________________ 70.] से वि. सं. 2003 में प्रकाशित किया है। 'जैन साहित्यनो इतिहास' तथा 'यशोदोहन' में यह स्तोत्र चर्चित नहीं है। .. (9) वीरस्तव उपाध्यायजी महाराज ने न्यायशास्त्र से सम्बद्ध दो लाख श्लोकों के परिमाण में ग्रन्थ लिखे थे। आपने हंसराज नामक श्रावक को एक पत्र लिखा था, उसमें लिखा था कि-न्यायग्रन्थ बे लक्ष कीधो छई" इत्यादि / इस प्रकार जिन ग्रन्थों की रचना हुई है, वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी में लिखे गए हैं। , . 110 पद्यों में निर्मित इस स्तोत्र का नाम उपाध्यायजी ने कृति में कहीं नहीं दिया है। वैसे इसका नाम कहीं 'वीरस्तोत्र' कहीं 'महावीरस्तव', कहीं 'न्यायखण्डखाद्य' अथवा 'न्यायखण्डनखाद्य' और कहीं 'न्यायखण्डखाद्यापरनाम-महावीरस्तव-प्रकरण' भी दिया है। जबकि न्या० यशोविजय-स्मृति ग्रन्थ में 'न्यायखण्डखाद्य' को स्वोपज्ञ विवरण कहा है। ___ कृति का मुख्य विषय महावीर की वाणी-स्याद्वाद की स्तुति है। विशेषतः स्याद्वाद के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों की ओर से जो दूषण प्रस्तुत किये गये हैं उनका निरसन किया गया है और विज्ञानवाद की आलोचना की गई है। इस रचना के निर्माण में उपाध्याय जी महाराज ने लिखा है कि-'स्थाने जाने नात्र युक्ति ब्रुवेऽहं, वाणी पाणी योजयन्ती यंदाह (107), अर्थात् 'मैं यह अच्छी तरह से समझता हूँ कि इस स्तोत्र में परमत का निरास एवं स्वमत की जो प्रस्थापना सम्बन्धी युक्तियाँ प्रस्तुत हुई हैं वे मेरी सूझ न होकर साक्षात् सरस्वती द्वारा सुनियोजित की गई हैं।' अतः जहाँ यह स्तव स्तोत्र का एक अंश पूर्ण करता है वहीं स्याद्वाद दर्शन की शास्त्रीयता का भी पूर्ण उपदेश करता है। हम इसे 'शास्त्रकाव्य' की संज्ञा भी दे सकते हैं क्योंकि जैसे भट्टिकाव्यादि कुछ काव्यग्रन्थ काव्य होने