________________ 234 ] अन्तः समाधेः सुखमाकलय्य, बाह्य सुखे नो रतिमेति योगी। अटेदटव्यां क इवार्थलुब्धो, गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे // 3 // योगी अपने अन्तःकरण में समाधि-समत्व का सुख प्राप्त करके बाहरी सुख के प्रति अनुराग नहीं रखता है। क्योंकि ऐसा कौन होगा कि जिसके घर में कल्पवृक्ष फल-फूल रहा हो और वह अर्थ-द्रव्य के लोभ से जङ्गल में भ्रमण करे ? / / 3 // इतस्ततो भ्राम्यति चित्तपक्षी, वितत्य यो रत्यरती स्वपक्षी। स्वच्छन्दता-वारणहेतुरस्य, समाधिसत्पञ्जरयन्त्रणव // 4 // यह जो चित्तरूपी पक्षी रति-राग और अरति-द्वेषरूप अपनी दोनों पांखों को फैलाकर इधर-उधर घूमता रहता है, उसकी स्वच्छन्दता को रोकने का एकमात्र साधन यही है कि उसे,समाधिरूपी उत्तम पिंजरे में बन्द कर दिया जाए // 4 // असह्यया वेदनयाऽपि धीरा, रुजन्ति नात्यन्तसमाधिशुद्धाः। कल्पान्त-कालाग्निमहाचिषाऽपि, नैव द्रवीभावमुपैति मेरुः // 5 // हे धीरपुरुषों! जैसे प्रलयकाल के समय उठनेवाली बड़ी-बड़ी आग की लपटों से भी सुमेरु पर्वत पिंघल नहीं सकता है उसी प्रकार जिनका अन्तःकरण अत्यन्त समाधि के द्वारा विशुद्ध हो गया है, वे व्यक्ति असह्य कष्ट आने पर भी रुग्ण-दुःखी नहीं होते हैं // 5 // ज्ञानी तपस्वी परमक्रियावान्, सम्यक्त्ववानप्युपशान्तिशून्यः / प्राप्नोति तं नैव गुणं कदापि, समाहितात्मा लभते शमी यत् // 6 // मनुष्य ज्ञानी हो, तपस्वी हो, परम क्रियाशील हो और सम्यक्त्व से भी युक्त हो किन्तु शान्ति से शून्य हो तो वह उस गुण को कदापि