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________________ 28] कोटि की तपश्चर्या को माध्यम बनाकर गांव-गांव, जंगल-जंगल और नगर-नगर में (प्रायः मौनावस्था में) विचरण करते हैं। इस बीच उनका मनोमन्थन चलता रहता है। विशिष्ट चिन्तन और गम्भीर आत्मसंशोधनपूर्वक क्षमा, समता आदि शस्त्रों से सुसज्जित होकर मोहनीय आदि कर्मराजाओं के साथ महायुद्ध में उतरते हैं तथा पूर्वसञ्चित अनेक संविलष्ट कर्मों को नष्ट करते जाते हैं। इस साधना के बीच चाहे जैसे उपसर्ग, आपत्तियाँ, संकट अथवा कठिनाइयाँ आएँ तो उनका सहर्ष स्वागत करते हैं। वे उसे समभाव से देखते हैं जिसके कारण मौलिक, प्रकाश, बढ़ता जाता है / अन्त में वीतरागदशा की पराकाष्ठा तक पहुँचने पर आत्मा का निर्मल स्वभाव प्रकट हो जाता है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों पर आच्छादित कर्म के प्रावरण हट जाने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन का सम्पूर्ण ज्ञानप्रकाश प्रकट हो जाता है अर्थात् त्रिकाल-ज्ञानादि की प्राप्ति हो जाती है / प्रचलित शब्दों में वे 'सर्वज्ञ बन' गए ऐसा कहा जाता है। यह ज्ञान प्रकट होने पर विश्व के समस्त द्रव्य-पदार्थ और उनके कालिक भावों को सम्पूर्ण रूप से जाननेवाले तथा देखनेवाले बनते हैं और तब पराकाष्ठा का प्रात्मबल प्रकट होता है जिसे शास्त्रीय शब्दों में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र तथा अनन्तवीर्य-बल (शक्ति) के रूप में पहचाना जाता है। इस प्रकार जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वचारित्री तथा सर्वशक्तिमान् होते हैं वे ही स्तुति के योग्य होते हैं / सर्वज्ञ बने अर्थात् वे, प्राणियों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ? धर्म क्या है और अधर्म क्या ? हेय क्या है और उपादेय क्या ? कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या? सुख किससे मिलता है और दुःख किससे मिलता है ? आत्मा है अथवा नहीं है तो कैसा है ? उसका
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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