________________ [ 27 के द्वारा जो साधना की थी, उस साधना के फल-स्वरूप परमात्मा के रूप में अवतार लेते हैं। यह जन्म उनका चरम अर्थात् अन्तिम जन्म होता है / बे जन्म लेने के साथ ही अमुक कक्षा का (मति, श्रुत अवधि) विशिष्ट ज्ञान लेकर आते हैं / जिसके द्वारा मर्यादित प्रमाण की भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा-समझा जा सकता है। जन्म लेने के साथ ही देव-देवेन्द्रों के द्वारा पूजनीय बनते हैं / तदनन्तर धीरे-धीरे बड़े होते हैं। गृहस्थधर्म में होते हुए भी उनकी प्राध्यात्मिक साधना चालू रहती है / स्वयं को प्राप्त ज्ञान के द्वारा अपना भोगावली-कर्म शेष है, ऐसा ज्ञात हो तो उस कर्म को भोगवर क्षय करने के लिए लग्न करना स्वीकार करते हैं और जिन्हें ऐसी आवश्यकता न हो तो उसे अस्वीकृत कर आजन्म ब्रह्मचारी ही रहते हैं। इसके पश्चात् चारित्र, दीक्षा अथवा संयम के समक्ष आनेवाले चारित्रमोहनीय कर्म का क्षमोपशभ होने पर, अशरण जगत् को शरण देने, अनाथ जगत के नाथ बनने, विश्व का योग-क्षेम करने की शक्ति प्राप्त करने, यथायोग्य अवसर पर सावध (पाप) योग के प्रत्याख्यान तथा निरवध योग के प्रासेवन-स्वरूप चारित्र को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् परमात्मा सोचते हैं कि जन्म, जरा, मरण से पीड़ित तथा तत्प्रायोग्य अन्य अनेक दुःखों से सन्तप्त जगत् को यदि सच्चे सुख और शान्ति का मार्ग बताना हो, तो पहले स्वयं उस मार्ग को यथार्थरूप में जानना चाहिए। इसके लिए अपूर्ण नहीं में पितु सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जिसे शास्त्रीय शब्दों में केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञत्व कहते हैं / तथा ऐसा ज्ञान, अज्ञान और मोह के सर्वथा क्षय के बिना. प्रकट नहीं होता। अतः भगवान उसका क्षय करने के लिए अहिंसा, संयम और तप की साधना में उग्ररूप से लग जाते हैं। उत्कृष्ट कोटि के प्रतिनिर्मल संयम की आराधना, विपुल तथा अत्युग्र