________________ 18] महीसिचः पङ्ककृतः पयोदाद्धर्म दिशन् देव ! विलक्षणोऽसि। . . यथा यथा सिञ्चसि भव्यचेतस्तथा तथा कापाकरोषि // 10 // हे देव ! (यद्यपि ऊपर मेघ के साथ आपका साम्य दिखलाया गया है किन्तु विशेष विचार करने पर) आप विलक्षण प्रतीत होते हैं क्यों कि वह मेघ तो जब बरसता है तो पृथ्वी पर कीचड़ ही कीचड़ हो देता है और आप तो धर्म का उपदेश करते हए जैसे-जैसे भविक जनों के चित्त को सींचते हैं वैसे-वैसे उसके पङ्क-पाप को दूर कर देते हैं / अतः पङ्ककृत मेघ से पङ्कहत आप विलक्षण हैं // 10 // स्फुटे विनिर्णतरि देवदेव !, सन्देग्धि यस्त्वय्यपि जागरूके। निमील्य चक्षुः स घटाद्यपश्यन्, प्रदीपवृन्दैरपि किं करोतु // 11 // हे देवदेव ! जो व्यक्ति स्पष्ट, विशेषरूप से निर्णायक एवं जाग्रत्स्वभाववाले ऐसे आपमें भी सन्देह करता है वह अपने नेत्र मूंदकर घट-पटादि को नहीं देखता हुआ उत्कृष्ट दीपक समूहों से भी क्या करे? अर्थात् वह सन्देहकारी स्वयं आँखें बन्द करलेता है तब घटपटादि दिखाई नहीं देते, अब वहाँ यदि अनेक उत्तम दीपक भी जलाये जाएँ तो उनसे क्या लाभ होगा? // 11 // सोऽयं मया ध्यानपथोपनीतः, केनाऽपि रूपेण चिरन्तनेन / भवभ्रमघ्नो मम देवदेव ! प्रणम्रदेवेन्द्र ! चिराय जीयाः॥१२॥ हे देवदेव ! हे इन्द्रवन्दित ! मैंने किसी चिरन्तन रूप से आपको उपर्युक्त गुणों का स्मरण करते हुए ध्यान-मार्ग से- प्राप्त किया है, आप मेरे भवभ्रम-बार-बार जन्म लेने के चक्र का नाश करनेवाले हैं, आपकी सदा जय हो // 12 //