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________________ 142 ] परजाति-तिर्यक् सामान्य के द्वारा तादात्म्य को कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य का प्रतिनिधित्व एकजातीयता को नहीं प्राप्त हो सकता। तात्पर्य-भेद, दृष्टिभेद अथवा अपेक्षाभेद से पदार्थों की अनेकान्तरूपता जैनागमों में ही प्रतिपादित हुई है और जिनेन्द्र भगवान् ने पदार्थों की अनेकान्तरूपतास्वरूप अपनी निधि को सप्तभंगीरूप मंजूषा में सुरक्षित रूप से रखकर उसे अपनी स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित कर दिया है, अतः जिनकी आत्मा जिनेन्द्र की भक्ति से अनुप्राणित नहीं है, वे उस निधि को प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ रहते हैं // 26 // सामान्यमेव तव देव ! तदूर्ध्वताख्यं, द्रव्यं वदन्त्यनुगतं क्रमिकक्षरणोघे / एषैव तिर्यगपि दिग् बहुदेशयुक्ते, ' नात्यन्तभिन्नमुभयं प्रतियोगिनस्तु // 30 // हे देव ! विद्वज्जन द्रव्यपदार्थ को सामान्यरूप मानते हैं और उसे ऊर्ध्वता के नाम से पुकारते हैं। उनकी इस मान्यता का कारण यह है कि द्रव्य पदार्थ क्रम से होनेवाले क्षणिक और स्थायी पर्याय समूहों में अनुगतरूप से विद्यमान रहता है / और जो युक्ति ऊर्ध्वतासामान्य के साधनार्थ बताई गई है उसी अथवा वैसी ही युक्ति से तिर्यक्सामान्य का भी साधन होता है, अर्थात् जैसे विभिन्न दिशाओं तथा समयों में अनुगतरूप से ऊर्ध्वतासामान्य सिद्ध होता है वैसे ही विभिन्न देशों-घटादि पदार्थों में अनुगतरूप से तिर्यक्सामान्य की भी सिद्धि अनिवार्य है // 30 // सम्बन्ध एव समवायहतेर्न जातिव्यक्त्योरभेदविरहेऽपि च मिक्लुतो।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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