________________ 106 ] वनं यथा पुष्पभरेण पावनं, ग्रहवा गगनं प्रकाशिभिः / तथा सदा सङ्घजनरलङ्कृतैविराजते त्वदूभवनं श्रिया धनम् // 66 // हे देव ! जिस प्रकार पवित्र वन पुष्पों की अधिकता से शोभित होता है और आकाश प्रकाशयुक्त ग्रहों से सुशोभित होता है उसी प्रकार आपका मन्दिर भी अलंकारों से युक्त संघ के लोगों से सदा पूर्ण शोभावाला रहता है / / 66 / / प्रसारयेत् कः पुरतः स्वपाणी, कल्पद्रुमस्य त्वयि दानशौण्डे ? / काष्ठत्वसंसर्गजदोषजास्य, श्रुता हि लीनालिमिषात् कुकीतिः // 70 // हे जिनेश्वर ! आप जैसे दानवीर के रहते हुए कल्पवृक्ष के आगे कौन अपने हाथों को फैलाये ? क्योंकि काष्ठ के संसर्ग से उत्पन्न उस की जो कुकीत्ति है उसे उस पर मँडराने वाले भँवरों के बहाने सुन रखी है / / 70 // लब्ध्वा भवन्तं विदितं वदान्यं, य चेत चिन्तामणिमातः कः ? विधोरिवाकेन महस्विनोऽपि, पाषारणभावेन दितं यशोऽस्य // 71 // हे देव ! आप जैसे सर्वविदित दानवीर को प्राप्त करके चिन्तामणि से आदरपूर्वक याचना कौन करे ! क्योंकि चन्द्रमा के तेजस्वी होने पर भी जैसे उसमें कलंक है उसी तरह चिन्तामणि भी पाषाण है इससे उसका यश खण्डित हो चुका है / / 71 // अभ्यर्थनीयाऽपि न कामधेनुः, प्रसद्य सद्यो ददति त्वयीश ! / . इयं पशु किमनो धिनोतु, पयोभरैरेव न दानकोा // 72 // . हे स्वामिन् ! शीघ्र प्रसन्न होकर आपके इच्छित देने पर कामधेनु भी प्रार्थना के योग्य नहीं है; क्योंकि यह पशु (कामधेनु) अपने पर्याप्त