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________________ 69 वान् महावीर की भक्ति को प्रमुखता प्रदान करता है। पहले पद्य में भगवान् को सम्यग् ज्ञानरूप व्यक्त किया है। द्वितीय पद्य में अष्टमङ्गल, दिव्य थव्य-छत्रादि का वर्णन करते हुए उन्हें सालम्बन-योग का प्रापक कहा है तथा इसी सालम्बन-योग के गाढ अभ्यास से पापनिवृत्ति होने पर निरालम्बन योग की सहज सिद्धि का संकेत तीसरे पद्य से दिया है। इसी शृंखला में चरमावञ्चक योग एवं प्रातिभज्ञान की प्राप्ति तथा अन्य पद्यों में भक्ति को ही सर्वोपरि बताया है। यह स्तोत्र इस प्रकार योग और शक्ति दोनों विषयों पर प्रकाश डालता है किन्तु अन्त में भक्ति ही सब कुछ है इस बात को–'एका भक्तिस्तव सुखकरी स्वस्ति तस्यै किमन्यैः' 'कल्याणानां भवनमुदिता भक्तिरेका त्वदीया' इत्यादि कहकर 'त्वत्तो नान्यं किमपि मनसा संश्रये देवदेवम्' से अपनी अटल भक्ति दिखलाई है। यहीं अन्तिम पद्य में अपने पूज्य गुरुदेव श्रीनयविजयजी का स्मरण भी किया है। श्री उपाध्यायजी महाराज का शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल तथा योगानुभव बहुत ही गम्भीर था। जैन मन्तव्यों की सूक्ष्म एवं रोचक मोमासा करने की दृष्टि से 'अध्यात्मसागर, अध्यात्मोपनिषद्, बत्तीस बत्तीसो' आदि ग्रन्थ उनके महत्त्वपूर्ण हैं। महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्रों पर की गई उनकी छोटी-सी वत्ति आपने जैनप्रक्रिया के अनुसार लिखी है, जिसमें यथासम्भव योगदर्शन की भित्तिस्वरूप सांख्यप्रक्रिया का जैन-प्रक्रिया के साथ साम्य भी दिखलाया है। इस प्रकार यह स्तोत्र लघु होते हए भी अपनी पद्धति में अनुपम है। भाषा प्रांजल है, भाव गम्भीर हैं तथा विषय-प्रतिपादन शैली अभिनव है। इसका सार्थ प्रकाशन प्रस्तुत स्तोत्रावली में पहली बार ही हुआ है जबकि मूल रूप से 'श्रीमार्गपरिशुद्धिप्रकरणम्' में 'योगविचारभितं श्रीमहावीरजिनस्तवनम्'१ शीर्षक से सेठ ईश्वरदास मूलचन्द ने अहमदाबाद 1. पुस्तक के पृ. 73 में 'योगनिःश्रण्यारोहभक्तिरसभितम्' छपा है।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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