर्यायभूमिम् / बिन्दुभूताहमिन्द्राद्यखिल-सुखमहानन्दसन्दर्भगर्भज्योतिबिभ्रत् प्रकृष्टं जननजनितभीभेदमेदस्विताः // 64 // अपने सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से दर्पण के घेरे में क्रीडा करते हुए विश्व के प्राकार एवं उसमें भी प्रतिक्षण होनेवाले विभिन्न परिवर्तनों को करतल-स्थित आँबले के समान देखनेवाले तथा जिस सुख के समक्ष इन्द्रादिकों के समस्त सुखों का बिन्दुरूप अहम्भाव है ऐसे महानन्द (मोक्ष) के सन्दर्भ से युक्त ज्योति के अच्छी तरह धारण करनेवाले और जन्मजनित भय का भेदन करने में प्रबल उत्पत्तिवाले, महावतारी, पुरुषोत्तम श्री शङ्खश्वर पार्श्वनाथ विजय को प्राप्त करें // 14 // जीयाः प्रद्योतिदन्तद्युतिततिषु लसज्जानुदघ्नप्रसूनभ्राम्यद्भृङ्गाङ्गनानां भवति सति मुहुः पुष्पतादात्म्यबोधे / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] श्रीमद्धर्मोपदेशे श्वसितपरिमलोद्गारसारेण दाढचं, सौरभ्यं पारिजातव्रततिततिगतामुष्णतां दातुमुत्कः // 5 // जिनके धर्मोपदेश में चमकीली दन्तज्योति की पंक्तियों में शोभित जानुपर्यन्त पुष्पों में मँडराती हुई भ्रमरियों को बार-बार फूल का तादात्म्य बोध होने पर अर्थात् उज्ज्वल दाँतों की किरणें ही पूष्प के समान ज्ञात होने पर श्वास-सुगन्धि के श्रेष्ठ उद्गार से उत्कट सुगन्ध और कल्पलता की श्रेणी में स्थित 'उष्णता को देने में उत्सुक ऐसे श्री पार्श्वजिनेश्वर जय को प्राप्त करें // 65 // , जीयाः संसारधन्वाध्वनि जनिजनितानन्ततापासहानां, भव्यानां कल्पवल्लीपरिचित-सखितामादिशन् देशनां स्वाम् / मोक्षाध्वन्यस्य साधोर्गहनतमतमोध्वंस-निर्बन्धमाज, दत्त्वा सज्ज्ञानदीपं घनरुचिरुचिर क्लृप्तविश्वोपकारः॥ 96 // संसाररूपी मरुमार्ग में जन्मजनित तापों को सहन न कर सकनेवाले भव्य जीवों को कल्पलता के समान अपनी देशना देते हुए, मोक्ष के पथिक साधु के लिये गहन अन्धकार-नाशक, पर्याप्त ज्योति से युक्त सम्यग्ज्ञान रूपी दीपक को प्रदान कर विश्व का उपकार करनेवाले श्री शङ खेश्वर पार्श्वनाथ विजयी हों / 66 / / जीयाः पादावनम्र-त्रिदशपति-शिरोमौलिवडूर्य रोचिः, कस्तूरीपत्रवल्लीनवनव-रचनारोचितक्ष्माशरीरः / उत्सर्पविभः पदाब्जान्नखरुचि-पटलैः पाटलैः कुङकुमाम्भोदम्भोदग्रर्दशानामपि तनुमनिशं भूषयन् दिग्वधूनाम् // 7 // प्रणाम करने वाले इन्द्रादिक देवों के मुकुट में जटित वैडूर्यमणि की चमक जिनके चरणों में व्याप्त है ऐसे कस्तूरी से बनाई गई नई Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 55 नई पत्रवल्ली .की रचना से सुशोभित क्षमाशील शरीरवाले तथा अपने चरण कमलों पर फैलते हुए कुकुम युक्त जल के बहाने से उन्नत कुछ लालवर्ण वाले नखों की कान्ति से दसों दिशावधुओं के शरीर को सुशोभित करते हुए श्रीशङ्खश्वर पार्श्वनाथ जिनेश्वर जय को प्राप्त करें // 67 / / जीयाः पीयूषवीची-निचयपरिचिति प्राप्य माधुर्यधुर्या, वाचं वाचंयमेभ्यो ननु जननजरात्रासदक्षां ददानः / चेतस्युत्पन्नमात्रां निजपदकमलं भेजुषां याचकानां, याच्यां सम्पूर्य कल्पद्रुमकुसुमसिताप्नुवन द्यां यशोभिः // 8 // ___ अमृत के तरंग-समूह-समुद्र के समान अत्यन्त मधुर, जन्म और जरा को भयभीत करने में प्रवीण ऐसी वाणी से मुनिजनों को उपदेश देते हुए तथा अपने चरण कमलों के सेवक याचकों के चित्त में उत्पन्न इच्छा को पूर्ण करके कल्पवृक्ष के पुष्पों के समान उज्ज्वल यश द्वारा आकाश को व्याप्त करते हुए श्रीशङ्खश्वर पार्श्वनाथ जय को . प्राप्त करें // 68 // (इस पद्य में 'यशोभिः' पद से स्तोत्रकर्ता कवि 'श्री यशोविजयजी उपाध्याय' के नाम का भी सङ्कत किया गया है।) -: 0 : Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] श्रीपार्वजिनस्तोत्रम् श्रीपार्श्वजिन-स्तोत्र (शिखरिणी-छन्द) // 1 // // 2 // %3D %3D // 4 // // 5 // स्मरः स्मार स्मारं भवदवयुमुच्चर्भवरिपोः, पुरस्ते चेदास्ते तदपि लभते तो बत दशाम् / रिपुर्वा मित्रं वा द्वयमपि समं हन्त ! सुकृतोज्झितानां किं ब्रूमो जगति गतिरेषास्ति विदिता // 7 // इस स्तोत्र के प्रारम्भ में 1 से 6 तथा प्रागे 58 से 62 और 68 से 63 तक की संख्यावाले कुल 37 पद्य प्राप्त नहीं हुए हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 57 हे पार्श्वजिनेश्वर ! कामदेव यदि अपनी शिवजी द्वारा प्राप्त पीडा का पूनः पुन: स्मरण कर (यह समझ कर कि-चलो भगवान् जिनेश्वर को भव-रिपु माना जाता है, अतः वे मुझे शरण देंगे) आपके समक्ष आता है तो आपके भी भव-संसार के रिपु अर्थात् संसार से मुक्ति दिलानेवाले होने के कारण वह उसी दशा को प्राप्त होता है। इसलिये खेद है कि "पुण्यहीन व्यक्तियों के शत्रु और मित्र दोनों ही समान होते हैं" संसार में यह बात प्रसिद्ध है। हम क्या कहें ? // 7 // दृशां प्रान्तः कान्तैन हि वितनुषे स्नेहघटनां, प्रसिद्धस्ते हस्ते न खलु कलितोऽनुग्रहविधिः / भवान् दाता चिन्तामरिणरिव समाराधनकृतामिदं मत्वा स त्वादधति तव धर्मे दृढरतिम् // 8 // हे जिनेश्वर ! अाप नेत्रों के कमनीय कटाक्षों से प्रेम-रचना नहीं करते हैं, आपके हाथ में भी प्रसिद्ध अनुग्रह की मुद्रा नहीं है किन्तु प्राप अपनी आराधना करनेवाले जनों को चिन्तामरिग के समान अभीष्ट फल प्रदान करते हैं, यह जानकर प्राणी आपके धर्म में दृढ अनुराग रखते हैं // 8 // स सेवाहेवाकैः श्रित इह परैर्यः शुभकृते, नियन्ता हन्तायं सजति गृहिणी गाढमुरसा। भवेदस्मात् कस्मात् फलमनुचितारम्भरभसाल्लतावृद्धिर्न स्याद् दवदहनतो जातु जगति // 6 // .हे जिनेश्वर ! सेवाभावी अन्यमतावलम्बियों ने अपने कल्याण के लिये जिस दूसरे देव का आश्रय लिया वह, खेद है कि (अपने उस आश्रय के फलस्वरूप) यम-नियम से युक्त होकर भी स्त्री के वक्षः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] स्थल से गाढ आलिंगन करता है। इस अनुचित कार्य की प्रवृत्ति से उसे अच्छा फल कैसे प्राप्त हो सकेगा ? क्योंकि संसार में दावाग्नि से लताओं की वृद्धि कभी नहीं होती है // 6 // प्रदीपं विद्यानां प्रशमभवनं कर्मलवनं, महामोहद्रोहप्रसरदवदानेन विदितम् / स्फुटानेकोद्देशं शुचिपदनिवेशं ज़िन ! तवोपदेशं निःक्लेशं जगदधिप ! सेवे शिवकृते // 10 // हे जिनेश्वर ! हे जगदीश्वर ! मैं अपने कल्याण के लिये समस्त विद्याओं का ज्ञान कराने में दीपकरूप, प्रशम-मानसिक शान्ति और इन्द्रियनिग्रह के लिये भवनरूप, कर्मों का नाशक, महामोह और ईर्ष्या के फैलाव को नष्ट करने में प्रसिद्ध, स्पष्ट अनेकान्त दर्शन से युक्त, पवित्र मार्ग की ओर प्रवृत्त करनेवाले और क्लेशरहित सुखप्रद आपके उपदेश का सेवन करता हूँ // 10 // . अगण्यैः पुण्यश्चेत् तव चरणपके रुहरजः, . शुचिश्लोका लोकाः शिरसि रसिका देव ! दधते। . तदा पृष्ठाकृष्टा धृतधृतिरमीषां कृतधियामविश्रान्तं कान्तं त्यजति न निशान्त जलधिजा // 11 // हे देव ! पवित्र यशवाले रसिकजन अपने अगणित पुण्यों से यदि आपके चरणकमल की रज को अपने सिर पर धारण करते हैं, तो इन विवेकियों के पीछे लक्ष्मी स्वयं आकृष्ट होकर पहुँचती है और उनके प्रिय सदन में सदा धैर्यपूर्वक स्थिर बन कर उन्हें कभी नहीं छोड़ती है // 11 // Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 56 उदारं यन्तारं तव समुदयत्पूष-विलसन्मयूषे प्रत्यूषे जिनप ! जपति स्तोत्रमनिशम् / प्रतप॑द्दानाम्भः-सुभगकरटानां करटिनां, घटा तस्य द्वारि स्फुरति सुभटानामपि न किम् ? // 12 // हे जिनेश्वर ! जो व्यक्ति उदित होते हुए सूर्य की किरणों से सुशोभित प्रातःकाल में ऊँचे स्वर से आपके उदार स्तोत्र का पाठ करता है--आपके गुण-गणों का स्मरण करता है, उसके द्वार पर मदजल के बहने से सुन्दर गण्डस्थलवाले हाथियों और योद्धाओं का समूह नहीं दिखाई देता है क्या ? अर्थात् उसके द्वार पर अनेक मदमत्त हाथी और सैनिक झूमते रहते हैं-वह सम्राट हो जाता है / / 12 / / महालोमक्षोभव्यसनरसिकं चेतसि यदि, स्फुरेद् वारं वार कृतभवनिकार त्वदभिधम् / तमोह्रासादासादितततविकासाय मुनये, तदा मायाकाया न खलु निखिला द्रुह्यति निशा // 13 // हे देव ! जन्मजनित दुःख को दूर भगानेवाला और महान् लोभ को नष्ट करने की प्रवृत्तिवाला आपका नाम यदि निरन्तर स्फुरित हो, तो अज्ञान के क्षीण हो जाने से प्राप्त विस्तृत विकासवाले मुनि से मायिक शरीरवाली अज्ञानरूपा रात्रि निश्चय ही द्वेष नहीं करती॥ 13 // स्थलीषु प्रभ्रष्टान् शिवपथपथः सङ्घभविनो, . * विना त्वामन्यः कः पथि नयति दीपानुकृतिभिः / प्रभावादुद्भूतस्तव शुचिरितः कीर्तिनिकरः, करोत्यच्छं स्वच्छं कलिमलिनमह्नाय भुवनम् // 14 // Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] . हे जिनेश्वर ! राह में भटकते हुए मोक्षमार्ग के पथिक संघ के भविकों को आपके अतिरिक्त दूसरा कौन दीप के समान ज्ञान से मार्ग पर ला सकता है ? अतः आपके इस प्रभाव से उत्पन्न पवित्र कीर्तिसमूह कलियुगीन क्रियाकलाप से मलिन भुवन को शीघ्र ही अपनी इच्छानुसार निर्मल बनाता है // 14 // विलोलः कल्लोलेजवन-पवनदिनशताहतोद्योतः पोत निकट विकटोद्यज्जलचरः। जनानां भीतानां त्वयि परिणता भक्तिरवना, जगबन्धो ! सिन्धोनयति विलयं कष्टमखिलम् // 15 // हे विश्ववत्सल जिनेश्वर ! अति चंचल तरंगों और वेगवान् पवन से युक्त सैंकड़ों दुर्दिनों से आहत प्रकाशवाले तथा पास ही भीषण जलचरों से घिरे हुए जहाजों में भयभीत प्राणियों की आपके प्रति भक्ति रक्षा करती है और समुद्रजनित सारे कष्ट नष्ट हो जाते हैं // 15 // . . अटव्यामेकाको नतनिखिलनाकोश ! पतितो वृतायां कीनाशैरयि ! (रिव) हरिकरिव्याघ्रनिकरः। जनस्तत्पूतात्मा भवन इव भीति न लभते, मनश्चेत् त्वन्नामस्मरणकरणोत्कं वितनुते // 16 // हे सर्वदेव नमस्कृत जिनेश्वर ! यमराज के समान (हिंस्र) सिंह, हाथी और बाघों के समूह से व्याप्त जंगल में घिरा हुआ व्यक्ति पवित्रात्मा बनकर यदि आपका नामस्मरण करने में अपने मन को लगा देता है तो जैसे वह अपने ही घर में बैठा हो और वहाँ कोई भय नहीं लगता वैसे ही निर्भय बन जाता है / / 16 // Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 61 जपन्तस्त्वन्नाम प्रतिदशमि मन्त्राक्षरमयं, दशानामाशानां श्रियमुपलभन्ते कृतधियः / दशाप्याचाम्लैस्तु त्रिदशतरवः सन्निदधते, कृतैः किं वा न स्याद् दशनिरयवासातिविलयः // 17 // हे जिनेश्वर ! प्रत्येक दशमी तिथि को मन्त्राक्षरमय आपके नाम का जप करते हुए बुद्धिमान् व्यक्ति दसों दिशाओं की लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं और दस प्रायम्बिल करने मात्र से तो कल्पवृक्ष सामने खड़े हो जाते हैं अथवा उनके करने से दशविध नरकों के वास की पीडा का क्या विलय नहीं होता ? अवश्य होता है // 17 // स्रजं भक्त्या जन्तुर्घनसुमनसां सौरभमयों, न यः कण्ठे धत्ते तव भवभयातिक्षयकृतः / कथं प्रेत्याभ्येत्य त्रिदशतरुपुष्पस्रजमहो, शुभायत्तां धत्तां त्रिदशतरुणी तस्य हृदये ? // 18 // हे जिनेश्वर ! जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक भव-भय की पीडा को नष्ट करनेवाले आपके कण्ठ में घने पुष्पों की सुगन्धित माला को नहीं पहनाता है उसके मरने के बाद सामने आकर हृदय पर देवरमणी कल्पवक्ष की सौभाग्यसूचक (प्रियवरणरूप) माला को कैसे डाले ? अर्थात् यदि यहां वह आपको माला पहनाता है तो स्वर्ग में उसे देवाङ्गना माला पहनाएगी / / 18 / / पिता त्वं बन्धुस्त्वं त्वमिह नयनं त्वं मम गतिस्त्वमेवासि त्राता त्वमसि च नियन्ता नतनृपः। भजे नान्यं त्वत्तो जगति भगवन् ! दैवतघिया, दयस्वातः प्रीतः प्रतिदिनमनन्तस्तुतिसृजम् // 16 // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ]. हे देव ! इस संसार में आप ही मेरे पिता हैं, आप ही बन्धु हैं, आप ही गति हैं, आप ही रक्षक हैं और राजाओं से नमस्कत हैं तथा आप ही शासक हैं / हे भगवन् ! संसार में आपको छोड़कर देवता की बुद्धि से मैं अन्य देव की सेवा नहीं करता हूँ। अतः प्रतिदिन अनेक प्रकार से स्तुति करनेवाले इस जन पर कृपा कीजिये // 16 // जगज्जेत्रश्चित्रैस्तव गुणगणैर्यो निजमनः, स्थिरीकृत्याकृत्याद् भृशमुपरतो ध्यायति यतिः। इहाप्यस्योदेति प्रशमलसदन्तःकरणिकासमप्रेमस्थेमप्रसरजयिनी मोक्षकरिणका // 20 // हे जिनेश्वर ! जो श्रमणमुनि जगत् को जीतनेवाले, आश्चर्यकारी गुणगणों से अपने मन को स्थिर बनाकर अनुचित कर्म से दूर रहता हुआ निरन्तर आपका ध्यान करता है उस मुनि की प्रशम से शोभित अन्तःकरणवाली, समतारूपी प्रेम की स्थिरता को जीतनेवाली मोक्षकणिका यहीं उदय होती है // 20 // फणैः पृथ्वी पृथ्वों कथमिह फरणीन्द्रः सुमृदुभिहरिन्नागा रागात् कथमतिभरक्लान्ततनवः / क्व कर्मों वा धत्तां निमृततनुरेको जलचरः, पटुर्धर्मः शर्मप्रजन ! तव तां धर्तुमखिलाम् // 21 // हे कल्याणजन्म जिनेश्वर ! इस जगत् में सर्पराज अपने कोमल फणों को बहुत बड़ी पृथ्वी को कैसे धारण करे ? अतिभार से खिन्न दिशाओं के हाथी रागपूर्वक उस पृथ्वी को कैसे धारण करें अथवा जिसका शरीर छिपा रहता है और जो जलचर है वह अकेला उस पृथ्वी को कैसे धारण कर सकता है। अतः केवल आपका धर्म ही Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समस्त पृथ्वी को धारण करने में समर्थ है / / 21 // ज्वलन् ज्वालाजालंज्वलनजनितैर्देव ! भवता, बहिः कृष्टः काष्ठात् कमठहठपूरैः सह दितात / नमस्कारैः स्फारैर्दलितदुरितः सद्गुणफरणी, किमद्यापि प्रापि प्रथितयशसा नैन्द्रपदवीम् // 22 // हे देव / आपने कमठ नामक तपस्वी के दुराग्रहवश प्राग की लपटों में जलते हुए सर्पराज को लकड़ी चीर कर बाहर निकाला और तदनन्तर प्रसिद्ध यशस्वी आपने उदार नमस्कार-मन्त्र के उपदेश से उस सद्गुणशाली सर्प को निष्पाप बनाकर आज भी इन्द्रपदवी नहीं दिलायी क्या ? // 22 // महारम्भा दम्भाः शठकमठपञ्चाग्निजनितास्त्वया दोर्णाः शीर्णाखिलदुरितकौतूहलकृता। किमाश्चर्य वयं तदिह निहताः किं न रविरणा, . विनायासं व्यासं रजनिषु गता ध्वान्तनिकराः // 23 // : हे पार्श्वजिनेश्वर ! कुतूहलपूर्वक समस्त पापों को नष्ट करनेवाले आपने दुष्ट कमठ के पञ्चाग्निजनित आडम्बरपूर्ण अभिमान को चूर्ण कर दिया यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यहाँ सूर्य ने बिना प्रयास के ही रात्रि में सर्वत्र फैले हुए अन्धकार समूह को नष्ट नहीं किया है क्या ! // 23 // ज्वलत्काष्ठकोडात् फरिणपतिसमाकर्षणभवं, * यशः कर्षत्युच्चैस्तव परयशः कारणगुणात् / इदं चित्रं काष्ठाद् बहिरपसृताज्जातमहितो, न यत् स्पष्टं काष्ठापसरणरसं हन्त ! वहति // 24 // Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64.] हे देव ! जलती हुई लकड़ी के बीच से सर्पराज को निवाल लेने का आपका यश कारणगुण से दूसरों के यश को हठात् खींच लेता है। किन्तु आश्चर्य यह है कि उस काष्ठ के चीरने से बचाये गये सर्प के कारण तो आपका यश बढ़ा पर यह स्पष्ट है कि आपका यश काष्ठ से बाहर निकालने के रस को नहीं धारण करता है // 24 // द्विषत्ताप-व्याप-प्रथन-पटुभिर्मोह-मथनः, प्रतापराक्रान्तस्तव न कमठः , कान्तिमधृत / महोभिः सूरस्य प्रथितरुचिपूरस्य दलितद्युतिस्तोमः सोमः श्रयति किमु शोभालवमपि ? // 25 // हे जिनेश्वर ! शत्रुओं को सन्तप्त करने में समर्थ और मोह का मथन करनेवाले आपके प्रभावों से आक्रान्त उस कमठ ने कान्ति को धारण नहीं किया। क्योंकि प्रशस्त प्रभा से पूर्ण सूर्य के तेज से दलित पूर्णकान्ति युक्त चन्द्रमा क्या कभी उस सूर्य की शोभा के लव को भी प्राप्त करता है ? / / 25 // विलासः पद्मानां भवति तमसामप्युपशमः, प्रलीयन्ते दोषा व्रजति भवपङ्कोऽपि विलयम् / प्रकाशः प्रोन्मीलेत् तव जिन ! जगज्जित्वरगुण ! प्रतापानां भानोरिव जगदभिव्याप्तिसमये / / 26 / / हे जगत् को जीतनेवाले गुणों से विभूषित जिनेश्वर ! सूर्य के प्रताप के समान आपके प्रताप के संसार में व्याप्त हो जाने पर कमल और कमला का विकास होता है, अन्धकार और अज्ञान का नाश होता है, रात्रि और दोष समूह मिट जाते हैं, सांसारिक पाप और सांसारिक मोह नष्ट होता है और प्रकाश-ज्योति तथा अध्यात्मज्ञान पर्याप्त फैलता है / / 26 // Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमु स्पष्टः कष्टः किमु परिणतरासनशतः, प्रयोगा योगानां नहि भववियोगाय पटवः / त्वदाज्ञा चेदेका शिरसि न विवेकानुपहृता, विना वीर्य कार्य न भवति नृणां भेषजगरणः // 27 // हे जिनेश्वर ! यदि आपकी एक आज्ञा विवेकपूर्वक सिर पर धारण नहीं की गई तो तपस्या आदि-जिनमें कि स्पष्ट ही कष्ट हैउनसे क्या ? सैंकड़ों आसन करने से क्या ? योगों के प्रयोग से क्या ? वे भव-बन्धन से छुड़ाने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् आपकी आज्ञा को शिरोधार्य किये बिना तप, आसन एवं योग सभी व्यर्थ हैं। क्योंकि यदि मनुष्यों में वीर्य नहीं होता है, तो अन्य सैंकड़ों ओषधियों से कोई काम नहीं चलता है / / 27 // नराः शीर्षे शेषामिव तव विशेषार्थविदुषः, शतै राज्ञामाज़ामिह दधति ये देव ! महिताम् / अविश्रामस्तेषामहमहमिकायातनृपतिप्रणामरुद्दामः समुदयति कोतिर्दिशि दिशि // 28 // हे जिनेश्वर ! जो मनुष्य यहाँ सैंकड़ों राजाओं से पूजित और विशेषार्थ के ज्ञाता ऐसे आपकी आज्ञा को शिरोभूषण के समान धारण करते हैं, उन मनुष्यों की कीर्ति सदा मैं पहले, मैं पहले इस भाव से आये हुए राजाओं के प्रणामों से शोभित होकर सर्वत्र दिशाविदिशाओं में फैलती है // 28 // जगत्स्वामी चामीकररजतरत्नोपरचितैविशालस्त्वं सालैः परमरमरणीयद्युतिरसि / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] . तव ब्रूते भूतेः समवसरणक्षमाप्यतिशयं, .. ध्वजव्याजभ्राजत्सरसरसनादुन्दुभिरवः // 26 // हे जिनेश्वर ! सुवर्ण, रजत एवं रत्नों द्वारा निर्मित विशाल साल वृक्षों से परम सुन्दर कान्तिवाले आप जगत् के स्वामी हैं। आपकी समवसरणभूमि भी ध्वजा के बहाने से शोभित सुन्दर जिह वारूपी दुन्दुभि के शब्दों से आपके ऐश्वर्यातिशय को कह रही है // 26 // : सभायामायाताः सुरनरतिरश्चां तव गणाः, स्फुटाटोपं कोपं न दधति न पीडामपि मिथः / न भीति नानीति त्वदतिशयतः केवलमिमे, सकर्णाः कर्णाभ्यां गिरमिह पिबन्ति प्रतिकलम् // 30 // हे प्रभो ! देव, मानव और तिर्यञ्चों के समूह आपकी सभा में आने पर स्पष्ट रूप से क्रोध को छोड़ देते हैं, पीडा से मुक्त हो जाते हैं, परस्पर भयभीत नहीं होते हैं और न्यायपूर्वक व्यवहार करते हैं / यह सब आपके अतिशय का ही प्रताप है कि वे सावधान होकर सदा अपने कानों से आपकी वाणी को श्रवण करते हैं / / 30 // गिरः पायं पायं तव गलदपायं किमभवन, सुधापाने जाने नियतमलसा एव विबुधाः / तदक्षुद्रा मुद्रा सितमहसि पीयूषनिलये, निजायत्ता दत्ता जठरविलुठल्लक्ष्ममिषतः // 31 // हे जिनेश्वर ! निर्विघ्नतापूर्वक आपकी वाणी को बार-बार सुनकर देवगण अमृतपान के प्रति भी आलसी हो गये हैं क्या? इसीलिये तो उन्होंने अपने अधीन जो बड़ी मुद्रा थी उसे शुभ्रकिरण चन्द्रमा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 67 को उसके उदर में दिखाई देनेवाले चिह्न के बहाने दे डाली // 31 // तनीयानप्युच्चन पटुरशनीया परिभवः, पिपासापि क्वापि स्फुरति न भवद्गीः श्रवणतः। भवेत् साक्षाद् द्राक्षारसरसिकता हन्त ! बहुधा, सुधास्वादः सद्यः किमु समुदयेन्नाधिवसुधम् // 32 // हे जिनेश्वर ! आपकी अमृत के समान वाणी को सुनने से भोजन सम्बन्धी पराभव तनिक भी नहीं होता, अर्थात् क्षुधा शान्त हो जाती है और प्यास भी नहीं लगती, बहुधा ऐसा लगता है कि हम द्राक्षारस के रसिक बन गये हैं तथा ऐसी तृप्ति का अनुभव होता है कि अब अमृत का आस्वाद भी पृथ्वी पर अपेक्षित नहीं है // 32 // ब्रुवारणौर्णिजिन ! सितकर कीतिनिकर, तव प्रत्न रत्न:टिति घटिता धर्मपरिषत् / अमन्दा मन्दारदुमकुसुमसौरभ्यसुभगा, न किं चित्ते धत्ते भुवन-भविना मेदुरमुदम् ? // 33 // हे देव ! आपका कीर्तिसमूहं चन्द्रमा है ऐसा कहते हुए देवताओं ने पुराने रत्नों से शीघ्र ही धर्मपरिषद् की रचना कर डाली। वह धर्मसभा सुन्दर पारिजात के पुष्पों की सुगन्ध से सुरभित होकर प्राणियों के चित्त में महान् हर्ष को नहीं धारण करती है क्या ? / / 33 / / "अशोक" स्ते श्लोकश्रवणजनितोऽयं जयति कि, शिरो धुन्वन् भूयश्चपलदलदम्भादतिमुदः / समस्तोदस्तोद्यदुरितपटलस्य प्रतिभुवः, शिवश्रीलाभस्थ प्रथितगुणरत्नव्रजभुवः // 34 // Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ) हे जिनेश्वर ! उदीयमान समस्त पापसमूह को दूर भगानेवाला, मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति का प्रतिनिधि, प्रसिद्ध गुणरत्नों की खान ऐसे आपके गुणवर्णन रूप यश के सुनने से उत्पन्न अतिहर्षवाला तथा बारबार अपने चञ्चल पत्तों के बहाने सिर को कँपाता हुआ यह अशोक वृक्ष जय को प्राप्त कर रहा है क्या ? // 34 // जगभानोर्जानोः सममसमसौरम्यकलितं, पुरः के वा देवास्तव न दधते "पुष्पनिकरम्'। प्रसर्पत्कन्दर्पस्मयमथन-मुक्ताश्रव ! भवत्प्रभावादस्यापि व्रजति नियतं बन्धनमधः / / 35 // हे प्रभो ! जगत् में सूर्य के समान तेजस्वी आपके सामने जानुपर्यन्त उत्कृष्ट सुगन्धिवाले पुष्पों को कौन देव नहीं रखते ? और हे बढ़ले हुए कन्दर्प के अभिमान का मर्दन करनेवाले जिनेश्वर ! आपके प्रभाव से उस काम का बन्धन भी निश्चितरूप से निम्न हो जाता है // 35 // गलद्रोधं बोधं निजनिजगिरा श्रोतृनिकरा, लभन्ते हन्तेह त्वदुदित "गिरा" नात्तभिदया। इमां ते योगद्धि न खलु कुशलाःस्पद्धितुमहो !, परे घाम कामद् गगनमिव सूर्यस्य शलभाः // 36 // हे जिनेश्वर ! यहाँ भेदभाव रहित आपकी देशनारूपी वाणी से श्रोता लोग अपनी-अपनी वाणी के द्वारा बिना किसी रुकावट के ज्ञान को प्राप्त करते हैं। आपकी इस योग-ऋद्धि से स्पर्धा करने के लिये कोई समर्थ नहीं हो सकते, क्यों कि आकाश में विचरण करते हुए सूर्य की किरणों के साथ पतंगे स्पर्धा नहीं कर सकते हैं // 36 // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखेन्दुज्योत्स्नेव स्फुटतनुलसत्कान्तियमुनाप्रशंसा हंसाली किमु किमुत पुद्धिरखिला ? / स्मितश्रीः किं लक्ष्म्याः किमुत परमध्यानघटना ? प्रभो ! त्वन्मौलिस्था विलसति सिता "चामरततिः" // 37 // हे प्रभो ! आपके सिर पर विराजमान जो श्वेत चामर-पंक्ति शोभित हो रही है, वह मानो आपके मुखरूपी चन्द्रमा की चाँदनी है अथवा स्पष्टरूप से शरीर में शोभित होती हुई कान्तिरूप यमुना में प्रशस्त हंस की श्रेणी है क्या ? किं वा आपकी सारी पुण्यों की ऋद्धि तो नहीं है ? अथवा लक्ष्मी की मुसकराहट की शोभा है ? अथवा यह आपके आत्मध्यान की रचना तो नहीं है ? / / 37 ! / न कि देवाः सेवां विदधति "मृगेन्द्रासन"-जुषस्तव प्रौढाम्भोदप्रतिम-वपुषः पुण्यजनुषः / प्रदेशे स्वर्णाद्रः. क्वचन रुचिरे नन्दनवने, प्रियङ्गोः सङ्गोत्काः किमु न सततं षट्पदगरणाः // 38 // हे जिनेश्वर ! देवतालोग प्रतिभाशाली, मेघ के समान शरीरवाले, पुण्यजन्मा और सिंहासन पर विराजमान सुमेरु के प्रदेश के कहीं सुन्दर नन्दनवन में आपकी सेवा नहीं करते हैं क्या ? क्योंकि प्रियंगु वृक्ष के संग के लिए भँवरे सदा ही क्या उत्सुक नहीं रहते हैं ? // 38 // प्रभून्नेन्दुभं यः प्रभविभुमुखीभूय न सुखी, तमोग्रासोल्लासस्तदिह ननु मय्येव पतितः / इदं मत्वा सत्त्वात् किमु तव रविर्मोलिमधुना, श्रितो नेतश्चेतःसुखजनन-“भामण्डल''-मिषात् // 39 // Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. 1 हे स्वामिन् ! प्रभा से समर्थ राहु के सामने आने पर चन्द्रमा फिर सुखी नहीं हुआ, इसलिये यहाँ राहु के ग्रास का उल्लास मुझ पर ही आ गिरा, यह जानकर सूर्य ने चित्त में सुखकारक 'भामण्डल' के बहाने से आपके पराक्रम को महत्त्वपूर्ण मानकर आपके मस्तक के पीछे आश्रय नहीं लिया है क्या? // 39 // स्फुरत्कैवल्य-श्रीपरिणयनदिव्योत्सवमिव, त्रिलोकीलुण्टाकस्मरजयरमाताण्डवमिव। सदा धामस्थानप्रसरमिव शंसन्नतितरां, तवाकाशेऽकस्मात् स्फुरति पुरतो "दुन्दुभिरवः" / / 40 // हे जिनेश्वर ! देदीप्यमान मोक्षलक्ष्मी के विवाह के दिव्योत्सव की तरह, तीनों लोकों को लूटनेवाले कामदेव की जयलक्ष्मी के ताण्डवनृत्य की तरह सदा तेजोमय शक्ति के वेग के समान कहता हुआ 'दुन्दुभिशब्द' आपके सामने आकाश में सहसा अत्यन्त स्फुरित हो रहा है॥४०॥ परं चिह्न विश्वत्रितय-जय-दिव्यव्यवसितेः कृतव्यापत्तापत्रयविलय-सौभाग्य-निलयः। घृतं हस्तैः शस्तै स्त्रिदशपतिभिः प्रेमतरलैभवन्मौलौ "छत्रत्रय"मतितरां भाति भगवन् ! // 41 // हे भगवन् ! तीनों लोकों की विजय के दिव्य व्यवसाय का परमप्रतीक, विश्वव्यापी, तीनों तापों का नाश करनेवाला,. सौभाग्य का प्रागार और प्रेमा देवेन्द्र के सुन्दर हाथों से आपके मस्तक पर लगाया हुआ 'छत्र-त्रय' तीन छत्रों का समूह अत्यन्त शोभित हो रहा है // 41 // Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 71 विलासो नारीणामिह खलु पराभूतिरुदिता, प्रसिद्धा चान्येषां तव च परमोहव्यवसितिः। इदं सर्व साम्यं तदपि तव तैनँद तुलनां, सहर्ष भाषन्ते परमकवयः कौतुकमदः // 42 // हे जिनेश्वर ! इस जगत में नारीणां-स्त्रियों का विलास पराभव करनेवाला. कहा गया है, और न+अरीणां-शत्रुओं के (काम-क्रोध आदि शत्रुओं के) विलास का प्रभाव परा भूतिः उत्कृष्ट ऐश्वर्य कहा गया है। इसी प्रकार अन्य देवों का पर-मोह (अन्य स्त्री-धनादि का मोह। रूप व्यवसाय प्रसिद्ध है और आपका परम+ऊह (उत्कृष्ट परमात्म सम्बन्धी ज्ञान) रूप व्यवसाय भी प्रसिद्ध है, यह सब सामान्य है। तथापि महान् कवि जन उन देवों के साथ आपकी सहर्ष तुलना नहीं करते हैं यह उचित ही है तथा जो तुलना करते हैं वे (परम् + अकवय) पूर्ण रूप से अकवि ही हैं / / 42 / / - (प्रस्तुत पद्य में 'नारीणां, पराभूतिः, परमोह और परमकवयः' आदि पदों में श्लेष अलङ्कार का चमत्कार है / ) अपारव्यापारव्यसनरसनिर्माणविलयस्थितिक्रीडावीडा न खलु तव विश्वे विलसति / न कोपं नारोपं न मदिरोन्मादमनिशं, न मोहं न द्रोहं कलयसि निषेव्योऽसि जगतः // 43 // हे जिनेश्वर ! आपकी इस विश्व में अपार व्यापाररूप व्यसन से युक्त निर्माण, नाश और पालन सम्बन्धी विलास की लज्जा कहीं दिखाई नहीं देती है। तथा आप न क्रोध को, न आरोप को, न मदरूपी मदिरा के उन्माद को, न मोह को और न द्रोह को धारण . करते हैं, अतः आप संसार के सर्वथा सेवनीय हैं // 43 // Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] . भवेद मूतावेशः परतनुनिवेशः कथमहो !, परेषां स क्लेशः स्फुरति हि महामोहवशतः। न चेदेवं देवं यदि चपलयेन्नर्मरचना, विलीना दोनासो तदिह भुवनेऽधोरिमकथा // 44 // हे जिनेश्वर ! अन्य देवों को महामोह के अधीन होने से भूतावेश (भूत-प्रेत और पंचमहाभूतों का आवेश) क्लेशकारक होता है किन्तु वह भूतावेश, दूसरों के शरीर में ही प्रवेश करनेवाला है, आपको कैसे हो सकता है ? क्योंकि आप तो मोहरहित हैं और धीर हैं। यदि ऐसा न होता तो आपको नर्म-शृंगारादि की रचना चञ्चल बना देती, किन्तु वैसा नहीं होने से बेचारी वह अधीरता की कथा इस संसार से ही उठ गई // 44 // तवौपम्यं रम्यं यदि हतधियो हन्त ! ददते, परेषामुल्लेखात् प्रकृतिहितदानस्य जगति / न किं ते भाषन्ते विषतरुषु कल्पद्रुतुलनां, प्रलापाः पापानां सपदि मदिरापानजनिताः // 45 // हे जिनेश्वर ! जो कोई बुद्धिहीन व्यक्ति इस संसार में स्वाभाविक हित करनेवाले आपकी सुन्दर उपमा को दूसरों का उल्लेख करके प्रकट करते हैं तो क्या वे विषवृक्षों से कल्पवृक्षों की तुलना नहीं करते ? वस्तुतः पापियों के प्रलाप तत्काल मदिरापान करने से उत्पन्न प्रलाप के समान ही होते हैं / / 45 / / निशाभ्यः प्रत्यूषे विफल-बदरीभ्यः सुरतरौ, विषेभ्यः पीयूषे चुलुकसलिलेभ्यो जलनिधौ। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 73 गिरिभ्यः स्वर्णाद्रौ करिणि हरिणेभ्यः खलु यथा, तथान्येभ्यो नाथ ! त्वयि गुणसमृद्धरतिशयः // 46 // हे नाथ जिनेश्वर ! रात्रि से प्रातःकाल में, निष्फल बेर के वृक्ष से कल्पवृक्ष में, विषों से अमृत में, चुल्लूभर पानी से समुद्र में, पहाड़ों से समुद्र में और हरिणों से हाथी में जैसे गुणसमृद्धि का अतिशय है, उसी प्रकार अन्यदेवों से आपमें गुण समृद्धि का अतिशय है // 46 / / मुखं ते निस्तन्द्रं जितसकलचन्द्रं विजयते, कृपापात्रे नेत्रे हसितकजपत्रे विलसतः। त्वदको वामाक्षीपरिचयकलोज्झित इति, प्रभो ! मूर्तिस्फूर्तिस्तव शमरसोल्लासजननी // 47 // हे जिनेश्वर ! पूर्णचन्द्र जीतनेवाला प्रापका प्रफुल्लित मुख विजय को प्राप्त हो रहा है, करुणा के पात्र, कमलदल का उपहास करनेवाले कृपापात्र आपके दोनों नेत्र शोभित हो रहे हैं, आपका अङ्क भी सुन्दरियों के परिचयरूप कलङ्ग से रहित है, इसलिए हे प्रभो! आपकी मूर्ति की शोभा शमरस के उल्लास को उत्पन्न करनेवाली है // 47 / / तरी संसाराब्धे वनभविनां निर्वृतिकरी, सदा सद्यः प्रोद्यत्सुकृतशत-पीयूष-लहरी / जरीजम्भड्डिम्भत्रिदशमरिणकान्तिस्मयहरो, वरीवति स्फूतिर्गतभव ! भवन्मूर्तिनिलया // 48 // हे वीतभव जिनेश्वर ! संसार-सागर की नौका के समान, जगत् के प्राणियों को मोक्ष दिलानेवाली, सर्वदा तत्काल उदीयमान सैंकड़ों पुण्यों की अमृत-लहर के समान, पर्याप्त प्रकाश करती हई नवजात देवमणि की कान्ति के गर्व को दूर करनेवाली आपकी मूर्ति में Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] निवास करनेवाली शोभा-स्फूर्ति बार-बार हो रही है // 48 // इमां मूर्तिस्फूति तव जिन ! समुवीक्ष्य सुदृशां, सुधाभिः स्वच्छन्दं स्नपितमिव वृन्दं ननु दृशाम् / कुदृष्टीनां दृष्टिर्भवति विषदिग्धेव किमतो, विना घूकं प्रीतिर्जगति निखिले किन तरणेः ? // 4 // हे जिनेश्वर ! सुदृष्टिवालों की दृष्टियों का समूह आपकी इस मूर्ति की शोभा को देखकर अपनी इच्छानुसार अमृत से स्नान किये हुए की तरह हो जाता है और कूदृष्टिवालों की दृष्टि विष से लिप्त की तरह हो जाता है तो इससे क्या ? क्योंकि उल्लू को छोड़ कर सारे विश्व में सूर्य के प्रति अनुराग नहीं होता है क्या ? // 46 // इमां मूर्तिस्फूति तव जिन ! गतापायपटलं, नृणां द्रष्टुं स्पष्टं सततमनिमेषत्वमुचितम् / न देवत्वे ज्यायो विषय-कलुषं केवलमदो, निमेषं निःशेषं विफलयतु वा ध्यानशुभहक् // 50 // हे जिनेश्वर ! आपकी इस मूर्ति की स्फूर्ति-अलौकिक प्रतिभा को देखने के लिये लोगों का पापसमूह से रहित होकर सर्वदा अपलकदृष्टि होना वास्तव में उचित है। देवों में वह अपलकदृष्टिभाव श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि देवों की अपलकदृष्टि विषय-वासना से दूषित है अथवा आपका ध्यान करनेवाली शुभष्टि समस्त निमेष को निष्फल करे // 50 // भवद्ध्यान-स्नानप्रकृतिसुभगं मे सुहृदयं, पवित्रा चित्रा मे तव गरिमनुत्या भवतु गोः / प्रणामः सच्छायस्तव भवतु कायश्च सततं, त्वदेकस्वामित्वं समुदितविवेकं विजयताम् // 51 // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 75 हे जिनेश्वर ! आपके ध्यानरूपी स्नान से मेरा हृदय स्वाभाविक सुन्दर हो जाए, मेरी वाणी आपको महान् प्रणाम करने से पवित्र और बहुरंगी बन जाए, मेरा शरीर आएको निरन्तर प्रणाम करने से सुन्दर कान्तिमान् वन जाए और विवेकयुक्त आपकी एक स्वामिता विश्वमें विजय को प्राप्त करे / / 51 // प्रहीनत्वख्याति वहसि महसा पीन-सुषमां, क्षमा विभ्रद भूयः फरणमणिघृणि-ध्वस्ततिमिरः / तथाऽप्येतच्चित्रं क्षरणमपि न कृष्णाश्रयणकृद्, न वाधो निर्बाधो वसतिमितसिद्धिर्वितनुषे / / 52 // हे पार्श्व जिनेश्वर ! आप अहि+इन सर्पराज की प्रसिद्धि अथवा महत्ता की ख्याति को धारण करते हो, तथा फरणों के मणियों की कान्ति से अन्धकार का नाश कर क्षमा=सहनशीलता और पृथ्वी को धारण करते हुए तेज से विशाल परमशोभा को प्राप्त कर रहे हो, फिर भी यह आश्चर्य है कि क्षणमात्र भी कृष्ण-अन्धकार का प्राश्रय करनेवाले नहीं हो अथवा तृष्णा का आश्रय करनेवाले नहीं हो किंवा बाधारहित सिद्धि प्राप्तकर नीम्न लोक में वास नहीं करते हो / 52 // - विशेष प्रस्तत पद्य में उपाध्यायजी महाराज ने व्यक्त किया है है कि-सर्पराज में महत्ता की ख्याति नहीं है, न क्षमा ही है, वह अन्धेरे का प्राश्रय करनेवाला है और अधोवसति= बिल में रहनेवाला है। भगवान् पार्श्वनाथ में सर्पराज की ख्याति करते हुए भी महत्ता, क्षमा आदि विशिष्ट गुण होने से 'व्यतिरेक' अलङ्कार है और अहीनत्व, क्षमा आदि में श्लेष भी है / अतः इस पद्य में संसृष्टि अलङ्कार है। गलत्पोषा दोषास्त्वयि गुरणगरणाः क्लृप्तशरणा, गतक्षोभा शोभा हृदयमपि लोभादुपरतम् / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] त्विषां पात्रं गात्रं वदनमतिलावण्यसदनं, तवाक्षुद्रा मुद्रामृतरसकिरः पर्षदि गिरः // 53 // हे जिनेश्वर ! आप में सभी दोष गल गये, गुण-समूह आश्रय लिए हुए है, आपका हृदय भी लोभ से रहित है, आपका शरीर कान्तियों का पात्र है, आपका मुख परमसौन्दर्य का आगार है और आपकी महती वाणी सभा में प्रसन्नता से अमृत के रस को फैलाती है / / 53 // विना बारणेविश्वं जितमिह गुणैरेव भवता, . विना रागं चित्तं भुवनभविनां रञ्जितमपि / विना मोहं मुग्धः श्रितबुधविनाङ्गीकृतशिवो, विरूपाक्षाकारं विगलितविकारं विजयसे // 54 // हे जिनेश्वर / आपने इस जगत् में बिना बाणों के केवल धनुष की डोरी से ही जगत् को जीत लिया, राग के बिना ही संसार के प्राणियों के चित्त को रंग दिया, आप मोह से रहित होकर भी मुग्ध हैं, बुध का आश्रय लिए बिना ही शिव को स्वीकृत किए हुए हैं तथा विरूपाक्ष शिव के आकार के बिना ही जिसके समक्ष विकार से लोग गलित हो जाते हैं ऐसे कामदेव को जीत रहे हैं। यहाँ विरोधाभास अलंकार है। तदनुसार 'गुण, राग, मुग्ध, शिव और विगलितविकार' शब्दों में श्लेष मानकर दूसरा अर्थ करने से विरोध हट जाता है / जैसे-आपने बिना युद्ध किए अपने प्रशस्तगुणों से जगत् को जीत लिया, राग के बिना ही प्राणियों के चित्त को अपनी भक्ति में रंग लिया, मोह रहित होकर भी सरल प्रकृतिवाले हैं, पण्डित अथवा ज्ञानी का आश्रय लिए बिना ही परम शान्ति को प्राप्त हैं और विकार से रहित होकर विजयी हो रहे हैं / / 54 // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 77 गुणास्ते स्पर्धन्ते प्रसृमरशरच्चन्द्रनिकरान्, कथं व्यक्तं रक्तं भवति हृदयं तैर्भवभृताम् / कठोर चेतस्ते यदपि कुलिशाद् घोरनियमे, कथं विश्वे विश्वेश्वरवर ! कृपाकोमलमदः // 55 // हे जिनेश्वर ! आपके गुण शरत्कालीन निर्मल एवं स्निग्ध चन्द्रमा की किरणों से स्पर्धा करते हैं तो फिर वे इतने शुद्ध होकर भी प्राणियों के हृदय को स्पष्ट रूप से कैसे रंग देते हैं ? और आपका चित्त घोर नियमों के पालन में वज्र के समान कठोर है तो फिर वह हेजगन्नाथ ! संसार में करुणा से कोमल किस प्रकार बना हुआ है ? / / 56 // मुनीनां ध्यानान्धौ तव मुखविधोर्दर्शनरसात्, तरङ्ग रिङ्गविभः प्रशमरससंज्ञैः प्रसृमरैः / भृशं फेनायन्ते हतमदनसेना गुणगणाःतवोच्चैः कैलाशद्युतिमदभिदायां सुनिपुणाः॥५६ // हे जिनेश्वर | मुनिजनों के ध्यानरूपी समुद्र में आपके मुखरूपी चन्द्रमा को देखने की इच्छा से सर्वत्र व्याप्त प्रशमरसरूपी चञ्चल तरंगों से कैलाश पर्वत की शुभ्रता के मद का भेदन करने में कुशल ऐसे आपके गुणसमूह कामदेव की सेना को नष्ट करके निरन्तर फेन की तरह चमक रहे हैं // 56 / / गुणास्ते ते हंसास्त्रिजगदवतंसायित ! चिरं, भजन्ते ये ध्यानामृतरसभृतं मानसमदः / भिदां तन्वन्त्येते बत परयशोमौक्तिकगणैः, कृताहाराः स्फारा न किमु पयसोर्दोषगुरणयोः // 57 // Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] __ हे तोनों जगत् के मुकुटालङ्कार जिनेश्वर ! आपके वे सभी गुण हंसों के समान हैं जो ध्यानरूपी अमृतरस से पूर्ण हृदयरूपी मानससरोवर में निवास करते हैं, ये आपके गुणरूपी हंस दूसरों के यशरूपी मोतियों का पाहार करके तथा आपके उत्तम यशरूपी मोतियों की माला को धारण करके पानी और दूध के गुणख्यापन में चतुर नहीं हैं क्या ? अर्थात् वे अवश्य ही चतुर हैं जो दूसरों के सामान्य जल जैसे गुणों से आपके दूध जैसे गुणों को पृथक कर देते हैं // 57 // [यहाँ 58 से 62 तक के पद्य प्राप्त नहीं।] . विधिः कारं कारं गणयति नु रेखास्तव गुणान्, सुधाबिन्दोरिन्दोवियति विततास्तारकमिषाः / प्रतिश्यामायामान व्रजति न विलासोऽस्य निधनं, ततो रिक्ते चन्द्र पुनरपि निधत्तेऽमृतभरम् // 63 // हे जिनेश्वर ! विधाता चन्द्रमा के अमृत की बूंदों से आकाश में फैले तारकों के बहाने से बार-बार रेखा-चिह्न बनाकर आपके गुरणों की गणना करता है, प्रत्येक कृष्णपक्ष की रात्रि तक भी विधाता का यह गणना कार्य समाप्त नहीं हो पाता। अतः उस चन्द्रमा के रिक्त हो जाने से उसमें वह पुनः अमृत भरता है। (इस तरह ज्ञात होता है कि आपके गुण अनन्त हैं / ) // 63 // महोराहो हो मलिनमलिपङ्क्तिश्च धवला, बलाकामाकारा द्विकवृकपिकानामनुसृताः। न शैलाः कैलाशा इव किमभवन्नजनमुखा, भृशं विश्वं विश्वं शिसयति (?) भवत्कोतिनिकरे // 64 // हे जिनेश्वर ! आपके निर्मल कीर्तिसमूह के सारे विश्व में व्याप्त हो जाने पर राहु का तेज-अन्धकार दिन से मलिन अर्थात् प्रकाश रूप Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 76 में परिणत नहीं हुआ क्या ? भँवरों की पंक्ति धवल-श्वेत नहीं हुई है क्या ? द्विक काक वृक-भेड़िया और कोकिल जैसे काले पक्षी और पशु भी बलाकारों के आकार अर्थात् नितान्त श्वेत स्वरूप को प्राप्त नहीं हुए हैं क्या ? तथा कज्जलादिक पर्वत भी कैलाश के समान शुभ्र नहीं हुए हैं क्या ? अर्थात् आपकी कीति की श्वेतता से नितान्त कृष्ण वस्तुएँ भी श्वेत बन गई हैं // 64 / / यशोभिस्तेऽशोभि त्रिजगदतिशुभ्र शमितस्तिथिः सा का राका तिथिरिह न या हन्त ! भवति / कुहूर्नाम्नैवातः पिकवदनमातत्य * शरणं, श्रिता साक्षादेषा परवदनवेषा विलसति // 65 // हे जिनेश्वर ! आपके नितान्त श्वेत गुणों ने तीनों जगत् को शोभित कर दिया है, अतः आपके गुणों के सामने वह राका तिथि क्या है ? जो कि तिथियों में तिथि भी नहीं मानी जाती है। इसलिये वह राका-कुहू कोकिल का शब्द (और नष्ट चन्द्रकला वाली अमावास्या) के नाम से ही कोकिल के मुख में शरण लेनेवाली दूसरे के मुख की शोभा बन रही है // 65. // यशोदुग्धाम्भोधौ भवति तवं मीनाकृति नभो, ध्रुवं स्फारास्तारा जलकरणतुलामोश ! दधते / किमावर्तः श्वनं गिरिशगिरिगौरीशशशभृत्, त्रिपिण्डी डिण्डीरद्युतिमुपगता नास्ति किमिह // 66 // हे जिनेश्वर स्वामी ! आपके यशरूपी समुद्र में आकाश मछली के समान और अनन्त तारे जल के कणों की समानता को निश्चित ही धारण कर रहे हैं। और उसमें जल के भँवर बिल के समान और कैलाश, महादेव एवं चन्द्रमा इन तीनों का समुदाय फेन की कान्ति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 80 ] की समानता को प्राप्त नहीं हो रहे हैं क्या ? // 66 / / प्रयागेऽस्मिन् विश्वे प्रसरति भवत्कोतिरनिशं,, रसंस्तुङ्गा गङ्गा गिरिशगिरिशीतांशुविशदा। परेषां निःशेषा जिनवर ! कुकीर्तिश्च यमुना, घनाम्भोदश्यामा ननु महसहस्रापतदिह / / 67 // हे जिनेश्वर ! प्रयागरूप इस विश्व में कैलाश एवं चन्द्रमा के समान निर्मल जल से परिपूर्ण गङ्गारूप आपकी कीर्ति सदा व्याप्त हो रही है। और अन्य देवों की समस्त कुकीर्ति घने मेघ के समान काली यमुना ऐसी लगती है मानो उसके बहाने हजारों भैंसे उसमें गिर रहें हैं / / 67 // [यहाँ 68 से 63 तक 26 श्लोक प्राप्त नहीं हुए / ] कथा का ते ख्यातेः कृत-विपुलसातेश्वर ! भवत्प्रभावादन्येषामपि भवति / नो कूटघटना। न कः प्राणी वाणीरसहृतजगन्मानसतृषं, श्रयेत त्वां नाथं दलितधनमायामृषमतः॥१४॥ हे परमानन्ददाता जिनेश्वर ! आपकी प्रसिद्धि की बात क्या कही जाय ? आपके प्रभाव से तो अन्य देवों के कूट-छल-छद्म की रचना नहीं हो पाती है, इसलिये कौन ऐसा प्राणी है, जो अपनी वाणी के रस से जगज्जनों के मानस की प्यास को हरनेवाले तथा विस्तृत माया एवं मिथ्यात्व का नाश करनेवाले आपके समान स्वामी का प्राश्रय न ले?॥ 14 // भवान् चक्री कर्मवजविकटवेताळ्यघटितं, कपाट ग्रन्थ्याख्यं सुपरिणतिदण्डाद् विघटयन् / / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 81 प्रतीर्योधवीर्यो जयति सकलासद्ग्रहजलं, प्रपूर्णेच्छम्लेच्छवज-सदृश मिथ्यात्वविजयात् // 65 // हे जिनेश्वर ! आप कर्मसमूहरूपी भयंकर वैताढ्यपर्वत में लगे हुए ग्रन्थि नामक कपाट को सुपरिणामरूपी दण्ड से खोलते हुए, उदीयमान पराक्रमशाली, सम्पूर्ण मिथ्याग्रहरूपी जल को पार कर म्लेच्छसमूहों के समान मिथ्यात्व की विजय से इच्छा पूर्ण करके विजय को प्राप्त हो रहे हैं / / 65 // मता देवाः सुभ्रूस्तनजघनसेवासु रसिका, नहादम्भारम्भाः प्रकृतिपिशुनास्तेऽपि गुरवः / दयाहीनो धर्मः श्रुतिविदित-पीनोदय इति, प्रवृद्धं मिथ्यात्वं सुसमयघरट्टदलितवान् // 66 // हे जिनेश्वर ! जो सुन्दरियों के स्तन एवं जघनों की सेवा में रसिक होते हुए भी देव माने गये, स्वभाव से चुगलखोर एवं महान् अभिमानी होते हुए भी गुरु माने गये तथा वेद में प्रख्यात होने के कारण जिसकी व्यापकता बढ़ गई है ऐसा दयाहीन धर्म धर्म माना गया उस सब बढ़े हुए मिथ्यात्व का आपने अपने उत्तम शास्त्र एवं सिद्धान्तरूपी घरट्टचक्की के द्वारा दलन कर दिया / / 66 / / ... पर देव ! त्वत्तो न खलु गणयामि क्षणमपि, - त्वदादिष्टादिष्टाद् गुरुमपि पथः प्रच्युतमिह / सहे नान्यं धर्म नृपसदसि जल्पव्रजमहे, : . ' महेश ! त्वं तस्मान्मयि कुरु दयां शश्वदुदयाम् // 7 // हे देव जिनेश्वर ! मैं आपको छोड़कर अन्य देव को क्षणभर के Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 ] लिये भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके हितकारी उपदेश के मार्ग से भ्रष्ट गुरु को भी मैं नहीं मानता हूँ तथा कहने योग्य बातों के समूह से जहाँ उत्सव होता है ऐसी राजसभा में अन्य धर्म को भी सहन नहीं करता हूँ। अतः हे महेश ! आप मुझ पर सदा उदय पाने वाली दया कीजिये // 6 // भयं सर्व याति क्षयमुदयति श्रीः प्रतिदिनं, विलीयन्ते रोगा लसति शुभयोगादपि सुखम् / महाविद्यामूलं सततमनुकूलं त्रिभुवना, भिराम ! त्वन्नाम स्मरणपदवीमृच्छति यदि // 68 // हे तीनों लोक में अतिसुन्दर जिनेश्वर ! यदि कोई व्यक्ति आपके नाम का स्मरण करता है तो उसके समस्त भय मिट जाते हैं प्रतिदिन लक्ष्मी की वृद्धि होती है, रोग नष्ट हो जाते हैं, उत्तम योगों से सुख प्राप्त करता है तथा महाविद्या का मूल सदा अनुकूल रहता है / / 68 // नमदमर्त्यकिरीटमणिप्रभापटल-पाटलपादनखत्विषे। गलितदोषवचोधुतपाप्मने, शुभवते भवते भगवन् ! नमः / / 66 / / - प्रणाम करते हुए देवों के मुकुट की मणियों की कान्ति से किञ्चित् रक्तवर्ण ऐसे चरण और नखों की प्रभावाले, दोषों के विनाशक तथा अपनी वाणी से पाप को धो देने वाले हे कल्याणकारी प्रभु पार्वजिनेश्वर ! आपके लिये मेरा नमस्कार है / / 66 / / सुरतरु: फलितो मम साम्प्रतं, विगलितोऽपि च दुष्कृत-सञ्चयः / सुरमणी रमणीय ! भवन्नुतेः, करतले रतलेपहरालुठत // 10 // हे अतिमनोहर जिनेश्वर प्रभु ! आपको नमस्कार करने से मेरे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 83 लिये आज कल्पवृक्ष फलित हो गया है, पापों का समूह नष्ट हो गया है और रत-लेप को दूर करनेवाली देवमणि मेरे हाथ आ गई है अथवा रति के गर्व को हटानेवाली उत्तम रमणी मुझे प्राप्त हो गई है // 100 // दिशति कार्मणमोश ! शिवश्रियः, प्रियसमागमहेतुरनुत्तरः / विजयते विहितोत्कट-सङ्कटव्युपरमा परमा तव संस्तुतिः // 101 // हे जिनेश्वर ! आपकी स्तुति मोक्षलक्ष्मी को वश में करने के लिये जादू का काम करती है और जिससे बढ़कर कोई नहीं है ऐसे प्रिय के समागम का कारण है। ऐसी भयङ्कर सङ्कट को शान्त करनेवाली तथा उत्कृष्ट लक्ष्मी को देने वाली प्रापकी स्तुति विजय को प्राप्त हो रही है / / 101 // तव मतं यदि लब्धमिदं मया, किमपर भगवन्नवशिष्यते ? / सुरमणौ करशालिनि कि धनं, स्थितमुदीतमुदीश ! पराङ्मुखम् / / 102 // हे उदीतमुदीश ! (उद्+ईत-मुद्+ईश !) हर्ष प्राप्त करनेवाले स्वामी ! भगवान् जिनेश्वर ! यदि मैंने आपके इस मत को प्राप्त कर लिया तो दूसरा क्या बाकी रह जाता है ? (अर्थात् सब कुछ पा लिया) जब चिन्तामणि हाथ में आ जाती है तो अन्य धन नहीं भी मिले तो क्या ? // 102 / / सर्प कन्दर्पसर्पस्मयमथनमहामन्त्रकल्पेऽवकल्पे, प्रत्यक्षे कल्पवृक्षे परमशुभनिधौ सत्तमोहे तमोहे / निर्वाणानन्दकन्दे त्वयि भुवनरवो पावना भावना भाध्वस्तध्वान्ते समग्रा भवतु भवतुदे सङ्गा मे गतामे / / 103 // Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] हे जिनेश्वर ! मेरी समस्त भावना सरकते हुए काम रूपी. सर्प के गर्व का मथन करने में गारुडिक मन्त्र के समान, प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष, परम कल्याण का खजाना, सर्वोत्तम ज्ञान सम्पन्न, अज्ञान विनाशक, नीरोग तथा भूतल पर सूर्य के समान ऐसे आप में मिलकर पवित्र बने और सांसारिक बन्धनों के नाश के लिये हो // 103 // प्रसोद सद्यो भगवन्नवद्यं, हरस्व पुण्यानि पुषाण भर्तः ! / स्मर्तव्यतामेति न कश्चिदन्यस्त्वमेव मे देव ! निषेवरणीयः // 104 // हे भगवान् ! आप मुझ पर शीघ्र प्रसन्न होंवें. पापों को दूर करें, पुण्यों को पुष्ट करें। हे जिनेश्वर देव ! आपके बिना और अन्य कोई देव स्मरणीय नहीं है। मेरे द्वारा आप ही सेवनीय हैं / / 104 // हरि-दन्ति-सरीसृपानलप्रधनाम्भोनिधिबन्धरोगजाः। न भियः प्रसरन्ति देहिनां, तव नामस्मरणं प्रकुर्वताम् // 105 / / हे देव जिनेश्वर ! आपका नाम स्मरण करनेवाले प्राणियों को सिंह, हाथी, सूर्य, अग्नि, युद्ध, समुद्र, बन्धन और रोगों से उत्पन्न भय दूर भाग जाते हैं // 105 // चिदानन्दनिःस्पन्दवन्दारुशक स्फुरमौलिमन्दार-मालारजोभिः / पिशङ्गो भृशं गौरकीर्तेस्तवाङ्ग्री, गलल्लोभशोभाभिराम ! स्मरामः // 106 / / हे निर्लोभ शोभा से सुन्दर प्रभु जिनेश्वर ! हम आनन्द से ज्ञान स्थिर नमस्कार करने वाले इन्द्र के मस्तक पर शोभित मन्दार-पुष्पों की माला की रज से पीत-रक्त वर्ण वाले एवं उज्ज्वल कीर्ति सम्पन्न Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 85 ऐसे आपके चरणों का स्मरण करते हैं // 106 // बहुधात्र सुधारुचिरवचनर्भवता भवतापभरः शमितः / अमितप्रसरद्गुणरत्ननिधे !, शरणं चरणौ तव तेन भजे // 107 // हे अगणित एवं व्यापक गुणरत्नों के आकर जिनेश्वर ! आपने इस संसार में अनेकविध अमृत के समान मधुर वचनों से संसार के तापों के भार को शान्त कर दिया है। इसलिये मैं आपके चरणों की शरण प्राप्त करता हूँ // 107 / / इति प्रथितविक्रमः क्रमनमन्मरुन्मण्डलीकिरीटम रिणदर्पणप्रतिफलन्मुखेन्दुः शुभः / जगज्जनसमाहितप्रणयनककल्पद्रुमो, "यशोविजय" सम्पदं प्रवितनोतु वामाङ्गजः // 108 // इस प्रकार प्रख्यात पराक्रमशाली, चरणों में प्रणाम करनेवाले देव-समूह के मुकुट की मणियों से दर्पण के समान मुखचन्द्र वाले, कल्याण स्वरूप, समस्त प्राणियों को मनोवाञ्छित देने में एकमात्र कल्पवृक्ष रूप, वामादेवी के पुत्र भगवान् पार्श्व जिनेश्वर आपके यश, विजय और सम्पत्ति को बढ़ायें। (यहां श्लेष से कवि ने अपना नाम "यशोविजय" भी अंकित किया है) / / 108 // * -: : * प्रस्तुत स्तोत्र के पद्य 66 से 102 तक द्रुतविलम्बित, 103 में स्रग्धरा, 104 में उपेन्द्रवज्रा, 105 में वियोगिनी, 106 में भुजङ्गप्रयात, 107 में तोटक तथा 108 में पृथ्वी छन्द का प्रयोग हुआ है / तथा यही स्तोत्र 'जनस्तोत्रसन्दोह' के प्रथम भाग में 'श्रीगौड़ीपार्श्वस्तवनम्' के नाम से पृष्ठ 363 में मुद्रित हुआ है। -अनुवादक / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 7 ] श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्रम् श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र (उपेन्द्रवज्रा छन्द) अनन्तविज्ञानमपास्तदोष, महेन्द्रमान्यं महनीयवाचम् / गृहं महिम्नां महसां निधानं, शङ्खश्वर पाश्र्वजिनं स्तवोमि // 1 // अनन्त विज्ञान से युक्त, दोषों से रहित, महेन्द्र द्वारा माननीय, पूजनीय वाणीवाले, महिमानों के आवासस्थल तथा तेजों के भण्डार श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ // 1 // महानुभावस्य जनुर्जनुष्मता, गुणस्तवैरेव दधाति हृद्यताम् / घनं वनं कान्तवसन्तसम्पदा, पिकोरवैरेव समृद्धमीक्ष्यते // 2 // हे देव ! प्राणियों का जन्म आप जैसे महानुभाववालों की स्तुतियों से ही सुन्दरता को धारण करता है अर्थात् सफल होता है, क्योंकि वसन्त की सम्पत्ति से परिपूर्ण वन भी कोकिल के कलरव से ही समृद्ध देखा जाता है // 2 // प्रवर्ण्यसंवर्णनकश्मलाविलः, स्वकार्यरक्तस्य कवेगिरां रसः / गुणस्तवर्देव ! तदातिनिर्मलो, भवत्यवश्यं कतकोत्करोपमः // 3 // Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [87 हे देव ! अंपने कार्य में अनुरक्त कवि की वाणी का रस नहीं वर्णन करने योग्य बातों का वर्णन करने रूप दोष से दूषित होते हुए भी भी कतक-जल को स्वच्छ बनानेवाली वनस्पति के चूर्ण के समान आप के गुणस्तवन से अवश्य ही निर्मल बन जाता है / / 3 // गुणास्त्वदीया अमिता इति स्तुता - वुदासते देव ! न धीधना जनाः / मणिष्वनन्तेषु महोदधेरहो, ____न किं प्रवृत्तेरुपलम्भसम्भवः ? // 4 // . ह देव ! अापके गुण अनन्त हैं अतः हम किस-किस का कहाँ तक वर्णन करें? ऐसा सोचकर बुद्धिमान् लोग आपकी स्तुति करने में उदासीन नहीं होते हैं, क्यों कि समुद्र में अनन्त मरिणयों के रहते हुए भी किसी मरिण-विशेष की प्राप्ति उपाय से सम्भव नहीं है क्या? / / 4 / / भवद्गुणैरेव न चेदवेष्टयं, स्वयं गिरं चित्रकवल्लिमुच्चकैः। तदा न किं दुर्जनवायसरसौ, क्षणाद् विशीर्यंत निसर्गभीषणः // 15 // हे देव ! यदि मैं अपनी चित्रकवल्लीरूप वाणी को आपके गुणों के स्तवन से ही स्वयं आवेष्टित न करूँ तो स्वभाव से ही भयङ्कर दुष्ट कौनों के द्वारा वह वाणी तत्काल नष्ट नहीं कर दी जाएगी क्या ? अर्थात् चित्रक की लता यदि वृक्ष से लिपटी हुई न रहे तो उसे कौए जैसे काट-काट कर नष्ट कर देते हैं वैसे ही यदि आपके गुणस्तवनरूप वृक्ष में मैं अपनी वाणीरूप लता को आवेष्टित नहीं करूँ तो उसे भी दुष्ट कौए रूपी व्यर्थ के प्रलाप नष्ट कर डालेंगे // 5 // न जायते नाथ ! यथा पथः स्थिति, प्रगल्भमानाश्च नृपानुपासते। