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________________ 26 ] होती हैं कि, वे परमात्मा की स्थिति में पहुँचने की योग्यता रखती हैं।' ऐसी आत्माएँ जड़ अथवा चेतन का कुछ न कुछ निमित्त मिलने पर अपनी आत्मा का विकास करती जाती हैं। अन्य जन्मों की अपेक्षा मानवजन्मों में उस विकास की गति अति तीव्र होती है। उस समय इन आत्मानों में मैग्यादि भावनाओं का उद्गम होता है और उत्तरोत्तर इस भावना में प्रचण्ड वेग आता है तथा एक जन्म में इन की मैत्रीभावना पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। उनकी आत्माओं में सागर से भी विशाल मैत्रीभाव उत्पन्न होजाते हैं। 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये', के समान विश्व की समग्र आत्माओं को वे अात्मतुल्य मानते हैं / उनके सुखदुःख को स्वयं का ही सुख-दुःख मानते हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि-- जन्म-मरणादि के अनेक दुःखों से व्याकुल, दुःखी और अशरण-रूप इस संसार को मैं भोक्तव्य दुःखों से मुक्ति दिला कर सुख के मार्ग पर पहुँचाऊँ। ऐसी शक्तिबल मैं कब प्राप्त कर सकूँगा? ऐसी प्रान्तरदृष्टि होने पर सामान्य निर्भर से अनेक गुना अधिक प्रभावशाली तथा वायु से भी अधिक वेगशील प्रवहमान भावना का महास्रोत परमात्मदशा प्राप्त की जा सके ऐसी स्थिति निर्माण करता है। इस स्थिति का निर्माण करनेवाला जन्म इस परमात्मा होनेवाले भव से पूर्ववर्ती तीसरा भव होता है और बाद में तीसरे ही भव में, पूर्व के भवों में अहिंसा, सत्य, क्षमा, त्याग, तप, सेवा, देव-गुरुभक्ति, करुणा, दया, सरलता आदि गुणों 1- 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति' छान्दोग्यउपनिषद् का यह वाक्य समझ में न आये तो अनर्थकारक बन जाए इस दृष्टि से श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने उत्तरवाक्य सुधारकर 'सुखदुःखे०' पद रखकर निःसेन्देह बना दिया
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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