________________ 104 ] करना ठीक नहीं होता है / 61 / / प्रलं कलङ्करिणतः परेषां, निर्गुणैरेव तवास्ति शोभा। महोभरैरेव रवेः प्रसिद्धिः, पतङ्गनिन्दानिकरैः किमस्य ? // 62 // ____ हे जिनेश्वर ! अन्य देवों के कलंकों का कथन करना व्यर्थ है क्यों कि आपकी तो अपने ही गुणों से शोभा है। जैसे कि तेज के समूहों से ही सूर्य की प्रसिद्धि होती है, उसके लिये पतंगों की अधिक निन्दा करने से क्या लाभ है ? // 62 / / कृतप्रसर्पद्रथचक्रचूरिणतक्षमारजः-कैतवपाप चूर्णनैः / अनारतं त्वं जिन ! सङ्घनायकरुपास्यसे मङ्गलनादसादरैः // 63 // हे जिनेश्वर ! चलते हुए रथों के चक्रों से चूणित पृथ्वी की रज के बहाने से पापों को चूर्ण करनेवाले संघ के नायकों के द्वारा आदर-पूर्वक निरन्तर आपकी उपासना की जाती है / / 63 / / स्त्रियः प्रियध्यानमुपेत्य तन्वते, तथा पुरस्ते जिन ! सङ्घसङ्गताः / यथा तदाकर्णनजातविस्मया, भवन्ति सर्वाः स्तिमिताः सुरप्रियाः // 64 // हे देव ! संघ में मिली हुई स्त्रियाँ आगे आकर इस प्रकार स्तुतिरूप गुणगान करती हैं, जिसको सुनकर विस्मय पूर्ण चित्तवाली सभी देवाङ्गनाएँ स्तब्ध हो जाती हैं / 64 / / प्रियस्वनैः सङ्घजनस्त्वदालयप्रदक्षिणादानपरायणघनैः / महान्तरीपं परितः प्रसृत्वरा, अनुक्रियन्ते जलधेर्महोर्मयः // 65 // हे जिनेश्वर ! आपके मन्दिर की प्रदक्षिणा करने में तत्पर बहुत से संघजनों के प्रियशब्दों से किसी बड़े अन्तरीय-द्वीप के अासपास फैले