SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 76 में परिणत नहीं हुआ क्या ? भँवरों की पंक्ति धवल-श्वेत नहीं हुई है क्या ? द्विक काक वृक-भेड़िया और कोकिल जैसे काले पक्षी और पशु भी बलाकारों के आकार अर्थात् नितान्त श्वेत स्वरूप को प्राप्त नहीं हुए हैं क्या ? तथा कज्जलादिक पर्वत भी कैलाश के समान शुभ्र नहीं हुए हैं क्या ? अर्थात् आपकी कीति की श्वेतता से नितान्त कृष्ण वस्तुएँ भी श्वेत बन गई हैं // 64 / / यशोभिस्तेऽशोभि त्रिजगदतिशुभ्र शमितस्तिथिः सा का राका तिथिरिह न या हन्त ! भवति / कुहूर्नाम्नैवातः पिकवदनमातत्य * शरणं, श्रिता साक्षादेषा परवदनवेषा विलसति // 65 // हे जिनेश्वर ! आपके नितान्त श्वेत गुणों ने तीनों जगत् को शोभित कर दिया है, अतः आपके गुणों के सामने वह राका तिथि क्या है ? जो कि तिथियों में तिथि भी नहीं मानी जाती है। इसलिये वह राका-कुहू कोकिल का शब्द (और नष्ट चन्द्रकला वाली अमावास्या) के नाम से ही कोकिल के मुख में शरण लेनेवाली दूसरे के मुख की शोभा बन रही है // 65. // यशोदुग्धाम्भोधौ भवति तवं मीनाकृति नभो, ध्रुवं स्फारास्तारा जलकरणतुलामोश ! दधते / किमावर्तः श्वनं गिरिशगिरिगौरीशशशभृत्, त्रिपिण्डी डिण्डीरद्युतिमुपगता नास्ति किमिह // 66 // हे जिनेश्वर स्वामी ! आपके यशरूपी समुद्र में आकाश मछली के समान और अनन्त तारे जल के कणों की समानता को निश्चित ही धारण कर रहे हैं। और उसमें जल के भँवर बिल के समान और कैलाश, महादेव एवं चन्द्रमा इन तीनों का समुदाय फेन की कान्ति
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy