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________________ 38 ] स्वयं अपने शिष्य की पात्रता, योग्यता, दृढता और लक्ष्यकचक्षुष्कता का परीक्षण करके अपने सान्निध्य में साधना करवाते हैं, उससे नियत और अपेक्षित क्रिया का प्रत्यक्ष निर्देश प्रायोगिक रूप से मिलता रहता है। किन्तु लौकिक-क्रियानों से सङ्क्रान्त तथा यन्त्र की भांति परमुखापेक्षी आज के मानव के लिए यह सब सहज साध्य नहीं है, अतः स्थूल सङ्कतों का निर्देश मध्यम साधकों के लिए दिया गया है। इनमें बाह्य उपकरणों के द्वारा प्रभु-पूजा और स्तुति, प्रार्थना आदि का विशिष्ट स्थान है। पूजा में साधक अपनी शक्ति के अनुसार सञ्चित धन का व्यय करके पूजा-सामग्री लाता है और उसे भाव-भक्ति के साथ मन्त्रप्रार्थना-पूर्वक प्रभु को समर्पित करता है / तदनन्तर स्तुति-स्तोत्र द्वारा प्रभु की कृपा-प्राप्ति के लिए निवेदन करता है, यह एक सामान्य विधि है / इसी लिए स्तुति को आराधना का एक प्रमुख मानबिन्दु भी कहा जाता है, जो कि सभी दृष्टि से सत्य भी है / इसी सत्य की पुष्टि अन्य दृष्टि से भी हमें प्राप्त होती है और 'स्तोत्र-स्तुति की आवश्यकता' सहज सिद्ध हो जाती है। 'स्तुतियों का प्राविर्भाव मानव-जन्म में आया हुआ प्राणी पद-पद पर सङ्कटों का सामना करता है / कई बार वह प्रार्त होकर सहायक की खोज करता है, तो कई बार किसी ज्ञान-विशेष की उपलब्धि के लिए लालायित होता है। लौकिक घात-प्रतिघातो के कारण उमड़-उमड़ कर आनेवाले प्रभावों के बादल उसकी पार्श्वभूमि को घेर लेते हैं, उस समय की विडम्बना कुछ ओर ही होती है, यहाँ तक कि उन दिनों जो सहायक मिलते हैं वे भी 'अन्ध-बधिर-संयोग' के अतिरिक्त कुछ नहीं होते / 'एक बाँधता है तो हजार टूटती हैं' इस प्रकार प्रभावों की शृङ्खला कभी किसी दिन किसी भी प्रकार से व्यवस्थित नहीं हो पाती। अतः 'आर्त,
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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