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________________ [ 75 हे जिनेश्वर ! आपके ध्यानरूपी स्नान से मेरा हृदय स्वाभाविक सुन्दर हो जाए, मेरी वाणी आपको महान् प्रणाम करने से पवित्र और बहुरंगी बन जाए, मेरा शरीर आएको निरन्तर प्रणाम करने से सुन्दर कान्तिमान् वन जाए और विवेकयुक्त आपकी एक स्वामिता विश्वमें विजय को प्राप्त करे / / 51 // प्रहीनत्वख्याति वहसि महसा पीन-सुषमां, क्षमा विभ्रद भूयः फरणमणिघृणि-ध्वस्ततिमिरः / तथाऽप्येतच्चित्रं क्षरणमपि न कृष्णाश्रयणकृद्, न वाधो निर्बाधो वसतिमितसिद्धिर्वितनुषे / / 52 // हे पार्श्व जिनेश्वर ! आप अहि+इन सर्पराज की प्रसिद्धि अथवा महत्ता की ख्याति को धारण करते हो, तथा फरणों के मणियों की कान्ति से अन्धकार का नाश कर क्षमा=सहनशीलता और पृथ्वी को धारण करते हुए तेज से विशाल परमशोभा को प्राप्त कर रहे हो, फिर भी यह आश्चर्य है कि क्षणमात्र भी कृष्ण-अन्धकार का प्राश्रय करनेवाले नहीं हो अथवा तृष्णा का आश्रय करनेवाले नहीं हो किंवा बाधारहित सिद्धि प्राप्तकर नीम्न लोक में वास नहीं करते हो / 52 // - विशेष प्रस्तत पद्य में उपाध्यायजी महाराज ने व्यक्त किया है है कि-सर्पराज में महत्ता की ख्याति नहीं है, न क्षमा ही है, वह अन्धेरे का प्राश्रय करनेवाला है और अधोवसति= बिल में रहनेवाला है। भगवान् पार्श्वनाथ में सर्पराज की ख्याति करते हुए भी महत्ता, क्षमा आदि विशिष्ट गुण होने से 'व्यतिरेक' अलङ्कार है और अहीनत्व, क्षमा आदि में श्लेष भी है / अतः इस पद्य में संसृष्टि अलङ्कार है। गलत्पोषा दोषास्त्वयि गुरणगरणाः क्लृप्तशरणा, गतक्षोभा शोभा हृदयमपि लोभादुपरतम् /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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