________________ 18 ] - हे जिनेश्वर ! स्वर्ग और अपवर्ग-मोक्षसुख को देने में सावधान ऐसे आपसे कौन अभागा व्यक्ति विषय-वासना के सुख मांगता है ? क्योंकि ऐसा कौन मूर्ख होगा कि जो बेर के फलों के लिये कल्पवृक्ष से मांग करे ? // 76 // त्वदीयसेवा विहिता शिवार्थं, ददाति भोगानपि चानुषङ्गात्।। कृषीवलाः शस्यकृते प्रवृत्ताः, पलालजालं त्वनुषङ्गसङ्गि / / 77 // ___ हे स्वामिन् ! मोक्ष के लिये की गई आपकी सेवा साथ ही साथ भोगों को भी प्रदान करती है। जैसे धान के लिये खेती करने वाले किसान को धान तो प्राप्त होता ही है पर साथ-साथ पुपाल-घास का * समूह भी मिल ही जाता है / / 77 // सितोपला त्वद्वचसा विनिजिता, तृणं गृहीत्वा वदने पलायिता। क्षणादसकुच्यत हारहूरया, ततस्त्रपानिर्गतकान्तिपूरया // 78 // हे देव ! आपकी वाणी से पराजित होकर मिश्री अपने मुंह में तिनका दबा कर भाग निकली और आपकी वाणी की मधुरिमा के सामने सुन्दर दाख भी लज्जा के मारे तत्काल सिकुड़ गई / / 78 / / रसैगिरस्ते नवभिमनोरमाः, सुधासु दृष्टा बहुधापि षड् रसाः / अतोऽनयोः कः समभावमुच्चरेद्, वरेण्यहीनोपमितिविडम्बना // 76 // हे जिनेश्वर ! आपकी वाणी नवों रसों से युक्त होकर मनोहर है जबकि अमृत में प्रायः छः रस माने गये हैं। इसलिये.आपकी वाणी और अमृत में कौन विवेकशील समानता कहेगा ? क्योंकि श्रेष्ठ वस्तु को हीन वस्तु की उपमा देना केवल विडम्बना ही है // 76 // ..