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 ] श्रियं लभन्ते च विशृङ्खलाः खला, इतीदमुच्चः कलिकालचेष्टितम् // 6 // हे देव ! दुर्जन लोग उत्तम मार्ग की स्थिति को नहीं जानते हैं, और बिना समझे ही धृष्ट होकर राजाओं की आराधना करते हैं तथा स्वच्छन्द होकर धन प्राप्त करते हैं, यह कलिकाल का प्रभाव अमीषु तीर्थेश ! खलेषु यत् पटु-, भवद्भुजिष्यस्तदिहासि कारणम् / ' हविर्भुजां हेतिषु यन्न दह्यते, करः परस्तत्र गुणो महामणेः॥७॥ हे तीर्थङ्कर ! इन दुष्टों के रहते हुए भी जो आपका सेवक सकुशल रहता है उसमें आप ही कारण हैं। क्योंकि अग्नि की ज्वालाओं में हाथ रख देने पर भी यदि वह जलता नहीं है तो वहां महामणि का गुण ही प्रधान होता है। अर्थात् आप उस महामणि के समान हैं जिसके आश्रय से कोई दुष्ट धारक का कुछ नहीं बिगाड़ सकता // 7 // कलो जलौघे बहुपङ्कसङ्करे, गुणवजे मज्जति सज्जनाजिते / प्रभो! वरीति शरीरधारिणां, तरीव निस्तारकरी तव स्तुतिः // 8 // हे प्रभो ! बहुत पापरूप पङ्क से युक्त इस कलिरूप समुद्र में सज्जनों के द्वारा उपार्जित गुणों का समूह जब डूब जाता है तो प्राणियों का उद्धार करनेवाली आपकी स्तुति ही नौका बन जाती है अर्थात् आपकी स्तुति भवसागर से पार करनेवाली है / / 8 / / खलः किमेतः कलिकाललालितविपश्चितां नाथ ! यदि प्रसीदसि / पराक्रमः कस्तमसां महीयसां, तनोति भासं महसां पतिर्यदि // 6 // Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [86 हे नाथ ! यदि आप प्रसन्न हों, तो फिर कलिकाल से लालित इन दुष्टों से विद्वानों का क्या बुरा हो सकता है ? क्योंकि यदि सूर्य अपनी किरणों को फैलाता है तो वहाँ अन्धकार का पराक्रम क्या कर सकता है ? // 6 // अमूढलक्ष्यत्वमिहेश ! दुर्जने, न सम्यगन्धाविव तत्त्वचालनम् / कथा नु कोलाहलता विगाहते, ततः कथं नाथ ! बुधः प्रवर्तताम् // 10 // हे जिनेश्वर ! इस संसार में दुर्जन में बुद्धिमानी का तत्त्व-चालन समुद्र (जड़) में तत्त्वचालन के समान उचित नहीं है। क्योंकि दुर्जन और जड़ समुद्र दोनों में ही तत्त्वसंचालन से जो महत्त्व की बात है वह कोलाहल में डूब जाती है। इसलिए उसमें पण्डितजन कैसे प्रवृत्त हों? // 10 // यथा पथा यात्युपमृद्य कण्टकान्, जनो मनोऽभीहितबद्धलालसः / त्वदाज्ञया देव ! निहत्य दुर्जनान्, तथा विधेयैव कथा विपश्चिता // 11 // हे देव ! जैसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कामनावाला मार्ग में आनेवाले काँटों को नष्ट करके आगे बढ़ता है, वैसे ही आपकी आज्ञा से विद्वान् को भी चाहिए कि वह दुर्जनों को नष्ट करके आपकी कथा अवश्य करे // 11 // संवादसारा भवदागमा यज्जगच्चमत्कारकराः स्फुरन्ति / उच्छ ङ्खलानां नियतं खलानां, मुखे मषीलेपमहोत्सवोऽसौ // 12 // 'हे देव ! संसार को चमत्कृत करनेवाले संवादों से श्रेष्ठ जो आप . के आगम शोभायमान हो रहे हैं, वे निश्चय ही उच्छं खल-दुष्ट जनों . के मुंह पर कालिख पोतने के महोत्सव के समान हैं // 12 // Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] भवन्तमुत्सृज्य विलीनरागं, परं भजन्ते स्वहिताथिनो ये। तेषां वयं देव ! सचेतनानां, विद्मो विशेष किमचेतनेभ्यः ? // 13 // - हे देव ! अपना हित चाहनेवाले जो लोग आपको छोडकर राग में लीन अन्य देव की उपासना करते हैं उन सचेतनों-विद्वानों को हम अचेतनों-मुखों से अधिक क्या समझे ? अर्थात् उन्हें सचेतन होते हुए भी हिताहितज्ञानशून्य झेने के कारण हम जड ही समझते हैं // 13 // मोहावृतानामपि शास्त्रपाठो, हहा महानर्थकरः परेषाम् / रागैकलुब्धस्य हि लुब्धकेभ्यो, वधाय नून हरिणस्य कर्णी // 14 // हे देव ! अज्ञान से युक्त अन्य देवों के शास्त्र का पाठ महान् अनर्थ करने वाला है, यह बडे दुःख की बात है। क्योंकि राग के मुख्य लोभी हरिण के दोनों कान निश्चय ही व्याधों के वध के लिए हैं / / 14 // शमो दमो दानमधोतिनिष्ठा, वृथैव सर्व तव भक्तिहीनम् / भावक्रियां नैव कविप्रबन्धो. रसं विना यच्छति चारुबन्धः // 15 // हे देव ! आपकी भक्ति से रहित शम दम, दान और अध्ययननिष्ठा सब व्यर्थ ही हैं, क्योंकि सुन्दरबन्ध वाला कवि का प्रबन्ध (निबन्ध-काव्यरचना) रस के बिना भावक्रिया को नहीं देता है अर्थात् रसान्मक वाक्य ही काव्य है // 15 // अन्तर्मुहतं विहितं तपोऽपि, त्वदाज्ञया देव ! तमस्तृणेढि। विना तु तां हन्त ! युगान्तरारिण, कथापि न क्लेशकृतां शिवस्य // 16 // हे देव ! आपकी आज्ञा से एक क्षगा भी किया हया तप अन्धकार का नाश करता है और आपकी आज्ञा के बिना युगों तक की गई तपस्या भी कल्याणकारिणी नहीं होती / / 16 // Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 61 प्रज्ञानजं बन्धनमङ्गभाजां, ज्ञानं विना देव ! कथं व्यपैति। अधर्मजं जाड्यमुपैति नाशं, न धर्मरश्मेहि विना प्रतापम् // 17 // हे देव ! प्राणियों का अज्ञान से उत्पन्न बन्धन बिना ज्ञान के कैसे नष्ट हो सकता है ? क्योंकि अघर्म-ठण्डी से उत्पन्न जडता धर्मरश्मिसूर्य की किरणों के प्रकृष्ट ताप के बिना नष्ट ही नहीं होती है // 17 // न ज्ञानमात्रादपि कार्यसिद्धिविना चरित्रं भवदागमेऽस्ति। अपोक्षमाणः पदवीं न पङ्गुविना गति हन्त ! पुर प्रयाति // 18 // हे देव ! आपके पागम में चरित्र से रहित केवल ज्ञानमात्र से ही कार्य की सिद्धि नहीं होती है। जैसे कि कोई पंगु-बिना पैर का आदमी मार्ग को देखता हुआ भी बिना गति के गाँव में नहीं पहुंच पाता // 18 // संसारसिन्धाविह नास्ति किञ्चिदालम्बनं देव ! विना त्वदाज्ञाम् / तया विहीनाः परकष्टलोना, हहा ! महामोहहताः पतन्ति // 16 // हे प्रभो ! आपकी आज्ञा को छोड़ कर इस संसार-सागर में अन्य कोई सहारा नहीं है। और जो लोग आपकी आज्ञा से वञ्चित हैं वे अज्ञानी महामोह से खिन्न एवं परम क्लेश से पीडित होते हुए संसारसमुद्र में गिरते हैं // 16 // महौषधी जन्मजरामयानां, महार्गला दुर्गतिमन्दिरस्य / खनिः सुखानां कृतकर्महानिराज्ञा त्वदीयास्ति जिनेन्द्रचन्द्र ! // 20 // हे जिनेन्द्रचन्द्र ! आपकी आज्ञा प्राणियों के जन्म, जरा और रोगों के निवारण के लिए महान् औषधि है, दुर्गति-नरक के मन्दिर की महान् अर्गला है, सुखों की खान है और किए हुए कर्मों का नाश करनेवाली है // 20 // Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. ] रागं च कोपं च न नाथ ! धत्से, स्तुत्यस्तुतीनां च फलं प्रदत्से / ' लोकोत्तरं किञ्चिदिदं त्वदीयं, शीलं समाशीलितविश्वलीलम् / / 21 // हे नाथ ! आप राग अथवा क्रोध को धारण नहीं करते हो तथा स्तुति और प्रस्तुति का फल देते हो। अतः संसार में कौतुक करने वाला आपका यह शील कुछ अद्भुत ही है / / 21 // त्वद्ध्यानबद्धादरमानसस्य, त्वयोगमुद्राभिनिविष्टबुद्धः।। तवोपदेशे निरतस्य शश्वत्, कदा भविष्यन्ति शमोत्सवा मे // 22 // हे देव ! आपके ध्यान में आदरपूर्वक लगाए हुए चित्तवाले, आप की योगमुद्रा में अभिनिविष्ट बुद्धिवाले तथा आपके उपदेश में सदा निरत ऐसे मेरे शम के उत्सव-शान्त भाव कब होंगे ? // 22 // अकुर्वतः सम्प्रति लब्धबोधि, समीहमानस्य परां च बोधिम् / न साम्प्रतं किञ्चन साम्प्रतं तद्, दयस्व दीनं परमार्थहीनम् // 23 // हे देव ! सम्प्रति लब्धबोधि को नहीं करनेवाले और परा(उत्कृष्ट) बोधि को चाहनेवाले का अभी कुछ भी ठीक नहीं है। अतः परमार्थ-वास्तविता से शून्य मुझ दीन पर दया करो // 23 // निर्वेदमुख्यं च भवन्तमेव, नाथन्ति नाथं यतयो न चान्यम् / सुधार्थमुच्चैविबुधा सुधांशु, नाथन्ति नान्यं ग्रहमप्युदारम् // 24 // हे देव ! मुनिजन विरागियों में मुख्य स्वामी समझकर आपकी ही सेवा करते हैं, किसी दूसरे स्वामी की सेवा नहीं करते / जैसे कि देवगण अमृत की प्राप्ति के लिए चन्द्रमा से ही प्रार्थना करते हैं अन्य उदार ग्रह की नहीं // 24 // Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 63 त्वत्तो न तीर्थेश ! परः कृपालुमत्तः कृपापात्रमपीह नान्यः। अतोऽस्ति योग्योऽवसरः कृपाया, ब्रुवे किमन्यज्जगदीशितारम् // 25 // हे तीर्थङ्कर ! इस संसार में आप से बढ़कर दूसरा कोई कृपालु नहीं है और मुझे छोड़ कर अन्य कोई कृपापात्र भी नहीं है / अतः यह कृपा करने का उचित अवसर है। आप जगत् के स्वामी को और क्या कहूँ ? // 25 // प्रथास्ति चेदेष जनः समन्तुस्तथाप्यहो ! ते किमुपेक्षणीयः ? / सकण्टकं कि न सरोजखण्डमुन्मीलयत्यंशुभिरंशुमाली // 26 // हे देव ! अब यदि यह जन अपराध से युक्त है, तो भी क्या आपके द्वारा उपेक्षणीय है ? अर्थात् नहीं है / क्यों कि सूर्य अपनी किरणों से कण्टकयुक्त कमल-खण्ड को विकसित नहीं करता है क्या ? अर्थात् जैसे सूर्य काँटों से युक्त कमल-खण्ड को दोषयुक्त होने पर भी विकसित करता है उसी प्रकार मैं भी अपराध-युक्त होने पर भी आपके द्वारा उपेक्षा के योग्य नहीं हूँ // 26 // कृपावतां न स्वकृतोपकारे, सदोषनिर्दोषविचारणास्ति / समं घनः सिञ्चति काननेषु, निम्बं च चूतं च घनाभिरद्भिः // 27 // हे जिनेश्वर ! कृपालु जनों का अपने द्वारा किए गए उपकारों के सम्बन्ध में सदोष और निर्दोष का विचार नहीं होता है। क्योंकि मेघ वनों में जब वृष्टि करते हैं तो वे नीम और आम दोनों के वृक्षों को समानरूप से घनी बृष्टि से सींचते हैं / / 27 // मुखं प्रसन्नं हसितेन्दुबिम्बं, नेत्रे कृपाइँ जितपद्मपत्र। पद्मासनस्था च तनुः प्रशान्ता, न योगमुद्रापि तवाप्युतान्यैः // 28 // Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] हे देव ! आपका चन्द्रमा के बिम्ब का उपहास करने वाला प्रसन्न मुख, कमल दल को जीतने वाले दया से आर्द्र-गीले दोनों नेत्र और पद्मासन में स्थित प्रशान्त शरीर यह आपकी योगमुद्रा नहीं है क्या? अर्थात् यही वास्तविक योगमुद्रा है फिर अन्य मुद्राओं से क्या प्रयोजन है ? // 28 // स्वद्योगमुद्रामपि वीक्षमाणाः, प्रशान्तवैराः पुरुषा भवन्ति / विशिष्य वक्तुं कथमीश्महे तत्, तबान्तरङ्ग प्रशमप्रभावम् // 26 // हे जिनेश्वर ! लोग आपकी योगमुद्रा को देखकर ही वैर-भाव को छोड़ देते हैं, (यह आपका महान् प्रभाव है) फिर आपके प्रशमभाव से युक्त अन्तरङ्ग की विशेषता को कहने के लिये हम कैसे समर्थ हो सकते हैं ? // 26 // मूर्तिस्तव स्फूतिमती जनान्तविध्वंसिनी कामिनचित्रवल्ली। विश्वत्रयीनेत्रचकोरकाणां, तनोति शीतांशुरुचां विलासम् // 30 / / हे देव ! आपकी तेजस्विनी मूर्ति लोगों के कष्ट को नष्ट करनेवाली तथा चित्रवल्ली के समान इच्छापूर्ति करनेवाली है। आपकी यही मूर्ति तीनों लोकों के प्राणियों के नेत्ररूपी चकोरों के लिये चन्द्रमा की किरणों का आनन्द बढ़ा रही है / / 30 // फणामणीनां घृणिभिर्भुवीश !, मूर्तिस्तवाभाति विनीलकान्तिः / उदिभन्नरक्ताभिनवप्रवालप्ररोहमिश्रेव कलिन्दकन्या // 31 // हे स्वामिन् ! इस भूमण्डल पर आपकी मूर्ति फणामरिणयों की रश्मियों से विशिष्ट कान्तिमयी होकर सर्वत्र शोभित हो रही है / उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह ऊपर निकले हुए लाल नये प्रवाल-अंकुरों से युक्त यमुना हो / / 31 // Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 65 तवेश ! मौलौ रुचिराः स्फुरन्ति, फरणाः फरणीन्द्र-प्रवरस्य सप्त। तमोभरं सप्तजगज्जनानां, धृता निहन्तुं किमु सप्त दीपाः // 32 // हे परमात्मा ! आपके मस्तक पर जो श्रेष्ठ सर्पराज के सुन्दर सात फण शोभित हो रहे हैं क्या वे सातों भुवन के लोकों के अन्धकार-समूह का नाश करने के लिये सात दीप रखे हुए हैं ? // 32 / ! त्वन्मौलि-विस्फारफरणामणीनां, भाभिविनिर्यत्तिमिरासु दिक्षु। स्वकान्ति-कोतिप्रशमात् प्रदीपाः, . शिखामिषात् खेदमिवोद्गिरन्ति // 33 // हे प्रभो ! आपके मस्तक पर फैले हुए फणामणिरूपी दीप अपने प्रकाश से सभी दिशाओं का अन्धकार मिट जाने पर अपनी कान्ति क्षीण हो जाने से ऐसे दिखाई देते हैं मानो अपनी शिखाओं के वहाने दुःख प्रकट कर रहे हो // 33 // ध्यानानले सप्तभयेन्धनानि, हतानि तीवाभयभावनाभिः / इतीव किं शंसितुमीश ! दभ्रे, मौलौ त्वया सप्तफरणी जनेभ्यः // 34 // हे जिनेश्वर ! आपने अपनी ध्यानरूपी अग्नि में तीव्र अभय की भावना से सातों भयरूपी ईंधन को जला दिया है। अतः लोगों को यही समझाने के लिये आपने अपने मस्तक पर सात फणवाले सर्पराज को धारण किया है क्या? // 34 // अष्टापि सिद्धिर्युगपत् प्रदातुं, किमष्टमूर्तीस्त्वमिहानतानाम् / सप्तस्फुरद्दीप्तफरणामणीनां, क्रोडेषु सङ्क्रान्ततनुर्दधासि // 35 // हे भगवन् ! आप इस जगत् में प्रणत-जनों को एक साथ आठों Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] सिद्धियाँ प्रदान करने के लिये ही सात तेजस्वी फणामणियों के बीच परम तेजस्वी अपनी मूर्ति को विराजित करके अष्टमूर्ति के रूप में शरीर धारण किये हुए हैं क्या ? // 35 // यद्येकनालानि समुल्लसेयुः, सरोवरे कोकनदानि सप्त। तदोपमीयेत तवेश ! मौलौ, तरुच्चकैः सप्तफरणी प्रदीप्रा // 36 // हे देव ! आपके मस्तक के ऊपर फैले हुए तेजोमय सातों फरणों को यदि किसी सरोवर में एक ही नाल पर सात कमल खिल जाएँ तो उनकी उपमा दी जा सकती है, अन्यथा वे अनुपमेय हैं / / 36 // भवेषु तीर्थेश ! चतुर्षु सारं, मानुष्यकं यत्र तवास्ति सेवा। श्लाघ्यो हि शैलेषु सुमेरुरेव, यत्राप्यते कम्पमहीरहश्रीः // 37 // हे जिनेश्वर ! चार प्रकार के जन्मों में मनुष्य जन्म श्रेष्ठ है, उस मनुष्य जन्म में भी आपकी सेवा ही सार है। क्योंकि पर्वतों में सुमेरु ही श्रेष्ठ है जहाँ कल्पवृक्ष की शोभा प्राप्त होती है // 37 // नृजन्म दुःखैकगृहं मुनीन्द्रः, प्रशस्यते त्वत्पदसेवयव / सौरभ्यलोभात् सुधियः फणीन्द्ररप्यावृतं चन्दनमाद्रियन्ते // 38 // हे नाथ ! मुनिवरों ने दुःखों के धन इस मनुष्य जन्म को आपके चरणों की सेवा मिल जाने के कारण ही प्रशंसनीय कहा है, क्योंकि बुद्धिमान् लोग सुगन्धि के लोभ से ही तो बड़े-बड़े विषधरों से आवेष्टित चन्दन वृक्ष का आदर करते हैं / / 38 // अवाप्य मानुष्यकमप्युदारं, न येन तेने तव देव ! सेवा। उपस्थिते तेन फले सुरन्द्रोः, करापरणालस्यमकारि मोहात् // 39 // Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 67 हे जिनेश्वरं ! जिसने उदार मानव जन्म पाकर भी आपकी सेवा नहीं की उसने माहवश कल्पवृक्ष के पास खड़े रह कर भी फल के लिये अपने हाथ को लम्बा करके लेने मात्र में आलस्य किया है / / 36 // जनुर्मनुष्यस्य दिवः शतेन, क्रोणामि चेन्ना स्मि तदाप्यविज्ञः / यत्र त्वदाज्ञाप्रतिपत्तिपुण्यादमुत्र तज्जैत्रसहोदयाप्तिः // 40 // हे देव ! जिस मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर आपकी आज्ञा की स्वीकृति के पूण्य से परलोक में उस जयशील महोदय (मोक्ष) की प्राप्ति होती है उसे यदि मैं सैंकड़ों स्वर्गों को बेचकर भी खरीद लूँ तो भी अविज्ञ-मूर्ख नहीं कहलाऊँगा / 40 / / स्तोमः सुमानां तव देव ! पूजा, पूज्यत्वहेतुर्जगतां जनानाम् / भवत्तनौ स्नात्रजलाभिषेकः, साक्षादयं पुण्यसुरद्रुसेकः // 41 / / हे देव ! पुष्पों के समूह से अापकी पूजा करना जगत् के लोगों के पूज्यत्व का कारण है और आपके शरीर पर पुण्य स्नात्र-जल का जो अभिषेक है, वह साक्षात् कल्पवृक्ष को सींचना ही है / / 41 // गुणस्त्वदोयग्रथितां स्तुतिस्रजं. स्वयं च ये कण्ठगतां वितन्वते / प्रभङ्गसौभाग्यवशीकृता इव, श्रियो वरीतुं परितो भ्रमन्त्यमुम् // 42 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों से गूंथी हुई स्तुतिरूप माला को जो अपने कण्ठ में धारण करता है, उस व्यक्ति का वरण करने के लिये 'इसका मैं वरण करूँगी तो मेरा अखण्ड सौभाग्य बना रहेगा' इस भावना से लक्ष्मी उसके चारों ओर घूमती रहती है / / 42 // विनोदवत् त्वन्नुतिगोचरं मनो-, घनोत्सवे मन्नयने त्वदीक्षिरणी / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ] त्वदङिघ्रनम्रो मम मौलिरालयः, . श्रियः प्रियस्त्वज्जपविस्तरः करः॥४३॥. हे जिनेश्वर ! मेरा मन आपके नमस्कार से प्रानन्दविभोर हो उठता है, मेरी आँखें आपके दर्शन करने पर महान् उत्सवों से पूर्ण हो जाती हैं, मेरा मस्तक आपको प्रणाम करने पर लक्ष्मी का निवास बन जाता है और आपका जप करने से मेरा हाथ भी प्रिय लगता है / / 43 // त्वदास्यसंवीक्षणशर्मवञ्चिते, नयोज्झितानां नयने निरर्थके। भवत्कथाकर्णनराहगीनयोर्न भारतोऽन्यत् फलमस्ति कर्णयोः // 44 / / हे देव ! जिन्होंने (उत्तम वस्तु को देखने रूप) न्याय का त्याग कर दिया है, ऐसे लोगों के नेत्र यदि आपके मुखदर्शनरूप सुख से वञ्चित रहते हैं तो वे निरर्थक हैं। इसी प्रकार आपकी कथा के श्रवणसुख से वञ्चित उनके कानों का फल भी भार के अतिरिक्त कुछ नहीं है / 44 / / पुष्पाणि पारिगर्न ललौ यदीयस्तदीयपूजा-विधये प्रमादात् / अमुष्य दूरे भवदुःखहानिर्भाग्योज्झितस्येव सुवर्णखानिः // 45 // हे देव ! जिस व्यक्ति का हाथ प्रमादवश आपकी पूजा करने के लिये पुष्प नहीं लाया, उससे भवदुःख की हानि उसी तरह दूर रहती है जिस प्रकार भाग्यहीन व्यक्ति से सोने की खान दूर रहती है / / 4 / / भूयासमिन्द्राय॑ ! भवद्भुजिष्यस्तव क्रमाम्भोजमधुव्रतः स्याम् / वहेय मौलौ परमां त्वदाज्ञां, स्तवे भवेयं तव सावधानः // 46 // ___ हे इन्द्रपूज्य ! (मेरी यही कामना है कि-) मैं आपका सेवक बनूं, आपके चरणकमल का भँवरा बनूं, आपकी परम आज्ञा को मस्तक पर वहन करूं और आपकी स्तुति करने में सावधान रहूँ // 46 / / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 66 त्वमोशिताहं तव सेवकश्चेत्, ततः परा का पदवी विशिष्टा ? / समेधमानेऽत्र हि सन्निकर्षे, पुरन्दद्धिः प्रथते पुरस्तात् // 47 // हे जिनेश्वर ! यदि आप स्वामी हैं और मैं सेवक हूँ, तो इससे बढ़ कर और दूसरी विशिष्ट पदवी क्या हो सकती है ? क्योकि यहाँ भूतल पर मेघों के बरसने पर इन्द्र की समृद्धि ही सर्वत्र उपस्थित होती है अर्थात् मेघ जब बरसते हैं तो उनका स्वामी बड़ा समृद्धिशाली हैं' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार आपकी समृद्धि का अनुमान मुझसे किया जाएगा, तदर्थ आप मुझे वैसा बनाएँगे ही / / 47 / / परेषु दोषास्त्वयि देव ! सद्गुणा, मिथोऽवलेपादिव नित्यमासते / स्फुरन्ति ‘नेन्दावपतन्द्रचन्द्रिकास्तमोभरा वा किमु सिंहिकासुते ? // 48 // हे देव ! पारस्परिक अवलेप-गर्व के कारण सदैव दूसरे देवों में दोष है और आप में सद्गुण हैं। क्योंकि चन्द्रमा में विकासशील चन्द्रिका और राहु में अन्धकार का समूह स्फुरित नहीं होते हैं क्या ? // 48 / / विशङ्कमले दधते विलासिनीविशिष्टमिच्छन्ति च देवतायशः / परे तदेते ज्वलता हरिर्भुजा, वितन्वते तापसमापनाथिताम् // 46 // हे जिनेश्वर ! दूसरे देव निःशङ्क होकर अपनी गोद में सुन्दर स्त्रियों को बिठाये हुए हैं और विशिष्ट देवतामों के यश की कामना करते हैं। किन्तु वस्तुतः उनकी यह यशः कामना जलती हुई अग्नि से ताप.. शान्ति की कामना जैसी है / / 46 / / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] कुदृष्टिभिर्ववतया श्रितेषु वा, परेषु दोषोऽस्ति न नाम कश्चन। . ' न मूढरूप्यभ्रमभाजनेष्वपि, प्रवर्तते रङ्गगरणेषु दुष्टता // 50 / / हे जिनेश्वर ! कुदृष्टिवाले व्यक्तियों द्वारा अन्य देवों की देवता के रूप में सेवा करने पर भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मूों के द्वारा चाँदी का भ्रम उत्पन्न करनेवाले पात्रों में रंग-समूहों के कारण दोष नहीं आता है // 50 // सरागता चेज्जिनदेवमाश्रयेत् तमस्तदा तिग्मरुचं पराभवेत् / विरागता वा यदि तं न संश्रयेत्, तदा प्रकाशोऽपि न भानुमालिनम् // 51 // यदि सरागता अर्थात् रागीपन जिनेश्वरदेव का आश्रय ले ले तो अन्धकार सूर्य को पराजित करे और यदि विरागिता उनका सहारा न ले तो सूर्य में भी प्रकाश न रहे // 51 // गवां विलासास्तव देव ! भास्वतस्तमोभरं घ्नन्ति भुवि प्रसृत्वरम् / अशेषदोषोपशमकवृत्तयः, प्रकाशमन्तः परमं प्रकुर्वते // 52 // हे जिनेश्वर ! सूर्य की किरणें संसार में बढ़े हुए अन्धकार समूह को जिस प्रकार नष्ट करती हैं उसी प्रकार आपकी वारिणयों के विलास भी समस्त दोषों का उपशमन कर अन्तःकरण में परम प्रकाश कर देते हैं / / 52 // इदं महच्चित्रमहीन-जातिजोऽप्युदनभोगप्रसरात् पराङ्मुखः / जनार्दनायोगकृतप्रसिद्धिभाग, न वैनते यश्रयमातनोऽसि न // 3 // हे जिनेश्वर ! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आप अहीन-सर्पराज : Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 101 की जाति में उत्पन्न होकर भी समग्र भीग-फणाओं के प्रसार से पराङ्मुख. हो, यह विरोधाभास है। इसका समाधान यह है कि आप अ-हीन अर्थात् उत्तम कूल में उत्पन्न हो और भोग अर्थात् सांसारिक वासना से दूर हो / और जनार्दन-विष्णु के समान कार्य करने से वैसी हो प्रसिद्धि को प्राप्त हो किन्तु गरुड़ की शोभा को नहीं बढ़ाते हो अर्थात् गरुड़वाहन नहीं हो यह भी विरोधाभास हैं इसका समाधान यह है कि आप जन-अर्दन-लोगों की पीड़ा को दूर करने में प्रसिद्ध हो और विनययुक्त व्यक्तियों की शोभा को अवश्य बढ़ाते हो // 53 // जिनासहायेन विनिजितक्रधा, विना जिगीषां च विना रणोत्सवम् / त्वया जितं.यद् द्विषतां कदम्बकं, जगज्जनानन्दकरं न किन्नु तत् ? // 54 // हे जिनेश्वर ! राग-द्वेष को जीतनेवाले आपने बिना किसी की सहायता लिये विजय की कामना से रहित होकर युद्ध के बिना ही जो -शत्रुसमूह-काम-क्रोधादि को जीत लिया है, वह संसार के लोगों को अानन्द देनेवाला नहीं है क्या ? // .54 // उपेक्षमाणोऽप्युपकृत्य कृत्यविज्जगत्त्रयों यद् दुरिताददीधरः / परः सहस्त्रा अपि हन्त ! तत्परे, यशो न शोधुं निरताः प्रतारकाः // 55 / / - हे जिनेश्वर ! आपने अपने कर्तव्य को जानकर कई लोगों से उपे- . क्षित होते हुए भी उन पर उपकार करके तीनों लोक का जो पापों से उद्धार कर दिया है, उस यश को ढूंढने में अनन्त तारे भी समर्थ नहीं Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] हो सकते है अर्थात् पाप अकारण करुणा-परायण हैं / / 55 // हरेः समीपे हरिणा यदासते, स्फुरन्ति नागाः पुरतो गरुत्मतः / अयं प्रभावस्तव कोऽप्यनुत्तरो, विपश्चितां चेतसि हर्षवर्षदः / / 56 // हे जिनेश्वर ! सिंह के समीप जो हरिण रहते हैं और गरुड़ के सामने जो सर्प शोभित होते हैं यह विद्वानों के हृदय में हर्ष की वर्षा करनेवाला आपका कोई लोकोत्तर प्रभाव है / / 56 // अलौकिको योगसमृद्धिरुच्चकैरलौकिक रूपमलौकिकं वचः / ' न लौकिकं किञ्चन ते समीक्ष्यते, तथापि लोकत्वधिया ताः परे // 57 // हे देव ! आपकी योगसमृद्धि अलौकिक है, आपके रूप और वचन भी अलौकिक हैं, आपका कुछ भी लौकिक नहीं दिखाई देता है फिर भी दूसरे लोग आपमें लौकिक बुद्धि रखते हैं, अतः वे हत हैं / / 57 // विनैव दानं ततदानकीर्तये, विना च शास्त्राध्ययनं विपश्चिते / विनानुरागं भवते कृपावते, जगज्जनानन्दकृते नमो नमः॥५८ / / हे जिनेश्वर ! दान के बिना ही विस्तृत दानकीत्ति वाले, शास्त्राध्ययन के बिना ही विद्वान्, अनुराग के बिना ही कृपा करनेवाले और जगत् के जीवों को आनन्दित करनेवाले आपके लिए मेरा बार-बार प्रणाम है // 58 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [103 स्मरापहस्याप्यभवस्य विस्फुरत्सुदर्शनस्याप्यजनार्दनस्य च। न नाभिजातस्य तवातिदुर्वचं, स्वरूपमुच्चैः कमलाश्रयस्य // 56 // __हे जिनेश्वर ! कामदेव के नाशक होकर भी आप शिव नहीं है, अपितु अभव-पुनर्जन्म से रहित मोक्षगामी हैं, सुदर्शन से युक्त होते हुए भी जनार्दन विष्णु नहीं हैं अपितु सुदर्शन-सम्यग् दर्शन होते हुए प्रजनार्दन-लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं और कमलाश्रय होकर भी नाभिजात ब्रह्मा नहीं है अपितु लक्ष्मी के आश्रय होकर भी अभिजात नहीं हो ऐसा नहीं है अर्थात् महान् कुलीनं हैं। इस प्रकार आपका स्वरूप अत्यन्त वर्णनीय है // 56 // . चतुर्मुखोऽङ्गीकृतसर्वमङ्गलो, विराजसे यन्नरकान्तकारणम् / विरञ्चिगौरीशमुकुन्द-संज्ञिता, सुरत्रयो तत् त्वयि कि न लीयते ? // 60 / / हे जिन ! आप जब चतुर्मुख-सर्वव्यापी, समस्त मङ्गलों से युक्त और नरक का अन्त करने वाले इस भूमण्डल पर विराजमान हैं तो फिर उन ब्रह्मा-चतुर्मुख, शिव-सर्वमंगलकारी और विष्णु-नरकान्तक तोनों देवों की मूर्ति आपमें ही विराजमान नहीं हो जाती है क्या ? अर्थात् वे तीनों देव आपमें ही पा जाते हैं / 60 // वृथा कथासौ परदोषघोषणैस्तव स्तुतिविश्वजनातिशायिनः / प्रसिद्धिहीनादनपेक्ष्य तुल्यतां, भवेदलीकातिशयान्न वर्णना // 61 // .. हे देव ! दूसरे के दोषों की घोषणा से समस्त जनों में श्रेष्ठ ऐसे आपकी स्तुति वृथा है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि समानना की अपेक्षा किये बिना प्रसिद्धिहीन के साथ असत्य अतिशय से वर्णन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] करना ठीक नहीं होता है / 61 / / प्रलं कलङ्करिणतः परेषां, निर्गुणैरेव तवास्ति शोभा। महोभरैरेव रवेः प्रसिद्धिः, पतङ्गनिन्दानिकरैः किमस्य ? // 62 // ____ हे जिनेश्वर ! अन्य देवों के कलंकों का कथन करना व्यर्थ है क्यों कि आपकी तो अपने ही गुणों से शोभा है। जैसे कि तेज के समूहों से ही सूर्य की प्रसिद्धि होती है, उसके लिये पतंगों की अधिक निन्दा करने से क्या लाभ है ? // 62 / / कृतप्रसर्पद्रथचक्रचूरिणतक्षमारजः-कैतवपाप चूर्णनैः / अनारतं त्वं जिन ! सङ्घनायकरुपास्यसे मङ्गलनादसादरैः // 63 // हे जिनेश्वर ! चलते हुए रथों के चक्रों से चूणित पृथ्वी की रज के बहाने से पापों को चूर्ण करनेवाले संघ के नायकों के द्वारा आदर-पूर्वक निरन्तर आपकी उपासना की जाती है / / 63 / / स्त्रियः प्रियध्यानमुपेत्य तन्वते, तथा पुरस्ते जिन ! सङ्घसङ्गताः / यथा तदाकर्णनजातविस्मया, भवन्ति सर्वाः स्तिमिताः सुरप्रियाः // 64 // हे देव ! संघ में मिली हुई स्त्रियाँ आगे आकर इस प्रकार स्तुतिरूप गुणगान करती हैं, जिसको सुनकर विस्मय पूर्ण चित्तवाली सभी देवाङ्गनाएँ स्तब्ध हो जाती हैं / 64 / / प्रियस्वनैः सङ्घजनस्त्वदालयप्रदक्षिणादानपरायणघनैः / महान्तरीपं परितः प्रसृत्वरा, अनुक्रियन्ते जलधेर्महोर्मयः // 65 // हे जिनेश्वर ! आपके मन्दिर की प्रदक्षिणा करने में तत्पर बहुत से संघजनों के प्रियशब्दों से किसी बड़े अन्तरीय-द्वीप के अासपास फैले Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 105 हुए समुद्र की विशाल तरङ्गों का अनुकरण किया जाता है / 65 // मृदङ्गवेणुध्वनिभिविसृत्वरैः, समुच्छलत्पञ्चममूर्छनाभरैः / अनारतं सङ्घवृते त्वदालये, शिवश्रियो नृत्यविधिविजम्भते // 66 // हे जिनेश्वर ! आपके मन्दिर में संघ के लोग एकत्र होकर जब गुणगान करते हैं तब पर्याप्त दूरी तक फैलनेवाले पञ्चम स्वर की मूर्च्छनाओं से उठती हुई मृदङ्ग, वंशी आदि की ध्वनियों से ऐसा लगता है कि मानो मोक्षलक्ष्मी का निरन्तर नृत्य-विधान हो रहा है / / 66 / / जगज्जनानन्दन ! चन्दनद्रवस्त्वदङ्गमभ्यर्च्य ससान्द्रकुङ्कुमैः / कथं भजन्ते भुवि सङ्घमानवाः, समग्रतापप्रशमेन निर्वृतिम् ? // 67 // __ हे जगत् के जीवों को आनन्दित करनेवाले जिनेश्वर ! संघ के लोग आपके अंग पर घनी केशर से युक्त चन्दन के चूर्ण लगाकर इस पृथ्वी पर समस्त तापों की शान्ति से मिलनेवाली सुख शान्ति कैसे प्राप्त करते हैं ? तात्पर्य यह है कि लोक में जो ताप-ग्रस्त होता है, उसका ताप मिटाने के लिये चन्दन का लेप किया जाता है किन्तु यहाँ यह आश्चर्य है कि लेप आपके अंग पर करते हैं और शान्ति उनको प्राप्त होती है / (यहाँ 'असंगति' अलंकार है) / / 67 / / प्रवेक्ष्य धूमं तव चैत्यमूर्धनि, प्रसपि कृष्णागुरुधूपसम्भवम् / समुन्नमन्मेघधिया कलापिनामुदेत्यविश्रान्तमकाण्डताण्डवम् // 68 // हे जिनेश्वर ! आपके चैत्य के ऊपरी भाग पर काले अगर की धूप से चारों ओर व्याप्त धुएँ को देखकर 'बादल घिर आये हैं' ऐसा समझ कर असमय में ही मयूरों का नृत्य चलता रहता है (यहाँ भ्रान्तिमान् अलङ्कार है) // 6 // Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] वनं यथा पुष्पभरेण पावनं, ग्रहवा गगनं प्रकाशिभिः / तथा सदा सङ्घजनरलङ्कृतैविराजते त्वदूभवनं श्रिया धनम् // 66 // हे देव ! जिस प्रकार पवित्र वन पुष्पों की अधिकता से शोभित होता है और आकाश प्रकाशयुक्त ग्रहों से सुशोभित होता है उसी प्रकार आपका मन्दिर भी अलंकारों से युक्त संघ के लोगों से सदा पूर्ण शोभावाला रहता है / / 66 / / प्रसारयेत् कः पुरतः स्वपाणी, कल्पद्रुमस्य त्वयि दानशौण्डे ? / काष्ठत्वसंसर्गजदोषजास्य, श्रुता हि लीनालिमिषात् कुकीतिः // 70 // हे जिनेश्वर ! आप जैसे दानवीर के रहते हुए कल्पवृक्ष के आगे कौन अपने हाथों को फैलाये ? क्योंकि काष्ठ के संसर्ग से उत्पन्न उस की जो कुकीत्ति है उसे उस पर मँडराने वाले भँवरों के बहाने सुन रखी है / / 70 // लब्ध्वा भवन्तं विदितं वदान्यं, य चेत चिन्तामणिमातः कः ? विधोरिवाकेन महस्विनोऽपि, पाषारणभावेन दितं यशोऽस्य // 71 // हे देव ! आप जैसे सर्वविदित दानवीर को प्राप्त करके चिन्तामणि से आदरपूर्वक याचना कौन करे ! क्योंकि चन्द्रमा के तेजस्वी होने पर भी जैसे उसमें कलंक है उसी तरह चिन्तामणि भी पाषाण है इससे उसका यश खण्डित हो चुका है / / 71 // अभ्यर्थनीयाऽपि न कामधेनुः, प्रसद्य सद्यो ददति त्वयीश ! / . इयं पशु किमनो धिनोतु, पयोभरैरेव न दानकोा // 72 // . हे स्वामिन् ! शीघ्र प्रसन्न होकर आपके इच्छित देने पर कामधेनु भी प्रार्थना के योग्य नहीं है; क्योंकि यह पशु (कामधेनु) अपने पर्याप्त Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 107 दूध से भले ही देवताओं के मन को तृप्त करती रहे किन्तु दान की कीर्ति से तृप्त नहीं कर सकती // 72 / / न पाटवं कामघटस्य दाने, भिदेलिमस्योपलतः क्षणेन / सदा प्रदानोत्सवकान्तकोति, विहाय तत्त्वां सजतीह को वा ? // 73 // हे प्रभो ! क्षणमात्र में पत्थर से फूट जानेवाले कामघट की भी दान में पटुता नहीं दीख पड़ती। इसलिये यहाँ सदा उत्कृष्ट दान देने की तत्परता से सुन्दर कीर्तिवाले आपको छोड़कर कौन व्यक्ति कामघट से कुछ मांगने के लिये तैयार होता है ? / / 73 // स्वत्तः प्रसीदन्ति हि कामधेनुकल्पद्रुचिन्तामणिकामकुम्भाः / त्वदप्रसत्तौ च तद्प्रसत्तिरिति त्वमेवासि बुर्धनिषेव्यः // 74 // हे जिनेश्वर ! यह निश्चित है कि कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामरिण तथा कामघट ये सब आपसे ही प्रसन्न होते हैं अर्थात् आपकी प्रसन्नता से ही ये प्रसन्न होते हैं और आपकी अप्रसन्नता रहने पर ये भी अप्रसन्न रहते हैं। इसलिये बुद्धिमानों के द्वारा आप ही सेवा के योग्य हैं / / 74 // कामप्रयासेन निषेव्यमाणाश्चिरं नृपाः स्वल्पकृपा भवन्ति / भवांस्तु भक्त्यैव तनोति सर्वमनोरथानित्यखिलातिशायी / / 75 // __ हे प्रभो ! शारीरिक परिश्रम पूर्वक सेवा करने पर राजा लोग थोड़ी कृपा करते हैं, किन्तु आप तो भक्ति से ही सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं, अतः आप सर्वश्रेष्ठ हैं / / 75 / / स्वर्गापवर्गापरणसावधानं, त्वां याचते वैषयिकं सुखं कः ? / कल्पद्रुमं को बदरीफलानि, याचेत वा चेतनया विहीनः // 76 // Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] - हे जिनेश्वर ! स्वर्ग और अपवर्ग-मोक्षसुख को देने में सावधान ऐसे आपसे कौन अभागा व्यक्ति विषय-वासना के सुख मांगता है ? क्योंकि ऐसा कौन मूर्ख होगा कि जो बेर के फलों के लिये कल्पवृक्ष से मांग करे ? // 76 // त्वदीयसेवा विहिता शिवार्थं, ददाति भोगानपि चानुषङ्गात्।। कृषीवलाः शस्यकृते प्रवृत्ताः, पलालजालं त्वनुषङ्गसङ्गि / / 77 // ___ हे स्वामिन् ! मोक्ष के लिये की गई आपकी सेवा साथ ही साथ भोगों को भी प्रदान करती है। जैसे धान के लिये खेती करने वाले किसान को धान तो प्राप्त होता ही है पर साथ-साथ पुपाल-घास का * समूह भी मिल ही जाता है / / 77 // सितोपला त्वद्वचसा विनिजिता, तृणं गृहीत्वा वदने पलायिता। क्षणादसकुच्यत हारहूरया, ततस्त्रपानिर्गतकान्तिपूरया // 78 // हे देव ! आपकी वाणी से पराजित होकर मिश्री अपने मुंह में तिनका दबा कर भाग निकली और आपकी वाणी की मधुरिमा के सामने सुन्दर दाख भी लज्जा के मारे तत्काल सिकुड़ गई / / 78 / / रसैगिरस्ते नवभिमनोरमाः, सुधासु दृष्टा बहुधापि षड् रसाः / अतोऽनयोः कः समभावमुच्चरेद्, वरेण्यहीनोपमितिविडम्बना // 76 // हे जिनेश्वर ! आपकी वाणी नवों रसों से युक्त होकर मनोहर है जबकि अमृत में प्रायः छः रस माने गये हैं। इसलिये.आपकी वाणी और अमृत में कौन विवेकशील समानता कहेगा ? क्योंकि श्रेष्ठ वस्तु को हीन वस्तु की उपमा देना केवल विडम्बना ही है // 76 // .. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 106 तृणकजात्येषु यंदल्पसारता, विचक्षणरिक्षुषु दिक्षु गीयते / समग्रसारा तव भारती ततः, कथं तदौपम्यकथाप्रथासहा // 80 // हे जिनेश्वर ! तृण की जातिवाले ईख में थोड़ा सा सार-माधुर्य है तब भी विद्वान् लोग चारों दिशा में उसकी प्रशंसा करते हैं, जबकि आपकी वाणी तो सम्पूर्ण सार वाली है तब वह उस ईख की उपमा में कही जाने वाली प्रशंसा में कैसे सही जा सकती है ? // 80 // भवद्वचःपानकृतां न नाकिनां, सुरद्रुमारणां फलभोगनिष्ठता। द्विधाप्यमीषां न ततः प्रवर्तते, फलस्त्रपाभिश्च न भारनम्रता // 1 // हे देव ! आपके वचनरूपी अमृत का पान करने वाले देवों को कल्पवृक्ष के फलों का आस्वाद लेने की अब इच्छा नहीं रही, इसलिये इन वृक्षों की फलों के भार से और लज्जावश झुकने की जो स्थिति है वह दोनों ही तरह से नम्रता नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् है ही // 1 // प्रकाममन्तःकरुणेषु देहिनां वितन्वती धर्मसमृद्धिमुच्चकैः। चिरं हरन्तो बहु पङ्कसङ्करं, सरस्वती ते प्रथते जगद्धिता // 2 // हे जिनेश्वर ! प्राणियों के अन्तःकरण में धर्म की समृद्धि को पर्याप्त रूप से बढ़ाती हुई एवं समस्त पापों के समूह को पूर्णरूपेण दूर करती हुई जगत् का हित करने वाली आपकी वाणी जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त हो रही है / / 82 // स्फुरन्ति सर्वे तव दर्शने नयाः, पृथग नयेषु प्रथते न तत् पुनः। करणा न राशौ किमु कुर्वते स्थिति, कणेषु राशिस्तु पृथग् न वर्तते // 3 // हे देव ! आपके दर्शन (सिद्धान्त अथवा शास्त्र) में सभी (नैगमादि) नय शोभित हो रहे हैं, फिर भी वह दर्शन उपर्युक्त नयों से अलग . नहीं है। क्योंकि करण जो होते हैं वे राशि अथवा ढेर में नहीं रहते हैं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ]. क्या ? फिर भी कणों से राशि पृथक् नहीं होती है / / 83 // .. स्वतः प्रवृत्तैजिन ! दर्शनस्य ते, मतान्तरश्चेत् क्रियते पराक्रिया। तदा स्फुलिङ्गमहतो हविर्भुजः, कथं न तेजः प्रसरत पिधीयते ? // 24 // हे जिनेश्वर ! स्वतः प्रवृत्त-मनगढन्त व्यवहार करने वाले मतान्तरों से यदि आपका दर्शन पराजित किया जाता है, तो महान् अग्नि को फैलते हुए तेजः स्फुलिङ्गों से क्यों नहीं ढका जाता है ? // 84 // स्फुरन्नयावर्तमभङ्गभङ्गतरङ्गमुद्यत्पदरत्नपूर्णम् / महानुयोगहदिनोनिपातं, भजामि ते शासनरत्नराशिम् // 85 // हे जिनेश्वर ! जिसमें नयनरूपी आवर्त स्फुरित हो रहे हैं, अभंग एवं भङ्गरूपी तरंगें लहरा रही हैं, उदीयमान पदरूपी रत्नों से जो परिपूर्ण है तथा महानुयोगरूपी नदियाँ जिसमें गिर रही हैं, ऐसे आपके शासनरूपी समुद्र की मैं सेवा करता हूँ // 85 / / तवोपदेशं समवाप्य यस्माद, विलीनमोहाः सुखिनो भवामः / नित्यं तमोराहुसुदर्शनाय, नमोऽस्तु तस्मै तव दर्शनाय // 86 // हे प्रभो ! जिस दर्शन शास्त्र से आपके उपदेश को पाकर हम मोह रहित एवं सुखी बनते हैं, उस अज्ञानरूपी राहु के लिये विष्णु के सुदर्शन चक्र के समान आपके दर्शन के लिये नमस्कार हो // 86 // न नाम हिंसाकलुषत्वमुच्चैः, श्रुतं न चानाप्तविनिर्मितत्वम् / परिग्रहो नो नियमोज्झितानामतो न दोषस्तव दर्शनेऽस्ति // 87 // . हे स्वामिन् ! आपके दर्शन में किसी प्रकार का दोष नही है, क्यों कि न तो उसमें हिंसा की कलुषता सुनाई देती है तथा न वह किसी अयथार्थ-अप्रामाणिक वक्ता की वह रचना है और न उसमें नियमहीनों का ग्रहण ही हुआ है / 87 // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 111 'महाजनो येन गतः स पन्था', इति प्रसिद्धं वचनं मुनीनाम् / महाजनत्वं च महावतानामतस्तदिष्टं हि हितं मतं ते // 8 // हे जिनेश्वर ! “महाजन जिस मार्ग से गया वही मार्ग उत्तम है" ऐसा मुनियों का वचन प्रसिद्ध है और महाव्रती जनों का महाजन होना भी प्रसिद्ध है / अतः आपका हितकारी मत ही मुझे इष्ट है // 8 // समग्रवेदोपगमो न केषुचित् क्वचित्, त्वसौ बुद्धसुतेऽपि वृत्तिमान् / अशेषतात्पर्यमति प्रसञ्जकं, ततोऽपुनर्बन्धकतैव शिष्टता // 86 // समस्त वेदों का ज्ञान (अथवा उसकी प्राप्ति) कहीं किसी में नहीं है, अतः वह सर्ववेदोपगमता अथवा सर्वज्ञता बुद्धसूत में भी नहीं है। फिर यदि अशेष तात्पर्य वाले को माना जाए तो अतिप्रसंग दोष आ जाता है, अतः अपुनर्बन्धकता ही शिष्टता है अर्थात् अपुनर्बन्धकभाव ही उत्तम मत है // 86 / / न वासनायाः परिपाकमन्तरा, नृणां जडे तादृशतेति सौगताः। न कापिलास्तु प्रकृतेरधिक्रिया, क्षयं तथा भव्यतयेति ते गिरः // 10 // हे जिनेश्वर ! 'मनुष्यों की वासनाओं के परिपाक के बिना जड़ में तादृशता नहीं होती' ऐसा बौद्धों का मत है और सांख्यवादी का मत है कि प्रकृति की अधिक्रिया-क्षय के बिना तादृशता नहीं होती, किन्तु आपकी वाणी इन दोनों से विलक्षण है / / 60 / / इहापुनर्बन्धकभावमन्तरा, बिति वाणी तव कर्णशूलताम् / विना किमारोग्यमति ज्वरोदये, न याति मिष्टान्नततिविषात्मताम् // 1 // हे स्वामिन् ! इस उपर्युक्त मतमतान्तर के सम्बन्ध में आपकी . वाणी उनके लिये अपुनर्बन्धक भाव के बिना कर्णशूलता (कान के दर्द) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] को धारण करती है, क्योंकि ज्वर होने पर वैद्य की सलाह के बिना अधिक मधुर भोजन करना विष के समान नहीं हो जाता है क्या ? // 61 // शास्त्राणि हिंसाद्यभिधायकानि, यदि प्रमाणत्वकथा भजन्ते। हविर्भुजः कि न तदातितीवाः, पीयूषसाधर्म्यमवाप्नुवन्ति // 2 // हे जिनेश्वर ! यदि हिंसा को बतानेवाले शास्त्र प्रामाणिकता की कोटि में मान्यता प्राप्त करते हैं तो अत्यन्त तेजस्वी अग्नि अमृत के समान तेजस्वी क्यों नहीं हो सकती है ? // 12 // विधाय मूर्धानमधस्तपस्यया, किमुच्चमन्त्रव्रतशीलशीलनः। श्रुतं न शर्लेश्वरनाम विश्रुतं, किमत्र विद्याव्रजबीजमुज्ज्वलम् // 3 // हे जिनेश्वर ! सिर को नीचे रख कर (तथा पाँवों को ऊपर रख कर) तपस्या करने से तथा उच्च मन्त्र, व्रत और प्राचार के पालन से भी क्या लाभ है ? यदि यहाँ समस्त विद्याओं के मूल, उज्ज्वल एवं प्रसिद्ध श्रीशङ खेश्वर पार्श्वनाथ का नाम नहीं सुना / / 63 // मदाम्बुलुभ्यभ्रमरारवेग, प्रवृद्धरोषं गिरितुङ्ग कायम् / प्रश्रान्तमान्दोलितकर्णतालं, प्रोन्मूलयन्तं विपिनं विशालम् // 14 // करप्रहारैः कुलिशानुकारैः, सन्त्रासयन्तं बहुवन्यजन्तून् / अभ्यापतन्तं द्विरदं निरीक्ष्य, भियं जनास्त्वच्छरणा न यान्ति // 5 // हे जिनेश्वर ! मदजल के लोभ से मँडराते हुए, भँवरों के शब्दों से क्रुद्ध, पर्वताकार विशालकाय, निरन्तर कानों को फड़फड़ाते हुए, बड़ेबड़े वृक्षों को उखाड़ देनेवाले और वज्र के समान संड के प्रहार से अनेक जंगली पशुओं को डरानेवाले हाथी को सामने आते हुए देखकर लोग आपकी शरण में आकर निर्भय नहीं बन जाते हैं क्या ? // 64 // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 113 विदीर्णदन्तिव्रजकुम्भपीठव्यक्तक्षरदरक्तरसप्रसक्तम् / गिरिप्रतिध्वानकरः प्रणाविध्वंसयन्तं करिणां विनोदम् // 66 // अतुच्छपुच्छस्वनवारबिभ्यद्-वराहमातङ्गचमूरुयूथम् / मृगारिमुवीक्ष्य न शकते ते, नाम स्मरन् नाथ ! नरो नितान्तम् // 6 // हे जिनेश्वर ! हाथियों के चीरे हुए गण्डस्थलों से प्रत्यक्ष बहते हुए रक्त से युक्त, पर्वतों के प्रतिशब्दों के नाद से हाथियों के हर्ष को नष्ट करनेवाले, विशाल पूँछ के शब्द-समूह से शूकर, हाथी और हरिणों को भयभीत करनेवाले सिंह को देखकर आपके नाम का स्मरण करता हुआ मनुष्य निःशङ्क बन जाता है, उसे किसी का भय नहीं रहता है / / 66-67 // तमालहिन्तालरसालताल-विशालसालव्रजदाहधूमैः / दिशः समस्ता मलिना वितन्वन्, दहन्निवानं प्रसृतः स्फुलिङ्गः // 8 // मिथो मिलज्ज्वालजटालमूतिर्दवानलो वायुजवात् करालः / त्वदीयनामस्मररणकमन्त्राद्, जलायते विश्वजनाभिवन्द्य ! // 66 // हे विश्वजन-प्रणम्य जिनेश्वर देव ! तमाल, हिन्ताल, आम्र, ताल और साल इन विशाल वृक्षों के दाह से उत्पन्न धूम से समस्त दिशात्रों को मलिन करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त अग्नि-स्फुलिंगों से आकाश को जलाते हुए की तरह परस्पर मिलती हुई ज्वालाओं से भीषण तथा वायु के वेग से विकराल रूप दावानल आपके नाम स्मरण रूप मुख्य मन्त्र से जल के समान शीतल हो जाता है // 68-66 / / स्फुरत्फरणाडम्बरभीमकायः, फूत्कारभारैरुदयविषायः। उल्लालयन् क्रूरकृतान्तदंष्ट्राद्वयाभजिह्वायुगलं प्रकोपात् / / 100 // Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] पापाणुभिः किं घटितः पयोदश्यामः फरणीन्द्रस्तव नाममन्त्रात् / भृशं विशङ्क व्रजतां समीपे, न भीतिलेशं तनुते नराणाम् // 101 // ___ हे जिनेश्वर ! चमकते हुए फरणों की विशिष्ट रचना से भयङ्कर शरीरवाला, फुफकार की अधिकता से विष को उगलनेवाला, क्रूर यमराज की दोनों दाढ़ों के समान अपनी दोनों जिह्वानों को क्रोध से . चाटनेवाला, मानो पापों के परमाणुओं से बना हा हो ऐसा मेघ के. समान काले वर्णवाला सर्पराज भी आपके नाम-स्मरण के फल-स्वरूप निर्भय होकर विचरण करते हुए मनुष्यों के आगे तनिक भी भय उत्पन्न नहीं कर पाता // 100-101 // . भटासिभिन्नद्विपकुम्भनिर्यन्मुक्ताफलस्तारकिताभ्रदेशे / धनुविमुक्तैः शरकाण्डवृन्दैः, प्रदर्शिताकाण्डतडिद्विलासे // 102 / / रणाङ्गणे धीरमृगारिनादः, पलायमानाखिलभीरुलोके / जयं लभन्ते मनुजास्त्वदीयपदाब्जसेवाप्रथितप्रसादाः॥१०३॥ हे स्वामिन् ! योद्धाओं की तलवारों से कटे हुए हाथियों के गण्डस्थलों से निकलती हुई गजमुक्ताओं द्वारा आकाश को तारकित बनानेवाले, धनुषों से छोड़े गये बाणों के समूह से असमय में ही बिजली की चमक दिखानेवाले, सिंह के समान गम्भीर शब्दों से समस्त भीरुजनों को भगानेवाले लोग युद्धभूमि में आपके चरण-कमलों की सेवा से पूर्ण कृपा को प्राप्त कर जय को प्राप्त करते हैं // 102-103 / / उत्तालभूयः पवमानवेगादुल्लोलकल्लोलसहस्रभीष्मे। . समुच्छलत्कच्छपनाचक्रसट्टनाभङ्गुर-यानपात्रे // 104 // पतन्महाशैलशिलारवेण, गलत्प्रमीलीकृतपद्मनामे। . श्रियं लभन्ते भवतः प्रभावात्, सांयात्रिका वीतभियः पयोधौ // 105 // Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 115 हे प्रभो ! तूफानी वायु के वेग से उछलती हुई हजारों तरंगों से भयङ्कर, पानी में दौड़ते हुए कछुए, मगर आदि के समूह की टकराहट से छिन्न-भिन्न जहाजवाले, गिरते हए महापर्वतों की शिला के शब्द से समुद्र में सोये हुए विष्णु को जगानेवाले समुद्र में यात्री लोग आपके प्रभाव से निर्भीक होकर लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं // 104-105 // जलोदरा दत्तदरा न जातु, ज्वराः प्रशान्तप्रसरा भवन्ति / न पुष्टतां कुष्टरुजः प्रमेहा, विदीर्णदेहा न समुद्भव(वह)न्ति // 106 // भगन्दरः प्रारणहरः कथं स्यात्, क्षणादू वरणानां क्षयमेति पीडा। ब्रूमः किमन्यत् तव नाममन्त्राद्, रुजः समस्ता अपि यान्ति नाशम् // 107 // हे पार्श्वजिनेश्वर ! (आपके नाम-मन्त्र के स्मरण से) मनुष्यों के जलोदर रोग से उत्पन्न भय नष्ट हो जाते हैं, ज्वर शान्त हो जाते हैं, कुण्ट रोग नहीं होते हैं और शरीर को नष्ट करनेवाले प्रमेह रोग भी नहीं होते हैं। इसी प्रकार प्राणों का हरण करने वाला भगन्दर भी कैसे हो सकता है ? घावों की पीड़ा शीघ्र दूर हो जाती है और अधिक क्या कहें ? आपके नाम-मन्त्र से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं // 106-107 // प्रापादकण्ठापितशृङ्खलौघर्बणैर्विशीर्णाः प्रतिगात्रदेशम् / व्यथावशेन क्षणमप्यशक्ता, उच्छ्वासमुल्लासयितुं समन्तात् // 108 // दशामवाप्ता भृशशोचनीयां, विमुक्तरागा निजजीवितेऽपि / नरा जपन्तस्तव नाममन्त्रं, क्षणाद् गलबन्धभया भवन्ति // 10 // हे जिनेश्वर ! पैर से कण्ठ तक जिनके साँकलें पड़ी हुई हैं और Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा उनके घावों से प्रत्येक अंग से गले हुए शरीरवाले, पीड़ा के कारण क्षणमात्र भी श्वास लेने में असमर्थ, अत्यन्त शोचनीय दशा को प्राप्त एवं अपने जीवन से निराश बने हुए मनुष्य आपके नाममन्त्र का जप करके शीघ्र ही भय-बन्धन से छूट जाते हैं // 108-106 / / * इत्यष्टभीतिदलनप्रथितप्रभावं,. नित्यावबोधभरबुद्ध-समग्र-भावम् / / विश्वातिशायि-गुणरत्नसमहधाम ! त्वामेवदेव ! वयमीश्वरमाश्रयामः // 110 // विश्व में सर्वाधिक गुण-रत्नों के प्रागार हे जिनेश्वर देव ! इस प्रकार अष्टविध भय को नष्ट करने में प्रसिद्ध, प्रभाववाले, नित्य ज्ञानसमूह से समस्त भाव को जाननेवाले, ईश्वर स्वरूप आपका ही हम आश्रय लेते हैं / / 110 // . जिन ! कृपाढ्य ! भवन्तमयं जनस्त्रिजगतीजनवत्सल ! याचते। प्रतिभवं भवतो भवतात् कृपारसमये समये परमा रतिः // 111 // __हे तीनों जगत् के जीवों के प्रति वात्सल्य रखने वाले, दयालु जिनेश्वर देव ! यह जन (यशोविजय) आपसे यही याचना करता है कि-प्रत्येक जन्म में कारुण्यरस से पूर्ण अनुराग वना रहे // 111 // प्रणम्रहरिमण्डलीमुकुटनीलरत्नत्विषां, स्वकीयदशनत्विषामपि मिथः प्रसङ्गोत्सवे। . * पद्य क्रमाङ्क 64-65 से 108-106 तक जहाँ-जहाँ दो-दो पद्य साथ दिये हैं, उन्हें 'युग्म' समझना चाहिये। