________________ 76 ] त्विषां पात्रं गात्रं वदनमतिलावण्यसदनं, तवाक्षुद्रा मुद्रामृतरसकिरः पर्षदि गिरः // 53 // हे जिनेश्वर ! आप में सभी दोष गल गये, गुण-समूह आश्रय लिए हुए है, आपका हृदय भी लोभ से रहित है, आपका शरीर कान्तियों का पात्र है, आपका मुख परमसौन्दर्य का आगार है और आपकी महती वाणी सभा में प्रसन्नता से अमृत के रस को फैलाती है / / 53 // विना बारणेविश्वं जितमिह गुणैरेव भवता, . विना रागं चित्तं भुवनभविनां रञ्जितमपि / विना मोहं मुग्धः श्रितबुधविनाङ्गीकृतशिवो, विरूपाक्षाकारं विगलितविकारं विजयसे // 54 // हे जिनेश्वर / आपने इस जगत् में बिना बाणों के केवल धनुष की डोरी से ही जगत् को जीत लिया, राग के बिना ही संसार के प्राणियों के चित्त को रंग दिया, आप मोह से रहित होकर भी मुग्ध हैं, बुध का आश्रय लिए बिना ही शिव को स्वीकृत किए हुए हैं तथा विरूपाक्ष शिव के आकार के बिना ही जिसके समक्ष विकार से लोग गलित हो जाते हैं ऐसे कामदेव को जीत रहे हैं। यहाँ विरोधाभास अलंकार है। तदनुसार 'गुण, राग, मुग्ध, शिव और विगलितविकार' शब्दों में श्लेष मानकर दूसरा अर्थ करने से विरोध हट जाता है / जैसे-आपने बिना युद्ध किए अपने प्रशस्तगुणों से जगत् को जीत लिया, राग के बिना ही प्राणियों के चित्त को अपनी भक्ति में रंग लिया, मोह रहित होकर भी सरल प्रकृतिवाले हैं, पण्डित अथवा ज्ञानी का आश्रय लिए बिना ही परम शान्ति को प्राप्त हैं और विकार से रहित होकर विजयी हो रहे हैं / / 54 //