________________ [ 106 तृणकजात्येषु यंदल्पसारता, विचक्षणरिक्षुषु दिक्षु गीयते / समग्रसारा तव भारती ततः, कथं तदौपम्यकथाप्रथासहा // 80 // हे जिनेश्वर ! तृण की जातिवाले ईख में थोड़ा सा सार-माधुर्य है तब भी विद्वान् लोग चारों दिशा में उसकी प्रशंसा करते हैं, जबकि आपकी वाणी तो सम्पूर्ण सार वाली है तब वह उस ईख की उपमा में कही जाने वाली प्रशंसा में कैसे सही जा सकती है ? // 80 // भवद्वचःपानकृतां न नाकिनां, सुरद्रुमारणां फलभोगनिष्ठता। द्विधाप्यमीषां न ततः प्रवर्तते, फलस्त्रपाभिश्च न भारनम्रता // 1 // हे देव ! आपके वचनरूपी अमृत का पान करने वाले देवों को कल्पवृक्ष के फलों का आस्वाद लेने की अब इच्छा नहीं रही, इसलिये इन वृक्षों की फलों के भार से और लज्जावश झुकने की जो स्थिति है वह दोनों ही तरह से नम्रता नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् है ही // 1 // प्रकाममन्तःकरुणेषु देहिनां वितन्वती धर्मसमृद्धिमुच्चकैः। चिरं हरन्तो बहु पङ्कसङ्करं, सरस्वती ते प्रथते जगद्धिता // 2 // हे जिनेश्वर ! प्राणियों के अन्तःकरण में धर्म की समृद्धि को पर्याप्त रूप से बढ़ाती हुई एवं समस्त पापों के समूह को पूर्णरूपेण दूर करती हुई जगत् का हित करने वाली आपकी वाणी जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त हो रही है / / 82 // स्फुरन्ति सर्वे तव दर्शने नयाः, पृथग नयेषु प्रथते न तत् पुनः। करणा न राशौ किमु कुर्वते स्थिति, कणेषु राशिस्तु पृथग् न वर्तते // 3 // हे देव ! आपके दर्शन (सिद्धान्त अथवा शास्त्र) में सभी (नैगमादि) नय शोभित हो रहे हैं, फिर भी वह दर्शन उपर्युक्त नयों से अलग . नहीं है। क्योंकि करण जो होते हैं वे राशि अथवा ढेर में नहीं रहते हैं