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________________ [ 157 'अनिर्धारण-बोधक 'स्यात्' पद से घटित होने के कारण एक धर्मी में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का बोधक होने से 'सप्तभंगी नय' प्रमाण नहीं हो सकता' इस प्रकार दीधितिकार रघुनाथ शिरोमरिण ने स्याद्वाद पर आक्षेप किया है, उसकी अज्ञानमूलकता दिखलाने के लिये स्तुतिकार का कथन है कि_ "रघुनाथ शिरोमणि ने वस्तुतत्त्व का विवेचन करते समय न्याय, वैशेषिक के सिद्धान्तों के विरोध का भय न करते हुए अनेक पदार्थ स्वीकृत किये हैं, किन्तु द्रव्य की चित्रता के विषय में स्याद्वाद को स्वीकार नहीं किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे स्याद्वाद-शास्त्र से परिचित नहीं थे, क्योंकि द्रव्य की चित्रता की उपपत्ति स्याद्वाद के बिना कथमपि सम्भव नहीं है, अतः उनका यह अभिमान कि-'वे सभी शास्त्रों का सम्यक् परिशीलन करके ही वस्तुत्व का विवेचन करते हैं'-सर्वथा निराधार है।" तात्पर्य यह है कि-द्रव्य की चित्रता का उचित उपपादन करने के लिये जैनशास्त्र का स्याद्वाद अनिवार्यरूप से उपादेय है और उस पर शिरोमरिण का आक्षेप असंगत तथा अज्ञानमूलक है। / / 43 / / * साङ्ख्यः प्रधानमुपयंस्त्रिगुरणं विचित्रां, बौद्धौ धियं विशदयन्नथ गौतमीयः / वैशेषिकश्च भुवि चित्रमनेकरूपं, वाञ्छन् मतं न तव निन्दति चेत् सलज्जः॥४४ // सांख्य सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से अभिन्न एक प्रकृति का अस्तित्त्व मानता है, ये तीनों गुण एक दूसरे से भिन्न हैं; * चित्ररूप के बारे में न्याय, वैशेषिक दर्शन, रघुनाथशिरोमणि, अन्य ... नैयायिक तथा जैनदर्शन के विचार भिन्न-भिन्न हैं /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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