________________ [ 107 दूध से भले ही देवताओं के मन को तृप्त करती रहे किन्तु दान की कीर्ति से तृप्त नहीं कर सकती // 72 / / न पाटवं कामघटस्य दाने, भिदेलिमस्योपलतः क्षणेन / सदा प्रदानोत्सवकान्तकोति, विहाय तत्त्वां सजतीह को वा ? // 73 // हे प्रभो ! क्षणमात्र में पत्थर से फूट जानेवाले कामघट की भी दान में पटुता नहीं दीख पड़ती। इसलिये यहाँ सदा उत्कृष्ट दान देने की तत्परता से सुन्दर कीर्तिवाले आपको छोड़कर कौन व्यक्ति कामघट से कुछ मांगने के लिये तैयार होता है ? / / 73 // स्वत्तः प्रसीदन्ति हि कामधेनुकल्पद्रुचिन्तामणिकामकुम्भाः / त्वदप्रसत्तौ च तद्प्रसत्तिरिति त्वमेवासि बुर्धनिषेव्यः // 74 // हे जिनेश्वर ! यह निश्चित है कि कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामरिण तथा कामघट ये सब आपसे ही प्रसन्न होते हैं अर्थात् आपकी प्रसन्नता से ही ये प्रसन्न होते हैं और आपकी अप्रसन्नता रहने पर ये भी अप्रसन्न रहते हैं। इसलिये बुद्धिमानों के द्वारा आप ही सेवा के योग्य हैं / / 74 // कामप्रयासेन निषेव्यमाणाश्चिरं नृपाः स्वल्पकृपा भवन्ति / भवांस्तु भक्त्यैव तनोति सर्वमनोरथानित्यखिलातिशायी / / 75 // __ हे प्रभो ! शारीरिक परिश्रम पूर्वक सेवा करने पर राजा लोग थोड़ी कृपा करते हैं, किन्तु आप तो भक्ति से ही सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं, अतः आप सर्वश्रेष्ठ हैं / / 75 / / स्वर्गापवर्गापरणसावधानं, त्वां याचते वैषयिकं सुखं कः ? / कल्पद्रुमं को बदरीफलानि, याचेत वा चेतनया विहीनः // 76 //