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________________ [ 146 भी है और प्रान्तर सत्ता भी, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ ज्ञानात्मक भी है और ज्ञान से भिन्न भी। यह अनेकान्तरूपता केवल जड़-पदार्थों तक ही सीमित नहीं है किन्तु इसने आत्मा को भी प्रात्मतन्त्र कर लिया है। अतः अपेक्षाभेद से नैरात्म्य भी जैनशास्त्र-सम्मत है, किन्तु यह नैरात्म्य जैनागम प्रवर्तक की शरण में आये हुए प्राणियों के लिये किसी प्रकार के भय की वस्तु नहीं है, नैरात्म्य तो उन्हीं लोगों के लिये भयावह है जिन्हें जिनेन्द्र भगवान् के अनुग्रहरूपी प्रकाश को न पाने के कारण नैरात्म्य के साथ प्रात्मसत्ता के दर्शन का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ है // 34 // आत्मा तु तादृगपि मुख्यतयाऽस्तिनित्यस्तद्भावतोऽव्ययतया गगनादिवत् ते / चिन्मात्रमेव तु निरन्वयनाशि तत्त्वं, कः श्रद्दधातु यदि चेतयते सचेताः // 35 // अात्मा यद्यपि नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों से युक्त है तो भी प्रधानरूप से वहं नित्य ही माना जाता है अर्थात् नित्यता आत्मा का नैसर्गिक तथा स्थायी धर्म है और अनित्यता कृत्रिम तथा अस्थायी, क्योंकि आत्मा अपने निजीरूप आत्मत्व से कभी च्युत नहीं होता। अतः जो उसके व्ययशील रूप हैं उन्हीं रूपों से वह अनित्य हो सकता है / इसे समझने में गगन का दृष्टान्त अधिक सहायक होगा, क्योंकि गगन भी शब्दरूप से अनित्य है और अपने द्रव्यरूप से सर्वथा अविकृत होने के नाते नित्य है। इस दृष्टिकोण से आत्मा का विचार करने पर बौद्धों का क्षणभङ्गवाद उसे एकान्त रूप से अनित्य नहीं बना सकता। विज्ञानवादी बौद्ध का बाह्यार्थभङ्गवाद भी आत्मा की नित्यता पर आक्रमण नहीं कर सकता, क्योंकि निरन्वयरूप से सर्वात्मना हो
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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