________________ [ 161 प्राज्ञैः कृतव बहुधावयवि-प्रसिद्धि क्सङ्क्रमादथ तरन्ति न दूषणानि // 47 // हे स्वामिन् ! ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न होता है-इस पक्ष में दोष दे देने मात्र से विज्ञानवादी को विजयलाभ नहीं हो सकता। क्योंकि विद्वानों ने नय और प्रमाण के बल पर बड़े विस्तार से अवयवी का साधन किया है, और अवयवी की सिद्धि-ज्ञान निरवयव होता है और घट आदि अवयवी द्रव्य सावयव होते हैं, अतः निरवय व ज्ञान सावयव घट आदि द्रव्य का परस्पर अभेद नहीं हो सकता। अन्य शास्त्रकारों ने अवयवावयविभाव में जो. दोष बताये हैं वे भी अतिरिक्त अवयवी की सिद्धि में बाधक नहीं हो सकते, क्योंकि उन दोषों का संक्रमण ज्ञेय और ज्ञान के अभेदपक्ष में भी होता है। इसलिए उन दोषों का कोई न कोई समाधान दोनों वादियों को करना ही होगा // 47 // ज्ञानाग्रहा वृति निरावृतिसप्रकम्पाकम्पत्वरक्तिमविपर्ययतन्निदानः / तद्देशतेतरसभागविभागवृत्ती, चित्रेतररवयवी न हि तत्त्वतोऽन्यः // 48 // ज्ञानाग्रह-ज्ञान और अग्रह अर्थात् दर्शन तथा प्रदर्शन, प्रावृतिनिरावति-आवरण तथा अनावरण, सप्रकम्पाकम्पत्व-कम्पन और प्रकम्पन अर्थात् सक्रियत्व तथा निष्क्रियत्व, रक्तिमविपर्यय-रक्तत्व और उसका विपर्यय अर्थात् अरक्तत्व, तन्निदान-रक्तत्व और परक्तत्व के निमित्त अर्थात् रक्तद्रव्य का संयोग तथा रक्तद्रव्य का असंयोग तद्देशतेतर-तद्देशत्व और अतद्देशत्व अर्थात् तद्देशस्थिति तथा अतद्देशस्थिति, सभागविभागवृत्ति-किसी अंशविशेष से रहना या अंशनिरपेक्ष