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________________ 74 ] निवास करनेवाली शोभा-स्फूर्ति बार-बार हो रही है // 48 // इमां मूर्तिस्फूति तव जिन ! समुवीक्ष्य सुदृशां, सुधाभिः स्वच्छन्दं स्नपितमिव वृन्दं ननु दृशाम् / कुदृष्टीनां दृष्टिर्भवति विषदिग्धेव किमतो, विना घूकं प्रीतिर्जगति निखिले किन तरणेः ? // 4 // हे जिनेश्वर ! सुदृष्टिवालों की दृष्टियों का समूह आपकी इस मूर्ति की शोभा को देखकर अपनी इच्छानुसार अमृत से स्नान किये हुए की तरह हो जाता है और कूदृष्टिवालों की दृष्टि विष से लिप्त की तरह हो जाता है तो इससे क्या ? क्योंकि उल्लू को छोड़ कर सारे विश्व में सूर्य के प्रति अनुराग नहीं होता है क्या ? // 46 // इमां मूर्तिस्फूति तव जिन ! गतापायपटलं, नृणां द्रष्टुं स्पष्टं सततमनिमेषत्वमुचितम् / न देवत्वे ज्यायो विषय-कलुषं केवलमदो, निमेषं निःशेषं विफलयतु वा ध्यानशुभहक् // 50 // हे जिनेश्वर ! आपकी इस मूर्ति की स्फूर्ति-अलौकिक प्रतिभा को देखने के लिये लोगों का पापसमूह से रहित होकर सर्वदा अपलकदृष्टि होना वास्तव में उचित है। देवों में वह अपलकदृष्टिभाव श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि देवों की अपलकदृष्टि विषय-वासना से दूषित है अथवा आपका ध्यान करनेवाली शुभष्टि समस्त निमेष को निष्फल करे // 50 // भवद्ध्यान-स्नानप्रकृतिसुभगं मे सुहृदयं, पवित्रा चित्रा मे तव गरिमनुत्या भवतु गोः / प्रणामः सच्छायस्तव भवतु कायश्च सततं, त्वदेकस्वामित्वं समुदितविवेकं विजयताम् // 51 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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