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 117 सृजन्निव कलिन्दजा-सुरतरङ्गिणीसङ्गम, . भवान् भवतु भूतये भवभृतां भवत्सेविनाम् // 112 // हे जिनेश्वर ! प्रणाम करने के लिये भुके हुए इन्द्रादि देवों के मुकुट में जटित नील रत्नों की कान्ति एवं आपके दांतों को कान्ति के परस्पर सङ्गमरूप उत्सव में मानो गङ्गा और यमुना के संगम की सृष्टि करते हुए आप अपने भविक सेवकों के ऐश्वर्य के लिये हों अर्थात् उनका ऐश्वर्य बढ़ाएँ // 112 / / इति जिनपतिर्भूयो भक्त्या स्तुतः शमिनामिनस्त्रिदशहरिणीगीतस्फीत-स्फुरद्गुरणमण्डलः / प्रणमदमरस्तोमः कुर्याज्जगज्जनवाञ्छितप्रणयनपटुः पार्श्वः पूर्णी “यशोविजय"श्रियम् // 113 // इस प्रकार शान्त इन्द्रिय, भक्तों में श्रेष्ठ, देवाङ्गनाओं द्वारा गाये गये अनेक गुण-समूहों से शोभित, देव समूह से नमस्कृत, जगत् के प्राणियों के मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ भगवान् पार्श्व जिनेश्वर भक्ति से बार बार स्तुत होकर पूर्ण यश और विजय श्री को प्रदान करें // 113 // * इस स्तोत्र के अन्त में 110 वें पद्य से क्रमशः 'वसन्ततिलका, द्रुतबिल. म्बित, पृथ्वी और हरिणी छन्दों का प्रयोग हुआ है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] . श्रीमहावीरप्रमुस्तोत्रम् श्री महावीर प्रभु स्तोत्र (मन्दाक्रान्ता छन्द) ऐन्द्र ज्योतिः किमपि कुनय-ध्वान्त-विध्वंससज्जं, सद्योऽविद्योज्झितमनुभवे. यत्समापत्तिपात्रम् / तं 'श्रीवीरं" भुवन-भुवनाभोगसौभाग्यशालिज्ञानादर्श परमकरुणा-कोमलं स्तोतुमीहे // 1 // जो कुनयरूपी अज्ञानान्धकार का विनाश करने में तत्पर किसी अनिर्वचनीय इन्द्रसम्बन्धी ज्योति है, जो अविद्या से रहित है, जो अनुभव में समापत्ति-सम्यग् ज्ञानरूप है, जो समस्त भुवनों के विस्तार का कल्याण करनेवाला है, जो ज्ञान का आदर्श है तथा जो परम करुणा से द्रवित है, ऐसे श्री वीर प्रभु की मैं स्तुति करना चाहता हूँ // 1 // दिव्य-श्रव्य'ध्वनिमभिनवच्छत्र सच्चामरौघं, हृद्यातोद्य प्रवर-कुसुमा शोकशोभं सभायाम् // स्वामिन् सिंहासन मधिगतं भव्यभामण्डलं त्वां। ध्यात्वा भूयः कलयति कृती को न सालम्बयोगम् // 2 // Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 116 हे महावीर स्वामी ! सभा में अलौकिक श्रव्य ध्वनि, अभिनव छत्र एवं सुन्दर चामर समूह, हृदय को हरण करनेवाले मङ्गल वाद्य तथा श्रेष्ठ पुष्पों वाले अशोक वृक्ष से शोभित सिंहासन पर विराजमान ऐसे भव्य-भा-मण्डल-मण्डित आपके स्वरूप का ध्यान करके कौन विद्वान् 'सालम्बन-योग' को प्राप्त नहीं करता है ? // 2 / / गाढाभ्यस्तात् त्रिभुवनगुरो ! कि न तस्मादकस्मात्, क्षीरणे फापे प्रभवति निरालम्बनो योगमार्गः। यस्मादाविर्भवति भवतो दर्शनं केवलाख्यं, लक्ष्यावेधप्रगुरिणतधनुर्मुक्तकाण्डोपमानात् // 3 // हे त्रिभुवन गुरु ! उस 'सालम्बन-योग' के गहन अभ्यास से पाप के क्षीण हो जाने पर अकस्मात्-सहज ही क्या 'निरालम्बन-योग' नहीं हो जाता है ? (और जब वह. निरालम्बन-योग होने लगता है तो) लक्ष्य को ठीक तरह से बींधने के लिये चढ़ाये गये धनुष से छोड़े हुए बाण के समान (कैवल्यरूप आपके दर्शन की प्राप्ति होती है / ) अर्थात् आपके दर्शनरूप कैवल्य-मुक्ति की प्राप्ति होती है / / 3 / / मध्ये त्वाभ्यां भवति चरमावञ्चके नाम योगे, दिव्यास्त्राणां परमखुरली मोहसैन्यं विजेतुम् / तत्प्रौढेकक्रम-परिणमच्छास्त्र-सामर्थ्ययोगा, रोगातकोज्झितपदमिताः प्रातिभज्ञानभाजः // 4 // हे वीरप्रभो ! तदनन्तर इन सालम्बन एवं निरालम्बन योगों के बीच 'चरमावञ्चक' योग में मोहरूप सेना को जीतने के लिये दिव्य अस्त्रों का परम अभ्यास होता है। तब उस योग के प्रौढ़ तथा मुख्य क्रम की परिणति से शास्त्रसामर्थ्य-योग बनते हैं और उसके फलस्वरूप Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] * साधक रोग एवं भय से मुक्त पद को प्राप्त कर 'प्राति भज्ञान' सम्पन्न बन जाते हैं // 4 // प्रास्तामस्ताहितहितदृशो दूरवार्ता तवासी, इच्छायोगादपि वयमिमे यत्सुखं सम्प्रतीमः / तस्याधस्तात् सुरपतिपदं चक्रिणां चापि भोगाः, योगावेशाद्यपि च गदितं स्वर्गपुण्यं परेषाम् // 5 // हे वीर जिनेश्वर ! अहित तथा हित की दृष्टि जिनकी अस्त हो चुकी है ऐसे हम उन सालम्बन-निरालम्बनादि योगों की बात तो दूर रहे–केवल इच्छायोग-भक्तियोग से ही जो सुख प्राप्त करते हैं उसके समक्ष इन्द्र का पद, चक्रवर्तियों के भोग तथा योग की क्रियाओं से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि-पुण्य जिनका कथन अन्य मतानुयायी करते हैं, वे सब तुच्छ हैं // 5 // सेयं भक्तिस्तव यदि मयि स्थैर्यवत्येव भर्तस्तत्प्रत्यूह तदिह कलयन् कामये नैव मुक्तिम् / पूर्व पश्चादपि च विरहः कार्यतो यश्च न स्यात्, भूतो भावी तदयमुभयोः किं न मुक्तेविभागः // 6 // .. हे नाथ ! ऐसी यह आपकी भक्ति यदि मुझ में अटल बनी हुई है ही, तो मैं उस भक्ति में विघ्नरूप बनाने के लिये मुक्ति की कामना नहीं करता हूँ (अर्थात् मुक्ति आपकी भक्ति के लिये बाधक है, अतः वह मैं नहीं चाहता हूँ / ) क्योंकि जो पहले कार्य से विरह होता है वह 'भूत-विरह' तथा जो बाद में कार्य से विरह होगा वह ‘भावी-विरह' ऐसे दोनों विरहों का न होना क्या मुक्ति का विभाग नहीं है ? अर्थात् मुक्ति मिलने पर पूर्व में की गई भक्ति छूट जाती है और मुक्ति हो जाने से भविष्य में भक्ति करने का अवसर नहीं मिलता, ऐसी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 121 मुक्ति की कामना निरर्थक है // 6 // सुञ्चाम्येनां न खलु भगवन् ! क्वापि दुःखे सुखे वा, तत्त्वज्ञाने प्रणयति पुनः सङ्गते सा यदास्ते / ईद्विषविष समयतः शिक्षरणीयास्तया स्युपैनाभेदप्रणयसुभगा सा ज्ञमज्ञं च रक्षेत् // 7 // हे भगवन् ! आपकी इस भक्ति को मैं दुःख में अथवा सुख में किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता है क्योंकि वह तत्त्वज्ञान हो जाने पर भी साथ ही रहती है। तथा असहनशीलता और द्वेष-पूर्वक बनाये गये विषरूप शास्त्रों से आपकी भक्ति के द्वारा वे लोग बचाये जा सकगे और इस प्रकार आपकी समता और प्रेम से वह भक्ति विद्वान् एवं मूर्ख दोनों की रक्षा करे। ___ अर्थात् आपकी भक्ति तत्त्वज्ञान होने पर भी विद्वान् का साथ न छोड़ने से तथा ईषादिजनित विषरूप शास्त्रों से अज्ञ बने हुए लोगों को शिक्षा देने से दोनों की रक्षा करे-करती है। इसलिये मैं आपकी भक्ति नहीं छोड़ता हूँ / / 7 // प्राणायामैः किमतनुमरुन्निग्रहक्लेशचण्डः, किं वा तीव्रव्रतजप-तपः-संयमैः कायदण्डः / ध्यानावेशैलंयपरिणतंतृभिः किं सुषुप्तेरेका भक्तिस्तव शिवकरी स्वस्ति तस्यै किमन्यैः // 8 // हे जिनेश्वर ! दीर्घकाल तक श्वास-प्रश्वास के रोकने से अतिशय कष्ट पहुँचाने वाले प्राणायामों से क्या लाभ है ? अथवा तीव्र जप, तप और संयम द्वारा काया को दण्ड देने से भी क्या लाभ है ? अथवा सुषुप्ति अवस्था के सहोदर-रूप ध्यान लगाने से लययोग की उपलब्धि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] से भी क्या लाभ है ? कुछ नहीं। क्योंकि आपकी एकमात्र भक्ति ही कल्याण करने वाली है। उसका भला हो / और दूसरों से क्या करना है? // 8 // मोहध्वान्तप्रशमरविभा पापशेलैकवज्र, व्यापत्कन्दोद्दलन-परशुर्दुःखदावाग्निनीरम् / कुल्या धर्म हृदि भुवि शमश्रीसमाकृष्टिविद्या, कल्याणानां भवनमुदिता भक्तिरेका (व) त्वदीया // 6 // हे परमात्मन् ! एक आपकी भक्ति ही मोहान्धकार को नष्ट करने में सूर्य की किरणों के समान है। पापरूपी पर्वतों को खण्ड-खण्ड करने के लिये वज्र के समान है। विशिष्ट आपत्तिरूप वृक्ष को काटने के लिये कुठाररूप है। दुःखरूप दावानल को शान्त करने के लिये जल के समान है / हृदय में धर्मरूप पौधों के लिये क्यारी के समान है, पृथ्वी पर शमरूपी श्री के लिये आकर्षण-विद्या के समान है तथा समस्त कल्याणों के लिए आगाररूप कही गई है // 6 // त्वं मे माता त्रिभुवनगुरो ! त्वं पिता त्वं च बन्धु- . स्त्वं मे मित्रं त्वमसि शरणं त्वं गतिस्त्वं धृतिमें। उद्धर्ता त्वं भवजलनिधेनिवृतौ त्वं च धर्ता, त्वत्तो नान्यं किमपि मनसा संश्रये देवदेवम् // 10 // हे त्रिभुवनगुरो ! आप ही मेरे माता, पिता, बन्धु, मित्र, शरण, गति और धैर्य हो / आप ही भवसागर से उद्धार करनेवाले तथा मोक्ष देनेवाले हो। हे देव ! आपको छोड़कर किसी अन्य देव का मैं मन से भी आश्रय नहीं चाहता हूँ // 10 // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 123 तपगणमुनिरुद्यत्कीति-तेजोभृतां श्री"नयविजय"गुरूणां पादपद्मोपजीवी। स्तवनमिदमकार्षाद्वीतरागैकभक्तिः, प्रथितशुचि"यशः" श्रीरुल्लसद्भक्तियुक्तिः // 11 // तपागच्छ के मुनियों में उदीयमान कीर्ति के तेज को धारण करनेंवाले 'श्रीनयविजय' नामक गरु के चरण कमलों के सेवक, वीतराग के चरणों में एकान्त भक्तिवाले तथा प्रख्यात एवं पवित्र यशःश्री से उल्लसित 'श्री यशोविजय उपाध्याय' ने भक्ति की युक्तियों से पूर्ण यह महावीर स्वामी का स्तवन निर्मित किया // 11 // * इस पद्य में ‘मालिनी-छन्द' का प्रयोग हुआ है / साथ ही द्वितीय पद्य में 'अष्टमङ्गल' का निर्देश तथा क्रमशः 2, 3, 4 और ५वें पद्य में १-साल• म्बन-योग, २-निरालम्बन-योग, ३-चरमावञ्चक-योग और ४-इच्छा योग का सूचन भी महत्त्वपूर्ण है। इन योगों का विशिष्ट विवेचन भूमिका में देखें। -~-सम्पादक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] . वीरस्तवः न्यायखण्डनखाद्यटीकासंवलितः] 'न्याय खण्डनखण्ड खाद्य' टीका से युक्त -वीरस्तव- . . ऐङ्कारजापवरमाप्य कवित्व-वित्त्ववाञ्छासुरद्रुमुपगङ्गमभङ्गरङ्गम्। ' सूक्तैविकासि-कुसमस्तव वीर शम्भोरम्भोजयोश्चरणयोवितनोमि पूजाम् // 1 // ... गङ्गा के निकट ‘ऐ" इस बीजमन्त्र के जप के वरदानरूप में, जिस सामर्थ्य का कभी ह्रास नहीं होता, ऐसे कवित्व और विद्वत्ता की कामना को पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्ष को प्राप्त कर उसी के सूक्तरूपी खिले हुए पुष्पों के द्वारा हे कल्याण के उद्भावक, हे महावीर ! मैं (यशोविजय) आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ // 1 // ' यह सुप्रसिद्ध है कि--पूज्य उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने गङ्गा के किनारे वाराणसी में प्रवचन की अधिष्ठायिका श्रुतदेवी, वाग्देवी, भारतीदेवी आदि नामों से विख्यात भगवती सरस्वती देवी के बीजमन्त्र 'ऐ' का जप करके वरदान प्राप्त किया था। इस बात का उल्लेख स्वयं स्तुतिकार ने Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 125 स्तुत्या गुरणाः शुभवतो भवतो न के वादेवाधिदेव ! विविधातिशद्धिरूपाः / तर्कावतार-सुभगैस्तु वचोभिरेभि स्त्वद्वाग्गुणस्तुतिरनुत्तरभाग्यलभ्या // 2 // हे देवाधिदेव ! विविध प्रकार के अतिशयों की ऋद्धिवाले समस्त सुन्दर वस्तुओं के आश्रय ऐसे आपके कौन-से गुण हैं जो प्रशंसा के योग्य नहीं हैं ? अर्थात् सभी प्रशंसनीय हैं / तथापि इन तर्क के सम्बन्ध से सुन्दर वचनों द्वारा आपकी वाणी के गुणों की मैं स्तुति करता हूँ, क्योंकि यही सर्वोत्तम भाग्य से प्राप्तव्य है // 2 // नैरात्म्यदृष्टिमिह साधनमाहुरेके, सिद्धेः परे पुनरनाविलमात्मबोधम् / तैस्तैर्नयैरुभयपक्ष-समापि ते वा गाद्यं निहन्ति विशदव्यवहारदृष्टया // 2 // हे देव ! बौद्धों ने 'नैरात्म्यदृष्टि'-अर्थात् 'ज्ञान से भिन्न गुणों का आधार द्रव्यरूप आत्मा नहीं है" इस निश्चय को सिद्धि-मोक्ष का उपाय बताया है। इसी प्रकार अन्य न्याय, वैशेषिक शास्त्रानुयायियों ने 'निर्मल प्रात्म-ज्ञान'-अर्थात् आत्मा शरीर, मन, इन्द्रिय आदि से अनेक स्थलों पर किया है। जैसे-ऐ कारेण-वाग्बीजाक्षरेण विस्फारम्-अत्युदारं यत् सारस्वतध्यानं-सारस्वतमन्त्रप्रणिधानं तेन दृष्टा-भावनाविशेषेण साक्षात्कृता।" अर्थात् ऐंकार वाग्बीजाक्षर के पर्याप्त प्रणिधान से सरस्वती का साक्षात्कार किया है जिसने / (ऐन्द्रस्तुति-महावीर-जिनस्तुति, श्लोक 2 की टीका स्वोपज्ञ) इसी बात का स्मरण करते हुए तथा कृतज्ञता प्रकट करते हुए यहाँ 'ऐकार जापवर' की बात कही गई है। -सम्पादक Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] भिन्न; जन्म, जरा आदि विकारों से रहित, ज्ञान से भिन्न और ज्ञान आदि गुणों का आधार" द्रव्य है, इस निश्चय को मोक्ष का उपाय कहा है।* किन्तु आपकी वाणी पर्यायाथिक और द्रव्याथिक ऐसे भिन्नभिन्न नयों के अनुसार दोनों पक्षों के अनुकूल है, तथापि विशदव्यवहार-मोक्ष की ओर ले जानेवाले व्यावहारिक पक्ष की-दृष्टि से प्राद्य-पक्ष-बौद्धों के अनात्मवाद को अप्रामाणिक बताकर उसका खण्डन करती है / / 3 // . प्रात्मा न सिध्यति यदि क्षणभङ्गबाधा, नैरात्म्यमाश्रयतु तद्भवदुक्तिबाह्यः / व्याप्त्यग्रहात् प्रथमतः क्षरणभङ्गभङ्गे, शोकं स भूमि-पतितोभयपाणिरेतु // 4 // क्षणभङ्ग अर्थात् 'प्रत्येक भावात्मक वस्तु अपने जन्म के ठीक बादवाले क्षण में ही नष्ट होती है', इस सिद्धान्त को सिद्ध करनेवाले प्रमाण के विरोध से यदि ज्ञानाश्रय आत्मा की सिद्धि न हो, तो बौद्ध का आपके उपदेश की अवहेलना कर अनात्मवाद का आश्रय लेना उचित होगा, किन्तु यदि सत्त्व में क्षणिकत्व की व्याप्ति का ज्ञान न हो सकने के कारण प्रारम्भ में क्षणभङ्ग की ही सिद्धि न हो, तो पृथ्वी पर अपने दोनों हाथ पटक कर उसे शोकमग्न होना ही पड़ेगा // 4 // सामर्थ्यतविरहरूप-विरुद्धधर्मसंसर्गतो न च घटादिषु भेदसिद्धः। व्याप्तिग्रहस्तव परस्य यतः प्रसङ्ग व्यत्यासयोर्बहुविकल्पहतेरसिद्धिः // 5 // . 'सामर्थ्य' और 'तद्विरह रूप-असामर्थ्य' इन दो विरुद्ध धर्मों के * द्रष्टव्य—'न्यायसिद्धान्तमञ्जरी' अवतरणिका / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 127 सम्बन्ध से पहले क्षण में रहनेवाले घट आदि पदार्थों में द्वितीय क्षण में रहनेवाले घट आदि पदार्थों का भेद सिद्ध होता है, किन्तु यह भेद पहले क्षण में विद्यमान वस्तु का दूसरे क्षण में विनाश माने बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार घट आदि पदार्थों में सत्ता और क्षणिकता के सहचार का दर्शन होने से 'जो सत् है वह क्षणिक है' इस व्याप्ति का निश्चय निर्बाधरूप से हो सकता है। किन्तु हे भगवन् ! आपकी आज्ञा के बहिर्वर्ती बौद्ध का यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि क्षणिकता का मूलभूत भेद जिन विरुद्ध धर्मों के सम्बन्ध से सिद्ध किया जाता है, वे साधक प्रसङ्ग-तर्क और व्यत्यास-विपरीतानुमान के अनेक विकल्पों से व्याहत होने के कारण सिद्ध ही नहीं होते / / 5 / / सामर्थ्यमत्र यदि नाम फलोपधानमापाद्य साध्यविभिदाविरहस्तदानीम् / इष्ट-प्रसिद्धयनुभवोपगम-स्वभाव व्याघात इच्छति परो यदि योग्यतां च / / 6 // [प्रस्तुत तर्क तथा विपरीतानुमान में बौद्ध] यदि सामर्थ्य शब्द से फलोपधायकता को लेना चाहता है, तो आपाद्य और पापादक तथा साध्य और साधन के परस्पर भेद का लोप एवं यदि स्वरूपयोग्यता को ग्रहण करना चाहता है, तो इष्ट-प्रसिद्धि-सिद्धसाधन-अनुभवोपगम साध्यबाधक निश्चय, तथा स्वभाव (अर्थात् स्वरूप के द्वारा उक्त तर्क एवं विपरीतानुमान) का व्याघात प्राप्त होता है // 6 // न त्वद्रुहो भवति चेप्सितसाध्यसिद्धिमुख्यात् समर्थविषय-व्यवहारतोऽपि / भूम्ना स जन्म विषयोऽपि हि योग्यतोत्थो, व्याप्तिस्तु हेतुसहकारि विशेषलभ्या // 7 // Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] हे भगवन् ! आपका प्रतिवादी बौद्ध जिस साध्य का साधन करना चाहता है उसकी सिद्धि 'समर्थविषयव्यापार' से भी नहीं हो सकती; क्योंकि 'कार्य की उत्पादकता की व्याप्ति सहकारिवर्ग से युक्त हेतु में ही होती है न कि मुख्य समर्थ व्यवहार में / ' अतः वह अधिकांश रूप में जन्म-विषयक होने पर भी स्वरूप-योग्यता से ही उत्थित होता है // 7 // एतावतैव हि परप्रकृतप्रसङ्गभङ्गेन सिद्धयति कथाश्रित-पूर्वरूपम् / शिष्यविधेयमुचितं विशद-स्वभावं. . प्रश्नोत्तरं तु तव देव ! नयप्रमाणेः // 8 // हे देव ! यद्यपि ['समर्थ-पदार्थके व्यवहार में कार्यकारिता की व्याप्ति नहीं है' इतना प्रतिपादन कर देने मात्रसे ही] पूर्वपक्ष में बौद्ध द्वारा उपस्थित किए गए तर्क का खण्डन हो जाने से कथा का पूर्वरूप सम्पन्न हो जाता है; तथापि प्रतिवादी के जिज्ञासुभाव से वस्तु-स्वभाव के बारे में प्रश्न करने पर आपके शिष्यों को समस्त नयरूप-प्रमारणों द्वारा उस प्रश्न का यथार्थ उत्तर देना ही चाहिए // 8 // . स्याद्वादनाम्नि तव दिगविजयप्रवृत्ते, सेनापतौ जिनपते ! नय सार्वभौम ! / नश्यन्ति तर्कनिवहाः किमु नाम नेष्टा पत्तिप्रभूतबलपत्तिपदप्रचारात् // 6 // हे समस्त नयों के सम्राट् जिनेश्वर ! आपके स्याद्वादरूप सेनापति के [अन्य नयों के दुर्ग में निवास करने वाले अज्ञान का विनाश करने के उद्देश्य से] दिग्विजय हेतु प्रवृत्त होने पर क्या [उसी समय Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 126 विभिन्न शास्त्रों के अन्य विरोधी] तर्क इष्टापत्ति आदि बलवती सेना के सञ्चार मात्र से नष्ट नहीं हो जाते हैं ? // 6 // जात्यन्तरेण मिलितेन विभो ! समर्थे, क्षेपो न युज्यत इति क्षणिकत्वसिद्धिः, जात्यन्तरा ननु भवादपि च प्रवृत्तिः, सामान्यतो हि घटते फलहेतुभावात् // 10 // हे विभो ! “समर्थ कारण अपने को पैदा करने में विलम्ब नहीं करता” इस नियम के अनुसार अंकुर को उत्पन्न करनेवाले बीजों में ही अंकुर-सामर्थ्य मानना पड़ता है और उसके नियमन के लिए उनमें 'कुर्वद्रूपत्व' नामक जात्यन्तर भी मानना आवश्यक होता है / परन्तु यह बात जात्यन्तर से यूक्त व्यक्तियों को क्षणिक माने बिना उत्पन्न नहीं हो सकती। अतः उन्हें क्षणिक मानना परमावश्यक हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु की क्षणिकता का बोध करते हैं। पर क्षरिणकता की सिद्धि का उनका यह मार्ग युक्ति-सङ्गत नहीं है, क्योंकि अंकुर पैदा करनेवाले बीजों में प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से उस जात्यन्तर का अनुभव नहीं होता, इसके अतिरिक्त उस जाति से युक्त बीजों को ही अंकुर का कारण मानने पर अंकुर पैदा करने की इच्छावाले कृषक की कुसूल (बीज संग्रह का पात्र) में स्थित बीज जो उस जाति से शुन्य होने के नाते अंकूर के कारण नहीं कहे जा सकते, उनके संरक्षण एवं वपन में प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि "जिस वस्तु की इच्छा मनुष्य को होती है उसकी कारणता का ज्ञान जिसमें होता है उसी के ग्रहण और संरक्षण में उसकी प्रवृत्ति होती है' यह नियम है। इसलिये बीजसामान्य में अंकुरार्थी कृषक की प्रवृत्ति की सिद्धि के लिये बीज-सामान्य - को अंकुर का कारण मानना आवश्यक है // 10 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] सङ्ग्राहकेतरविकल्पहतिश्च तत्र, व्यक्तौ विरोधगमने व्यवहारबाघः। व्यावृत्तयोऽप्यनुहरन्ति निजं स्वभाव माकस्मिकव्यसनिता द्विषतां तवाहो ! // 11 // अंकुर की उत्पादकता का नियामक जो कुर्वद्रूपत्व है वह यवत्व का संग्राहक है अर्थात् सभी यवबीजों में कुर्वद्रूपत्व रहता है, अथवा उसका संग्राहकेतर अकुर्वद्रूपत्व विरोधी है अर्थात् किसी यवबीज में नहीं रहता / इस प्रकार के संग्राहक और प्रतिक्षेपक सम्बन्धी विकल्पों से कुर्वद्रूपत्व नामक काल्पनिक जाति का बाध होमा; क्योंकि प्रथम विकल्प में अंकुर पैदा न करनेवाले यवबीजों में भी उसकी प्रसक्ति और द्वितीय विकल्प में अंकुर पैदा करनेवाले यवबीजों से भी उसकी निवृत्ति हो जाएगी। यदि सभी यवबीजों में कुर्वद्रूपत्व की व्यापकता न मानकर अंकुरोत्पादक यवबीजों में ही उसकी व्यापकता स्वीकार करके संग्राहकता माने और सभी यव बीजों में उसका विरोध न मानकर अंकुरानुत्पादक यवबीजों में ही कुर्वपत्व-विरोधिता मान ली जाएगी तो परस्पर व्यभिचारी जातियों में भी इस न्याय का संचार हो सकने के कारण किसी अदृष्ट व्यक्ति में गोत्व और अश्वत्व के भी सहभाव की सम्भावना से उनके सर्वजनप्रसिद्ध, सर्वाश्रयव्यापी विरोध व्यवहार का लोप होगा, क्योंकि उक्त प्रकार से दो जातियों में परस्पर की संग्राहकता और प्रतिक्षेपकता स्वीकार कर लेने पर 'परस्पर व्यभि चारी जातियों का सहभाव नहीं होता' इस नियम का परित्यांग होता है। परस्पर व्यभिचार होने पर एक आश्रय में न रहना यह स्वभाव जातियों का ही न होकर जाति के प्रतिनिधिरूप में बौद्धकल्पित अतद् Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 131 व्यावृत्तियों का भी है, अतः अतद्व्यावृत्तिरूप कुर्वद्रूपत्व की कल्पना भी उक्त विकल्पों से बाधित होगी। हे भगवान् ! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि आपके विरोधी बौद्ध कुर्वद्रूपत्व की कल्पना के उस अनुचित पक्ष का आग्रह नहीं छोड़ते जिसमें अंकुर आदि सामान्य कार्यों का जन्म आकस्मिक अर्थात् अव्यवस्थित हो जाता है / / 11 // प्राकस्मिकत्वमपि तस्य भयाय न स्यात्, स्याद्वादमन्त्रमिह यस्तव बम्भरणीति / यत् साधनं यदपि बाधनमन्यदोयाः, कुर्वन्ति तत् तव पितुः पुरतः शिशुत्वम् // 12 // हे भगवन् ! जो व्यक्ति इस विचार में आपके स्याद्वादमन्त्र का प्रयोग विशेषरूप से करता है उसे कार्यसामान्य के आकस्मिक हो जाने का भय नहीं होता, क्योंकि विभिन्न दृष्टियों से कार्य को आकस्मिकता और अनाकस्मिकता दोनों ही इष्ट हैं। ऐसी स्थिति में स्याद्वाद के महत्त्व को जानकर जो किसी एक विचार का समर्थन एवं अन्य विचार का खण्डन करते हैं, उनका वह कार्य आपके सामने ठीक वैसा ही है, जैसा कि पिता के सामने बालक का विनोद // 12 // एकत्र नापि करणाकरणे विरुद्ध, भिन्नं निमित्तमधिकृत्य विरोधभङ्गात् / एकान्तदन्तहृदयास्तु यथाप्रतिज्ञं, किञ्चिद्वदन्त्यसुपरीक्षितमत्वदीयाः // 13 // यद्यपि एक व्यक्ति में भी करण तथा अकरण (किसी कार्य की उत्पादकता एवं अनुत्पादकता) के अस्तित्व से कोई विरोध नहीं होता, क्योंकि निमित्तभेद से उसका परिहार हो जाता है। अतः बौद्ध का Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .132] एकमात्र क्षणिकता का पक्ष युक्तिसंगत नहीं है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि नैयायिक का एकान्तस्थिरतापक्ष न्याय्य है, क्योकि एकान्तवाद ने जिनके हृदय पर अधिकार कर लिया है ऐसे लोग आप के अनुशासन का उल्लंघन कर अच्छी प्रकार से परीक्षा किये बिना ही कुछ अपूर्ण एवं अनिश्चित बात कहा करते हैं / / 13 / / काले च दिश्यपि यदि स्वगुणेविरोधो, ' बाझो न कोऽपि हि तदा व्यवतिष्ठतेऽर्थः / सौत्रान्तिको व्यवहरेत् कथमित्थमुच्चै न त्वन्मतQहमहो ! वृणुते जयश्रीः // 14 // कालभेद तथा दिशाभेद से तत्कार्यकरण और तत्कार्याकरण ऐसे जिन गुणों-धर्मों का एक व्यक्ति में सहभाव प्राप्त होता है उनका भी परस्पर विरोध-असहभाव मानकर यदि उन्हें अपने आश्रयों का भेदक माना जाएगा तो किसी भी बाह्यवस्तु की सिद्धि नहीं होगी। इस स्थिति में बाह्यवस्तु की सत्ता के आधार पर सौत्रान्तिक कार्यकारणभाव आदि जिन व्यवहारों को उच्चस्वर से स्वीकार करता है उनकी उपपत्ति नहीं होगी। इसलिए हे भगवन् ! यह बड़े आश्चर्य की बात है, कि सूक्ष्म दृष्टि से वस्तुतत्त्व का विचार करने में सिद्धहस्त सौत्रान्तिक का भी विजयश्री वरण नहीं करती, क्योंकि आपके सिद्धान्त का विरोध करने के कारण वस्तुस्वरूप का यथार्थ-वर्णन करने में यह उसे अयोग्य समझती है // 14 // तस्य त्वदागममृते शुचियोग ! योगाचारागमं प्रविशतोऽपि न साध्यसिद्धिः। . तत्रापि हेतुफलभावमते प्रसङ्गा- .. भङ्गात् तदिष्टिविरहे स्थिरबाह्यसिद्धेः // 15 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 133 हे पवित्र योगनिधि ! आपके द्वारा आविष्कृत स्याद्वाद-दर्शन को छोड़कर योगाचार के सिद्धान्त की शरण लेने पर भी बौद्ध के साध्य की सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि वहां भी कार्यकारण भावरूप अपने वैरी का मार्गनिरोध किये बिना उसकी उस आपत्ति का परिहार न होगा जिसे टालने के लिए उसने यह नया स्थान चुना है। और यदि कार्यकारणभाव का अस्तित्व मिटाकर वह ऐसा करेगा तो स्थिर एवं बाह्य वस्तु को स्वीकृति का भार अवश्य उठाना पड़ेगा / / 15 / / देशे स्वभावनियमाद्यदि नापराधः, कालेऽपि मास्तु स निमित्तभिदाऽनुचिन्त्या। तेस्तैर्नयैर्व्यवहतिर्यदनन्तधर्म क्रोडीकृतार्थविषया भवतो विचित्रा // 16 // 'अपने आश्रयस्थान में ही कार्य का जनन करना' यह वस्तु का स्वभाव है, स्वभाव पर किसी तक का शासन नहीं चल सकता, उसका अधिकार संकुचित नहीं होता, उसके बारे में, इस वस्तु का ऐसा ही स्वभाव क्यों है ? इसके विपरीत क्यों नहीं ? ऐसे प्रश्न का औचित्य नहीं माना जाता। इस लिये जो एक देश में एक कार्य का कारी-उत्पादक है, देशान्तर में उसका अकारित्व उसके स्वभावरूप में में प्राप्त नहीं होता। अतः देश-भेद से एक कार्य का कारित्व और प्रकारित्व ऐसे दो विरुद्ध धर्मों का सन्निवेश एक व्यक्ति में प्राप्त न होने के कारण क्षणस्थायी वस्तु में सर्वशून्यता-पर्यवसायी अनैक्य प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिये अमुक पदार्थ अमुक स्थान में ही अमुक कार्य काजनन करता है ऐसा कहनेवाले व्यक्ति का कोई अपराध नहीं होता। यदि ऐसी बात क्षणिकतावादी बौद्ध की ओर से कही जाएगी तो .. स्थैर्यवादी नैयायिक की ओर से भी यह बात कही जा सकती है कि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] सहकारी कारणों के सन्निधानकाल में ही कार्य का जनन करनावस्तु का नियत स्वभाव है और समालोचना स्वभाव के पद का स्पर्श नहीं कर सकती। अतः एक काल में जो जिसका कारी है कालान्तर में उस कार्य का प्रकारित्व उसके स्वभाव में सम्भावित नहीं हो सकता। इसलिए कालभेद के आधार पर एक कार्य का कारित्व और अकारित्व ऐसे विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध एक व्यक्ति में प्राप्त नहीं होगा। फलतः बौद्ध-मत में जैसे क्षणिक एक वस्तु में नानात्व प्रसक्त नहीं होता वैसे न्यायादिमत में स्थिर एक वस्तु में भी नानात्व प्रसक्त नहीं हो सकता। विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मों में से किसी एक ही का सम्बन्ध एक व्यक्ति में स्वीकार करना उचित है, क्योंकि उस स्थिति में निमित्तभेद की कल्पना का आयास नहीं करना होगा। हे जिनेन्द्र ! ऐसा आपके समक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आप उन सभी नयभेदों के अध्यक्ष हैं जिनके आधार पर एक व्यक्ति में भी अनेक आकार के व्यवहार होते हैं और जिनका सामञ्जस्य करने के लिए आपने प्रत्येक परिवेष में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्मों के अस्तित्व का उपदेश किया है // 16 // यत् कारणं जनयतीह यदेकदा तत्, * तत् सर्वदेव जनयेन्न किमेवमादि / प्राक्पक्षयोः कलितदोषगणेन जाति व्यक्त्योनिरस्यमखिलं भवतो नयेन् // 17 // 'जो कारण एक काल में जिस कार्य का जनन करता है वह अपने समग्र स्थितिकाल में भी उसका जनन करता है और जो जिस का जनन अपनी स्थिति के किसी एक क्षण में नहीं करता वह अपने समग्र स्थिति काल में भी उसका जनन नहीं करता।' इस प्रकार की व्याप्तियों Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 135 की नींव पर भी तर्क और विपरीतानुमान के महल नहीं खड़े किए जा सकते, क्योंकि जाति और व्यक्ति इन दोनों पक्षों में आपके नैगमादि नयों से प्रवृत्त होनेवाले न्यायनय से जिस दोषसमूह का उल्लेख पहले किया गया है उसी से उक्त व्याप्तियों के बल पर होनेवाले सभी तर्क और विपरीतानुमानों का निरास हो जाता है / / 17 / / तस्यैव तेन हि समं सहकारिणा च, सम्बन्ध-तद्विरहसङ्घटनाविरोधः / ध्वस्तस्तवैव जिनराज ! नयप्रमाणे न स्यात् प्रभुः कथमपि क्षरिणकत्वसिद्ध्यै // 18 // उस एक ही व्यक्ति में उसी सहकारी के सम्बन्ध की संघटनाअस्तित्व विरुद्ध है। अतः जिस सहकारी का सम्बन्ध जिसमें नहीं है उसे उस सहकारी के सम्बन्धी से भिन्न मानना होगा और इस भिन्नता के उपपादनार्थ क्षणिकता की स्वीकृति भी उपलब्ध करनी होगी। यह बौद्ध-कथन सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि हे जिनराज ! आपके नय और प्रमाणों द्वारा उक्त विरोध का परिहार हो जाता है। अतः वह विरोध क्षणिकता का साधन करने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता // 18 // व्याप्त्यप्रदर्शनमिदं व्यतिरेकसिद्धावप्युच्चकैः क्षतिकरं त्वदनाश्रवस्य / श्वासादिकं ज्वर इवात्र च पक्षहेतु दृष्टान्तसिद्धिविरहादधिकोऽपि दोषः // 16 // सब अनर्थों की मूलभूत कामनाओं से रहित हे परमेश्वर ! आपके उपदेश में आस्था न रखने वाले बौद्ध की सत्ता में क्षणिकता की Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] * अन्वय-व्याप्ति के समर्थन की जो यह असमर्थता है, वह व्यतिरेकसिद्धि-जो क्रमकारी तथा अक्रमकारी नहीं होता वह असत् होता है - इस अभावाश्रयी नियम की सिद्धि में भी बाधक है / इसके अतिरिक्त / ज्वर में श्वास-वृद्धि, मूर्छा तथा प्रलाप आदि के समान उक्त व्यतिरेक नियम की सिद्धि में पक्ष, हेतु और दृष्टान्त की प्रसिद्धि आदि अन्य दोष भी हैं // 16 // प्रादाय सत्त्वमपि न * क्रमयोगपद्ये, नित्यान्निवृत्त्य बिभृतः क्षणिके प्रतिष्ठाम् / यन्न त्वदीयनयवाङ्नगरी गरीय श्चित्रस्वभावसरणौ भयतो निवृत्तिः // 20 // ...क्रम क्रमकारित्व अर्थात्-एक कार्य करने के बाद दूसरा कार्य करना तथा यौगपद्य युगपत्कारित्व अर्थात्-अपने सभी कार्यों को एक ही साथ करना-इनमें से कोई भी प्रकार स्थायी पदार्थ में सम्भव नहीं है, अतः उसमें सत्ता नहीं मानी जा सकती। 'क्षणिकपदार्थ में योगपद्य सम्भव है, अतः उसी में सत्ता की स्वीकृति उचित है यह बौद्ध-कथन संगत नहीं है, क्योंकि स्थायी पदार्थ में क्रमकारिता मानने में कोई भी दोष नहीं है अतः क्रमयोगपद्यभाव से उसमें सत्ता का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। हे भगवन् ! वस्तुतः सत्ता न सर्वथा स्थायी पदार्थ में सुरक्षित हो सकती है और न सर्वथा क्षणिक पदार्थ में; किन्तु आपकी नय-नगरी के श्रेष्ठ चित्रस्वभाव-रूपी राजमार्ग पर स्याद्वाद के महारथ में अर्थात् कथञ्चित् स्थायी और कथञ्चित् रूप से स्वीकृत अनेकान्तात्मक पदार्थ में हो मानने पर भय से निवृत्ति हो सकती है। अतः वस्तु को न एकान्त स्थिर ही मानना चाहिये और न एकान्त वणिक ही, अपितु उभयात्मक मानना चाहिये / / 20 // Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 137 नाशोऽत्र हेतुरहितो ध्रुवभावितायास्तेनागतं स्वरसतः क्षरिणकत्वमर्थे / इत्येतदप्यलमनल्पविकल्पजाल रुच्छिद्यते तव नयप्रतिबन्दितश्च // 21 // 'उत्पन्न होनेवाले भाव पदार्थ का नाश कारणनिरपेक्ष है, क्योंकि वह अवश्यम्भावी होता है उसके होने में विलम्ब नहीं होता', यह एक निश्चित नियम है, इसलिये बिना किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा किये ही पदार्थ को क्षणिकता सिद्ध हो जाती है। हे भगवन् ! बौद्ध का यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि आपके नय की प्रतिबन्दी से तथा ध्रुवभाविता-अवश्यम्भावितारूप हेतु के स्वरूप के बारे में उठनेवाले सभी विकल्पों के दोषग्रस्त होने से उक्त कथन का सर्वथा निरास हो जाता है // 21 // द्रव्यार्थतो घटपटादिषु सर्वसिद्धमध्यक्षमेव हि तव स्थिरसिद्धिमूलम् / तच्च प्रमाणविधया तदिदन्त्वभेदा भेदावगाहि नयतस्तदभेदशालि // 22 // -- हे भगवन् ! आपके मत में 'सोऽयम्'- वह यह है, अर्थात् उस स्थान और उस समय की वस्तु तथा इस स्थान और इस समय की वस्तु अभिन्न है--एक है, यह सार्वजनीन प्रत्यक्ष ही घट, पट आदि पदार्थों के द्रव्यांश की स्थिरता के साधन का मूल है। वह प्रत्यक्ष प्रमाणरूप से १-तत्ता-तद्देश एवं तत्काल के साथ सम्बन्ध तथा २-इदन्ता, एतद्देश. एवं एतत्काल के साथ सम्बन्ध-इन दो रूपों से भेद और उन विभिन्न देश-कालों में सूत्र के समान अनुस्यूत द्रव्य के रूप से अभेद का प्रकाशन करता है और वही प्रत्यक्ष नय-रूप से अभेद-मात्र का Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] प्रकाशन करता है / / 22 / / त्वच्छासने स्फुरति यत् स्वरसादलीकादाकारतश्च परतोऽनुगतं तु बाह्यम् / आलम्बनं भवति सङ्कलनात्मकस्य, तत्तस्य न त्वतिविभिन्नपदार्थयोगात // 23 // अलीक और ज्ञानाकार से भिन्न घट, पट आदि जितनी भी बाह्य वस्तुएँ हैं, वे हे भगवन् ! आपके शासन में अतिरिक्त अनुगमकएकरूपता के सम्पादक और व्यावर्तक-भेदक धर्म के बिना ही अनुगत और व्यावृत्त है, उनकी अनूगतता-एकरूपता और व्यावृत्तता-भिन्नता स्वारसिक अर्थात् स्वाभाविक है। एवं ये वस्तुएँ जिस प्रत्यभिज्ञा नामक ज्ञान में स्फुरित होती है वह भी केवल प्रत्यक्षरूप न होकर संकलनरूप है, और उस ज्ञान में उन वस्तुओं का जो स्फुरण होता है वह भी इसलिये नहीं कि वे अपने से अत्यन्त भिन्न, स्थायी और अनुगत घटत्व आदि धर्मों से युक्त हैं, अपितु इसलिये कि वे स्वभावतः अनुगत अर्थात् एकरूप हैं // 23 // . तद्भिन्नतामनुभवस्मरणोद्भवत्वाद्, द्रव्याथिकाश्रयतयेन्द्रियजाद्विति / भेदे स्फुरत्यपि हि यद् घटयेदभिन्न, भेदं निमित्तमधिकृत्य तदेव मानम् // 24 // सोऽयम्-यह प्रत्यभिज्ञा नामक ज्ञान सः-इस अंश के स्मरण और अयम्-इस अंश के अनुभव से उत्पन्न होने के कारण संस्कारनिरपेक्ष इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष से भिन्न है, उसमें तत्ता ओर इदन्ता-इन विभिन्न विशेषणों का स्फुरण होने से यद्यपि उन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 136 विशेषणों के आश्रयों में भी भेद का स्फुरण होता है तथापि निमित्तभेद से अर्थात् द्रव्यार्थिक दृष्टिकोण से उन विशेषणों के आश्रयभूत विशुद्ध द्रव्यांश के अभेद का भी उसी ज्ञान में स्फूरण होता है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्यभिज्ञा नामक ज्ञान विशेषणों की दृष्टि से भेद का और विशुद्ध विशेष्यों की दृष्टि से अभेद का प्रकाशन करता है // 24 // दृष्टा सुधीभिरत एव घटेऽपि रक्ते, श्यामाभिदाश्रयधियो भजना प्रमात्वे / . सा निनिमित्तकतयाध्यवसाय एव, न स्यात् तदाश्रयरगतस्तु तथा यथार्था // 25 // 'प्रत्यभिज्ञा में निमित्तभेद से भिन्न वस्तुओं के अभेद का भान होता है इसीलिये रक्त घट में श्याम घट की अभिन्नता को अवभासित करनेवाली प्रत्यभिज्ञा में विद्वज्जनों ने अनियत-प्रमाणता स्वीकृत की है, क्योंकि निमित्तभेद का आधार छोड़ देने पर "यह घट रक्त श्याम है" इस प्रकार की उक्त प्रत्यभिज्ञा को निश्चयरूपता से वञ्चित होना पड़ेगा और उस स्थिति में उसकी प्रमाण-कक्षा में गणना असम्भव हो जाएगी, क्योंकि अपने स्वरूप और विषय को अवभासित करनेवाले संशय, विपरीत निश्चय और अनिश्चय से भिन्न ज्ञान को ही आकर ग्रन्थों में प्रमाण श्रेणी में गिना गया है / और यदि निमित्तभेद का सहारा लेकर उक्त प्रत्यभिज्ञा उद्भूत होगी तो उसे निमित्तभेद के अनुसार ही प्रमाणरूपता भी अवश्य ही प्राप्त होगी, अर्थात् उक्त प्रत्यभिज्ञा यदि एक घट में काल भेद से रक्तता और श्यामता विषयक हो तो यह प्रमाण रूप से समाप्त होगी और यदि एक ही काल में उपर्युक्त दोनों धर्मों का एक घर में ग्रहण करने का साहस करेगी तो अप्रमाण की पंक्ति में बिठा दी जाएगी। उक्त प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता की अनित्यता का यही रहस्य है // 25 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] स्वद्रव्यपर्यय-गुणानुगता हि तत्ता, तद्वयक्त्य भेदमपि तादृशमेव सूते। . संसर्गभावमधिगच्छति स स्वरूपात, सा वा स्वतः स्फुरति तत्पुनरन्यदेतत् // 26 // प्रत्यभिज्ञा में परिस्फुरित होने वाली तत्ता, आश्रयद्रव्य, उसके गुण और संस्थान तथा उसके गुणों के धर्मरूप पर्याय इन सभी का अनुगत धर्म है. जैसे श्याम घट की तत्ता घट, श्याम-रूप, घट का आकार. श्यामता आदि इन सभी वस्तुओं में आश्रित है। अतः वह प्रत्यभिज्ञा में अपने स्वरूपानुरूप ही अभेद को अवभासित कराती है। तत्ताश्रयरूप तद्व्यक्ति के उपर्युक्त अभेद का भान किस रूप से होता है ? यह एक विचारान्तर है, वह स्वरूपतः अर्थात् प्रतियोगी से अविशेषिर होकर संसर्गरूप से भासमान हो सकता है और यदि अभेद को तादात्म्य-रूप अतिरिक्त सम्बन्ध माना जाए तो उस रूप से भी उसका भान स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार यदि अभेद को तदव्यक्तिरूप माना जाए एवं तद्व्यक्ति को सामान्यविशेषात्मक अथवा मिधर्मात्मक माना जाए तो उस रूप से भी उसका भान मानने में कोई बाधा नहीं है // 26 // पर्यायतो युगपदप्युपलब्धभेदं, कि न क्रमेऽपि हि तथेति विचारशाली। स्याद्वादमेव भवतः श्रयते न भेदा भेदक्रमेण किमु न स्फुटयुक्तियुक्तम् // 27 // . हे भगवन् ! इस प्रसङ्ग में जो व्यक्ति इस प्रकार विचार करने को प्रवृत्त होता है कि 'जब वही वस्तु सहभावी विभिन्न पर्यायों की दृष्टि से उसी से भिन्न होकर प्रतिष्ठित होती है तब वह क्रमभावी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 141 पर्यायों की विभिन्नता से भिन्न क्यों न होगी? क्या वह वस्तु में भेद और अभेद दोनों को प्रश्रय देकर आपके इस स्याद्वाद के आश्रय में नहीं आ जाता जिसे लौकिक और शास्त्रीय युक्तियाँ सुप्रतिष्ठित करती हैं ? अर्थात् उसी का भिन्नकालिक पर्यायों के द्वारा अथवा विभिन्न कालों के द्वारा भेद स्वीकार करने के लिये भेदाभेद की एकनिष्ठता स्वीकृत हो जाने से स्याद्वादसिद्धान्त का अंगीकरण फलित हो जाता है जिस के परिणाम स्वरूप प्रत्यभिज्ञा-रूप ज्ञान का सप्तभङ्गी द्वारा समर्पित होनेवाले वस्तु स्वरूप की प्रकाशता प्राप्त हो जाती है / / 27 // / तद्धेमकुण्डलतया विगतं यदुच्चै- . रुत्पन्नमदतया चलितं स्वभावात। लोका अपीदमनुभूतिपदं स्पृशन्तो, न त्वां श्रयन्ति यदि यत्तदभाग्यमुग्रम् // 28 // ___जो सुवर्ण पहले कुण्डल के आकार में रहता है और बाद में जब अंगद के प्रकट आकार में उत्पन्न होता है तब अपने पूर्वाकार का त्याग कर देता है किन्तु अपनी नैसर्गिक 'सुवर्ण-द्रव्यात्मकता' का त्याग नहीं करता। ऐसी स्थिति में इस एकान्त सत्य का अनुभव करते रहने पर भी हे भगवन् ! जो लोग आपका आश्रय स्वीकार नहीं करते उनका यह उत्कट दुर्भाग्य है / / 28 / / स्वद्रव्यतां यदधिकृत्य तदात्मभावं, गच्छत्यदः कथमहो परजात्यभिन्नम् / तात्पर्य भेदभजना भवदागमार्थः, स्याद्वादमुद्रितनिधिः सुलभो न चान्यः // 26 // जो पदार्थ स्वद्रव्यता के द्वारा तादात्म्य को प्राप्त करता है वह Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] परजाति-तिर्यक् सामान्य के द्वारा तादात्म्य को कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य का प्रतिनिधित्व एकजातीयता को नहीं प्राप्त हो सकता। तात्पर्य-भेद, दृष्टिभेद अथवा अपेक्षाभेद से पदार्थों की अनेकान्तरूपता जैनागमों में ही प्रतिपादित हुई है और जिनेन्द्र भगवान् ने पदार्थों की अनेकान्तरूपतास्वरूप अपनी निधि को सप्तभंगीरूप मंजूषा में सुरक्षित रूप से रखकर उसे अपनी स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित कर दिया है, अतः जिनकी आत्मा जिनेन्द्र की भक्ति से अनुप्राणित नहीं है, वे उस निधि को प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ रहते हैं // 26 // सामान्यमेव तव देव ! तदूर्ध्वताख्यं, द्रव्यं वदन्त्यनुगतं क्रमिकक्षरणोघे / एषैव तिर्यगपि दिग् बहुदेशयुक्ते, ' नात्यन्तभिन्नमुभयं प्रतियोगिनस्तु // 30 // हे देव ! विद्वज्जन द्रव्यपदार्थ को सामान्यरूप मानते हैं और उसे ऊर्ध्वता के नाम से पुकारते हैं। उनकी इस मान्यता का कारण यह है कि द्रव्य पदार्थ क्रम से होनेवाले क्षणिक और स्थायी पर्याय समूहों में अनुगतरूप से विद्यमान रहता है / और जो युक्ति ऊर्ध्वतासामान्य के साधनार्थ बताई गई है उसी अथवा वैसी ही युक्ति से तिर्यक्सामान्य का भी साधन होता है, अर्थात् जैसे विभिन्न दिशाओं तथा समयों में अनुगतरूप से ऊर्ध्वतासामान्य सिद्ध होता है वैसे ही विभिन्न देशों-घटादि पदार्थों में अनुगतरूप से तिर्यक्सामान्य की भी सिद्धि अनिवार्य है // 30 // सम्बन्ध एव समवायहतेर्न जातिव्यक्त्योरभेदविरहेऽपि च मिक्लुतो। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 143 स्याद् गौरवं ह्यनुगतव्यवहारपक्षे• ऽन्योन्याश्रयोऽनुगतजातिनिमित्तके च // 31 // जाति और व्यक्तिजाति के आश्रय में अभेद सिद्ध करनेवाले प्रमाण और युवित का वर्णन करते हुए स्तुतिकार कहते हैं किव्यक्ति जाति का प्राश्रय है अथवा जाति व्यक्ति में आश्रित है एवं व्यक्ति जाति से विशिष्ट है, इन प्रामाणिक प्रतीतियों के अनुसार व्यक्ति और जाति में आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेषण-विशेष्यभाव माना जाता है, अत: व्यक्ति और जाति में सम्बन्ध मानना आवश्यक है, क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर सम्बन्ध नहीं होता, उनमें आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेषण-विशेष्यभाव नहीं होता। यदि सम्बन्ध के बिना आश्रयाश्रितभाव माना जाएगा तो सब वस्तुओं में सबकी आश्रयता हो जाने से समस्त विश्व में साङ्कर्य हो जाएगा; जो किसी भी शास्त्र की दृष्टि में उचित नहीं है। ___ इस प्रकार व्यक्ति एवं जाति में प्राश्रयाश्रितभाव के उपपादनार्थ सम्बन्ध की सिद्धि होने पर वह कौनसा सम्बन्ध है ? इस पर विचार करते हुए कहते हैं कि यहाँ संयोग-सम्बन्ध नहीं है. क्योंकि वह दो द्रव्यों के बीच ही होता है। कालिक-सम्बध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि घटत्वादि जाति का पटादि पदार्थों के साथ कालिक-सम्बन्ध होने से घटादि के समान पटादि पदार्थों में भी घटत्वादि जातियों की प्राश्रयता की आपत्ति होगी, और प्रात्मादि नित्यपदार्थों में कालिक सम्बन्ध न होने से जाति की आश्रयता न हो सकेगी। इन्हीं दोषों के कारण व्यक्ति के साथ जाति का दैशिक दिङ्मूलक स्वरूप, सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि विभिन्न दिशाओं में रहनेवाले घटादि पदार्थों में घटत्वादि जातियों की आश्रयता उत्पन्न करने के लिये उन जातियों को सार्वदेशिक मानना होगा, फिर घटत्वादि जातियों का दैशिक सम्बन्ध पटादि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] में भी होने के कारण पटादि को भी घटादि के समान ही घटत्वादि जातियों का आश्रय बनना पड़ेगा। एवं आत्मादि व्यापक पदार्थों की दिशा और उसकी उपाधि से भिन्न होने के नाते उनमें दैशिक सम्बन्ध न होने के कारण उनमें जाति की आश्रयता हो जाएगी। .. व्यक्ति के साथ जाति का स्वरूप-सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यक्ति का स्वरूप जातिगामी नहीं है और जाति का स्वरूप व्यक्तिगामी नहीं है, और सम्बन्ध की उभयगामिता आवश्यक है, अन्यथा घटत्व का स्वरूप जैसे घटगामी न होने पर भी घट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होता है वैसे पंटगामी न होने पर भी उसे पट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होना पड़ेगा। व्यक्तिस्वरूप को सम्बन्ध मानने के पक्ष में एक जाति की अनेक व्यक्ति होने के नाते एक जाति के सम्बन्ध को भी अनेक मानना होगा। ___समवाय भी उनके बीच का सम्बन्ध नहीं बन सकता क्योंकि सब जातियों का एक ही समवाय मानने पर सम्बन्धि-सत्ता को सम्बन्धसत्ता का अनुचरी होने के कारण पटादि में भी घटत्व आदि जातियों की आधारता अनिवार्य हो जाएगी और यदि जाति के भेद से समवाय को भिन्न माना जाएगा तो अनन्त सम्बन्ध की कल्पना करनी होगी। इसलिए व्यक्ति और जाति के बीच संयोग, कालिक, दैशिक, स्वरूप और समवाय सम्बन्ध न हो सकने के कारण और उनमें आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेष्य-विशेषण भाव के अनुरोध से कोई न कोई सम्बन्ध अवश्यमेव मानने की आवश्यकता के कारण उन के बीच अभेद-सम्बन्ध की स्वीकृति अनिवार्य है। व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना में गौरव-दोष भी है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जो लोग गो आदि व्यक्तियों से भिन्न गोत्व आदि जातियों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं वे भी गोत्व आदि को केवल सामान्य रूप Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 145 नहीं मानते, अपितु सामान्य-विशेषरूप मानते हैं, क्योंकि गोत्व आदि जातियाँ यदि केवल सामान्यरूप होंगी तो गो आदि के अनुगत-ज्ञान और अनुगत-व्यवहार का साधन तो उनसे होगा किन्तु गो आदि में गो आदि से विजातीय पदार्थों के भेद का साधन न हो सकेगा, क्योंकि 'भेद का साधन सामान्य का कार्य न होकर विशेष का ही कार्य होता है।' इसी प्रकार गोत्व आदि को केवल विशेष-रूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि केवल विशेषरूप मानने पर सामान्य के कार्य गो आदि के अनगत-ज्ञान और व्यवहार का साधन उनके द्वारा न हो सकेगा। इसलिए गोत्वादि को सामान्य और विशेष उभयरूप ही मानना पड़ता है। गोत्वादि धर्म जिस समय विशेषत्व रूप से गृहीत होते हैं उस समय वे अपने आश्रय में अनुगत-व्यवहार का साधन नहीं करते किन्तु अन्यपदार्थों के भेदज्ञान का ही साधन करते हैं / इसलिए उस दशा में उन से अनुगत-व्यवहार की आपत्ति का परिहार करने के लिए यह कल्पना करनी होगी कि जिस समय गोत्व आदि विशेषत्व रूप से गृहीत नहीं होते उसी समय उनको अनुगतव्यवहार की कारणता होती है।' अर्थात् विशेषत्वरूप से अगृह्यमाण गोत्वादि को गो आदि के अनुगत-व्यवहार की कारणता होती है, परन्तु इस कल्पना में गौरव है / अतः इस की अपेक्षा यह कल्पना करने में लाघव है कि 'सामान्यत्वरूप से गृह्यमाण गोत्वादि में ही उक्त व्यवहार की कारणता है।' अब यहाँ यह विचार स्वभावतः अवतीर्ण हो जाता है कि जब गोत्व आदि अतिरिक्त वस्तु की कल्पना करने पर भी उनमें सामान्यत्व की कल्पना के द्वारा ही उनसे गो आदि के अनुगत व्यवहार का समर्थन करना पड़ता है, तब उससे तो यही कल्पना उत्तम है कि गोत्वादि कोई भिन्न सामान्य नहीं है अपितु गो आदि व्यक्ति ही सामान्यरूप हैं। अतः वे स्वयं सामान्यत्वरूप से गो आदि के अनुगत Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] व्यवहार का अर्जन करते हैं। इसलिए यही मत न्याय्य है कि 'गोत्वादि सामान्य अपने आश्रय से भिन्न नहीं हैं तथा वस्तुदृष्ट्या अपने आश्रय से अभिन्न होते हुए स्वरूपतः- सामान्यत्व, विशेषत्व आदि से अविशेषित-गृह्यमाण होकर वे अपने आश्रयों के अनुगत-व्यवहार का जनन करते हैं, अर्थात् गोज्ञान ही गोव्यवहार का कारण होता है न कि अतिरिक्त गोत्व का ज्ञान गोव्यवहार का कारण होता है।'