________________ 158 ] क्योंकि इनके कार्य, प्रकाश, क्रिया और पावरण एक दूसरे से भिन्न हैं। परस्पर भिन्न पदार्थों की एकता साधारणतः असम्भव है किन्तु सांख्य की दृष्टि में ये तीनों प्रकृति के रूप में एकीभूत हो जाते हैं। अतः यह कहना होगा कि सांख्य-मत में भी एक वस्तु दूसरी वस्तु से एकान्ततः भिन्न अथवा अभिन्न नही होती अपितु अनेकान्तवादी जैन मत के अनुसार कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न होती है / क्यों कि यदि ऐसा न माना जाएगा तो परस्पर भिन्न उक्त गुणों को एक प्रकृति से अभिन्नता का तथा एक प्रकृति की परस्पर भिन्न उन तीन गुणों से अभिन्नता का समर्थन कैसे किया जा सकेगा? बौद्ध भी समूहालम्बन ज्ञान को एकाकार और अनेकाकार मानता है, समूहालम्बन ज्ञान स्वतः एक है और अपने एक स्वरूप का संवेदनकारी होने से एकाकार है, किन्तु साथ ही नील, पीत आदि अनेकविध संवेदनकारी होने से नील-पीतादि अनेकाकार भी हैं। इस प्रकार वह एकाकार भी है और अनेकाकार भी। बौद्ध की इस मान्यता का समर्थन भी अनेकान्तवाद की नीति से ही सम्भव है, अन्यथा एक ज्ञान में परस्पर विरुद्ध एकाकारता तथा अनेककारता का समन्वय कैसे हो सकता है ? ___ गौतम के न्यायदर्शन तथा कणाद के वैशेषिक दर्शन के मर्मज्ञ मनीषियों को भी चित्ररूप के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद की शरण लेनी पड़ती है, क्योंकि चित्र कोई एक अतिरिक्त रूप नहीं है किन्तु नील, पीत आदि विभिन्न रूपवाले अवयवों से उत्पन्न होनेवाले अवयवों में नीलत्व, पीतत्वादि विभिन्न प्रकारों से प्रतीयमान नील-पीतादि कोई एक ही रूप चित्र शब्द से व्ययहृत होता है / अर्थात् उस ढंग के द्रव्य में कोई एक ही रूप कथञ्चित् नील-पीत-आदि अनेक आकारों से आलिङ्गित होता है। इस लिये यह स्पष्ट है कि उक्त दार्शनिकों को यदि कुछ भी शील,