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________________ [ 73 गिरिभ्यः स्वर्णाद्रौ करिणि हरिणेभ्यः खलु यथा, तथान्येभ्यो नाथ ! त्वयि गुणसमृद्धरतिशयः // 46 // हे नाथ जिनेश्वर ! रात्रि से प्रातःकाल में, निष्फल बेर के वृक्ष से कल्पवृक्ष में, विषों से अमृत में, चुल्लूभर पानी से समुद्र में, पहाड़ों से समुद्र में और हरिणों से हाथी में जैसे गुणसमृद्धि का अतिशय है, उसी प्रकार अन्यदेवों से आपमें गुण समृद्धि का अतिशय है // 46 / / मुखं ते निस्तन्द्रं जितसकलचन्द्रं विजयते, कृपापात्रे नेत्रे हसितकजपत्रे विलसतः। त्वदको वामाक्षीपरिचयकलोज्झित इति, प्रभो ! मूर्तिस्फूर्तिस्तव शमरसोल्लासजननी // 47 // हे जिनेश्वर ! पूर्णचन्द्र जीतनेवाला प्रापका प्रफुल्लित मुख विजय को प्राप्त हो रहा है, करुणा के पात्र, कमलदल का उपहास करनेवाले कृपापात्र आपके दोनों नेत्र शोभित हो रहे हैं, आपका अङ्क भी सुन्दरियों के परिचयरूप कलङ्ग से रहित है, इसलिए हे प्रभो! आपकी मूर्ति की शोभा शमरस के उल्लास को उत्पन्न करनेवाली है // 47 / / तरी संसाराब्धे वनभविनां निर्वृतिकरी, सदा सद्यः प्रोद्यत्सुकृतशत-पीयूष-लहरी / जरीजम्भड्डिम्भत्रिदशमरिणकान्तिस्मयहरो, वरीवति स्फूतिर्गतभव ! भवन्मूर्तिनिलया // 48 // हे वीतभव जिनेश्वर ! संसार-सागर की नौका के समान, जगत् के प्राणियों को मोक्ष दिलानेवाली, सर्वदा तत्काल उदीयमान सैंकड़ों पुण्यों की अमृत-लहर के समान, पर्याप्त प्रकाश करती हई नवजात देवमणि की कान्ति के गर्व को दूर करनेवाली आपकी मूर्ति में
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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