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________________ [17 दुन्न तयः शान्तरसं सवन्ती, ये सप्तभङ्गों तव नाद्रियन्ते / पिपासवस्ते पतिताः कृशानौ, हता हता एव हहा हताशाः // 7 // हे देव ! जो दुर्नीतिवाले हठवादी व्यक्ति शान्त-रस को टपकाती हुई आपकी सप्तभङ्गी-(नय) का आदर नहीं करते हैं, वे वस्तुतः बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि जल को पीने की इच्छा रखते हए भी प्राग में गिरे हुए हैं, वे हतभागे हैं और मरे हुए ही हैं // 7 // विधि निषेधं च दिशन् जनेभ्यो, जगज्जगन्नाथ ! पितेव पासि / चित्रं तथापि स्वपितामहादीन्, त्वां निह नुवन्तोऽपि न निह नुवन्ति // 8 // हे जगत् के स्वामी ! लोगों को विधि और निषेध (कर्तव्य, अकर्तव्य वस्तु का उपदेश) को बतलाते हए आप पिता की तरह रक्षा करते हो, तथापि आश्चर्य है कि आपको छिपाते हुए भी वे लोग अपने पिता एवं पितामह आदि को नहीं छिपाते हैं / सारांश यह है कि परमपिता परमात्मा श्रीपार्श्वप्रभु को भूल कर जो केवल सांसारिक पितापितामह के प्रति आदर करते हैं वे मूढ हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पार्श्वप्रभु सारे जगत् के पिता हैं // 8 // वसुन्धरां नीरभरेरण सिञ्चन्, यथोषरानूषरयोः पयोमुक् / असत्सतोरन्यतरत्र नैव, तथोपदेशस्तव पक्षपातो // 6 // हे देव ! जिस प्रकार पृथिवी को जलवृष्टि से सींचता हुअा मेघ बंजर और उपजाऊ भूमि पर अनुचित अथवा उचित का पक्षपात किए बिना ही बुष्टि करता है उसी प्रकार आपका उपदेश भी दर्जन अथवा सज्जन का ध्यान रख कर किसी एक के प्रति उपेक्षा और किसी एक के प्रति आग्रह करते हुए पक्षपाती नहीं बनता अर्थात् दोनों के लिए आप समानरूप से उपदेश करते हैं / / 6 / / ... 1. पाणिनीयादिमते त्वात्मनेपदिवा भाव्यम् /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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