________________ 40 ] * पशु-पक्षियों में प्रत्येक के गर्जन, तर्जन और कलरवों में भी उसी पर मात्मा के प्रति की जानेवाली अनिर्वचनीय स्तुति का आभास मिलता है / अतः यह कहा जा सकता है कि 'सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही स्तुति-स्तोत्र का आविर्भाव हुआ है, यह निर्विवाद है। स्तोत्र की परिभाषा विश्व के समस्त धर्मों का सर्वोत्तम तथा प्राथमिक साहित्य स्तोत्ररूप में ही प्राप्त होता है / ऐसे साहित्य का पर्यालोचन करने से विदित होता है कि-'इष्ट देव के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन अथवा आत्म-निवेदन का ही नाम स्तोत्र' है / तथापि विद्वानों की तुष्टि के लिए विचार करते हैं तो 'ष्टुञ्-' धातु से 'त्र' प्रत्यय होने पर 'स्तोत्र' और 'क्तिन्-ति' प्रत्यय होने पर स्तुति शब्द बनता है / इनका अर्थ है स्तुति अर्थात् 'स्तोतव्य देवता के प्रशंसनीय गुणों के सम्बन्ध में कथन ही स्तुति अथवा स्तोत्र कहलाता है। 'जैमिनीय-न्यायमाला' में 'स्तोतव्याया देवतायाः स्तावकैर्गुणैः सम्बन्धकीर्तनं स्तोति-शंसति-धात्वोर्वाच्योर्थः' कहकर इसे स्पष्ट किया गया है। स्तोत्र शब्द से यह सहज ही व्यक्त होता है कि 'यह स्तुति के लिए रचित काव्य है। अपने इष्टदेव के गुणानुवाद और अपनी आन्तरिक अभिलाषा का स्तोत्र में उसके रचयिता साक्षात्कार कराते हैं तथा ऐसे स्तोत्र भक्त की भक्तिभावना की उच्चता अथवा विशिष्टता का आभास कराते हैं। लौकिक धारणा के अनुसार 'कतिपय अतिशयोक्तियों को माध्यम बनाकर की गई प्रशंसा ही स्तोत्र है' यह कहना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि शास्त्रकारों की आज्ञा है कि 'परमात्मा की केवल स्तुति की अपेक्षा उसमें उसकी महती शक्तियों और गुणों का चिन्तन करना चाहिए। ऐसे चिन्तन से मानव को अपने अवगुणों और असमर्थतांत्रों का ज्ञान होता है तथा वह अपनी विकास-साधना में तत्पर होता है।' पूर्वमीमांसा के अर्थवाद प्रामाण्याधिकरण में व्याख्याकार वेदान्ता