. अनुगतव्यवहार अनुगत-जाति के द्वारा ही,सम्पादित हो सकता है, अतः अनुगतव्यवहार ही अनुगत-जाति का साधक होता है। यह पक्ष भी अन्योन्याश्रयदोष से ग्रस्त होने के कारण अमान्य है / अनुगतव्यवहार का 'अनुगतत्व अथवा एकत्व को विषय बनानेवाला व्यवहार' यह अर्थ करने पर वह अनुगत-जाति का साधक नहीं बन सकेगा। क्योंकि जो धर्म अनेक काल में अनुगत और एक व्यक्तिमात्र में आश्रित होता है उसमें भी कालदृष्ट्या अनुगतत्व और व्यक्तिदृष्ट्या एकत्व का व्यवहार होता है, परन्तु वह धर्म जातिरूप नहीं माना जाता / जैसे परमाणुगत रूप और विशेष पदार्थ। इसलिए अनुगत-व्यवहार का यही अर्थ करना होगा। फिर उसे अनुगतजाति का साधक मानने में अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है क्योंकि व्यवहार में अनुगत जांतिगोचरता सिद्ध हो जाने पर ही उसके उपपादनार्थ अनूगत-जाति की सिद्धि हो सकती है और अनुगतजाति की सिद्धि हो जाने पर ही व्यवहार अनुगतजातिगोचरता की सिद्धि हो सकती है // 31 // जातेहि वृत्तिनिगमो गदितः स्वभावाज्जाति विना न च ततो व्यवहारसिद्धिः। . उत्प्रेक्षितं ननु शिरोमरिणकारणदृष्टेस्त्वद्वाक्यबोधरहितस्य न किञ्चिदेव // 32 // Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 147 व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना करने पर यह प्रश्न उठता है कि 'कोई जाति किन्हीं समान आकारवाले व्यक्तियों में ही क्यों रहती है ?' इसका उत्तर दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि ने दिया है कि यह जाति का स्वभाव है जो वह सब पदार्थों में न रहकर नियत पदार्थों में ही रहती है। तथा जाति के वर्तन का नियम तो स्वभाव द्वारा व्यवस्थित हो सकता है पर उसके बल से अनूगत-व्यवहार का समर्थन करके जाति को अन्यथासिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवहार विषय-तन्त्र है अतः उसकी अननूगतता और अनुगतता का उपपादन अननुगत और अनुगत विषय के द्वारा ही किया जा सकता है / इसके उत्तर में उपाध्याय जी महाराज का कथन है कि 'उक्त उत्तर काणदृष्टि शिरोमणि की केवल उत्प्रेक्षा मात्र होने से आदर योग्य नहीं है। क्योंकि कारण होने के नाते शिरोमणि की जैसे बाह्यदृष्टि अधूरी है वैसे ही महावीर स्वामी के उपदेश से वञ्चित रहने के कारण उन की अन्तई ष्टि-ज्ञानदृष्टि भी अधूरी है।' अतः यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकती कि 'जगत् की प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्तरूपों से युक्त है। इसलिए गो आदि पदार्थ जैसे विशेषरूप हैं वैसे ही कथञ्चित् सामान्यरूप भी हैं, अतएव सामान्य रूप से उन्हीं के द्वारा अनुगतव्यवहार की सिद्धि हो जाने के कारण अतिरिक्त गोत्व आदि जाति की कल्पना अनावश्यक है // 32 // भेदग्रहस्य हननाय य एष दोषः, प्रोक्तः परस्तव मते नतु सोऽप्यभेदः / त्वदृष्टवस्तुनि न मोघमनन्तभेदा भेदादिशक्तिशबले किमु दोषजालम् // 33 // भेद के दो प्रकार हैं, अन्यत्व और भिन्नदेशत्व / जाति में व्यक्ति का अन्यत्वरूप भेद ही रहता है भिन्नदेशत्व नहीं; किन्तु उसका Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] विरोधी भिन्नदेशता का अभावरूप अभेद रहता है / यह अभेद प्रथम भेद का विरोधी नहीं है, अतः उसके साथ इसके रहने में कोई बाधा नहीं है। इस अभेद के विषय में जैनदर्शन की अपनी साम्प्रदायिक दष्टि ही नहीं है क्योंकि यह न्यायादि सभी दर्शनों को मान्य है, अन्यथा जाति और व्यक्ति में भेद मानने पर विभिन्न और व्यवहित दो अधिकरणों में उनके प्रत्यक्ष की आपत्ति का दूसरा समाधान नहीं हो सकता, और उक्त अभेद स्वीकृत करने पर उसे उक्त प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक मान लेने से उक्त आपत्ति का परिहार सरल हो जाता है। __ जैनमत तो ऐसा अद्भुत समन्वयकेन्द्र है कि जिसमें किसी दोष का स्पर्श हो ही नहीं सकता क्योंकि इस मत के प्रवर्तक महापुरुष की दृष्टि . में सारी वस्तुएँ अनन्त विचित्र धर्मों से संवलित हैं और सप्तभंगी नय के उज्ज्वल आलोक से पूर्णरूपेण परिस्फुट है // 33 / / एवं त्वभिन्नमथ भिन्नमसच्च सच्च, व्यत्क्यात्मजातिरचनावदनित्यनित्यम् / बाह्य तथाऽखिलमपि स्थितमन्तरङ्ग, नैरात्म्यतस्तु न भयं भवदाश्रितानाम् // 34 // जैनाचार्य की आदर्शदृष्टि में संसार का प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे से अभिन्न भी है और भिन्न भी, जैसे मूलद्रव्य की दृष्टि से अभिन्न और पागमापायी परिवर्तनों की दृष्टि से भिन्न / एवं असत् भी है और सत् भी, जैसे-अपने निजी रूप से सत् और पररूप से असत् / इसी प्रकार व्यक्ति स्वस्वरूप और संस्थान का प्रास्पद है अर्थात् जाति और संस्थान व्यक्ति से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। ऐसी ही स्थिति वस्तु की अनित्यता और नित्यता के विषय में भी है, अनित्यता और नित्यता दोनों धर्म भी अपेक्षाभेद से एक वस्तु में अपना अस्तित्व प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु की अपेक्षाभेद से बाह्य सत्ता Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 146 भी है और प्रान्तर सत्ता भी, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ ज्ञानात्मक भी है और ज्ञान से भिन्न भी। यह अनेकान्तरूपता केवल जड़-पदार्थों तक ही सीमित नहीं है किन्तु इसने आत्मा को भी प्रात्मतन्त्र कर लिया है। अतः अपेक्षाभेद से नैरात्म्य भी जैनशास्त्र-सम्मत है, किन्तु यह नैरात्म्य जैनागम प्रवर्तक की शरण में आये हुए प्राणियों के लिये किसी प्रकार के भय की वस्तु नहीं है, नैरात्म्य तो उन्हीं लोगों के लिये भयावह है जिन्हें जिनेन्द्र भगवान् के अनुग्रहरूपी प्रकाश को न पाने के कारण नैरात्म्य के साथ प्रात्मसत्ता के दर्शन का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ है // 34 // आत्मा तु तादृगपि मुख्यतयाऽस्तिनित्यस्तद्भावतोऽव्ययतया गगनादिवत् ते / चिन्मात्रमेव तु निरन्वयनाशि तत्त्वं, कः श्रद्दधातु यदि चेतयते सचेताः // 35 // अात्मा यद्यपि नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों से युक्त है तो भी प्रधानरूप से वहं नित्य ही माना जाता है अर्थात् नित्यता आत्मा का नैसर्गिक तथा स्थायी धर्म है और अनित्यता कृत्रिम तथा अस्थायी, क्योंकि आत्मा अपने निजीरूप आत्मत्व से कभी च्युत नहीं होता। अतः जो उसके व्ययशील रूप हैं उन्हीं रूपों से वह अनित्य हो सकता है / इसे समझने में गगन का दृष्टान्त अधिक सहायक होगा, क्योंकि गगन भी शब्दरूप से अनित्य है और अपने द्रव्यरूप से सर्वथा अविकृत होने के नाते नित्य है। इस दृष्टिकोण से आत्मा का विचार करने पर बौद्धों का क्षणभङ्गवाद उसे एकान्त रूप से अनित्य नहीं बना सकता। विज्ञानवादी बौद्ध का बाह्यार्थभङ्गवाद भी आत्मा की नित्यता पर आक्रमण नहीं कर सकता, क्योंकि निरन्वयरूप से सर्वात्मना हो Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] जानेवाले क्षणिक ज्ञानमात्र के अस्तित्व का विचार किसी भी स्वस्थचित्त पुरुष के हृदय में कुछ भी स्थान नहीं पा सकता / / 35 // .. इष्टस्त्वया नु परमार्थसतोरभेदोऽभिन्नेकजात्यमुत वेद्यविधेम॒षात्वम् / इत्थं विचारपदवीं भवदुक्तिबाह्यो, नीतो न हेतुबलमाश्रयितुं समर्थः // 36 // आत्मा अपने निजी रूप से नित्य है, अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप देह, इन्द्रिय आदि का सम्बन्ध पाकर उनके अभ्युदय और अवसाद से प्रसाद और विषाद की अनुभूति करता है तथा उन्हीं के सहयोग से अनेक प्रकार के प्रशस्त एवं मलिन आचरण करता हुआ.अपने लिये नई-नई कर्म-शृंखलाएँ तैयार करता रहता है और इस प्रकार अपने ही हाथों खड़े किये गये भूलभुलैया के भवन में भटकता रहता है। किन्तु जब कभी उससे चिरसुप्त सुकृत का जागरण होता है तब उसके प्रभाव से सद्गुरु का सम्पर्क पाकर उसके उपदेशरूपी प्रकाश में सन्मार्ग प्राप्त करता है और उसे अपनाकर अपनी जीवनयात्रा का सञ्चालन करता हुआ धीरे-धीरे अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है / नित्यात्मवादियों के ये वाक्य बौद्ध को चुभने लगते हैं और वह विरोध करते हुए कहता है कि-क्षणिक ज्ञान ही एक प्रामाणिक वस्तु है, उससे भिन्न दिखनेवाली सभी वस्तुएँ अप्रामाणिक हैं। अतः आत्मा की नित्यता का सिद्धान्त सर्वथा असंगत है। ___ इस मत का खण्डन करते हुए स्तोत्रकार ने कहा है कि 'ज्ञान से भिन्न वस्तु अप्रामाणिक है' इस मत का प्रतिपादन करनेवाले विज्ञान वादी के तात्पर्य का वर्णन तीन रूपों में किया जा सकता है / जैसे (1) ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 151 (2) ज्ञान और ज्ञेय में एकजातीयता है-ज्ञेय ज्ञान से विजातीय नहीं है। ___(3) ज्ञान सत्य है किन्तु ज्ञेय-उसका प्रकाश्य विषय असत्य है / और उक्त तीनों पक्ष दोषग्रस्त होने से समर्थन कोप्राप्त नहीं हो सकते। इस प्रकार विचार करने पर ज्ञेय की ज्ञानरूपता, ज्ञान-सजातीयता तथा असत्यता युक्तिसङ्गत न होने से आपकी उक्ति से बाह्य विचार करनेवाला हेतु बल का आश्रय लेने में भी असमर्थ है // 36 // प्राद्ये ह्यसिद्धिसहितौ व्यभिचारबाधौ, स्यादप्रयोजकतया च हतिद्वितीये / शून्यत्वपर्यवसितिश्च भवेत्तृतीये, स्याद्वादमाश्रयति चेत् विजयेत वादी // 37 // बौद्ध प्रतिपादित प्रथम पक्ष-'ज्ञय की ज्ञानरूपता' के साधन में असिद्धि, व्यभिचार और बाध दोष आते हैं। दूसरे पक्ष 'ज्ञेय और ज्ञान में अभिन्न सजातीयता' के साधनार्थ हेतुओं का प्रयोग करने पर उनमें 'अप्रयोजकत्व दोष' आता है। तथा 'ज्ञान सत्य है पर उसका विषयज्ञेय असत्य है' इस तीसरे पक्ष का साधन करने पर माध्यमिक के शून्यवाद की आपत्ति खड़ी होती है। इस प्रकार उक्त तोनों पक्षों के दोषंग्रस्त होने से एक ही उपाय समझ में आता है कि 'यदि वह स्याद्वाद का आलम्बन ले, तो वाद में विजयी हो सकता है' // 37 // धीग्राह्ययोर्नहि भिदास्ति सहोपलम्भात्, प्रातिस्विकेन परिणामगुणेन भेदः / इत्थं तथागतमतेऽपि हि सप्तभङ्गी, ...सङ्गीयते. यदि तदा न भवद्विरोधः // 38 // जैनमत में सहोपलम्भ-विषयत्व ज्ञान और ज्ञेय का साधारण धर्म Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] है, किन्तु उनके पारिणामिक भाव उनके असाधारण धर्म हैं क्योंकि द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जो ज्ञेय के पारिणामिक भाव हैं वे ज्ञान के धर्म नहीं हैं और ज्ञानत्व, मतिज्ञानत्व आदि जो ज्ञान के पारिणामिक भाव हैं वे भी ज्ञेय के धर्म नहीं है, फलतः सहोपलम्भ-विषयत्वरूप साधारण धर्म की.अपेक्षा ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर अभेद तथा पारिणामिक भावरूप असाधारण धर्म की अपेक्षा उनमें परस्पर भेद है। ___ इस प्रकार जिन पदार्थों का जो साधारण धर्म होता है उसकी दृष्टि में उनमें भेद नहीं होता। इसलिये जिस प्रकार द्रव्यत्व पृथिवी और जल का साधारण धर्म है अतः उसकी दृष्टि से वे दोनों परस्पर भिन्न नहीं होते उसी प्रकार सहोपलम्भविषयत्व ज्ञान और ज्ञेय का साधारण धर्म है अतः उसकी दृष्टि से उन दोनों में भी परस्पर-भेद नहीं है, फलतः ज्ञेय कथञ्चित्-सहोपलम्भ दृष्टि से ज्ञान से भिन्न है। / इसी प्रकार जैसे पृथिवीत्व एवं जलत्व पृथिवी और जल के साधारण धर्म न होकर उनके असाधारण धर्म हैं वैसे ही घटत्वरूप आदि पारिणामिक एवं द्रव्यत्वरूप अनादिपारिणामिक भाव घटरूप ज्ञेय के धर्म न होकर घट रूप ज्ञेय के असाधारण धर्म हैं और मतिज्ञानत्व आदि सादि पारिणामिक भाव एवं ज्ञानत्वरूप अनादि पारिगामिक भाव घटरूप ज्ञेय के धर्म न होकर घटज्ञान के असाधारण धर्म हैं / इसलिये ज्ञेय में न रहनेवाले मतिज्ञानत्व, ज्ञानत्व आदि धर्मों का आश्रय होने से ज्ञान में ज्ञेय का भेद और ज्ञान में न रहनेवाले घटत्व, द्रव्यत्व आदि धर्मों का आश्रय होने से ज्ञेय में ज्ञान का भेद रहता है। फलतः ज्ञान में ज्ञेय का और ज्ञेय में ज्ञान का कथंचित् भेद भी रहता है। इस प्रकार उक्त रीति से ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर-भेद और परस्पर-अभेद इन दो भङ्गों के सम्भव होने से बौद्ध मत में भी सप्तभङ्गी नर्य का अवतरण हो सकता है। और यदि वह स्वीकृत कर ले तो जैनमत के साथ इस मत का विरोध समाप्त हो सकता है // 38 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [153 स्याद्वाद एव तव सर्वमतोपजीव्यो, . नान्योऽन्यशत्रुषु नयेषु नयान्तरस्य / निष्ठा बलं कृतधिया क्व च नापि न स्व व्याघातकं छलमुदीरयितुं च युक्तम् // 39 // हे भगवन् ! आपके स्याद्वादसिद्धान्त में अन्य सभी मतों की बातें सम्मिलित रहती हैं, यह सिद्धान्त किसी अन्य मत का खण्डन नहीं करता अपितु विभिन्न मतों में समन्वय और सामञ्जस्य स्थापित करता है / अतः यह सब मतों का उपजीव्य-संरक्षक है, क्योंकि अन्य सिद्धान्त अपनी बात को यूक्तिसङ्गत बताते हए दूसरे की बातों का आडम्बरपूर्वक खण्डन करते हैं किन्तु स्याद्वादसिद्धान्त में ऐसी बात नहीं है / इस प्रकार जो नय एक दूसरे के विरोधी हैं उनमें से किसी एक पर आस्था रखनेवाले पुरुष को अन्य नय की सहायता से बल प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरे नये नय को अपनाने से निजी नय के आधार पर निर्णीत सिद्धान्तों से च्युत हो जाना पड़ता है। अतः बुद्धिमान् मनुष्य को किसी मत का खण्डन करने लिए दूसरै नय का छलरूप से भी प्रयोग करना उचित नहीं है अपितु अपने ही नय पर निर्भर रहना चाहिये / / 36 // . कः कं समाश्रयतु कुत्र नयोऽन्यतर्कात्, प्रामाण्य-संशय-दशामनुभूय भूयः। ताटस्थ्यमेव हि नयस्य निजं स्वरूपं, स्वार्थेष्वयोगविरहप्रतिपत्तिमात्रात् // 40 // .प्रत्येक नय अन्य नय के तर्कानुसार अप्रामाणिक है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा नय प्रमाण है और कौनसा अप्रमाण ? इस लिये किसी एक नय को सदोष सिद्ध करने के लिये कोई नय Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] किसी नयान्तर का सहयोग प्राप्त नहीं कर सकता। . .. इस पर यह प्रश्न उठता है कि 'अन्य नय के प्रतिपाद्य विषय को असत् बताते हुए अपने विषय को सत् सिद्ध करना ही नयों का कर्तव्य होता है, इसलिये जो नय दूसरे नय के विषय की असत्यता स्थापित करने में समर्थ न होगा, वह नय कहलाने का अधिकारी कैसे हो सकेगा?' ___ इसका उत्तर यह है कि 'अन्य नैय के विषय की असत्यता का प्रतिपादन करना नय के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है, उसका कर्तव्य ' तो अपने विषय की असत्यता के निषेध का प्रतिपादन करना तथा अन्य नय के विषयों की सत्यता एवं असत्यता के प्रदर्शन में तटस्थ रहना है / तात्पर्य यह है कि नय की वास्तविकता अपने विषय के समर्थन में है न कि दूसरे नयों के विषय के खण्डन में / ' अतः नयान्तर का विरोध न करने पर भी नय नयत्व से च्युत नहीं हो सकता। और इस प्रकार नयों के एक दूसरे के खण्डन का व्यापार छोड़ देने पर सब नयों के समन्वयवादी स्याद्वादनय की विजय ध्रुव हो जाती है // 40 // त्यक्तस्वपक्षविषयस्य तु का वितण्डा ? पाण्डित्यडिण्डिमडमत्करणेऽन्यनिष्ठा। नग्नस्य नग्नकरतोऽपरनग्नशोर्षे, प्रक्षेपणं हि रजसोऽनुहरेत् तदेतत् // 41 // अपने सिद्धान्त का परित्याग कर अन्य नय (वेदान्त नय) में निष्ठावद्ध होकर नैयायिक यदि वैतण्डिक के समान माध्यमिक के मत का खण्डन करने की चेष्टा करेगा तो वह अपने पाण्डित्य का डंका न बजा सकेगा, क्योंकि अपने पक्ष का त्याग करने को विवश होना विद्वत्ता का लक्षण नहीं कहा जा सकता। ऐसी चेष्टा से तो केवल Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 155 पाडित्य और प्रतिष्ठा का ह्रास ही नहीं होता प्रत्युत वह स्वयं हास्यास्पद भी बन जाता है, क्योंकि उसका यह कार्य उस मनुष्य के समान है जो स्वयं नग्न होते हुए भी दूसरे नग्न मनुष्य के हाथ से धूल लेकर उसे किसी अन्य नग्न मनुष्य के सिर पर डालने का लज्जाकारक कार्य करता है / / 41 // देशेन देशदलनं भजनापथे तु, स्वच्छासने निजकरेण मलापनोदः / व्याघातकृन्न भजनाभजना जनानामित्थं स्थिती शबलवस्तुविवेकसिद्धः // 42 // स्याद्वादी न्यायनय के द्वारा बौद्धमत का खण्डन कर सकता है, क्योंकि स्याद्वाददर्शन में इस प्रकार का खण्डन अपने हाथों से अपने अंग का मैल धोने के समान है। अर्थात् स्याद्वाद में सभी नयों का समावेश होने से वे सभी नय उसके अंग के समान हैं और एक दूसरे को दोषपूर्ण ठहराने का आग्रह ही उनका मल है, अतः अपने अंगभूत एक नय के द्वारा अंगान्तर रूप अन्य नय के मल का अपनयन करना स्याद्वादरूपी अङ्गी का परम कर्तव्य है। यहाँ 'यदि न्यायनय एकान्तवादी होने के कारण मिथ्या है तो सत्यान्वेषी स्याद्वादी को माध्यमिक मत के खण्डनार्थ उसका अवलम्बन लेना उचित नहीं है,' ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है, क्योंकि सभ्यसमाज की दृष्टि में सत्य-प्राप्ति के लिये असत्य को भी उपादेय माना जाता है। स्याद्वाद का ध्येय है 'सभी वस्तुओं को अपने अंक में बिठाना।' अतः स्याद्वाद स्वयं भी अपनी कोड में स्थित है अर्थात् वह स्वयं भी एकान्ततः न तो प्रमाण ही है और न नय ही, किन्तु अपेक्षा भेद से प्रमाण भी है और नय भी। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] - यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि 'जैनशास्त्र के आदेशानुसार वस्तु के किसी एक ही रूप का अवधारण करनेवाली भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिये', तब स्याद्वादी के लिये नैयायिक के नय का प्रयोग कैसे उचित हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि-'स्याद्वादी बौद्धसम्मत वस्तु धर्म का सर्वथा निराकरण करने के लिये न्यायनय का प्रयोग नहीं करता अपितु यह सिद्ध करने के लिये करता है कि 'वस्तु बौद्धमतानुसार केवल क्षणिकत्वदि धर्मों की ही आश्रय नहीं है अपितु न्यायमतानुसार स्थिरत्व और ज्ञानभिन्नत्वादि धर्मों की भी आश्रय है।' अतः बौद्धनयसापेक्ष ही न्यायनय की स्वीकृति के कारण अवधारण फलक भाषा के प्रयोग का दोष स्याद्वादी को नहीं हो सकता। जैनदर्शनानुसार स्याद्वाद के अंक में समस्तवस्तुओं के स्थित होने से कोई भी नय एकान्ततः स्याद्वाद से अत्यन्त भिन्न नहीं है, अतः स्याद्वादी किसी भी नय के प्रयोग का अधिकारी है। यदि ऐसे नय का प्रयोग वर्ण्य माना जाए तो सप्तभंगी नय का प्रयोग भी वर्ण्य हो जाएगा। इसी प्रकार स्याद्वाद के प्रामाण्य में स्याद्वाद का प्रवेश होने से उसकी प्रमाणरूपता के व्याघात की शंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्वयं स्याद्वाद के भी उसके प्रभाव में पड़ने से ही उसके महत्त्व की रक्षा और उस लक्ष्य की पूर्ति हो सकती है // 42 // नोच्चबिभेति यदि नाम कृतान्तकोपादुष्प्रेक्ष्य कल्पयति भिन्नपदार्थ-जालम् / . चित्रस्थले स्पृशति नैव तवोपपत्ति, तत्कि शिरोमणिरसौ वहतेऽभिमानम् // 43 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 157 'अनिर्धारण-बोधक 'स्यात्' पद से घटित होने के कारण एक धर्मी में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का बोधक होने से 'सप्तभंगी नय' प्रमाण नहीं हो सकता' इस प्रकार दीधितिकार रघुनाथ शिरोमरिण ने स्याद्वाद पर आक्षेप किया है, उसकी अज्ञानमूलकता दिखलाने के लिये स्तुतिकार का कथन है कि_ "रघुनाथ शिरोमणि ने वस्तुतत्त्व का विवेचन करते समय न्याय, वैशेषिक के सिद्धान्तों के विरोध का भय न करते हुए अनेक पदार्थ स्वीकृत किये हैं, किन्तु द्रव्य की चित्रता के विषय में स्याद्वाद को स्वीकार नहीं किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे स्याद्वाद-शास्त्र से परिचित नहीं थे, क्योंकि द्रव्य की चित्रता की उपपत्ति स्याद्वाद के बिना कथमपि सम्भव नहीं है, अतः उनका यह अभिमान कि-'वे सभी शास्त्रों का सम्यक् परिशीलन करके ही वस्तुत्व का विवेचन करते हैं'-सर्वथा निराधार है।" तात्पर्य यह है कि-द्रव्य की चित्रता का उचित उपपादन करने के लिये जैनशास्त्र का स्याद्वाद अनिवार्यरूप से उपादेय है और उस पर शिरोमरिण का आक्षेप असंगत तथा अज्ञानमूलक है। / / 43 / / * साङ्ख्यः प्रधानमुपयंस्त्रिगुरणं विचित्रां, बौद्धौ धियं विशदयन्नथ गौतमीयः / वैशेषिकश्च भुवि चित्रमनेकरूपं, वाञ्छन् मतं न तव निन्दति चेत् सलज्जः॥४४ // सांख्य सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से अभिन्न एक प्रकृति का अस्तित्त्व मानता है, ये तीनों गुण एक दूसरे से भिन्न हैं; * चित्ररूप के बारे में न्याय, वैशेषिक दर्शन, रघुनाथशिरोमणि, अन्य ... नैयायिक तथा जैनदर्शन के विचार भिन्न-भिन्न हैं / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] क्योंकि इनके कार्य, प्रकाश, क्रिया और पावरण एक दूसरे से भिन्न हैं। परस्पर भिन्न पदार्थों की एकता साधारणतः असम्भव है किन्तु सांख्य की दृष्टि में ये तीनों प्रकृति के रूप में एकीभूत हो जाते हैं। अतः यह कहना होगा कि सांख्य-मत में भी एक वस्तु दूसरी वस्तु से एकान्ततः भिन्न अथवा अभिन्न नही होती अपितु अनेकान्तवादी जैन मत के अनुसार कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न होती है / क्यों कि यदि ऐसा न माना जाएगा तो परस्पर भिन्न उक्त गुणों को एक प्रकृति से अभिन्नता का तथा एक प्रकृति की परस्पर भिन्न उन तीन गुणों से अभिन्नता का समर्थन कैसे किया जा सकेगा? बौद्ध भी समूहालम्बन ज्ञान को एकाकार और अनेकाकार मानता है, समूहालम्बन ज्ञान स्वतः एक है और अपने एक स्वरूप का संवेदनकारी होने से एकाकार है, किन्तु साथ ही नील, पीत आदि अनेकविध संवेदनकारी होने से नील-पीतादि अनेकाकार भी हैं। इस प्रकार वह एकाकार भी है और अनेकाकार भी। बौद्ध की इस मान्यता का समर्थन भी अनेकान्तवाद की नीति से ही सम्भव है, अन्यथा एक ज्ञान में परस्पर विरुद्ध एकाकारता तथा अनेककारता का समन्वय कैसे हो सकता है ? ___ गौतम के न्यायदर्शन तथा कणाद के वैशेषिक दर्शन के मर्मज्ञ मनीषियों को भी चित्ररूप के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद की शरण लेनी पड़ती है, क्योंकि चित्र कोई एक अतिरिक्त रूप नहीं है किन्तु नील, पीत आदि विभिन्न रूपवाले अवयवों से उत्पन्न होनेवाले अवयवों में नीलत्व, पीतत्वादि विभिन्न प्रकारों से प्रतीयमान नील-पीतादि कोई एक ही रूप चित्र शब्द से व्ययहृत होता है / अर्थात् उस ढंग के द्रव्य में कोई एक ही रूप कथञ्चित् नील-पीत-आदि अनेक आकारों से आलिङ्गित होता है। इस लिये यह स्पष्ट है कि उक्त दार्शनिकों को यदि कुछ भी शील, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 156 संकोच अथवा विवेक हो, तो उन्हें जैनदर्शन के अनेकान्तवाद के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि वे अपने को अनेकान्तवादी न मानते हुए भी ऐसी अनेक बातें मानते हैं जो अनेकान्तवाद की परिधि में ही पल्लवित हो सकती है // 44 // प्रव्याप्यवृत्तिःगुरिणभेदमुदीर्य नव्या, भावं प्रकल्प्य च कथं न शिरोमणे ! त्वंम् / स्याद्वादमाश्रयसि सर्वविरोधिजेत्रं, ब्रूमः प्रसार्य निजपाणिमिति त्वदीयाः // 45 / शिरोमणि ने संयोगादि अव्याप्यवृत्ति (अपने प्रभाव के साथ एक स्थान में रहनेवाले) गुणों के आश्रय में उन गुणों के अाश्रय का भेद यथा शाखा द्वारा कपिसंयोग के प्रांश्रयभूत वृक्ष में मूल द्वारा कपिसंयोगी का भेद तथा पट आदि द्रव्यों के आश्रय में घटत्व आदि रूपों से उनका अभाव जैसे पटवान् भूतल में घटत्वेन पटाभाव जैसा नवीन अभाव माना है, किन्तु स्याद्वाद को स्वीकार नहीं किया है / अतः शिरोमणि को सम्बोधित करते हुए इस पद्य में कहा गया कि जब तुम उक्त भेद और उक्त अभाव को स्वीकार करते हो, तो उनके उपजीव्य स्याद्वाद को क्यों नहीं स्वीकृत करते ? यह वाद तो समस्त विरोधियों के ऊपर विजय प्राप्त करनेवाला है, इसके द्वारा ही किसी पदार्थ का तलस्पर्शी पूर्णज्ञान प्राप्त होता है और इसके आधार पर ही उक्त भेद तथा अभाव का समर्थन हो सकता है। फिर तुम यदि इस स्याद्वाद के समक्ष सिर नहीं झुकानोगे तो अपने असाधारण तार्किक होने का गर्व कैसे संभाल सकोगे ? अतः तुम्हारे हित को ध्यान में रखकर तुम्हें यह बुद्धिदान करते हैं कि-लो हमारा यह स्याद्वाद और इसके सहारे अजेय बनो // 45 // Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] विश्वं ह्यलोकमनुपाख्यमलं न बौद्ध ! सोढं विचारमिति जल्पसि यद्विचारात् / कः कीदृगेष इति पृष्ट इह त्वदीययक्ति तद्वठर ! भौतिविचारकल्पम् // 46 // हे बौद्ध ! तुम विश्व को असत्. अनिर्वचनीय तथा विचारासह जिस विचार के आधार पर स्वीकृत करते हो, वह कौन और कैसा है ? ऐसा पूछने पर जो तुम्हारा उत्तर मिलता है वह पामरों के विचार के समान नगण्य एवं दोषग्रस्त है। - इसका अभिप्राय यह है कि-बौद्धों ने विश्व के बारे में जो धारपाएँ बना रखी हैं वे किसी प्रामाणिक विचार पर आधारित न होने से अमान्य हैं। क्योंकि यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार पर आधारित मानेंगे तो उन्हें विचार तथा उसके अङ्गभूत वादी, प्रतिवादी, मध्यस्थ, विचार्य-विषय, प्रमाण और विचार के लिये अपेक्षित नियम आदि की सता अवश्य माननी पड़ेगी। फिर इतने पदार्थों को सत्, निर्वाच्य और विचारसह मानते हुए वे जगत् को इससे विपरीत अर्थात् असन्, अनिर्वाच्य तथा विचारासह कैसे मान सकेंगे ! और यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार के आश्रित न मानकर केवल अपनी मनःप्रसूत कल्पना पर ही उन्हें निर्भर करेंगे तो उनके वे विचार उसी प्रकार त्याज्य और उपहास्य होंगे जिस प्रकार मूत्रत्याग तथा चीत्कार करते हुए, बड़े-बड़े श्वेत दांतवाले हाथी के बारे में किसी गँवार के ये विचार कि 'वह एक बादल है, जो बरस रहा है और गरज रहा है तथा पक्षियों से युक्त है' / / 46 // बाह्य परस्य न च दूषणदातमात्रात्, . स्वामिन् ! जयो भवति येन नयप्रमाणः / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 161 प्राज्ञैः कृतव बहुधावयवि-प्रसिद्धि क्सङ्क्रमादथ तरन्ति न दूषणानि // 47 // हे स्वामिन् ! ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न होता है-इस पक्ष में दोष दे देने मात्र से विज्ञानवादी को विजयलाभ नहीं हो सकता। क्योंकि विद्वानों ने नय और प्रमाण के बल पर बड़े विस्तार से अवयवी का साधन किया है, और अवयवी की सिद्धि-ज्ञान निरवयव होता है और घट आदि अवयवी द्रव्य सावयव होते हैं, अतः निरवय व ज्ञान सावयव घट आदि द्रव्य का परस्पर अभेद नहीं हो सकता। अन्य शास्त्रकारों ने अवयवावयविभाव में जो. दोष बताये हैं वे भी अतिरिक्त अवयवी की सिद्धि में बाधक नहीं हो सकते, क्योंकि उन दोषों का संक्रमण ज्ञेय और ज्ञान के अभेदपक्ष में भी होता है। इसलिए उन दोषों का कोई न कोई समाधान दोनों वादियों को करना ही होगा // 47 // ज्ञानाग्रहा वृति निरावृतिसप्रकम्पाकम्पत्वरक्तिमविपर्ययतन्निदानः / तद्देशतेतरसभागविभागवृत्ती, चित्रेतररवयवी न हि तत्त्वतोऽन्यः // 48 // ज्ञानाग्रह-ज्ञान और अग्रह अर्थात् दर्शन तथा प्रदर्शन, प्रावृतिनिरावति-आवरण तथा अनावरण, सप्रकम्पाकम्पत्व-कम्पन और प्रकम्पन अर्थात् सक्रियत्व तथा निष्क्रियत्व, रक्तिमविपर्यय-रक्तत्व और उसका विपर्यय अर्थात् अरक्तत्व, तन्निदान-रक्तत्व और परक्तत्व के निमित्त अर्थात् रक्तद्रव्य का संयोग तथा रक्तद्रव्य का असंयोग तद्देशतेतर-तद्देशत्व और अतद्देशत्व अर्थात् तद्देशस्थिति तथा अतद्देशस्थिति, सभागविभागवृत्ति-किसी अंशविशेष से रहना या अंशनिरपेक्ष Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] होकर समस्त रूप से रहना, चित्रेतर-चित्ररूप तथा चित्रेतर रूप इन विरुद्धधर्मों के समावेश से अवयवी की जो अनेकात्मकता प्रतीत होती है वह तात्त्विक नहीं अपितु अतात्विक है। क्योंकि उक्त विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध विभिन्न अवयवों में होता है न कि अवयवी में / अवयवी में तो उनका आरोपमात्र होता है। फलतः अवयवों से भिन्न एक अवयवी की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि- अतात्त्विक अनेकता तात्त्विक एकता का विरोध नहीं कर सकती // 48 // . दृष्टो ह्यदृष्ट इति को निरपेक्षमाह, .. देशावृतौ स्फुटमनावृत एव देशी। देशे चलत्यपि चलत्वमसौ न धत्ते, देश भ्रमादवयवी भ्रमभाजनं नो // 46 // _____ जो वस्तु दर्शन का विषय है वह निरपेक्षरूप से दर्शन का अविषय है, यह बात कौन कहता है ? अर्थात् यह किसी का भी मत नहीं हो सकता कि एक वस्तु एक ही अपेक्षा से अर्थात् एक ही दृष्टि से दर्शन का विषय भी हो सकती है और दर्शन का अविषय भी हो सकती है। तात्पर्य यह है कि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले भावाभावात्मक धर्मों का एक वस्तु में समावेश किसी एक दृष्टि से नहीं हो सकता है किन्तु दृष्टिभेद से ही हो सकता है / देश-अंश का आवरण होने पर देशी-अंशी स्पष्टरूपेण अनावृत ही रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश प्रावृत होता है उस समय वह अंशी स्वयम् अनावृत ही रहता है, फलतः आवरण और अनावरण का किसी एक वस्तु में युगपत् समावेश नहीं होता। इसी प्रकार देश-अंश के गतिमान् होने पर भी देशी-अंशी गतिमान् नहीं होता और देश-अंश में भ्रमण उत्पन्न होने पर भी देशी-अंशी भ्रमरणहीन रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश गतिशील हो उठता है अथवा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 163 घूमने लगता है उस समय भी वह अंशी स्वयं न गतिशील होता है और न घूमता ही है किन्तु निश्चल और स्थिर रहता है, फलतः गति एवं गतिराहित्य जैसे विरुद्ध धर्मों का समावेश एक वस्तु में नहीं होता // 46 / / संयोगतद्विरहयोश्च गतिप्रकारभेदेन तन्निलयता-तदभावयोश्च / वृत्तिः स्वरूपनिरतैव च चित्रमेक मित्यादि ते नयमतं समयाब्धिकेनः // 50 // एक वस्तु में संयोग और संयोगाभाव तथा तद्देशाश्रितत्व और तद्देशानुश्रितत्व की उपपत्ति प्रकार भेद से अर्थात् अवच्छेदकभेद से हो जाती है, जैसे उसी वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव अथवा शाखाद्यवच्छेदेन संयोग और वृक्षत्वावच्छेदेन संयोगसामान्याभाव रहता है, एवं एक ही वस्तु उसी देश में एक काल में प्राश्रित और कालान्तर में अनाश्रित होती है। अर्थात उसी वस्तु में एककालावच्छेदेन तद्देशाश्रितत्व और अन्यकालावच्छेदेन तद्देशानाश्रितत्व रहता है / अवयवों में अवयवी का अवस्थान स्वरूप निरत है अर्थात् अवयवी अपने अवयवों में न तो एकदेशेन रहता है और न समग्रदेशेन रहता है / किन्तु अपने निजी स्वरूप से व्यासज्यवृत्ति होकर रहता है / चित्ररूप अनेकरूपों की समष्टि नहीं है किन्तु एक स्वतन्त्र रूप है। न्यायशास्त्र के ये मत हे भगवन ! आपके सिद्धान्तसमुद्र के फेन के समान हैं; क्योंकि जिस प्रकार फेन जलराशि के ऊपर उसी का रूप-रंग धारण किए हुए तैरता हुआ दिखाई पड़ता है और वायु का प्राघात-पाकर उसी में विलीन हो जाता है, जलराशि से पृथक् उसका अस्तित्व नहीं रह जाता, उसी प्रकार न्यायशास्त्र के मत में स्याद्वादसिद्धान्त के ऊपर उसकी ही जैसी मनोरमता धारण किए दृष्टिगोचर Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] होते हैं और अन्त में अनेकान्तरूपी वायु से आहत हो उसी में समां जाते हैं, उनका निरपेक्ष-प्रामाण्य नहीं रह जाता। ___ इस कथन का आशय यह है कि अवयवी के विरुद्ध विभिन्नवादियों से उठाये जानेवाले प्रश्नों, आक्षेपों और सन्देहों का निराकरण न्यायशास्त्र की जिन यूक्तियों से किया जाता है उनका बल-संवर्धन तथा अनुप्राणन स्याद्वाद की ओर से इन युक्तियों का विनियोग किया जाना न्याय्य है / और वस्तुस्थिति तो यह है कि स्याहाद की सरणि से ही उनका उपयोग सफल भी हो सकता है क्योंकि स्याहाद के अनग्रह से वञ्चित होने पर समस्त मत एकान्तवादी हो जाने से निर्बल, निस्सार और इसीलिये अभिमत पक्ष के साधन एवं समर्थन में अक्षम हो जाते हैं // 50 // नारणोरपि प्रतिहतिश्च समानयोगक्षेमत्वतः किल धियेति न बाह्यभङ्गः / योग्या च नास्ति नियतानुपलब्धिरुच्चै नैरात्म्यमित्युपहतं नयवल्गितैस्ते // 51 // ज्ञान की सत्ता मानकर जिस प्रकार अवयवी का निराकरण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार मूल अवयव परमाणु का भी निराकरण नहीं किया जा सकता। क्योंकि ज्ञान और परमाणु के योग-क्षेत्र समान हैं। अर्थात् जो आपत्तियाँ अथवा अनुपपत्तियाँ परमाणु-पक्ष में उठ सकती हैं तथा ज्ञानपक्ष में उन्हें दूर करने के लिए जिन युक्तियों को अपनाया जा सकता है वे युक्तियाँ परमाणु-पक्ष में भी अपनायी जा सकती हैं / फलतः बाह्य अर्थ का अर्थात् ज्ञान से भिन्न वस्तु का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। नियत अनुपलम्भ के बल से भी बाह्य अर्थ का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि जो बाह्य अर्थ योग्य अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण किये जाने योग्य हैं, जैसे घट-पट आदि, उनका Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 165 यथासमय उपलम्भ होते रहने के कारण उनका तो नियत अनुपलम्भ होता ही नहीं, हाँ, जो बाह्य अर्थ अयोग्य हैं अर्थात् जिनमें प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण किये जाने की योग्यता ही नहीं है जैसे परमाणु आदि, उनके उपलम्भ की कदापि सम्भावना न होने के कारण उनका नियत अनुपलम्भ अवश्य होता है, किन्तु उससे उनका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि घट, पट आदि वस्तुओं के अस्तित्व का लोप हो जाने के भय से अनियत अनुपलम्भ को आश्रय का ग्राहक न मानकर नियतानूपलम्भ को ही प्रभाव का ग्राहक माना जाता है। वैसे अतीन्द्रिय वस्तुमात्र के अस्तित्व का लोप हो जाने के भय से अयोग्यानुपलम्भ को प्रभाव का ग्राहक न मानकर योग्य अनुपलम्भको ही प्रभाव का ग्राहक माना जाता है / फलतः परमाणु का अनुपलम्भ योग्य अनुपलम्भरूप न होने के कारण परमाणु के अभाव का साधक नहीं हो सकता। परपक्ष को दोषयुक्त ठहराने के दृढ़ अभिनिवेश से न्यायशास्त्र की उपर्युक्त युक्तियों का अवलम्बन लेकर बाह्यार्थभङ्गमूलक अनात्मवाद के खण्डन का जो यह प्रकार है, हे भगवन् महावीर ! वह आपके ही न्यायामृतमहोदधि के बिन्दु का उद्गार है // 51 / / स्याद्वादतस्तव तु बाह्यमथान्तरङ्ग, सल्लक्षणं शबलतां न जहाति जातु। एकत्वमुल्लसति वस्तुनि येन पूर्णे, ज्ञानाग्रहादिकृत-दैशिकभेद एव // 52 // हे भगवन् ! आपके मतानुसार बाह्य अथवा प्रान्तर कोई भी वस्तु स्याद्वाद की परिधि को लाँघकर सत् वस्तु के लक्षण शबलता अर्थात् अनेकान्तरूपता का परित्याग कदापि नहीं करती और इसी कारण पूर्ण अर्थात् अनन्तधर्मात्मक वस्तु में ज्ञान, अज्ञान आदि धर्मों द्वारा जो किसी प्रकार विरुद्ध हैं, अव्याप्यवृत्ति-भेद की सिद्धि भी होती है और Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही एकत्व अर्थात् अभेद भी किसी न किसी प्रकार बना रहत है // 52 // देशेन दृष्ट इह यः स मया न दृष्टो, देशेन चेति विशदव्यवहार एषः। संयोगतद्विरहवन्ननु देशभेदा देकत्र देशिनि विरुद्ध निवेशमाह // 53 // 'जिस वस्तु को एक भाग में देखा उसी वस्तु को अन्य भाग में नहीं देखा, ऐसा व्यवहार स्पष्ट रूप से लोक में देखा जाता है और इस व्यव. हार के कारण ही भागभेद से एक ही वस्तु में दर्शन और प्रदर्शन इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार किया जाता है तथा इस प्रकार एक वस्तु में विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि होती है। यदि यह कहा जाए कि एक वस्तु का दर्शन और प्रदर्शन उक्त व्यवहार का विषय नहीं है अपितू वस्तू के एक भाग का दर्शन और अन्यभाग का प्रदर्शन उक्त व्यवहार का विषय है, अतः उसके आधार पर एक वस्तु में दर्शन और अदर्शनरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश सिद्ध नहीं हो सकता, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर एक वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव की भी सिद्धि नहीं होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि-'शाखा में वृक्ष कपिसंयुक्त है और मूल में कपि से असंपुक्त है' इस व्यवहार के विषय में भी यह कहा जा सकेगा कि यह व्यवहार शाखा में कपिसंयोग और मूल में कपिसंयोगाभाव का प्रतिपादन करता है न कि शाखा और मूल की अपेक्षा वृक्ष में उन दोनों के अस्तित्व का / फलतः इस व्यवहार के आधार पर वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव की सिद्धि न हो सकने के कारण कपिसंयोग की अव्याप्यवृत्तिता अर्थात् कपिसंयोगाभाव के साथ एक आश्रय में रहना सिद्ध न हो सकेगा। अतः यह निर्विवादरूप से मानना पड़ेगा कि जैसे Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 167 एक ही वृक्ष में शाखा, मूल आदि अवच्छेदक भेद से कपिसंयोग तथा कपुिसंयोगाभाव आदि परस्पर विरोधी धर्म रह लेते हैं वैसे ही देश, काल, पुरुष आदि अपेक्षाभेद से एक ही वस्तु में दर्शन-प्रदर्शन आदि परस्पर विरोधी धर्म भी रह सकते हैं; अतः वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता अत्यन्त युक्तियुक्त है // 53 // यद् गृह्यते तदिह वस्तु गृहीतमेव, तद् गृह्यते च न च यत्तु गृहीतमास्ते / इत्थं भिदामपि स किं न विदाङ्करोतु, यः पाठितो भवति लक्षणभङ्गजालम् // 54 // जो वस्तु जिस समय जानी जाती है उस समय वह नियमेन ज्ञात हो जाती है, परन्तु जो वस्तु 'ज्ञात' हो जाती है वह नियमेन 'ज्ञायमान' - भी हो, यह बात नहीं है। तात्पर्य यह है कि वस्तु दो समयों में ज्ञातकही जाती है -१-ज्ञान की उत्पत्ति के समय और २-ज्ञान की निवृत्ति हो जाने के समय। पहले समय में ज्ञान की विद्यमानता होने से वस्तु ज्ञात होने के साथ ज्ञायमान भी हो सकती है किन्तु दूसरे समय में ज्ञान की विद्यमानता न होने से वस्तु ज्ञात तो होगी पर ज्ञायमान नहीं हो सकती, क्योंकि कोई भी वस्तु ज्ञायमान तभी हो सकती है जब उसका ज्ञान विद्यमान होता है। वस्तु की ज्ञायमानता और ज्ञातता के उपर्यक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि ज्ञायमान वस्तु में ज्ञातत्व और अज्ञातत्व के समावेश की सम्भावना तो नहीं है पर ज्ञात वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमानत्व के समावेश में कोई बाधा नहीं है / फलतः एक ही वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमात्वरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश होने से वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि होती है। ___ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तु का स्वरूप विरुद्ध एवं विभिन्नरूपात्मक हैं तव सभी लोगों को उसके स्वरूप की प्रतीति क्यों Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि जब किसी भी मनुष्य को वस्तु की प्रतीति होती है तब उसे उस वस्तु के समस्त रूप की अविविक्त प्रतीति होती है, क्योंकि जब वस्तु विरुद्ध, अविरुद्ध, स्वाश्रित, पराश्रित तथा अनाश्रितरूप अनन्त धर्म-पर्यायों की अभिन्न समष्टिरूप है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि वस्तु की प्रांशिक ही प्रतीति होती है और पूर्ण प्रतीति नहीं होती, हां यह अवश्य है कि सर्व-साधारण को वस्तु के समस्त रूपों की विविक्त एवं विस्पष्ट प्रतीति नहीं होती क्यों कि इस प्रकार की प्रतीति के लिये स्याद्वादी दृष्टि होना आवश्यक होता है और जिसे यह दृष्टि प्राप्त है, जिसने वस्तु की उत्पत्ति, विकास और स्थैर्यरूप लक्षणों के भङ्गजाल का अध्ययन किया है उसे वस्तु की अनन्तरूपता की स्पष्ट प्रतीति होती ही है। अतः युक्ति और प्रमाण से जब वस्तु का यह अनन्त विशाल स्वरूप सिद्ध होता है तब सामान्य मानव को उसकी स्पष्ट प्रतीति न होने के कारण उसे अस्वीकार कर देना उचित नहीं है अपितु उसकी स्पष्ट-प्रतीति प्राप्त करने के लिये दृष्टि को स्याद्वाद के अञ्जन से विमल और ग्रहणपटु बनाने के निमित्त अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों का सत्संग करना अपेक्षित है // 54 / / तत्त्वं ह्यबुद्धयत शिशुर्भवतः किलेदं, षड्वार्षिकोऽपि भगवन्नतिमुक्तकर्षिः / जानन्ति ये न गतवर्षशतायुषोऽपि .... धिक् तेषु मोहनृपतेः परतन्त्रभावम् / / 55 / / हे भगवन् ! छः वर्ष की आयूवाला आपका कृपापात्र बालक.जिसे अतिमुक्तक ऋषि की अवस्था प्राप्त है. जिसे उस छोटी आयु में ही अनेकान्तता का दर्शन होने लगा है और जिसने उसी आयु में माता की आज्ञा प्राप्त करके जैनशास्त्रोक्त दीक्षा ग्रहण की है, जिस वस्तु को वह अवगत कर लेता है उसे अन्य शास्त्रों के सुविख्यात अतिवृद्ध Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [166 विद्वान् भा नहीं जान पाते, वे इस दयनीय अज्ञानदशा में क्यों पड़े रहते हैं ? इसलिये कि जब उन्हें किसी वस्तु का अंशतः तत्त्वदर्शन प्राप्त होता है तो वे उसी को वस्तु की पूर्णता मान बैठते हैं, उन्हें अहङ्कार हो जाता है कि उन्होंने उस वस्तु को पूर्णरूपेण जान लिया है, अब उन्हें उसके सम्बन्ध में कुछ और जानना शेष नहीं है / फलतः उस वस्तु के विषय में अन्य नवीन जानकारी प्राप्त करने की आकांक्षा समाप्त हो जाती है, उनकी यह मनोवृत्ति क्यों होती है ? __इसलिये कि एक ऐसी मिथ्यादृष्टि ने जो नितान्त निन्द्य एवं त्याज्य है, उन्हें चिरकाल से आक्रान्त कर रखा है। अतः जब तक इस मिथ्या दृष्टि से उनका पिण्ड नही छूटता तब तक उनकी इस अज्ञानदशा का अन्त होना असम्भव है। और यह पूछा जाय कि उनका इस दृष्टि से पिण्ड छुड़ाने का क्या उपाय है तो इसका एक ही उपाय है कि वे अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों की शरण में जाकर उनसे तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करें // 55 // प्रावृत्यनावृतिपदेऽपि समा दिगेषा, जात्यावृतौ भवति वैनयिको कथं धीः / चित्रा च जातिरवयव्यपि तद्वदेव, चित्रो भवन्न तनुते भुवि कस्य चित्रम् // 56 // जो रीति एक ही वस्तु के दृष्ट और अदृष्ट होने में तथा ज्ञायमान और अज्ञायमान होने में बताई गई है वही उसके प्रावृत तथा अनावृत होने के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिये / अर्थात् जिस प्रकार वही वस्तु अंशभेद से दृष्ट भी होती है और अदृष्ट भी, ज्ञायमान भी होती है और प्रज्ञायमान भी, उसी प्रकार अशभेद से वही वस्तु प्रावृत भी हो सकती है और अनावृत भी। फलतः आवृतत्व और अनावृतत्व के सम्बन्ध से भी वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता सिद्ध होती है। . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 170 यदि यह कहा जाए कि जिस समय वस्तु के किसी अंश के साथ आवरण का सम्बन्ध होता है उस समय वह वस्तु अथवा उसका परिणाम आवृत नहीं होता उन दोनों का दर्शन तो उस समय भी होता है, कमी केवल इतनी ही रहती है कि उस समय उसके परिणाम के विशेष रूप का दर्शन नहीं होता। अर्थात् अंश के प्रावरण काल में यह निश्चय नहीं हो पाता कि इस वस्तु का परिणाम कितना है ? यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसका सीधा अर्थ यही होता है कि अंश के साथ आवरण का सम्बन्ध होने की दशा में वस्तु और उसके परिमाण तो आवत नहीं होते पर परिमाण की हस्तत्व-द्विहस्तत्व आदि जाति आवृत हो जाती है, किन्तु इस बात को स्वीकृत करना सम्भव नही है, क्योंकि ऐसा मानने पर जब समान परिमारण के दो द्रव्यों में किसी एक ही द्रव्य का अंशावरण होगा तब दूसरे द्रव्य के परिमारण में हस्तत्वादि जाति का ज्ञान न हो सकेगा, कारण कि जाति दोनों द्रव्यों के परिमाण में एक ही है और वह अंशावरणवाले द्रव्य के परिमाण में आवृत हो चुकी है। