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________________ [ 77 गुणास्ते स्पर्धन्ते प्रसृमरशरच्चन्द्रनिकरान्, कथं व्यक्तं रक्तं भवति हृदयं तैर्भवभृताम् / कठोर चेतस्ते यदपि कुलिशाद् घोरनियमे, कथं विश्वे विश्वेश्वरवर ! कृपाकोमलमदः // 55 // हे जिनेश्वर ! आपके गुण शरत्कालीन निर्मल एवं स्निग्ध चन्द्रमा की किरणों से स्पर्धा करते हैं तो फिर वे इतने शुद्ध होकर भी प्राणियों के हृदय को स्पष्ट रूप से कैसे रंग देते हैं ? और आपका चित्त घोर नियमों के पालन में वज्र के समान कठोर है तो फिर वह हेजगन्नाथ ! संसार में करुणा से कोमल किस प्रकार बना हुआ है ? / / 56 // मुनीनां ध्यानान्धौ तव मुखविधोर्दर्शनरसात्, तरङ्ग रिङ्गविभः प्रशमरससंज्ञैः प्रसृमरैः / भृशं फेनायन्ते हतमदनसेना गुणगणाःतवोच्चैः कैलाशद्युतिमदभिदायां सुनिपुणाः॥५६ // हे जिनेश्वर | मुनिजनों के ध्यानरूपी समुद्र में आपके मुखरूपी चन्द्रमा को देखने की इच्छा से सर्वत्र व्याप्त प्रशमरसरूपी चञ्चल तरंगों से कैलाश पर्वत की शुभ्रता के मद का भेदन करने में कुशल ऐसे आपके गुणसमूह कामदेव की सेना को नष्ट करके निरन्तर फेन की तरह चमक रहे हैं // 56 / / गुणास्ते ते हंसास्त्रिजगदवतंसायित ! चिरं, भजन्ते ये ध्यानामृतरसभृतं मानसमदः / भिदां तन्वन्त्येते बत परयशोमौक्तिकगणैः, कृताहाराः स्फारा न किमु पयसोर्दोषगुरणयोः // 57 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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