________________ [ 143 स्याद् गौरवं ह्यनुगतव्यवहारपक्षे• ऽन्योन्याश्रयोऽनुगतजातिनिमित्तके च // 31 // जाति और व्यक्तिजाति के आश्रय में अभेद सिद्ध करनेवाले प्रमाण और युवित का वर्णन करते हुए स्तुतिकार कहते हैं किव्यक्ति जाति का प्राश्रय है अथवा जाति व्यक्ति में आश्रित है एवं व्यक्ति जाति से विशिष्ट है, इन प्रामाणिक प्रतीतियों के अनुसार व्यक्ति और जाति में आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेषण-विशेष्यभाव माना जाता है, अत: व्यक्ति और जाति में सम्बन्ध मानना आवश्यक है, क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर सम्बन्ध नहीं होता, उनमें आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेषण-विशेष्यभाव नहीं होता। यदि सम्बन्ध के बिना आश्रयाश्रितभाव माना जाएगा तो सब वस्तुओं में सबकी आश्रयता हो जाने से समस्त विश्व में साङ्कर्य हो जाएगा; जो किसी भी शास्त्र की दृष्टि में उचित नहीं है। ___ इस प्रकार व्यक्ति एवं जाति में प्राश्रयाश्रितभाव के उपपादनार्थ सम्बन्ध की सिद्धि होने पर वह कौनसा सम्बन्ध है ? इस पर विचार करते हुए कहते हैं कि यहाँ संयोग-सम्बन्ध नहीं है. क्योंकि वह दो द्रव्यों के बीच ही होता है। कालिक-सम्बध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि घटत्वादि जाति का पटादि पदार्थों के साथ कालिक-सम्बन्ध होने से घटादि के समान पटादि पदार्थों में भी घटत्वादि जातियों की प्राश्रयता की आपत्ति होगी, और प्रात्मादि नित्यपदार्थों में कालिक सम्बन्ध न होने से जाति की आश्रयता न हो सकेगी। इन्हीं दोषों के कारण व्यक्ति के साथ जाति का दैशिक दिङ्मूलक स्वरूप, सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि विभिन्न दिशाओं में रहनेवाले घटादि पदार्थों में घटत्वादि जातियों की आश्रयता उत्पन्न करने के लिये उन जातियों को सार्वदेशिक मानना होगा, फिर घटत्वादि जातियों का दैशिक सम्बन्ध पटादि