________________ 148 ] विरोधी भिन्नदेशता का अभावरूप अभेद रहता है / यह अभेद प्रथम भेद का विरोधी नहीं है, अतः उसके साथ इसके रहने में कोई बाधा नहीं है। इस अभेद के विषय में जैनदर्शन की अपनी साम्प्रदायिक दष्टि ही नहीं है क्योंकि यह न्यायादि सभी दर्शनों को मान्य है, अन्यथा जाति और व्यक्ति में भेद मानने पर विभिन्न और व्यवहित दो अधिकरणों में उनके प्रत्यक्ष की आपत्ति का दूसरा समाधान नहीं हो सकता, और उक्त अभेद स्वीकृत करने पर उसे उक्त प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक मान लेने से उक्त आपत्ति का परिहार सरल हो जाता है। __ जैनमत तो ऐसा अद्भुत समन्वयकेन्द्र है कि जिसमें किसी दोष का स्पर्श हो ही नहीं सकता क्योंकि इस मत के प्रवर्तक महापुरुष की दृष्टि . में सारी वस्तुएँ अनन्त विचित्र धर्मों से संवलित हैं और सप्तभंगी नय के उज्ज्वल आलोक से पूर्णरूपेण परिस्फुट है // 33 / / एवं त्वभिन्नमथ भिन्नमसच्च सच्च, व्यत्क्यात्मजातिरचनावदनित्यनित्यम् / बाह्य तथाऽखिलमपि स्थितमन्तरङ्ग, नैरात्म्यतस्तु न भयं भवदाश्रितानाम् // 34 // जैनाचार्य की आदर्शदृष्टि में संसार का प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे से अभिन्न भी है और भिन्न भी, जैसे मूलद्रव्य की दृष्टि से अभिन्न और पागमापायी परिवर्तनों की दृष्टि से भिन्न / एवं असत् भी है और सत् भी, जैसे-अपने निजी रूप से सत् और पररूप से असत् / इसी प्रकार व्यक्ति स्वस्वरूप और संस्थान का प्रास्पद है अर्थात् जाति और संस्थान व्यक्ति से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। ऐसी ही स्थिति वस्तु की अनित्यता और नित्यता के विषय में भी है, अनित्यता और नित्यता दोनों धर्म भी अपेक्षाभेद से एक वस्तु में अपना अस्तित्व प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु की अपेक्षाभेद से बाह्य सत्ता