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि परिमाण की पहचान में पटुता प्राप्त किये हुए व्यक्ति को समान परिमाण वाले प्रावरणहीन द्रव्य के आधार पर अंशावत द्रव्य के परिमाण में भी हस्तत्व आदि जाति का निश्चय होता है पर जाति को आवृत मानने पर न हो सकेगा। तीसरा दोष यह है कि जिस द्रव्य का परिणाम चौड़ाई और लम्बाई दोनों ओर हाथभर है और चौड़ाई की और आधा भाग ढका है तथा लम्बाई की ओर पूरा भाग खुला है चौड़ाई की ओर उस द्रव्य के परिमाण की जाति का अर्थात् उसके हाथ भर होने का निर्णय तो नहीं होता पर लम्बाई की ओर होता है किन्तु जाति को प्रावृत मानने पर यह निर्णय न हो सकेगा। इस दोष के निवारणार्थ यदि परिमाणगत जाति को द्रव्य की केवल चौड़ाई की ओर ही आवृत और लम्बाई की ओर अनावृत माना जाएगा तो जाति को चित्र अर्थात् अपेक्षाभेद से आवृतत्व और अनावृतत्व Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 171 रूप विरुद्धं-धर्मों का आश्रय मानना होगा, फिर जाति को जब इस प्रकार अनेकान्तरूप मानना ही पड़ता है तब द्रव्य को अनेकान्तरूप न मानने में कोई कारण नहीं रह जाता। अतः वस्तु की अनेकान्तरूपता निर्विवादरूप से सभी को स्वीकार करना अनिवार्य है / / 56 / / एकत्र देशभिदयानुभवेन कम्पाकम्पावपि प्रकृतवस्तुनि भेदको स्तः / धीविप्लवोपगमतश्च न चेद्विभाग संयोगभेदपरिकल्पनया च घोषः // 57 // जिस समय किसी वृक्ष के एक भाग में कम्प होता है और दूसरा भाग निष्कम्प रहता है उस समय वृक्ष में कम्पयुक्त भाग की ओर कम्प का और निष्कम्प भाग की ओर कम्पाभाव का अनुभव होता है / इसलिये अवयव के भेद से वक्ष में कम्प तथा कम्पाभावरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश माना जाता है और इसी कारण वृक्ष की अनेकान्तरूपता भी माननी पड़ती है। यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के किसी अवयव में कम्प तथा अन्य अवयव में कम्पाभाव की दशा में वक्ष में जो कम्प का अनुभव होता है वह भ्रम है और भ्रम से विषय की सिद्धि नहीं होती, अतः उस दशा में वृक्ष निष्कम्प ही रहता है, फलतः कम्प और कम्पाभाव के समावेश के आधार पर वक्ष की अनेकान्तरूपता सिद्ध नहीं हो सकती, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर कम्पयुक्त भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने से जैसे वृक्ष में कम्प का भ्रम होता है उसी प्रकार निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर भी वक्ष के कम्प का भ्रम होने लगेगा, और वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय यदि उस भाग में वृक्ष को भी कम्पयुक्त माना जायगा तब वृक्ष में कम्प का ज्ञान यथार्थ होगा और वह निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग होने पर नहीं होगा किन्तु कम्पयूक्त भाग की ओर नेत्र का संयोग होने से ही होगा। क्योंकि इस पक्ष में यह नियम माना Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] जाएगा कि किसी द्रव्य में अव्याप्त होकर रहनेवाले पदार्थ का दर्शन तभी होता है जब उस द्रव्य के साथ नेत्र का संयोग उस भाग में हो, जिस भाग में वह द्रव्य इस अव्याप्यवत्ति धर्म का आश्रय होता हो, यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को निष्कम्प मानने के पक्ष में भी यह नियम माना जाएगा कि वृक्ष में कम्प का भ्रम होने के लिये वक्ष के जिस भाग में कम्प होता है उस भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग अपेक्षित है, अतः निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग न होने से वृक्ष में कम्प के भ्रम की आपत्ति न होगी, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस नियम की कल्पना का कोई आधार नहीं है, कम्पयुक्त भाग की ओर ही दृष्टि पड़ने पर वृक्ष में कम्प का ज्ञान होना और निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर कम्प का ज्ञान न होना ही उक्त नियम की कल्पना का आधार है, यह कथन उचित नहीं है क्योंकि इस घटना की उपपत्ति वक्ष में अव्याप्यवति कम्प का उदय मान लेने से भी हो जाती है, और वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को कम्पयुक्त मानने के पक्ष में निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने से वृक्ष में कम्प के ज्ञान का जन्म रोकने के लिये जिस नियम की चर्चा की गई है उस के आधारहीन होने का प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि वृक्ष में अव्याप्त होकर रहनेवाले संयोगादि अन्य धर्मों की उस प्रकार की प्रतीति के निवारणार्थ वह नियम पहले से ही स्वीकृत है। दूसरी बात यह है कि यदि अवयवी में प्रतीत हानेवाले कम्प को अवयवगत मानकर अवयवी को निष्कम्प माना जाएगा तो अवयवी में प्रतीत होनेवाले अन्य समस्त धर्मों में भी यही न्याय लगेगा और उसका परिणाम यह होगा कि अवयवी निर्धर्मक होने से तुच्छ हो जाएगा और अवयवी के तुच्छ होने पर सर्वत्र शून्यवाद की दुन्दुभि बज उठेगी / तात्पर्य यह है कि जो धर्म जहाँ प्रतीत होता है यदि वहाँ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 173 उसका अस्तित्व मानना आवश्यक न होगा तो किसी दूसरे स्थान में उसका अस्तित्व क्यों माना जाएगा? फलतः धर्म का अस्तित्व सर्वथा लुप्त हो जाएगा, प्रतीत होनेवाले समस्त पदार्थ अस्तित्वहीन हो जाएँगे, प्रतीतियां वस्तुमूलक न हो वासनामूलक हो जाएँगी और प्रतीतियों के वासनामात्रमूलक होने का ही अर्थ है शून्यवाद / ___तीसरी बात यह है कि शाखा में कम्प होने के समय यह प्रतीति होती है कि वृक्ष अपने शाखाभाग में कम्पित हो रहा है। इस प्रतीति में वृक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प का सम्बन्ध भासित होता है, अतः यदि शाखा को कम्पयुक्त एवं वृक्ष को निष्कम्प माना जाएगा तो उक्त प्रतीति को वृक्ष और शाखा में भासमान कम्प के सम्बन्धों के विषय में भ्रमात्मक मानना होगा, क्योंकि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर केवल वक्ष के साथ ही कम्प का सम्बन्ध नहीं होगा यह बात नहीं है अपितु शाखा के साथ भी वह कम्पका सम्बन्ध न होगा जो उक्त प्रतीति में शाखा के साथ भासित होता है / अभिप्राय यह है कि उक्त प्रतीति में वृक्ष के साथ कम्प का समवाय-सम्बन्ध तथा शाखा के साथ अवच्छेदकता-सम्बन्ध भासित होता है। पर वृक्ष को निष्कम्प मानने पर ये दोनों ही सम्बन्ध नहीं बन सकते। यदि यह कहा जाए कि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर वृक्ष के साथ कम्प का समवाय-सम्बन्ध मानने में कोई बाधा नहीं है, तो ठीक नहीं है, क्योंकि जब कोई धर्म किसी अवयवी में अंशतः समवेत होता है तभी उसका अवयव उस धर्म का अवच्छेदक होता है, अन्यथा नहीं। यदि यह कहा जाय कि उक्त प्रतीति में वक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प के समवाय-सम्बन्ध का ही भान होता है, किन्तु वृक्ष के निष्कम्प होने से उसमें समवायसम्बन्ध से जो कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति भ्रम है, और शाखा के सकम्प होने से शाखा में जो समवाय सम्बन्ध से कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति प्रमा है, तो यह कल्पना भी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] उचित नहीं है क्योंकि वृक्ष और शाखा दोनों में समवाय-सम्बन्ध से कम्प का भान मानने पर प्रतीति का यह प्राकार नहीं होगा कि 'वृक्ष अपने शाखाभाग में कम्पित हो रहा है' किन्तु उसका आकार होगा 'वृक्ष और शाखा दोनों कम्पित हो रहे हैं।' अतः ‘बृक्ष अपने शाखाभाग में कम्पित हो रहा है' इस लोकसिद्ध प्रतीति के अनुरोध से वृक्ष को समवाय सम्बन्ध से तथा शाखा को अवच्छेदकता-सम्बन्ध से कम्पयुक्त मानना अनिवार्य है। . ___ चौथी बात जलयुक्त स्थिर और अस्थिर दो पात्रों में तद्वत् ही चन्द्र के दिखाई देने की है और उससे यह प्रश्न उठता है कि जैसे स्थिर जल में स्थिर चन्द्र और अस्थिर जल में अस्थिर चन्द्र दो प्रकार के दिखाई देते हैं वैसे ही वृक्ष दो क्यों नहीं दिखाई देते ? इस प्रश्न का उत्तर है पृथक्-पृथक् अाधारों का होना; किन्तु वृक्ष के अवयव एक दूसरे से पृथक् नहीं है, उनके बीच व्यवधान, करनेवाली उनसे पृथक् कोई वस्तु भी नहीं है अतः उनमें एक वृक्ष का दा दिखाई देना कथमपि सम्भव नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि- यह उत्तर तो वृक्ष को निष्कम्प मानने पर भी दिया जा सकता है, तो ठीक नहीं हैं क्योंकि उक्त उत्तर से वृक्ष की अनेकान्तरूपता का निराकरण नहीं हो सकता। क्योंकि उक्त उत्तर में ही यह बात आजाती है कि वक्ष अपने अवयवों से अभिन्न भी है और भिन्न भी है, अभिन्नता अपृथगभूतता-रूप है और भिन्नता अन्यत्व अथवा वैधर्मरूप है। पाँचवीं बात यह है कि जब किसी अवयवी द्रव्य के किसी अवयव में कम्प होगा तब उस अवयवी में भी कम्प का होना अनिवार्य है, क्योंकि अवयवी की स्थिति अवयव से पृथक् न होने के कारण जिसके सम्पर्क से अवयव में कम्प होता है उसका सम्पर्क अवयवी में रोका नहीं जा सकता। यदि किसी एकमात्र अवयव के कम्प की उत्पत्ति को रोकने के लिये अवयवी को ही कम्प का विरोधी मान लिया जाएगा तो किसी भी अवयवी में कदापि कम्प नहीं हो सकेगा, होगा केवल Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 175 परमाणु में, और उस दशा में कम्प का प्रत्यक्ष असम्भव हो जाएगा। इस दोष से इस बात को छोड़कर यदि यह कहा जाय कि अवयवी में कम्प होने के लिये उसके समस्त अवयवों में कम्प पैदा करनेवाले कारणों का सन्निधान अपेक्षित होता है, अतः जब किसी एक ही अवयव में कम्प के कारण का सन्निधान होता है उस समय अवयवी में कम्प की उत्पत्ति नहीं हो सकती. तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कोई मनुष्य कभी भी अवयवी को कम्पित करने का साहस ही न कर सकेगा, तथा अवयवी को कम्पित करने के लिये समस्त अवयवों को कम्पित करने वाले कारणों को एकत्र करना होगा और उन सब कारणों का ज्ञान दुष्कर होने के नाते उस कार्य में मनुष्य की प्रवृत्ति न हो सकेगी। ___ छठी बात जिसकी चर्चा पद्य के उत्तरार्ध में स्पष्टरूप से की गई है, यह है कि अवयव के कम्प के समय यदि अवयवी को कम्पहीन माना जाएगा तो कम्पयुक्त अवयव से जितने भी द्रव्यसंयुक्त और . विभक्त होंगे उन सभी के साथ अवयवी के बहुत से संयोगज-संयोग तथा विभागज-विभाग मानने होंगे और उन संयोगों तथा विभागों के पुनर्जन्म को रोकने के लिये उन संयोगों और विभागों को उन्हीं के प्रति अलग-अलग प्रतिबन्धक मानना होगा, और यह कल्पना अत्यन्त गौरव-ग्रस्त होगी। अभिप्राय यह है कि अवयव के कम्प के समय यदि अवयवी में भी कम्प होगा तो जिन-जिन स्थानों से अवयव के संयोग और विभाग होते हैं उन-उन स्थलों से अवयवी के भी संयोग और विभाग अवयवी के कम्प से ही उत्पन्न हो जाएंगे और अवयवी के कम्प की निवृत्ति हो जाने के कारण उन संयोगों और विभागों का पुनर्जन्म नहीं होगा, परन्तु अवयव के कम्प के समय यदि अवयवी कम्पहीन रहेगा तो अवयव के संयोगी और वियोगी स्थानों से अवयवी के जो संयोग और विभाग होंगे उनके प्रति अवयव के संयोग और Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 ] विभागों को ही कारण मानना होगा, फिर अवयव के संयोग तथा विभागरूप कारण जब तक बने रहेंगे तब तक उनके द्वारा अवयवी के संयोग तथा विभागों के पुनर्जन्म का संकट बना रहेगा। फलतः उस संकट को टालने के लिये अवयवी के संयोग तथा विभागों को उनकी अपनी उत्पत्ति के प्रति प्रतिबन्धक मानना होगा। अतः अवयव में कम्प होने के समय अवयवी को निष्कम्प मानना उपयुक्त न होगा, और जब कम्पयुक्त अवयव में अवयवी को सकम्प और कम्पहीन अवयव में निष्कम्प माना जाएगा तब कम्प और कम्पाभाव के सहसन्निवेश से अवयवी की अनेकान्तरूपता अपरिहार्य होगी / / 57 / / न व्याप्यते यदि भिदानुभयाश्रयत्वा-- देकत्र रक्तिमविपर्यययोविरोधः / सर्वत्र तच्छबलताप्रतिबन्धसिद्धि-, दुर्वादिकुम्भि-मदमदन-सिंहनादः // 58 // जो वस्त्र लाल रंग से प्राधा रंगा और प्राधा बिना रंगा हुआ होता है, उसमें रंगे भाग में रक्तता और बिना रंगे भाग में रक्तता का अभाव होता है, किन्तु किसी एक ही भाग में रक्तता का अभाव नहीं होता। इसलिये रक्तत्व और रक्तताभाव में 'एक भाग में एक आश्रय का न होना' रूप विरोध होता है, पर इस विरोध में रक्त और अरक्त के भेद की व्याप्ति नहीं हो सकती। अर्थात् यह नियम नहीं हो सकता कि रक्तत्व और रक्तत्वाभाव के आश्रय परस्पर भिन्न ही होते हैं. क्योंकि उक्त प्रकार में एक ही वस्त्र में भागभेद से रक्तत्व तथा रक्तत्वाभाव दोनों का अनुभव होता है, फिर जब विरुद्ध धर्मों में आश्रयभेद का नियम सिद्ध नहीं हो सकता तो इसका अर्थ यह होगा कि जिन धर्मों में विरोध होता है उनमें एकान्ततः विरोध ही नहीं होता, अपितु किसी एक अपेक्षा से विरोध तथा अन्य अपेक्षा से अविरोध भी होता है, एवं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 177 उन धर्मों में एक धर्म के आश्रय में दूसरे धर्म के आश्रय का सर्वथा भेद ही नहीं होता किन्तु किसी एक दृष्टि से भेद तथा दूसरी दृष्टि से अभेद भी होता है, फलतः संसार के समस्त पदार्थों में विरोध तथा अविरोध एवं भेद तथा अभेद की शबलता अर्थात् मिश्रित स्थिति का नियम निष्पन्न होता है। इस बात को सत्ता तथा पानकरस के उदाहरण से समझा जा सकता है जैसे सत्ता द्रव्यत्व से विशिष्ट होकर द्रव्य में ही तथा गुणत्व से विशिष्ट होकर गुण में ही रहती है, इसलिये विशिष्ट स्वरूप की दृष्टि से द्रव्यत्व-विशिष्ट सत्ता तथा गुणत्व-विशिष्ट सत्ता में परस्पर विरोध और उनके आश्रय द्रव्य तथा गुण में परस्पर भेद होता है / परन्तु द्रव्यत्व तथा गुणत्व विशेषरणों से मुक्त विशुद्धसत्ता की दृष्टि से न तो उसमें विरोध ही होता है और न उसके आश्रय में ही भेद होता है; अर्थात् दृष्टिभेद से सत्ता में सत्ता का विरोध भी होता है और अविरोध भी एवं उसके आश्रयों में भी दृष्टिभेद से भेद भी होता है और अभेद भी। __ पानक रस की बात यह है कि सोंठ, मिरच, इलायची, किसमिस, पिश्ता और चीनी आदि द्रव्यों को दूध में पकाकर एक पेय तैयार किया जाता हैं, उस पेय का रस एक मात्र तीता, कडा , कसैला या मीठा ही नहीं होता, किन्तु उसमें डाले हुए द्रव्यों के विभिन्न रसों की समस्त विशेषताएँ विद्यमान रहती हैं, वह रस उन द्रव्यों के अपने निजी रसों से विलक्षण होता है। तात्पर्य यह है कि पानस रस के निष्पादक द्रव्यों की अपेक्षा कटुता, मधुरता आदि रसजातियों में परस्पर विरोध तथा उन जातियों के आश्रयभूत रसों में परस्पर भेद होता है, किन्तु तत्तत् द्रव्यों के मिश्रण से तैयार किये गये पेय द्रव्य की अपेक्षा उन जातियों में अविरोध तथा उनके आश्रयभूत पेय रस में अभेद होता है, ठीक यही बात जगत् के सब पदार्थों के सम्बन्ध में है / अतः जगत् का प्रत्येक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] पदार्थ अनेकान्तरूप है, पदार्थ मात्र की अनेकान्तरूपता की यह सिद्धि अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों का वह गम्भीर सिंहनाद है जो एकान्तसिद्धान्त के दुर्दान्त वादि-गजेन्द्रों के मद को चूर्ण-विचूर्ण कर देता है / / 58 // * तद्देशतेतरपदेऽपि समा दिगेषा, चित्रेतरत्व-विषयेऽप्ययमेव पन्थाः। द्रव्यकतावदविगीततया प्रतीतेः, क्षेत्रकतापि न च विभ्रमभाजनं स्यात् / / 56 // एक वस्तु में रक्तत्व तथा अरक्तत्व के समावेश के सम्बन्ध में जो पद्धति बताई गई है वही तद्देशत्व तथा अतद्देशत्व एवं चित्रत्व तथा चित्रेतरत्व के एकत्र समावेश के सम्बन्ध में भी ग्रहण करनी चाहिए। अर्थात् इन विरोधी धर्मों के समावेश में कथञ्चिद् भिन्नता होते हुए भी वस्तु की एकता अक्षुण्ण समझी जानी चाहिये। इसी प्रकार जैसे पर्यायों के भेद से द्रव्य में भेद होने पर भी उसकी एकता भ्रम की वस्तु नहीं मानी जाती है क्योंकि उसमें होनेवाली एकता की प्रतीति अबाधित रहती है, वैसे ही जिस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक द्रव्य एकत्र ही एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं उस क्षेत्र की एकता भी भ्रम की वस्तु नहीं मानी जा सकती, क्योंकि संसर्गी द्रव्यों के भेद से भिन्नता रहने पर भी उसमें रहनेवाली एकता की प्रतीति अबाधित रहती है / / 56 // स्थूलाणुभेदवदभिन्नपरानपेक्षसव्यापकेतर-निषेधक-शून्यवादाः। एतेन तेऽभ्युपगमेन हताः कथञ्चित्, स्वच्छासनं न खलु बाधितुमुत्सहन्ते // 6 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 176 हे भगवन् ! शून्यवाद में पर्यवसित होनेवाले स्थूलत्व, अणुत्व पादिरूप में वस्तु की सत्ता के निषेध आपके कथञ्चित् अभ्युपगम की नीति से निरस्त होने के कारण आपके स्याद्वादशासन को बाधा पहुँचाने में असमर्थ हैं। जैनदर्शन में जगत् के प्रत्येक पदार्थ को अनन्त धर्मों का अभिन्न स्थान माना जाता है और सप्तभङ्गी नयवाक्य से प्रत्येक धर्म का बोध कराया जाता है तथा वाक्य के प्रत्येक भंग की रचना 'स्यात्' शब्द से की जाती है / उदाहरणार्थ आत्मा के अनन्त धर्मों में से अस्तित्व धर्म का बोध कराने के लिये सप्तभङ्गी न्याय का प्रयोग निम्न प्रकार से किया जा सकता है (1) स्यादस्ति-कथञ्चित् है। (2) स्यान्नास्ति-कथञ्चित् नहीं है। (3) स्यादस्ति च नास्ति च-कथचित् है और कथञ्चित् नहीं भी (4) स्यादवक्तव्यः-कथञ्चित् अवाच्य है। (5) स्यादस्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। (6) स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् नहीं है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। (7) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् है, कथञ्चित् नहीं है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। वस्तु की मान्यता के सम्बन्ध में जैनदर्शन की इस दृष्टि को ही 'स्याद्वाद' शब्द से व्यवहृत किया है / इसके विरुद्ध बौद्धों का यह कथन है कि स्याद्वाद का यह शासन संगत नहीं है क्योंकि यह अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्व पर भी प्रतिष्ठित हो सकता है और वस्तु का अस्तित्व किसी भी रूप में सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि बस्तु का अस्तित्व यदि माना जाएगा तो उसे स्थूल, अणु, भिन्न, अभिन्न, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] सापेक्ष, निरपेक्ष, व्यापक अथवा अव्यापक इन्हीं रूपों में से किसी रूप में मानना होगा, पर इनमें किसी भी रूप में उसे नहीं माना जा सकता। जैसे वस्तु को स्थूल रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उसे स्थूलरूप में ही स्वीकार किया जाएगा तो अणु वस्तु के न होने से वस्तुओं की स्थूलता में न्यूनाधिक्य नहीं होगा, यह इस लिये कि वस्तुओं की स्थूलता का न्यूनाधिक्य उन्हें निष्पन्न करनेवाले अणुओं की संख्या के न्यूनाधिक्य पर ही निर्भर होता है। वस्तु को अणुरूप में भी नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वस्तु यदि अणुरूप होगी तो उसका प्रत्यक्ष न हो सकने के कारण लोक-व्यवहार का उच्छेद हो जाएगा। वस्तु को भिन्नरूप में भी स्वीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तु यदि भिन्न होगी तो अपने आप से भी भिन्न होगी और अपने आप से भिन्न होने का अर्थ होगा अपनेपन का परित्याग अर्थात् शून्यता। वस्तु को अभिन्नरूप में भी स्वीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि वस्तु का स्वभाव अभिन्न होगा तो कोई वस्तु किसी से भिन्न न होगी, फलतः घोड़े, बैल आदि की परस्पर भिन्नता का लोप हो जाने से एक के स्थान में दूसरे के समान विनियोग की आपत्ति होगी। वस्तु को सापेक्ष रूप में भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस पक्ष में प्रत्येक वस्तु के सापेक्ष होने से अपेक्षात्मक वस्तु को भी सापेक्ष कहना होगा, जिसका फल यह होगा कि अपेक्षा को कल्पना के अनवस्थाग्रस्त होने से वस्तु की सिद्धि असम्भव हो जाएगी। निरपेक्षरूप में भी वस्तु की सत्ता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि वस्तु को निरपेक्ष मानने पर पूर्व और उत्तर अवधि की भी अपेक्षा समान हो जाने से प्रत्येक वस्तु को अनादि और अनन्त मानना पड़ जाएगा और उसके फलस्वरूप वस्तु के असंख्य पदार्थों की लोकसिद्ध सादिता और सान्तता का लोप हो जाएगा। वस्तु को व्यापकरूप में भी नहीं Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ 181. नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जाएगा तो प्रत्येक पदार्थ का सर्वत्र अस्तित्व होने से सब स्थानों में सब पदार्थों के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। वस्तु को अव्यापक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अव्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जाएगा तो उसके लोक-सम्मत आश्रय में भी उसकी व्याप्ति का लोप हो जाने से उसके नितान्त असत्त्व-शून्यता की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार वस्तु की सत्ता के शून्यता-ग्रस्त हो जाने से अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्वरूप उपजीव्य की सिद्धि न होने के कारण स्याद्वाद की प्रतिष्ठा असम्भव है। . बौद्धों के इस आक्षेप के उत्तर में जैनों का कथन यह है कि 'वस्तु के स्थूलत्व, अणुत्व आदि जिन धर्मों का निषेध उपर्यक्त रीति से किया गया है वे सब धर्म वस्तु में अपेक्षाभेद से कथञ्चित् विद्यमान हैं / वस्तु में उन धर्मों को स्वीकार करने पर जो दोष बताये गये हैं वे उन धर्मों को एकान्ततः स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर ही सम्भव हैं, अतः उन धर्मों के अभिन्न प्रास्पदरूप में वस्तु की सिद्धि होने में कोई बाधा न होने से स्याद्वाद-शासन पर किसी प्रकार कोई अाँच नहीं आएगी / / 60 // एतेन ते गुणगुरिणत्वहतेनिरस्तं, नैरात्म्यमोश समयेऽनुपलब्धितश्च / प्रात्मा यदेष भगवाननुभूतिसिद्ध, . एकत्वसंवलितमूर्तिरनन्तधर्मा // 61 // हे ईश्वर ! गुण और गुणी में भेद का अभाव तथा अनुपलब्धि से प्रसक्त होनेवाला यह नैरात्म्य आपके स्याद्वाद-शासन में अनायास ही निरस्त हो जाता है क्योंकि इस शासन को वह अनुभव प्राप्त है जिसके साक्ष्य पर अनन्त धर्मात्मक एक व्यक्ति के रूप में आत्मा के Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] अस्तित्व की सिद्धि अपरिहार्य है // 61 // भिन्नक्षरणेष्वपि यदि क्षरणता प्रकल्प्या, क्लुप्तेषु साऽस्त्विति जगत्क्षणिकत्वसिद्धिः / तद्रव्यता तु विजहाति कदापि नो तत् सन्तानतामिति तवायमपक्षपातः / / 62 / / न्यायदर्शन में आत्मा को एकान्त नित्य और बौद्धदर्शन में एकान्तक्षणिक माना गया है, किन्तु भगवान् महावीर का स्याद्वाद-शासन नितान्त पक्षपातरहित है। अतः उसके अनुसार प्रात्मा न केवल नित्य और न केवल क्षणिक है अपितु अपेक्षाभेद से नित्यं भी है और साथ ही क्षणिक भी। तात्पर्य यह कि आत्मा शब्द किसी एक व्यक्ति का बोधक न होकर एक ऐसे अर्थसमूह का बोधक है जिसमें कोई एक अर्थ नित्य और अन्य अर्थ क्षणिक है, जो अर्थ नित्य है उसका नाम है द्रव्य और जो अर्थ अनित्य हैं उन सबका नाम है पर्याय / इस प्रकार प्रात्मा द्रव्य, पर्याय उभयात्मक है और द्रव्यात्मना नित्य तथा पर्यायात्मना क्षणिक है। दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि ने क्षण को अतिरिक्त पदार्थ और क्षणिक माना है। इस मत की आलोचना करते हुए ग्रन्थकार का कथन है कि-नवीन धर्मी और धर्म की कल्पना करने की अपेक्षा पूर्वतः सिद्ध पदार्थों में धर्ममात्र की कल्पना में लाघव होता है। अतः क्षण नामक अनन्त अतिरिक्त पदार्थ मानकर उन सब में क्षरणत्व की कल्पना करने की अपेक्षा प्रथमतः सिद्ध समस्त पदार्थों में ही क्षणत्व की कल्पना में लाघवमूलक औचित्य है। फलतः संसार के समस्त स्थिर पदार्थों के क्षणरूप होने से आत्मा की भी क्षणिकता अनिवार्य है। ___ इस पर यह प्रश्न होगा कि स्थिरत्व और क्षणिकत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी हैं फिर एक पदार्थ में इन दोनों का समावेश कैसे Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 183 होगा ? उत्तर यह है कि संसार के प्रत्येक पदार्थ में दो अंश होते हैं एक स्थायी और एक क्षणिक, स्थायी अंश का नाम है समवाय अथवा द्रव्य और क्षणिक अंश का नाम है विशेष अथवा पर्याय, ये दोनों अंश परस्पर न तो एकान्ततः भिन्न होते हैं और न एकान्ततः अभिन्न / अतः पर्याय नामक अंश के क्षणिक होते हुए भी द्रव्यात्मना स्थायी और द्रव्यनामक अंश के नित्य होते हुए भी पर्यायात्मना क्षणिक होता है। इस प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्यात्मक रूप में स्थायी और अपने पर्यायात्मक रूप में क्षणिक होता है। जैनदर्शन में माना गया यह द्रव्यांश बौद्ध दर्शन में माने गये सन्तान के समान है। अन्तर केवल इतना ही है कि बौद्ध दर्शन का सन्तान-सन्तानी क्षणों से पृथक् अपना कोई अस्तित्व नहीं रखता, परन्तु जैनदर्शन का द्रव्य पर्यायों से पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी रखता है। यही कारण है कि जैनदर्शन का तद्रव्यत्व किसी भी उभय अथवा उभयाधिक पदार्थ में आश्रित नहीं होता, पर बौद्ध दर्शन का तत्सन्तानत्व उस सन्तान के घटक दो या दो से अधिक क्षणों में आश्रित होता है / / 62 // न द्रव्यमेव तदसौ समवायि-भावात, पर्यायतापि किमु नात्मनि कार्यभावात् / उत्पत्ति-नाश-नियत-स्थिरतानुत्ति, द्रव्यं वदन्ति भवदुक्तिविदो न जात्या // 63 / / जिस न्याय से प्रात्मा एकान्ततः नित्य नहीं है उसी न्याय से वह एकान्ततः द्रव्य भी नहीं है, किन्तु स्वगतगुणों का समवायिकारण होने से यदि वह द्रव्य है तो जन्म, जरा आदि अनन्त कार्यों का प्रास्पद होने से वह पर्याय भी है और यही कारण है जिससे वह मोक्षसाधनों * के अनुष्ठान द्वारा संसारी रूप से निवृत्त होकर सिद्ध-मुक्त रूप से Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] प्रादुर्भूत हो सकता है। यदि वह केवल द्रव्यरूप ही होगा, पर्यायरूप न होगा तो एकरूप से उसकी निवृत्ति और अन्यरूप से उसकी प्रादुभूति न हो सकेगी। - दूसरी बात यह है कि कोई भी पदार्थ समवायी कारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामी कारण होने से ही द्रव्य हो सकता है। इसका कारण यह है कि जिस मत में समवायी कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है उस मृत में कार्य और कारण में परस्पर भेद माना जाता है / फलतः उस मत में यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व सत् होता है अथवा असत् ? यदि सत् होगा तो उसका जन्म मानना असंगत होगा। क्योंकि किसी वस्तु को अस्तित्व में लाने के लिये ही उसके जन्म की आवश्यकता होती है। फिर जिस वस्तु का अस्तित्व पहले से ही सिद्ध है उसका जन्म मानना व्यर्थ है। इसी प्रकार कार्य यदि अपनी उत्पत्ति से पूर्व असत् होगा तो भी उसका जन्म मानना असंगत होगा क्योंकि जो स्वभावतः असत् है उसे जन्म द्वारा भी अस्तित्व का लाभ नहीं हो सकता। परिणामी कारण से कार्य की उत्पत्ति मानने पर उक्त प्रश्न के उठने का अवसर नहीं होता / क्योंकि परिणामी कारण का अपने कार्यों से भेद नहीं होता। फलतः सभी कार्य अपने परिणामी कारण के रूप में पहले से ही अवस्थित रहते हैं। उनका जन्म उन्हें अस्तित्व प्रदान करने के लिये नहीं होता किन्तु अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिये होता है। ___ यदि यह कहा जाए कि समवायी कारण और परिणामी कारण में कोई भेद नहीं होता क्योकि नैयायिक जिसे समवायी कारण कहते हैं, जैन उसी को परिणामी कारण कहते हैं / अतः यह कहना उचित नहीं हो सकता कि कोई पदार्थ समवायी कारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामी कारण होने से ही द्रव्य हो सकता है, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि उनके लक्षण से ही उनका भेद स्पष्ट है। जैसे जो Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 185 कार्य अपने जिस कारण में समवाय-सम्बन्ध से आश्रित होता है वह कारण उसका समवायी कारण होता है जैसे कपाल घट का, तन्तु पट का / इस लक्षण के अनुसार एक सर्वथा नवीन वस्तु अपने विशेष कारण में समवाय नामक एक अतिरिक्त सम्बन्ध से अस्तित्व प्राप्त करती है / परिणामी कारण उसे कहा जाता है जो क्रम से प्रादुर्भूत होनेवाले अपने विविध रूपों में पूर्ववर्ती रूप का त्याग और उत्तरवर्ती रूप का ग्रहण करते हुए उन सभी रूपों के बीच अपने मूलरूप को अक्षुण्ण बनाए रहता है। जैसे मिट्टी अपने पूर्ववर्ती पिण्डाकार को छोड़कर घटाकार को प्राप्त करती है और दोनों प्राकारों में अपने मौलिक मिट्टी-रूप को अक्षुण्ण बनाए रहती है और इसी लिए वह पिण्ड, घट आदि का परिणामी कारण होती है / इस लक्षण के अनुसार यह निर्विवाद है कि परिणामी कारण से उत्पन्न होनेवाला कार्य उत्पत्ति से पूर्व एकान्ततः सत् अथवा असत् नहीं होता अपितु अपेक्षाभेद से सत् और असत् उभयात्मक होता है। ___ यदि यह कहा जाए कि किसी पदार्थ का द्रव्य होना समवायिकारणता अथवा परिणामिकारणता के अधीन नहीं है किन्तु द्रव्यत्व जाति के अधीन है। जिसमें द्रव्यत्व जाति रहेगी वह द्रव्य होगा और जिसमें वह नहीं रहेगी वह द्रव्य नहीं होगा, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि महावीर के शासनानुसार वही पदार्थ द्रव्य होता है जो एक ही समय में अपने किसी रूप से उत्पन्न तथा किसी रूप से विनष्ट होता रहता है और साथ ही अपने किसी रूप से सुस्थिर भी बना रहता है / द्रव्यत्व जाति के सम्बन्ध से किसी पदार्थ का द्रव्य होना स्याद्वाद की दृष्टि में संगत नहीं हो सकता क्योंकि उसकी दृष्टि में द्रव्यत्व जाति स्वयं ही प्रसिद्ध है / न्यायमत में अनुगत प्रतीति, अनुगत व्यवहार और अनुगत कार्यकारणभाव से जाति की सिद्धि की जाती है, किन्तु द्रव्यत्व की सिद्धि इनमें किसी से नहीं हो सकती क्योंकि अनुगत प्रतीति से यदि Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] द्रव्यत्व की सिद्धि मानी जाएगी तो अतीन्द्रिय द्रव्यों में उसकी अनुगत प्रतीति न होने से उनमें द्रव्यत्व का अभाव होगा। अनुगत व्यवहार से भी द्रव्यत्व जाति की सिद्धि नहीं मानी जा सकती क्योंकि द्रव्य के अनुगत व्यवहार में वादियों का ऐकमत्य नहीं है। कार्यकारणभावद्वारा भी द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं मानी जा सकती क्योंकि समवाय सम्बन्ध से जन्यभाव के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य कारण है। इस प्रकार का कार्यकारणभाव निष्प्रयोजन होने से अमान्य है। इस सन्दर्भ में यह कहना कि अद्रव्य में भावकार्य की उत्पत्ति का परिहार करने के लिए उक्त कार्यकारणभाव मानना आवश्यक है, ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य का जन्म उसी वस्तु में होता है जिसमें असत्कार्यवादी के अनुसार कार्य का प्रागभाव होता है या सत्कार्यवादी अथवा सदसत्कार्यवादी के अनुसार कार्य का तादात्म्य होता है। अद्रव्य में किसी कार्य का प्रागभाव या तादात्म्य नहीं होता अतः उक्त कार्यकारणभाव के बिना भी अद्रव्य में कार्य की उत्पत्ति की आपत्ति नहीं हो सकती। फलतः द्रव्यत्व जाति की सिद्धि में कोई प्रमाण न होने से उसके सम्बन्ध में किसी पदार्थ को अद्रव्य नहीं कहा जा सकता। निष्कर्ष यह है कि परिणामी कारण होना ही द्रव्य होने की पहचान है और परिणामी कारण उक्त रीति से एकान्ततः द्रव्यरूप नहीं हो सकता / अतः प्रात्मा भी परिणामी कारण होने से द्रव्य तो है पर केवल द्रव्य ही नहीं है अपितु द्रव्य और पर्याय उभयात्मक है / / 63 / / नाशोभवस्थितिभिरेव समाहृताभिद्रव्यत्वबुद्धिरिति सम्यगदीदृशस्त्वम्। .. एकान्तबुद्धयधिगते खलु तद्विधानमात्मानि वस्तुनि विवेचक-लक्षणार्थः // 64 // Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 187 हे भगवन् ! आपने यह उचित ही देखा है कि उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रौव्य-स्थायित्व के समाहार से ही द्रव्यत्व की प्रतीति होती है और उसी से बौद्धों द्वारा एकान्ततः क्षणिक एवं नैयायिकों द्वारा एकान्ततः नित्य माने गए आत्मा में द्रव्य व्यवहार तथा उसी से आत्मा में जैन शासनानुसार आत्मा के द्रव्यांश में उसके पर्याय अंश के भेद की सिद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि बौद्ध दर्शन की एकान्त दृष्टि के अनुसार प्रात्मा प्रवहमान क्षणिक ज्ञानरूप है और नैयायिकों के अनुसार वह ज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत नित्य द्रव्य रूप है / भगवान् महावीर द्वारा दृष्ट द्रव्य लक्षण बौद्ध और नैयायिक दोनों के द्वारा स्वीकृत आत्मा में उपपन्न होता है / जैसे बौद्धसम्मत प्रात्मा में प्रवाही ज्ञान की अपेक्षा उत्पत्ति तथा विनाशं का और प्रवाह की अपेक्षा स्थिरत्व का समाहार सम्भव है। इसी प्रकार न्यायसम्मत आत्मा में ज्ञानादिगुणों की अपेक्षा उत्पत्ति और विनाश का तथा आश्रय की अपेक्षा ध्रौव्य का समाहार हो सकता है। अतः उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण से ही द्विविध आत्मा में द्रव्य-व्यवहार को सिद्धि सम्भव है। लक्षण के अन्य प्रयोजन इतरभेद की सिद्धि भी इसी लक्षण से हो सकती है / जैसे जैन शासन के अनुसार आत्मा द्रव्यपर्याय उभयात्मक है एवं न्यायदर्शन का अनादिनिधन आश्रय द्रव्य तथा क्षणिक ज्ञानादि गुण पर्याय है। द्रव्य, पर्याय उभयात्मक इस आत्मा में पर्याय की अपेक्षा उत्पत्ति तथा विनाश और द्रव्य की अपेक्षा ध्रौव्य का समाहार होने से उत्पादव्ययध्रौव्य का समाहाररूप द्रव्यलक्षण अक्षुण्ण है, इस लक्षण से प्रात्मा में इतरभेद निर्बाधरूप से सिद्ध हो सकता है। क्योंकि अशुद्ध द्रव्यार्थिक द्वारा उक्त लक्षणरूप हेतु का ज्ञान तथा उसमें इतरभेद की व्याप्ति का ज्ञान अनायासेन सम्भव है। पद्य के उत्तरार्ध से उक्त रीति द्वारा आत्मा में द्रव्य व्यवहार तथा इतरभेद Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] की सिद्धि की सम्भाव्यता ही सूचित है // 64 // नाशोभवस्थिति-मति-क्रमशो न शक्तो, द्रव्यध्वनिस्तदिह नो पृथगर्थताभृत् / शब्दस्वभावनियमाद् वचनेन भेदः, स्वव्याप्यमिग-बहुत्व-निराकृतेश्च // 65 // उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य को द्रव्यपद का अर्थ मानने पर यह प्रश्न होता है कि द्रव्य पद से उत्पत्ति आदि का.बोध भिन्न शक्तियों द्वारा होता है अथवा एक शक्ति द्वारा? यदि भिन्न शक्तियों द्वारा माना जाएगा तो हरि शब्द के समान द्रव्य शब्द नानार्थक हो जाएगा और उस दशा में द्रव्य शब्द से उत्पत्ति आदि तीनों का सहबोध न होकर एक-एक के पृथक 2 बोध की आपत्ति होगी और यदि एक शक्ति द्वारा तीनों अर्थों का बोध माना जाएगा तो जैसे पुष्पवन्त शब्द एक शक्ति से चन्द्र और सूर्य इन दोनों अर्थों का बोधक होने से द्विवचनान्त होता है वैसे ही एक शक्ति से तीन. अर्थों का बोधक होने से द्रव्य शब्द के नियमेन बहुवचनान्त होने की आपत्ति होगी? इस प्रश्न का समाधान इस पद्य द्वारा किया गया है कि जिस शब्द से जिन अर्थों का बोध एक साथ न होकर क्रम से होता है उन अर्थों में उस शब्द की भिन्न-भिन्न शक्ति मानी जाती है और वह शब्द उन अर्थों में नानार्थक माना जाता है। जैसे हरि शब्द से सिंह, वानर आदि का बोध क्रम से होता है। अतः उन अर्थों में हरि शब्द की शक्ति भिन्न 2 मानी जाती है और उन अर्थों में हरि शब्द नानार्थक माना जाता है / किन्तु जिस शब्द से जिन अर्थों का बोध क्रम से न होकर एक साथ ही होता है उन अर्थों में शब्द की भिन्न-भिन्न शक्ति न मान कर एक ही शक्ति मानी जाती है और उन Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 186 अर्थों में वह शब्द एकार्थक माना जाता है, जैसे पृष्पवन्त शब्द से सूर्य और चन्द्र का बोध क्रम से न होकर एक साथ ही होता है। अतः चन्द्रसूर्य दोनों में पुष्पवन्त शब्द की एक ही शक्ति मानी जाती है और वह शब्द उन अर्थों में एकार्थक माना जाता है / ठीक उसी प्रकार द्रव्य शब्द से उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य का बोध क्रम से न होकर नियमेन एक साथ ही होता है। अतः उन तीनों अर्थों में द्रव्य शब्द की भिन्न-भिन्न शक्ति न होकर एक ही शक्ति होगी और द्रव्य उन अर्थों में नानार्थक न होकर एकार्थक ही होगा। प्रश्न का दूसरा- अंश यह है कि पुष्पवन्त शब्द एक शक्ति से दो अर्थों का बोधक होने से जैसे नियमेन द्विवचनान्त ही होता है वैसे ही एक शक्ति से उत्पत्ति अादि तीन अर्थों का बोधक होने से द्रव्य शब्द नियमेन बहुवचनान्त ही क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर इस प्रकार - शब्दों के साथ वचन-प्रयोग के दो कारण होते हैं- व्याकरण का कोई विशेष अनुशासन अथवा शब्दार्थ की संख्या बताने का उद्देश्य / व्याकरण के विशेष अनुशासन से जो वचन प्रयुक्त होते हैं उन पर शब्दार्थ की संख्या बताने का कोई भार नहीं होता। इसीलिये एक जल के लिये भी बहुवचनान्त अप् शब्द का तथा एक स्त्री के लिये भी बहुवचनान्त दार शब्द का प्रयोग प्रामाणिक माना जाता है। किन्तु जो वचन दूसरे कारण से प्रयुक्त होते हैं उन पर शब्दार्थ की विवक्षित संख्या का नियन्त्रण होता है और उन्हें शब्दार्थ की उस संख्या को बताना अनिवार्य है जो शब्द की प्रवृत्ति के निमित्तभूत धर्म से व्याप्य होती है। जैसे घट शब्द के साथ प्रयुक्त बहुवचन से घट शब्द की प्रवृत्ति के निमित्तभूत घटत्व से व्याप्य घटशब्दार्थ के ही बहुत्व का बोध होता है न कि घट, पट और मठ इन विभिन्न शब्दार्थों के बहुत्व का। द्रव्य शब्द के साथ बहुवचन विभक्ति का ही प्रयोग हो, इस Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] प्रकार का व्याकरण का कोई विशेष अनुशासन नहीं है। अतः उसके कारण द्रव्य शब्द को नियमेन बहुवचनान्तता नहीं प्राप्त हो सकती। दूसरे कारण से भी द्रव्य शब्द नियमेन बहुवचनान्त नहीं हो सकता क्योंकि उस स्थिति में द्रव्य शब्द के साथ प्रयुक्त होनेवाले बहुवचन को द्रव्य शब्दार्थ में बहुत्व संख्या का बोध कराना अनिवार्य होगा और उस का परिणाम यह होगा कि एक द्रव्य शब्द का प्रयोग असम्भव हो जाएगा क्योंकि एक द्रव्य में प्रतिपादनीय बहुत्व बाधित है। पुष्पवन्त शब्द का दृष्टान्त द्रव्य शब्द के लिए उपयुक्त नहीं है / क्योंकि पुष्पवन्त शब्द के साथ नियमेन द्विवचन के प्रयोग का समर्थक व्याकरण का कोई विशेष अनुशासन न होने पर भी दूसरे कारण से पुष्पवन्त शब्द के द्विवचन होने में कोई बाधा नहीं है / तात्पर्य यह है कि पुष्पवन्त शब्द यह एक ही शब्द चन्द्र और सूर्य इन दो विभिन्न अर्थों में है और वह शब्द इन अर्थों में किसी एक भी अर्थ को बताने के लिये कभी नहीं प्रयुक्त होता किन्तु चन्द्र और सूर्य इन दो अर्थों का प्रतिपादन करने के लिये ही प्रयुक्त होता है / अतः उसके साथ प्रयुक्त होनेवाले द्विवचन को पुष्पवन्त शब्दार्थ के विवक्षित द्वित्व को बताने में कोई बाधा नहीं है। यह शङ्का कि चन्द्र और सूर्यगत द्वित्व पुष्पवन्त पद के प्रवृत्तिनिमित्त चन्द्रत्व और सूर्यत्व का व्याप्य न होने से पुष्पवन्त शब्द के साथ प्रयुक्त होने वाले द्विवचन से प्रतिपादित नहीं हो सकता, ठीक नहीं है क्योंकि चन्द्रत्व और सूर्यत्व अलग-अलग यद्यपि उक्त द्वित्व के व्यापक नहीं हैं तथापि पुष्पवन्त शब्द के प्रवृत्तिनिमित्तत्व रूप से व्यापक तो हैं ही, क्योंकि उक्त द्वित्व के चन्द्रसूर्यरूप दोनों ही आश्रयों में पुष्पवन्त शब्द का कोई न कोई प्रवृत्तिनिमित्त विद्यमान है और जब चन्द्रत्व और सूर्यत्व उक्त रूप से चन्द्रसूर्यगत द्वित्व के व्यापक हैं तो उक्त द्वित्व भी उक्त प्रकार के चन्द्रत्व और सूर्यत्व का व्याप्य हो ही सकता Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 161 है / द्रव्य शब्द की बात उससे भिन्न है क्योंकि वह उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के विभिन्न तीन प्राश्रयों का बोधक न होकर उन तीनों के एक आश्रय का बोधक होता है और एक आश्रय में उस प्रकार का बहुत्व, जिसका प्रतिपादन करना बहुवचन के प्रयोग के लिए आवश्यक है, सम्भव नहीं है,॥ 65 // एकत्व-संवलित-विध्यनुवादभावात्, बौद्धं बहुत्वमपि नो वचनात्ययाय / प्रत्येकमन्वयितयापि न तत्प्रसङ्ग स्तात्पर्यसङ्घटित-सन्निहिताश्रयत्वात् // 66 // उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य इन तीन धर्मों को द्रव्य पद का प्रवृत्तिनिमित्त मानने पर द्रव्य पद के नित्य बहुवचनान्त होने की शङ्का इस प्रकार पूनः उठती है कि उक्त तीन अर्थों के प्राश्रयभूत एक व्यक्ति में यद्यपि संख्यारूप बहुत्व तो नहीं रह सकता पर ‘एक व्यक्ति उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य इन तीन धर्मों का आश्रय होता है' इस प्रकार की बुद्धि न होने में कोई बाधा न होने से बौद्ध बहुत्व तो रह ही सकता है, फिर इस बौद्ध बहुत्व की दृष्टि से एक व्यक्ति में भी बहुवचनान्त द्रव्य पद का प्रयोग होने में जब कोई बाधा नहीं है तब द्रव्य पद नियमेन बहुवचनान्त क्यों नहीं होता? इस शङ्का का समाधान उक्त पद्य के पूर्वार्ध से इस प्रकार किया है___ एक व्यक्ति में बौद्ध बहुत्व का बोध सम्पादित करने के दो प्रकार हैं—एक तो यह कि उसे उद्देश्यभूत किसी एक व्यक्ति में विधेय बना दिया जाए, जैसे 'एक घट उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के भेद से बहुरूप है' दूसरा यह कि उसे एकत्व के अनुवाद्य-उद्देश्य कोटि में डाल दिया जाय, जैसे 'उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य इन तीनों का आश्रय एक है' / बौद्ध बहुत्व के ये दोनों प्रकार बोध नियमेन एकत्व की अपेक्षा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] रखते हैं, इस अपेक्षा की पूर्ति के लिये द्रव्यपद के साथ एकवचन का प्रयोग अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति द्रव्य पद को नियेमन बहुवचनान्त मानने पर नहीं हो सकती। अत: बौद्ध बहुत्व की दृष्टि से भी द्रव्य पद को नित्य बहुवचनान्त नहीं माना जा सकता। द्रव्य पद को उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के आश्रय का वाचक मानने पर उसके नित्य बहुवचनान्न होने की शङ्का एक और प्रकार से भी होती है और वह प्रकार यह है कि जब द्रव्य पद उवत तीन धर्मों के प्राश्रय का वाचक होगा तो उन तीनों में प्रत्येक का स्वतन्त्ररूप से आश्रय के साथ अन्वय होगा और उस दशा में उत्पत्त्याश्रय, विनाशाश्रय तथा ध्रौव्याश्रय के रूप में तीन आश्रयों का बोध होगा। फिर जब नियमत: आश्रय बोधनीय होंगे तब उन तीन आश्रयों के बोधनार्थ द्रव्य पद का नित्य बहुवचनान्त होना अनिवार्य है, पद्य के उत्तरार्ध में इस दूसरी शङ्का का उत्तर प्रस्तुत किया गया है जो इस प्रकार है___द्रव्य पद से होनेवाले बाध को उत्पत्त्यादि के आश्रयत्रय का भान नहीं माना जासकता क्योंकि द्रव्य पद का प्रयोग उक्त आश्रयत्रय का बोध कराने के अभिप्राय से नहीं होता, अपितु उत्पत्त्यादि तीनों धर्मों के एक प्राश्रय का बोध कराने के अभिप्राय से होता है जिसकी पूर्ति द्रव्य से आश्रयत्रय का बोध मानने पर नहीं हो सकती। इस अभिप्राय की पूर्ति के लिए यह मानना आवश्यक है कि द्रव्य पद से उत्पन्न होनेवाले बोध में-आश्रय में उत्पत्ति आदि धर्मों का स्वतन्त्ररूप से अन्वय न होकर एक विशिष्ट अपररूप में होता है अर्थात् द्रव्य पद से उत्पत्तिविशिष्ट, विनाशविशिष्ट ध्रौव्य के आश्रय का बोध होता है। इस प्रकार का बोध मानने पर यदि यह आपत्ति खड़ी हो कि उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य में कौन किसका विशेषरण हो, इस बात का कोई निर्णायक न होने से उक्त प्रकार से विशिष्ट आश्रय का एकविध बोध Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 163 मानना समुचित नहीं है तो उस दशा में "एकत्र द्वयम्” की रीति से उत्पत्ति आदि तीनों धर्मों का एक प्राश्रय में युगपत् अन्वय मानना श्रेयस्कर होगा / अर्थात् द्रव्य पद से होनेवाले बोध में उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यगत तीन प्रकारताओं से निरूपित आश्रयगत एक विशेष्यता का अङ्गीकार उचित होगा। निष्कर्ष यह है कि द्रव्य पद से आश्रयत्रय की विवक्षा न होने के कारण आश्रयत्रय की दृष्टि से भी द्रव्यपद को नित्य बहुवचनान्त नहीं माना जा सकता / / 66 / / यद्वन्महेश्वरपदन्न विभिन्नवाच्यं, सर्वज्ञतादिषडवच्छिदया परेषाम् / द्रव्यध्वनिस्तव तथैव परं पदार्थ वाक्यार्थभावभजना न परैः प्रदृष्टा // 67 // इस पद्य में उदाहरण द्वारा इस बात की पुष्टि की गई है कि उत्पत्ति आदि तीन धर्मों के प्रवृत्ति-निमित्त होने पर द्रव्य पद नानार्थक और नित्य बहुवचनान्त नहीं हो सकता। नैयायिकों ने महेश्वर शब्द के छः प्रवृत्ति-निमित्त माने हैंसर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः / अनन्तशक्तिश्च विभोविधिज्ञाः षडाहुरङ्गानि महेश्वरस्य // तात्पर्य यह है कि महेश्वर शब्द से सर्वज्ञता-समस्त पदार्थों का, सभी सम्भव पदार्थों का सभी सम्भव प्रकारों से यथार्थज्ञान, तृप्तिअपने सुख की इच्छा का न होना, अनादिबोध-नित्यज्ञान, स्वतन्त्रताजगत्कर्तृत्व, नित्य-अलुप्तशक्ति-कभी भी नष्ट न होनेवाली शक्ति अर्थात् नित्य इच्छा और नित्य प्रयत्न तथा अनन्तशक्ति-अपरिमित कारणता से युक्त एक ईश्वर का बोध होता है तो जिस प्रकार महेश्वर शब्द नानार्थक और नित्य बहुवचनान्त न होने पर भी सर्वज्ञता आदि Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] छः धर्मों का बोधक होता है उसी प्रकार नानार्थक . और नित्य बहुवचनान्त न होने पर भी द्रव्यपद उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के एक आश्रय का बोधक हो सकता है और इसीलिये नैयायिक, जिन्हें स्याद्वाद का सुपरिचय नहीं है, भले ही स्वीकार न करें पर जैन विद्वानों ने जिन्हें स्याद्वाद का मर्म पूर्णतया ज्ञात है, द्रव्य शब्द में एक ही साथ पदाभाव और वाक्याभाव दोनों बातों की कल्पना की है अर्थात् उन्होंने यह स्वीकार किया है कि उत्पत्ति आदि अनेक अर्थों का बोधक होने से द्रव्यशब्द वाक्यरूप भी है और उन, अनेक अर्थों से युक्त एक आश्रय का बोधक होने से पदरूप भी है // 67 // एवं च शक्तितदवच्छिदयोभिदातो, . द्रव्यध्वनेनयभिदेव विचित्रबोधः। काचित् प्रधानगुणभावकथा क्वचित्तु, लोकानुरूपनियतव्यवहारक: // 68 // / इस पद्य में यह बताया गया है कि द्रव्य शब्द की शक्ति और उस के अवच्छेदक भिन्न-भिन्न हैं / अतः भिन्न-भिन्न नयों के अनुसार उस शब्द से भिन्न-भिन्न प्रकार के बोध हुआ करते हैं / हाँ, यह अवश्य है कि कहीं-कहीं द्रव्य शब्द के प्रतिपाद्य अर्थों में किसी को प्रधान और किसी की गौण मानना पड़ता है। क्योंकि ऐसा माने बिना विभिन्न नयों द्वारा विभिन्न अर्थों में आबद्ध ऐसे कई लोकव्यवहार हैं जिनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ जैसे-जब यह कहा जाता है कि 'द्रव्य के अनेक गुण-धर्म तो बदलते रहते हैं पर द्रव्य स्वयं स्थिर रहता है' तब स्पष्ट है कि इस कथन में द्रव्य शब्द के उत्पाद और व्यय-रूप अर्थ गौण रहते हैं और ध्रौव्यरूप अर्थ प्रधान रहता है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि 'द्रव्य प्रतिक्षरम कुछ न कुछ बदलता रहता है, अन्यथा किसी समय उसका जो सुस्पष्ट, परिवर्तन Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 165 लक्षित होता है वह नहीं हो सकता' तब इस कथन में द्रव्य शब्द का ध्रौव्य अर्थ गौण और उत्पाद एवं व्ययरूप अर्थ प्रधान रहता है। __ जैनदर्शन में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत-ऐसे सात नय माने गये हैं। इनमें प्रथम तीन को 'द्रव्याथिक नय अथवा सामान्य नय' और अन्तिम चार को 'पर्यायाथिक नय अथवा विशेष नय' कहा जाता है। समस्त ज्ञेयतत्त्व को शब्द और अर्थ दो श्रेणियों में विभक्त करने पर उक्त नयों में प्रथम चार को 'अर्थनय' तथा अन्तिम तीन को 'शब्दनय' कहा जाता है। इन नयों के अनुसार द्रव्यशब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। नैगम और व्यवहार बाहुल्येन उपचार अथवा आरोप पर निर्भर होते हैं। अतः उक्न दोनों नयों के अनुसार लक्षणादि के शब्द-द्रव्य से द्रव्य का बोध विभिन्न रूपों में होता है / अर्थात् कभी केवल उत्पाद, कभी केवल व्यय और कभी तीनों के आश्रयरूप से तथा कभी तीनों के तादात्म्यरूप से द्रव्य का बोध द्रव्य शब्द से निष्पन्न होता हैं। ऋजुसूत्र मुख्यतया वर्तमानग्राही होता है / वर्तमानता उत्पाद और द्रव्य की ही स्पष्ट है, ध्रौव्य तो उन के बीच अन्तर्हित-सा रहता है। अतः ऋजुसूत्र के अनुसार प्राधान्येन उत्पाद और व्ययरूप से ही द्रव्य का बोध होता है। शब्दनय के अनुसार द्रव्यशब्द से उत्पन्न होनेवाला बोध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को भी विषय बनाता है। समभिरूढ का विषय शब्द-नय की अपेक्षा संकुचित एवं सूक्ष्म होता है। अतः उसके अनुसार द्रव्य शब्द से उत्पन्न होनेवाला बोध उत्पाद आदि शब्दों को विषय न बनाकर केवल द्रव्यशब्द को विषय बनाता है। ऐसे नय के अनुसार द्रव्य शब्दार्थ का बोध द्रव्यशब्द के व्युत्पत्ति-गम्य रूप को भी विषय बनाता है / विशुद्ध संग्रह नय के अनुसार द्रव्य शब्द से अद्वैतदर्शनसम्मत एक अखण्ड सत्तामात्र का बोध होता हैं और विशुद्ध पर्याय नय के अनुसार बौद्धसम्मत सर्वशून्यता का बोध होता है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] - यहां इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जितने भी नय हैं वे सब वस्तु के किसी न किसी अंश को ही प्रदर्शित करते हैं। उसके अविकल रूप को प्रदर्शित करने की शक्ति उनमें नहीं होती। वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप का परिज्ञान तो 'स्याद्वाद' से ही हो सकता है। 'स्याद्वाद की इस महिमा को स्फूट करने के लिये ही जैनदर्शन में 'सप्तभंगी नय' की प्रतिष्ठा की गई है और 'अनेकान्त' को ही वस्तु का प्राण माना गया है / 68 // . द्रव्याश्रया विधिनिषेध-कृताश्च भङ्गाः, कृत्स्नैकदेशविधया प्रभवन्ति , सप्त। प्रात्मापि सप्तविध इत्यनुमानमुद्रा, त्वच्छासनेऽस्ति विशदव्यवहारहेतोः॥ 66 // सामान्यरूप से द्रव्यमात्र में तथा विशेषरूप से आत्मा में सप्तभंगी नय की उपपत्ति बताते हुए कहते हैं कि द्रव्यत्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप मानने पर यह प्रश्न उठता है कि द्रव्यत्व का स्वरूप ही जैनदर्शन में सत्ता का स्वरूप है / अतः वह जगत् के समस्त पदार्थों में विद्यमान है। उसके प्रभाव के लिये कहीं कोई स्थान नहीं है। फलतः द्रव्यत्व के विधि-निषेध के आधार पर 'स्याद् द्रव्यम्' आदि सप्तभंगी न्याय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसके अभाव में किसी भी द्रव्य का विशेषेण आत्मा का अविकल स्वरूप प्रकाश में नहीं आ सकता? