________________ 144 ] में भी होने के कारण पटादि को भी घटादि के समान ही घटत्वादि जातियों का आश्रय बनना पड़ेगा। एवं आत्मादि व्यापक पदार्थों की दिशा और उसकी उपाधि से भिन्न होने के नाते उनमें दैशिक सम्बन्ध न होने के कारण उनमें जाति की आश्रयता हो जाएगी। .. व्यक्ति के साथ जाति का स्वरूप-सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यक्ति का स्वरूप जातिगामी नहीं है और जाति का स्वरूप व्यक्तिगामी नहीं है, और सम्बन्ध की उभयगामिता आवश्यक है, अन्यथा घटत्व का स्वरूप जैसे घटगामी न होने पर भी घट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होता है वैसे पंटगामी न होने पर भी उसे पट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होना पड़ेगा। व्यक्तिस्वरूप को सम्बन्ध मानने के पक्ष में एक जाति की अनेक व्यक्ति होने के नाते एक जाति के सम्बन्ध को भी अनेक मानना होगा। ___समवाय भी उनके बीच का सम्बन्ध नहीं बन सकता क्योंकि सब जातियों का एक ही समवाय मानने पर सम्बन्धि-सत्ता को सम्बन्धसत्ता का अनुचरी होने के कारण पटादि में भी घटत्व आदि जातियों की आधारता अनिवार्य हो जाएगी और यदि जाति के भेद से समवाय को भिन्न माना जाएगा तो अनन्त सम्बन्ध की कल्पना करनी होगी। इसलिए व्यक्ति और जाति के बीच संयोग, कालिक, दैशिक, स्वरूप और समवाय सम्बन्ध न हो सकने के कारण और उनमें आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेष्य-विशेषण भाव के अनुरोध से कोई न कोई सम्बन्ध अवश्यमेव मानने की आवश्यकता के कारण उन के बीच अभेद-सम्बन्ध की स्वीकृति अनिवार्य है। व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना में गौरव-दोष भी है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जो लोग गो आदि व्यक्तियों से भिन्न गोत्व आदि जातियों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं वे भी गोत्व आदि को केवल सामान्य रूप