________________ [ 147 व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना करने पर यह प्रश्न उठता है कि 'कोई जाति किन्हीं समान आकारवाले व्यक्तियों में ही क्यों रहती है ?' इसका उत्तर दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि ने दिया है कि यह जाति का स्वभाव है जो वह सब पदार्थों में न रहकर नियत पदार्थों में ही रहती है। तथा जाति के वर्तन का नियम तो स्वभाव द्वारा व्यवस्थित हो सकता है पर उसके बल से अनूगत-व्यवहार का समर्थन करके जाति को अन्यथासिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवहार विषय-तन्त्र है अतः उसकी अननूगतता और अनुगतता का उपपादन अननुगत और अनुगत विषय के द्वारा ही किया जा सकता है / इसके उत्तर में उपाध्याय जी महाराज का कथन है कि 'उक्त उत्तर काणदृष्टि शिरोमणि की केवल उत्प्रेक्षा मात्र होने से आदर योग्य नहीं है। क्योंकि कारण होने के नाते शिरोमणि की जैसे बाह्यदृष्टि अधूरी है वैसे ही महावीर स्वामी के उपदेश से वञ्चित रहने के कारण उन की अन्तई ष्टि-ज्ञानदृष्टि भी अधूरी है।' अतः यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकती कि 'जगत् की प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्तरूपों से युक्त है। इसलिए गो आदि पदार्थ जैसे विशेषरूप हैं वैसे ही कथञ्चित् सामान्यरूप भी हैं, अतएव सामान्य रूप से उन्हीं के द्वारा अनुगतव्यवहार की सिद्धि हो जाने के कारण अतिरिक्त गोत्व आदि जाति की कल्पना अनावश्यक है // 32 // भेदग्रहस्य हननाय य एष दोषः, प्रोक्तः परस्तव मते नतु सोऽप्यभेदः / त्वदृष्टवस्तुनि न मोघमनन्तभेदा भेदादिशक्तिशबले किमु दोषजालम् // 33 // भेद के दो प्रकार हैं, अन्यत्व और भिन्नदेशत्व / जाति में व्यक्ति का अन्यत्वरूप भेद ही रहता है भिन्नदेशत्व नहीं; किन्तु उसका