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि-कृत्स्न-समुदाय और देश की अपेक्षा द्रव्यत्व और उसके अभाव की कल्पना करके एक ही वस्तु में उक्त सातों भंग उपपन्न किये जा सकते हैं क्योंकि वस्तु के सम्पूर्ण भाग में द्रव्यत्व और उसके एक भाग में द्रव्यत्व का अभाव मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है. कि द्रव्य एक Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 167 समुदायात्मक वस्तु है। उसमें-'१. उत्पन्न होने वाला 2. नष्ट होने वाला तथा 3. स्थिर रहने वाला' ऐसे तीन अंश होते हैं / फलतः समुदाय में द्रव्यत्व और उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाले भाग में उसके अभाव के रहने में कोई बाधा नहीं हो सकती। - उक्त रीति से घट, पट आदि पदार्थों में द्रव्यत्व और द्रव्यत्वाभाव के आधार पर सप्तविधत्व सिद्ध हो जाने पर उसी दृष्टान्त से आत्मा में भी सप्तविधत्व का अनुमान कर लिया जा सकता है क्योंकि उसके बिना अन्य पदार्थों की भाँति आत्मा का भी सप्तभंगी न्यायमूलक सुस्पष्ट व्यवहार नहीं हो सकता // 67 // शक्त्या विभुः स इहलोकमितप्रदेशो, व्यक्त्या तु कर्मकृतसौवशरीरमानः / यत्रब यो भवति दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवद् विशदमित्यनुमानमत्र // 70 // - जैनदर्शन में प्रात्मा न्यायदर्शन के अनुसार एकान्ततः विभु अथवा बौद्ध दर्शन के अनुसार एकान्ततः अविभु नहीं है अपितु कथञ्चिद् विभु भी है और कथञ्चिद् अविभु भी है। इस संसार में प्रात्मा लोकमित प्रदेश है अर्थात् लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेश प्रात्मा के भी हैं, अतः लोक के समस्त प्रदेशों के साथ प्रात्मप्रदेशों के सम्बन्ध के शक्य होने के कारण आत्मा शक्ति-सामर्थ्य की दृष्टि से विभु व्यापक है, किन्तु व्यक्तिगत स्वरूप की दृष्टि से अथवा अपनी अभिव्यक्ति की दृष्टि से वह अपने पूर्वाजित कर्म द्वारा प्राप्त अपने शरीरमात्र में ही सीमित होने से अविभु-अव्यापक है। - व्यक्तिरूप में आत्मा अपने शरीरमात्र में ही सीमित रहता है यह बात एक निर्दोष अनुमान द्वारा प्रमाणित होती है, वह अनुमान इस प्रकार है-प्रत्येक आत्मा अपने शरीर में ही सीमित होता है क्योंकि Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] सके गुणों का उद्भव उसके शरीर में ही होता है / जिस स्थानमात्र में ही. जिसके गुणों का उद्भव होता है वह उस स्थानमात्र में ही सीमित होता है जैसे घट, पट आदि पदार्थ / प्रश्न हो सकता है कि जब आत्मा के प्रदेश संख्या में लोकाकाश के प्रदेशों के समान हैं, तब उतने प्रदेशों का किसी एक लघुशरीर में सीमित होना कैसे सम्भव हो सकता है ? उत्तर यह है कि आत्मा के प्रदेश पाषाण के समान ठोस नहीं होते किन्तु उनमें आवश्यकतानुसार सिकुड़ने और फैलने की क्षमता होती है / जब किसी आत्मा को उसके पूर्वकर्मानुसार कोई लघुशरीर प्राप्त होता है तब वह आत्मा अपने समस्त प्रदेशों को समेट कर उस लघुशरीर में ही सीमित हो जाता है तथा जब वह किसी विशाल शरीर को प्राप्त करता है तब अपने प्रदेशों को विस्तृत कर उस विशाल शरीर में फैल जाता है और जब अपने कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है तब प्रदेशों की परिधि को लाँघ कर अलोकाकाश में उठ जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन की दृष्टि में आत्मा के एक संकोच-विकासशील पदार्थ होने से उक्त प्रश्न के लिये कोई अवकाश नहीं रहता // 70 // स्वाहाभुजो ज्वलनमूर्ध्वमपि स्वभावात्, सम्बन्धभेदकलितादथवाऽस्त्वदृष्टात् / दिग्देशत्ति-परमाणु-समागमोऽपि, तच्छक्तितो न खलु बाधकमत्र विद्मः // 71 // पूर्व पद्य में यह बताया गया है कि 'व्यक्तिरूप में आत्मा अपने शरीरमात्र में सीमित रहता है' इस पर यह शङ्का होती है कि जब आत्मा शरीर मात्र में ही सीमित रहेगा तब आत्मगत अदृष्ट का दूरदूर के भिन्न-भिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नियों के साथ एकसाथ सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें एक साथ जो ऊर्ध्वमुख ज्वाला Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 166 का उदय होता है वह कैसे होगा? शङ्का का आशय यह है कि 'जब आत्मा को शरीर मात्र में सीमित न मानकर विभु माना जाता है तब आत्मगत अदृष्ट का विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग अथवा स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध एक साथ हो सकता है। जैसे स्वहै अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा,. उससे संयुक्त है विभिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नि का समीपस्थ वायु और उसका संयोग है अग्नि के साथ / अथवा स्व है अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा, व्यापक होने से उसका संयोग है विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ / इस प्रकार आत्मा को विभु मानने पर उसके अदृष्ट का उक्त सम्बन्ध विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ हो सकने के कारण उक्त सम्बन्ध से अदृष्ट विभिन्न स्थानवर्ती अग्नियों में एक साथ ऊर्ध्वाभिमुख ज्वाला उत्पन्न कर सकेगा। पर जब आत्मा विभु न होकर शरीरमात्र में ही सीमित रहेगा तब शरीरस्थ आत्मा का दूरवर्ती भिन्न-भिन्न वायु अथवा भिन्न-भिन्न अग्नि के साथ युगपत् संयोग न हो सकने से उसके अदृष्ट का भी उक्त सम्बन्ध न हो सकेगा, अतः आत्मगत अदृष्ट द्वारा विभिन्न स्थानवर्ती विभिन्न अग्नियों में एक साथ ऊर्ध्वज्वलन का जन्म न हो सकेगा? इस शंका का उत्तर यह है कि-'अग्नि का जो ऊर्ध्वज्वलन होता है वह अदृष्टमूलक नहीं है किन्तु अग्निस्वभावमूलक है, क्योंकि यदि उसे अदृष्ट मुलक माना जाएगा तो अदृष्ट का जैसा सम्बन्ध अग्नि के साथ है वैसा ही सम्बन्ध जल, वायु आदि के भी साथ है फिर उस सम्बन्ध से जैसे अग्नि की ज्वाला में ऊर्ध्वगति होती है वैसे ही जल और वायु आदि. में भी ऊर्ध्वगति होने की आपत्ति होगी' इसलिये यही मानना उचित होगा कि अग्नि का ऊर्ध्व-ज्वलन, जल का निम्नवहन और वायु का तिर्यग्वहन उनके अपने-अपने विलक्षण स्वभाव के कारण ही होता है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200.] ____ यदि यह कहा जाए कि 'अदृष्ट कार्यमात्र का कारण होता है, बिना अदृष्ट के कोई कार्य नहीं होता, अतः ऊर्ध्वज्वलन आदि को उत्पन्न करनेवाले अदृष्ट को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर अदृष्ट से ही जब ऊर्ध्वज्वलन आदि का नियमन हो सकता है तब अग्नि आदि के स्वभावभेद को ऊर्ध्वज्वलन का नियामक मानना उचित नहीं है, इस लिए ऊर्ध्वज्वलन आदि के प्रति अदृष्ट की कारगता को उत्पन्न करने के लिए उसके आश्रयभूत आत्मा का शरीर से बाहर भी अस्तित्व मानना आवश्यक है ?' तो,इस कथन के उत्तर में जैनदर्शन का यह वक्तव्य होगा कि 'अदृष्ट कार्यमात्र का कारण है अतः उसी को ऊप्रज्वलन आदि का नियामक मानना उचित है, यह ठीक है, पर इसके लिए आत्मा को विभु मानना आवश्यक नहीं है क्यों कि इसकी उपपत्ति तो अग्नि आदि के साथ अदृष्ट का कोई साक्षात् सम्बन्ध मान लेने से भी हो सकती है / इस पर यदि यह शङ्का की जाए कि एक आत्मा के शुभाशुभ आचरणों से उत्पन्न होनेवाले अनन्त अदृष्टों का अनन्त द्रव्यों के साथ साक्षात् सम्बन्ध मानने की अपेक्षा उन समस्त अदृष्टों का उस एक आत्मा के साथ सम्बन्ध मानकर उसके द्वारा विभिन्न द्रव्यों के साथ उनका सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रात्मा को विभु मानना ही उचित है' तो उसका उत्तर यह है कि आत्मा को विभु मानना उचित नहीं है क्योंकि यदि उसे विभु माना जाएगा तो शरीर के बाहर भी उसकी सत्ता माननी होगी और उस दशा में शरीर के समान शरीर के बाहर भी आत्मा के ज्ञान आदि गुणों के प्राकट्य की आपत्ति होगी ? अतः आत्मा को शरीरमात्र में सीमित मानकर कार्यमात्र के प्रति अदृष्ट की कारणता को उपपन्न करने के लिए समस्त कार्यदेशों के साथ अदृष्ट के साक्षात् सम्बन्ध की कल्पना ही उचित है।' इस सन्दर्भ में दूसरी शंका यह होती है कि 'यदि आत्मा विभु Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 201 न होगा तो विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित परमाणुओं के साथ आत्मा के अदष्ट का सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें अदृष्टमूलक गति न हो सकेगी, और गति के अभाव में परमाणुओं का परस्पर मिलन तथा उससे शरीर आदि का निर्माण कुछ भी न हो सकने के कारण इस प्रत्यक्ष जगत् की भी उपपत्ति न हो सकेगी?' इस शंका का उत्तर यह है कि 'उपर्युक्त दोष की आपत्ति तब होती जब आत्मा को एकान्ततः अव्यापक ही माना जाता, पर जैनदर्शन में जैसे आत्मा की एकान्ततः व्यापकता नहीं है उसी प्रकार उसकी एकान्ततः अव्यापकता भी नहीं है। यह बात पूर्व पद्य में स्पष्ट कर दी गई है कि आत्मा व्यक्तिरूप में विभु अव्यापक-अपने विद्यमान शरीरमात्र में ही सीमित होने पर भी शक्तिरूप में विभु है, समस्त लोकाकाशप्रसरी है / अतः आत्मा अपनी अदृष्टशक्ति से विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित विभिन्न परमाणुओं को गतिशील बना उनके परस्पर मिलन को सम्पन्न कर जगत् के विस्तार को शक्य और सम्भव कर सकता है। उपर्युक्त रीति से प्रसक्त-अनुप्रसक्त समस्त विषयों पर विचार करने पर यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि 'शक्ति की दष्टि से प्रात्मा को विभु और व्यक्ति की दृष्टि से उसे अविभु अर्थात् शरीरमात्र में सीमित मानने में कोई बाधा नहीं देखते हैं // 71 // मूर्तत्व-सावयवता-निजकार्यभावच्छेदप्ररोह-पृथगात्मकता-प्रसङ्गाः। सर्पा इवातिविकरालदृशोऽपि हि त्वत्, स्याद्वादगारुडसुमन्त्रभृतां न भीत्यै // 72 // आत्मा को अविभु मानने पर कुछ और भी आपत्तियाँ उठती हैं, जो इस प्रकार हैं Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ] 'आत्मा यदि अविभु होगा तो मूर्त होगा। और मूर्त होने पर दो मूर्त द्रव्यों का एक स्थान में समावेश शक्य न होने के कारण शरीर में उसका अनुप्रवेश न हो सकेगा। और यदि मूर्त शरीर में मूर्त मन और बालुकापुंज में मूर्त जलकणों के समान मूर्त शरीर में मूर्त आत्मा के समावेश की उपपत्ति की जाएगी तो शरीर के समस्त भाग में शैत्य, उष्णता आदि की सह अनुभूति की उपपत्ति के लिए शरीर के समस्त अवयवों में आत्मा का सह अनुप्रवेश मानना होगा, और उसके साम जस्य के लिए उसको शरीरसमप्रमाण मानना होगा और शरीरसम होने पर शरीर के समान उसे जन्य तथा शरीर का खण्ड एवं प्ररोह होने पर उसका भी खण्ड और प्ररोह मानना होगा?' इन आपत्तियों के अतिरिक्त दूसरी आपत्ति यह होगी कि 'जब कभी कोई एक शरीर कट कर अनेक खण्डों में विभक्त होगा तो उन जीवित खण्डों में उस शरीर के आत्मा का अनुप्रवेश होने पर एक,ही आत्मा के अनेक भेद हो जाएंगे।' इस सन्दर्भ में स्तोत्रकार का कथन है कि 'ऊपर बताये गये समस्त दोष देखने में यद्यपि सर्प के समान बड़े भयानक लगते हैं तथापि भगवान् महावीर के शासन में रहनेवाले लोगों को उन दोषरूपी सों से कोई भय नहीं है क्योंकि वे स्याद्वाद के गारुडीय मन्त्र से सुरक्षित हैं। जैसे गारुडमन्त्र को जाननेवाले मनुष्यों को बड़े-बड़े विषैले सर्प कोई हानि नहीं पहुँचा पाते उसी प्रकार स्याद्वाद की रीति से समस्त विरोधों का समन्वय करने में कुशल जैन मनीषियों को उक्त आपत्तियाँ कोई हानि नहीं पहुँचा सकतीं, क्योंकि जैनमत में आत्मा में मूर्तत्व, सावयवत्व कार्यत्व, खण्ड, प्ररोह और भिन्नात्मता अपेक्षाभेद से कथञ्चित् स्वीकार्य है' // 72 // स्युर्वैभवे जनननमृत्युशतानि जन्मन्येकत्र पाटितशतावयवप्रसङ्गात् / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.203 चित्तान्तरोपगमतां बाहुकार्यहेतु भावोपलोपजनितं च भयं परेषाम् // 73 // आत्मा को अव्यापक मानने पर जो दोष शङ्कास्पद थे उनका निराकरण कर आत्मा को व्यापक मानने पर प्रसक्त होने वाले अप्रतीकार्य दोषों का प्रदर्शन इस श्लोक में करते हुए कहा है कि ऐसे दोषों में प्रधान दोष यह है कि यदि आत्मा व्यापक होगा तो एक ही जन्म में उसके सैंकड़ों जन्म और मरण मानने होंगे? जैसे जब किसी छिपकली का शरीर कट जाने पर उसके कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों में कुछ देर तक कँपकँपी होती है, यह कँपकँपी दुःखानुभव होने के कारण ही होती है, दुःखानुभव उन विभिन्न खण्डों में तभी हो सकता है जब उनमें भिन्न-भिन्न मन का अनुप्रवेश माना जाय, और आत्मा के व्यापकत्व-मत में भोगायतन में मन का प्रवेश ही आत्मा का जन्म और उसमें से मन का निष्क्रमण ही मरण कहलाता है। इसलिये किसी छिपकली का शरीर कटने पर उसके जितने खण्ड होंगे उन खण्डों में उतने मन का प्रवेश होने पर उस छिपकली के उतने ही जन्म और उन खण्डों से मन का निष्क्रमण होने पर उतने ही उसके मरण मानने होंगे। उक्त रीति से एक जन्म में एक जीव से कई जन्म और कई मरण तथा कई भोगायतनों में उस जन्म के कई भोग मानने का परिणाम यह होगा कि आत्मा के व्यापकत्व मत में माने गये कई कार्यकारणभावों के लोप का भय उपस्थित हो जाएगा? जैसे किसी भी सामान्य जीव को एक जन्म में किसी एक ही शरीर में किसी एक ही मन से . उस जन्म के सभी भोग सम्पन्न होते हैं, यह वस्तुस्थिति है / इस वस्तुस्थिति को व्यवस्थित रखने के लिये इस प्रकार के कार्यकरणभाव माने जाते हैं कि अमुक जीव के अमुक जन्म में होनेवाले सम्पूर्ण भोग के प्रति अमुक शरीर, अमुक मन और अमुक शरीर के साथ अमुक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] मन का संयोग आदि कारण हैं, पर जब एक छिपकली के विभिन्न शरीर खण्डों में विभिन्न मनों से उसी जन्म के विभिन्न भोग उस छिपकली को होंगे तब उक्त कार्यकारण-भावों में व्यभिचार होने से उनके लोप का जो भय उपस्थित होगा, आत्मा के विभुत्व पक्ष में उस का कोई परिहार न हो सकेगा? . किन्तु जैनमत में इस प्रकार की आपत्तियों का कोई भय नहीं है क्योंकि इस मत में छिपकली के शरीर खण्डों में उसके मूल शरीर का एवं उन शरीर खण्डों में स्थित मन में उसके मूल शरीर में स्थित मन का एकान्तभेद नहीं होता / / 73 / / प्रत्यंशमेव बहुभोगसमर्थने तु, स्यात् सङ्करः पृथगदृष्टगवृत्तिलाभे। '. मानं तु मृग्यमियत व हतश्च काय व्यूहोपयोगिषु तवागमिकः परेषाम् // 74 // पूर्वोक्त दोषों के परिहार के लिए यदि यह कहा जाए कि 'जब छिपकली का शरीर कटने पर उसके कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों को स्वतन्त्र भोगायतन नहीं माना जाता, किन्तु उस दशा में भी छिपकली के भोग का आयतन उसका मूलशरीर ही होता है, शरीर के खण्ड तो मूलभूत भोगायतन के अंश-अवच्छेदक मात्र होते हैं, अतः उस समय भिन्न-भिन्न अवयवरूप अवच्छेदकों के सम्बन्ध से एक ही भोगायतन में छिपकली को अनेक भोग सम्पन्न होते हैं। इसलिये भोगायतन का भेद न होने से एक ही जन्म में जन्म एवं मरण के अनेकत्वादि दोषों की आपत्ति नहीं हो सकती ?' तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अवच्छेदक से यदि अनेक भोगों का एककालिक सामानाधिकरण्य माना जाएगा तो एक ही समय में अत्यन्त विसदृश Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 205 कर्मपुञ्जों की फलोन्मुखवृत्ति का उदय होने पर विभिन्न-जातीय भोगायतनों द्वारा भी एक जीव में विभिन्न भोगों के साङ्कर्य की आपत्ति होगी?' इस आपत्ति के प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि 'एकजातीय भोगायतन अन्यजातीय भोगायतन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक है, अतः मनुष्य शरीर के रहते पशु आदि के शरीर की प्राप्ति के अशक्य होने से उक्त आपत्ति नहीं होगी, तो यह कहना ठीक न होगा क्योंकि उस प्रकार के प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव में कोई प्रमाण नहीं है। उक्त आपत्ति के अप्रतीकार्य होने के कारण ही भगवान् महावीर के आगमज्ञ मनीषियों द्वारा योगियों के कायव्यूह-परिग्रह को भी मान्यता नहीं दी जा सकती, क्योंकि योगी यदि एक ही समय में विभिन्न कर्मों के फलभोग के लिये विभिन्न शरीरों को धारण करेगा, तो एक ही समय में मनुष्य, देवता, असुर, कुत्ता, बिल्ली, शूकर आदि विभिन्न शरीरों में योगी की स्थिति माननी पड़ेगी जो कि योगी जैसे सुकृतशील आत्मा के लिये नितान्त अनुचित है / / 74 // नात्मा क्रियामुपगतो यदि काययोगः, प्रागेव को न खलु हेतुरदृष्टमेव / प्राये क्षणेऽन्यदहतिः किल कामरणेन, - मिश्रात् तनोतु तनुसर्ममिति त्वमोघम् // 75 // - आत्मा के व्यापकत्व मत में सर्वातिशायी दोष यह है कि जब आत्मा विभु होगा तो स्वभावतः निष्क्रिय होगा, अतः शरीरप्राप्ति के पूर्व प्रयत्नहीन होने के कारण वह अदृष्टवश समीप में आये हुए भी भौतिक अणुओं को आहार के रूप में ग्रहण न कर सकेगा और आहार ग्रहण न करने पर शरीर का निर्माण न होगा, फलतः संसार में आत्मा का प्रवेश असम्भव हो जाने से इस प्रत्यक्षसिद्ध जगत् की उपपत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाए कि शरीर प्राप्ति के पूर्व Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ] आत्मा प्रयत्न से नहीं अपितु अपने पूर्वाजित अदृष्ट से ही आहार आदि ग्रहण कर अपने शरीर का निष्पादन करता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि शरीरप्राप्ति के पूर्व बिना प्रयत्न के केवल अष्ट से ही अपना कार्य करेगा तो शरीर प्राप्ति के पश्चात्. भी वह अदृष्ट से ही अपना सब कार्य कर लेगा। अतः प्रयत्न का सर्वथा लोप ही हो जाएगा / इसलिये भगवान् महावीर का यह कथन ही सत्य है कि प्रात्मा केवल शक्तिरूप में ही व्यापक है किन्तु व्यक्तिरूप में वह शरीर समप्रमाण है तथा शरीर और आत्मा का. अन्योन्यानुप्रवेश होने के कारण वह सदैव सक्रिय है। प्रारम्भ में वह अपने कामशरीर की क्रिया से आहार ग्रहण करता है और उसके बाद स्थूल शरीर की निष्पत्ति न होने तक औदारिक तथा कार्मण दोनों शरीरों की सम्मिलित चेष्टा से आहार ग्रहण करता है // 75 // वीर्यं त्वया सकरणं गदितं किलात्म-. न्यालम्बनग्रहणसत्परिणामशालि / तेनास्य सक्रियतया निखिलोपपत्ति स्त्वद्वेषिणामवितथौ न तु बन्धमोक्षौ // 76 // हे भगवन् ! आपने बताया है कि 'अात्मा में एक विचित्र सामर्थ्य होता है, वह सामर्थ्य अनन्त सहकारी पर्यायों से सम्पन्न होता है, उन सहकारियों के सहयोग से उसमें विभिन्न भौतिक अणुओं के आलम्बन, आहाररूप में उनके ग्रहण और व्यक्तरूप में उनका परिणमन करने की अद्भुत क्षमता होती है। उस सामर्थ्य-वीर्य के सम्बन्ध से आत्मा सदैव सक्रिय होता है, अतः स्थूल शरीर की प्राप्ति के पूर्व से लेकर उसकी निष्पत्ति और अवस्थिति-पर्यन्त के सारे कार्य वह निर्बाधरूप से कर सकता है।' हे भगवन् ! आपके इस उपदेश को शिरोधार्य करने वाले मनीषियों के मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष की यथार्थ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 207 उपपत्ति हो जाती है, पर जो नैयायिक आपसे द्वेष करते हैं वे आपके वचन को श्रद्धापूर्वक ग्रहण नहीं करते। उनके मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष का यथार्थ प्रतिपादन नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मत में आत्मा विभु होने से निष्क्रिय है अतः वह नूतन कर्मों के ग्रहणरूप बन्धन और संसारी क्षेत्र से निकल कर सिद्धिक्षेत्र में प्रवेशरूप मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता / / 76 / / . एकान्तनित्य समये च तथेतरत्र, स्वेच्छावशेन बहवो निपतन्ति दोषाः / तस्माद् यथेश ! भजनोज्जितचित्पवित्र मात्मानमात्थ न तथा वितथावकाशः // 77 / / आत्मा नितान्त नित्य है अथवा आत्मा सर्वथा अनित्य है, इन दोनों मतों में बहुत से दोष अनायास ही प्रसक्त होते हैं। जैसे जब आत्मा नित्य होगा तो उसकी हिंसा न हो सकेगी, और जब हिंसा न होगी तो हिंसक समझे जानेवाले मनुष्य को पाप न लगेगा। और मनुष्य जब यह समझ लेगा कि किसी का सिर काट देने पर अथवा किसी को गोली से उड़ा देने पर भी उसे कोई पाप न होगा तो उसे इन दुष्कृत्यों को करने में कोई हिचक न होगी, फलतः संसार में घोर नर-संहार के प्रवृत्त होने से समाज का सारा स्वरूप ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यदि यह कहा जाय कि हिंसा का अर्थ स्वरूपवश नहीं है जिससे प्रात्मा को नित्य मानने पर उसको अनुपपत्ति हो; किन्तु हिंसा का अर्थ यह है कि शरीर, प्राण और मन के साथ आत्मा के जिस विशिष्ट सम्बन्ध के होने से आत्मा में जीवित रहने का व्यवहार होता है उस सम्बन्ध का नाश / अतः आत्मा के नित्य होने पर भी उस सम्बन्ध के नित्य न होने से हिंसा की अनुपपत्ति न होगी, तो यह ठीक नहीं है, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] क्योंकि उक्त सम्बन्ध के अप्रत्यक्ष होने से उसका नाश भी अप्रत्यक्ष होगा, अतः उक्त नाश अमुक के होने पर होता है और अमुक के न होने पर नहीं होता है इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक का ज्ञान न हो सकने से उसके प्रति किसी कारण का निश्चय न हो सकेगा ? फलतः जानबूझ कर हिंसा में प्रवृत्ति अथवा हिंसा से निवृत्ति न होगी और उसके अभाव में अपराध-निर्णय तथा दण्ड आदि की व्यवस्था का कार्य न हो सकेगा। इसी प्रकार आत्मा यदि एकान्तरूप से अनित्य होगा, तो प्रतिक्षण में उसका नाश स्वतः होते रहने से किसी को उसकी हिंसा का दोष न होगा। यदि यह कहा जाए कि आत्मा के क्षणिकत्व मत में केवल एक क्षण तक ही ठहरनेवाला कोई एक व्यक्ति ही जीव नहीं है अपितु क्रम से अस्तित्व प्राप्त करनेवाले ऐसे अनगिनत क्षणिक व्यक्तियों का जो सन्तान-समूह होता है, वह एक जीव होता है उस सन्तान के भीतर का एक-एक व्यक्ति तो क्षणिक अवश्य होता है पर वह सन्तान क्षणिक नहीं होता है। अतः उस सन्तान का प्रतिक्षरण स्वतः नाश न होने के कारण उस सन्तान का नाश करने वाले को हिंसा का दोष लग सकेगा तो, यह ठीक नहीं है, क्योंकि कृतहान-पूर्वजन्म में किये गये कर्म की निष्फलता और अकृताभ्यागम-नये जन्म में कर्म किये बिना ही फल की प्राप्ति रूप दोषों से बचने के लिये एक जन्म के एक जीव-सन्तान का मृत्यु से नाश और नये जन्म में नितान्त नूतन जीवसन्तान का उदय नहीं माना जा सकता, फलतः मृत्यु से एक सन्तानका नाश और जन्म से नूतन सन्तान का उदय मान्य न होने से सन्तान नाश को हिंसा नहीं कहा जा सकता, यदि यह जाय कि एक शरीरसन्तान के साथ एक जीव-सन्तान के सम्बन्ध का नाश हिंसा है तो आत्मा के एकान्तनित्यत्व पक्ष में शरीर के साथ आत्मा के विशिष्ट सम्बन्ध के नाश को हिंसा मानने में जो दोष बताया गया है उससे इस Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 206 मत में भी मुक्ति नहीं मिल सकती। .. पद्य के उत्तरार्ध में स्तोत्रकार का कथन है कि उपर्युक्त रीति से आत्मा की एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यतारूप मतों के दोषग्रस्त होने से भगवान् महावीर ने आत्मा के विषय में जो अपना यह मत बताया है कि "भजना-स्याद्वाद के कवच से सुरक्षित, नित्यानित्यात्मक निर्मल चित्स्वरूप ही आत्मा का स्वरूप है, वही श्रेष्ठ मत है", उसमें किसी प्रकार के दोष का अवकाश नहीं है / 77 // एताहगात्ममननं विनिहन्ति मिथ्याज्ञानं सवासनमतो न तदुत्थबन्धः / कर्मान्तरक्षयकरं तु परं चरित्रं, निर्बन्धमात्थ जिन ! साधु निरुद्धयोगम् // 78 // *उक्त पद्य में यह बताया है कि 'मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान अथवा केवल क्रिया से नहीं होती अपितु दोनों के समुच्चय से होती है, क्योंकि प्रात्मा को बन्धन में. डालने वाली दो वस्तुएँ हैं-१. वासनासहित मिथ्याज्ञान और 2. अनेक जन्मों में सञ्चित कर्मपुञ्ज / ' उनमें पहले का नाश तो स्याद्वादसिद्ध आत्म-स्वरूप के अवबोध से सम्पन्न हो जाता है, पर दूसरे कारणसञ्चित कर्मपुञ्ज के अवशेष रहने से तन्मूलक बन्धन से आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाती। अतः उस दूसरे कारण का नाश करने के लिये सच्चरित्र का परिपालन आवश्यक होता है। सच्चरित्र का सम्यक् परिपालन जब पूर्णता को प्राप्त करता है तब सञ्चित समस्त कर्मपुञ्ज का क्षय हो जाने से बन्धन का वह द्वार भी बन्द हो जाता है। इस प्रकार बन्धन के दोनों द्वार बन्द हो जाने पर आत्मा को पूर्ण मुक्ति का लाभ प्राप्त होता है, अतः भगवान् महावीर ने उचित ही कहा है कि 'जब सभी योगों-बन्धकारणों का निरोध Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] हो जाता है, तभी निर्बन्ध-बन्धनों से नितान्त मुक्ति की सिद्धि होती है' // 78 // ज्ञानं न केवलमशेषमुदीर्य भोगं, कर्मक्षयक्षममबोद्धदशाप्रसङ्गात् / वैजात्यमेव किल नाशकनाश्यतादौ, तन्त्रं नयान्तरवशादनुपक्षयश्च // 7 // जैसे सच्चरित्रपालन के बिना अकेले क्षायोपशमिक ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार चरित्र के अभाव में अकेले केवलज्ञान से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि संचित कर्मकोशों का नाश उससे भी नहीं हो पाता। यदि यह कहा जाए कि जब साधक को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है तब वासनासहित मिथ्याज्ञान का नाश होने के साथ ही उसे समस्त संचित कर्मों के सहभोग की भी क्षमता प्राप्त हो जाती है। अतः केवलज्ञान से सम्पन्न साधक भोगद्वारा सम्पूर्ण संचित कर्मों का अवसान कर पूर्णरूपेण मुक्ति प्राप्त कर सकता है / इसलिये मोक्षसिद्धि के लिये केवलज्ञानी को सच्चरित्र का पालन अनावश्यक है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि संचित कर्मकोशों में ऐसे भी कर्म होते हैं जो अज्ञानबहुल जन्मद्वारा भोग्य होते हैं, फिर उन कर्मों का भोग करने के लिये केवलज्ञानी को उस प्रकार का भी जन्म ग्रहण करना होगा और जब केवलज्ञानी को उस प्रकार के जन्म की प्राप्ति मानी जाएगी तो उसमें अज्ञान का बाहुल्य भी मानना होगा, जो उस श्रेणी के विशिष्ट ज्ञानी के लिये कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता। यदि यह कहा जाए कि अज्ञान बहुल जन्म से भोग्य कर्मों का नाश हो जाने के बाद ही केवलज्ञान का उदय होता है, क्योंकि केवलज्ञान का उदय होने के पूर्व सच्चरित्र के आराधन से ही उन कर्मों का नाश मानना होगा, तब यदि उन कर्मों Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 211 का नाश सच्चरित्र से हो सकता है तो उसी प्रकार अन्य सञ्चित कर्मों का भी नाश होने में कोई बाधा न होने से उनके नाशार्थ केवलज्ञानी में उन असंख्य कर्मों का भोग मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः यही बात उचित प्रतीत होती है कि सउिचत कर्मों के नाशार्थ केवलज्ञानी के लिये भी सच्चरित्र का पालन आवश्यक है। ___इस पर यदि यह शंका उठाई जाय कि 'अदृष्टात्मक पूर्व कर्मों का नाश यदि कभी तत्त्वज्ञान से, कभी सच्चरित्रपालन से और कभी भोग से माना जाएगा तो व्यभिचार होगा, अतः पूर्वकर्मनाश के प्रति एकमात्र भोग को ही कारण मानना चाहिये' तो यह उचित नहीं है, क्योंकि नाश्य और नाशक में वैजत्य की कल्पना कर विजातीय अदृष्ट के नाश के प्रति विजातीय सच्चरित्र, विजातीय अदृष्ट के नाश के प्रति विजातीय तत्त्वज्ञान और विजातीय अदृष्टनाश के प्रति विजातीय भोग को कारण मानने से व्यभिचार की प्रसक्ति का परिहार सुकर हो जाता है। . यदि यह प्रश्न उठाया जाय कि 'सच्चरित्र से पूर्वकर्मों का नाश तब तक नहीं होगा जब तक उससे तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति न हो जाय, अतः तत्त्वज्ञान ही कर्मनाश का कारण है सच्चरित्र तो तत्त्वज्ञान को पैदा करने से उपक्षीण होकर कर्मनाश के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कर्मनाश को उत्पन्न करने में तत्त्वज्ञान सच्चरित्र का व्यापार है और व्यापार से व्यापारी कभी अन्यथासिद्ध नहीं होता यह सर्वसम्मत नय है / अतः व्यापारभूत तत्त्वज्ञान व्यापारी सच्चरित्र को. कर्मनाश के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं बना सकता। इस प्रकार उपर्युक्त युक्तियों से यही सिद्ध होता है कि तत्त्वज्ञान और सच्चरित्र दोनों मोक्ष के परस्परसापेक्ष कारण हैं / / 7 / / ज्ञानं क्रियेव विरुणद्धि ससंवरांशं, कर्म क्षिणोति च तपोंऽशमनुप्रविश्य / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 ] भोग: प्रदेशविषयो नियतो विपाके, भाज्यत्वमित्यनघ! ते वचनं प्रमाणम् // 20 // क्रिया सच्चरित्र में विरति और संवर का तथा ज्ञान में सम्यक्त्त्व और संवर का समावेश होता है। अतः क्रिया और ज्ञान दोनों क्रम से अपने अंश विरति और सम्यक्त्व के प्रभाव से नूतन कर्मों की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध करते हैं और अपने संवर-तपोरूप अंश के प्रभाव से सञ्चित कर्म का नाश करते हैं। इस प्रकार क्रिया और ज्ञान से अनागत कर्मों का निरोध और सञ्चित कर्मों का नाश हो जाने से मोक्ष की प्राप्ति सुकर हो जाती है। ___ यदि यह शङ्का उठाई जाय कि 'कर्मनाश के प्रति भोग एक अनुपेक्षणीय कारण है अतः उसके बिना सञ्चित कर्मों का नाश नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कर्मनाश में प्रदेशानुभवस्वरूप भोग के आनन्तयं का ही नियम है, विपाकानुभवस्वरूप भोग के आनन्तर्य का नहीं। उसका तो कर्मनाश के प्रति भाज्यत्वविकल्प ही अभिमत है। कहने का अभिप्राय यह है कि भोग के दो भेद होते हैं प्रदेशानुभव और विपाकानुभव / इनमें पहले का अर्थ है सञ्चित कर्मराशि के एक भाग प्रारब्ध कर्मसमूह का फलभोग जो वर्तमान जन्म में ही सम्पन्न हो जाता है, दूसरे का अर्थ है प्रारब्धभिन्न सञ्चित कर्मों का फल भोग, जिसके लिये जन्मान्तर-ग्रहण की आवश्यकता होती है। इन दोनों में पहला भोग तो कर्मकोश के अविकल नाश का नियतपूर्ववर्ती होता है पर दूसरा भोग उसका वैकल्पिक पूर्ववर्ती होता है / जैसे मोक्षार्थी जब सम्यग्ज्ञान के अतिशय से समृद्ध न होकर केवल सम्यक्चारित्र्य के ही अतिशय से समृद्ध होता है तब उसे प्रारब्ध से भिन्न सञ्चित कर्मों के लिये जन्मान्तर ग्रहण कर उन कर्मों का भोग करना पड़ता है किन्तु जब वह सम्यग्ज्ञान के अतिशय से भी समृद्ध हो जाता है तब उसी से शेष सञ्चित कर्मों का नाश हो जाने के कारण जन्मा Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 213 न्तरसाध्य भोग की अपेक्षा उसे नहीं होती, अतः विपाकानुभवस्वरूप भोग कृत्स्नकर्म के क्षय का पूर्ववर्ती कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है। __निष्कर्ष यह है कि जब मोक्षार्थी साधक को सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र्य के अतिशय की प्राप्ति हो जाती है तब जन्मान्तरसाध्य विपाकानुभव के बिना ही उन्हीं दोनों के समस्त सञ्चित कर्मों का नाश कर वह पूर्ण मुक्ति को हस्तगत कर लेता है // 80 // ज्ञानं प्रधानमिह न क्रियया फलाप्तिः, शुक्तावुदीक्ष्यत इयं रजतभ्रमाद् यत् / प्राकर्षणादि कुरुते किल मन्त्रबोधो, हीरणेव दर्शयति तत्र न च क्रियास्यम् // 1 // 'नय दष्टि से 'क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता है' यह स्पष्ट करते हुए स्तोत्रकार का कथन है कि___ ज्ञान क्रिया की, अपेक्षा प्रधान होता है अर्थात् फलप्राप्ति का कारण ज्ञान होता है क्रिया नहीं होती, क्योंकि क्रिया होने पर भी फल की प्राप्ति नहीं देखी जाती, जैसे सीपी में चाँदी का भ्रम होने पर चांदी को प्राप्त करने की क्रिया होती है पर उस क्रिया से चाँदी की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार जहाँ क्रिया लज्जित-सी अपना मुख छिपाये रहती है अर्थात् जहाँ क्रिया उपस्थित नहीं रहती, वहाँ भी मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि फलों की सिद्धि होती है। अतः क्रिया में फलप्राप्ति का अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार होने से क्रिया को फलप्राप्ति का कारण नहीं माना जा सकता // 81 // पश्यन्ति किं न कृतिनो भरतप्रसन्नचन्द्रादिषुभयविधं व्यभिचारदोषम् / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ] द्वारीभवन्त्यपि च सा न कथञ्चिदुच्चनिं प्रधानमिति सङ्गरभङ्गहेतुः // 82 // : मोक्षरूप फल के प्रति क्रिया का व्यभिचार बनाकर उसकी अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता प्रदर्शित करते हुए श्री उपाध्याय जी का कहना है कि क्या विद्वानों को यह ज्ञात नहीं है कि भरत, प्रसन्नचन्द्र आदि पुरुषों में मोक्षप्राप्ति के प्रति क्रिया में अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार हैं ? अर्थात् क्रियावान् होने पर भी प्रसन्नचन्द्र को मुक्ति का लाभ नहीं हुआ और क्रियाहीन होने पर भी भरत को मुक्ति प्राप्त हो गई। ____ यदि यह कहा जाए कि ज्ञान भी तो सीधा फल-सिद्धि का साधक न होकर क्रिया के द्वारा ही उसका सम्पादक होता है, तो फिर ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे हो सकता है ? तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रिया यद्यपि कथञ्चित् ज्ञान का द्वार है तथापि वह 'ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है' इस उच्च प्रतिज्ञा का व्याघात नहीं कर सकती। कहने का प्राशय यह है कि फलसिद्धि में ज्ञान के क्रियासापेक्ष होने से उसकी निरपेक्षता की हानि हो सकती है पर उसकी प्रधानता की हानि नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधानता की हानि तब होती है जब उसके बिना केवल क्रिया से ही फल की प्राप्ति होती, पर यह बात तो है नहीं, हाँ, क्रियासापेक्ष होने से उसे फलसिद्धि का निरपेक्ष कारण नहीं माना जा सकता, पर इससे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि निरपेक्ष-कारणता का समर्थन करना अभीष्ट नहीं है // 82 / / सम्यक्त्वमप्यनवगाढमृते किलेतदभ्यासतस्तु समयस्य सुधावगाढम् / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 215 ज्ञानं हि शोधकममुष्य यथाजनं स्या दक्ष्णोर्यथा च पयसः कतकस्य चूर्णम् // 83 // ज्ञान के बिना सम्यक्त्व श्रद्धा की परिपुष्टि नहीं होती। अज्ञानी की श्रद्धा बड़ी दुर्बल होती है जो विपरीत तर्क से अनायास ही झकझोर उठती है, किन्तु सिद्धान्त के अभ्यास से अभ्यस्त सिद्धान्तज्ञान से इसकी पूर्ण पूष्टि हो जाती है, क्योंकि ज्ञान से सम्यक्त्त्व का शोधन ठीक उसी प्रकार सम्पन्न होता है जिस प्रकार अञ्जन से नेत्र का और कतक के चूर्ण से जल का शोधन होता है, अतः सम्यक्त्व का शोधक होने से ज्ञान उसकी अपेक्षा प्रधान है // 83 // प्रासक्तिवांश्च चरणे करणेऽपि नित्यं, न स्वात्मशासनविभक्ति-विशारदो यः। तत्सारशून्यहृदयः स बुधैरभारिण, ज्ञानं तदेकमभिनन्द्यमतः किमन्यः // 84 // जो मनुष्य चरण-नित्यकर्म और करण-नैमित्तिक कर्म में निरन्तर आसक्त रहता है किन्तु स्वशासन-जैन शासन और अन्य जैनेतर शासन के. पार्थक्य को पूर्णतया नहीं जानता, विद्वानों के कथनानुसार उनके हृदय में करण और चरण के ज्ञानदर्शनात्मक फल का उदय नहीं होता। इसलिए एकमात्र ज्ञान ही अभिनन्दनीय है, और अन्य समस्त साधन ज्ञान के समक्ष नगण्य हैं // 84 // न श्रेरिणकः किल बभूव बहुश्रुद्धिः , प्रज्ञप्तिभाग न न च वाचकनामधेयः / सम्यक्त्वतः स तु भविष्यति तीर्थनाथः, सम्यक्त्वमेव तदिहावगमात प्रधानम् // 85 // . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] श्रेणिक (मगध का एक राजा) बहुश्रुत नहीं था, उसे प्रज्ञप्ति भी नहीं प्राप्त थी, वह वाचक की उपाधि से भूषित भी नहीं था। इस प्रकार ज्ञानी होने का कोई चिह्न उसके पास नहीं था, किन्तु उसके पास सम्यक्त्वश्रद्धा का बल था, जिसके कारण वह भविष्य में आगामी उत्सर्पिणी काल में तीर्थङ्कर होने वाला है, तो फिर ज्ञान न होने पर भी केवल सम्यक्त्व के बल से जब तीर्थङ्कर के पवित्रतम सर्वोच्च पद पर पहुंचा जा सकता है तो स्पष्ट है कि सम्यक्त्व ज्ञान की अपेक्षा अतिश्रेष्ठ है // 85 // भ्रष्टेन संयमपदादवलम्बनीयं, सम्यक्त्वमेव दृढमत्र कृतप्रसङ्गाः / चारित्रलिङ्गवियुजोऽपि शिवं व्रजन्ति, तजितास्तु न कदाचिदिति प्रसिद्धः / / 86 // - संयम के पद से चारित्र के मार्ग से च्युत होने पर मनुष्य को दृढ़ता के साथ सम्यक्त्व का ही अवलम्बन करना चाहिये / सम्यक्त्व को छोड़ किसी अन्य साधन के पीछे नहीं दौड़ना चाहिये, क्योंकि यह बात प्रसिद्ध है कि चारित्र का चिह्न भी न रखनेवाले मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं पर सम्यक्त्व-श्रद्धा रहित मनुष्य कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते // 86 // ज्ञानी सुदृष्टिरपि कोऽपि तपो व्यपोह्य, दुष्कर्ममर्मदलने न कदापि शक्तः। एतन्निकाचितमपि प्रणिहन्ति कर्म- / त्यहितं भवति निर्वृतिसाधनेषु // 7 // ज्ञान और सम्यग्दर्शन श्रद्धा से सम्पन्न होने पर भी तप-सत्कर्म Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 217 की उपेक्षा करके कोई भी मनुष्य दुष्कर्मों का विनाश करने में कदापि समर्थ नहीं होता, और तप निकाचित-अन्य समस्त साधनों से क्षय किये जाने योग्य कर्म को भी नष्ट कर देता है, अतः मोक्ष के सम्पूर्ण साधनों में तप ही अभ्यर्हित है / / 87 // सम्यक क्रिया व्यभिचरेन्न फलं विशेषो, हेत्वागतो न परतोऽविनिगम्य भावात् / न द्रव्यभावविधया वहिरन्तरङ्ग भावाच्च कोऽपि भजनामनुपोहय भेदः / / 88 // फलप्राप्ति का कारण सामान्य क्रिया नहीं है किन्तु सम्यक्रिया है क्योंकि सम्यक्रिया होने पर फलप्राप्ति अवश्य होती है, उसमें फलप्राप्ति का व्यभिचार नहीं होता। सीपी में चाँदी के ज्ञान से होनेवाली चाँदी प्राप्त करने की क्रिया सम्यक्रिया नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि क्रिया में सम्यक्त्वरूप विशेष तो क्रिया के हेतुभूतज्ञान से ही आता है, अतः सम्यक्रिया की अपेक्षा उसे उत्पन्न करनेवाले ज्ञान को ही श्रेष्ठ मानना चाहिये तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रिया में सम्यक्त्व की सिद्धि ज्ञान से ही होती है, इस बात में कोई विनिगमकप्रमाण नहीं है। क्योंकि ज्ञान से यदि सम्यक्रिया का उदय होता तो असम्यक्ज्ञान से भी होता, पर असम्यक्रिया का उदय नहीं होता। इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि सम्यग्ज्ञान भी तो ज्ञान ही है, अतः उसे सम्यक्रिया का कारण मानने पर भी क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की श्रेष्ठता अपरिहार्य है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात तब ठीक होती जब ज्ञान का सम्यक्त्व क्रिया के बिना ही सम्पन्न होता, पर यह बात है नहीं, क्योंकि सम्यक् प्रकार से अवलोकन आदि क्रिया से ही वस्तु के सम्यग् ज्ञान का उदय होता है। अतः ज्ञान के सम्यक्त्व के मूल में भी क्रिया की ही अपेक्षा होने से क्रिया की ही Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] श्रेष्ठता उचित है / यदि यह कहा जाए कि ज्ञान भावरूप होता है और क्रिया द्रव्यरूप होती है, तथा भाव और द्रव्य में भाव की ही प्रधानता सर्वमान्य है, अतः द्रव्यरूप क्रिया की अपेक्षा भावरूप ज्ञान की ही प्रधानता मानना उचित है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्याद्वाद की उपेक्षा करके एकान्ततः ज्ञान को भावात्मक और क्रिया को द्रव्यात्मक नहीं माना जा सकता किन्तु ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया द्रव्यत्व और ज्ञानसापेक्ष क्रिया भावरूप, इसी प्रकार क्रियानिरपेक्ष ज्ञान द्रव्यरूप और क्रियासापेक्ष ज्ञान भावरूप होता है, यही बात मान्य है। फिर जब ज्ञान और क्रिया दोनों द्रव्यभाव उभयात्मक हैं तो द्रव्यभावात्मकता की दृष्टि से ज्ञान को क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे कहा जा सकता __यदि यह कहा जाय कि ज्ञान मोक्ष का अन्तरंग कारण है और क्रिया बहिरंग कारण है अतः मोक्ष की सिद्धि में ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन दोनों की अन्तरंगता और बहिरंगता भी एकान्तरूप से मान्य नहीं है, किन्तु योगरूप से दोनों बहिरंग भी हैं और उपयोगरूप से दोनों अन्तरंग भी हैं अतः जब यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान अन्तरंग ही होता है और क्रिया बहिरंग ही होती है तब अन्तरंग बहिरंग की दृष्टि से एक को अन्य की अपेक्षा प्रधानता कैसे दी जा सकती है ? (इस श्लोक में फलप्राप्ति के प्रति क्रिया के उस व्यभिचार का परिहार किया गया है जो एकासीवें श्लोक में उद्भावित किया गया था // 88 // ) आकर्षणादिनियताऽस्ति जपक्रियेव, पत्युः प्रदर्शयति सा न मुखं परस्य / वैकल्पिकी भवतु कारणता च बाधे, द्वारित्वमप्युभयतो मुखमेव, विद्मः // 8 // Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 216 अब इस पद्य में एकासीवें पद्य के इस कथन का निरास किया गया है कि क्रिया के न रहने पर भी केवल मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि की सिद्धि होने से फलप्राप्ति के प्रति क्रिया की अपेक्षा ज्ञान का प्राधान्य है / श्लोकार्थ इस प्रकार है- आकर्षण आदि के पूर्व केवल आकर्षणादिकारी मन्त्र के ज्ञान का ही अस्तित्व नियत नहीं है, अपितु उस मन्त्र के जप की क्रिया का भी अस्तित्व नियत है। यह बात सर्वविदित है कि आकर्षणकारी मन्त्र के ज्ञानमात्र से आकर्षण नहीं सम्पन्न होता, अपितु उसका जप करने से सम्पन्न होता है, अतः मन्त्रजपात्मक क्रिया से आकर्षण की सिद्धि होने के कारण आकर्षण को मन्त्रज्ञानमात्र का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता प्रतिष्ठित नहीं की जा सकती। ___ इस सन्दर्भ में एकासीवें पद्य में जो यह कहा गया कि 'जहाँ क्रिया लज्जित-सी अपना मुख छिपाये रहती है वहाँ भी केवल मन्त्रज्ञान से ही आकर्षण आदि कार्य होते हैं वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त स्थल में आकर्षण आदि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया अपने स्वामी स्याहादी के सम्मुख अपना मुख नहीं छिपाती उसे तो अपने मुख का प्रदर्शन करती ही है। किन्तु वह मुख छिपाती है उससे जो स्याहादविरोधी होने से उसका मुख देखने का अधिकारी नहीं है। कहने का आशय यह है कि जो लोग क्रिया की उपेक्षा कर केवल ज्ञान को ही फल का साधक मानते हैं ऐसे एकान्तवादी को ही आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया की उपस्थिति विदित नहीं होती। पर जो लोग इस एकान्तवाद में निष्ठावान् नहीं हैं ऐसे विवेकशील स्याद्वादी को आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया की उपस्थिति स्पष्ट अवभासित होती है। अतः आकर्षण आदि को क्रिया-निरपेक्ष मन्त्रज्ञान का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान को प्रधानता प्रदान करना * उचित नहीं हो सकता। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] बयासीवें श्लोक में प्रसन्नचन्द्र नामक पुरुष में 'क्रिया में मोक्षप्राप्ति का अन्वय-व्यभिचार' और भरत नामक पुरुष में 'क्रिया में मोक्षप्राप्ति का व्यतिरेक-व्यभिचार' बताकर जो क्रिया में मोक्ष-कारणता का निषेध किया गया है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त व्यभिचार से क्रिया में मोक्ष की नियत-कारणता का ही प्रतिषेध हो सकता है न कि वैकल्पिक कारणता का भी प्रतिषेध हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि क्रिया को मोक्ष का सार्वत्रिक कारण माना जाए तो उसमें उक्त व्यभिचार बाधक हो सकता है पर यदि क्रियाविशेष को पुरुषविशेष के मोक्ष का कारण माना जाय तो उसमें उक्त व्यभिचार बाधक नहीं हो सकता। अतः जैनदर्शन की इस मान्यता में कोई दोष नहीं हो सकता कि 'जिस पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के अनन्तर मोक्ष लाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति ज्ञान कारण होता है और जिस पुरुष को चारित्रसम्पत्ति के समनन्तर मोक्षलाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति क्रिया-चारित्र कारण होता है। यदि यह कहा जाए कि ज्ञान ही मोक्ष का प्रधान कारण है और क्रिया उसका द्वार है और द्वार की अपेक्षा द्वारी की प्रधानता होती है अतः क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता अनिवार्य है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्वार-द्वारिभाव ज्ञान और क्रिया दोनों में समान है, अर्थात् जैसे कहीं ज्ञान प्रधान और क्रिया उसका द्वार होती है उसी प्रकार कहीं क्रिया प्रधान और ज्ञान उसका द्वार होता है, इसलिये कहीं क्रिया द्वारा ज्ञान और कहीं ज्ञान द्वारा क्रिया से मोक्ष की सिद्धि होने के कारण एकान्तरूप से यह कथन उचित नहीं हो सकता कि ज्ञान मोक्ष का प्रधान साधन है और क्रिया अप्रधान साधन // 86 / / सम्यक्त्वशोधकतयाधिकतामुपैतु, ज्ञानं ततो न चरणं तु विना फलाय / Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 221 ज्ञानार्थवादसदृशाश्चरणार्थवादाः, श्रूयन्त एव बहुधा समये ततः किम् // 10 // सम्यक्त्व-श्रद्धा का शोधक होने से ज्ञान का स्थान यदि कुछ ऊँचा होता है तो हो, पर इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि ज्ञान क्रियानिरपेक्ष होकर फल का साधक भी होता है। यदि ज्ञान की प्रशंसा करनेवाले अर्थवादवचनों के बल पर ज्ञान को प्रधानता दी जाए तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि जैन शासन में क्रिया की भी प्रशंसा करनेवाले बहुत से अर्थवाद-वचन उपलब्ध होते हैं, अत: अर्थवादवचनों के आधार पर कोई एकपक्षीय निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता / / 60 // शास्त्राण्यधीत्य बहवोऽत्र भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियकनिरतः पुरुषः स विद्वान् / सञ्चिन्त्यतां निभृतमौषधमातुरं कि, विज्ञातमेव वितनोत्यपरोगजालम् // 1 // . ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो शास्त्रों का अध्ययन करके भी मूर्ख ही रह जाते हैं तदनुसार क्रियाशील नहीं हो पाते। जो पुरुष शास्त्रानुसार क्रिया-परायण होता है, वही सच्चे अर्थ में विद्वान् होता है। यह कौन नहीं जानता कि औषध को जानकर उसका चिन्तन मात्र करने से रोग से मुक्ति नहीं मिलती, किन्तु उसके लिये औषध का विधिवत् सेवन अपेक्षित होता है / / 61 // ज्ञानं स्वगोचरनिबद्धमतः फलाप्तिनैकान्तिको चरणसंवलितात तथा सा। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] ज्ञातासि चात्र तरणोत्कनटीपथज्ञाश्चेष्टान्वितास्तदितरे च निदर्शितानि // 2 // केवल ज्ञान को नहीं अपितु कर्मयुक्त ज्ञान को फलसिद्धि का कारण बताते हुए स्तोत्रकार कहते हैं कि-"ज्ञान अपने विषय में बँधा होता है, वह अपने विषय का प्रकाशन मात्र कर सकता है, उसकी प्राप्ति कराने में वह अकेला असमर्थ है, अतः यह निर्विवाद है कि कोरे ज्ञान से फल की सिद्धि नियत नहीं है, नियत फलसिद्धि तो चरण-कर्म से युक्त ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। इस विषय में कई दृष्टान्त भी प्रसिद्ध हैं, जैसे तैरने की कला में निपुणता और तैरने की इच्छा होते हुए भी मनुष्य किसी नदी को तब तक नहीं तर पाता जब तक वह तैरने के लिये हाथ पैर चलाने की शारीरिक क्रिया नहीं करता, एवं नाचने की कला में निपुण और नृत्य की इच्छा रखने पर भी नर्तकी तब तक नृत्य नहीं कर पाती जब तक वह अंगों के प्रावश्यक अभिनय में सक्रिय नहीं होती, मार्ग जाननेवाला और उस मार्ग पर यात्रा की इच्छा रखनेवाला भी मनुष्य उस मार्ग पर तब तक. नहीं चल पाता जब तक वह उस मार्ग पर पैर बढ़ाने की क्रिया नहीं करता। इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अकेले ज्ञान से कोई कार्य नहीं होता किन्तु उसके लिये उसे कर्म के सहयोग की अपेक्षा होती है, अतः जैनशासन का सिद्धान्त सबल प्रमाणों और युक्तियों पर आधारित है कि 'सम्यक चारित्र युक्त सम्यग् ज्ञान से ही मोक्ष का लाभ होता है / इसलिये प्रत्येक मुमुक्षुजन को ज्ञान और चारित्र दोनों के अर्जन के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये / / 62 // मुक्त्वा नृपो रजतकाञ्चनरत्नखानीलॊहाकरं प्रियसुताय यथा ददाति / Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 223 तद्वद्गुरुः . सुमुनये चरणानुयोग, शेषत्रयं गुणतयेत्यधिका क्रियेव // 63 // "ज्ञान की अपेक्षा चारित्र-क्रिया अभ्यहित है' इसकी पुष्टि करते हुए श्री उपाध्यायजी का कथन है कि___ जिस प्रकार राजा अपने प्रियपुत्र को चाँदी, सोने और रत्न की खाने न देकर लोहे की ही खान देता है और शेष तीन पुत्रों को चाँदी आदि की खाने देता है, उसी प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य को गणित, धर्म-कथा और द्रव्य का उपदेश न देकर प्रधानरूप से चारित्र का ही स्पदेश देता है, और गणित आदि का उपदेश अन्य शिष्यों को देता है तथा यदि उसे देता भी है तो गौणरूप से ही देता है। जिस प्रकार उक्त वितरणव्यवस्था में राजा का यह प्राशय होता है कि चाँदी आदि की खानों की रक्षा के लिये अपेक्षित शस्त्रों के निर्माणार्थ लोहा प्राप्त करने के लिये चाँदी आदि की खानों के स्वामियों को लोहे की खान के स्वामी को चाँदी आदि देना होगा और इस प्रकार लोहे की खानवाले पुत्र को चांदी, सोने और रत्न की प्राप्ति निरन्तर होती रहेगी। ठीक उसी प्रकार उक्त प्रकार से उपदेश देने वाले गुरु का का भी यह अभिप्राय होता हैं कि गणित, धर्मकथा और द्रव्य का उपदेश प्राप्त किये हुए शिष्य दीक्षा का उचित काल बताकर, वैराग्यकारी कथानों का प्रवचन कर तथा तत्त्वविवेचन से सम्यक्त्व का शोधन कर चारित्र का उपदेश धारण करनेवाले शिष्य का कार्य सम्पादन करते रहेंगे, और वह अपने चारित्र के बल से अपनी साधना में सतत आगे बढ़ता जाएगा। गुरु के इस विवेकपूर्ण कार्य से यह स्पष्ट है कि साधना में ज्ञान का सामान्य उपयोग है और चारित्र का प्रत्यंधिक उपयोग है। अतः चारित्रक्रिया ज्ञान से निर्विवादरूप से प्रधान है // 3 // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224.] प्रज्ञापनीयशमिनो गुरुपारतन्त्र्यं, ज्ञानस्वभावकलनस्य तथोपपत्तेः / ध्यान्ध्यं परं चरणचारिमशालिनो हि, शुद्धिः समग्रनयसङ्कलनावदाता // 64 // - जो शमसम्पन्न साधु प्रज्ञापनीय-उपदेश के योग्य होता है, अर्थात् असत् आग्रह का परित्याग करने को उद्यत रहता है वह गुरु की अधीनता स्वीकार करता है। गुरु के अधीन होने से उसके ज्ञान का परिष्कार होता है, किन्तु जो साधु प्रज्ञापनाह नहीं होता वह गुरु की अधीनता स्वीकार नहीं करता। फलतः उत्कृष्ट चारित्र से सम्पन्न होने पर भी उसकी बुद्धि अन्धी ही रह जाती है, क्योंकि बुद्धि की शुद्धि समस्त नयों के समन्वित प्रयोगों से ही सम्पन्न होती है और वह सङ्कलन सद्गुरु के अनुग्रहपूर्ण उपदेश के बिना सम्भव नहीं होता // 14 // न श्रेणिकस्य न च सात्यकिनो न विष्णोः, सम्यक्त्वमेकममलं शरणं बभूव / चारित्रवजिततया कलुषाविलास्ते, प्राप्ता गति घनतमैनिचितां तमोभिः // 5 // . श्रेणिक, सात्यकी और विष्णु निर्मल सम्यक्त्व से सम्पन्न थे, पर अकेले सम्यक्त्व से उनकी रक्षा न हो सकी, किन्तु चारित्रहीन होने के कारण पाप से कलुषित हो उन्हें घोर अन्धकार से पूर्ण नारकी गति प्राप्त करनी पड़ी। इससे स्पष्ट है कि चारित्र के अभाव में ज्ञान और श्रद्धा दोनों का कोई मूल नहीं होता // 65 // न ज्ञानदर्शनधरैर्गतयो हि सर्वाः, .. . शून्या भवन्ति नृगतौ तु चरित्रमेकम् / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 225 न ज्ञानदर्शनगुणाढ्यतया प्रमादः, . कार्यस्तदार्यमतिभिश्चरणे कदापि // 66 // देव, मनुष्य पशु-पक्षी तथा नारकीय जीव आदि की जितनी भी योनियाँ हैं वे ज्ञान और श्रद्धा से युक्त पुरुषों से शून्य नहीं होती, अर्थात् ज्ञान और श्रद्धा से सम्पन्न जीव सभी योनियों में होते हैं, किन्तु मनुष्य-योनि की यह विशेषता है कि उसमें जीव को चारित्र अर्जन करने का अवसर मिलता है और वह उस अवसर का लाभ उठाकर चारित्र से मण्डित हो जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। तो फिर जब यह स्पष्ट है कि ज्ञान और श्रद्धा के गुणों से सम्पन्न होने पर भी चारित्र के अभाव में जीव को विविध योनियों में भटकना पड़ता है तो सद्बुद्धि मानव को अपने ज्ञान और श्रद्धा के वैभव पर अहङ्कार न कर चारित्र के अर्जन में ही दत्तचित्त होना चाहिये और इस विषय में उसे कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये // 16 // श्राद्धश्चरित्रपतितोऽपि च मन्दधर्मा, पक्षं त्रयोऽपि कलयन्त्विह दर्शनस्य / चारित्रदर्शनगुणद्वयतुल्यपक्षा, दक्षा भवन्ति सुचरित्रपवित्रचित्ताः॥