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________________ 146 ] व्यवहार का अर्जन करते हैं। इसलिए यही मत न्याय्य है कि 'गोत्वादि सामान्य अपने आश्रय से भिन्न नहीं हैं तथा वस्तुदृष्ट्या अपने आश्रय से अभिन्न होते हुए स्वरूपतः- सामान्यत्व, विशेषत्व आदि से अविशेषित-गृह्यमाण होकर वे अपने आश्रयों के अनुगत-व्यवहार का जनन करते हैं, अर्थात् गोज्ञान ही गोव्यवहार का कारण होता है न कि अतिरिक्त गोत्व का ज्ञान गोव्यवहार का कारण होता है।'. अनुगतव्यवहार अनुगत-जाति के द्वारा ही,सम्पादित हो सकता है, अतः अनुगतव्यवहार ही अनुगत-जाति का साधक होता है। यह पक्ष भी अन्योन्याश्रयदोष से ग्रस्त होने के कारण अमान्य है / अनुगतव्यवहार का 'अनुगतत्व अथवा एकत्व को विषय बनानेवाला व्यवहार' यह अर्थ करने पर वह अनुगत-जाति का साधक नहीं बन सकेगा। क्योंकि जो धर्म अनेक काल में अनुगत और एक व्यक्तिमात्र में आश्रित होता है उसमें भी कालदृष्ट्या अनुगतत्व और व्यक्तिदृष्ट्या एकत्व का व्यवहार होता है, परन्तु वह धर्म जातिरूप नहीं माना जाता / जैसे परमाणुगत रूप और विशेष पदार्थ। इसलिए अनुगत-व्यवहार का यही अर्थ करना होगा। फिर उसे अनुगतजाति का साधक मानने में अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है क्योंकि व्यवहार में अनुगत जांतिगोचरता सिद्ध हो जाने पर ही उसके उपपादनार्थ अनूगत-जाति की सिद्धि हो सकती है और अनुगतजाति की सिद्धि हो जाने पर ही व्यवहार अनुगतजातिगोचरता की सिद्धि हो सकती है // 31 // जातेहि वृत्तिनिगमो गदितः स्वभावाज्जाति विना न च ततो व्यवहारसिद्धिः। . उत्प्रेक्षितं ननु शिरोमरिणकारणदृष्टेस्त्वद्वाक्यबोधरहितस्य न किञ्चिदेव // 32 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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