________________ [ 105 हुए समुद्र की विशाल तरङ्गों का अनुकरण किया जाता है / 65 // मृदङ्गवेणुध्वनिभिविसृत्वरैः, समुच्छलत्पञ्चममूर्छनाभरैः / अनारतं सङ्घवृते त्वदालये, शिवश्रियो नृत्यविधिविजम्भते // 66 // हे जिनेश्वर ! आपके मन्दिर में संघ के लोग एकत्र होकर जब गुणगान करते हैं तब पर्याप्त दूरी तक फैलनेवाले पञ्चम स्वर की मूर्च्छनाओं से उठती हुई मृदङ्ग, वंशी आदि की ध्वनियों से ऐसा लगता है कि मानो मोक्षलक्ष्मी का निरन्तर नृत्य-विधान हो रहा है / / 66 / / जगज्जनानन्दन ! चन्दनद्रवस्त्वदङ्गमभ्यर्च्य ससान्द्रकुङ्कुमैः / कथं भजन्ते भुवि सङ्घमानवाः, समग्रतापप्रशमेन निर्वृतिम् ? // 67 // __ हे जगत् के जीवों को आनन्दित करनेवाले जिनेश्वर ! संघ के लोग आपके अंग पर घनी केशर से युक्त चन्दन के चूर्ण लगाकर इस पृथ्वी पर समस्त तापों की शान्ति से मिलनेवाली सुख शान्ति कैसे प्राप्त करते हैं ? तात्पर्य यह है कि लोक में जो ताप-ग्रस्त होता है, उसका ताप मिटाने के लिये चन्दन का लेप किया जाता है किन्तु यहाँ यह आश्चर्य है कि लेप आपके अंग पर करते हैं और शान्ति उनको प्राप्त होती है / (यहाँ 'असंगति' अलंकार है) / / 67 / / प्रवेक्ष्य धूमं तव चैत्यमूर्धनि, प्रसपि कृष्णागुरुधूपसम्भवम् / समुन्नमन्मेघधिया कलापिनामुदेत्यविश्रान्तमकाण्डताण्डवम् // 68 // हे जिनेश्वर ! आपके चैत्य के ऊपरी भाग पर काले अगर की धूप से चारों ओर व्याप्त धुएँ को देखकर 'बादल घिर आये हैं' ऐसा समझ कर असमय में ही मयूरों का नृत्य चलता रहता है (यहाँ भ्रान्तिमान् अलङ्कार है) // 6 //