________________ [ 36 जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी'' सभी गुरु-प्राप्ति के पश्चात् एकमात्र अशरण-शरण, अकारण-करुणा-करण-परायण परमात्मा की शरण में पहुँचते हैं। ___ शरण में पहुँचने की भावना के साथ ही उपर्युक्त स्थितियों में से किसी भी स्थिति का व्यक्ति सोचता है कि-'मुझे क्या कहना चाहिए, किस प्रकार कहना चाहिए ?' क्यों कि जो सांसारिक आश्रयदाता थे, उनको तो 'पापा मामा, काका, माता' आदि कह कर आत्मीयता प्राप्त कर लेता था किन्तु परमात्मा तो किसी एक का आश्रयदाता नहीं है, वह तो चराचर का पालक है और मुझ जैसे यहाँ एक-दो, चारछः ही नहीं, अपितु अनन्तानन्त जीव अपनी-अपनी समस्याएं लेकर उपस्थित हैं। सभी अपनी-अपनी वाणी में अनेकानेक प्रकार से प्रार्थनाएँ तया गुण-गान कर रहे हैं / अतः वह कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध हो जाता है किन्तु 'मांगे बिना माता भी दूध नहीं पिलाती' और 'बोलने से धूल भी बिक़ जाती है' यही सब सोचकर वह कुछ बोलता है और जैसे-जैसे वह अपनी पाशात्रों को अंकुरित होते देखता है वैसेवैसे उसकी वाणी विविध शृङ्गार सजने लगती है। . उस स्थिति में सुख की आशंसा, कृपा की कामना, अपेक्षित की प्रार्थना और उपेक्षणीय की निवृत्ति के लिए सोते-जागते, उठते-बैठते, हँसते-गाते तथा रोते-चीखले जो भी बोलता है, जैसे भी बोलता है वही 'स्तुति' बन जाती है / इस तरह अन्तस्तल ही स्तुति की उद्गमस्थली है और उसकी सहज ध्वनि के रूप में ही उसका आविर्भाव होता है। अचेतन प्रकृति के कार्य-कलापों में सरितानों का कल-कल, पत्तों का मर्मर, बादलों की गड़गड़, कन्दरामों की प्रति-ध्वनि तथा चेतन - 1. चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ! / आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ / / 7 // (गीता).