________________ [ 53 जृम्भत्कुन्दावद्रात-त्रिदशपतिकराम्भोजसंवीजिताभ्यां, चारुभ्यां चामराभ्यां त्रिभुवनविभुतां व्यजितां बिभ्रदुच्चैः // 3 // चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ्रयशरूपी क्षीरसागर में डूबते हुए ब्रह्माण्ड को उड्डीन-बिन्दु (अाकाश में गिरी हुई एक बूंद के समान) बनी हुई देवनदी (आकाश गङ्गा) के जल से अन्तरिक्ष को पवित्र करने वाले, खिले हुए कुन्द-पुष्प के समान शुभ्र तथा देवराज इन्द्र के कर-कमलों द्वारा अच्छी तरह ड्रलाये गये सुन्दर चामरों के कारण प्रकटित तीनों लोकों की प्रभुता को उत्तम रीति से धारण करनेवाले श्रीशङ्खश्वर पार्श्वनाथ जय को प्राप्त करें / / 63 // जीयाः सज्ज्ञान-भास्वन्मुकुरपरिसरक्रीडिताऽऽकारभारं, विश्वं गृह्णन् समग्रं. प्रतिसमय-भवद्-भूरिपर्यायभूमिम् / बिन्दुभूताहमिन्द्राद्यखिल-सुखमहानन्दसन्दर्भगर्भज्योतिबिभ्रत् प्रकृष्टं जननजनितभीभेदमेदस्विताः // 64 // अपने सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से दर्पण के घेरे में क्रीडा करते हुए विश्व के प्राकार एवं उसमें भी प्रतिक्षण होनेवाले विभिन्न परिवर्तनों को करतल-स्थित आँबले के समान देखनेवाले तथा जिस सुख के समक्ष इन्द्रादिकों के समस्त सुखों का बिन्दुरूप अहम्भाव है ऐसे महानन्द (मोक्ष) के सन्दर्भ से युक्त ज्योति के अच्छी तरह धारण करनेवाले और जन्मजनित भय का भेदन करने में प्रबल उत्पत्तिवाले, महावतारी, पुरुषोत्तम श्री शङ्खश्वर पार्श्वनाथ विजय को प्राप्त करें // 14 // जीयाः प्रद्योतिदन्तद्युतिततिषु लसज्जानुदघ्नप्रसूनभ्राम्यद्भृङ्गाङ्गनानां भवति सति मुहुः पुष्पतादात्म्यबोधे /