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________________ [ 111 'महाजनो येन गतः स पन्था', इति प्रसिद्धं वचनं मुनीनाम् / महाजनत्वं च महावतानामतस्तदिष्टं हि हितं मतं ते // 8 // हे जिनेश्वर ! “महाजन जिस मार्ग से गया वही मार्ग उत्तम है" ऐसा मुनियों का वचन प्रसिद्ध है और महाव्रती जनों का महाजन होना भी प्रसिद्ध है / अतः आपका हितकारी मत ही मुझे इष्ट है // 8 // समग्रवेदोपगमो न केषुचित् क्वचित्, त्वसौ बुद्धसुतेऽपि वृत्तिमान् / अशेषतात्पर्यमति प्रसञ्जकं, ततोऽपुनर्बन्धकतैव शिष्टता // 86 // समस्त वेदों का ज्ञान (अथवा उसकी प्राप्ति) कहीं किसी में नहीं है, अतः वह सर्ववेदोपगमता अथवा सर्वज्ञता बुद्धसूत में भी नहीं है। फिर यदि अशेष तात्पर्य वाले को माना जाए तो अतिप्रसंग दोष आ जाता है, अतः अपुनर्बन्धकता ही शिष्टता है अर्थात् अपुनर्बन्धकभाव ही उत्तम मत है // 86 / / न वासनायाः परिपाकमन्तरा, नृणां जडे तादृशतेति सौगताः। न कापिलास्तु प्रकृतेरधिक्रिया, क्षयं तथा भव्यतयेति ते गिरः // 10 // हे जिनेश्वर ! 'मनुष्यों की वासनाओं के परिपाक के बिना जड़ में तादृशता नहीं होती' ऐसा बौद्धों का मत है और सांख्यवादी का मत है कि प्रकृति की अधिक्रिया-क्षय के बिना तादृशता नहीं होती, किन्तु आपकी वाणी इन दोनों से विलक्षण है / / 60 / / इहापुनर्बन्धकभावमन्तरा, बिति वाणी तव कर्णशूलताम् / विना किमारोग्यमति ज्वरोदये, न याति मिष्टान्नततिविषात्मताम् // 1 // हे स्वामिन् ! इस उपर्युक्त मतमतान्तर के सम्बन्ध में आपकी . वाणी उनके लिये अपुनर्बन्धक भाव के बिना कर्णशूलता (कान के दर्द)
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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