________________ [ 156 संकोच अथवा विवेक हो, तो उन्हें जैनदर्शन के अनेकान्तवाद के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि वे अपने को अनेकान्तवादी न मानते हुए भी ऐसी अनेक बातें मानते हैं जो अनेकान्तवाद की परिधि में ही पल्लवित हो सकती है // 44 // प्रव्याप्यवृत्तिःगुरिणभेदमुदीर्य नव्या, भावं प्रकल्प्य च कथं न शिरोमणे ! त्वंम् / स्याद्वादमाश्रयसि सर्वविरोधिजेत्रं, ब्रूमः प्रसार्य निजपाणिमिति त्वदीयाः // 45 / शिरोमणि ने संयोगादि अव्याप्यवृत्ति (अपने प्रभाव के साथ एक स्थान में रहनेवाले) गुणों के आश्रय में उन गुणों के अाश्रय का भेद यथा शाखा द्वारा कपिसंयोग के प्रांश्रयभूत वृक्ष में मूल द्वारा कपिसंयोगी का भेद तथा पट आदि द्रव्यों के आश्रय में घटत्व आदि रूपों से उनका अभाव जैसे पटवान् भूतल में घटत्वेन पटाभाव जैसा नवीन अभाव माना है, किन्तु स्याद्वाद को स्वीकार नहीं किया है / अतः शिरोमणि को सम्बोधित करते हुए इस पद्य में कहा गया कि जब तुम उक्त भेद और उक्त अभाव को स्वीकार करते हो, तो उनके उपजीव्य स्याद्वाद को क्यों नहीं स्वीकृत करते ? यह वाद तो समस्त विरोधियों के ऊपर विजय प्राप्त करनेवाला है, इसके द्वारा ही किसी पदार्थ का तलस्पर्शी पूर्णज्ञान प्राप्त होता है और इसके आधार पर ही उक्त भेद तथा अभाव का समर्थन हो सकता है। फिर तुम यदि इस स्याद्वाद के समक्ष सिर नहीं झुकानोगे तो अपने असाधारण तार्किक होने का गर्व कैसे संभाल सकोगे ? अतः तुम्हारे हित को ध्यान में रखकर तुम्हें यह बुद्धिदान करते हैं कि-लो हमारा यह स्याद्वाद और इसके सहारे अजेय बनो // 45 //