________________ [ 12 ] तपागच्छाधिपति-पूज्य 108 श्रीमद्विजयप्रभसूरीश्वरान प्रति 'दीव-बन्दर'नगरे लिखितं पत्रात्मकं श्रीविजयप्रमसूरि-क्षामणक-विज्ञप्ति-काव्यम् [दीव-बन्दरस्थित श्रीपार्श्वप्रभुवर्णनात्मकः प्रथमो भागः ] [दीव-बन्दर स्थित श्रीपार्श्वप्रभुवर्णनरूप पहला भाग] (उपजाति छन्द) स्वस्ति श्रियां चारुकुमुद्वतीनां, विधुः समुल्लासविधौ जिनेन्द्रः / श्री प्रश्वसेनक्षितिपालवंशस्वर्गाचलः स्वर्गतरुः श्रिये वः // 1 // श्रीपार्श्वप्रभुस्तुति मङ्गल-लक्ष्मीरूप सुन्दर कुमुदिनियों को विकसित करने में चन्द्रमा के समान तथा श्रीअश्वसेन राजा के वंशरूपी सुमेरु-पर्वत में कल्पवृक्ष के समान श्रीपार्श्वजिनेश्वर आपके कल्याण के लिये हों // 1 // “यह काव्य उपाध्यायजी महाराज ने पर्युषणा-पर्व की समाप्ति के पश्चात् क्षमापना के रूप में अपने पूज्य गुरुदेव के पास लिखकर भेजा था। इसका विशिष्ट नामकरण उनके द्वारा न किये जाने के कारण यह एक