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________________ 78 ] __ हे तोनों जगत् के मुकुटालङ्कार जिनेश्वर ! आपके वे सभी गुण हंसों के समान हैं जो ध्यानरूपी अमृतरस से पूर्ण हृदयरूपी मानससरोवर में निवास करते हैं, ये आपके गुणरूपी हंस दूसरों के यशरूपी मोतियों का पाहार करके तथा आपके उत्तम यशरूपी मोतियों की माला को धारण करके पानी और दूध के गुणख्यापन में चतुर नहीं हैं क्या ? अर्थात् वे अवश्य ही चतुर हैं जो दूसरों के सामान्य जल जैसे गुणों से आपके दूध जैसे गुणों को पृथक कर देते हैं // 57 // [यहाँ 58 से 62 तक के पद्य प्राप्त नहीं।] . विधिः कारं कारं गणयति नु रेखास्तव गुणान्, सुधाबिन्दोरिन्दोवियति विततास्तारकमिषाः / प्रतिश्यामायामान व्रजति न विलासोऽस्य निधनं, ततो रिक्ते चन्द्र पुनरपि निधत्तेऽमृतभरम् // 63 // हे जिनेश्वर ! विधाता चन्द्रमा के अमृत की बूंदों से आकाश में फैले तारकों के बहाने से बार-बार रेखा-चिह्न बनाकर आपके गुरणों की गणना करता है, प्रत्येक कृष्णपक्ष की रात्रि तक भी विधाता का यह गणना कार्य समाप्त नहीं हो पाता। अतः उस चन्द्रमा के रिक्त हो जाने से उसमें वह पुनः अमृत भरता है। (इस तरह ज्ञात होता है कि आपके गुण अनन्त हैं / ) // 63 // महोराहो हो मलिनमलिपङ्क्तिश्च धवला, बलाकामाकारा द्विकवृकपिकानामनुसृताः। न शैलाः कैलाशा इव किमभवन्नजनमुखा, भृशं विश्वं विश्वं शिसयति (?) भवत्कोतिनिकरे // 64 // हे जिनेश्वर ! आपके निर्मल कीर्तिसमूह के सारे विश्व में व्याप्त हो जाने पर राहु का तेज-अन्धकार दिन से मलिन अर्थात् प्रकाश रूप
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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