________________ 110 ]. क्या ? फिर भी कणों से राशि पृथक् नहीं होती है / / 83 // .. स्वतः प्रवृत्तैजिन ! दर्शनस्य ते, मतान्तरश्चेत् क्रियते पराक्रिया। तदा स्फुलिङ्गमहतो हविर्भुजः, कथं न तेजः प्रसरत पिधीयते ? // 24 // हे जिनेश्वर ! स्वतः प्रवृत्त-मनगढन्त व्यवहार करने वाले मतान्तरों से यदि आपका दर्शन पराजित किया जाता है, तो महान् अग्नि को फैलते हुए तेजः स्फुलिङ्गों से क्यों नहीं ढका जाता है ? // 84 // स्फुरन्नयावर्तमभङ्गभङ्गतरङ्गमुद्यत्पदरत्नपूर्णम् / महानुयोगहदिनोनिपातं, भजामि ते शासनरत्नराशिम् // 85 // हे जिनेश्वर ! जिसमें नयनरूपी आवर्त स्फुरित हो रहे हैं, अभंग एवं भङ्गरूपी तरंगें लहरा रही हैं, उदीयमान पदरूपी रत्नों से जो परिपूर्ण है तथा महानुयोगरूपी नदियाँ जिसमें गिर रही हैं, ऐसे आपके शासनरूपी समुद्र की मैं सेवा करता हूँ // 85 / / तवोपदेशं समवाप्य यस्माद, विलीनमोहाः सुखिनो भवामः / नित्यं तमोराहुसुदर्शनाय, नमोऽस्तु तस्मै तव दर्शनाय // 86 // हे प्रभो ! जिस दर्शन शास्त्र से आपके उपदेश को पाकर हम मोह रहित एवं सुखी बनते हैं, उस अज्ञानरूपी राहु के लिये विष्णु के सुदर्शन चक्र के समान आपके दर्शन के लिये नमस्कार हो // 86 // न नाम हिंसाकलुषत्वमुच्चैः, श्रुतं न चानाप्तविनिर्मितत्वम् / परिग्रहो नो नियमोज्झितानामतो न दोषस्तव दर्शनेऽस्ति // 87 // . हे स्वामिन् ! आपके दर्शन में किसी प्रकार का दोष नही है, क्यों कि न तो उसमें हिंसा की कलुषता सुनाई देती है तथा न वह किसी अयथार्थ-अप्रामाणिक वक्ता की वह रचना है और न उसमें नियमहीनों का ग्रहण ही हुआ है / 87 //