SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 246 ] विशेष) के साधन में परायण हैं और वेदान्ती ब्रह्म की सिद्धि में संलग्न हैं वे भी जिनकी वाणी से पराजित होकर सम्मति से कथित 'संग्रहरहस्य' नामक ग्रन्थ में निविष्ट हो जाते हैं, ऐसे श्रीविजयप्रभ सूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं / / 5 / / . जिन्होंने उत्पत्ति और विनाश से चित्रित; ध्रौव्य, द्रव्य, पर्याय तथा परिणाम से विशुद्ध और विस्रसा-योग-सङ्घात के भेदों से युक्त ज्ञानपूर्ण अपने समय-सिद्धान्त की स्थापना की, ऐसे वे श्रीविजय-प्रभसूरि विजय को प्राप्त हो रहे हैं // 6 // इस प्रकार मैंने तर्क एवं युक्ति से (अथवा तर्कशास्त्र से सङ्गत युक्ति के द्वारा) भक्तिपूर्वक गच्छनायक तथा शत्रुओं को जीतनेवाले श्रीविजयप्रभ सूरि की स्तुति की है। (इस स्तवन का पठन करनेवाले) बुद्धिमानों के लिये वे सूरीश्वर विघ्नों के नाशक तथा श्री, यश, विजय एवं सम्पत्ति का प्रदान करनेवाले हों // 7 // -: 0 :
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy