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________________ 184 ] प्रादुर्भूत हो सकता है। यदि वह केवल द्रव्यरूप ही होगा, पर्यायरूप न होगा तो एकरूप से उसकी निवृत्ति और अन्यरूप से उसकी प्रादुभूति न हो सकेगी। - दूसरी बात यह है कि कोई भी पदार्थ समवायी कारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामी कारण होने से ही द्रव्य हो सकता है। इसका कारण यह है कि जिस मत में समवायी कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है उस मृत में कार्य और कारण में परस्पर भेद माना जाता है / फलतः उस मत में यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व सत् होता है अथवा असत् ? यदि सत् होगा तो उसका जन्म मानना असंगत होगा। क्योंकि किसी वस्तु को अस्तित्व में लाने के लिये ही उसके जन्म की आवश्यकता होती है। फिर जिस वस्तु का अस्तित्व पहले से ही सिद्ध है उसका जन्म मानना व्यर्थ है। इसी प्रकार कार्य यदि अपनी उत्पत्ति से पूर्व असत् होगा तो भी उसका जन्म मानना असंगत होगा क्योंकि जो स्वभावतः असत् है उसे जन्म द्वारा भी अस्तित्व का लाभ नहीं हो सकता। परिणामी कारण से कार्य की उत्पत्ति मानने पर उक्त प्रश्न के उठने का अवसर नहीं होता / क्योंकि परिणामी कारण का अपने कार्यों से भेद नहीं होता। फलतः सभी कार्य अपने परिणामी कारण के रूप में पहले से ही अवस्थित रहते हैं। उनका जन्म उन्हें अस्तित्व प्रदान करने के लिये नहीं होता किन्तु अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिये होता है। ___ यदि यह कहा जाए कि समवायी कारण और परिणामी कारण में कोई भेद नहीं होता क्योकि नैयायिक जिसे समवायी कारण कहते हैं, जैन उसी को परिणामी कारण कहते हैं / अतः यह कहना उचित नहीं हो सकता कि कोई पदार्थ समवायी कारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामी कारण होने से ही द्रव्य हो सकता है, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि उनके लक्षण से ही उनका भेद स्पष्ट है। जैसे जो
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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