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________________ [ 57 ऐन्द्रस्तुति चतुर्विशतिका स्तुति-साहित्य के परिवेष में पू० उपाध्याय जी ने स्वतन्त्र रूप से 'ऐन्द्रस्तुति'' की रचना की है। यह रचना मुख्यतः श्री शोभन मुनि की 'स्तुतिचतुर्विंशति-शोभनस्तुति' एवं गौणरूप से पूर्वपरम्परा का निर्वाह करते हुए को गई है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुति है तथा उसमें भी प्रत्येक का प्रथम एवं द्वितीय पद्य तीर्थंकरों से सम्बद्ध है, तृतीय पद्य प्रागम को तथा चतुर्थ पद्य देवी की स्तुति से सम्बद्ध है। इस तरह 66 पद्य स्तुतिरूप तथा शेष 2-3 पद्य प्रशस्तिमूलक हैं / 18 प्रकार के छन्दों में निबद्ध यह स्तुति यमकालङ्कार के अनेकविध प्रयोगों से समृद्ध है। साथ ही स्वयं कर्ता ने 'स्वोपज्ञ-विवरण' द्वारा इसके रहस्य को भी पूर्णरूपेण स्पष्ट किया है। भाषा, भाव, शैली एवं रचनासौष्ठव की दृष्टि से यह अवश्य ही पूर्ववर्ती रचनाओं से बढ़ीचढ़ी है। स्तोत्रावली में संगृहीत अन्य स्तोत्र _ 'भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावुपेयमाधुर्यमधैर्यकारि'-उपाय के प्रति प्रवृति होने और उसका फल मिल जाने से वैसे ही कार्य को पुनःपुनः करने की इच्छा होती है' इस भाव को प्रथम स्तुति के द्वितीय पद्य में संकेतित करके उपाध्याय जी ने स्पष्ट किया है कि ऐसी स्तूतियाँ उत्तम तथा शीघ्र फलदायिनी हैं, अतः मेरा मन भी बार-बार ऐसी स्तुतियाँ करने की इच्छा करता है और इसी का परिणाम है कि उन्होंने अन्य अनेक स्तोत्र लिखे / संस्कृतभाषा में निबन्ध ऐसे स्तोत्रों का एकत्र १-इस स्तुति का अनुवाद और भूमिका आदि से युक्त सम्पादन मुनि श्री यशोविजयजी महाराज ने किया है तथा प्रकाशन 'यशोभारती जैन प्रकाशत-समिति' बम्बई से हुआ है।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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