१७॥ श्रावक, चारित्र की समुन्नत मर्यादा से च्युत साधक तथा धर्म के आचरण में मन्द उत्साहवाले मानव इन तीनों को ही मोक्षमार्ग पर प्रस्थान करने के लिये दर्शन-पक्ष का आश्रय लेना चाहिये। क्योंकि दर्शन-श्रद्धा का धरातल दढ होने पर अन्य सब साधनों के सम्पन्न होने का पथ प्रशस्त हो जाता है। जिन साधकों के चारित्र और दर्शन दोनों पक्ष समानरूप से परिपुष्ट होते हैं वे सम्यक् चारित्र के प्रभाव से Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] पवित्र चित्त होने के कारण मोक्ष को प्रात्मसात् करने में दक्ष होते हैं। तात्पर्य यह कि चारित्र की श्रेष्ठता प्रत्येक स्थिति में अक्षुण्ण है / / 17 / / संज्ञानयोगघटितं शमिनां ततोऽपि, श्रेण्याश्रयादिह निकाचितकर्महन्त / बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरध्व माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहरणार्थम् // 6 // सम्यग् ज्ञानरूप योग से युक्त तप अपूर्वकरण की श्रेणी का पालम्बन कर शमसम्पन्न साधकों के निकाचित-भोगमात्र से ही नष्ट करने योग्य सञ्चित कर्मों को भी नष्ट कर देता है। अतः साधक को अपने आध्यात्मिक तप के बलवर्धन के लिये परम कठिन भी बाह्य तप का अनुष्ठान बड़ी तत्परता के साथ करना चाहिये / / 68 // इत्थं विशिष्यत इदं चरणं तवोक्ती, तैस्तैर्नयैः शिवपथे स्फुटभेदवादे। चिच्चारुतां परमभावनयस्त्वभिन्न रत्नत्रयीं गलितबाह्यकथां विधत्ते // 66 * पूर्वोक्त रीति से भिन्न-भिन्न नयों की दृष्टि से मोक्षमार्ग की भिन्नता नितान्त स्पष्ट है, फिर भी भगवान् महावीर के शासन में ज्ञान एवं दर्शन की अपेक्षा चारित्र का ही उत्कर्ष माना गया है और परम भावनय-शुद्ध निश्चयानुसारी बाह्यकथा-समस्त भेदचर्चा का विदलन कर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय की फलतः अभिन्नता का प्रतिपादन करता हुआ चित्स्वरूप प्रात्मा की चारुता-विशुद्ध-स्वरूप * यहाँ तक इस स्तव में 'वसन्तलिका छन्द' का प्रयोग हुआ है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 227 निष्ठा को प्रतिष्ठित करता है / 66 // (शिखरिणी छन्द) अशुद्धिः शुद्धि न स्पृशति वियतीवात्मनि कदाप्यथारोपात्कोपारुणिमकरिणकाकातरदृशाम् / त्वदुक्ताः पर्याया घनतरतरङ्गा इव जवाद्विवर्त्तव्यावृत्तिव्यतिकरभृतश्चिज्जलनिधौ // 10 // जिस प्रकार धूल, धुप्रां, वर्षा आदि का उत्पात होने पर किसी प्रकार की भी मलिनता आकाश की निसर्ग निर्मलता को कभी निरस्त नहीं कर सकती उसी प्रकार क्रोध के अरुण-कणों से कातर नेत्र-वाले विरोधियों के आरोप से किसी प्रकार की भी अशुद्धि आत्मा की स्वाभाविक शुद्धि को कदापि अभिभूत नहीं कर सकती। भगवान् महावीर ने आत्मा में मनुष्यत्व, देवत्व आदि जिन पर्याओं का अस्तित्व बताया है और जिनमें नाना प्रकार के विवर्तों के विविध आवर्तनों के संसर्ग होते रहते हैं, चित्समुद्र आत्मा में उनकी स्थिति ठीक वही है जो जल के महासमुद्र में वेग से उत्थान-पतन को प्राप्त करनेवाले उसके उद्विक्त तरंगों की होती है। कहने का आशय यह है कि जैसे समुद्र और उसकी तरंगों को एक-दूसरे से भिन्न प्रमाणित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा और उसके अनन्तानन्त पर्यायों को भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं सिद्ध किया जा सकता / अर्थात् छोटी-बड़ी अगणित तरंगों की समष्टि से आवेष्टित जल ही जैसे समुद्र का अपना स्वरूप है वैसे ही आगमापायी स्व, पर अनन्त पर्यायों से आलिङ्गित चित् ही आत्मा का अपना वास्तविक स्वरूप है। विरुद्ध मतवादियों द्वारा बड़े आग्रह से जिन धर्मों का आरोप किया जाता है वे आत्मा के स्वरूप-निर्वर्तक नहीं हो सकते // 100 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] न बद्धो नो मुक्तो न भवति मुमुक्षुन विरतो, .. न सिद्धः साध्यो वा व्युपरतविवर्त्तव्यतिकरः। असावात्मा नित्यः परिणमदनन्ताविरतचि च्चमत्कारस्फारः स्फुरति भवतो निश्चयनये / / 101 // भगवान् महावीर के निश्चयनय के अनुसार आत्मा न बद्ध है, न मुक्त है, न मोक्ष का इच्छुक है, न कर्म-विरत है, न सिद्ध है और न साध्य है; उसमें किसी प्रकार के वित का कोई सम्पर्क नहीं है, वह नित्य है और निरन्तर परिणाम को प्राप्त होते रहने वाले असीम, शाश्वत चिदानन्द का स्वप्रकाश-विकास है / / 101 // दृशां चित्रद्वैतं प्रशमवपुषामद्वयनिधिः, प्रसूतिः पुण्यानां गलितपृथुपुण्येतरकथः / फलं नो हेतु! तदुभयमथासावनुभय स्वभावस्त्वज्जाने जयति जगदादर्शचरितः // 102 // - आत्मा विभिन्न नयदृष्टियों से सम्पन्न पुरुषों के लिये अाश्चर्यकारी द्वैत और प्रशमप्रधान पुरुषों के लिये चिदानन्दमय अद्वैत है। वह पुण्यों का कारण है और पाप की बृहत्कथाओं से परे है। वह एकान्ततः न किसी का कार्य है और न किसी का कारण। वह अपेक्षा से कार्य-कारण उभयात्मक भी है और साथ ही कार्य-कारण अनुभयात्मक भी है तथा संसार में उसका चरित्र आदर्श-स्वरूप है। भगवान् महावीर के केवलज्ञान में उस (प्रात्मा) का यही स्वरूप स्फुरित हुआ है // 102 // गुणः पर्यायैर्वा तव जिन ! समापत्तिघटनादसौ त्वद्रूपः स्यादिति विशदसिद्धान्तसररिणः / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 226 अतस्त्वद्धयानायाध्ययनविधिनाम्नायमनिशं, * समाराध्य श्रद्धां प्रगुरणयति बद्धाञ्जलिरयम् // 103 // जैनशासन का यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि जो मनुष्य गुण और पर्यायों के रूप में भगवान् जिन के साथ अपने तादात्म्य का सतत अनुध्यान करता है वह भगवान् के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इस लिये प्रकृत स्तव के रचयिता “पं० श्रीयशोविजयजी उपाध्याय" आगम का विधिपूर्वक अध्ययन कर बद्धाञ्जलि हो, अहर्निश अपनी श्रद्धा का सम्भरण करने में संलग्न हैं जिससे वे अपेक्षित रूप में भगवान् का ध्यान कर सकें // 103 // . विवेकस्तत्त्वस्याप्ययमनघसेवा तव. भवस्फुरत्तृष्णावल्लोगहनदहनोद्दाममहिमा। हिमानीसम्पातः कुमतनलिने सज्जनदृशां, सुधापूरः क्रूरग्रहहगपराधव्यसनिषु // 104 // प्रस्तुत स्तोत्र की रचना के रूप में तत्त्व का यह विवेचन पाप से मुक्त भगवान् महावीर की सेवा है। संसार में निरन्तर पनपनेवाली तृष्णा लता के जंगल को जलानेवाली असाधारण सामर्थ्यशाली अग्नि है। कुमतरूपी कमल के लिये हिमपात है / सज्जनों के नेत्र को निर्मल बनानेवाला अमृत का प्रवाह है / और जैनशासन के उल्लङ्घनरूप अपराध के व्यसनी जनों के लिये क्रूर ग्रह की विपत्कारी दृष्टि है // 104 // कुतर्के ख़स्तानामतिविषमनेरात्म्यविषय-' स्तवैव स्याद्वादस्त्रिजगदगदङ्कारकरुणा। इतो ये नैरुज्यं सपदि न गताः कर्कशरुजस्तदुद्धारं कर्तुप्रभवति न धन्वन्तरिरपि // 105 // Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] __ अनात्मवाद के अत्यन्त कठोर कुतर्कों से जो लोग पीडित हैं उनके लिये भगवान् महावीर का स्याद्वाद ही दोनों को निरोगिता प्रदान करनेवाली अनुग्रहपूर्ण औषधि है / अतः जो कठिन रोगी इस स्याद्वाद से तत्काल रोगमुक्त नहीं हो पाते उनकी चिकित्सा आदिवैद्य भगवान् धन्वन्तरि भी नहीं कर सकते // 105 // .(हरिणी छन्द) इदमनवमं स्तोत्रं चक्रे महाबल ! यन्मया तव नवनवैस्तर्कोद्ग्राहैभृशं कृतविस्मयम् / तत इह बृहत्तर्क ग्रन्थश्रमैरपि दुर्लभां, कलयतु कृती धन्यम्मन्यो “यशोविजय"श्रियम् // 106 // स्तुतिकार का कहना है कि हे महाबलशाली भगवन् ! मैंने नयेनये तर्कों के प्रयोग से इस आश्चर्यकारी और सर्वोत्तम स्तोत्र की रचना की है। इसलिये अपने को धन्य माननेवाला कोई भी विद्वान् तर्कशास्त्र के बड़े-बड़े ग्रन्थों का श्रमपूर्वक अध्ययन करने पर भी न प्राप्त होनेवाली यशो-विजय की श्री को इस स्तोत्र-ग्रन्थ में प्राप्त कर सकता है // 106 // (शालिनी छन्द) - स्थाने जाने नात्र युक्ति ब्रुवेऽहं, वाणी पाणी योजयन्ती यदाह / धृत्वा बोधं निविरोधं बुधेन्द्रा स्त्यक्त्वा क्रोधं ग्रन्थशोधं कुरुध्वम् // 107 // मैं इस बात को अच्छी तरह से समझता हूँ कि इस स्तोत्र में परमत का निराकरण और स्वमत के स्थापन की जो युक्ति प्रस्तुत की गई Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 231 हैं वे मेरी अपनी. सूझ नहीं है, क्योंकि इसके प्रयोग के समय स्वयं सरस्वती करबद्ध हो विद्वानों से निवेदन किया करती थीं कि वे निर्विरोधभाव से इस ग्रन्थ को समझने का कष्ट करें अतः यदि कोई त्रुटि प्रतीत हो तो उस पर क्रोध न कर सिद्धान्तानुसार उसका संशोधन कर लें // 107 // (शिखरिणी छन्द) प्रबन्धाः प्राचीनाः परिचयमिताः खेलतितरां, नवीना. तर्काली हृदि विदितमेतत् कविकुले / असौ जैनः काशीविबुधविजयंप्राप्तविरुदो, मुदो यच्छत्यच्छः समयनयमीमांसितजुषाम् // 108 // यह विद्वत्समाज को ज्ञात है कि इस स्तोत्रकार ने पुराने सभी शास्त्रग्रन्थों का समीचीन परिचय प्राप्त किया है और साथ ही इसके हृदय में नई-नई तर्कमालाएँ निरन्तर नृत्य करती रहती हैं। यही कारण है कि ज्ञान और चारित्र से स्वच्छ यह जैन स्तोत्रकार (यशोविजय उपाध्याय) काशी के विद्वानों पर विजयप्राप्त, न्याय-विशारद के विरुद से विभूषित हो, समय और नय की मीमांसा करनेवाले मनीषियों को प्रसन्न करने के निमित्त इस स्तोत्र की रचना में उद्यत हुआ // 108 // (शार्दूलविक्रीडित छन्द) गच्छे श्रोविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गुणः, प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः / तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुस्तत्त्वं किञ्चिदिदं यशोविजय इत्याख्यामृदाख्यातवान् // 10 // Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] श्री विजयदेव गुरु के गुणसमूह से स्वच्छ गच्छ में श्रीजीतविजयजी महाराज परम प्रसिद्ध प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए हैं उन्हीं के सहपाठी पू. नयविजयजी महाराज के शिष्य "यशोविजय" ने इस तत्त्व का कथन किया है // 1 // यः श्रीमद्गुरुभिनयादिविजयरान्वीक्षिकी ग्राहितः, प्रेम्णां यस्य च सन पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः। यस्य न्यायविशारदत्वविरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैस्तस्यैषा कृतिरातनोतु कृतिनामानन्दमग्नं मनः // 110 // जिस (यशोविजय उपाध्याय) को पूज्य श्रीनयविजयजी महाराज ने न्याय-विद्या का अध्ययन कराया, जिसके प्रेम के धामरूप श्रीपद्मविजय जी नामक विद्वान् गुरुभाई थे और जिसको काशी में बहाँ के विद्वानों ने 'न्याय विशारद' ऐसी पदवी प्रदान की, उसकी यह 'वीरस्तव' नामक कृति विद्वज्जनों के मन को आनन्द-मग्न बनाये // 110 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] समाधिसाम्य-द्वात्रिंशिका -xसमाधि-साम्य द्वात्रिशिका ...' (उपेन्द्रवज्रा छन्द) समुद्धतं पारगतागमाब्धेः, समाधिपीयूषमिदं निशम्य / महाशयाः ! पीतमनादिकालात्कषाय-हालाहलमुद्वमन्तु // 1 // हे महाशय भविकों,! आगमरूपी समुद्र के मन्थन से निकाले गये इस 'समाधि-पीयूष' को सुनकर अनादिकाल से पान किये हुए कषायरूपी जहर का वमन कर दो॥१॥ (उपजाति छन्द) विना समाधि परिशीलितेन, क्रियाकलापेन न कर्मभङ्गः। शक्ति विना किं समुपाश्रितेन, दुर्गेण राज्ञां द्विषतां जयः स्यात् // 2 // समाधि-शान्ति का परिशीलन किये बिना अन्य क्रिया-कलापों के द्वारा कर्मों का नाश नहीं हो सकता। क्योंकि शक्ति के बिना केवल किले का आश्रय पा लेने मात्र से राजा लोग अपने शत्रुओं को जीत सकते हैं क्या ? // 2 // Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] अन्तः समाधेः सुखमाकलय्य, बाह्य सुखे नो रतिमेति योगी। अटेदटव्यां क इवार्थलुब्धो, गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे // 3 // योगी अपने अन्तःकरण में समाधि-समत्व का सुख प्राप्त करके बाहरी सुख के प्रति अनुराग नहीं रखता है। क्योंकि ऐसा कौन होगा कि जिसके घर में कल्पवृक्ष फल-फूल रहा हो और वह अर्थ-द्रव्य के लोभ से जङ्गल में भ्रमण करे ? / / 3 // इतस्ततो भ्राम्यति चित्तपक्षी, वितत्य यो रत्यरती स्वपक्षी। स्वच्छन्दता-वारणहेतुरस्य, समाधिसत्पञ्जरयन्त्रणव // 4 // यह जो चित्तरूपी पक्षी रति-राग और अरति-द्वेषरूप अपनी दोनों पांखों को फैलाकर इधर-उधर घूमता रहता है, उसकी स्वच्छन्दता को रोकने का एकमात्र साधन यही है कि उसे,समाधिरूपी उत्तम पिंजरे में बन्द कर दिया जाए // 4 // असह्यया वेदनयाऽपि धीरा, रुजन्ति नात्यन्तसमाधिशुद्धाः। कल्पान्त-कालाग्निमहाचिषाऽपि, नैव द्रवीभावमुपैति मेरुः // 5 // हे धीरपुरुषों! जैसे प्रलयकाल के समय उठनेवाली बड़ी-बड़ी आग की लपटों से भी सुमेरु पर्वत पिंघल नहीं सकता है उसी प्रकार जिनका अन्तःकरण अत्यन्त समाधि के द्वारा विशुद्ध हो गया है, वे व्यक्ति असह्य कष्ट आने पर भी रुग्ण-दुःखी नहीं होते हैं // 5 // ज्ञानी तपस्वी परमक्रियावान्, सम्यक्त्ववानप्युपशान्तिशून्यः / प्राप्नोति तं नैव गुणं कदापि, समाहितात्मा लभते शमी यत् // 6 // मनुष्य ज्ञानी हो, तपस्वी हो, परम क्रियाशील हो और सम्यक्त्व से भी युक्त हो किन्तु शान्ति से शून्य हो तो वह उस गुण को कदापि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 235 प्राप्त नहीं कर सकता जिसे कि समाधि-सम्पन्न-शान्तचित्त योगी प्राप्त करता है // 6 // नूनं परोक्षं सुखसमसौख्यं, मोक्षस्य चात्यन्तपरोक्षमेव / प्रत्यक्षमेकं समतासुखन्तु, समाधिसिद्धानुभवोदयानाम् // 7 // यह निश्चित है कि स्वर्ग का सुख परोक्ष है अर्थात् मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होनेवाला है और मोक्ष का सुख तो अत्यन्त परोक्ष है ही। अतः प्रत्यक्ष सुख है तो एक मात्र समाधि से सिद्ध और अनुभव से प्राप्त समता-सुख ही है // 7 // प्राणप्रियप्रेमसुखं न भोगास्वादं विना वेत्ति यथा कुमारी। समाधियोगानुभवं विनव, न वेत्ति लोकः शमशर्म साधोः // 8 // जैसे कुंवारी कन्या प्राण-प्रिय-पति के प्रेम-सुख और भोग-सम्भोग से प्राप्त प्रानन्द के आस्वाद को नहीं जानती है, उसी प्रकार समाधिसाम्य के अनुभव के बिना यह संसार साधु के शान्त-वैराग्य से उत्पन्न आनन्द को नहीं समझ सकता है / / 8 // न दोषदर्शिष्वपि रोषपोषो, गुणस्तुतावप्यवलिप्तता नो। न दम्भसंरम्भविधेलवोऽपि, न लोभसंक्षोभजविप्लवोऽपि // 6 // लाभेऽप्यलाभेऽपि सुखे च दुःखे, ये जीवितव्ये मरणे च तुल्याः। रत्याप्यरत्यापि निरस्तभावाः, समाधिसिद्धा मुनयस्त एव // 10 // यहां दो पद्यों में समाधि-सिद्ध मुनियों की स्थिति का वर्णन करते ... 'हुए कहते हैं कि___जो दोष देखने वाले व्यक्तियों पर क्रुद्ध नहीं होते, गुणों की प्रशंसा करने पर भी उसमें लिप्त नहीं होते (अर्थात् न प्रसन्न होते हैं और न Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] अहम्भाव रखते हैं), अहङ्कार से उत्पन्न भावों का तनिक भी संस्पर्श नहीं होने देते और लोभ तथा क्षोभ से उत्पन्न विचारों से प्रशान्त भी नहीं होते। इसी प्रकार लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जीवनमरणरूप द्वन्द्वों के प्रति कोई आसक्ति-अनासक्ति न रखते हए समान भाव रखते हैं तथा रति और अरति के भाव भी जो नहीं रखते हैं, वे ही समाधि-सिद्ध मुनि कहलाते हैं / / 6-10 // . उग्ने विहारे च सुदुष्करायां, भिक्षाविशुद्धौ च तपस्यसा। समाधिलाभ-व्यवसायहेतोः, क्व वैमनस्य मुनिपुङ्गवानाम् / / 11 // उन विहार में, विशुद्ध भिक्षा प्राप्ति की अत्यन्त कठिनाई में और असह्य तप में भी समाधि-लाभ के लिये लगे हुए श्रेष्ठ मुनियों को कहाँ अरुचि हो सकती है ? अर्थात् कैसा भी कष्ट हो, वे प्रसन्नतापूर्वक उन कष्टों को सहन करते हैं // 11 // इष्टप्रणाशेऽप्यनभीष्टलाभे, नित्यस्वभावं नियतिञ्च जानन् / सन्तापमन्तर्न समाधिवृष्टिविध्यातशोकाग्निरुपैति साधुः // 12 // इष्ट वस्तु के नष्ट हो जाने और ईप्सित वस्तु के न मिलने में उनके नित्यस्वभाव तथा नियति-भाग्य की बलवत्ता को जानता हुआ साधु समाधि की वृष्टि से शोकाग्नि के शान्त हो जाने के कारण चित्त में सन्ताप को प्राप्त नहीं होता / / 12 // भीर्यथा प्रागपि युद्धकालाद्, गवेषयत्यद्रि-लता-वनादि / क्लीबास्तथाऽध्यात्मविषादभावा' समाहिताच्छन्नपदेक्षिणः स्युः॥१३॥ जैसे कोई भीरु-डरपोक व्यक्ति युद्ध होने के पहले ही. (अपने छिपने 1. “विषीदनेनासमाहिताच्छन्न" इति पाठोऽपि दृश्यते / Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 237 के लिये) पर्वत, लता-झाड़ी या वन आदि की खोज करता है वैसे ही नपुंसक-वृत्तिवाले व्यक्ति अध्यात्म-साधना में आनेवाले कष्टों से भयभीत होकर समाधि से रहित स्थान को ढूंढते हैं अर्थात् समाधि से रहित अध्यात्म-साधना सामान्य जीवों के लिये है किन्तु उत्तम योगी के लिये नहीं / / 13 // रणागणे शूरपरम्परास्तु, पश्यन्ति' पृष्ठं नहि मृत्युभीताः / समाहिताः प्रवजितास्तथैव, वाञ्छन्ति नोत्प्रवजितुं कदाचित // 14 // जिस प्रकार रणाङ्गण में शूरवीरों के बीच पहुँचे हुए सैनिक मृत्यु से डरकर पीठ नहीं दिखाते हैं, उसी प्रकार समाधि को प्राप्त साधू भी अपने इष्ट मार्ग से कदापि भागना नहीं चाहते हैं // 14 // न मूत्रविष्ठापिटरीषु रागं, बध्नन्ति कान्तासु समाधिशान्ताः / अनङ्गकोटालयतत्प्रसङ्गमब्रह्मदोर्गन्ध्यभयास्त्यजन्ति // 15 // - समाधि के द्वारा शान्तचित्त योगी मूत्र और विष्ठा की पिटारीरूप कान्ताओं में अनुराग नहीं बाँधते हैं तथा उनके साथ भोग-विलासजन्य प्रवृत्ति को महापातक से उत्पन्न दुर्गन्धि के भय से सर्वथा त्याग देते हैं // 15 // रम्यं सुखं यद्विषयोपनीतं, नरेन्द्रचक्रित्रिदशाधिपानाम् / समाहितास्तज्ज्वलदिन्द्रियाग्नि-ज्वालाघृताहुत्युपमं विदन्ति // 16 // नरेन्द्र, चक्रवर्ती तथा देवताओं का विषय-वासना से प्राप्त जो उत्तम सुख है उसे समाधियुक्त योगिजन जलती हुई इन्द्रियों की अग्निज्वाला में घृत की आहुति के समान मानते हैं // 16 // 1. अत्रेयं क्रियाऽन्तर्भावितण्यर्था / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] स्त्रैणे तृणे ग्राणि च काञ्चने च, भवे च मोक्षे समतां श्रयन्तः। [तां निर्वृति काञ्चन वक्ष्यमारणां]', समाधिभाजः सुखिता भवन्ति // 17 // स्त्रियों के समुदाय में, तृण में, पत्थर में, सुवर्ण में, संसार में और मोक्ष में समानभाव रखकर उसी को निवृति-निर्वाण मानते हुए समाधि से युक्त योगिजन सुखी होते हैं / / 17 / / जना मुदं यान्ति समाधिसाम्य-जुषां मुनीनां सुखमेव दृष्ट्वा / चन्द्रेक्षणादेव चकोरबालाः, पीतामृतोद्गारपरा भवन्ति // 18 // (इसलिये) समाधि-साम्य से युक्त मुनियों के सुख को देखकर ही लोग प्रसन्न होते हैं / जैसे चकोर (पक्षी) के बच्चे चन्द्रमा के दर्शनमात्र से ही अमृतपान किये हुए के समान आनन्दित होते हैं // 18 // अपेक्षिताऽन्तःप्रतिपक्षपक्षः, कर्माणि बद्धान्यपि कर्मलक्षः। प्रभा तमांसीव रवेः क्षणेन, समाधि-सिद्धा समता क्षिरणोति // 16 // विरुद्ध पक्षों के लाखों कर्मों से बँधे हुए कर्मों को अन्तःकरण में उठी हुई समाधिसिद्ध समता उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे कि सूर्य की प्रभा कुछ ही क्षणों में अन्धकार-समूह को नष्ट कर देती है // 16 // संसारिणो नैव निजं स्वरूपं, पश्यन्ति मोहावृतबोधनेत्राः। . समाधिसिद्धा समतैव तेषां, दिव्यौषधं दोषहरं प्रसिद्धम् // 20 // 1. नवनिर्मितोऽयं पादः / Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 236 ___ मोह से जिनके ज्ञाननेत्र मुंदे हुए हैं ऐसे संसारी जीव अपने स्वरूप को नहीं देख पाते हैं। इनके इस दोष (ज्ञाननेत्र के आवरण) को नष्ट करने के लिये तो दोषनाशक दिव्य औषधि समाधि-सिद्ध समता ही प्रसिद्ध है, उपयोगी है / / 20 // बबन्ध पापं नरकेषु वेद्यं, प्रसन्नचन्द्रो मनसा प्रशान्तः। तत्कालमेव प्रशमे तु लब्धे, समाधिभृत्केवलमाससाद // 21 // शान्तमन प्रसन्नचन्द्र ने (पहले तो) नरकों में वास करानेवाले पापों को बाँधा। किन्तु (बाद में उसका ज्ञान होने पर) प्रशम-वैराग्य को अंगीकार कर लेने पर वह समाधिस्थ होकर केवलज्ञान को प्राप्त हो गया // 21 // षट्खण्डसाम्राज्यभुजोऽपि वश्या, यत्केवलश्रीभरतस्य जज्ञे। न याति पारं वचसोऽनुपाधिसमाधिसाम्यस्य विजृम्भितं तत् // 22 // ___ छह खण्डों का साम्राज्य भोगनेवाले महाराजा भरत चक्रवर्ती को भी जो केवल-लक्ष्मी वशीभूत हुई थी, वह निरुपाधिक समाधिसमता के वैशिष्टय के सामने वाणी के पार को प्राप्त नहीं होती है अर्थात् वह भी इसके सामने सामान्य है / / 22 // अप्राप्तधर्माऽपि पुरादिमाईन्-माता शिवं यद्भगवत्यवाप / समाधिसिद्धा समतैव हेतुस्तत्रापि बाह्यस्तु न कोऽपि योगः॥ 23 // धर्म को प्राप्त न होते हुए भी पूर्व काल में आद्य अर्हन्माता भगवती ने जो शिवपद प्राप्त किया उसमें भी समाधि-सिद्ध समता ही कारण है अन्य कोई बाहरी योग कारण नहीं है // 23 // स्त्रीभ्रूणगोब्राह्मणघातजातपापादधःपातकृताऽऽभिमुख्याः। दृढप्रहारिप्रमुखाः समाधिसाम्यावलम्बात्पदमुच्चमापुः // 24 // Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] स्त्री, भ्रूण, गो और ब्राह्मण की हत्या से लगे हुए पाप के कारण अधःपतन की ओर जाते हुए बड़े-बड़े हिंसक डाकू भी समाधि-समता का आलम्बन लेने से उच्च पद को प्राप्त हुए हैं // 24 // 'निरञ्जनाः शङ्खवदाश्रयन्तोऽस्खलद्गतित्वं भुवि जीववच्च / वियद्वदालम्बनविप्रमुक्ताः, समीरवच्च प्रतिबन्धशून्याः // 25 // समाधि-साम्य को प्राप्त किये हुए मुनीन्द्र किस प्रकार शोभित होते हैं ? यह बतलाने के लिये 'श्रीकल्प-सूत्र' के छठे व्याख्यान में आये हुए विशेषणों तथा उदाहरणों से ५-पांच श्लोकों में यहाँ वर्णन किया गया है / यथा- . समाधि साम्य को प्राप्त मुनीन्द्र शङ्ख के समान निरञ्जन-निर्मल, संसार में जीव के समान अस्खलित गतिवाले, आकाश के समान आलम्बन से रहित तथा वायु के समान प्रतिबन्ध से शून्य होकर स्वच्छन्दरूप से शोभित होते हैं। (पद्य संख्या 25 से 26 तक के पद्यों के लिये अन्तिम पद्य की क्रिया का यहाँ अध्याहार हुआ है) // 25 // शरत्सरोनोरविशुद्धचित्ता, लेपोज्झिताः पुष्करपत्रवच्च / गुप्तेन्द्रियाः कूर्मवदेकभावमुपागताः खङ्गिविषाणवच्च // 26 // तथा वे मुनीन्द्र-शरद् ऋतु में जैसे सरोवर का जल शुद्ध होता है उसके समान शुद्ध चित्तवाले, कमल-पत्र के समान निर्लेप, कछुए के समान गुप्त इन्द्रियवाले और खड्गी-गेंडे के सींगों के समान (दो होते हुए भी) एकीभाव को प्राप्त होकर सदा सुशोभित होते हैं // 26 // 1. इत आरभ्य सर्वाणि विशेषणानि उदाहरणानि च . कल्पसूत्रस्य षष्ठे व्यारप्याने द्रष्टव्यानि। 2. आफ्रिकाद्देशे तु द्विशृङ्गाः खड्गिनो भवन्ति / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 241 सदा विहङ्गा इव विप्रमुक्ता, भारण्डपक्षीन्द्रवदप्रमत्ताः / शौण्डीर्यभाजो गजवच्च जातस्थामप्रकर्षा वृषभा इवोच्चैः॥ 27 // वे मुनिराज पक्षियों के समान सदा स्वच्छन्द विहारी, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, हाथी के समान शौण्डीर्य-स्वाभिमान से युक्त तथा वृषभ के समान उच्च-उन्नत प्रकर्ष को प्राप्त होकर शोभित होते रहते हैं // 27 // दुर्द्धर्षतां सिंहवदब्धिवच्च, गम्भीरतां मन्दरवत् स्थिरत्वम् / प्राप्ताः सितांशूज्ज्वलसौम्यलेश्याः, सूर्या इवात्यद्भुतदीप्तिमन्तः // 28 // वे मुनिराज सिंह के समान निर्भीक होकर, समुद्र के समान गम्भीर, मन्दराचल के समान स्थिर, श्वेत-किरण चन्द्रमा के समान शुद्ध सौम्य-लेश्या को प्राप्त तथा सूर्य के समान अद्भुत तेजस्वी होकर शोभित होते हैं // 28 // सुजातरूपास्तपनीयवच्च, भारक्षमा एव वसुन्धरावत् / ज्वलत्त्विषो वह्निवदुल्लसन्ति, समाधिसाम्योपगता मुनीन्द्राः // 26 // वे मुनिराज सुवर्ण के समान उत्तम स्वरूपवाले, पृथ्वी के समान भार वहन करने में समर्थ तथा अग्नि के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त होकर शोभित होते हैं // 26 // गजाश्च-सिंहा गरुडाश्च नागा, व्याघ्राश्च गावश्च सुरासुराश्च / तिष्ठन्ति पार्वे मिलिताः समाधिसाम्यस्पृशामुज्झितनित्यवराः // 30 // समाधि-साम्य को प्राप्त मुनिराजों के पास हाथी और सिंह, गरुड़ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] और सर्प, व्याघ्र और गौएँ तथा देव और राक्षस सभी पारस्परिक वैर का परित्याग करके प्रेमभाव से मिलकर रहते हैं-निवास करते हैं // 30 // समाधिसाम्यक्रमतो हि योगक्रियाफलावञ्चकलाभभाजः / प्रासादितात्यद्भुतयोगदृष्टि-स्फुरच्चिदानन्दसमृद्धयः स्युः // 31 // इस प्रकार समाधि-साम्य के क्रम से मुनिजन योग-क्रियाओं से प्राप्त होनेवाले फलों को बिना किसी रुकावट के प्राप्त करते हैं तथा अत्यन्त अद्भुत योग दृष्टि को पाकर चिदानन्द की समृद्धि से भासित होते हैं // 31 // (मन्दाक्रान्ता) यो यो भावो जनयति मुदं वीक्ष्यमाणोऽतिरम्यो, बाह्यस्तं तं घटयति सुधीरन्तरङ्गोपमानः / मग्नस्येत्थं परमसमता-क्षीरसिन्धौ यतीन्दोः, कण्ठाऽऽश्लेषं प्रणयति महोत्कण्ठया द्राग यशःश्रीः // 32 // (इस संसार में) अत्यन्त सुन्दर दिखाई देनेवाले जो बाह्यभाव आनन्द को उत्पन्न करते हैं उन-उन भावों को बुद्धिमान् व्यक्ति समाधि-साम्यवाला मुनि अन्तरङ्ग उपमानों के द्वारा सम्पन्न करता है। और इस प्रकार परम समतारूपी क्षीरसमुद्र में मग्न यतिवर्य का यश बढ़ता है और लक्ष्मी शीघ्र ही उत्कण्ठापूर्वक उसका आलिङ्गन करती है (यहाँ “यशः श्री" पद से रचयिता के नाम का सङ्कत भी किया हुआ है / ) // 32 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] प्राचार्य-श्रीमद्विजयप्रभसूरीश्वर-गुणगरणगर्भा स्तुति-गीतिः' श्रीविजयदेवसूरीशपट्टाम्बरे, जयति विजयप्रभसूः रिरर्कः / येन * वैशिष्टयसिद्धिप्रसङ्गादिना, निजगृहे योग-समवाय-तर्कः // श्रीविजय० 1 // ज्ञानमेकं भवदू विश्वकृत् केवलं, दृष्टवाधा तु कर्तरि समाना। इति जगत्कर्तृ लोकोत्तरे सङ्गते, सङ्गता यस्य धीः सावधाना ॥श्रीविजय० 2 // 1. यह गीति पू० वाचक श्री यशोविजय जी महाराज ने आचार्य श्री विजय प्रभसूरीश्वरजी महाराज को कोई 'तात्त्विक-पत्र' लिखा था, उसमें लिखी थी। इस रचना के पश्चात् जो 'विज्ञप्ति-काव्य' प्रकाशित कर रहे हैं, उसके अन्तर्गत भी यह रचना हो सकती है, किन्तु प्रायः अन्य विज्ञप्तियों में प्रथम 'प्रभु-स्मरण' और तदनन्तर अन्य वर्णन आये हैं, अतः उसी परम्परा का यहाँ भी निर्वाह करते हुए इसे स्वतन्त्र स्थान दिया गया हैं। तथा 'गीति' होने के कारण इसका अर्थ भी एक साथ दिया जा रहा है। -सम्पादक Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] ये किलापोहशक्ति सुगतसूनवो, जातिशक्ति च मीमांसका ये / संगिरन्ते गिरं ते यदीयां नयद्वैतपूतां प्रसह्य श्रयन्ते // श्रीविजय० 3 // कारणं प्रकृतिरङ्गीकृता कापिलः, कापि नैवाऽऽत्मनः काऽपि शक्तिः। बन्धमोक्षव्यवस्था तदा दुर्घटे, त्यत्र जागति यत्प्रौढशक्तिः // श्रीविजय० 4 // .. शाद्विकाः स्फोटसंसाधने तत्परा, ब्रह्मसिद्धौ च वेदान्तनिष्ठाः / सम्मति-प्रोक्तसंङ्ग्रहरहस्यान्तरे, यस्य वाचा जितास्ते निविष्टाः // श्रीविजय० 5 // ध्रौव्यमुत्पत्तिविध्वंसकिर्मीरितं, द्रव्यपर्यायपरिणतिविशुद्धम् / विनसायोगसङ्घात-भेदाहितं, स्वसमयस्थापितं येन बुद्धम् // श्रीविजय० 6 // इति नुतः श्रीविजयप्रभो भक्तितस्तर्कयुक्त्या मया गच्छनेता। श्रीयशोविजयसम्पत्करः कृतधियामस्तु विघ्नापहः शत्रुजेता // श्रीविजय० 7 // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 245 प्राचार्य श्रीमद्विजयप्रभसूरीश्वरजी के गुणगणों से गभित स्तुति-गीति 'श्री विजयदेव सूरीश्वर' के पट्टरूप आकाश में 'श्री विजयप्रभ सूरि' नामक सूर्य विजय को प्राप्त हो रहे हैं, जिन्होंने 'वैशिष्ट्य-सिद्धि' नाम के (ग्रन्थ अथवा मत) के प्रसङ्गों से अपने ही घर (सम्प्रदाय) में योग क नित्यसम्बन्ध से तर्क-शास्त्र को सुशोभित किया // 1 // केवल एक ज्ञान ही विश्वकृत्-जगत् का कर्ता है, इस प्रकार जो लोग (अन्य मतानुयायी) मानते हैं, उनके इस कथन में दृष्टबाधा दोष आता है। अर्थात् सर्वज्ञ ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में किसी के द्वारा दृष्ट न होने के कारण दृष्टबाधा नामक दोष आता है। इस प्रकार जगत्कर्तृत्व के सम्बन्ध में लोगों को उचित उत्तर देने में जिनकी बुद्धि सावधान-युक्तिपूर्ण है अथवा जो उचित समन्वय करते हैं ऐसे श्री विजय-प्रभसूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं // 2 // ___ जो बौद्धमतानुयायी अपोह-(बुद्धि के गुण-विशेष) का शक्ति के के रूप में पाख्यान करते हैं तथा जो मीमांसक जाति-शक्ति का पाख्यान करते हैं, वे भी जिनकी क्य-द्वैत से पवित्र बनी हुई वाणी का हठपूर्वक आश्रय लेते हैं, ऐसे श्रीविजयप्रभसूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं / / 3 // _ 'महर्षि कपिल 'सांख्य-दर्शन' में प्रकृति को ही प्रधान कारण मानते हैं और उनके जगत्कर्तृत्व में कहीं भी आत्मा की कोई शक्ति नहीं है, अतः यहाँ बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था दुर्घट हो जाती है'इस प्रकार के विमर्श में जिनकी बुद्धि सदा जागृत रहती है ऐसे श्री विजयप्रभसूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं // 4 // . जो शाब्दिक-वैयाकरण स्फोट (व्याकरण के एक शाब्दिक ज्ञान Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] विशेष) के साधन में परायण हैं और वेदान्ती ब्रह्म की सिद्धि में संलग्न हैं वे भी जिनकी वाणी से पराजित होकर सम्मति से कथित 'संग्रहरहस्य' नामक ग्रन्थ में निविष्ट हो जाते हैं, ऐसे श्रीविजयप्रभ सूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं / / 5 / / . जिन्होंने उत्पत्ति और विनाश से चित्रित; ध्रौव्य, द्रव्य, पर्याय तथा परिणाम से विशुद्ध और विस्रसा-योग-सङ्घात के भेदों से युक्त ज्ञानपूर्ण अपने समय-सिद्धान्त की स्थापना की, ऐसे वे श्रीविजय-प्रभसूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं // 6 // इस प्रकार मैंने तर्क एवं युक्ति से (अथवा तर्कशास्त्र से सङ्गत युक्ति के द्वारा) भक्तिपूर्वक गच्छनायक तथा शत्रुओं को जीतनेवाले श्रीविजयप्रभ सूरि की स्तुति की है। (इस स्तवन का पठन करनेवाले) बुद्धिमानों के लिये वे सूरीश्वर विघ्नों के नाशक तथा श्री, यश, विजय एवं सम्पत्ति का प्रदान करनेवाले हों // 7 // -: 0 : Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 12 ] तपागच्छाधिपति-पूज्य 108 श्रीमद्विजयप्रभसूरीश्वरान प्रति 'दीव-बन्दर'नगरे लिखितं पत्रात्मकं श्रीविजयप्रमसूरि-क्षामणक-विज्ञप्ति-काव्यम् [दीव-बन्दरस्थित श्रीपार्श्वप्रभुवर्णनात्मकः प्रथमो भागः ] [दीव-बन्दर स्थित श्रीपार्श्वप्रभुवर्णनरूप पहला भाग] (उपजाति छन्द) स्वस्ति श्रियां चारुकुमुद्वतीनां, विधुः समुल्लासविधौ जिनेन्द्रः / श्री प्रश्वसेनक्षितिपालवंशस्वर्गाचलः स्वर्गतरुः श्रिये वः // 1 // श्रीपार्श्वप्रभुस्तुति मङ्गल-लक्ष्मीरूप सुन्दर कुमुदिनियों को विकसित करने में चन्द्रमा के समान तथा श्रीअश्वसेन राजा के वंशरूपी सुमेरु-पर्वत में कल्पवृक्ष के समान श्रीपार्श्वजिनेश्वर आपके कल्याण के लिये हों // 1 // “यह काव्य उपाध्यायजी महाराज ने पर्युषणा-पर्व की समाप्ति के पश्चात् क्षमापना के रूप में अपने पूज्य गुरुदेव के पास लिखकर भेजा था। इसका विशिष्ट नामकरण उनके द्वारा न किये जाने के कारण यह एक Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] स्वस्ति श्रियं यच्छतु भक्तिभाजामुद्दामकामद्रुम-सामयोनिः / धर्मद्रुमारामनवाम्बुवाहः, सुत्रामसेव्यः प्रभुपार्श्वदेवः // 2 // निरंकुश-उन्मत्त कामदेवरूपी वृक्षों के लिये हाथी के समान, धर्मरूपी वृक्षों के लिये नवीन मेघ के समान तथा इन्द्र के द्वारा सेवनीय भगवान् श्रीपार्श्वनाथ भक्तों को मङ्गल-लक्ष्मी प्रदान करें / / 2 // स्वस्ति श्रियामाश्रयमाश्रयामः, स्वनाममन्त्रोद्धतभक्तकष्टम् / . सुस्पष्टनिष्टङ्कितविष्टपान्तवितिभावं जिनमाश्वसेनिम् // 3 // मङ्गल-लक्ष्मी के धाम, अपने नाम-मन्त्र के स्मरण-मात्र से ही भक्तों के कष्ट का निवारण करनेवाले तथा स्पष्ट रूप से ही निराकृत कर दिया है बार-बार के जन्म को जिसने ऐसे श्रीअश्वसेन महाराजा के पुत्र श्रीपार्श्वजिनेश्वर की हम शरण प्राप्त करते हैं / / 3 / / स्वस्ति श्रियां गेहमुदारव्हं, मरुन्महेलाभिरखण्डितेहम् / अपासितस्नेहमहेयभावं, पावं महेशं वतिनां श्रयेऽहम् // 4 // मङ्गल-लक्ष्मी के प्रावास. उदार शरीरवाले, देववनितानों के द्वारा भी द्रवित नहीं होनेवाले अर्थात् दृढ-सङ्कल्प, वीतराग, सुस्थिर 'विज्ञप्तिकाव्य' है अत इस रूप में प्रकाशित करना उचित समझा गया है। यह नाम 'यशोदोहन' ग्रन्थ में श्री हीरालाल रसिकदास कापडिया ने दिया है। अतः हमने भी यही नाम रखा है। यह विज्ञप्ति चार विभागों में विभक्त है' ऐसा इसकी श्लोक संख्या से अनुमान होता है जिनमें क्रमशः १-पार्श्वप्रभु-वर्णन, २-दीवबन्दर नगर वर्णन, ३-गुरुवन्दना तथा ४--उपसंहार हैं। इसी आधार पर यहां चार विभागों की योजना भी कल्पित की गई है। -सम्पादक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 246 . भाववाले तथा व्रती-मुनिजनों के स्वामी श्रीपार्व-जिनेश्वर की मैं शरण स्वीकार करता हूँ // 4 // स्वस्ति श्रिये स प्रभुपार्श्वनाथः, कृतप्रसर्पदुरितप्रमाथः / यन्नाममन्त्रस्मरणप्रभावात्, प्रयान्ति सद्यो विलयं भयानि // 5 // अपने उत्तम कर्मों के बल से फैलते हुए पापकर्मों का विनाश कर दिया है जिसने तथा जिनके नाम-मन्त्र-स्मरण के प्रभाव से शीघ्र ही समस्त भय नष्ट हो जाते हैं, ऐसे वे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु आपके मङ्गल एवं कल्याण के लिये हों / / 5 / / प्रसीदतु प्रत्नसमीहितार्थः, पार्श्वः सतां ध्वस्तसमस्तपापः / नोरन्ध्रधाराधरनीरधाराविधौतविन्ध्याचलचारुकान्तिः // 6 // घने बादलों की जलवृष्टि से धुले हुए विन्ध्यपर्वत के समान मञ्जुल कान्तिवाले, सज्जनों के समस्त पाप को नष्ट करनेवाले तथा इच्छित कामनाओं को पूर्ण करनेवाले श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर प्रसन्न हों॥६॥ गभस्तिवद् ध्वस्ततमःप्रतानः, कल्पद्रुवत् कामितदानदक्षः। प्रमुद्रगाम्भीर्यनिधानमुद्रः, समुद्रवत्पार्वजिनोऽवताद् वः // 7 // सूर्य के समान अन्धकार के समूह को ध्वस्त करनेवाले, कल्पवृक्ष के समान इच्छित वस्तु को देने में निपुण तथा समुद्र के समान अपार गम्भीरता से परिपूर्ण मुद्रावाले ऐसे श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर आपकी रक्षा करें॥७॥ विधेव मुद्राऽजनि यस्य चित्रा, मुद्रेव कान्तिः परमा पवित्रा। दिग्व्यापिनी कान्तिरिवोरुकोतिः, पावो जगत् सोऽवतु पुण्यमूतिः // 8 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] __ जिनकी विद्या के समान हो आश्चर्यकारिणी मुखाकृति है और मुखाकृति के समान (प्रसन्न-गम्भीर) परम पवित्रं कान्ति है तथा उस परम-पवित्र कान्ति के समान ही सब दिशाओं में कीर्ति व्याप्त है, ऐसे पुण्यमूर्ति भगवान् श्रीपार्श्वनाथ जगत् की रक्षा करें // 8 // सेवा मुखस्याब्जधिया विधातुं, समागतं हंसयुवद्वयं किम्। यस्यालसच्चामर-युग्ममुच्चैः, पावः स वः पुण्यनिधिः पुनातु // 6 // जिन भगवान् के आसपास दोनों ओर ऊपर के भाग में दो चामर सुशोभित हो रहे हैं और उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि "भगवान् के मुख को कमल समझकर उसकी सेवा करने के लिये ये दो हंसयुवक तो नहीं आये हैं ?" ऐसे 'चामर-युगल-मण्डित' भगवान् श्रीपार्श्वनाथ आपको पवित्र करें / / 6 // स्तवीमि तं पार्श्वजिनं यदीय-पादाग्रजानन्नखरत्नदीपम् / स्थातुं रजन्यामपि नावकाशं, तमःसमूहो लभते कदापि // 10 // जिनके चरणों के अग्रभाग पर चमकते हुए नखरूपी दीपों से (व्याप्त प्रकाश के समक्ष) अन्धकार का समूह (दिन में तो क्या) रात्रि में भी रहने के लिये कभी भी स्थान नहीं पाता। उन पार्वजिनेश्वर की मैं स्तुति करता हूँ // 10 // ___ [अनुष्टुप्] विपति स्फूर्तिमन्मूर्तिः कामं वामासुतः सताम् / प्रययुः स्वर्द्रमा दूरे यवदान्यत्वनिजिताः // 11 // जिनकी दानवीरता से पराजित-लज्जित होकर कल्पवृक्ष (भी स्वयं) दूर स्वर्ग में चले गये, ऐसे तेजोमयस्वरूप, वामादेवी के पुत्र भगवान् श्रीपार्श्वनाथ सज्जनों की कामनाएँ पूर्ण करते हैं / / 11 / / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 251 धौरा ! धीराजमानं तं श्रयध्वं पार्श्व मीश्वरम् / - कुरुते यत्प्रतापस्य नूनं नीराजनां रविः // 12 // हे धीरजनों ! अपनी प्रखर-बुद्धि से शोभायमान उन श्रीपार्श्वनाथ की शरण में जाम्रो जिनके प्रताप की सूर्य निश्चित रूप से आरती उतारता रहता है / / 12 // पाश्वो जयति यत्कोतरुच्छिष्टमिव चन्द्रमाः। अत एव पतङ्गस्याऽऽपततो याति भक्ष्यताम् // 13 // उन भगवान् पार्श्वनाथ की जय हो, जिनकी कीर्ति के उच्छिष्ट भाग के समान चन्द्रमा है / और यही कारण है कि वह चन्द्रमा उदित होते हुए सूर्य का भक्ष्य बन जाता है / / 13 // पाऊ जयति गाम्भीर्यं गृहीतं येन वारिधेः / ततः शिष्टानि रत्नानि भीतोऽसौ किमधो दधौ // 14 // वे भगवान् पार्श्वनाथ जय को प्राप्त हो रहे हैं जिन्होंने समुद्र की गम्भीरता छीन ली है / और तब से ही अपने पास बचे हुए कुछ रत्नों को-कहीं ये भी मेरी उच्छ, खलता को देखकर भगवान् मुझसे छीन न लें-क्या इसी भय से उसने अन्दर अपने छिपा लिये हैं ? // 14 // . श्रिये पावः स वो यस्य क्षमाभृत्त्वगुणोऽखिलः। लक्ष्मव्याजादतः शेषस्तल्लाभाय यमाश्रितः // 15 // वे भगवान् पार्श्वनाथ आपका कल्याण करें जिनके क्षमाशील आदि गुण सर्वोपरि हैं / और यही कारण है कि शेषनाग उनके चिह्न के बहाने उस क्षमाधारणरूप उत्तम गुण की प्राप्ति के लिये उनकी सेवा कर रहा है // 15 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ] मनः सरोवरेऽस्माकं पाश्र्वो नीलोत्पलायताम् / यद्धैर्य-सख्यतो मेरुरुच्चमूर्धानमादधे // 16 // हमारे मनरूपी सरोवर में वे भगवान् पार्श्वनाथ नीलकमल के समान विकसित हों। जिनकी धीरता से मित्रता प्राप्त करके सुमेरुपर्वत अपने मस्तक को ऊँचा किया हुआ है // 16 // मच्चित्तनन्दने पार्बः कल्पद्रुरिव नन्दतु / हतं सप्तजगद्ध्वान्तं यदीयैः सप्तभिः फणैः // 17 // मेरे चित्तरूपी नन्दन वन में वे भगवान् पार्श्वनाथ कल्पवृक्ष के समान फलते-फूलते रहें जिनके (मस्तकपर सुशोभित धरणेन्द्र सर्पराज). के सात फणों से सातों लोकों का अन्धकार नष्ट हो गया है / / 17 / / वन्दारु-सुरकोटीररत्नांशु-स्नपितक्रमः / नेदीयसी जगद्वेदी कुर्यात् पावः शिवश्रियम् / / 18 // वन्दनशील इन्द्रादि देवताओं के मुकूटों में जटित रत्नों की किरणों से जिनके चरण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे सर्वज्ञ प्रभु पार्श्वनाथ हमें मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करायें // 18 // यः करोत्येव पापानां कलावपि बलात्ययम् / महानन्दाय तं श्रीमत्पाश्र्वं वन्दामहे वयम् // 16 // . इस कलियुग में भी जो पापों के बल को निश्चित रूप से क्षीण करते हैं, उन भगवान् श्रीपार्श्वनाथ को आनन्द-मोक्ष की प्राप्ति के लिये हम वन्दन करते हैं // 16 // Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 253 [उपजातिः] तमोदृशोदारपवित्रचित्र-चरित्रसन्त्रासितशत्रुवर्गम् / अनर्गलस्वर्गसुखापवर्ग-निसर्गसंसर्ग-समर्थमग्रयम् // 20 // सुरनुचिन्तामणिकामकुम्भस्वर्धेनुवर्गादधिकप्रभावम् / समुल्लसल्लब्धिसमृद्धिपूर्ण, सदा चिदानन्दमयस्वभावम् // 21 // जगद्गाप्यायककान्तिकान्तं, संसेवितोपान्त्यममर्त्यवृन्दैः / श्रीअश्वसेनान्वयपद्महस, श्रीपार्श्वनाथं प्रणिपत्य मूर्ना // 22 // अब तीन पद्यों के 'विशेषक' द्वारा प्रणति-निवेदन करते हैं ऐसे उपर्युक्त उदार, पवित्र एवं विस्मयकारी चरित्रों से शत्रुसमूह को भयभीत करनेवाले, बिना किसी रोक-टोंक के स्वर्गसुख तथा मोक्ष का स्वाभाविक संसर्ग करने में समर्थ, सर्वाग्रणी; कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, कामघट और कामधेनु के वर्ग से भी विशिष्ट प्रभावशाली, अनन्त लब्धिरूप समृद्धि से परिपूर्ण, सत्-चित्-आनन्दमय स्वभाववाले, जगत् के नेत्रों को शान्ति पहुँचानेवाली कान्ति से कान्त-मनोहर, निकटस्थ देवसमूह द्वारा संसेवित तथा श्रीअश्वसेन महाराज के वंशरूपी कमल को विकसित करने के लिये हंस-सूर्य के समान भगवान् श्री पार्श्वनाथ को मस्तक झुकाकर प्रणाम करके मैं 'यशोविजय'-प्रस्तुत / पत्रकाव्य की रचना करता हूँ ] // 20-21-22 // Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] दीवबन्दरनगरवर्णनपूर्वकं-विज्ञप्तियोजनात्मको द्वितीयो भागः] . . [दीव-बन्दर नगरवर्णन सहित विज्ञप्तियोजनात्मक दूसरा भाग] (अनुष्टुप् छन्द) चिरकालगुरूपान्ते परिशिक्षितलक्षणः। उच्च?षादिवाम्भोधिलक्ष्यते घर्घरस्वरः // 1 // नगर-वर्णन [जिस दीव बन्दरगाह में] समुद्र ऐसा लगता है कि मानो चिरकाल से गुरुवर [गच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्रीविजयप्रभसूरिजी) के निकट रहकर अध्ययन के लक्षणों [उच्चैरध्ययनम्, आदि] को वह सीख चुका हो और उसी शिक्षण के अनुसार अहर्निश अध्ययन में तत्पर रहते हुए शिष्य के समान ऊँचे स्वर से पढ़ने के कारण घर्घर स्वरवाला बन गया हो / / 1 / / प्रसह्य जगृहुर्देवा रत्नान्यब्धेरसौ ततः। तद्भिक्षां याचते यत्र विततोमिकरः किमु // 2 // अथवा वह समुद्र--'देवतानों ने बलपूर्वक मेरे रत्नों को ग्रहण कर लिया है. उन्हें मुझे वापस दिला दीजिये [ऐसी भावना से गुरुदेव के समक्ष] अपने तरंगरूपी हाथों को फैलाकर भीख मांग रहा है क्या ? // 2 // दृष्ट्वा क्षुभ्यति यत्राब्धिर्घटप्रतिभटस्तनीः / शङ्कमान इव स्वस्य घटोदुभवपराभवम् // 3 // जहाँ [दीव बन्दर में] समुद्र वहाँ की रहनेवाली घट के समान विशाल स्तनोंवाली सुन्दरियों को देखकर घट से उत्पन्न अगस्त्य मुनि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 255 द्वारा पान करके क्षार बना देनेरूप पराभव का स्मरण करके'कहीं फिर से इन घटस्तनियों के गर्भ से उत्पन्न बालक मुझे पराभूत न कर दें' ऐसी शङ्का करते हुए क्षोभ-दुःख को प्राप्त होता है // 3 // नार्यो हारेषु रत्नानि दधते चाधरे सुधाम् / यद्गताः स्वपदं सिन्धुः किमित्यावेष्ट्य तिष्ठति // 4 // ___ जहाँ (दोवबन्दर में) स्त्रियाँ कण्ठगत हारों में रत्नों को और अधरों में सुधा को धारण करती हैं। (इस प्रकार रत्न एवं सुधा के निकल जाने पर भी मेरे कुछ चिह्न शेष हैं) यही सोचकर क्या समुद्र उसको आवेष्टित किये हुए हैं ? // 4 // अब्धिसङ्गतया शुभ्रभासा स्फटिकवेश्मनाम् / सदैव लक्ष्यते यत्र गङ्गासागरसङ्गमः // 5 // जहाँ (दीवबन्दर में) स्फटिक के बने हुए मकानों की श्वेतकान्ति की समुद्र के जल के साथ सङ्गति होने से सदा ही गङ्गा और सागर का सङ्गम प्रतीत होता है // 5 // अप्येकमिन्दुमुवीक्ष्य स्यादब्धेरुत्तरङ्गता। नारीमुखेन्दुकोटीभिर्यत्र सा वचनाऽतिगा // 6 // [संसार में यह प्रसिद्ध है कि] एक चन्द्रमा को देखने से समुद्र में भरती आ जाती है किन्तु यहाँ (दीव बन्दर में) तो स्त्रियों के अनेक मुखचन्द्र विद्यमान हैं अतः उन सबको देखकर समुद्र में कितना ज्वार आता होगा? यह कहना कठिन है / / 6 // नानेन महता सार्द्ध स्पर्धा युक्तेति चिन्तयन् / यस्मै किमधिरागत्य ददौ दुहितरं निजाम् // 7 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] . यही कारण है कि यह दीवबन्दर अपने अनेक गुणों के कारण मुझसे भी महान् है अतः इस महान् के साथ स्पर्धा करना उचित नहीं है / यह सोचकर ही समुद्र ने इस दीवबन्दर को अपनी कन्या (लक्ष्मीधन-दौलत) दे डाली है क्या ? // 7 // यत्र भान्ति गरीयांसः प्रासादाः पर्वता इव / शृङ्गाग्रसञ्चरन्मेधघटाघटिनविस्मयाः॥८॥ जिस दीवबन्दर में शिखरों के ऊपर चलते हुए मेघों की घटाओं से विस्मय उत्पन्न करनेवाले पर्वतों के समान बड़े-बड़े महल शोभित हो रहे हैं // 8 // चैत्यस्फटिकभित्तीनां शुभ्रः प्रसृमरैः करैः / वर्द्धमानेक्ष्यते यत्र तिथिष्वेकैव पूरिणमा // 6 // जिस दीवबन्दर में जिनचैत्यों की स्फटिक-भित्तियों पर उज्ज्वल और चिकनी निर्मल किरणों के पड़ने से पूर्णिमा तिथि के बिना ही प्रतिदिन एक पूर्णिमा तिथि ही बढ़ती हुई दिखाई देती है // 6 // दृष्ट्वा स्वर्णघटान् यत्र चैत्यचूलावलम्बिनः / मन्यन्ते स्वःस्त्रियो मुग्धाः 'शतसूर्य नभस्तलम् // 10 // जिस दीवबन्दर में चैत्यों के ऊपर रखे हुए स्वर्णकलशों को देख कर भोली स्वर्गवासिनी सुन्दरियाँ आकाश को सैंकड़ों सूर्यवाला मानती हैं। __(इस पद्य में 'शतसूर्य नभस्तलम्' इस प्रसिद्ध समस्या की पूर्ति की गई है।) // 10 // Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 257 यत्प्रासादोच्चदेशेषु प्रच्छन्नस्वप्रियाधिया। * प्राश्लिष्यन्ति सुराः स्नेहविशालाः शालभञ्जिकाः // 11 // जिस दीवबन्दर के भवनों के ऊपर अति स्नेहासक्त देवगण अपनी प्रियतमात्रों को छिपी हुई जानकर शालभजिका(पुत्तलिका)ों का आलिङ्गन करते हैं / / 11 // ‘भान्ति यत्र स्त्रियः श्रोणि-नवलम्बितमेखलाः। दृश्यन्ते जातुनो दोषानवलम्बितमे खलाः // 12 // जिस दीवबन्दर में रहनेवाली स्त्रियाँ अपने कटि-प्रदेश में लटकती हुई नवीन मेखलाओं से शोभित होती हैं किन्तु दोषों का सर्वथा अवलम्बन करनेवाले खल-दुष्टजन कहीं नहीं दिखाई देते हैं। (यहाँ से 14 वें पद्य तक परिसंख्या' और यमक नामक अलङ्कार है) // 12 // दधते सुधियो लोका न यत्रासारसाहसम् / कुर्वते धुसदां दीना न यत्रासारसाहसम् // 13 // और जहाँ विद्वज्जन किसी सारहीन वस्तु की उपलब्धि के लिये साहस-प्रयास नहीं रखते हैं. अर्थात् बुद्धिपूर्वक विचार करके ही सारपूर्ण कार्य में प्रवृत्त होते हैं। तथा जहाँ सामान्य व्यन्तरादि देव व्यर्थ का उपद्रव नहीं करते हैं // 13 // यत्र व्ययो दिनस्यासीन्न वेत्यरुचिराजितः। यद्वने स्वर्जनो नासीन्नवेत्यरुचिरानितः // 14 / जहाँ दिन का व्यय रुचिपूर्ण कार्यों से होता था अथवा दिवस की . परिणति भी अरुचिकर नहीं होती थी क्योंकि रात्रि में भी उतनी ही रुचि बनी रहती थी। इसी प्रकार जहाँ के वनों में मनुष्य तो क्या Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] देवता भी बड़ी प्रसन्नता से निवास करते थे अथवा कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ देवमूर्तियाँ शोभित नहीं थीं // 14 // [शार्दूलविक्रीडित] तत्र त्रस्तकुरङ्गशावकदृशां नेत्राञ्चलैः पूरितस्मेराम्भोरुहतोरणस्पृहगृह-स्वेच्छापरे गरैः। शोभाशालिनि सज्जनाहतलसच्छार्दूलविक्रीडित क्रीडासज्जकविप्रपञ्चितगुरणे श्रीद्वीपसद्वन्दिरे // 15 // - वहाँ भयभीत हरिणशिशुओं के समान नेत्रोंवाली रमणियों के कटाक्ष से पूर्ण खिले हुए कमलों के तोरणों से स्पृहा करनेवाले भवनों में स्वेच्छापरायण नागरिकों से शोभाशाली, सज्जनों द्वारा पाहत, सिंह जैसे पराक्रम से शोभित, क्रीड़ा में तत्पर.