________________ 160 ] विश्वं ह्यलोकमनुपाख्यमलं न बौद्ध ! सोढं विचारमिति जल्पसि यद्विचारात् / कः कीदृगेष इति पृष्ट इह त्वदीययक्ति तद्वठर ! भौतिविचारकल्पम् // 46 // हे बौद्ध ! तुम विश्व को असत्. अनिर्वचनीय तथा विचारासह जिस विचार के आधार पर स्वीकृत करते हो, वह कौन और कैसा है ? ऐसा पूछने पर जो तुम्हारा उत्तर मिलता है वह पामरों के विचार के समान नगण्य एवं दोषग्रस्त है। - इसका अभिप्राय यह है कि-बौद्धों ने विश्व के बारे में जो धारपाएँ बना रखी हैं वे किसी प्रामाणिक विचार पर आधारित न होने से अमान्य हैं। क्योंकि यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार पर आधारित मानेंगे तो उन्हें विचार तथा उसके अङ्गभूत वादी, प्रतिवादी, मध्यस्थ, विचार्य-विषय, प्रमाण और विचार के लिये अपेक्षित नियम आदि की सता अवश्य माननी पड़ेगी। फिर इतने पदार्थों को सत्, निर्वाच्य और विचारसह मानते हुए वे जगत् को इससे विपरीत अर्थात् असन्, अनिर्वाच्य तथा विचारासह कैसे मान सकेंगे ! और यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार के आश्रित न मानकर केवल अपनी मनःप्रसूत कल्पना पर ही उन्हें निर्भर करेंगे तो उनके वे विचार उसी प्रकार त्याज्य और उपहास्य होंगे जिस प्रकार मूत्रत्याग तथा चीत्कार करते हुए, बड़े-बड़े श्वेत दांतवाले हाथी के बारे में किसी गँवार के ये विचार कि 'वह एक बादल है, जो बरस रहा है और गरज रहा है तथा पक्षियों से युक्त है' / / 46 // बाह्य परस्य न च दूषणदातमात्रात्, . स्वामिन् ! जयो भवति येन नयप्रमाणः /