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________________ 150 ] जानेवाले क्षणिक ज्ञानमात्र के अस्तित्व का विचार किसी भी स्वस्थचित्त पुरुष के हृदय में कुछ भी स्थान नहीं पा सकता / / 35 // .. इष्टस्त्वया नु परमार्थसतोरभेदोऽभिन्नेकजात्यमुत वेद्यविधेम॒षात्वम् / इत्थं विचारपदवीं भवदुक्तिबाह्यो, नीतो न हेतुबलमाश्रयितुं समर्थः // 36 // आत्मा अपने निजी रूप से नित्य है, अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप देह, इन्द्रिय आदि का सम्बन्ध पाकर उनके अभ्युदय और अवसाद से प्रसाद और विषाद की अनुभूति करता है तथा उन्हीं के सहयोग से अनेक प्रकार के प्रशस्त एवं मलिन आचरण करता हुआ.अपने लिये नई-नई कर्म-शृंखलाएँ तैयार करता रहता है और इस प्रकार अपने ही हाथों खड़े किये गये भूलभुलैया के भवन में भटकता रहता है। किन्तु जब कभी उससे चिरसुप्त सुकृत का जागरण होता है तब उसके प्रभाव से सद्गुरु का सम्पर्क पाकर उसके उपदेशरूपी प्रकाश में सन्मार्ग प्राप्त करता है और उसे अपनाकर अपनी जीवनयात्रा का सञ्चालन करता हुआ धीरे-धीरे अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है / नित्यात्मवादियों के ये वाक्य बौद्ध को चुभने लगते हैं और वह विरोध करते हुए कहता है कि-क्षणिक ज्ञान ही एक प्रामाणिक वस्तु है, उससे भिन्न दिखनेवाली सभी वस्तुएँ अप्रामाणिक हैं। अतः आत्मा की नित्यता का सिद्धान्त सर्वथा असंगत है। ___ इस मत का खण्डन करते हुए स्तोत्रकार ने कहा है कि 'ज्ञान से भिन्न वस्तु अप्रामाणिक है' इस मत का प्रतिपादन करनेवाले विज्ञान वादी के तात्पर्य का वर्णन तीन रूपों में किया जा सकता है / जैसे (1) ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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