कवियों द्वारा विस्तारपूर्वक वरिणत गुणवाले उस दीवबन्दर नामक नगर में- (मैं विज्ञप्ति भेज रहा हूँ यहाँ 22 वें पद्य से यह क्रिया सम्बद्ध है) // 15 / / [अनुष्टुप् छन्द भ्रमसंरम्भभृद्यानपात्रोपममुपाश्रयम् / समुद्रव्यवधि केतुमिवेष्टस्य बिति यत् // 16 // जो कि समुद्र में अन्तहित इष्ट की पताका के समान भ्रम के आडम्बर को धारण करनेवाले जहाज के समान उपाश्रय को धारण करता हैं / / 16 // संरक्ष्यन्ते स्वरेणैव यत्र लोकाः कलिप्रियाः। ऋषिस्थानमिदं मुख्यमित्येवाहुविशारदाः / / 17 / / जहाँ अधिक घनी बस्ती होने के कारण जो स्वर-शब्द होता रहता Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 256 है उससे लोग ऐसा समझते हैं कि यहाँ के लोग कलि-प्रिय कलह करनेवाले हैं किन्तु वस्तुतः वे ऐसे नहीं हैं क्योंकि वे तो स्वाध्याय आदि करते हुए उच्चस्वर से बोलते हैं। अतः विद्वान् लोग तो यही कहते हैं कि यह ऋषि-स्थान=मुनियों की आवासभूमि है // 17 // स्पर्धानुबन्धतो यत्र मल्लयुद्धविधित्सया। प्राह्वयन्ति सुरावासानुत्पताकाकरा गृहाः // 18 // जिस नगर में ऊँचे-ऊँचे भवन अपने पताकारूप हाथों से देवताओं के स्वर्गस्थ भवनों को स्पर्धापूर्वक उनसे मल्लयुद्ध कुश्ती करने के लिये बुलाते हैं // 18 // त्रिलोकोलोकसन्त्रासहरणायेव निर्मिताः / .. यत्र चैत्यमयी भाति व्यक्तरत्नत्रयीमयी // 16 // . जिस नगर में ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप तीनों रत्नोंवाली चैत्यत्रयी=(तोन जैनमन्दिर) शोभित होती है जो कि ऐसी प्रतीत होती है मानों तीनों जगत् के लोगों के भय को दूर करने के लिये बनाई गई हो // 16 // विज्ञप्तियोजना तस्मात् सिद्धपुरद्रङ्गाद्रामासङ्गोल्लसज्जनात् / प्रानन्दकन्दलोद्भेद-लसद्रोमाञ्चकञ्चुकः // 20 // स्नेह-विस्मेरनयनो भक्तिसम्भ्रमभासुरः / विनयादिगुणव्यासोल्लसत्सम्बन्धबन्धुरः // 21 // तरणिप्रमितावर्तेरावतैरभिवन्द्य च। विज्ञप्ति कुरुते व्यक्तां नयादिविजयः शिशुः // 22 // धनी लोगों से शोभित उस सिद्धपुर नगर से आनन्दरूपी कन्द की Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] अंकुररूप रोमराजि से शोभित, प्रेम से प्रफुल्लित नेत्रवाला, भक्ति के आवेग से देदीप्यमान और विनयादि गुणों के विस्तार के उल्लास से युक्त, जिस प्रकार सूर्य भूमण्डल की परिक्रमा करता है उसके समान प्रदक्षिणाक्रम से सर्वतोभावेन वन्दना करके यह पूज्य 'नयविजय' जी का शिष्य विज्ञप्ति को प्रकट करता है / 20-21-22 / / यथाकृत्यमिह प्राच्य-शैल-चूलावलम्बिनि / भानौ भगवतीसूत्र-स्वाध्यायार्थ-विवेचने // 23 // हे गुरुदेव ! यहां उदयाचल के शिखर पर सूर्य के प्राजाने पर श्रीभगवतीसूत्र का स्वाध्याय तथा उसके अर्थादि का विवेचन (विस्तारपूर्वक प्रतिपादन) होता है अर्थात् प्रतिदिन प्रातःकाल श्रीभगवतीसूत्र का व्याख्यान होता है // 23 // प्रस्तुताध्ययनग्रन्थाध्यापनाद्येककर्मणि। . प्रवर्तमाने सम्प्राप्तं पर्व पर्युषणाभिधम् // 24 // इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थों के अध्ययन एवं अध्यापन में प्रवृत्त रहते हुए पर्युषण-पर्व आ गया है // 24 // तत्रापि पटहोद्घोषः पापध्वंसपुरस्सरम् / दिनेषु पञ्चसु श्रीमत्कल्पसूत्रस्य वाचनम् // 25 / / मासार्द्धमासमुख्यानां तपसां पारदर्शनम् / षद्विषादिकसङ्ख्यानां महाधीरनिदर्शनम् / / 26 / / सार्धामक-जनानाञ्च वात्सल्यकरणं मिथः। दीनानाथादिवर्गस्य वाञ्छाधिकसमर्पणम् // 27 // Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 261 ___ एवमादि स्फुरद्धर्मकृत्यस्फातिमशिश्रियत् / * श्रूयते च जिनेन्द्राणां श्रीपूज्यानाञ्च भक्तितः // 28 // और इसी-पर्युषणा पर्व में पापनाशपूर्वक पटह का उद्घोष करके पाँच दिनों में 'श्रीकल्पसूत्र' की वाचना हुई है तथा मासिक, पाक्षिक आदि मुख्य तपस्याएँ पूर्ण हुई हैं। छठ, दो आठम आदि तपस्याओं में बड़ी धीरता दिखलाई है / सार्मिक बन्धुओं का परस्पर स्वामिवात्सल्य हमा, दीनों अनाथों को इच्छा से भी अधिक दान दिया गया। इस प्रकार प्रमुख शोभायमान धर्मकृत्य बहुत हुआ है, जो श्रीजिनेश्वर भगवान् और आप श्रीपूज्य के चरणों की भक्ति के प्रभाव का ही परिणाम है // 25-26-27-28 // [गुरुवन्दना-महिमवर्णनात्मकस्तृतीयो भागः] . [गुरुवन्दना और महिमा वर्णनात्मक तीसरा भाग] यः सूत्रसिन्धुशीतांशुरुत्सूत्राम्भोधिकुम्भभूः। वन्दामहे वयं तस्य चरणाम्भोजयामलम् // 1 // तथा जो 'सूत्र' रूपी समुद्र को उल्लसित करने के लिये चन्द्रमा के समान हैं और उत्सूत्ररूपी समुद्र का गर्व हरण करने के लिये अगस्त्य मुनि के समान हैं ऐसे गुरुदेव के दोनों चरणों की हम वन्दना करते हैं // 1 // उत्सूत्राम्भोनिधौ यस्योपदेशो वडवानलः / __षत्रिंशद्गुणपत्रिंशद गुणाढ्यं तं गुरु श्रये // 2 // उत्सूत्ररूप समुद्र के लिये जिन (गुरुदेव) के उपदेश वडवानल के Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] समान हैं और जो छत्तीस गुणरूप होते हुए भी छत्तीस. गुणों से युक्त . हैं ऐसे गुरु की मैं शरण प्राप्त करता हूँ॥२॥ .. सूत्रारामसुधावृष्टिर्देशना यस्य पेशला। उत्सूत्राम्भोधिकल्पान्तवातोमि तं गुरुं श्रये // 3 // . सूत्ररूपी उद्यान को हराभरा रखने के लिये जिसकी देशना अमृतवृष्टि के समान है तथा उत्सूत्ररूपी समुद्र में हलचल लाने के लिये जो प्रलयकालीन वायुलहरी के समान हैं उन गुरुदेव की मैं शरण प्राप्त करता हूँ // 3 // उत्सूत्राब्धिगतां लङ्कां मिथ्यामतिमुवोष यः। गुरुर्दाशरथिः क्लेश-पाशच्छेदाय सोऽस्तु वः // 4 // उत्सूत्ररूपी समुद्र में स्थित मिथ्या-मतिरूप लङ्का पर आक्रमण कर दिया है ऐसे दाशरथि–रामरूप वे गुरुदेव हमारे क्लेशपाश का छेदन करनेवाले हों // 4 // क्षारं मत्वा वचश्चित्रमुत्सूत्राम्भोनिधेः पयः / उपेक्षते स्म यः साक्षात्स एव गुरुरस्ति नः // 5 // जो उत्सूत्ररूप समुद्र के वचनों के युक्तिरूप पानी को खारा मान कर उनकी उपेक्षा करते हैं वे हमारे साक्षात् गुरुदेव हैं / / 5 // नोजितं गजितं मेने वल्गु वा वीचिवल्गनम् / उत्सूत्राम्भोनिधेर्येन स गुरुर्जगतोऽधिकः // 6 // . जिनकी उपस्थिति रहने के कारण उत्सूत्रानुयायो-रूपी मेघ ऊँचे स्वर से गरज नहीं पाये और न उत्सूत्ररूपी समुद्र में ही कोई विशाल ज्वार पा सका वे ही गुरु जगत् में सबसे महान् हैं // 6 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 263 यत्सूत्र-कुलिशच्छिन्नपक्षाः कुमतपर्वताः / उत्सूत्राम्भोनिधौ पेतुर्गुरुरिन्द्रः स वः श्रिये // 7 // जिनके सूत्ररूपी वज्र से कुमतरूपी पर्वत अपने पक्ष एवं पंखों के कट जाने पर उत्सूत्ररूपी समुद्र में जाकर गिर गये हैं ऐसे इन्द्ररूप गुरुदेव आपके कल्याण के लिये हैं / / 7 // उत्सूत्राब्धि-पतज्जन्तु-जाताभ्युद्धरणक्षमा। देशना नौरभूद्यस्य तं गुरुं समुपास्महे // 8 // उत्सूत्ररूपं समुद्र में गिरते हुए प्राणिमात्र का उद्धार करने में समर्थ जिनकी देशना नौकारूप बनी हुई है, उन गुरुदेव की हम उपासना करते हैं // 8 // सिद्धान्तनोंति-जाह्नव्यां यो हंस इव खेलति / गुरौ दोषा न लक्ष्यन्ते तत्र खे लतिका इव // 6 // सिद्धान्त नीतिरूप गंगा में जो हंस के समान विचरण करते हैं ऐसे गुरुदेव में आकाश में जिस प्रकार लता नहीं दिखाई देती उसी प्रकार कोई भी दोष नहीं दिखाई देते हैं // 6 // सूत्रस्थितिमनो यस्य जागुलीवाधितिष्ठति / पराभवितुमेनं न प्रभवन्ति रिपूरगाः // 10 // जिनका मन सूत्रस्थिति के कारण जांगुलि=विषवैद्य के समान ' स्थित है यही कारण है कि उनको परास्त करने में शत्रुरूपी सर्प समर्थ नहीं हो पाते हैं // 10 // वान्तमोहविषस्वान्त-कान्तशान्तरसस्थितिः। हताघध्वान्तसिद्धान्त-नीतिभृज्जयताद गुरुः // 11 // Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] - अपने अन्तर के मोहरूपी विष का जिसने वमन कर दिया है और वहीं मनोहर शान्तरस की स्थिति बनी हुई है। ऐसे पापरूप अन्धकार से रहित अर्थात् तेजोमय सिद्धान्तनीति को धारण करनेवाले गुरुदेव की जय हो // 11 // न्यायारामसुधाकुल्याः कुनीतिविपिनप्लुषः। . . देशनाः क्लेशनाशाय सद्गुरोर्गुणशालिनः // 12 // . जिन गुणशाली गुरुदेव की देशना न्यायरूपी उद्यान के लिये अमृत की नहर के समान तथा कुनीतिरूपी विपिन को जला देने वाली है वे हमारे क्लेशों का नाश करें // 12 // ब्रह्माण्डभाण्डे तेजोऽग्नि-तप्ते यस्य यशःपयः। उत्फेनायितमेतस्य बुबुदास्तारका बभुः // 13 / / तेजोमय अग्नि से तपे हुए ब्रह्माण्ड-पात्र में जिनका यशरूपी दूध उफन गया और उसी के जो बबूले बने वे ही प्राकाश में तारकों के रूप में जगमगाने लगे अर्थात् वें गुरुदेव नक्षत्रमाला के समान सर्वत्र भासित हैं // 13 // कर्तुं कः शुक्नुयाद् यस्योकेशवंशस्य वर्णनम् / समुद्रवदमुद्रश्रीरगाधः श्रूयते च यः॥१४॥ जो 'समुद्र के समान अनन्तश्री हैं और अगाध हैं; अर्थात् जिनके गुणों की गणना नहीं की जा सकती, ऐसी जिनकी प्रसिद्धि है उनके ऊकेश (ोश) वंश का वर्णन कौन कर सकता है ? // 14 // योऽतिस्वच्छस्य गच्छस्य महापदमशिश्रियत्। प्रदृष्टशुभसन्तान-प्रथमानमहोभरः // 15 // Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 265 सौभाग्यवश उत्तम शिष्यों के विस्तृत तेजोभार से युक्त होने के कारण जो गुरुदेव अतिस्वच्छ गच्छ के महान् पद पर विराजमान हैं अर्थात् तपागच्छ के अधिपति हैं / / 15 // लक्ष्यन्ते कुशलोदर्का यस्य स्वान्तमनोरथाः। गिरामपीह सम्पर्कास्तर्का एंव न साक्षिरणः // 16 // वाणी से सम्पर्क रखनेवाले तर्क ही साक्षी नहीं हैं कि-वे गुरुदेव हमारा कल्याण करते हैं अपितु उनकी हार्दिक-भावना भी कुशलपरिणाम देनेवाली है / / 16 // .. यत्सुदर्शनभृत्ख्याते - रसेनानुमिमीमहे / कलिपाथोधिमग्नाया उद्दिधीर्षा भुवो ध्रुवम् // 17 // जिनके उत्तम दर्शन-सम्यग्दर्शन स्याद्वाद की मृत्तिका से युक्त खात-सरोवर में भरे हुए जल से ही हम अनुमान करते हैं कि निश्चय ही उनकी इच्छा कलिरूपी समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने की है // 17 // रत्नानीव पयोराशेवियतस्तारका इव / गणनायां समायान्ति गुणा यस्य न कहिचित् // 18 // - जिस प्रकार समुद्र के रत्नों की और आकाश के तारकों की गणना नहीं की जा सकती उसी प्रकार उन गुरुदेव के गुणों की गणना भी कभी नहीं की जा सकती // 18 // हृदयं ज्ञानगम्भीरं वपुर्लावण्य-पावनम् / गजितेनोजिता वाणी यस्य किं विस्मयाय न // 16 // जिनका हृदय ज्ञान की अधिकता से गम्भीर बना हुआ है, शरीर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] अपने लावण्य से पवित्र है तथा वाणी मेघ की गर्जना के समान प्रभाव.शाली है उनकी अन्य कौन-सी ऐसी बात है कि जो आश्चर्यकारी न हो ? // 16 // युक्तरूपमिदं यस्मिन् ज्ञानाद्वैतावलम्बिनि। .. ख्यातिस्फातिमनिर्वाच्यां गाहन्ते निखिला गुणाः // 20 // ज्ञान के सम्बन्ध में अद्वैत का आलम्बन रखनेवाले जिन गुरुदेव में समस्त गुण उचित अनिर्वचनीय ख्याति की विस्तृति में लीन हो जाते हैं, यह उचित ही है // 10 // यस्य ध्यानानुरूप्येण ध्येयता विदुषामभूत् / व्यक्ता सेयं समापत्तिः पातञ्जलमताश्रिता // 21 // जिस गुरु के ध्यान की अनुरूपता से विद्वानों की 'ध्येयता' हुई वही महर्षि पतञ्जलि के मत से 'समापत्ति' है // 21 // यस्याप्रतिहतेच्छस्य क्षमाकर्तृत्वहेतुतः / ईश्वरत्वं न करिष्टं योगवैशेषिकैरिव // 22 // योग और वैशेषिक दर्शनों के अनुयायी जैसे ईश्वर को अप्रतिहत इच्छावाला तथा क्षमा आदि के कर्तृत्वरूप का कारण मानते हैं उसी तरह गुरुदेव की इच्छा अप्रतिहत होने से तथा निरन्तर क्षमाशील होने से उनके ईश्वरत्व को कौन स्वीकार नहीं करता? अपितु सभी स्वीकार करते हैं // 22 // यन्मनोवैभवं ब्रूते मीमांसामांसलो न कः / स्वतन्त्रां प्रकृति यस्य सांख्यः को नाभिमन्यते // 23 // मीमांसक मन के वैभव को स्वीकार करते हैं तो ऐसा कौनसा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 267 मीमांसक होगा जो गुरुदेव के मनोवैभव को स्वीकार न करेगा? और गुरुदेव की स्वतन्त्र प्रकृति होने से जैसे सांख्यवादी प्रकृति को स्वतन्त्र मानते हैं वैसे ही उन्हें कौन सांख्यवादी नहीं मानता ? अर्थात् गुरुदेव मीमांसा-दर्शन एवं सांख्यदर्शन के मूर्तिमान रूप हैं // 23 // इत्थं षड्दर्शनाराम-प्रसरत्कोतिसौरभः / यः प्रतापप्रथाशाली शोभते स्फारगौरवः // 24 // इस प्रकार ( अद्वैत वेदान्त, पतञ्जलि प्रतिपादित योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और सांख्य रूपी) छः दर्शनों के बगीचे में फैलती हुई कीर्तिरूप सुगन्ध से जो गुरु युक्त हैं। और जो अपने प्रताप के विस्तार से युक्त परम गौरवशाली हैं वे शोभायमान हो रहे हैं / / 24 // . [उपजाति] अमूहशाचार्य-समूहवर्यहर्यक्षचर्या-विहितानुवादैः / सदाऽवधार्या हृदि सुप्रसादः, श्रीपूज्यपादैः प्रगतिस्त्रिसन्ध्यम् // 25 // इस प्रकार प्राचार्यों के समूह में श्रेष्ठ, सिंह के समान पराक्रमी श्रीपूज्य चरणों से मेरी विनम्न प्रार्थना है कि आप प्रसन्नता पूर्वक मेरी त्रिकालवन्दना स्वीकार करें // 25 // [विज्ञप्त्युपसंहारात्मकश्चतुर्थो भागः] [विज्ञप्ति का उपसंहारात्मक चौथा भाग] तथा यत्रवाचकविनीतविजया विधृतमहागच्छभारविनियोगाः। * वर्द्धमानरसविबुधाः, . प्रत्यग्रसपर्यया वर्याः // 1 / / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] . जसविजयाख्या विबुधा, अमरविजयसंज्ञकास्तथा विबुधाः। / रामविजय-बुधयुगली, परेऽपि ये पूज्यपदभक्ताः // 2 // साध्वीवर्गश्च तथा प्रमुखः शमरसंपटूकृतस्वान्तः। .. क्रमशः प्रमोदनीये नत्यनुनती तेषु सर्वेषु // 3 // महान् गच्छ के कार्य के भार को सँभालने वाले श्री विनीतविजय उपाध्यायजी और श्रीरतिवर्धन गरिण जी जो नवीन सपर्या-पूजा से श्रेष्ठ हैं उन्हें तथा.. पण्डित यशोविजय (जसविजय), पण्डित अमर विजय और पण्डित रामविजय (युगल) आदि अन्य जो भी श्रीचरणों के भक्त हैं तथा प्रमुख गुरु सहित साध्वी समूदाय जो शम-रूपी रस से अपने हृदय को निर्मल किये हुए हैं उन सब को क्रम से यथायोग्य मेरी वन्दना अनुवन्दना विदित करें॥ 1-2-3 / / अत्र [आर्या छन्द] जसविजयाख्या विबुधाः, सत्यविजयसंज्ञकास्तथा गरणयः। . भीमविजयाख्यगरणयो, हर्षविजयसंजका गणयः // 4 // चन्द्रविजयाख्यगरणयस्तत्त्वविजयसंज्ञकास्तथा गणयः / लक्ष्मीविजया गणयो, वृद्धिविजयसंज्ञका गणयः॥५॥ चन्द्रविजयाख्यगरणयः, पूज्यपदानुपनमन्ति भावेन / प्रणमति सङ्घोऽप्यखिलस्तदेतदखिलं हृदि निधेयम् // 6 // स्खलितमिहाज्ञानभवं होतव्ये ज्ञानपावके दीप्ते। ज्ञानाद्वैतनयदृशां प्रतिभात्यखिलं जगद्ज्ञानम् // 7 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 266 और यहां से पण्डित जसविजयजी, सत्यविजयजी गरिण, भीमदेवजी गणि, हर्ष विजयजी गणि, हेमविजयजी गरिण, लक्ष्मीविजयजी गणि, वृद्धिविजय जी गरिण तथा चन्द्रविजयजी गणि आप के पूज्य श्री चरणों को भावपूर्वक वन्दन करते हैं और सभी को प्रणाम करते हैं। अतः यह सब आप अपने हृदय में (हमारा) स्मरण बनाये रखें। ___ यहाँ. हम (मुझ) से प्रज्ञान के कारण उत्पन्न यदि कोई स्खलना उत्पन्न हुई हो, तो उसका आप अपनी प्रदीप्त ज्ञानरूपी अग्नि में हवन कर दें, क्योंकि ज्ञान में अद्वैतनय -एक नय दृष्टिवालों को सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान दिखलाई देता है / / 7 / / ज्ञानक्रियासमुल्लसदनुभवदीपोत्सवाय भवतु सदा। श्रीपूज्यचरणभक्त्या लिखितो दीपोत्सवे लेखः // 8 // - आप श्रीपूज्यों के चरणों की भक्तिपूर्वक "दीपावली के पर्व पर लिखा गया यह लेख ज्ञान और क्रिया से उल्लसित होता हुआ अनुभवरूपी दीप के उत्सब पूर्णप्रकाश के लिये हो // 8 // [अनुष्टुप्] हृद्यस्तात्कालिकः पद्यः स्तवः परिणतो ह्ययम् / . साक्ष्येव केवलं तस्मिन् ज्ञानात्माऽस्मीति मङ्गलम् // 6 // यह तात्कालिक अर्थात् अनायास निर्मित पद्यों से स्तोत्र की रचना हुई है। इसमें केवल मेरा ज्ञानात्मा ही साक्षी है ऐसा मैं मानता हूँ। यह मङ्गलकारी हो // 6 // . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] [प्रावश्यक टिप्पणी] प्रस्तुत 'विज्ञप्ति-काव्य' में कतिपय विशिष्ट बातों का उल्लेख हुया है, उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है (1) दीव-बन्दर-परिचय-यह नगर सौराष्ट्र (गुजरात) में ऊना, अजारा, देलवाड़ा, कोडीनार आदि नगरों के परिसर में समुद्र के निकट स्थित है। यह अतिप्राचीन नगर है तथा इसका वर्णन 'बृहत् . कल्पसूत्र' में भी प्राप्त होता है। इसका प्राचीन नाम 'द्वीप-पत्तन' था, उसी का अपभ्रंश नाम 'दीव' हो गया है। चारों ओर समुद्र और उसके बीच इसकी स्थिति होने से यह द्वीप कहलाता था। ___ मुनि सुव्रत स्वामी के शासन में अयोध्या नगरी के शासक इक्ष्वाकुवंशी 'अनरण्य' राजा हुए हैं, जिनका अपरनाम 'अजयपाल' था। इस राजा को एक समय पूर्वभव की आशातना के उदय से शरीर में कोढ़ (कुष्ट) आदि अनेक रोग हो गए थे। इसलिए ग्लानिवश वह अपने राज्य को छोड़कर श्रीसिद्धगिरि आदि तीर्थों की यात्रा के लिए निकल गया। वहाँ से घूमते-घूमते वह यहाँ द्वीप-पत्तन आया और यहीं अपना राज्य बनाकर निवास करने लगा। इतने में रत्नसार नामक एक व्यापारी इस मार्ग से अपने व्यापार के लिए जहाज लेकर परदेश की अोर जा रहा था। द्वीपबन्दर आने पर उसके जहाज में उपद्रव होने लगे, रत्नसार खिन्न हो गया और प्रभु-प्रार्थना की। तब अधिष्ठायक देव ने कहा कि 'यहाँ कल्पवृक्ष के सम्पुट में श्रीपार्श्वनाथ भगवान् का बिम्ब है, उसे ले जाकर अजयपाल राजा को अर्पित करो। उन भगवान के स्नात्रजल से उसके सभी रोग नष्ट हो जाएगें।' रत्नसार ने वैसा ही किया और प्रभु के स्नात्रजल से अजयपाल के रोग नष्ट हुए। . महाराजा कुमारपाल द्वारा यहाँ आदीश्वर भगवान् का भव्य मन्दिर बँधवाने का भी इतिहास में उल्लेख मिलता है / यहाँ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 271 वि० सं० 1651 में पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीहीरसागरसूरीश्वरजी ने चातुर्मास-वास किया था और यहीं पू० उपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज के गुरुमहाराज श्रीविजयप्रभ सूरीश्वरजी ने भी अपने शिष्य-प्रशिष्यों के साथ चातुर्मास किया था और उसी समय यह विज्ञप्ति प्रेषित की गई थी। (2) चैत्यत्रयी-परिचय-इस दीवबन्दर में 'नवलखा पार्श्वनाथ' का जिन मन्दिर प्रधान है तथा पास ही श्रीनेमिनाथजी और श्रीशान्तिनाथजी के दो मन्दिर हैं। सम्भवतः इन्हीं तीन मन्दिरों को लक्ष्य करके उपाध्यायजी महाराज ने चैत्यत्रयी का (द्वितीय भाग के १९वें पद्य में) वर्णन किया है। यहाँ मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ जी की प्रतिमाजी भव्य तथा रमणीय है। श्रीनवलखा पाश्र्वनाथजी को प्राचीन काल में नौ लाख का हार तथा नौ लाख का ही मुकूट धारण कराया जाता था, इसी किंवदन्ती के आधार पर उक्त नाम प्रसिद्ध हुआ है। (3) तस्मात् सिद्धपुरात्-(पद्य सं० 20), इस पद्य में 'तस्मात्' पद से सिद्धपुर का पूर्ववर्ती पद्यों में वर्णन किया हो, ऐसा आभास होता है, किन्तु उपलब्ध पूर्वपद्यों में ऐसा कोई वर्णन किया हो, यह प्रतीत नहीं होता / अतः या तो वे पद्य नष्ट हो गए हों अथवा तात्कालिक-पद्य रचना करने के कारण प्रसङ्ग छूट गया होगा ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यह 'सिद्धपुर' ऊँझा के पास गुजरात में है। (4) नयादिविजयः शिशुः--यह प्रसिद्ध है कि पूज्य उपाध्यायजी के गरुदेव उपाध्याय श्री नयविजयजी अथवा विनयविजयजी महाराज थे और उन्हीं के साथ वे 12 वर्ष तक वाराणसी में अध्ययनार्थ रहे थे। अतः 'उनका शिष्य' यह भाव व्यक्त करने के लिये उपयुक्त पंक्ति लिखी गई है। किन्तु अर्थ की दृष्टि से यह पंक्ति ठीक नहीं लगती। अतः प्रथम तो यही कारण प्रतीत होता है कि शीघ्र रचनावश यह भूल रह गई हो अथवा यहाँ 'नयादेविजयः शिशुः' ऐसा पाठ रहा होगा। इससे 'नयादेः=गुरोः शिशुः विजयः यशोविजयः' ऐसा अर्थ हो जाता है। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] (5) गुरुवर श्री विजयप्रभसूरीश्वरजी-ये पूज्य श्रीविजयहोरसूरीश्वरजी के पट्ट प्रभावक श्रीविजयसेन सरि, श्री विजयदेव सरि और श्री विजयसिंह सूरि के प्रदृप्रभावक थे। “जैन गूर्जरकाव्यसञ्चय" के अन्तर्गत विमलविजयजी द्वारा रचित श्री विजयप्रभसूरीश्वरजी के निर्माण की सज्झाय के अनुसार ज्ञात होता है कि, इनका जन्म वि० सं० 1677 को माध शुक्ल 11 एकादशी के दिन हुआ था। इनकी जन्मभूमि कच्छ (सौराष्ट्र) में मनोहरपुर थी। ये ऊकेश (ोश) वंश में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता और माता का नाम श्रेष्ठिवर्य शिवगणजी और श्रीमती भारणी देवी था। __नौ वर्ष की आयु में सं० 1686 में श्रीविजयदेव सूरिजी से आपने दीक्षा प्राप्त की थी। उस समय आपका नाम 'वीरविजय' रखा गया था / सं० 1701 में पन्यासपद तथा सं० 1710 में,वैशाख शुक्ला दशमी को गान्धार नगर में सूरिपद प्राप्त हुआ था और उस समय 'श्रीविजय प्रभ सूरि' नाम से प्रसिद्ध हुए। नतनाकिनिकायनरप्रमदं, प्रमदप्रकरप्रसरन्महिमम् / महिमण्डलमण्डनमात्महितं. महितं जगता महताऽसुमता // 1 // इत्थं 'श्रीविजयप्रभ-सूरीश्वर'-सिद्धिदो जिनो जीयात् / देवक-पत्तनवासी, स्तुतो मया सुधनवृद्धिकरः // इत्यादि रूप में आपके द्वारा तोटक छन्द में रचित 'श्रीदेवपत्तननिवासि-जिनस्तवन', (७पद्यात्मक) प्राप्त होता है / इसके अतिरिक्त आपकी कोई अन्य रचना उपलब्ध नहीं है किन्तु उपाध्यायजी महाराज द्वारा लिखित स्तुतिगीति एवं उपर्युक्त स्तवन के रचना-सौष्ठव से आपके षट्दर्शन-वैदुष्य एवं काव्यकला-निपुणता का परिचय प्राप्त / होता है। -: 0 : Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची सूची के सम्बन्ध में ज्ञातव्य ___ प्रस्तुत सूची पूर्व प्रकाशित सभी सूचियों के संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन के पश्चात् यथासम्भव परिपूर्ण रूप में सावधानी पूर्वक व्यवस्थित रूप से प्रकाशित की जा रही है / इसमें बहुत से ग्रन्थ नए भी जोड़े गए हैं। . - इसमें ग्रन्थों के अन्तर्गत आए हुए छोटे-बड़े वादों को प्रस्तुत नहीं किया गया है / यहाँ प्रस्तुत ग्रन्थों के नामों में कुछ ग्रन्थों के नाम उनकी हस्तलिखित प्रतियों पर अंकित नामान्तर से भी देखने में आए हैं। अतः उपाध्यायजी महाराज के नाम पर अनुचित ढंग से अंकित कृतियों के नाम यहां नहीं दिए गए हैं। कुछ कृतियाँ ऐसी भी हैं.जो इन्हीं की हैं अथवा नहीं ? इस सम्बन्ध में अभी तक निर्णय नहीं हो पाया है, उनके नाम भी यहां सम्मिलित नहीं किए गए हैं / तथा अद्यावधि अज्ञातरूप में स्थित कुछ कृतियाँ अपने ही ज्ञान-भण्डारों के सूचीपत्रों में अन्य रचयिताओं के नाम पर चढ़ी हुई हैं। इसी प्रकार कुछ कृतियाँ ऐसी हैं जिनके आदि और अन्त में उपाध्याय जी के नाम का उल्लेख नहीं होने से वे अनामी के रूप में ही उल्लिखित हैं, उनके बारे में भविष्य में ज्ञात होना सम्भव है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] संकेत चिह्न-बोध प्रस्तुत सूची में कुछ संकेत चिह्नों का प्रयोग किया गया है, जिनमें * ऐसा पुष्प चिह्न अनूदित कृतियों का सूचक है। * x पुष्प एवं (कास) गुणन-चिह्न ऐसे दोनों प्रकार के चिह्न अनूदित होने के साथ ही अपूर्ण तथा खण्डित कृतियों के लिए प्रयुक्त ___+ ऐसा धन चिह्न स्वयं उपाध्याय जी महाराज के अपने ही हाथ से लिखे गए प्रथमादर्शरूप ग्रन्थों का परिचायक है। (?) ऐसा प्रश्नवाचक चिह्न यह कृति उपाध्याय जी द्वारा ही . रचित है अथवा नहीं ? इस प्रकार की शंका को अभिव्यक्त करता है। संस्कृत-प्राकृत भाषा के उपलब्ध ग्रन्थ 1 अज्जप्पमयपरिक्खा उवएसरहस्स (उपदेश(अध्यात्ममतपरीक्षा) रहस्य) स्वोपज्ञटीका सहित स्वोपज्ञटीका सहित +2 अध्यात्मसार +10 ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका 3 अध्यात्मोपनिषद् स्वोपज्ञटीका सहित 4 अनेकान्त[मत]व्यवस्था +11 कूवदिठ्ठन्तविंशईकरण [अपरनाम-जैनतर्क] (कूपदृष्टान्तविशदीकरण) +5 अस्पृशद्गतिवाद स्वोपज्ञटीका सहित [अपरनाम-प्राध्यात्मिकमत- 12 गुरुतत्तविरिणच्छय खण्डन स्वोपज्ञटीका सहित (गुरुतत्त्वविनिश्चय) +6 आत्मख्याति* स्वोपज्ञटीका सहित +7 आराधकविराधकचतुभंगी 13 जइलक्खरणसमुच्चय) [स्वोपज्ञटीका सहित] __(यतिलक्षरण-समुच्चय) +8 आर्षभीयचरित्र महा- 14 जैन तर्कभाषा काव्य-x 15 ज्ञानबिन्दु Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 275 16 ज्ञानसार +35 मार्गपरिशुद्धि 17 ज्ञानार्णव 36 यतिदिनचर्या (?). स्वोपज्ञटीका सहित +37 वादमाला +18 चक्षप्राप्यकारितावाद +38 वादमाला द्वितीय x +16 तिङन्वयोक्ति-x +36 वादमाला तृतीय .x . 20 देवधर्मपरीक्षा +40 विजयप्रभसूरिक्षामरणक२१ द्वात्रिंशद्वात्रिशिका विज्ञप्तिपत्र स्वोपज्ञटीका सहित 41 विजयप्रभसूरिस्वाध्याय 22 धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) +42 विजयोल्लासकाव्य X*.. (स्वोपज्ञटीका) +43 विषयतावाद 23 नयप्रदीप 44 वैराग्यकल्पलता +24 नयरहस्य +45 वैराग्यरतिx 25 नयोपदेश 46 सामायारीपयरण (सामा· स्वोपज्ञटीका सहित चारीप्रकरण) , +26 न्यायखण्डनखाद्य टीका स्वोपज्ञटीका सहित . [स्वकृत 'महावीरस्तव' मूल 47 सिद्धसहस्रनामकोशx पर निमित] . 48 स्तोत्रावली+२७ न्यायालोक -आदिजिनस्तोत्र +28 निशाभक्तदुष्टत्वविचार- . -शमीनाभिधपार्श्वनाथस्तोत्र प्रकरण [का. सं.६) +26 परमज्योतिः पञ्चविंशतिका --वाराणसीपाश्वनाथस्तोत्र 30 परमात्मपञ्चविंशतिका [का. सं. 21] 31 प्रतिमाशतक -शङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र स्वोपज्ञटीका सहित [का. सं. 33] 32 प्रतिमास्थापनन्याय -शर्केश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र +33 प्रमेयमाला + [का. सं. 98] +34 भासारहस्स (भाषारहस्य) -गोडीपार्श्वनाथस्तोत्र . स्वोपज्ञटीका सहित [का. सं. 108] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] -महावीरप्रभुस्तोत्र -शङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र [का. सं. 113] -वीरस्तव -समाधिसाम्यद्वात्रिंशिका -स्तुतिगीति तथा पत्रकाव्य पूर्वाचार्यकृत संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों पर उपलब्ध टीका तथा भाषा ग्रन्थ श्वेताम्बर ग्रन्थों पर टीकाएँ . . 7 शास्त्रवार्तासमुच्चय को 'स्या+१ उत्पादादिसिद्धिप्रकरण की वाद्रकल्पलता' टीका टीकाx 8 षोडशक की टीका +2 कम्मपयडि (कर्मप्रकृति) की स्याद्वादमञ्जरी को टोका(?). बृहत्टीका 3 कम्मपयडि लघुटीका दिगम्बर ग्रन्थों पर टीका [प्रारम्भमात्र प्राप्त . +4 तत्त्वार्थसूत्र की टीका +1 अष्टसाहस्री की टोका. प्रथमाध्याय मात्र उपलब्ध] जैनेतर ग्रन्थों पर टीकाएँ / +5 जोगविहारण वीसिया (योग- - विशिका की टीका) +1 काव्यप्रकाश की टीका.x +6 वीतरागस्तोत्र-अष्टम प्रका- +2 न्यायसिद्धान्तमञ्जरी श की 'स्यादवाद-रहस्य शब्दखण्ड की टीका नामक तीन टीकाएँ. +३पातञ्जलयोगदर्शन की [X जघन्य, मध्यम, टीका +उत्कृष्ट] अन्यकर्तृक-लभ्य संशोधित ग्रन्थ 1. धर्मसंग्रह [स्वकीय टिप्पणी सहित] 2. उवएसमाला-उपदेशमाला बालावबोध Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 277 सम्पादित-ग्रन्थ द्वादशारनयचक्रोद्धार टीका आलेखनादि स्वकृत संस्कृत और प्राकृत के अलभ्य ग्रन्थ तथा टीकाएँ 1 अध्यात्मबिन्दु 10 द्रव्यालोक 2 अध्यात्मोपदेश स्वोपज्ञटीका सहित 3 अनेकान्त(वाद)प्रवेश 11 न्यायबिन्दु (?) 4 अलङ्कारचूडामरिण की टीका 12 न्यायवादार्थ [हैमकाव्यानुशासन की स्वो- 13 प्रमारहस्य पज्ञ 'अलंकारचूडामणि' 14 मङ्गलवाद १५वादरहस्य टीका पर की गई टीका] 16 वादार्णव 5 पालोकहेतुतावाद . 17 विधिवाद 6 छन्दश्चूड़ामारण काटाका 18 वेदान्तनिर्णय हैमछन्दोनुशासन की स्वो- 16 वेदान्तविवेकसर्वस्व पज्ञ 'छन्दश्चूडामरिण' की 20 शठप्रकरण टीका पर की गई टीका] 21 सिरिपुज्जलेह 7 ज्ञानसार प्रवरिण * (श्रीपूज्यलेख) 8 तत्वालोकविवरण 22 सप्तभङ्गोतरङ्गिणी 6 त्रिसूत्र्यालोकविवरण 23 सिद्धान्ततर्कपरिष्कार. इनके अतिरिक्त [हारिभद्रीय-] 16 विशिकाओं पर की गई 16 टीकाएँ तथा अन्त में 'रहस्य' शब्द-पद से अलंकृत अनेक प्रकरण ग्रन्थ और अन्य उल्लिखित 'चित्ररूपप्रकाश' 'ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद' आदि छोटी-बड़ी कृतियाँ। इसी प्रकार बहुत सी कृतियां अप्राप्य भी हो गई हैं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] गुजराती, हिन्दी और मिश्रभाषा में उपलब्ध कृतियाँ 1 अगियार भंग सज्झाय 16 जैसलमेर के दो पत्र 2 अगियार गरगधर नमस्कार 417 ज्ञानसार बालावबोध ३.अढार पापस्थानक सज्झायरे X18 तत्त्वार्थाधिगमस्तोत्र, बाला*४ अध्यात्ममत परीक्षा बाला- बोध वबोध X16 तेर काठिया निबन्ध (?) 5 अमृतवेलीनी सज्झायो (दो). 20 दिक्पट चोरासी बोल . 46 आदेशपट्टक . 21 द्रव्यगुण पर्याय रास स्वो७ अानन्दघन अष्टपदी पज्ञ टबार्थ सहित . ८पाठ दृष्टिनी सज्झाय . 22 नवपदपूजा (श्रीपालरास के ह एक सौ आठ बोल संग्रह अन्तर्गत) x10 कायस्थिति स्तवन 23 नवनिधान स्तवनो 11 चड्या पड्यानी सज्झाय 12 चौबीसीसो (तीन), पिद्य सं. 24 नयरहस्यर्गाभत सीमन्धर . स्वामी की विनतिरूप स्त३३६) 13 जस विलास (आध्यात्मिक . वन, स्तबक सहित पद) [पद्य सं० 242] [प० सं० 125] +14 जम्बूस्वामी रास 25 निश्चयव्यवहारगर्भित [पद्य सं० 664) शान्तिजिनस्तवत 15 जिनप्रतिमा स्थापननी [प० सं० 48] सज्झाय (तीन) 27 नेमराजुल गीत 1. इन गूर्जर कृतियों का अधिकांश भाग ‘गूर्जर साहित्य संग्रह' भाग-१, 2 .. में मुद्रित हो चुका है। 2. सज्झाय शब्द मूलतः स्वाध्याय का प्राकृत रूप है। x यह चिह्न अप्रकाशित कृतियों का सूचक है। + यह चिह्न उपलब्ध संस्कृत सूची में अनुल्लिखित कृतियों का सूचक है क्योंकि ये ग्रन्थांश रूप में ही प्राप्त हैं / Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 276 28 पंचपरमेष्ठी गीता 42 समुद्र-वहारण संवाद [प० सं० 131] X43 संयमरिण विचार सज्झाय 26 पंचगणधर भास स्वोपज्ञ टबार्थ सहित * 30 प्रतिक्रमरणहेतुगर्भ सज्झाय 44 सम्यक्त्वना सड़सठ बोलनी 31 पंचनियंठि (पंच निर्ग्रन्थ सज्झाय [प० सं 65] . संग्रह) बालावबोध 45 सम्यक्त्व चौपाई, अपरनाम 32 पांच कुगुरु सज्झाय षट्स्थानक स्वाध्याय 33 पिस्तालीश पागम सज्झाय स्वोपज्ञ टीका सहित 34 ब्रह्मगीता 46 साधु-वन्दना रास 35 मौन एकादशी स्तवन [प० सं 108] 36 यतिधर्म बत्रीसी 47 साम्यशतक (समताशतक) X37 विचार बिन्दु 48 स्थापनाचार्यकल्प सज्झाय [धर्मपरीक्षा का वार्तिक] 46 सिद्धसहस्रनाम छन्द 38 विहारमान जिनविशतिका [प० सं० 21] _ [प० सं० 123] . 50 सिद्धान्तविचारगर्भित सीम३६ वीरस्तुतिरूप हुंडी का स्तवन धरजिन स्तवन स्वोपज्ञ बालावबोध सहित . स्वोपज्ञ टबार्थ सहित [प० सं० 150] [पद्य० सं० 350] 40 श्रीपालरास (केवल उत्त- 51 सुगुरु सज्झाय . रार्ध) . 52 तर्कसंग्रह बालावबोध 41 समाधिशतक (तन्त्र) : / अन्यकर्तृक ग्रन्थों के अनुवाद रूप में - गुर्जर भाषा को अप्राप्य कृतियाँ 1 आनन्दघन बावीशी-बालावबोध 2 अपभ्रंश प्रबन्ध (?) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ साहित्य-कलारत्न, मुनि श्री यशोविजयजी महाराज के साहित्य एवं कला-लक्षी कार्यों की सूची [पू० मुनि श्री यशोविजयजी महाराज (इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक तथा संयोजक) ने श्रुतसाहित्य तथा जैनकला के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सेवा की है। हिन्दी-साहित्य का पाठक-वर्ग भी प्रापकी कृतियों से परिचित हो, इस दृष्टि से यहाँ निम्नलिखित सूची प्रस्तुत की जा रही है। -सम्पादक) (1) स्वरचित एवं सम्पादित कृतियाँ १-'सुयश जिन स्तवनावली (सं० 1961) २-चन्द्रसूर्यमण्डल कणिका निरूपण (सं० 1962) ३-बृहत्संग्रहणी (संग्रहणीरत्न) चित्रावली (65 चित्र) (सं० 1968) ४-पांच परिशिष्ट3 (सं० 2000) ५-भगवान् श्रीमहावीर के 15 चित्रों का परिचय, स्वयं मुनिजी के हाथों से चित्रित (सं० 2015) ६-उपाध्यायजी महाराज द्वारा स्वहस्तलिखित एवं अन्य प्रतियों के आद्य तथा अन्तिम पृष्ठों की 50 प्रतिकृतियों का सम्पूट (पालबम्-चित्राधार) (सं० 2017) ७-आगमरत्न पिस्तालीशी (गुजराती पद्य) (सं० 2023) 1. इस कृति की अब तक आठ प्रावृत्तियाँ छप चुकी हैं। आठवी आवृत्ति वि. सं. 2000 में छपी थी। 2. इसमें से नौ गुजराती और एक हिन्दी स्तवन 'मोहन-माला' में दिये हैं। इसके अतिरिक्त इसमें मुनिजी द्वारा रचित गहुँली को भी स्थान दिया गया है। 3. ये परिशिष्ट बृहत्संग्रहणी सानुवाद प्रकाशित हुई है उससे सम्बन्धित हैं / Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ روم می -तीर्थकर भगवान श्रीमहावीर ग्रन्थ के 35 चित्रों का तीन भाषाओं में परिचय, 12 परिशिष्ट तथा 105 प्रतीक एवं 40 रेखा पट्टिकाओं का परिचय] (सं० 2028) (2) अनूदित कृतियाँ १-बृहत्संग्रहणी सूत्र, यन्त्र, कोष्ठक तथा 65 रंग-बिरंगे स्वनिर्मित चित्रों से युक्त (सं० 1965) २-बृहत्संग्रहणो सूत्रनी गाथाश्रो, गाथार्थ सहित (सं० 1965) / ३-सुजसवेली भास, महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ (सं० 2006) (3) संशोधित तथा सम्पादित कृतियाँ १-नव्वाणु योत्रानी विधि (सं० 2000) / २-यात्म-कल्याण माला (चैत्यवन्दन, थोय, सज्झाय, ढालियाँ आदि का विपुल संग्रह (ग्रा. 2. सं० 2007) ३-सज्झायो तथा ढालियाँ (सं० 2007) ४-श्रीपौषध विधि (आ. 4, सं० 2008) ५-जिनेन्द्र स्तवादि गुणगुम्फित मोहनमाला' (प्रा० 4, सं.२००६) *६-सुजस वेली भास (सं० 2006) ७-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, प्रति के आकार में कतिपय . उपयोगी विशेषताओं के साथ (सं० 2010) . ८-ऋषिमण्डल स्तोत्र (लघु और वृहत्) 16 पृष्ठात्मक तथा 102 पाठ-भेदों के सहित का संशोधन, 32 पृष्ठात्मक की दो आवृत्तियाँ, (सं. 2012, 2017 तथा 2023) ६-यशोविजय-स्मृतिग्रन्थ (सं० 2013) १०-ऐन्द्रस्तुति सटीक (सं. 2018) ११-यशोदोहन (सं० 2022) . (4) संयोजित और सम्पादित कृतियाँ १-यक्ष-यक्षिणी चित्रावली (24 यक्ष और 24 यक्षिणियों के जय१. इसकी द्वितीय आवृत्ति सं. 1981 में प्रकाशित करवाई गई थी। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] ___पुरी शैली में चित्रित एकरंगी चित्र) (सं० 2018) ... २-संवच्छरी प्रतिक्रमणनी सरल विधि, अनेक चित्रसहित (प्रासन और मुद्रानों से सम्बन्धित 32 चित्रों के साथ) (सं० 2028) तथा 40 चित्रों के साथ (सं० 2026)' ३-प्रतिक्रमण चित्रावली) केवल चित्र तथा उनके परिचय सहित सं० 2028) (5) संशोधित कृतियाँ १-जगदुद्धारक भगवान् महावीर (सं० 2020) २-नवतत्त्व दीपिका (सं० 2022) ३-नमस्कार-मन्त्रसिद्धि (सं० 2023) ४-भक्ताभर-रहस्य (सं. 2027) ५-ऋषिमण्डल आराधना (सं. 2028) (6) प्रेरित कृतियां , १-षट्त्रिंशिका चतुष्कप्रकरण (सं. 1960) 2- नवतत्त्व-प्रकरणम् सुमङ्गलाटीकासहितम् (सं. 1960) ३-धर्मबोध ग्रन्थमाला (सं. 2008) ४-जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास; भाग 1-2-3 (सं० 2013, 2025 तथा 2026) ५-यशोदोहन (सं. 2022) - (7) निम्नलिखित कृतियों की प्रस्तावनाएँ १-बृहत्संग्रहणी भाषान्तर (सं. 1666) २-भुवनविहार-दर्पण (सं. 2017) ३-जगदुद्धारक भगवान् महावीर ४-नमस्कार-मन्त्र सिद्धि ५-जैन संस्कृतसाहित्यनो इतिहास भाग 1-2-3 .. 1. इस कृति का हिन्दी अनुवाद भी तैयार है जो शोघ्र ही प्रकाशित होगा। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [283 . ६-यशोदोहन .. (सं. 2022) ७-उवसग्गहरं स्तोत्र याने जैनमन्त्रवादनी जयगाथा (सं. 2025) ८-ऋषिमण्डल आराधना 8-समाधिमरणनी चाबी (सं. 2024) १०-संगीत, नृत्य अने माट्य सम्बन्धी जैन उल्लेखो अने ग्रन्थो (सं. 2026) ११-ऋषिमण्डलस्तोत्र (सं. 2012) १२-ऐन्द्रस्तुति (सं. 2010) १३-वैराग्यरतिः' (सं. 2025) - इनके अतिरिक्त मुनिजी ने 'खेमो देदराणी, संगीतसुधा, जैन तपावलि और तपोविधि, जैनदर्शन संग्रह स्थानपरिचय, यक्षयक्षिणीचित्रावली, अमृतधारा, नवतत्त्व-दीपिका, अमर उपाध्याय जी, प्रगटयों प्रेमप्रकाश इत्यादि लघु पुस्तकों पर छोटे तथा आवश्यकतानुसार प्राक्कथन अथवा प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं। . (8) अप्रकाशित कृतियां १-पाणिनीय 'धातुकोष' (सम्पूर्ण रूप तथा आवश्यक टिप्पणी सहित) .. २-पाणिनीय 'उणादिकोष' (धातुं, गण, सूत्र, प्रत्यय, व्युत्पत्ति, - 1. लिङ्ग और फलित शब्द उनके हिन्दी, अंग्रेजी एवं गुजराती पर्याय सहित) ३-सिद्धचक्रबृहद्यन्त्रोद्धारपूजनविधि (विविध चित्रसंहित) ४-ऋषिमण्डलयन्त्र पूजनविधि . (विविध चित्रसहित) ५-हारिभद्रीय कतिपय विशिकाओं का भाषान्तर 1. इसमें उपाध्यायजी की स्वहस्तलिखित तथा अन्य प्रतियों के प्राद्य एवं - अन्तिम पत्रों की 50 प्रति कृतियों के पालम्बन की सं. 2017 में प्रकाशित प्रस्तावना को स्थान दिया गया है ; . . . Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] / ६-ऋषिमण्डल स्तोत्र (मूल, अर्थ तथा आवश्यक चित्रों के साथ) ७-अढार अभिषेक विधि (e) विचाराधीन कृतियाँ १-पारिभाषिक शब्द-ज्ञान कोश, जैनधर्म से सम्बन्धित निम्नलिखित कोश चित्र सहित.१-आगमशब्दकोश (पंचांगी) २-आचारशब्दकोश ३-प्रतिक्रमणसूत्र शब्दकोश ४-द्रव्यानुयोगशब्दकोश ५-भूगोल, खगोल, ऐतिहासिक जैन राजा, मन्त्री आदि से सम्बद्ध परिचय कोश ६-कथाकोश (व्यक्ति के नाम तथा उसकी अतिसंक्षिप्त प्रामाणिक कथा) ७-विधि अनुष्ठान-कोश इस प्रकार विविध पद्धति के सात भागों में कोश तैयार कराने की योजना विचाधीन है। २-भारत की अनेक भाषा तथा विदेश की मुख्य भाषाओं में जैन धर्म के मुख्य-मुख्य विषयों से सम्बद्ध 50 से 100 पृष्ठों के बीच आकारवाली पृथक्-पृथक् पुस्तकें तैयार कराना आदि / प्रेस कापियाँ न्यायाचार्य श्रीयशोविजयजी गणी विरचित निम्नलिखित कृतियों की प्रेस कापियाँ तैयार करवाई हैं* १-आत्मख्याति (माध्यम नव्यन्याय-दार्शनिक कृति) *२-प्रमेयमाला * ३-विषयतावाद * ४-वीतरागस्तोत्र (अष्टम प्रकाश)-बृहद् वृत्ति () * 5- , ( , )-मध्यम वृत्ति (,) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [285 6. . ., ( , )-जघन्य वृत्ति (..) . * ७-वादमाला' (नव्यन्याय-दार्शनिक) •८-वादमाला ( , , ) ६-चक्षुरप्राप्यकारितावाद (पद्यमय) * १०-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी (शब्दखण्ड टीका) ११-तिङन्वयोक्ति (व्याकरण) १२-२काव्य प्रकाश (द्वितीय तथा तृतीय उल्लास) १३-सिद्धसहस्रनामकोश (पर्यायवाचक नाम) १४-पार्षभीयचरित्र (महाकाव्य) १५-विजयोल्लास काव्य १६-कूपदृष्टान्तविशदीकरण (धर्मशास्त्र) १७-यतिदिनचर्या (आचारशास्त्र) १८-३विजयप्रभसूरिक्षामणकपत्र (पत्रकाव्य) ४१६-स्तोत्रावली (हिन्दी अनुवादसहित) २०-एक सौ आठ बोध संग्रह २१-तेर काठिया निबन्ध २२-कायस्थिति स्तवन ढालियावालु २३-विचारबिन्दु (धर्मपरीक्षा का वार्तिक) 1. * इस चिह्न वाली कृतियाँ संशोधनपूर्वक मुद्रित हो चुकी हैं। 2. यह कृति हिन्दी अनुवाद, विस्तृत भूमिका एवं अन्य आवश्यक टिप्पणियों के साथ शीघ्र प्रकाशित हो रही है। 3. यह काव्य हिन्दी अनुवाद सहित 'स्तोत्रावली'-प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित 4. इस ग्रन्थ का गुजराती भाषान्तर के साथ प्रकाशन भी शीघ्र ही करने की ... सम्भावना है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] २४-आदि अने अन्तभाग (उपाध्याय जी के समस्त ग्रन्थों का अनु वाद सहित) इसके अतिरिक्त न्यायाचार्य के जीवन-कवन के सम्बन्ध में तथा अन्य अनेक कृतियों के अनुवाद और उनके बालावबोध-टब्बाओं के प्रकाशन की योजना भी प्रस्तुत मुनिराज ने बनाई है। आपके प्रकाशित एवं अप्रकाशित लेखों की सूची भी पर्याप्त विस्तृत है। ___ कलामय कार्यों की सूची (पूज्य मुनि श्री यशोविजय जी महाराज कला के क्षेत्र में भी नैसगिक अभिरुचि रखते हैं तथा उसके बारे में गम्भीर लाक्षणिक सूझ रखते हैं फलतः वे कला के क्षेत्र में भी कुछ न कुछ अभिनव-सर्जन करते ही रहते हैं / ऐसे सर्जन की संक्षिप्त जानकारी भी यहां पाठकों के परिचयार्थ दी जा रही है।) (सम्पादक) १-महाराज श्री के स्वहस्त से निर्मित बृहत्संग्रहणी ग्रन्थ (संग्रहणीरत्न) के प्रायः 40 चित्रं / जो कि एक कलर से लेकर चार कलर तक के हैं / ये छपे हुए तथा 'बृहत्संग्रहणी चित्रावली' की पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हैं / (सं. 1968) २-सुनहरे अक्षरों में लिखवाया हा वारसा-कल्पसूत्र / विविध पद्धति से लिखे हुए पत्र, विविध प्रकार की सर्वश्रेष्ठ बार्डर, चित्र और अन्य अनेक विविधतामों से युक्त है। (सं. 2023) ____3. रौप्याक्षरी प्रतियाँ-रुपहले अक्षरों में लिखाई हुई भव्य प्रतियाँ। ... . ४-बारसासूत्र (भगवान् श्रीमहावीर के जीवन से सम्बद्ध) के जयपुरी कलम में, पोथी के आकार में पत्रों पर मुनिजी ने अपनी कल्पना के अनुसार, विशिष्ट प्रकार की हेतुलक्षी, बौद्धिक बॉर्डरों से तैयार करवाए गए अत्यन्त आकर्षक, भव्य तथा मनोरम चित्र / ५-भगवान श्रीमहावीर के जीवन से सम्बद्ध 34 तथा एक श्री Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 287 गौतम स्वामी जी का इस प्रकार कुल 35 चित्रों का अपूर्व तथा बेजोड़ चित्र-सम्पुट / जिसमें चार रंग के, प्रायः '6-12' इंच की साइज में छपे हुए चित्र हैं / इनमें विविध हेतुलक्षी, अत्यन्त उपयोगी, बौद्धिक 40 बार्डर, जैन तथा भारतीय संस्कृति के-जैन कुंकुमपत्रिका तथा कार्डों में प्रयोग किया जा सके और नया-नया ज्ञान मिले ऐसे-उपयोगी 121 प्रतीक हैं / इन 35 चित्रों का परिचय हिन्दी, गुजराती तथा इंग्लिश तीन भाषाओं में दिया गया है। ___तथा इनके साथ ही 12 परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं, जिनमें भगवान् महावीर के जीवन का संक्षेप में विशाल परिचय दिया गया है। सभी रेखापट्टियों (बॉर्डर) और प्रतीकों का परिचय 28 पृष्ठों में वरिणत है। ____इन चित्रों की बाइण्डिंग की हुई पुस्तक जिस प्रकार तैयार की गई है वैसा ही खुले 35 चित्रों का पेकेट भी तैयार हुआ है। ६-विविध रंगों वाली डाक-टिकिटों से ही तैयार किए हुए भगवान् / श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीहेमचन्द्राचार्य जी के चित्र / ७-भरत काम (गूंथन) में सपरिकर भगवान् पार्श्वनाथ आदि। ८-रंगीन काँच पर सोने के पतरे द्वारा तैयार किया गया विविध आकृतियों का विशिष्ट संग्रह। ... ६-जम्बूद्वीप तथा अढ़ीद्वीप के स्केल के अनुसार ड्रेसिंग क्लाथ पर तैयार किए गए 5 फुट के नक्शे (सं. 2003) 10 मिरर (बिल्लोरी) काच-ग्लासवर्क में तैयार कराए हुए चित्र / ११-जैन साधु प्रातःकाल से रात्रि शयन तक क्या प्रवृत्तियाँ करते हैं ? इससे सम्बद्ध दिनचर्या के तैयार किए जा रहे रंगीन 35 चित्र। १२-प्रतिक्रमण और जिन-मन्दिर में होनेवाले विधि-अनुष्ठान आदि में उपयोगी, आसन-मुद्राओं से सम्बन्धित पहली बार ही तैयार Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] किया गया 42 चित्रों का संग्रह। (यह प्रदर्शन और प्रचार के लिए भी उपयोगी है।) १३-'पेपर कटिंग कला' पद्धति में पूर्णप्राय 'भगवान् श्रीमहावीर' के 30 जीवन प्रसंगों का कलासम्पुट / (यह सम्पुट भी भविष्य में मुद्रित होगा।) १४-इनके अतिरिक्त मुख्यरूप से भगवान् श्री आदिनाथ, श्री शान्तिनाथ, श्रीनेमिनाथ और श्री पार्श्वनाथ इन चार तीर्थङ्करों के (और साथ ही साथ अवशिष्ट सभी तीर्थङ्करों के जीवन-प्रसङ्गों के) नए चित्र चित्रित करने का कार्य (द्वितीय चित्रसम्पुट की तैयारी के लिए) तीन वर्ष से चल रहा है। लगभग 30 से 40 चित्रों में यह कार्य पूर्ण होगा / भगवान् श्रीपार्श्वनाथ का जीवन तो चित्रित हो चुका है तथा भगवान् श्री आदिनाथ जी का जीवन-चित्रण चल रहा है। यह दूसरा चित्र सम्पुट मुद्रण-कला की विशिष्ट-पद्धति से तैयार किया जाएगा। -भगवान् श्रीमहावीर के चित्रसम्पुट में कुछ प्रसंग शेष हैं वे भी तैयार किए जाएंगे अथवा तो पूरा महावीर-जीवन चित्रित करवाया जाएगा। १५-हाथी दांत, चन्दन, सुखड़, सीप, काष्ठ आदि के माध्यमों पर जिनमूर्तियाँ, गुरुमूर्तियाँ, यक्ष-यक्षिणी, देव-देवियों के कमल, बादाम डिब्बियाँ, काजू, इलायची, मुंगफली, मुंगफली के दाने, छुहारा, चावल के दाने तथा अन्य खाद्य पदार्थों के प्राकारों में तथा अन्य अनेक आकारों की वस्तुओं में पार्श्वनाथ जी, पद्मावती आदि देव-देवियों की प्रतिकृतियाँ बनाई गई हैं। तथा मुनिजी ने कला को प्रोत्साहन देने और जैन-समाज कला के प्रति अनुरागी बने इस दृष्टि से अनेक जैनों के घर ऐसी वस्तुएँ पहुँचाई भी हैं। इसके लिए बम्बई के कलाकारों को भी आपने तैयार किया है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक साधु, साध्वीजी, श्रावक और श्राविकाओं को मनोरम बादाम, कमल आदि Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [286 वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त हो सकती हैं। मुनि जी के पास इनका अच्छा संग्रह है। ___-बालकों के लिए भगवान् महावीर की सचित्र पुस्तक तैयार हो रही है। शिल्प-साहित्य १६-शिल्प-स्थापत्य में गहरी प्रीति और सूझ होने के कारण अपनी . स्वतन्त्र कल्पना द्वारा शास्त्रीयता को पूर्णरूपेण सुरक्षित रखते हुए, विविध प्रकार के अनेक मूर्तिशिल्प मुनिजी ने तैयार करवाए हैं, इन में कुछ तो ऐसे हैं कि जो जैन मूर्तिशिल्प के इतिहास में पहली बार ही तैयार हुए हैं। इन शिल्पों में जिन मूर्तियाँ, गुरुमूर्तियाँ, यक्षिणी तथा समोसरणरूप सिद्धचक्र आदि हैं। आज भी इस दिशा में कार्य चल रहा है तथा और भी अनूठे प्रकार के शिल्प तैयार होंगे, ऐसी सम्भावना है। ___ मुनिजी के शिल्पों को आधार मानकर अन्य मूर्ति-शिल्प गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के जैनमन्दिरों के लिए वहाँ के जैनसंघों ने तैयार करवाए हैं। पूज्य मुनिजी द्वारा विगत 16 वर्षों से प्रारम्भ की गई अनेक अभिनव प्रवृत्तियों, पद्धतियों और प्रणालियों का अनुकरण अनेक स्थानों पर अपनाया गया है जो कि मुनिजी की समाजोपयोगी दृष्टि के प्रति आभारी है। . प्रचार के क्षेत्र में जैन भक्ति-साहित्य के प्रचार की दिशा में 'जैन संस्कृति कलाकेन्द्र' संस्था ने पू० मुनि श्री की प्रेरणा से नवकार-मन्त्र तथा चार शरण की प्रार्थना, स्तवन, सज्झाय, पद आदि की छह रेकर्ड तैयार करवाई हैं। अब भगवान् श्रीमहावीर के भक्तिगीतों से सम्बन्धित एल. पी. रेकर्ड तैयार हो रही है और भगवान् श्री महावीर के 35 चित्रों की स्लाइड भी तैयार हो रही है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] ___ भगवान् श्रीमहावीर देव की २५००वों निर्वाण शताब्दी के निमित्त से जैनों के घरों में जैनत्व टिका रहे, एतदर्थ प्रेरणात्मक, गृहोपयोगी, धार्मिक तथा दर्शनीय सामग्री तैयार हो, ऐसी अनेक व्यक्तियों की तैयार इच्छा होने से इस दिशा में भी वे प्रयत्नशील हैं। धार्मिक यन्त्र-सामग्री मुनिजी ने श्रेष्ठ और सुदृढ पद्धति पूर्वक उत्तम प्रकार के संशोधित सिद्धचक्र तथा ऋषिमण्डल-यन्त्रों की विरंगी, एकरंगी मुद्रित प्रतियाँ सेनेवालों की शक्ति और सुविधा को ध्यान में रखकर विविध आकारों में विविध रूप में तैयार करवाई हैं तथा जैनसंघ को आराधना की सुन्दर और मनोऽनुकूल कृतियाँ दी हैं / ये यन्त्र कागज पर, वस्त्र पर, ताम्र, एल्युमीनियम, सुवर्ण तथा चाँदी आदि धातुओं पर मीनाकारी से तैयार करवाए हैं / ये दोनों यन्त्र प्रायः तीस हजार की संख्या में तैयार हुए हैं। . पूज्य मुनिजी के पास अन्य अर्वाचीन कला-संग्रह के साथ ही विशिष्ट प्रकार का प्राचीन संग्रह भी है। ___इस संग्रह को दर्शकगण देखकर प्रेरणा प्राप्त करें ऐसे एक संग्रहालय (म्यूजियम) की नितान्त आवश्यकता है। जैनसंघ इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक सक्रियता से विचार करे यह अत्यावश्यक हो गया है / दानवीर, ट्रस्ट आदि इस दिशा में आगे आएँ, यही कामना हैं। प्रकाशन समिति Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sଦ