________________ 72 ] . भवेद मूतावेशः परतनुनिवेशः कथमहो !, परेषां स क्लेशः स्फुरति हि महामोहवशतः। न चेदेवं देवं यदि चपलयेन्नर्मरचना, विलीना दोनासो तदिह भुवनेऽधोरिमकथा // 44 // हे जिनेश्वर ! अन्य देवों को महामोह के अधीन होने से भूतावेश (भूत-प्रेत और पंचमहाभूतों का आवेश) क्लेशकारक होता है किन्तु वह भूतावेश, दूसरों के शरीर में ही प्रवेश करनेवाला है, आपको कैसे हो सकता है ? क्योंकि आप तो मोहरहित हैं और धीर हैं। यदि ऐसा न होता तो आपको नर्म-शृंगारादि की रचना चञ्चल बना देती, किन्तु वैसा नहीं होने से बेचारी वह अधीरता की कथा इस संसार से ही उठ गई // 44 // तवौपम्यं रम्यं यदि हतधियो हन्त ! ददते, परेषामुल्लेखात् प्रकृतिहितदानस्य जगति / न किं ते भाषन्ते विषतरुषु कल्पद्रुतुलनां, प्रलापाः पापानां सपदि मदिरापानजनिताः // 45 // हे जिनेश्वर ! जो कोई बुद्धिहीन व्यक्ति इस संसार में स्वाभाविक हित करनेवाले आपकी सुन्दर उपमा को दूसरों का उल्लेख करके प्रकट करते हैं तो क्या वे विषवृक्षों से कल्पवृक्षों की तुलना नहीं करते ? वस्तुतः पापियों के प्रलाप तत्काल मदिरापान करने से उत्पन्न प्रलाप के समान ही होते हैं / / 45 / / निशाभ्यः प्रत्यूषे विफल-बदरीभ्यः सुरतरौ, विषेभ्यः पीयूषे चुलुकसलिलेभ्यो जलनिधौ।