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________________ [ 185 कार्य अपने जिस कारण में समवाय-सम्बन्ध से आश्रित होता है वह कारण उसका समवायी कारण होता है जैसे कपाल घट का, तन्तु पट का / इस लक्षण के अनुसार एक सर्वथा नवीन वस्तु अपने विशेष कारण में समवाय नामक एक अतिरिक्त सम्बन्ध से अस्तित्व प्राप्त करती है / परिणामी कारण उसे कहा जाता है जो क्रम से प्रादुर्भूत होनेवाले अपने विविध रूपों में पूर्ववर्ती रूप का त्याग और उत्तरवर्ती रूप का ग्रहण करते हुए उन सभी रूपों के बीच अपने मूलरूप को अक्षुण्ण बनाए रहता है। जैसे मिट्टी अपने पूर्ववर्ती पिण्डाकार को छोड़कर घटाकार को प्राप्त करती है और दोनों प्राकारों में अपने मौलिक मिट्टी-रूप को अक्षुण्ण बनाए रहती है और इसी लिए वह पिण्ड, घट आदि का परिणामी कारण होती है / इस लक्षण के अनुसार यह निर्विवाद है कि परिणामी कारण से उत्पन्न होनेवाला कार्य उत्पत्ति से पूर्व एकान्ततः सत् अथवा असत् नहीं होता अपितु अपेक्षाभेद से सत् और असत् उभयात्मक होता है। ___ यदि यह कहा जाए कि किसी पदार्थ का द्रव्य होना समवायिकारणता अथवा परिणामिकारणता के अधीन नहीं है किन्तु द्रव्यत्व जाति के अधीन है। जिसमें द्रव्यत्व जाति रहेगी वह द्रव्य होगा और जिसमें वह नहीं रहेगी वह द्रव्य नहीं होगा, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि महावीर के शासनानुसार वही पदार्थ द्रव्य होता है जो एक ही समय में अपने किसी रूप से उत्पन्न तथा किसी रूप से विनष्ट होता रहता है और साथ ही अपने किसी रूप से सुस्थिर भी बना रहता है / द्रव्यत्व जाति के सम्बन्ध से किसी पदार्थ का द्रव्य होना स्याद्वाद की दृष्टि में संगत नहीं हो सकता क्योंकि उसकी दृष्टि में द्रव्यत्व जाति स्वयं ही प्रसिद्ध है / न्यायमत में अनुगत प्रतीति, अनुगत व्यवहार और अनुगत कार्यकारणभाव से जाति की सिद्धि की जाती है, किन्तु द्रव्यत्व की सिद्धि इनमें किसी से नहीं हो सकती क्योंकि अनुगत प्रतीति से यदि
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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